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आम रास्ता नहीं है

aam rasta nahin hai

विवेकी राय

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    काल के अहाते के बीचों-बीच सीधी लकीर-सी खिंची पगडंडी पकड़कर जनपद के अधिवासी चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं।

    कोमल दल किसलय हैं तो फल-फूल के यौवन-भार से लदी लता-वल्लरियाँ भी हैं। अरण्य के अलमस्त साखी हैं तो उफनाती दरिया के तटवर्ती पेड़ भी हैं।

    ये नन्हे-मुन्ने! ये लौरू! ये छौने! उछलते जाते हैं। कूदते जाते हैं। चहकते जाते हैं। ओफ़, क्या संसार इन्हें ऐसे रहने देगा? नहीं। यही तो लीला है। कहाँ चाँद-सा चमकता ललाट, कहाँ चट्टान पर पड़ी रेखाएँ!

    यह अल्हड़ों की टोली। गति इनकी मंथर क्यों? कुछ धीरे-धीरे कहते हैं, कुछ चुपचाप सुनते हैं, मार्ग कट रहा है। चले जा रहे हैं। दीन-दुनिया सिमट गई गति में।

    मैं देखता हूँ कि चल रहे हैं सभी। चल रही है सभी की अपनी-अपनी कहानी। वह बिना उपसंहार की मर्म-कहानी। बिना गर्मी की आग। रोम-रोम पन्ना और जीवन किताब है कि मरा इतिहास है। एक से एक गोपनीय रहस्य और भारी-भारी भेद? कौन ठीक-ठीक जानता है किसी दूसरे की? कोई नहीं। फ़ुर्सत किसे है जानने की? ऊपर से देखा, चले जा रहे हैं। बाहर से देखा, कुछ कर रहे हैं! भीतर भरा है पूरा महाभारत! मौन, दबा और छिपा।

    यह धूल-भरा रास्ता। ये धूल-भरे शरीर। यह धूल-भरा जीवन। ये धूमिल चेहरे। धूल में लसराए अबोलों के बोल। यह सोने की धूल-सी ऊपर का धूप। ये मिट्टी की धूल से चेहरे...चुप...चुप...चुप। ये कुछ बरबस हँसते से। ये श्रम-कातर। ये कुछ विनोदी? और सबके ऊपर पछिमा के एक झोंके से यह दरिद्रता की मुट्ठी-भर गुलाल-सी धूल? अनागत वसंत का शायद उपहार!

    वह धूल का राज्य। यहाँ जनता चौराहे की धूल। सदा पैरों के नीचे रहने वाली। तपने वाली, तड़पने वाली, ठिठुरने वाली, उड़ती-उड़ती, नंगी और बेचारी कलेजे पर कुचलने वालों के पगचिह्नों को जनार्दन के

    चरण-कमल से चिपकाए!

    अब सूर्यास्त होगा। तब भी ये रहे हैं, जा रहे हैं। मुझे लगता है ये आदी नहीं सिर्फ़ आदमी की शक्लें हैं जो चलती हैं, फिरती हैं। धुआँ-सी दिशाओं में डूबी-डूबी। शून्य में मलिन ढूह-सी उगी-उगी। ये दिल वाले, ये मन वाले, ये आत्मा वाले और ये परमात्मा वाले। इनके पास विधि के हाथों बनाई संसार की सर्वोत्तम मशीन शरीर है। शरीर में भीतर एक संसार है। इच्छाओं का विचित्र बाज़ार है। साथ ही उनमें अनगिनत सुलगते शोले हैं तथा फफकते फफोले भी हैं।

    अरे, यह कौन? गाढ़ी-गुदरी में ये लिपटी। मुँह पर जैसे हवाइयाँ उड़ रही हैं तो भी एक दृढ़ता, एक स्थिरता। देखते-देखते आँखों से ओझल हो गई। रह गया मन पर खिंचा उसका चित्र। हाथ की उसकी पोटली मैं अपनी कल्पना के करों से खोलता हूँ। इसमें मुझे मिलता है भारत की स्वतंत्रता का एक पुराना इतिहास, मत कहो कि यह दो पैसे का नमक है। इसमें मिलता है मुझे आध सेर घुन लगा चना, मत कहो कि पाँच पंचवर्षीय योजनाएँ ख़त्म होने जा रही हैं। इसमें मिलता है मुझे फटे कपड़ों को सीने के लिए धेले का मोटा डोरा, मत कहो कि इस युग के महत्त्वाकांक्षी चाँद पर बसने जा रहे हैं।

    हाँ, उसके रूखे केश धीरे से कुछ कह गए। कुछ सुना है और अधिकांश अनसुना रह गया। पेट ही पहार है, इन केशों को सँवारने की किसे फुरसत है। यह जलता हुआ ज़माना, यह महामारी-सी महँगाई, यह काल-सा अकाल! जिनके लाल सूखे वक्ष की ठठरियों को चिचोर-चिचोर कर चिल्लाते हैं, जिनके लिए मनुष्य ही भगवान है, जिनके लिए मुट्ठी-भर अन्न ही मोक्ष-सुख है उनके लिए क्या केश और क्या शृंगार! क्या अनुराग और क्या सुहाग!

