सपनों के-से दिन
sapnon ke-se din
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा दसवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
मेरे साथ खेलने वाले सभी बच्चों का हाल एक-सा होता। नंगे पाँव, फटी-मैली सी कच्छी और टूटे बटनोंवाले कई जगह से फटे कुर्ते और बिखरे बाल। जब लकड़ी के ढेर पर चढ़कर खेलते नीचे को भागते तो गिरकर कई तो जाने कहाँ-कहाँ चोट खा लेते और पहले ही फटे-पुराने कुर्ते तार-तार हो जाते। धूल भरे, कई जगह से छिले पाँव, पिंडलियाँ या लहू के ऊपर जमी रेत-मिट्टी से लथपथ घुटने लेकर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस खाने की जगह और पिटाई करतीं। कइयों के बाप बड़े ग़ुस्सैल थे। पीटने लगते तो यह ध्यान भी न रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है या उसके कहाँ चोट लगी है। परंतु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन फिर खेलने चले आते। (यह बात तब ठीक से समझ आई जब स्कूल अध्यापक बनने के लिए एक ट्रेनिंग1 करने गया और वहाँ बाल-मनोविज्ञान का विषय पढ़ा। ऐसी बातों के बारे में तभी जान पाया कि बच्चों को खेलना क्यों इतना अच्छा लगता है कि बुरी तरह पिटाई होने पर भी फिर खेलने चले आते हैं।)
मेरे साथ खेलने वाले अधिकतर साथी हमारे जैसे ही परिवारों के हुआ करते। सारे मुहल्ले में बहुत परिवार तो, हमारी तरह आसपास के गाँवों से ही आकर बसे थे। दो-तीन घर, साथ की उजड़ी-सी गली में रहने वाले लोगों के थे। हमारी सभी की आदतें भी कुछ मिलती-जुलती थीं। उनमें से अधिक तो स्कूल जाते ही न थे, जो कभी गए भी, पढ़ाई में रुचि न होने के कारण किसी दिन बस्ता तालाब में फेंक आए और फिर स्कूल गए ही नहीं, न ही माँ-बाप ने ज़बरदस्ती भेजा। यहाँ तक कि परचुनिये, आढ़तीये भी अपने बच्चों को स्कूल भेजना ज़रूरी न समझते। कभी किसी स्कूल अध्यापक से बात होती तो कहते—मास्टर जी हमने इसे क्या तहसीलदार लगवाना है। थोड़ा बड़ा हो जाए तो पंडत घनश्याम दास से लंडे2 पढ़वाकर दुकान पर बहियाँ3 लिखने लगा लेंगे। पंडत छह-आठ महीने में लंडे और मुनीमी का सभी काम सिखा देगा। वहाँ तो अभी तक अलिफ़-बे जीम-च भी सीख नहीं पाया।
हमारे आधे से अधिक साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब बहुत छोटे थे तो उनकी बोली कम समझ पाते। उनके कुछ शब्द सुनकर हमें हँसी आने लगती। परंतु खेलते तो सभी एक-दूसरे की बात ख़ूब अच्छी तरह समझ लेते।
पता भी नहीं चला कि लोकोक्ति अनुसार 'एह खेडण4 दे दिन चार' कैसे, कब बीत गए। (हममें से कोई भी ऐसा न था जो स्कूल के कमरे में बैठकर पढ़ने को 'क़ैद' न समझता हो।) कुछ अपने माँ-बाप के साथ जैसा भी था, काम कराने लगे।
बचपन में घास अधिक हरी और फूलों की सुगंध अधिक मनमोहक लगती है। यह शब्द शायद आधी शती पहले किसी पुस्तक में पढ़े थे, परंतु आज तक याद हैं। याद रहने का कारण यही है कि यह वाक्य बचपन की भावनाओं, सोच-समझ के अनुकूल होगा। परंतु स्कूल के अंदर जाने से रास्ते के दोनों ओर जो अलियार के बड़े ढंग से कटे-छाँटे झाड़ उगे थे (जिन्हें हम डंडियाँ कहा करते) उनके नीम के पत्तों जैसे पत्तों की महक आज तक भी आँख मूँदकर महसूस कर सकता हूँ। उन दिनों स्कूल की छोटी क्यारियों में फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे जिनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी सफ़ेद कलियाँ भी हुआ करतीं। ये कलियाँ इतनी सुंदर और ख़ुशबूदार होती थीं कि हम चंदू चपड़ासी5 से आँख बचाकर कभी-कभार एक-दो तोड़ लिया करते। उनकी बहुत तेज़ सुगंध आज भी महसूस कर पाता हूँ, परंतु यह याद नहीं कि उन्हें तोड़कर, कुछ देर सूँघकर फिर क्या किया करते। (शायद जेब में डाल लेते, माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती या हम ही, स्कूल से बाहर आते उन्हें बकरी के मेमनों की भाँति 'चर' जाया करते)।
