हम भले होने के अभिनय से ऊब चुके हैं
बसंत त्रिपाठी 10 अप्रैल 2024
तुम्हें थोड़ा-सा पिघला हुआ होना चाहिए। पिघला हुआ यानी नरम और मुलायम, ज़रा पानी-पानी-सा। दाईं आँख ने कहा।
तुम्हें थोड़ा कम झुँझलाना चाहिए। दूसरों को सुनने के दिखावटी अपार धैर्य से जन्मी खीझ को अपने दिमाग़ पर हावी होने से बचाना चाहिए। बाईं हथेली ने कहा।
तुमने पिछली बार कब इनकार में ‘नहीं’ कहा था? माथे पर उभरी रेखाओं ने तुनककर पूछा। और जोड़ा भी—यूँ हरहमेश सबके लिए तैयार रहना ठीक नहीं।
अपनी जेब को हर बार पूरा-पूरा उलट देने के बाद इतने ख़फ़ा और परेशान क्यों रहते हो? तुम्हें अपनी जेब को ख़ाली करने और उस ख़ालीपन के बोझ को दिमाग़ में भरने के ख़िलाफ़ कोई युक्ति ढूँढ़नी चाहिए। दाएँ हाथ की कानी उँगली ने अपनी धीमी आवाज़ में सलाह दी।
पूरा शरीर शिकायती था। जैसे यह मेरा शरीर न हो, मेरे आस-पास रहने वाला मेरा परिचित हो। मेरा द्वेषी। मुझसे जुड़ा और मुझसे कुढ़ा।
किसी ने नहीं कहा कि :
आओ, थोड़ी देर बादलों में छुपने को आतुर इस चाँद को निहारें।
आओ, थोड़ी देर ओस में चुपचाप भीगें।
आओ, थोड़ी देर रात की रेशमी ठंडी हवा में बहें।
आओ, थोड़ी देर दिल से उठ रहे धुएँ को बारिश की ओर मोड़ दें।
आओ, थोड़ी देर के लिए दिमाग़ की गर्म नसों पर चाँदनी से भीगा फाहा फैला दें।
अपनी आत्मा की तड़पन में फँसे प्रियवर, आओ कि साहिर की पंक्ति को जिएँ
कि आओ कि कोई ख़्वाब बुनें।
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यह रात आवारा मवेशियों की तरह मेरे चैन के खेत को यूँ तहस-नहस क्यों कर देती है?
रात की नींद मेरे लिए कोई दिलकश ख़्वाब लेकर क्यों नहीं आती?
माना कि यह दुनिया गर्म रेत में तड़पते नंगे पैरों की गाथा है, लेकिन दुनिया की ठंडी चाँदनी क्या अगुआ कर ली गई है?
कब से एक उम्मीद से भरे पत्र का इंतज़ार कर रहा हूँ; लेकिन डाकिया आजकल सिवाय बिजली बिल, पत्रिकाओं-क़िताबों और चालान के, कुछ नहीं लाता। कहीं उस पुराने डाकिए की छँटनी तो नहीं कर दी गई? हालाँकि जब कुछ लिखकर कोई पत्रपेटी में डाल ही नहीं रहा तो डाकिया भला कहाँ से लाएगा? डाकिए इस दुनिया के आख़िरी जीवित संदेश-वाहक हैं और उनमें से भी कई अब सामान्य डाक उड़ाने की जुगत में रहने लगे हैं।
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पहले दीवार घड़ियाँ अपनी सुंदर घंटियों की मार्फ़त बीत गए समय की सूचना देती थीं। तरह-तरह की सुरीली आवाज़ों वाली घड़ियाँ। मंदिर की घंटी और अज़ान से लेकर चिड़ियों-प्राणियों और तरह तरह की मानवीय बोलियों से सजी आकर्षक आवाज़ों वाली घड़ियाँ। ये आवाज़ ही घड़ियों की पहचान थीं। घंटाघर इन्हीं आवाज़ों के शहरी सामूहिक रूप।
फिर दीवार घड़ियाँ धीरे-धीरे बेआवाज़ होती गईं। ध्यान से सुनने पर ही टिक्-टिक् सुनाई पड़ती। अन्यथा वे अपने अकेलेपन में बैठक की किसी दीवार पर लटकी चुपचाप बीते समय की गवाह की तरह अपनी उदासी में रहना सीख गईं थीं। सुरीलेपन में अब किसी की दिलचस्पी नहीं रह गई।
यह न्यूक्लियर परिवार का समय था। एकल परिवार... एकाकी परिवार...
