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राम का रूप

raam ka roop

रामबक्ष जाट

रामबक्ष जाट

राम का रूप

रामबक्ष जाट

और अधिकरामबक्ष जाट

    दादू भक्त हैं, दार्शनिक नहीं। उन्होंने उन दार्शनिक सवालों का जवाब नहीं दिया जो किसी अध्येता के सामने उठ खड़े होते हैं। यदि जीव ब्रह्म का ही अंश है। यहाँ तक की जीव के माध्यम से ब्रह्म ही अभिव्यक्त होता है, तो ब्रह्म ने जीव को पृथक् किया ही क्यों? ब्रह्म ने सृष्टि का सर्जन करके अपने इतने अंशों को कष्ट में क्यों डाला? क्या ब्रह्म को इन जीवों को कष्ट में देखकर प्रसन्नता होती है? यदि उसने मनुष्य का सर्जन किया तो उसके मन और इंद्रियों को क्यों बनाया, जो उसके कष्टों का मूल कारण हैं। फिर, माया और काल जैसे खल पात्रों का सर्जन क्यों किया? माना कि यह उसका खेल है, लेकिन दूसरों को दुःख देने वाला खेल वह खेलता ही क्यों है? फिर जीव अपना 'आपा' खोकर ब्रह्म में लीन हो जाता है, तब उसे सुख की अनुभूति कैसे हो सकती है? अनुभूति के लिए तो स्वतंत्र अस्तित्व की ज़रूरत होती है। जीव तो ब्रह्ममय हो गया है, फिर उसका अस्तित्व कहाँ? ऐसे सवाल मन में उठते हैं। दादू इन्हें संदेहशील वृत्ति कहेंगे, क्योंकि उनके राम जिज्ञासा के विषय नहीं बल्कि भक्ति के विषय हैं। उन्होंने एक पद में लिखा है—

    क्यों करि यहु जग रच्यौ गुसांई।

    तेरे कौन विनोद बसे मन मांही॥

    कै तुम आया प्रगट करणां, के यहु रचिले जीव उधरणां॥

    के यहु तुम्ह कौं सेवक जानें, के यहु रचिले मन के मांने॥

    कै यहु तुम्ह कों सेवग भावै, के यहु रचिले खेल दिषावै॥

    के यहु तुम्ह को बेल पियारा, कै यहु भावै कीन्ह पसारा॥

    यहु सब दादू अकथ कहाणी, कही समझावौ सारंगप्राणी॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 407)

    भक्ति आस्थाशील होती है, तर्क संदेह करता है। दादू ने बिना विवाद किए हुए परंपरा से प्राप्त दार्शनिक विचारों को ग्रहण कर लिया है और उन्हें प्रस्तुत कर दिया है। उन विचारों के समर्थन में स्थान-स्थान पर दादू ने मौलिक तर्क प्रस्तुत किए हैं। राम तो उस बाज़ीगर के समान है और बाज़ीगर के खेल की तरह इस दुनिया को उसने फैला दिया है। हम इस खेल को तो देखते हैं, लेकिन बाज़ीगर से बेख़बर रहते हैं—

    भाई रे बाजीगर नटषेला, अँसे आपै रहै अकेला॥

    यह बाजी खेल पसारा, सब मोहे कोतिग हारा।

    यहु बाजी खेल दिखावा, बाजीगर किनहूँ पावा॥

    इहि बाजी जगत भुलांना, बाजीगर किनहूँ जाना।

    कछु नाहीं सो पेषा, है सो किनहूँ देषा॥

    कछु अँसा चेटक कीन्हा, तन मन सब हरि लीन्हा।

    बाजीगर भुरकी वाही, काहू पै लषी जाई॥

    बाजीगर प्रकासा, यहु बाजी झूठ तमासा।

    दादू पावा सोई, जो इहि बाजी लिपति होई॥ (दादू दयाल ग्रंथावली. पृ. 441)