जब अगली श्रेणी में दाख़िल होते तो एक ओर तो कुछ बड़े, सयाने होने के एहसास से उत्साहित भी होते, परंतु दूसरी ओर नई, पुरानी कॉपियों-किताबों से जाने कैसी बास आती कि उन्हीं मास्टरों के डर से काँपने लगते जो पिछली श्रेणी में पढ़ा चुके होते।
तब स्कूल में, शुरू साल में एक-डेढ़ महीना पढ़ाई हुआ करती, फिर डेढ़-दो महीने की छुट्टियाँ शुरू हो जाया करती। अब तक जो बात अच्छी तरह याद है वह छुट्टियों के पहले और आख़िरी दिनों का फ़र्क़ था। पहले दो-तीन सप्ताह तो ख़ूब खेल-कूद हुआ करती। हर साल ही माँ के साथ ननिहाल चले जाते। वहाँ नानी ख़ूब दूध-दही, मक्खन खिलाती, बहुत प्यार करती। छोटा-सा पिछड़ा गाँव था परंतु तालाब हमारी मंडी के तालाब जितना ही बड़ा था। दुपहर तक तो उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो जी में आता माँगकर खाने लगते। नानी हमारे बोलने के ढंग या कम खाने के कारण बहुत ख़ुश होती। अपने पोतों को हमारी तरह बोलने और खाने-पीने को कहती। जिस साल ननिहाल न जा पाते, उस साल भी अपने घर से थोड़ा बाहर तालाब पर चले जाते। कपड़े उतार पानी में कूद जाते और कुछ समय बाद, भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर, रेत के ऊपर लेटने लगते। गीले शरीर को गर्म रेत से ख़ूब लथपथ कर उसी तरह भागते, किसी ऊँची जगह से तालाब में छलाँग लगा देते। रेत को गंदले पानी से साफ़ कर फिर टीले की ओर भाग जाते। याद नहीं कि ऐसा, पाँच-दस बार करते या पंद्रह-बीस बार। कई बार तालाब में कूदकर ऐसे हाथ-पाँव हिलाने लगते जैसे बहुत अच्छे तैराक हों। परंतु एक-दो को छोड़, मेरे किसी साथी को तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँव हिलाते हुए गहरे पानी में चले जाते तो दूसरे उन्हें बाहर आने के लिए किसी भैंस के सींग या दुम पकड़कर बाहर आने की सलाह देते। उन्हें ढाँढ़स बँधाते। कूदते समय मुँह में गंदला पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँसते। कई बार ऐसा लगता कि साँस रुकने लगी है परंतु हाय-हाय करते किसी-न-किसी तरह तालाब के किनारे पहुँच जाते।
फिर छुट्टियाँ बीतने लगतीं तो दिन गिनने लगते। प्रत्येक दिन डर बढ़ता चला जाता। खेल-कूद और तालाब में नहाना भी भूलने लगता। मास्टरों ने जो छुट्टियों में करने के लिए काम दिया होता उसका हिसाब लगाने लगते। जैसे हिसाब के मास्टर जी दो सौ से कम सवाल कभी न बताते। मन में हिसाब लगाते कि यदि दस सवाल रोज़ निकाले तो बीस दिन मे पूरे हो जाएँगे। जब ऐसा सोचना शुरू करते तो छुट्टियों का एक महीना बाक़ी हुआ करता। एक-एक दिन गिनते दस दिन खेल-कूद में और बीत जाते। स्कूल की पिटाई6 का डर और बढ़ने लगता। परंतु डर भुलाने के लिए सोचते कि दस की क्या बात, सवाल तो पंद्रह भी आसानी से रोज़ निकाले जा सकते हैं। जब ऐसा हिसाब लगाने लगते तो छुट्टियाँ कम होते-होते जैसे भागने लगतीं। दिन बहुत छोटे लगने लगते। ऐसा महसूस होता जैसे सूरज भागकर दुपहरी में ही छिप जाता हो। जैसे-जैसे दिन 'छोटे' होने लगते स्कूल का भय बढ़ने लगता। हमारे कितने ही सहपाठी ऐसे भी होते जो छुट्टियों का काम करने की बजाय मास्टरों की पिटाई अधिक 'सस्ता सौदा' समझते। हम जो पिटाई से बहुत डरा करते, उन 'बहादुरों' की भाँति ही सोचने लगते। ऐसे समय हमारा सबसे बड़ा 'नेता' ओमा हुआ करता।
