बावन साल पुरानी आँखें
bawan sal purani ankhen
बावन साल पुरानी आँखें
कब तक जागें
देखे-अनदेखे सपनों से भागें
दश्ते-तमन्ना
लम्हा-लम्हा
हर लम्हा इक रेत का ज़र्रा
हर ज़र्रा इक पूरा सहरा
गिनते-गिनते हार गए हम
लगता है बेकार गए हम
देख-अनदेखे सपनों से कब तक भागें
कब तक जागें
बावन साल पुरानी आँखें
सारी परियाँ
सब्ज़
सुनहरी
काली-पीली सारी परियाँ
बूढ़ी पनकुट्टी से शायद अब भी बाहर आती होंगी
उस आँगन में
जिसकी रात चखी नहीं हमने जाने कब से
लेकिन नोके-ज़ुबाँ पे शायद
जिसका मज़ा मौजूद हो अब भी :
हार-सिंगार से फूलों वाली एक लतर थी
जो इक फुलसुंघी का घर थी
घर से अक्सर ख़त आते है
लेकिन उस फुलसुंघी के बारे में कोई कुछ नहीं लिखता
जिनसे साथ की सोई-जागी सारी रातें
साथ के खेले सारे दिन महका करते थे
बेद की वो लंबी-सी कुर्सी
जिस पर अब्बा
सुबह की चाय से कुछ ही पहले
बैठ के
नीचे वाली सड़क को
रोज़ सुनाया करते थे अपने बूढ़े क़ुर्आन की पुर-असरार आवाज़ें
कोई हमें ये क्यों नहीं लिखता
उस कुर्सी पर कैसी गुज़री
वो कुर्सी अब कैसी होगी
क्या वो अब भी बालकनी में रखी होगी
सामने वाली सड़क पर आख़िर शोर है कैसा
गांधी जी की टोली होगी
या फिर शायद होली होगी
या शायद उस रामदई सब्ज़ी वाली ने
कुछ से ज़्यादा कम फिर सब्ज़ी तोली होगी
यादों की गलियों में गलियाँ
सूखे फूल
कुँवारी कलियाँ
साथ के खेले सारे दशहरे
वो हमजोली दुलदुल, वो ताबूत, वो मातम
सारे नंगे पाँव मुहर्रम
जिनके बिन ख़ाली-ख़ाली लगता है मुझको अब हर मौसम
जाने कितनी बार जगी है मेरे साथ यही दीवाली
मुझसे आज जो नावाक़िफ़ है
जिसके लिए मैं बेगाना हूँ
लाखों-लाख, करोड़ों रौशन हाथों वाली सारी रातें
जगमग करती
पायल जैसी बजती-खनकती सारी रातें
हर दीवार पे,
हर चौखट पर
हर आँगन में लवें लहराएँ
रात के काले पानी में बहती नौकाएँ
नींद का दरिया सूख चला है ये नौकाएँ डूब न जाएँ
जब तक नींद न आए तब तक जागें
देख-अनदेखे सपनों से भागें
बावन साल पुरानी आँखें...
घर के पीछे वाले पीपल की शाख़ों पर
आज भी शायद लटकी होंगी
बिछड़ी हुई सारी दोपहरें
नीम तले इक जमघट होगा
हरे-भरे क़हक़हों का जंगल
उम्मीदों की सारी नहरें
बिछड़ी हुई सारी दोपहरें
अम्मा की अनपढ़ मासूम मुहब्बत
डाँटों का ख़ुश-रंग दुपट्टा ओढ़े...
घर के पीछे वाले पीपल की शाख़ों पर लटका होगा
बुढ़िया के काते का जंगल
मंगलाराय के सारे दंगल
बचपन के वो रंग-बिरंगे सारे सावन
खुलते-बरसते सारे बादल
शायद उस पीपल ही में हो ‘राही’ तेरे सलीब की लकड़ी
चलें
उसी पीपल से पूछें
हमने आख़िर क्या खोया है
हमने आख़िर क्या खोया है
इस सीमेंट के जंगल में हम खो गए शायद
राहों की ये भूल-भूलैयाँ
कोई राह कहीं नहीं जाती
चलते-चलते
जूते के तल्ले की तरह इस शहर में चेहरे भी घिसते हैं
हर चेहरे के नीचे से इक नाश्ता-दान निकल आता है
बासी ख़्वाबों की रोटी खा-खा कर कोई
आख़िर कब तक जी सकता है
ताज़ा ख़्वाब कहाँ से लाएँ
आख़िर किस बाज़ार में जाएँ?
कितनी दूर यहाँ से होगा
बोलो,
“आधा गाँव” हमारा
चलें वहीं और
आठ मुहर्रम की मजलिस का हलवा खाकर
हम फिर ताज़ा-दम हो जाएँ
और वहाँ से
कोई सफ़र आग़ाज़ करें हम
वहाँ से नाता टूट गया तो
हम भी शायद
नाश्ता-दानों के जंगल में
चलते-चलते थक जाएँगे
पेट के अंधे कुएँ में कूद के शायद एक दिन मर जाएँगे
बावन साल पुरानी आँखो!
हमको बचा लो
बावन साल पुरानी आँखो!
सो जाओ
और सपने देखो,
नए-पुराने सपने देखो...
- पुस्तक : ग़रीबे-शहर (पृष्ठ 35)
- संपादक : कुँवरपाल सिंह
- रचनाकार : राही मासूम रज़ा
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2001
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