आजकल उपन्यास लिखने में बहुत लोगों की धड़क खुल गई है। इनमें यदि थोड़े ऐसे हैं जिन्हें अपनी कल्पना और अनुभव का सहारा है, तो बहुत से ऐसे भी हैं जिनका अन्य भाषाओं की विख्यात पुस्तकों पर गुज़ारा है। उपन्यास साहित्य का एक प्रधान अंग है। मानव प्रकृति पर इसका प्रभाव बहुत पड़ता है। अतः अच्छे उपन्यासों से भाषा की बहुत कुछ पूर्ति और समाज का बहुत कुछ कल्याण हो सकता है।
मानव जीवन के अनेक रूपों का परिचय कराना उपन्यास का काम है। यह उन सूक्ष्म से सूक्ष्म घटनाओं को प्रत्यक्ष करने का यत्न करता है जिससे मनुष्य का जीवन बनता है और जो इतिहास आदि की पहुँच के बाहर हैं। बहुत लोग उपन्यास का आधार शुद्ध कल्पना बतलाते हैं। पर उत्कृष्ट उपन्यासों का आधार अनुमान-शक्ति है, न कि केवल कल्पना। तोता-मैना का क़िस्सा और तिलस्म-ऐयारी की कहानियाँ निस्संदेह कल्पना की क्रीड़ा है और असत्य है, पर स्वर्णलता, दुर्गेश नंदिनी, बंगविजेता, जीवन-संध्या, बड़ा भाई आदि के ढंग के गार्हस्थ्य और ऐतिहासिक उपन्यास अनुमान मूलक और सत्य हैं। उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी-छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाए तो जान पड़ेगा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छाँटे हुए नमूने हैं।
संसार में मनुष्य जीवन संबंधी बहुत-सी ऐसी बातें नित्य होती रहती हैं जिनका इतिहास लेखा नहीं रख सकता, पर जो बड़े महत्त्व की होती हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन इन्हीं छोटी-छोटी घटनाओं का जोड़ है। पर बड़े-से-बड़े इतिहास और बड़े-से-बड़े जीवन-चरित्र में भी इन घटनाओं का समावेश नहीं हो सकता। जब इन सूक्ष्म घटनाओं के संयोग में कोई उग्र घटना उमड़ पड़ती है, तब जाकर इतिहास की दृष्टि उस पर पड़ती है। अपनी असंख्यता और क्षिप्र गति के कारण ऐतिहासिक प्रमाणों की पकड़ में न आनेवाली इन घटनाओं के निदर्शन से निर्मित मनुष्य की अनुमान-शक्ति उठ खड़ी होती है, जो अनेक व्यापारों के अभ्यास से वैसे ही किसी एक व्यापार का आरोपण कर सकती है। इस शक्ति को रखने वाले उच्चकोटि के उपन्यास लेखक जिन-जिन बातों का उल्लेख अपनी कथाओं में करते हैं वे सब ऐसी बातें होती हैं, जो संसार में बराबर होती रहती हैं और समाज की परिचित गति के अंतर्भूत होती हैं। जबकि इन घटनाओं का आरोप करने में सृष्टि के व्यापारों के निरीक्षण करने की अपेक्षा हुई, तब वे बिल्कुल कल्पना कैसे कही जा सकती हैं? उनका आधार सत्य पर है, उन्हें असत्य नहीं समझना चाहिए।
ऐतिहासिक आख्यानों के वर्णन करने में कविगण इस अनुमान का सहारा लेते हैं। जिन छोटे-छोटे अंशों को इतिहास छलाँग मारता हुआ छोड़ जाता है, कवि अपने सत्यमूलक अनुमान के बल पर, उनकी एक लड़ी जोड़कर जीवन का एक चित्र पूरा करके खड़ा करता है। धनुष-भंग होने पर परशुराम का राम और लक्ष्मण पर क्रोध करना इतिहास की बात है, पर परशुराम और लक्ष्मण के बीच जो-जो बातें हुईं वह कवि का अनुमान है। कवि ने लक्ष्मण और परशुराम के स्वभाव तथा अवसर की ओर ध्यान देकर अनुमान किया कि उनके बीच में इसी तरह की बातें अवश्य हुई होंगी। कैकेयी का कोपभवन में जाना तो इतिहास ने बतलाया पर उसने जो चुटीली बातें राजा दशरथ को कहीं, उन्हें भिन्न-भिन्न कवियों ने अपने अनुमान के अनुसार जोड़ा है। इन छोटी-छोटी बातों के समावेश के कारण कोई ऐतिहासिक काव्य का आख्यान असत्यमूलक नहीं कहा जा सकता। बिना इन बातों का जोड़ लगाए ऐतिहासिक वृत्त स्वाभाविक मानव व्यापार समझ ही नहीं पड़ते।
