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जब कहानी पाठक को किरदार बना ले

साहित्य कोई महासागर है, कहानी उसमें बहने वाली धारा—शीत भी, उष्ण भी। वहीं से निकलती है, वहीं समा जाती है। सदियों से यह क्रम चल रहा है। धर्म और लोक रंग में रंगी हुई कथाएँ भी कही-सुनी जाती रही हैं। कहानी, उन कथाओं से इतर है। विविध रंगों से रंगे हमारे टुकड़ा-टुकड़ा संसार को जोडने वाली धारा है—हिंदी-कहानी।

बुज़ुर्ग हथेलियों की ऊष्मा, युवा चेहरे की रंगत—कहानी। कहानी, जैसे स्त्री के दिल में शुद्ध-अशुद्ध रक्त घुल मिल गया हो, जैसे पुरुष के फेफड़ों में शहर की प्रदूषित वायु से ज़्यादा एकाकीपन भर गया हो; जैसे एक बच्चे का हवाई जहाज़ गाड़ीवान की बैलगाड़ी का पहिया लगाकर भी रनवे पर दौड़ पड़ा हो।

आइए, कुछ चुनिंदा हिंदी कहानियों के माध्यम से जाने किस तरह हम अपने अस्तित्व को खोकर कहानी का ही पात्र बन जाते हैं। दो पंक्तियों के बीच के रिक्त स्थान की पूर्ति करते हुए वहीं भर जाते हैं।


कहानी : भेड़िये | लेखक : भुवनेश्वर

खारू बंजारा ने मुझसे यह कहानी कही, उसका वह ठोस तरीक़ा और गहरी बेसरोकारी, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता, पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूँ, इसका एक-एक लफ़्ज़। समय के प्रबंधन और अदम्य साहस से भरी कहानी है यह।

खारु किसी चीज़ से नहीं डरता, हाँ सिवा भेड़िये के। एक भेड़िया नहीं, दो-चार नहीं, भेड़ियों का झुंड—दो सौ-तीन सौ—जो जाड़े की रातों में निकलते हैं और दुनिया की सारी चीज़ें जिनकी भूख नहीं बुझा सकतीं, उन शैतानों की फ़ौज का कोई भी मुक़ाबला नहीं कर सकता। लेकिन अजीब-सी सर्दी की उस सुबह में उसने और उसके बाप ने वह किया जब वो ग्वालियर के राज से आईन आ रहे थे, बैलों के गड्डे में गिरस्ती और तीन नटनियों के साथ। बीस मील निकल आए थे, तब भेडियों ने पीछा शुरू किया, भेडिये दस मील पीछे थे, पचास मील और जाना है। 

आसान नहीं था पुरानी जंग लगी देसी बंदूक़ से भेडियों पर निशाना साधना, एक-एक मील का हिसाब रखना; थके, झाग उगलते बैलों के लिए गड्डे को हल्का करना, डर से काँपती नटनियों को बहुत बेरहमी से नीचे धकेल देना, कोई चारा न बचने पर बुड्ढे बाप का भी कूद पड़ना ताकि बेटा और बैल बच जाएँ। 

कहानी : तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम | लेखक : फणीश्वरनाथ रेणु

उसके बापू को बेटे की तरह बैल भी बहुत प्यारे थे, जैसे हिरामन को थे। होते क्यूँ नहीं? उसके बैलों ने सब गाड़ीवानों के बीच उसकी लाज रखी थी। बाघगाड़ी में जुत गए, बड़ी हिम्मत दिखाई। फ़ारबिसगंज का हर चोर व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता। उस देहाती नौजवान को अपनी गाड़ी और बैलों के सिवाय किसी में दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन अबकि बार ज़नानी सवारी बैठी उसकी गाड़ी में, नौटंकी वाली हीरा बाई। 

हिरामन उसकी मुस्कान की ख़ुशबू में डूब गया, भूल गया कि वो गाड़ीवान है। हीराबाई ठहरी नौटंकी वाली, उसे तो जाना ही था। उसके जाने के बाद हिरामन ने तीसरी क़सम खाई, किसी कंपनी की औरत की लदनी नहीं करेगा। पर अब तक जो उसकी गाड़ी में चंपा का फूल महक रहा है, उसका क्या करे? 

कहानी : बदबू | लेखक : शैलेश मटियानी

हिरामन सुगंध से खीझ रहा था। दूसरी ओर ‘वह’ आदमी, अपने हाथों से आ रही केरोसीन की दुर्गंध से परेशान था, जो साबुन से धोने पर भी जाती नहीं। फ़ैक्ट्री में सब कहते हैं—“घोड़े के पीछे और अफ़सर के आगे कौन समझदार जाएगा। नौकरी है तो नौकर की तरह रहना चाहिए”

...परन्तु वह असहमत है इससे। एक रोज़ हाथ धोने के बाद वह परेशान हो जाता है। उसे बदबू नहीं आती। क्या वह भी आदी हो गया है? वह अपने हाथ बार-बार सूँघता है, अंततः उसे घासलेट की बू आती है। 

कहानी : शक्करपारे | लेखक : मनोहर श्याम जोशी

वह प्रसन्न है, घर लौटकर देखता है कि पड़ोसियों का गट्टू मुन्ना हवाई जहाज़ बना हुआ है, चुनमुन शक्करपारे खा रही है। वह बहुत हसरत से उन शक्करपारों को देखता हुआ चुनमुन से कह रहा है, “तू मुझे शक्कर पारे देगी, तो सवारी करने मिलेगी” 

यह सुनते ही चुनमुन सब-के-सब शक्कर पारे एक साथ मुँह में धर लेती है। ग़ुस्से में गट्टू मुन्ना उसको दो तीन घूंसे जड़ देता है। चुनमुन रोने लगी। रोना सुनकर, माँ घर से बाहर आती है। मसाले वाले हाथों से दोनों को चपत लगा देती है। कुछ देर रोने के बाद गट्टू मुन्ना कहता है, “हम दोनों की शक्ल बंदर जैसी लग रही है... चल पनवाड़ी के ऐने में देखें...”