    उस अविगत की गति को देखने का प्रयास कई लोग करते हैं, लेकिन सब असफल होते हैं। ब्रह्मा ने वेद में इसका विचार किया था, जिसे मालूम कितने पंडितों ने पढ़ा होगा। लेकिन वे उस परम तत्त्व तक नहीं पहुँच पाए। आज भी कुछ लोग उसे पाने का प्रयास कर रहे हैं। कोई आसन जमाकर बैठा हुआ है, किसी योगी ने ध्यान लगाया है। कितने ही मुनियों ने अपने मन को मार डाला, कितने ज्ञान की खोज में भटक गए। कितने ही पीर और पैग़ंबर बन चुके हैं, मालूम कितने ही लोग कुरान का पाठ करते हैं। और भी असंख्य मुल्ला, क़ाज़ी और शेख़ हो चुके हैं, लेकिन उस परम तत्त्व को कोई भी खोज नहीं पाया। इस तर्क-पद्धति के द्वारा दादू अपनी समकालीन धार्मिक रूढ़ियों, कुरीतियों या विडंबनाओं का विरोध करते हैं। ईश्वर प्राप्ति के अब तक बताए गए सब मार्ग असत्य हैं। ये मार्ग चाहे हिंदुओं ने बताए हों, चाहे मुसलमानों ने। ईश्वर तो एक है, लेकिन उस तक पहुँचने के मार्ग अनेक हो गए हैं। लेकिन सारे पंथ भ्रम के हैं—

    मैं पंथि येक अपार के मनि और भावै।

    कोई पंथ पावे पीव का, जिस आप लषावै॥

    को पंथि हींदू तुरक के, को काहू माता।

    को पंथि सोफी सेवडे, को संन्यासी राता॥

    को पंथि जोगी जंगमा, को सकति पंथ ध्यावे।

    को पंथि कमड़े कापड़ी, को बहुत मनावें॥

    को पंथि काहू के चलै, मैं और जानौं।

    दादू जिनि जगु सिरजिया, नाही कौं मानौ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 390)

    दादू कहते हैं कि इन पंथों से जगत् का सर्जन करनेवाले परम तत्त्व को नहीं जाना जाता, यही चिंत्य है। ईश्वर किस आराधना से प्रसन्न होता है, इसे दादू नहीं जानते। अतः वह स्वयं ईश्वर से ही पूछते हैं कि हे गुसाईं, तुम किस तरह से प्रसन्न होते हो, मुझे वह साधना-पद्धति समझा दो, ताकि मैं वैसा ही करूँ। दादू कहते हैं कि जो तुम्हें रुचिकर है, वह तो सिर्फ़ तुम्हें ही पता है और उसे मैं कहकर या समझाकर नहीं बता सकता—

    कौन भाँति भल मानै गुसांई।

    तुम भावै सो मैं जानत नाहीं॥

    के भल मानै नाचे गाए, कै भल मानै लोग रिझाए॥

    के भल मानै तीरथि न्हाए, कै भल मानै मूंड मुडाए॥

    कै भूल मानें सब घर त्यागी, कै भूल मानै भए विरागी॥

    के भल मानै जटा बधाए, के भल मानें भसम लगाए॥

    कै भल मानै बन बन डोलें, कै भल मानें मुषां बोलें॥

    कै भल मानें जप तप कीए, कै भल मानें करवत लीए॥

    कै भल मानें ब्रह्म गियानी, कै भल मानें अधिक धियानी॥

    जै तुम भावै सो तुम पैं आहि, दादू जानै कहि समझाइ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 316)

    अर्थात् राम रहस्यमय है। उसके स्वरूप की जानकारी नहीं मिल सकती। उससे मिलने का पंथ बतानेवाले लोग ढोंगी हैं। राम है तो रहस्यमय, लेकिन इस सृष्टि का सर्जन राम ने ही किया है। किस प्रकार, यह हमारी समझ के बाहर है। राम हमारी समझ से बड़े हैं, उनका गुण-गान इस लौकिक भाषा में संभव नहीं है। राम की इस सृष्टि पर कवि आश्चर्य करता है, यह आश्चर्य कवि मन में सर्जक के प्रति आस्था को और भी अधिक बढ़ा देता है। अपने आपको संबोधित करते हुए दादू एक पद में कहते हैं कि हे मेरे जीव। जिस राम ने तुम्हें प्राण और पिंड दिया है तुम उस राम को सँभालकर रखो। जिसने आकाश का निर्माण करके उसमें अनेक चित्रों (तारों) को चित्रित कर दिया है। जिसने सूर्य और चंद्रमा को बनाया है। इनको वह बिना पहिये के चलाता है, इनमें से एक गर्म है और दूसरा ठंडा। इसके माध्यम से राम अपनी कलात्मकता प्रकट कर रहा है। इसने रंग-बिरंगी धरती का और सात समुद्रों का निर्माण किया है। जल और थल में अनेक जीवों को सँभालने वाला वह स्वयं ईश्वर ही है। जिसने पानी और पवन की सृष्टि की है. जिसके आदेश से बादलों से बरसात होती है, जिसने अनेक पेड़ों की सृष्टि की है और जिनको वह सींचता रहता है। जिसने इन पाँचों तत्त्वों के प्रसार के द्वारा इस सृष्टि का विस्तार किया है। हे मेरे जीव। तू निश्चल होकर उस राम का जाप कर!

