काग़ज़ी है पैरहन : इस्मत चुग़ताई के बनने की दास्तान
सुशील सुमन
21 अगस्त 2025
उर्दू गद्य साहित्य की बेहतरीन और बहुचर्चित हस्ताक्षर इस्मत चुग़ताई की आत्मकथा है—‘काग़ज़ी है पैरहन’। यह किताब इस्मत चुग़ताई की शुरूआती ज़िंदगी और उनकी निर्मिति की कहानी को बहुत रोचक अंदाज़ में बयाँ करती है। लोगों का यह कहना बिल्कुल ठीक है कि इस कृति से गुज़रना, इस्मत की आत्मकथा से ज़्यादा एक मुक़म्मल उपन्यास से गुज़रने जैसा है। यह किताब इस्मत चुग़ताई की निगाह से आज़ादी से ठीक पहले के भारतीय मुस्लिम मध्यवर्ग के रहन-सहन, खान-पान, पढ़ाई-लिखाई, रीति-रिवाज, शादी-ब्याह, पुरुष वर्चस्व, स्त्रियों की दशा, रोग-दुख, हिंदू-मुस्लिम घरों के आपसी रिश्ते, धार्मिक कश्मकश आदि का भी दिलचस्प वर्णन करती है।
अभी हाल ही में जन्माष्टमी बीती है। इस किताब के आरंभ में ही जन्माष्टमी से जुड़ा एक मार्मिक वाक़िया है। इस प्रसंग के माध्यम से यह समझने में मदद मिलेगी कि हमारे घरों में, चाहे वह हिंदू परिवार हो या मुस्लिम परिवार, किस तरह से बचपन में ही धार्मिक भेदभाव को हमारे दिमाग़ में बैठा दिया जाता है। इस्मत के बचपन की बात है। उनकी एक सहेली थीं—सूशी। उनके यहाँ जन्माष्टमी का त्यौहार मनाया जा रहा था। जिज्ञासावश इस्मत वहाँ पहुँच जाती हैं, जहाँ कृष्ण की मूर्ति रखी है। ख़ैर... इस प्रसंग को मैं सुनाऊँ, इससे बेहतर है कि सीधे इस्मत चुग़ताई के शब्दों में ही आप पढ़ें। वह लिखती हैं—
बचपन की आँखें कैसे सुहाने ख़्वाबों का जाल बुन लेती हैं। घी और लोबान की ख़ुशबू से कमरा महक रहा था। बीच कमरे में एक चाँदी का पलना लटक रहा था। रेशम और गोटे के तकियों और गद्दों पर एक रुपहली बच्चा लेटा झूल रहा था। क्या नफ़ीस और बारीक काम था! बाल-बाल ख़ूबसूरती से तराशा गया था। गले में माला, सर पर मोरपंखी का मुकुट।
और सूरत इस ग़ज़ब की भोली! आँखें जैसे लहकते हुए दिये! ज़िद कर रहा है, मुझे गोदी में ले लो। हौले से मैंने बच्चे का नरम-नरम गाल छुआ। मेरा रोआँ-रोआँ मुस्करा दिया। मैंने बे-इख़्तियार उसे उठाकर सीने से लगा लिया।
एकदम जैसे तूफ़ान फट पड़ा और बच्चा चीख़ मारकर मेरी गोद से उछलकर गिर पड़ा। सूशी की नानी माँ का मुँह फटा हुआ था। हज़ियानी कैफ़ियत तारी थी, जैसे मैंने रुपहली बच्चे को चूमकर उसके हलक़ में तीर पैवस्त कर दिया हो।
चाचीजी ने झपटकर मेरा हाथ पकड़ा, भागती हुई लाईं और दरवाज़े से बाहर मुझे मरी हुई छिपकली की तरह फेंक दिया। फ़ौरन मेरे घर शिकायत पहुँची कि मैं चाँदी के भगवान की मूर्ति चुरा रही थी। अम्माँ ने सर पीट लिया और फिर मुझे भी पीटा। वह तो कहो, अपने लालाजी से ऐसे भाईचारे वाले मरासिम थे; इससे भी मामूली हादिसों पर आजकल आए-दिन ख़ूनख़राबे होते रहते हैं। मुझे समझाया गया कि बुतपरस्ती गुनाह है। महमूद ग़ज़नवी बुतशिकन था। मेरी ख़ाक समझ में न आया। मेरे दिल में उस वक़्त परस्तिश का एहसास भी पैदा न हुआ था। मैं पूजा नहीं कर रही थी, एक बच्चे को प्यार कर रही थी।