दीवार घड़ियाँ सुंदर, महँगी और बेआवाज़ होती चली गईं।
घंटी की संख्या गिनकर समय का पता रखने वाले बच्चे बड़े हो गए।
नींद उनके हिस्से में बहुत कम रह गई थी।
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हाँ, हम थक गए थे। बहुत ज़्यादा थक गए थे। हम हँसते-हँसते इतना ज़्यादा थक गए थे कि इससे ज़्यादा थकने की गुंजाइश नहीं थी। हम इतना ज़्यादा इससे पहले शायद ही थके हों। थककर हम सो गए। अब हम मच्छरों के हवाले थे। सारी रात वे हमारा ख़ून पीते रहे। उड़-उड़कर ख़ून पीते-पीते वे भी थकने लगे। लेकिन ख़ून पीने की चाहत को छोड़ न सके। जब हमारी नींद खुली तो देखा कि कई मच्छर इतना ज़्यादा ख़ून पी चुके थे और इतना ज़्यादा थक चुके थे कि उड़ने में असमर्थ थे। कई तो हमारे शरीर पर अपना डंक चुभोए सो रहे थे। उनमें डंक निकालने तक की ताक़त नहीं बची थी। हम छोटी-छोटी लाल फुंसियों वाले शरीर के साथ जागे। और जागकर उन्हें मसल दिया।
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मेरी याददाश्त धीरे-धीरे छुई-मुई में बदलती जा रही है। ज़रूरत की उँगलियाँ जब भी उन्हें छूतीं, वे तुरंत बंद हो जातीं। फिर लाख जतन करे कोई, खुलती ही नहीं। हाँ, लेकिन जब अकेली होती; ख़ुद से ख़ूब बातें करतीं। गुज़री ज़िंदगी के तमाम कोने-अंतरे रोशनी से नहाकर चमकदार हो उठते। ज़िंदगी के अँधेरे तक साफ़-साफ़ दिखाई पड़ने लगते। धूल की परतें उसके तीखेपन को छुपा नहीं पाती।
लेकिन यह सब अकेले में होता।
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सभ्यता को झाड़-बुहारकर, और पोटली में बाँधकर बस्ती के पिछवाड़े इमली के पेड़ पर टाँग दिया गया था। कभी-कभी जब हवा चलती और पोटली हिलने लगती तो लोगों को लगता कि इमली के पेड़ में एक नए क़िस्म के भूत ने बसेरा बना लिया है।
भूत अभी पेड़ पर ही टँगा था, लेकिन उसकी छाया लोगों के दिमाग़ में डोलने लगी थी। लोग अपनी उदासी और नाउम्मीदी से क़तई नाख़ुश थे। उन्हीं लोगों ने भूत से याचना की—हे महाभूत! अब आप इमली के पेड़ का परित्याग कर हमारे दिमाग़ के सिंहासन में विराजें। हम भले होने के अभिनय से ऊब चुके हैं। हम अब नृशंस होना चाहते हैं। हमारे दिमाग़ में हिंसा के तार अब छिड़ने को आतुर हैं। हम पर कृपा करें करुणानिधान!