    ये मैले-कुचैले राम, ये भूख से तड़पते कृष्ण, ये विवशताओं की बेड़ियों में जकड़े प्रताप! ये नीरव रुदन करने वाले नारायण और रात-दिन ग़रीबी में जलने वाले जनता-जनार्दन! मोटी-मोटी पोथी, गंभीर ज्ञान, उज्ज्वल सिद्धाँत, मानवता की दुहाई, जनता की सरकार, जनता का राज्य, ग़रीबों के लिए महा-महा आयोजन और वास्तव में सारा गुड़ गोबर हुआ जा रहा बरबस!

    अच्छा, तो ये चले जा रहे कुछ सफ़ेदपोश हैं। कहते हैं कि ये मध्यमवर्गीय हैं। किसी प्रकार अपनी स्थिति को छिपाए-चुराए। आवश्यकताओं की चक्की में पिसे। बाहर पीली-पीली धोती, भीतर चले उपवास! देख रहा हूँ। छड़ी भाँजते चले जा रहे हैं। छड़ी हवा में नहीं, उनके दिल में अविरल गति से घूम रही है। स्थिर होती नहीं। गोटी बैठती नहीं। समस्या हल होती नहीं। जान पर बनी है। धत्तेरे ज़माने की।

    इनके पीछे-पीछे चले जा रहे हैं और भी! ये हल जोतने वाले, ये धरती चीरने वाले, बैलों के संगी, ये कचहरी सेवन करने वाले, स्याह को सफ़ेद बनाने वाले, ईमान-धर्म को हलाहल की तरह पी जाने वाले युग के परम पुरुषार्थी! ये पंडित जी, ये पुरोहित जी, ये सेठ जी, ये सरदार, ये बाबू, ये राजा, ये मास्टर, ये मौलवी और ये महंत!

    हाँ, शकलें फिर-फिर आती हैं, जाती हैं। मानो इनको आना है, जाना है। डाली, बोतल, झोली, गठरी, सोटा, बोरा, टीन, मेटा, काँटी और जाने क्या क्या? गिनाऊँ ही क्या?

    अभी तो देखता हूँ और एक कविता याद रही है—

    थोड़े में निर्वाह यहाँ है।

    ऐसी सुविधा और कहाँ है।

    सफ़ेद झूठ! कोरी कल्पना!! भावुक पाखंड!!!

    देखो जी, जले पर नमक छिड़कना ठीक नहीं। कवि! बाहर से जिसे देखकर थोड़े में निर्वाह कहते हो, सुविधा कहते हो, जरा नजदीक से, भीतर से, सहृदयता से झाँककर देखो तो सही? जीवन श्मशान हो गया तो क्या यही शांति है? अभाव और दरिद्रता ने मारा कि कुचलकर संज्ञाहीन कर दिया तो क्या यही समाधि है? अशिक्षा, अज्ञान और मूर्खता ने मारा कि उच्छ्वासरहित कर दिया तो क्या यही सरलता है? मारे ग़रीबी के कुछ रहा नहीं तो क्या यही थोड़े में निर्वाह है?

    और यह मार्ग हमारी नागरिकता पर एक व्यंग्य के समान है। फाटक पर दोनों ओर स्पष्ट लिखा है—‘आम रास्ता नहीं है।’ अब सोचता हूँ कि आम रास्ता किसे कहते हैं? अवश्य ही यह कोई ख़ास रास्ता है। आम लोगों का रास्ता तो दूसरा है। ये शायद भूले हुए लोग हैं। ये मार्गच्युत लोग हैं। ये अनजान लोग हैं। हे भगवान जाने कब इन्हें अभीष्ट पथ का ज्ञान होगा?

    इस समय तो ये सिर्फ़ आते हैं, जाते हैं। संज्ञा-शून्य से, निर्जीव-से यह जर्जर मानव, ये ग्रामीण मानव, ये नर-बानर, ये यंत्र से जीवन की गाड़ी को जोर लगाकर किसी प्रकार खींच-खींचकर हारे-से, जिनका दिन बीत गया खटते-खटते, जिनकी रात में गहरे काले अंधकार के सिवा और कुछ नहीं। घना, निबिड़ और मनहूस अंधकार।

    दूर कुत्तों के भूँकने का शब्द। पास छात्रों के कोलाहल और चारों ओर चिड़ियों के अनमोल बोल। सबसे ऊपर आटा-कल की तीब्र-कर्कस ‘फक्...फक्...फक्...’ चीत्कार और उस पगडंडी पर नीरव पगध्वनि। मंदवार्ता और निस्पंद जीवन-स्तर।

    अँधेरा अब हो जाएगा। तब भी ये लोग आते हैं, जाते हैं। कौन, कहाँ क्यों खिचा जा रहा है इसे कौन जाने? किसे, कौन-सी डोर खींचे लिए जा रही है, क्या पता? किसे क्या सुख है, अज्ञात है, किसे क्या दुःख है, अबूझा है। हमारा ज्ञान कितना ग़रीब है। हम कितने सीमित हैं। हम सिर्फ़ अपने को देखते हैं। अपने सुख-दुःख को जानते हैं। दूसरों को सिर्फ़ आते-जाते देखते-भर हैं। यदि कभी आँख उठाकर देखा भी है तो अनदेखे की तरह। अब इस प्रकार अधिक विचार-विस्तार भी हमें नहीं करना है, क्योंकि यह आम रास्ता नहीं है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विवेकी राय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए पल्लव के सौजन्य से

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