ऐतिहासिक उपन्यासों के बीच जो पात्र और व्यापार ऊपर से लाए जाते हैं और कल्पित कहे जाते हैं, यदि वे उस समय की सामाजिक स्थिति के सर्वथा अनुकूल हों तो उन्हें ठीक मान लेना कोई बड़ी भारी भूल नहीं है। क्योंकि उनके अनुमान करने का साधन तो हमारे पास है पर खंडन करने का एक भी नहीं। यदि कोई अनुभवी लेखक महाराणा प्रतापसिंह या शिवाजी की असंख्य सेना में से किसी सैनिक को च्युत कर उसका साहस तब किसी रमणी पर प्रेम तथा उसका गार्हस्थ जीवन आदि दिखलावे, तो हमें इन बातों को अघटित और सत्य मानने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि हमें तो उस समय का सामाजिक चित्र देखना है, न कि किसी व्यक्ति के विषय में छानबीन करना। इसी प्रकार किसी इतिहास प्रसिद्ध घटना के ऐसे अंगों का वर्णन करना भी उपन्यास लेखक का काम है, जिन पर इतिहास ने ध्यान नहीं दिया। यदि हल्दीघाटी की लड़ाई का दृश्य दिखाने में लिखा जाए कि 'रामसिंह ने भाला मारा, ग़ाज़ी खाँ की पगड़ी गिरी', राजपूतों को महाराणा ने यह कहकर बढ़ावा दिया, 'अमुक भील ने पत्थर लुढ़काया', तो इन अनुमानित व्यापारों को उस लड़ाई के अंतर्गत मानने में कोई बाधा नहीं है। ऐसे ही व्यापार की आंशिक व साधारण सूचना पाकर उपन्यासकर्ता विशेष उदाहरण का अनुमान भी कर सकता है। जैसे औरंगज़ेब के लिए हिंदुओं को सताना और उनके मंदिर तोड़ना साधारण प्रसिद्ध बात है। अतः यदि उस समय की कहानी लिखते हुए कोई किसी बस्ती में एक विशेष नाम का मंदिर अनुमान करते, उसका तोड़ा जाना दिखलावे तथा अनुमानित व्यक्ति विशेष की पीठ पर काज़ी के कट्टरपन के कारण कोड़े पड़ने की बात सुनावे, तो वह मिथ्या-भाषण का दोष नहीं।
इतिहास कभी उन बहुत से सूक्ष्म व्यापारों के लिए जिनसे जीवन का तार बंधा है, एक सांकेतिक व्यापार का व्यवहार करके काम चला लेता है, पर उपन्यास का संतोष इस प्रकार नहीं हो सकता। इतिहास कहीं यह कहकर छुट्टी पा जाएगा कि अमुक राजा ने बड़ा अत्याचार किया। अब यह अत्याचार शब्द के अंतर्गत बहुत से व्यापार आ सकते हैं। इससे उपन्यास इन व्यापारों में से किसी-किसी को प्रत्यक्ष करने में लग जाएगा।
यहाँ पर यह भी समझ रखना चाहिए कि ऐतिहासिक उपन्यासकर्ताओं के इस अधिकार की भी सीमा है। यह उन्हीं छोटी-छोटी घटनाओं को ऊपर से ला सकता है, जो किसी ऐतिहासिक घटना के अंतर्गत अनुमान की जा सकें अथवा संसार की गति और समाज की तत्कालीन अवस्था का अंग समझी जा सकें। न वह किसी विख्यात घटना में उलटफेर कर सकता है और न ऐसी बातों को ठूंस सकता है जिनका अनुमान उस समय की अवस्था को देखते नहीं हो सकता। इन ऊपर लिखी बातों पर विचार करने से ही यह विदित हो गया होगा कि ऐतिहासिक उपन्यास लिखने के लिए इतिहास के पूरे ज्ञान के साथ-ही-साथ परंपरागत रहन-सहन, बोलचाल की आलोचना-शक्ति आदि भी खूब होनी चाहिए।
