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कवियों के क़िस्से वाया AI

भरतपुर की वह दुपहर साहित्य की ऊष्मा से भरी हुई थी। हवा में हल्की गर्मी थी, लेकिन सभा-गृह के भीतर विचारों की शीतल छाया पसरी हुई थी। देश का स्वतंत्रता-संग्राम अपने चरम पर था और साहित्यकार इस संघर्ष के मौन सेनानी बने हुए थे—कभी क़लम से, कभी कविता से, कभी व्यंग्य और निबंध से। उसी समय भरतपुर में संपादकों का एक सम्मेलन आयोजित हुआ, जहाँ देश के विख्यात साहित्यकार, पत्रकार और चिंतक एकत्र हुए। उनके बीच वह विराट व्यक्तित्व भी उपस्थित था, जो अपने शब्दों से जैसे धरती को नयी चेतना देता था—पंडित माखनलाल चतुर्वेदी।

सम्मेलन के सभागार में जब माधवराव किबे ने अपना निबंध पढ़ना प्रारंभ किया, तो वातावरण में एक गंभीरता उतर आई। वह विचारशील और इतिहास-संवेदनशील व्यक्ति थे। उनके निबंध का विषय था—प्राचीन भूगोल और भारतीय पुराणों में समुद्र का विस्तार।

उन्होंने कहा, “बहुत पहले, जब भू-खंडों की रचना अपने प्रारंभिक रूप में थी, तब हिंद महासागर विन्ध्य पर्वत तक फैला हुआ था। इसीलिए, रामायण में वर्णित ‘लंका’ वर्तमान श्रीलंका नहीं, बल्कि अमरावती के आस-पास कहीं रही होगी।”

सभागार में हलचल-सी हुई। अनेक विद्वानों के चेहरों पर जिज्ञासा, कई के चेहरों पर मुस्कान और कुछ के चेहरों पर आशंका झलक रही थी। यह विचार नया था, किंतु कल्पना में आकर्षक भी।

माधवराव किबे के निबंध ने पुरातत्व और काव्य—दोनों की सीमाएँ धुंधला दी थीं। उनके शब्दों ने जैसे समुद्र को विन्ध्य की तलहटी तक खींचा था, और पुरानी लंका की छवि अमरावती के धूल-धूसरित कणों में चमक उठी थी।

सभा के अंत में श्रोताओं की ओर से प्रश्नों का दौर शुरू हुआ। माखनलाल चतुर्वेदी मुस्कराते हुए बैठे रहे, जैसे किसी गहरे विचार में हों। उनके भीतर कविता और जीवन एक-दूसरे से संवाद कर रहे थे। शायद वह सोच रहे थे कि लंका कहीं भी रही हो, रावण अब भी मनुष्य के भीतर जीवित है।

सम्मेलन समाप्त हुआ, और लेखकगण समूहों में बाँटकर लौटने लगे। शाम का समय था, भरतपुर की गलियों में सूर्य की अंतिम किरणें महल की झील में ढल रही थीं। माखनलाल चतुर्वेदी अपने कुछ मित्रों के साथ बाहर निकले। रास्ते में बातचीत हँसी-मज़ाक में बदल गई। साहित्यकारों की थकान का यही उपचार था—एक दूसरे को परिहास में डुबो देना।

उनके एक निकटस्थ मित्र, जो स्वयं अवध से थे, हँसते हुए बोले—“महाराज! अब तो आपने सुन ही लिया कि लंका अमरावती में थी। हम तो अवधवासी हैं, आज्ञा दीजिए—लंका-विजय के लिए कब आएँ?”

यह वाक्य जैसे किसी चिंगारी की तरह था—छोटा, पर भीतर तक पहुँचने वाला। माखनलाल चतुर्वेदी के होंठों पर हल्की मुस्कान आई। उनके चेहरे पर वही तिक्त-मधुर व्यंग्य झलकने लगा, जो उनके लेखन की पहचान था।

वह तनिक रुके, फिर बोले—“आपका आगमन शिरोधार्य है, परंतु इसके पूर्व अपनी सीता का हरण तो करा लीजिए।”

वातावरण ठहाकों से भर गया। लेकिन यह वाक्य केवल हँसी नहीं था—यह व्यंग्य का वह तीर था, जो समाज की आत्मा को छू जाता है। माखनलाल चतुर्वेदी का उत्तर किसी क्षणिक मज़ाक़ से नहीं, बल्कि गहरी प्रतीकात्मक चेतना से उपजा था। उनकी बात में एक निहितार्थ छिपा था—लंका-विजय केवल बाहरी नहीं, भीतरी संघर्ष भी है।

रावण केवल सोने की लंका में नहीं बसता, वह मनुष्य की वासनाओं, उसकी स्वार्थ-सिद्धि, उसके छल और दंभ में भी निवास करता है। जब तक हम अपने भीतर की ‘सीता’—यानी सत्य, पवित्रता और करुणा—का हरण नहीं देखेंगे, तब तक किसी भी लंका पर विजय अधूरी रहेगी।

उनके उस उत्तर में पूरा युग बोल रहा था। वह युग जब स्वतंत्रता संग्राम अपने निर्णायक मोड़ पर था, जब सच्चाई और छल, बलिदान और स्वार्थ, नीति और राजनीति के बीच सीमाएँ टूट रही थीं। माखनलाल चतुर्वेदी का वह एक वाक्य—“अपनी सीता का हरण करा लीजिए”—जैसे समूचे राष्ट्र के लिए चेतावनी था।

वह कह रहे थे—“पहले यह जानो कि तुम्हारे भीतर कौन-सी सीता क़ैद है, कौन-सा रावण उसे ले जा चुका है। उसके बिना तुम्हारी तलवार, तुम्हारा युद्ध, तुम्हारी विजय—सब व्यर्थ हैं।”

रास्ते में चलते हुए भी लोग उस संवाद को दोहरा रहे थे। किसी ने कहा—“कितनी सहज बात कही है!”

दूसरे ने जोड़ा—“पर इसमें एक पूरा दर्शन है।”

और सच भी यही था—माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में जो सहजता थी, वही उनकी शक्ति थी। वह वाणी को ज्ञान से नहीं, अनुभव से पवित्र करते थे।

रात ढलने लगी थी। भरतपुर का आकाश तारों से भरा हुआ था। कहीं दूर से किसी मंदिर की घंटी की ध्वनि आई। माखनलाल चतुर्वेदी चुपचाप आसमान की ओर देखते रहे। शायद उन्हें वहाँ भी कोई सीता दिख रही थी—क़ैद, मौन, परंतु अविजित। और वह मन-ही-मन मुस्करा उठे—लंका चाहे अमरावती में हो या समुद्र पार, उसकी विजय का अर्थ तभी है, जब मनुष्य पहले अपने भीतर के रावण को पहचान ले।

उस दिन भरतपुर की गलियों में केवल एक परिहास नहीं गूँजा था—वहाँ एक युग-प्रसंग ने जन्म लिया था, जो आज भी साहित्य के इतिहास में उस व्यंग्य के साथ चमकता है—“आपका आगमन शिरोधार्य है, परंतु इसके पूर्व अपनी सीता का हरण तो करा लीजिए।”

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