हम सभी उसके बारे में सोचते कि हमारे में उस जैसा कौन था। कभी भी उस जैसा दूसरा लड़का नहीं ढूँढ़ पाते थे। उसकी बातें, गालियाँ, मार-पिटाई का ढंग तो अलग था हो, उसकी शक्ल-सूरत भी सबसे अलग थी। हाँड़ी जितना बड़ा सिर, उसके ठिगने चार बालिश्त के शरीर पर ऐसा लगता जैसे बिल्ली के बच्चे के माथे पर तरबूज़ रखा हो। इतने बड़े सिर में नारियल-की-सी आँखोंवाला बंदरिया के बच्चे जैसा चेहरा और भी अजीब लगता। लड़ाई वह हाथ-पाँव नहीं, सिर से किया करता। जब साँड़ की भाँति फुँकारता, सिर झुकाकर किसी के पेट या छाती में मार देता तो उससे दुगुने-तिगुने शरीरवाले लड़के भी पीड़ा से चिल्लाने लगते। हमें डर लगता कि किसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके सिर की टक्कर का नाम हमने 'रेल-बंबा' रखा हुआ था—रेल के (कोयले से चलने वाले) इंजन की भाँति बड़ा और भयंकर ही तो था।
हमारा स्कूल बहुत छोटा था—केवल छोटे-छोटे नौ कमरे थे जो अँग्रेज़ी के अक्षर एच (H) की भाँति बने थे। दाईं ओर पहला कमरा हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा जी का था जिसके दरवाज़े के आगे हमेशा चिक लटकी रहती। स्कूल की प्रेयर (प्रार्थना) के समय वह बाहर आते और सीधी क़तारों में क़द के अनुसार खड़े लड़कों को देख उनका गोरा चेहरा खिल उठता। सारे अध्यापक, लड़कों की तरह ही क़तार बाँधकर उनके पीछे खड़े होते। केवल मास्टर प्रीतम चंद 'पीटी' लड़कों की क़तारों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते थे कि कौन सा लड़का क़तार में ठीक नहीं खड़ा। उनको घुड़की तथा ठुड्डों के भय से हम सभी क़तार के पहले और आख़िरी लड़के का ध्यान रखते, सीधे क़तार में बने रहने का प्रयत्न करते। सीधी क़तार के साथ-साथ हमें यह ध्यान भी रखना होता था कि आगे-पीछे खड़े लड़कों के बीच को दूरी भी एक-सी हो। सभी लड़के उस 'पीटी' से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख़्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा, न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरी पिंडली खुजलाने लगता तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और 'खाल खींचने' के मुहावरे को प्रत्यक्ष करके दिखा देते।
परंतु हेडमास्टर शर्मा जी उसके बिलकुल उलट स्वभाव के थे। वह पाँचवीं और आठवीं श्रेणी को अँग्रेज़ी स्वयं पढ़ाया करते थे। हमारे में से किसी को भी याद न था कि पाँचवीं श्रेणी में कभी भी उन्हें, किसी ग़लती के कारण किसी की 'चमड़ी उधेड़ते' देखा या सुना हो। (चमड़ी उधेड़ना हमारे लिए बिलकुल ऐसा शब्द था जैसे हमारे 'सरकारी मिडिल स्कूल' का नाम।) अधिक से अधिक वह ग़ुस्से में बहुत जल्दी-जल्दी आँखे झपकते, अपने लंबे हाथ की उल्टी उँगलियों से एक 'चपत' हमारी गाल पर मार देते तो मेरे जैसे सबसे कमज़ोर शरीरवाले भी सिर झुकाकर मुँह नीचा किए हँस देते। वह चपत तो जैसे हमें भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसी मज़ेदार लगती जो तब पैसे की शायद दो आ जाया करतीं।
परंतु तब भी स्कूल हमारे लिए ऐसी जगह न थी जहाँ ख़ुशी से भागे जाएँ। पहली कच्ची श्रेणी से लेकर चौथी श्रेणी तक, केवल पाँच-सात लड़कों को छोड़ हम सभी रोते चिल्लाते ही स्कूल जाया करते।
