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जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से

जेएनयू द्वारा आयोजित वर्ष 2012 की (एम.ए. हिंदी) प्रवेश परीक्षा के परिणाम में हर साल की तरह छोटे गाँव और क़स्बे इस दुर्लभ टापू की शांति भंग करने के लिए घुस आए थे। हमारी क्लास एलएसआर और मिरांडा हाउस जैसे नामी कॉलेज और करणीकृपा महाविद्यालय और इमरतीदेवी महाविद्यालय जैसे अज्ञात-अनाम कॉलेज के अनमेल मिश्रण से उत्पन्न अजीब संक्रमण का नमूना थी। यहाँ आकर हमने पहली बार जाना कि अगर आत्मविश्वास हो तो कम पढ़ाई में भी आप इंटलेक्चुअल दिख सकते हो। 

डीयू वाले/वालियों के पास अथाह आत्मविश्वास था, वहीं गाँव-देहात से आने वालों का आत्मविश्वास मरा हुआ था। पार्लर की ख़ुशबू के आगे पसीने की गंध दब गई थी। ज्ञान का फ़र्क़ न था, बस फ़र्क़ ख़ुद पर भरोसे का था। जेएनयू में पढ़ने के क्रम में पता चला कि इमरतीदेवी महाविद्यालय का बुद्धुराम बुडानिया और डीयू से संबद्ध प्रतिभा पाराशर एक जैसे हैं। उनका ज्ञान और सोचने का तरीक़ा एक जैसा है। नाम भर का फ़र्क़ रहा। पूरे देश का हिंदी अकेडमिया इन्हीं के भरोसे चल रहा है, उसका भविष्य भी यही है। 

हमारी विधिवत् शिक्षा जेएनयू में ही शुरू और संपन्न हुई। एक से बढ़कर एक गुणी अध्यापकों ने हमें पढ़ाया, जो अपने विषय के ज्ञाता थे। यही कारण है कि वहाँ पढ़ने के बाद कोई कमज़ोर अध्यापक हमारे गुरुवत् सम्मान का पात्र न बन सका। जेएनयू क्लासरूम के क़िस्सों की यह शृंखला उन दिनों को स्मृत करने का एक प्रयास भर है। इसका उद्देश्य न तो किसी का स्तुतिगान करना है और न ही किसी के चरित्र को गिराना है। घटनाएँ सच्ची हैं, संबंधित प्रोफ़ेसर को छोड़कर सभी छात्रों के नाम भर बदल दिए गए हैं। 

एक

हमारे पहले सेमेस्टर के लिए एक पेपर ‘हिंदी भाषा का उद्भव और विकास’ निर्धारित था। यह पेपर विख्यात प्रोफ़ेसर वीरभारत तलवार पढ़ाते थे, जो अपनी आलोचकीय दृष्टि के लिए जाने जाते हैं। हमारे यहाँ आने से पहले स्थानीय कॉलेज के अध्यापक हमें बता चुके थे कि भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी के ‘पितर’ हैं। जबकि भारतेंदु को लेकर तलवार जी का नज़रिया बहुत अच्छा नहीं था। हमें पिछले कॉलेज में यह भी बताया गया था कि हिंदी की माँ संस्कृत है और साहित्य संस्कृतनिष्ठ भाषा में ही खिलता है आदि-आदि...। प्रो. तलवार बोलने-लिखने में सरल भाषा के पक्षधर थे। उनके अनुसार जो भारी-भारी शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनके पास कहने के लिए कोई बात नहीं है। ऐसे लोग अपनी थोथी बातों को चकित करने वाली शब्दावली में प्रस्तुत करते हैं, ताकि उनका अज्ञान छिपा रहे। पहले ही टेस्ट पेपर में लक्ष्मण नाम के एक विद्यार्थी ने प्रश्न का उत्तर संस्कृतनिष्ठ भाषा में लिखा। उत्तर ठीक-ठाक था, लेकिन सर को बनावटी भाषा चुभ गई, पूछा : “तुम गोरखपुर से तो नहीं हो?’’