सामाजिक उपन्यास जिन-जिन चरित्रों को सामने लाते हैं, वे या तो ऐसे हैं जो सामाजिक व्यापारों के औसत हैं अथवा जिनका होना मानव प्रवृत्ति की चरम सीमा पर संभव है। कहीं पर ये उपन्यास यह दिखलाते हैं कि समाज क्या है और कहीं पर यह दिखलाते हैं कि समाज को कैसा होना चाहिए। ये कहीं तो उन असंख्य व्यापारों में से जिनसे हम घिरे हैं कुछ एक को ऐसे स्थान पर लाकर खड़ा कर देते हैं जहाँ से हम उनका यथार्थ रूप और सृष्टि के बीच उनका संबंध दृष्टि गड़ाकर देख सकते हैं और कहीं उन संभावनाओं की सूचना देते हैं जिनसे सब मनुष्य जीवन, देव-जीवन और यह धरा-धाम स्वर्गधाम हो सकता है। सतोगुण की जो मुग्धकारिणी छाया, ये प्रतिभा संपन्न लेखक एक बार डाल देते हैं वह पाठक के हृदय पर से जीवन भर नहीं हिलतीं, मानव अंत:करण के सौंदर्य की जो झलक ये एक बार दिखा देते हैं, यह कभी नहीं भूलती। कथा के मिथ से मनुष्य जीवन के बीच भले और बुरे कर्मों की स्थिति दिखाकर जितना ये लेखक आँख खोल सकते हैं, उतना अहंकार से भरे हुए नीति के कोरे उपदेश देने वाले नहीं। चाणक्य, स्माइल्स आदि नीति छाँटने वाले रूखे लेखक जनसाधारण से अपने को श्रेष्ठ समझकर जिस ढब से आदेश चलाते हैं, वह मनुष्य की आत्माभिमान वृत्ति को अखर सकता है। ये लोग सदाचार का स्वाभाविक सौंदर्य नहीं दिखला सकते जिनकी ओर मनुष्य मोहित होकर आपसे आप ढल पड़ता है। अरस्तु, चाणक्य नीति और स्माइल्स के 'कैरेक्टर' आदि की अपेक्षा उत्तम श्रेणी के उपन्यासों का पढ़ना आचरण पर कहीं बढ़कर प्रभाव डालता है।
बड़े लोगों के जो जीवनचरित्र लिखे जाते हैं वे भी मानव-जीवन के पूरे और सच्चे चित्र नहीं। उनमें भी बहुत-सी सूक्ष्म घटनाएँ तो असामर्थ्य के कारण छूट जाती हैं और बहुत-सी स्थूल घटनाएँ किसी विशेष अभिप्राय से छिपा दी जाती हैं। उनमें मनुष्य के अंत:करण की वृत्तियाँ साफ-साफ नहीं झलकाई जाती। बावेल आदि अँग्रेज़ी लेखकों ने अपने चरित्र नायकों की बहुत छोटी-छोटी बातें भी दर्ज की हैं पर वे जोड़-सी मालूम होती हैं, उनमें औपन्यासिक पूर्णता नहीं आई। बादशाहों तथा वैभवशाली पुरुषों के जो चरित्र लिखे जाते हैं वे तो और भी कृत्रिम होते हैं। किसी महाराज ने अपनी गाड़ी पर से उतर अस्पताल में जा किसी रोगी से दो बातें पूछ ली तो उनकी दया और करुणा का ठिकाना नहीं। क्या इन बातों से मानव अंत:करण की सच्ची परख हो सकती है? वर्ड्सवर्थ, थैकरे, डिकेंस, और जॉर्ज इलियट आदि बड़े-बड़े अँग्रेज़ी कवि और उपन्यास लेखक तथा लेखिकाओं ने दीन से दीन और तुच्छ से तुच्छ लोगों को झोंपड़ियों में जीवन के ऊँचे से ऊँचे आदर्श दिखलाए हैं।
- पुस्तक : नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग 14 संख्या 1 (पृष्ठ 45)
- रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- संस्करण : 15 जुलाई 1910
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.