परंतु कभी-कभी ऐसी सभी स्थितियों के रहते स्कूल अच्छा भी लगने लगता। जब स्काउटिंग का अभ्यास करवाते समय पीटी साहब नीली-पीली झंडियाँ हाथों में पकड़ाकर वन, टू, थ्री कहते, झंडियाँ ऊपर-नीचे दाएँ-बाएँ करवाते जो हवा में लहराती और फड़फड़ाती झंडियों के साथ ख़ाकी वर्दियों तथा गले में दोरंगे रूमाल लटकाए अभ्यास किया करते। हम कोई ग़लती न करते तो वह अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते कहते—शाबाश। वैल बिगिन अगेन—वन, टू, थ्री, थ्री, टू, वन! उनकी एक शाबाश ऐसे लगने लगती जैसे हमने किसी फ़ौज के सभी तमग़े जीत लिए हों। कभी यही एक शाबाश, सभी मास्टरों की ओर से, हमारी सभी कॉपियों पर साल भर की लिखी 'गुड्डों' (गुड का बहुवचन) से अधिक मूल्यवान लगने लगती। कभी ऐसा भी लगता कि कई साल की सख़्त मेहनत से प्राप्त की पढ़ाई से भी पीटी साहिब के डिसिप्लिन में रहकर प्राप्त की 'गुडविल' बहुत बड़ी थी। परंतु यह भी एहसास रहता कि जैसे गुरुद्वारे का भाई जी कथा करते समय बताया करता कि सतिगुर7 7 के भय से ही प्रेम जागता है, ऐसे ही पीटी साहब के प्रति हमारी प्रेम की भावना जग जाती। (यह ऐसा भी है कि आपको रोज़ फटकारने वाला कोई 'अपना' यदि साल भर के बाद एक बार 'शाबाश' कह दे तो यह चमत्कार-सा लगने लगता है—हमारी दशा भी कुछ ऐसी हुआ करती।)
हर वर्ष अगली श्रेणी में प्रवेश करते समय मुझे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं। हमारे हेडमास्टर शर्मा जी एक लड़के को उसके घर जाकर पढ़ाया करते थे। वे धनाढ्य लोग थे। उनका लड़का मुझसे एक-दो साल बड़ा होने के कारण मेरे से एक श्रेणी आगे रहा। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरंभ होता तो शर्मा जी उसकी एक साल पुरानी पुस्तकें ले आते। हमारे घर में किसी को भी पढ़ाई में दिलचस्पी न थी। यदि नई किताबें लानी पड़तीं (जो तब एक-दो रुपए में आ जाया करतीं) तो शायद इसी बहाने पढ़ाई तीसरी-चौथी श्रेणी में ही छूट जाती। कोई सात साल स्कूल में रहा तो एक कारण पुरानी किताबें मिल जाना भी था। कॉपियों, पैसिलों, होल्डर या स्याही-दवात में भी मुश्किल से एक-दो रुपए साल भर में ख़र्च हुआ करते। परंतु उस ज़माने में एक रुपया भी बहुत बड़ी 'रक़म' हुआ करती थी। एक रुपए में एक सेर घी आया करता और दो रुपए की एक मन (चालीस सेर) गंदम। इसी कारण, खाते-पीते घरों के लड़के ही स्कूल जाया करते। हमारे दो परिवारों में मैं पहला लड़का था जो स्कूल जाने लगा था।
परंतु किसी भी नई श्रेणी में जाने का ऐसा चाव कभी भी महसूस नहीं हुआ जिसका ज़िक्र कुछ लड़के किया करते। अजीब बात थी कि मुझे नई कॉपियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती कि मन बहुत उदास होने लगता था। इसका ठीक-ठीक कारण तो कभी समझ में नहीं आया परंतु जितनी भी मनोविज्ञान की जानकारी है, इस अरुचि का कारण यही समझ में आया कि आगे की श्रेणी की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का भय ही कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी तो नए न होते थे परंतु दो-तीन हर साल ही वह होते जोकि छोटी श्रेणी में नही पढ़ाते थे। कुछ ऐसी भी भावना थी कि अधिक अध्यापक एक साल में ऐसी अपेक्षा करने लगते कि जैसे हम 'हरफ़नमौला’8 हो गए हों। यदि उनकी आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ तो जैसे 'चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते', इन्हीं कुछ कारणों से केवल किताबों-कॉपियों को गंध से ही नहीं, बाहर के बड़े गेट से दस-पंद्रह गज़ दूर स्कूल के कमरों तक रास्ते के दोनों ओर जो अलिआर के झाड़ उगे थे उनकी गंध भी मन उदास कर दिया करती।
