कुत्ते आदमी की तरह नहीं रोते थे, आदमी ही कुत्तों की तरह रोते थे
धर्मेश
04 सितम्बर 2025
मैं बस में बैठा देख रहा था कि सारे लोग धीरे-धीरे जाग रहे थे। बड़ी अदालत ने राजधानी की सड़कों पर से आवारा कुत्तों को शहर से हटाने का फ़रमान जारी किया था। कितनी अजीब बात थी, कई महीनों से पुलिस इसी शहर से कुछ आदमियों को हटा रही थी। जितनी बहस अब हो रही है, उसकी आधी बहस भी इन अभागों के लिए होती तो वे दिल्ली छोड़कर नहीं जाते।
मेरा दिमाग़ ठीक से काम नहीं करता। कभी-कभी लगता है, लोग आदमियों से ज़्यादा कुत्तों से प्रेम करते थे। मैं यह प्रेम समझ सकने में असमर्थ था, लेकिन प्रेम कोई समझ की वस्तु तो थी नहीं। मैं जिस आदमी से प्रेम करता था, वह मुझे प्रेम नहीं करता था। मैं कुत्तों की तरह रोता था, तब भी नहीं करता था। लेकिन वह कुत्तों से प्रेम करता था। कुत्ते आदमी की तरह नहीं रोते थे, आदमी ही कुत्तों की तरह रोते थे।
मुझे लगता है कि यह कितनी अजीब बात है; आदमी बात-बात पर कुत्ता हो जाता है, कुत्ता कभी भी आदमी नहीं होता। ‘किंक’ समाज में आदमी को उसकी मर्ज़ी से कुत्ता बनाने की परंपरा है। वैसे आदमी अपनी मर्ज़ी से कम और दूसरे की मर्ज़ी से ज़्यादा कुत्ता होता है। कुत्ता किसी की भी मर्ज़ी से आदमी नहीं होता। मर रहा होगा, तब भी नहीं होगा और ऐश से होगा तब भी नहीं होगा। कुत्ता मर रहा होगा तो भी आदमी की मौत नहीं मरेगा। आदमी जी रहा होगा तो कुत्ते की ज़िंदगी जी रहा होगा और मरेगा भी तो कुत्ते की मौत मरेगा। जिस कुत्ते पर उसका मालिक महीने के पचास साठ हज़ार ख़र्च करता है, वह भी आदमी की ज़िंदगी नहीं जीता। लेकिन बीस-बाईस हज़ार महीना कमाकर आदमी ख़ूब कुत्ते की ज़िंदगी जीता है।
नहीं, कई बार आदमी कुत्ते से भी बुरी ज़िंदगी जीता है। कहीं सैकड़ों कुत्तों को मारकर गाड़ दिया जाता और उस ज़मीन पर फूल गोभी बो दी गई होती तो जाने क्या होता। यह तो रहम है कि केवल आदमियों के साथ यह हुआ। कोई कुत्ते का बलात्कार करके जेल जाता है, तो उसके लिए कभी रैली नहीं निकलती है। न ही कोई कुत्ते का बलात्कार कर जेल से आता है, तो उसे कोई माला पहनाता है। आदमी का बलात्कार करने पर विधायक का पद तय था। हत्या से मंत्री और नरसंहार से प्रधानमंत्री भी बना जा सकता था, लेकिन कुत्ते की हत्या करने से भारी पाप होता है।
कुत्तों को शहर से बाहर करने पर सब लोग परेशान हैं। आदमियों के शहर के बाहर रहने से कोई परेशान नहीं है, बल्कि शहर बनाते ही हैं कि कुछ आदमियों को उससे बाहर रखा जा सके। आदमियों को देस के बाहर भी फेंका जा सकता था और उससे भी कोई परेशान नहीं होता है, लेकिन कुत्तों को इस तरह बाहर करना ठीक बात नहीं थी। यूँ तो इस तरह कुत्तों और आदमियों की तुलना करना भी ठीक बात नहीं है। कुत्तों का ओहदा आदमियों से अलग होता है। अगर कोई कुत्तों को गोला-बारूद से मार रहा होता तो दो साल तक कोई चुप नहीं रहता, रहना भी नहीं चाहिए। कुत्तों को भूख से मरते देख क्रूर-से-क्रूर हृदय में दया-भाव आ जाता है। आदमियों को भूख से मरते देखकर कोई भी भाव नहीं आ पाता है। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि उसके घर में कुत्ता होता तो ज़्यादा आराम से जीवन जीता।