कहानी : यही सच है | लेखिका : मन्नू भंडारी

बचपन बीत गया। गट्टू मुन्ना—निशीथ हो गया और चुनमुन—दीपा।

दोनों को एक दूजे की आदत हो गई, आदत प्रेम में बदल गई; फिर एक दिन प्रेम-धागा टूट भी गया।

दीपा शहर आ गई, वहाँ रजनीगंधा के फूलों की तरह से महकता उसका प्यार मिला—संजय। लेकिन दीपा का एक बार फिर से निशीथ से अरसे बाद मिलना हुआ, मिलकर उसे लगा वो निशीथ को ही चाहती है, संजय को नहीं। 

भ्रमित दीपा, निशीथ को चिट्ठी लिखती है, जवाब में निशीथ की ओर से ख़ालीपन मिलता है और फिर संजय की बाँहों में वह ख़ालीपन दम तोड़ देता है।

कहानी : परिंदे | लेखक : निर्मल वर्मा

एक अनिर्वचनीय सुख है प्रेम, जो पीड़ा लिए हुए है। पीड़ा और सुख को डुबोती हुई उमड़ते ज्वार की ख़ुमारी, जो दोनों को अपने में समा लेती है। दीपा और संजय को देखकर लतिका यही सोचती है। उसे इस देवदार के नीचे गिरीश के साथ बिताया हुआ बहका-सा, पगला क्षण याद आ गया। गिरीश कितना नर्वस था?
 
आज भले ही वह दुनिया में न हो किंतु जब भी पलट कर देखती है, उसे उसकी वही मुस्कान दिखाई देती है; मगर मीडोज़ से लेकर वादियों में शब्द गूँजते सुनाई पड़ते हैं—“लेट द डेड डाई”

कहानी : खोयी हुई दिशाएँ | लेखक : कमलेश्वर

ऐसा लतिका कभी नहीं कर सकती। उसकी तो जीते जी सब दिशाएँ गुम हो गई हैं, फिर भी उसे यहाँ सब परिचित लगता है। 

लतिका को चंदर का ख़याल सताता है। चंदर एक शहर में अपनी ही खोई हुई पहचान तलाश रहा है। बेरोज़गारी में उसे अपना शहर अजनबी लगने लगा है। घर जाकर उसे थोड़ा-सा अपनापन लगता है। पत्नी की देह-गंध और स्पर्श अपना लगता है, पर कुछ देर को ही। रात के अँधेरे में अपने अस्तित्व को खो देने की अनुभूति तीव्र हो जाती है। पत्नी को जगाकर पूछता है—तुम मुझे पहचानती हो?

वह उनींदी आँखों में कौतुहल भरे उसे देखती है। 

कहानी : चीफ़ की दावत | लेखक : भीष्म साहनी

चंदर कहाँ गुम हो गया? उसे कैसे बताऊँ? माँ से मिलने गई थी, उनकी आँखों की रोशनी चली गई है। दो महीने पहले भैया ने अपने चीफ़ को घर पर दावत दी थी। चीफ़ को माँ के हाथ की फुलकारी भा गई। भैया ने माँ को कहा यदि वह फुलकारी बना देगी तो उनका प्रमोशन होगा।

माँ फुलकारी बन गई, आँखें जाती रहीं। न भैया को दया आई, तरक़्क़ी की सूचना।

कहानी : भोला राम का जीव | लेखक : हरिशंकर परसाई

कहीं फ़ाइलों में होगी वह अर्ज़ी | स्वयं नारद जी आएँ पृथ्वी पर, तब भी नहीं खोज सकते किस फ़ाइल में है? यह बात अलग है, मुनिराज ने भोला राम के खोए हुए जीव को ढूँढ़ निकाला था, परंतु साथ नहीं ले जा पाए। वह तो बस पेंशन की दरख़्वास्तों में ही रहना चाहता था।

कहानी : छोटा जादूगर | लेखक : जयशंकर प्रसाद

वैसे, उसका जी जब फ़ाइलों से उचट जाता है, वह शहर में चल रहे कार्निवल की तरफ़ निकल पड़ता है। छोटा जादूगर तमाशा दिखाता है जहाँ। छोटे जादूगर के पिताजी देश के लिए जेल में हैं और माँ बीमार हैं, उसे अपनी बीमार माँ इलाज के लिए पैसा चाहिए।  

छोटा जादूगर, वह 13-14 वर्ष का बालक जब खेल दिखाए तो उसके सब खिलौने खेल में अपना अभिनय करने लगें। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। गुड़िया का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। भोला राम का जीव सोच रहा था, देखो बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।

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