परंतु स्कूल एक-दो कारणों से अच्छा भी लगने लगा था। मास्टर प्रीतमचंद जब हम स्काउटों को परेड करवाते तो लेफ़्ट-राइट की आवाज़ या मुँह में ली व्हिसल से मार्च कराया करते। फिर राइट टर्न या लेफ़्ट टर्न या अबाऊट टर्न कहने पर छोटे-छोटे बूटों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर बूटों की ठक-ठक करते अकड़कर चलते तो लगता जैसे हम विद्यार्थी नहीं, बहुत महत्त्वपूर्ण 'आदमी' हों—फ़ौजी जवान।
दूसरे विश्व युद्ध का समय था, परंतु हमारी नाभा रियासत के राजा को अँग्रेज़ों ने 1923 में गिरफ़्तार कर लिया था और तमिलनाडु में कोडाएकेनाल में हो, जंग शुरू होने से पहले उसका देहांत हो गया था। उस राजा का बेटा, कहते थे अभी विलायत में पढ़ रहा था। इसलिए हमारे देसी रियासत में भी अँग्रेज़ की ही चलती थी फिर भी राजा के न रहते, अँग्रेज़ हमारी रियासत के गाँवों से 'जबरन’9 भरती नहीं कर पाया था। लोगों को फ़ौज में भरती करने के लिए जब कुछ अफ़सर आते तो उनके साथ कुछ नौटंकीवाले भी हुआ करते। वे रात को खुले मैदान में शामियाने लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी के दृश्य दिखाकर आकर्षित किया करते। उनका एक गाना अभी भी याद है। कुछ मसखरे, अजीब सी वर्दियाँ पहने और अच्छे, बड़े फ़ौजी बूट पहने गाया करते—
भरती हो जा रे रंगरूट
भरती हो जा रे...
अठे10 मिले से टूटे लीतर11
उठै 12मिलैंदे बूट,
भरती हो जा रे,
हो जा रे रंगरूट।
अठे पहन सै फटे पुराणे
उठै मिलेंगे सूट
भरती हो जा रे,
हो जा रे रंगरूट
इन्हीं बातों से आकर्षित हो कुछ नौजवान भरती के लिए तैयार हो जाया करते।
कभी-कभी हमें भी महसूस होता कि हम भी फ़ौजी जवानों से कम नहीं। धोबी की धुली वर्दी और पालिश किए बूट और ज़ुराबों को पहने जब हम स्काउटिंग की परेड करते तो लगता हम फ़ौजी ही हैं।
मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में कभी भी हमने मुस्कुराते या हँसते न देखा था। उनका ठिगना क़द, दुबला-पतला परंतु गठीला शरीर, माता के दाग़ों से भरा चेहरा और बाज-सी तेज़ आँखें, ख़ाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले बूट—सभी कुछ ही भयभीत करने वाला हुआ करता। उनके बूटों की ऊँची एड़ियों के नीचे भी खुरियाँ लगी रहतीं, जैसे ताँगे के घोड़े के पैरों में लगी रहती हैं। अगले हिस्से में, पंजों के नीचे मोटे सिरोंवाले कील ठुके होते। यदि वह सख़्त जगह पर भी चलते तो खुरियों और कीलों के निशान वहाँ भी दिखाई देते। हम ध्यान से देखते, इतने बड़े और भारी-भारी बूट पहनने के बावजूद उनके टख़नों में कहीं मोच तक नहीं आती थी। (उनको देखकर हम यदि घरवालों से बूटों की माँग करते तो माँ-बाप यही कहते कि टख़ने टेढ़े हो जाएँगे, सारी उम्र सीधे न चल पाओगे।)
मास्टर प्रीतमचंद से हमारा डरना तो स्वाभाविक था, परंतु हम उनसे नफ़रत भी करते थे। कारण तो उसका मारपीट था। हम सभी को (जो मेरी उम्र के हैं) वह दिन नहीं भूल पाया जिस दिन वह हमें चौथी श्रेणी में फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। हमें उर्दू का तो तीसरी श्रेणी तक अच्छा अभ्यास हो गया था परंतु फ़ारसी तो अँग्रेज़ी से भी मुश्किल थी। अभी हमें पढ़ते एक सप्ताह भी न हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने हमें एक शब्द-रूप याद करने को कहा और आदेश दिया कि कल इसी घंटी में ज़बानी सुनेंगे। हम सभी घर लौटकर, रात देर तक उसी शब्द-रूप को बार-बार याद करते रहे परंतु केवल दो-तीन ही लड़के थे जिन्हें आधी या कुछ अधिक शब्द-रूप याद हो पाया। दूसरे दिन बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। तभी मास्टर जी गुर्राए—सभी कान पकड़ो।
