हमारे समयों में
यह सब कुछ हमारे ही समयों में होना था
कि समय ने रुक जाना था थके हुए युद्ध की तरह
और कच्ची दीवारों पर लटकते कैलेंडरों ने
प्रधानमंत्री की फ़ोटो बनकर रह जाना था
धूप से तिड़की हुई दीवारों के परखचों
और धुएँ को तरसते चूल्हों ने
हमारे ही समयों का गीत बनना था
ग़रीब की बेटी की तरह बढ़ रहा
इस देश के सम्मान का पौधा
हमारे रोज़ घटते क़द के कंधों पर ही उगना था
शानदार एटमी तजर्बे की मिट्टी
हमारी आत्मा में फैले हुए रेगिस्तान से उड़नी थी
मेरे-आपके दिलों की सड़क के मस्तक पर जमना था
रोटी-माँगने आए अध्यापकों के मस्तक की नसों का लहू
दशहरे के मैदान में
गुम हुई सीता नहीं, बस तेल का टिन माँगते हुए
रावण हमारे ही बूढ़ों को बनना था
अपमान वक़्त का हमारे ही समयों में होना था
हिटलर की बेटी ने ज़िंदगी के खेतों की माँ बनकर
ख़ुद हिटलर का ‘डरौना’
हमारे ही मस्तकों में गड़ाना था
यह शर्मनाक हादसा हमारे ही साथ होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊँ—
मार्क्स का सिंह जैसा सिर
दिल्ली की भूल-भुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ़्र हमारे ही समयों में होना था
बहुत दफ़ा, पक्के पुलों पर
लड़ाइयाँ हुईं
लेकिन ज़ुल्म की शमशीर के
घूँघट न मुड़ सके
मेरे यारो, अपने अकेले जीने की ख़्वाहिश कोई पीतल का छल्ला है
हर पल जो घिस रहा
न इसने यार की निशानी बनना है
न मुश्किल वक़्त में रक़म बनना है
मेरे यारो, हमारे वक़्त का एहसास
बस इतना ही न रह जाए
कि हम धीमे-धीमे मरने को ही
जीना समझ बैठे थे
कि समय हमारी घड़ियों से नहीं
हड्डियों के खुरने से मापे गए
यह गौरव हमारे ही समयों को मिलेगा
कि उन्होंने नफ़रत निथार ली
गुजरते गंदलाए समुद्रों से
कि उन्होंने बींध दिया पिलपिली मुहब्बत का तेंदुआ
और वह तैरकर जा पहुँचे
हुस्न की दहलीज़ों पर
यह गौरव हमारे ही समयों का होगा
यह गौरव हमारे ही समयों का होना है।
- पुस्तक : लहू है कि तब भी गाता है (पृष्ठ 37)
- संपादक : चमनलाल, कात्यायनी
- रचनाकार : पाश
- प्रकाशन : परिकल्पना प्रकाशन
- संस्करण : 2004
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