लक्ष्मण : जी सर...

सर : तुम्हें लगता है कि एवरेज मुँह वाले उत्तर को महँगे कपड़े पहनाकर मुझे मूर्ख बना पाओगे

लक्ष्मण : ऐसा नहीं है सर। हो सकता है, मेरी भाषा गड़बड़ हो, लेकिन मेरा उत्तर ग़लत नहीं है।

सर : मैं तुम्हारे नंबर इसलिए नहीं काट रहा कि तुमने उत्तर ग़लत लिखा है, बल्कि इसलिए काट रहा हूँ कि तुमने भारी-भारी शब्दों से औसत चीज़ की लीपा-पोती कर मुझे गुमराह करने की कोशिश की है।

लक्ष्मण : ठीक है सर! लेकिन मुझे आपसे एक बात और पूछनी है। आपको कैसे पता चला कि मैं गोरखपुर से हूँ।

सर : ऐसी भ्रामक भाषा मठों में ही बोली जाती है। अब बैठ जाओ।

दो

प्रो. तलवार वर्तनी पर बहुत पैनी नज़र रखते थे। अगर पूरे पेपर में एक जगह भी वर्तनी की अशुद्धि मिल जाती तो वह हिंसक हो जाते थे और नंबर काटने की किसी भी हद तक जा सकते थे। क्लास में नंबर सुनाने से पहले वह घोषणा करते थे, “आप चाहें तो मुझसे पूछ सकते हैं कि आपके नंबर कम क्यों आए?” एक विद्यार्थी अजीत यादव ने पेपर में वाक्य लिखा : “इसके बावजूद भी अपभ्रंश से हिंदी का संबंध...।”  प्रो. तलवार को ‘बावजूद’ के साथ ‘भी’ का प्रयोग अखर गया। जैसी संभावना थी, नंबर काटे गए। आशानुरूप नंबर नहीं मिलने पर अजीत ने सर से कम नंबर देने का कारण पूछा तो सर ने जवाब दिया : “तुम्हें अतिरिक्त की आदत लग गई है, इसलिए सब कुछ अतिरिक्त ही चाहिए। नंबर भी अतिरिक्त चाहिए, ‘बावजूद’ के साथ ‘भी’ भी चाहिए। ऐसे नहीं चलेगा।”

मेरे टेस्ट पेपर में मैंने ‘यानी’ को ‘यानि’ लिखा। उत्तर ठीक था, लेकिन मुझे बी-प्लस ग्रेड में निपटा दिया गया, जो बहुत कम मानी जाती थी । परिणाम आने के बाद उनके चैंबर के सामने कम नंबर पाने का कारण जानने वालों की लाइन लगती थी। मैं भी उसी लाइन में लगा था। मेरा नंबर आया। पहला ही सवाल : “कहाँ से पढ़कर आए हो?”

मैं : महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय से।

प्रो. तलवार : तुम्हारे वहाँ आज भी महाराजा होते हैं?

मैं : नहीं सर, कॉलेज का नाम है, जैसे जेएनयू है।

तलवार : तुम यहाँ आ कैसे गए, तुम्हें तो ‘यानी’ लिखना भी नहीं आता। अगर ऐसे ही रहा तो मैं तुम्हें एम.ए. पास नहीं करने दूँगा।

मैंने कहा : सर, किताबों में यही पढ़ा है मैंने, लिख दिया होगा किसी ने; जैसे आपने अपनी किताब ‘रस्साकशी’ में आगरा को बार-बार आगरे लिखा है।

तलवार जी ने कहा : ‘‘मैं लिख सकता हूँ, क्योंकि टेबल के इस तरफ़ हूँ। जब तुम इस तरफ़ आ जाओ तो ‘यानी’ को ‘यवन’ लिखना। अभी तो जो मैं कहूँगा, वही करना पड़ेगा।”