कुत्ता भी लेकिन एक-सा नहीं होता है। एक कुत्ता धोबी का होता है, एक राजा का होता है, एक मेमसाहब का होता है; लेकिन अदालत ने इन्हें हटाने को नहीं कहा है। जो गली मोहल्ले का कुत्ता होता है, अदालत ने उसे हटाने को कहा है। मेमसाहब का कुत्ता पर्स में और राजा का महल में रहता है। धोबी का कुत्ता कहाँ रहता है, यह मैं नहीं जानता। लोग बताते हैं, बहुत दिन हुए वो न घर पर रहा, न घाट पर। गली मोहल्ले का कुत्ता तो ख़ैर गली-मोहल्ले में रहता है।
गली-मोहल्ले में किसी का भी रहना ठीक नहीं माना जाता है। कुत्ते भी अपनी गली में किसी और को नहीं आने देते हैं, लेकिन गली-मोहल्ले पर अपना इतना अधिकार नहीं होता है कि किसी को आने से पूरा रोक दिया जाए। दूसरी गली का कुत्ता रोटी खोजते अपनी गली में दिखाई दे जाए, तो कुत्ते उसे भौंकते हुए अगली सड़क तक दौड़ा लेते हैं। वैसे ही भूखा आदमी आ जाए तो उसे दुत्कारा जा सकता है, आदमी पागल हो तो उसे गाली देनी पड़ती है और अगर वो आदमी बधाई माँगने आए तो आफ़त हो जाती है। लेकिन सबसे बुरा तब होता है, जब कोई आदमी चूड़ी बेचने आ जाए। उसे मार-पीटकर पुलिस को सौंप देने से ही अपनी गली और रामराज्य की मर्यादा बनाई-बचाई जा सकती है।
राजा और मेमसाहब जब अपने कुत्ते लेकर निकलते हैं तो दूसरे कुत्तों को जलन भी होती है। उनका बस चले तो उसे काट खाएँ। अलग से मिल जाए तो झपट पड़े। गली के आदमी के घर गाय का मांस आसानी से मिल जाता है, उसे मारना हो तो कटहल की सब्ज़ी भी मांस हो सकती है। मरी गाय का मांस कुत्ते भी खाते हैं। कुत्ते कभी-कभी आदमी के बच्चे का मांस भी खा जाते हैं। इन सबसे कुत्तों को दोष नहीं लगता, लगना भी नहीं चाहिए। आदमी को आदमी होने से दोष लगता है।
जिन दिनों मैं जंगल के आदमियों के साथ रहता था, सोचता था कि जब ये आदमी चले जाएँगे तो इन कुत्तों का क्या होगा? मैं चाहता था, कोई ये भी सोचे कि जब ये जंगल के आदमी जंगल से चले जाएँगे तो इनका क्या होगा? इनके बच्चों का क्या होगा? जंगल का क्या होगा? लेकिन ये सोचने की फ़ुर्सत थोड़ी कम थी। कुत्तों के बारे में सोचने के बाद आदमियों के बारे में सोचना दिमाग़ की फ़िजूलख़र्ची है। फ़िजूलख़र्ची से बचना चाहिए। कुत्ते फ़िजूलख़र्ची नहीं करते। वे जितनी भूख हो, बस उतनी ही रोटी खाते हैं। वे रोटी के लिए लड़ते हैं, तो सिर्फ़ इसी उद्देश्य से कि उनकी भूख मिटे। आदमी की भूख रोटी भर की नहीं होती है। होती भी हो तो उसे रोटी मिले, यह ज़रूरी नहीं। दिन भर मेहनत करता हो तो भी पेट भर की रोटी मिले, यह ज़रूरी नहीं है। उसके देश पर दशकों से हत्यारों का क़ब्ज़ा हो और वह सड़े-गले कूड़े से बिनकर अपनी दो साल की बेटी को कुत्ते का खाना खिला रहा हो तो भी उसे रोटी मिले, यह ज़रूरी नहीं है।
कुत्तों को रोटी के साथ रोज़ चिकन और अंडा भी खिलाना चाहिए। आदमी को दिन और महीना देखकर खाना चाहिए। दुकान पर नाम लिखकर और सबसे छुपकर खाने से ख़तरा कम है, लेकिन खाते हुए पकड़े जाने पर कुत्ते की मौत मरने के लिए तैयार रहना चाहिए। मैं दिल्ली में जहाँ पहले किराए पर रहता था, वहाँ रोज़ रात कुत्तों को खाना खिलाने के लिए चार-पाँच लोग निकलते थे। आदमियों को खाना खिलाने उस मोहल्ले में कोई रोज़ निकलता हो, यह मैंने अभी तक नहीं देखा है।
मैं नहीं मानता कि कुत्तों के लिए अदालत का क़ानून ज़्यादा दिन तक टिकेगा। टिकना भी नहीं चाहिए। लोकतंत्र में जितनी जगह अदालत और संसद की है, उतनी ही कुत्तों की भी है। आदमियों के बारे में यह बात ठीक-ठीक नहीं कही जा सकती है। अब चाहे वह आदमी रोटी के लिए मीलों चलकर आया हो या अपने देस में कुत्ते की मौत मरने से भागकर।
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