वह दौर ऐसा था, जब औरतों को हतोत्साहित करने में घर-परिवार के पुरुषों के साथ-साथ तमाम औरतें भी जी-जान से लगी रहती थीं। इस्मत के इर्द-गिर्द भी ऐसे लोगों की तादाद कम न थी। लेकिन उन्हें अपने एक भाई और पिता की ओर से काफ़ी समर्थन और मार्गदर्शन मिला। इस्मत चुग़ताई के लिखे से पता चलता है कि उनकी शुरूआती निर्मिति में उनके भाई उर्दू के प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक अज़ीम बेग चुग़ताई और उनके पिता का बड़ा योगदान था। वह अपनी आत्मकथा में लिखती हैं—
अज़ीम बेग चुग़ताई की शह पाकर मैंने क़ुरान का तर्जुमा, हदीसें और मुस्लिम हिस्ट्री पढ़ी और अपने अब्बा के बुज़ुर्ग दोस्तों के बीच में बैठकर अपनी ताज़ा-ताज़ा मालूमात का इज़हार करना शुरू किया। मेरी अम्माँ धक से रह गईं और हस्बे-आदत जूती सँभालीं, मगर अब्बा की शह पाकर मैंने अपने वालिद के मुअम्मर दोस्तों की सोहबत में बहुत कुछ सीखा।
प्रसंगवश यहाँ ज़िक्र करना मुनासिब होगा कि कालांतर में अज़ीम बेग चुग़ताई से इस्मत या उनके परिवार के बाक़ी सदस्यों का संबंध अच्छा नहीं रहा, जिसके लिए अज़ीम बेग चुग़ताई का विचित्र व्यवहार काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार रहा, लेकिन उनके निधन के बाद इस्मत चुग़ताई ने उनको याद करते हुए ‘दोज़खी’ शीर्षक से एक बेहतरीन संस्मरण लिखा है। बहुत मर्मस्पर्शी। वह संस्मरण एक नायाब गद्य का नमूना है।
इस्मत चुग़ताई ने ‘काग़ज़ी है पैरहन’ में ख़ुद के निर्माण विविध सोपानों और उसमें भूमिका निभाने वाली तमाम चीज़ों और शख़्शियतों के बारे में विस्तार से लिखा है। प्रत्येक प्रसंग का ज़िक्र करना तो यहाँ संभव नहीं है, प्रत्येक क्या, इस भरी-पूरी किताब में दर्ज सभी प्रमुख प्रसंगों और बातों की चर्चा भी नामुमकिन है, लेकिन एक दो और बातों का ज़िक्र कर मैं फ़िलहाल अपनी बात समाप्त करूँगा। उनकी ज़िंदगी में किताबों की भूमिका के बारे में उन्होंने बहुत महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं। उसका एक अंश यहाँ साझा करना चाहता हूँ। वह लिखती हैं—
ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा मुझे किताबों ने मुतास्सिर किया है। मुझे हर किताब से कुछ-न-कुछ मिला है, अपनी ज़्यादातर उलझनों का जवाब उनमें ही ढूँढ़ा और पाया है। किताबें क़रीबतरीन दोस्त और ग़मगुसार साबित हुई हैं। हज़ारों महरूमियाँ, तारीकियाँ इन्हीं दोस्तों के सहारे झेली हैं। हर किताब के मुसन्निफ़ को मैंने एक क़िस्म का रिश्तेदार महसूस किया है। नाम कहाँ तक गिनाऊँ। हॉर्डी, ब्रांटी सिस्टर्स से शुरू करके बर्नार्ड शा तक पहुँची। मगर रूसी अदीबों ने ज़्यादा मुतास्सिर किया कि जब अक़्ल और होश को किसी राहबर की तलाश थी तब इन किताबों से मुठभेड़ हुई। पोलिटिकल फ़िलासफ़ी ख़ुश्क़ मज़मून रही और रूसी अदब ज़ेह्न के कोने-कोने में जज़्बहो गया। चेख़व को तो मैं आज भी बरकत के लिए आमोख़्ता के तौर पर पढ़ती हूँ। जब कोई कहानी क़ाबू में नहीं आती, पता नहीं चलता कहाँ से शुरू करूँ, कहाँ ख़त्म करूँ, तो मैं दिमाग़ी वर्ज़िश के लिए चंद कहानियाँ चेख़व की पढ़ डालती हूँ। एकदम ज़ेह्न पर धार-सी रख जाती हैं, और क़लम चल निकलता है।
पढ़ने के अलावा अपने लेखन के सिलसिले में भी इस्मत चुग़ताई ने ‘काग़ज़ी है पैरहन’ में काफ़ी बातें की हैं। उन बातों को पढ़ने से उनके लेखन की प्रक्रिया, लेखन के उद्देश्य के साथ-साथ उनकी लेखकीय यात्रा में साथ देने वाले लोगों के बारे में भी पता चलता है। उन लोगों को याद करते हुए इस्मत लिखती हैं—
ज़िंदगी में जिससे भी वास्ता पड़ा उसने अपना नक़्श दिमाग़ पर छोड़ा। अज़ीम भाई के बाद मेरे दोस्त, सहेलियाँ, उस्ताद और राह चलते मिलनेवाले। डॉक्टर अशरफ़ ने कितने ही सवालों को सुलझाया। डॉक्टर रामविलास शर्मा ने बिखरे हुए तारों को जोड़कर एक सिलसिला क़ायम करने में सहारा दिया। कृश्न चंदर की कहानियों में अजीब-अजीब नाज़ुक पत्थरों से मुलाक़ात हुई।
फ़ज़लुर्रहमान, प्रो-वाइस चांसलर, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, से तो जब भी मिलती हूँ उन्हें डिक्शनरी की तरह इस्तेमाल करती हूँ। किसी भी ड्रामा या शेर का हवाला दीजिए, फिर वह सुनाते चले जाएँगे। उन्होंने अनजाने तौर पर मुझे बहुत पढ़ाया है। शाहिद लतीफ़ से शौहर के अलावा एक और रिश्ता था, जब दोस्ती के मूड में आ जाते थे तो बहुत घुटती थी। गो शादी दोस्ती की मौत है, मगर हमारी दोस्ती ने बड़ी ढिटाई से साथ दिया। मेरी तमाम नाविलों और कहानियों पर वह नज़रे-सानी किया करते थे।
इस तरह की अनगिनत बातों से ‘काग़ज़ी है पैरहन’ नामक यह किताब भरी पड़ी है, जिससे हमें उर्दू कथा साहित्य की आलातरीन अफ़सानानिगार इस्मत चुग़ताई के बनने की कहानी पता चलती है। इसके साथ ही इस किताब में ऐसे अनगिनत वाक़ियात भी दर्ज हैं, जिनसे तत्कालीन हिंदुस्तान के मुस्लिम शहरी के जीवन और दृष्टि का हमें पता चलता है। इस्मत चुग़ताई के बारे में ज़रा भी दिलचस्पी रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस किताब को पढ़कर बहुत अच्छी पाठकीय अनुभूति होगी, इसमें संदेह नहीं!
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