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जीवन के गरिष्ठ सुक्खल गल्प में बेहयाई की रसीली बहक

एक दिन मेरी एक लगभग-मित्र ने कहा कि उसने ‘बेहयाई के बहत्तर दिन’ पहली सिटिंग में पचास पेज पढ़ ली। मैं लज्जा से अपना मुँह चोरवाने लगा कि दो महीने बाद भी किताब पूरी नहीं पढ़ पाया हूँ, जबकि झोले में किताब-नोटबुक रखकर जंगल-पर्वत-झाड़ी-कुंज ईटीसी घूमता रहा हूँ। 

फिर भी एक पैराग्राफ़, एक-दो पेज पढ़कर ही वह पाठकीय सुख मिल जाता रहा, जिसके आस्वाद को चुभलाते हुए दिन बीतते रहे। बाबा परमोद एकाध बार स्वप्नदर्शी हुए, हड़काया कि अबे ससुर! जब तक राहुल गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनेगा तब तक पढ़ते ही रहोगे क्या? 

मैंने सपने में उत्तर दिया, “बाबा लोड मत बढ़ाइए और भी काम होते हैं। मैं कोई रमाशंकर सिंह तो हूँ नहीं, जो धड़ाधड़ किताबें पढ़कर उनकी फोटुएँ चिपकाता जाऊँ। मुझे मज़ा लेने दीजिए। वैसे भी इस किताब में कोई सोशल साइंस तो है नहीं, मज़ा ही है, तो थोड़ा लंबा चले!” प्रगट में मैंने लगभग-मित्र से कहा—“वाह यार, ग़ज़ब पढ़वैया हो।” 

मुझे इस किताब में इतना मज़ा मिला कि उस मज़े के और इस किताब के व्याकरण को थोड़ा समझने का जी कर रहा है। कहा तो यह है कि यह मोस्टली चीन से डील करती है, लेकिन इसमें किसी दांग वान की कोई पांडुलिपि, कोई क्लैरिनेट, कोई तोमास, कोई प्रिंसेप, कोई नयनमोहन घोषाल और कोई दिलीप हेंब्रम भी पर्याप्त हैं। 

ये सब कौन हैं? क्या हैं? मुझे नहीं लगता कि लेखक को भी इसकी हवा है। वे हैं जैसे चीन में लेखक है। वह विज़ाग या मैंगलोर या जमशेदपुर या अंबाला में भी रहता तो किताब और लेखक का ज़ायका वही रहता होता जैसा है। चीन में भी चीन कम है, लेखक ही ज़्यादा है। मानो वह किसी नए भूगोल से ज़्यादा अपने ही मन के किसी नए कोने में चला गया था। 

इच्छा हुई कि यार, अपने से निकलकर ज़रा बाहर भी दिखा दो। दो-चार नायिकाएँ, बूढ़-पुरनिया लोग, उनको तुमने कैसे रिझाया, उन सभी ने तुम्हारे खेलवाड़ को कैसे एंटरटेन किया; इन सब के अलावा भी तो कुछ कहो! चीन गए हो तो कुछ गोबी दिखाओ, कुछ झील, कुछ पहाड़-पठार, कुछ उइगुर, कुछ तिब्बती, कुछ याक वगैरह। लेकिन नहीं। 

दो वाक्य दिखाएँगे फिर दस पेज यह बताने में खर्च करेंगे कि श्वा वेन और गाओपिंग कैसे मिली, कैसे बिछड़ी। हिंदी के लेखक हो बाबा, हिंदी-लेखन के लिए पाठक का ज्ञानवर्धन करना अत्यावश्यक जैसी चीज़ है। उड़ान से काम नहीं चलेगा, भले ही पाँच हज़ार साल पुरानी उड़ान ले लो। 

इंफ़ैक्ट यह उड़ान है, यात्रा-वृत्तांत नहीं है। इसमें यात्रा खोजना वैसा ही है, जैसे इतिहास में गल्प या गल्प में इतिहास खोजना। गल्प और आख्या को इतिहास बनाना तो सीखा होगा इतिहासकारों और समाज-विज्ञानियों से ज़माने ने, यहाँ यह कारोबार उल्टा चल रहा है। इसीलिए समझ में नहीं आ रहे हैं प्रमोद सिंह।

दिमाग़ पर इतिहास का पर्दा चढ़ा हुआ है। 

मैं किताब पढ़ने के दौरान एक दिन इसके प्रकाशक की फ़ेसबुक-वॉल विचर रहा था। वहाँ एक लेखक की पुरानी पोस्ट दिखी, जिसे प्रमोद सिंह की डाँट पड़ जाए तो उसकी लाइफ़ सफल हो जाए—टाइप कुछ लिखा था। मेरी प्रमोद सिंह से एकाध बार की बातचीत है। वह काफ़ी प्रिंसिपलाना अंदाज़ में बात करते हैं। 

गाओपिंग भी कहती हैं—“...वहीं गिरिजा गाओपिंग कुमारी माथुर कोई दूसरे ही ख़ुराफ़ात में दिमाग़ पेरे थीं। हमसे बोलीं, आप सबसे ऐसे ही बात करते हैं?”