तीन

हर सेमेस्टर में 20 नंबर का एक सेमिनार पेपर होता था, जिसका प्रश्न कई दिन पहले बता दिया जाता था और उसे घर से ही लिखकर लाना होता था। बाद में उसे पूरी कक्षा के सामने मौखिक रूप में प्रस्तुत किया जाता था। सहपाठी और अध्यापक उससे संबंधित सवाल पूछते थे, जिसके आधार पर नंबर मिलते थे। प्रो. तलवार रामविलास शर्मा को बहुत मानते थे, उन्होंने हमें सेमिनार का विषय दिया—“हिंदी जाति की अवधारणा पर रामविलास शर्मा के विचारों की विवेचना कीजिए।”  रामविलास शर्मा को पढ़ने के क्रम में एक समस्या यह आती थी कि उनकी जो मान्यता पहली पुस्तक में है, कुछ वर्ष बाद वह उसी को ख़ारिज करके कुछ और कह देते थे। 

जगरूप विश्नोई नाम के एक छात्र ने रामविलास शर्मा की हिंदी जाति विषयक मान्यताओं को एक जगह करके सेमिनार पेपर लिख दिया। तलवार जी ने उससे पूछा : “इसमें तुम्हारी क्या विवेचना है? तुम तो रामविलास जी की ही मान्यताएँ लिखकर ले आए। आलोचना भी करनी थी।”

जगरूप ने भोलेपन से कहा : “सर, मैं रामविलास जी के विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ।”

तलवार जी : तो बताओ, मैं अब नंबर किसे दूँ? तुम्हें या रामविलास शर्मा को?

अंततः सबसे मुख़ातिब होकर कहा : “अगर किसी को ग़लतफहमी है कि रामविलास जी को पढ़े बिना वह एम.ए. कर लेगा तो मन से निकाल दे।” हालाँकि विश्नोई रामविलास शर्मा को पढ़े बिना एम.ए. करके गया।

चार

प्रो. तलवार इस बात पर हमेशा ज़ोर देते थे कि भले ही आपके विचार कमज़ोर हों, अलग हों; लेकिन उसके लिए आपके तर्क होने चाहिए। अगर आपके पास तर्क है तो आप किसी से भी असहमत हो सकते हैं। उनकी नज़र में कोई आलोचक इतना बड़ा और संपूर्ण नहीं था, जिसकी आलोचना संभव न हो! वह चाहते थे कि विद्यार्थी में आलोचकीय विवेक विकसित हो; इसलिए वह नक़ल और उधार के ज्ञान, दोनों को अच्छा नहीं मानते थे।

दिल्ली के चर्चित कॉलेज से पढ़ी हुई एक छात्रा दामिनी ने सेमिनार पेपर की प्रस्तुति में शानदार प्रदर्शन किया। पूरी क्लास चकित थी कि क्या शानदार लिखा है। पेपर पढ़ चुकने के बाद जब वह बैठने लगी तो तलवार जी ने कहा : “धन्यवाद नहीं दोगी?”

उसने कहा, “सॉरी सर, आपको धन्यवाद।”

तलवार जी : “मुझे नहीं।”

वह बोली, “आपको और मेरे सभी सहपाठियों को बहुत-बहुत धन्यवाद।”

तलवार जी ने कहा, “नहीं, धन्यवाद ‘किंग चैंपियन’ कुंजी के उस लेखक को दो, जहाँ से तुमने अपना पूरा पेपर टीपा है और उसका नाम तक नहीं लिया।”

बाद में हमें पता चला कि डीयू की तरफ़ इस नाम की कोई कुंजी चलती है, जिसमें बने-बनाए प्रश्न-उत्तर मिलते हैं। तलवार जी कहीं भी किताबों की दुकान में जाते थे तो सभी अच्छी-बुरी मैगज़ीन पढ़ जाते थे, जिनमें ऐसी कुंजियाँ भी शामिल होती थीं।

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