हमने झुककर टाँगों के पीछे से बाँहें निकालकर कान पकड़े तो वह ग़ुस्से से चीख़े-पीठ ऊँची करो।
पीठ ऊँची करके कान पकड़ने से, तीन-चार मिनट में ही टाँगों में जलन होने लगती थी। मेरे जैसे कमज़ोर तो टाँगों के थकने से कान पकड़े हुए ही गिर पड़ते। जब तक मेरी और हरबंस की बारी आई तब तक हेडमास्टर शर्मा जी अपने दफ़्तर में आ चुके थे। जब हमें सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी, स्कूल की पूरब की ओर बने सरकारी हस्पताल में डाक्टर कपलाश से मिलने गए थे। वह दफ़्तर के सामने की ओर चले आए। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि वह पीटी प्रीतमचंद की उस बर्बरता को सहन न कर पाए। बहुत उत्तेजित हो गए थे।
—व्हाट आर यू डूईंग, इज़ इट दा वे टू पनिश दा स्टूडेंट्स आफ़ फ़ोर्थ क्लास? स्टाप इट ऐट वंस।
हमें तब अँग्रेज़ी नहीं आती थी, क्योंकि उस समय पाँचवीं श्रेणी से अँग्रेज़ी पढ़ानी शुरू की जाती थी। परंतु हमारे स्कूल के सातवीं-आठवीं श्रेणी के लड़कों ने बताया था कि शर्मा जी ने कहा था—क्या करते हैं? क्या चौथी श्रेणी को सज़ा देने का यह ढंग है? इसे फ़ौरन बंद करो।
शर्मा जी ग़ुस्से से काँपते बरामदे से ही अपने दफ़्तर में चले गए थे।
फिर जब प्रीतमचंद कई दिन स्कूल नहीं आए तो यह बात सभी मास्टरों की ज़ुबान पर थी कि हेडमास्टर शर्मा जी ने उन्हें मुअत्तल13 करके अपनी ओर से आदेश लिखकर, मंज़ूरी के लिए हमारी रियासत की राजधानी, नाभा भेज दिया है। वहाँ हरजीलाल नाम के 'महकमाए-तालीम'14 के डायरेक्टर थे जिनसे ऐसे आदेश की मंज़ूरी आवश्यक थी।
उस दिन के बाद यह पता होते हुए भी कि पीटी प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर 'बहाल' नहीं करेंगे तब तक वह स्कूल में क़दम नहीं रख सकते, जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो हमारी छाती धक्-धक् करती फटने को आती। परंतु जब तक शर्मा जी स्वयं या मास्टर नौहरिया राम जी कमरे में फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, हमारे चेहरे मुर्झाए रहते।
फिर कई सप्ताह तक पीटी मास्टर स्कूल नहीं आए। पता चला कि बाज़ार में एक दुकान के ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खिड़कियों वाला चौबारा किराए पर ले रखा था, वहीं आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के विद्यार्थी हमें बताया करते कि उन्हें मुअत्तल होने की रत्ती भर भी चिंता नहीं थी। पहले की तरह ही आराम से पिंजरे में रखे दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर उन्हें खिलाते उनसे बातें करते रहते हैं। उनके वे तोते हमने भी कई बार देखे थे। (हम उन बड़े लड़कों के साथ उनके चौबारे में गए थे जो लड़के पीटी साहब के आदेश पर उनके घर का काम करने जाया करते) परंतु हमारे लिए यह चमत्कार ही था कि जो प्रीतमचंद बिल्ला मार-मारकर हमारी चमड़ी तक उधेड़ देते वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें कैसे कर लेते थे? क्या तोतों को उनकी दहकती, भूरी आँखों से भय न लगता था।
हमारी समझ में ऐसी बातें तब नहीं आ पाती थीं, बस एक तरह इन्हें अलौकिक ही मानते थे।
- पुस्तक : संचयन (भाग-2) (पृष्ठ 20)
- रचनाकार : गुरुदयाल सिंह
- प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
- संस्करण : 2007
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