मैंने कहा, “कैसे बात करते हैं? ऐसा कौन बात बोल दिए कि तुम अनारकली की तरह गर्दन हिलाने लगी?”  (पृष्ठ सं. 158, बेहयाई के बहत्तर दिन)

इस अंदाज़ से आदमी हड़क भी सकता है। उस पर लोटपोट भी हो सकता है। (यहीं दर्ज कर दूँ, आ रहा है तो क्यूँ टालूँ! पक्का भोजपुरिया आदमी है लेखक। औरतों के साथ खेलवाड़ करेगा, पुरुषों-बूढ़ों के साथ बौद्धिक खेलवाड़ करेगा। समझेगा कि समझ में नहीं आ रहा है।) 

दरअसल यही प्रमोद के गद्य की कुंजी है। जो हड़क गया, उसे तो ना पल्ले पड़ेगी बेहयाई की यह बहक। जो लोटपोट होने लगा, उसी के मज़े हैं। दरअसल सफल होने जैसे सस्ते शब्दों को हड़कने जैसी सस्ती क्रियाओं से ही जोड़ा जा सकता है। गुदगुदी का असफलता से गहरा नाता है। फ़ेल होओ, सुखी रहोगे। पास होगे तो नई वाली हिंदी के लेखक बन जाओगे। 

लेकिन, यह बहक क्या सिर्फ़ बहक के लिए है? क्या इस गद्य के लिए सिर्फ़ यह कहा जा सकता है कि यह एक सुंदर गद्य है? मैंने ऐसी उड़ती-उड़ती बातें सुनी हैं। बात यह है कि यह बहक दिशाहीन नहीं है। यह उड़ान किसी अनजान ग़ैब-नुमा जगह के लिए नहीं है। 

एक लय है जो शायद निरर्थकता और सार्थकता के सवालों के पेंडुलम पर झूलते और उनके परिणाम भुगतते हुए बहुत लंबी निरपेक्षता के बाद हासिल होती होगी। (जीवन जब बहुत गझिन हो जाता है, तब लगता है कुछ निकलेगा। फिर उस गझिनता को पेरते, कुछ निकलने के इंतिज़ार में दिन बीतते रहते हैं। जब वे बीत जाते हैं तो हाथ आता है अफ़सोस। हाय! आख़िर इतनी बर्बादी में क्या हाथ आया? इंतिज़ार, अफ़सोस...?)

इस गद्य की सुंदरता की जान इसमें अंतर्भुक्त अफ़सोस और फ़्रस्ट्रैशन में बसती है, जिससे अनुनादित हुए बिना उस धड़क को महसूस नहीं किया जा सकता। भोजपुरी का सिग्नेचर व्यंग्य समझे बिना इसमें रमा नहीं जा सकता। ज्ञान के उपयोगितावादी पैमानों पर इसे तौला नहीं जा सकता। 

इक़बाल की एक पंक्ति का यहाँ याद आना थोड़ा नाटकीय लग सकता है, लेकिन याद आ रही है—ख़ाकी है मगर इस के अंदाज़ हैं अफ़्लाकी” अगर पाठक के अंदर सचमुच सभ्यतागत दरारें धड़कती होंगी, अगर वो भूगोल और भाषा को सिर्फ़ भूगोल और भाषा नहीं समझते होंगे, अगर वो साढ़े तीन अरब साल को समय नहीं समझते होंगे, फिर तो वे डूब जाएँगे इस किताब में। बाहर निकालने में ग्रोव प्रेस से छपी सोसुआ तनाका की किताब मदद करेगी।

लेकिन यह लेखक इरिटेटिंग भी है, जैसे अक्सर भोजपुरी, अवधी और ब्रज के बाबा लोग होते हैं। कितना कोई पढ़े इसका रोना, इसकी गँवई मुग्धता? बूढ़ी औरतों और बच्चों को खेलवाड़ और भदेस स्नेह में जाहिल जपाट कहता लेखक स्वयं गँवारू तरीकों से अपने इमोशनल फ़ूल होने का मुज़ाहिरा किए चला जाता है। 

दूसरा, भोजपुरियाने का इसे बहुत शौक़ है। सोचता हूँ भोजपुरी में इस किताब का अनुवाद हो जाए तो पडरौना, छपरा और आरा के युवा और पुरनिए इस भोजपुरिया चीनी सनक को किस तरह अकबकाते हुए देखेंगे? गरियाएँगे कि लजाएँगे, अगराएँगे कि मुस्कियाएँगे? या कुफ़्र-कुफ़्र कहते हुए हनुमान चलीसा पढ़ने लगेंगे? 

जानने के लिए देखें ‘बेहयाई के बहत्तर दिन’—पृष्ठ संख्या 85-86 और पाठक मेरे हवा-हवाई दावों पर ना जाएँ। किताब पढ़ें, चीन और मयूरभंज की सैर करें। शंघाई में श्वा वेन जितनी नहीं रमी थी, शायद उससे ज़्यादा आप रम जाएँ। मेरा क्या है, मैंने तो किताब आख़िरकार ख़त्म कर ली।

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