सभ्यता ने भूतों से बदतर लोगों की याचना स्वीकार कर ली और इस तरह भूतावतार का अवतरण हुआ।
लोग शायद ही कभी जान पाएँ कि यह झाड़-बुहारकर और पोटली में लपेटकर टाँग दी गई सभ्यता ही थी।
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मैं केवल अपने ख़यालों में पेड़ था। मज़बूत तना, गहरी जड़ें, हरे-कत्थई पत्ते, फूलों और उनके इर्द-गिर्द मँडराती मधुमक्खियों, पंछियों और शाख़ों पर अटखेलियाँ करतीं गिलहरियों और कहीं से चली आतीं चींटियों के साथ एक भरा-पूरा पेड़। लेकिन पेड़ होने का यह एहसास समूह में अपना विश्वास खो देता। समूह में तो मैं केवल एक लता था—मज़बूत लेकिन निर्भर। मज़बूत इतना कि आप उससे झूला भी बना सकते हैं। टार्ज़न की तरह लटककर अगली या पिछली जगह पहुँच सकते हैं। मैं अपनी लयात्मक लोच और वृक्षात्मक मज़बूती के साथ घना, पत्तीदार; लेकिन कभी-कभी आक्रामक और काँटेदार भी हो उठता हूँ। काँटे मेरी त्वचा की भीतरी तह में और दिल की गहराइयों में और दिमाग़ के खोखल में अपनी नोक पर मुस्कुराहट का ढक्कन लगाए हुए आराम करते रहते हैं। ऐसे फ़ाउंटेन पेन के ढक्कन, जिसकी स्याही कभी ख़त्म नहीं होती!
मैं अपने फ़ाउंटेन पेन की निब से भी तुम्हें घायल कर सकता हूँ।
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दो उदासियों में शुरू हुई कहा-सुनी बढ़ते-बढ़ते मल्लयुद्ध की हद तक पहुँच गई। दोनों मेरे भीतर रहना चाहती थीं, लेकिन अकेले ही। दूसरे को सहन करने की स्थिति में वे नहीं थीं। मैं डर गया।
मैंने उल्लास को आवाज़ दी। लेकिन मेरी आवाज़ उस तक नहीं पहुँची। या शायद सो रहा था वह क्योंकि फ़ोन की घंटी से भी कोई उत्तर नहीं मिला। हो सकता है कि उसका फ़ोन भी चुप्पी की गिरफ़्त में हो।
मेरे पास सिवाय दोनों उदासियों की जिरह सुनने के और कोई चारा नहीं था।
पहली ने कहा—मैं मनुष्य न हो पाने की पीड़ा से जन्मी हूँ।
दूसरी का कहना था—मैं समाज में मनुष्य के असफल हो जाने के दुःख से पैदा हुई हूँ।
हम दोनों एक साथ किसी के भीतर नहीं रह सकते। कोई एक ही रहेगा तुम्हारे भीतर। लेकिन कोई एक ज़रूर रहेगा। तुम्हारे पास इनकार का कोई विकल्प नहीं है। ये दोनों ने एक साथ कही।
उल्लास का कॉलबैक अब तक नहीं आया था।
मैंने दूसरी उदासी से कहा—तुम दिन भर मेरे साथ रहो। रात के थोड़ा पहले तक। फिर तुम आराम करना। और ओ उदासी नंबर एक, रात जब मैं बिस्तर में जाने की तैयारी करूँ, नींद के दरवाज़े पर दस्तक दूँ, सपने जब मेरी नींद में फैलने को तैयार हो चुके हों, तब तुम चली आना। तुम दोनों मुझे आधा-आधा बाँट लो। क्रमशः आती-जाती रहो।
ठीक है। हम ऐसा ही करेंगे। दोनों ख़ुश थे।
निर्णय पर मैंने मुहर लगा दी। लिफ़ाफ़ा सीलबंद हो गया। मुझसे दोनों ने ही नहीं पूछा कि इस व्यवस्था से मैं भी ख़ुश हूँ या नहीं? उदासियाँ भला किसी से क्यों पूछें। वे तो बस आ जाती हैं!
उल्लास का फ़ोन उसके बाद आया।
मैंने फ़ोन नहीं उठाया।
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मेरे चश्मे में लेंस की जगह किसी ने आईना लगा दिया है। मैं बाहर नहीं देख पाता हूँ। भीतर ज़्यादा दिखता है। हमेशा ही। इसे लोगबाग बिल्कुल नहीं जानते।
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इस प्रस्तुति में शामिल हुए चित्र : निकिता त्रिपाठी
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