    सोइ राम संभालि जीयरा, पिंड प्राण जिनिन दीया रे।

    अंबर आप उपावन हारा, माँहि चित्र जिनि कीया रे॥

    चंद सुर जिनि किया चिराका, चरों बिना चलावै रे।

    इक सीतल इक ताता टोले, अनत कला दिषलावै रे॥

    धरती धरन वरन बहु वांनी, रचिलै सपत समंदा रे।

    जलि थलि जीव संभालन हारा, पूरि रह्यौ सब संगा रे॥

    प्रकट पवन पांणी जिनि कीन्हा, बरिषावै बहु धारा रे।

    अठारह भार विरिषि बहुविधि के, सबका सींचन हारा रे॥

    पंच तत जिनि कीया पसारा, सब करि देषण लागा रे।

    निहचल राम जपी मेरे जीयरा, दादू जाथै जागा रे॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 457-458)

    दादू कहते हैं कि जिसने इस धरती का निर्माण किया और उसे ब्राह्मांड में बिना किसी खंभे के सहारे स्थित कर दिया, वह ईश्वर हम जीवों को भूल नहीं जाएगा। वह सर्वशक्तिमान है। भले ही यह राम दिखाई नहीं देता, लेकिन वह हमेशा जीव के साथ ही रहता है। इसकी इस क़ुदरत को देखा नहीं जा सकता।

    कादिर कुदरति लषी जाइ, कहाँ तै उपजै कहाँ समाइ॥

    कहाँ तै कीन्ह पवन अर पांणी, धरनि गगन गति जाइ जाँणी॥

    कहाँ थे काया ग्यान प्रकासा, कहाँ पंच मिलि एक निवासा॥

    कहाँ थे एक अनेक दिषावा, कहाँ थें सकल एक है आवा॥

    दादू कुदरति बहु हेरानां, कहाँ थे राषि रहे रहिमानाँ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 326)

    ऐसे सर्जनकर्ता राम को कोई भी नहीं जान पाता, क्योंकि वह ज्ञान की सीमा और शक्ति से परे है। हम जिन लौकिक इंद्रियों के द्वारा इस संसार को जानते हैं, उन्हीं इंद्रियों से ईश्वर को कैसे जाना जा सकता है? हम किसी वस्तु को जानते समय देश-काल की सीमा में ही जान पाते हैं। वह देश-काल से परे है और ऐसी सत्ता या शक्ति की जानकारी असंभव है। उस सर्जनकर्ता के पैर कहाँ हैं? सिर कैसा है? मुख, नाक, कान हैं कि नहीं? पेट पीठ किस तरफ़ है। हे गुरु! आप ही इस रहस्य को समझाएँ कि उसका निवास स्थान धरती है या आसमान? या वह स्वर्ग का निवासी है? वह पानी, हवा, पृथ्वी, चाँद सितारे सूर्य में से किसके पास, किस रूप में रहता है? उसका आसन कैसा है? हे गुरु। दैव की गति मुझसे देखी नहीं जाती, तुम ही मुझे समझा दो। दादू कहते हैं—

    ऐसा राम हमारे आवै, वार पार कोई अंत पावे॥

    हलुका भारी कह्यो जाइ, मोल माप नहीं रह्या समाइ॥

    कीमति लेषा नहीं परबान, सब पचि हारे साधु सुजान॥

    आगों पीछौं परिमिति नाहीं, केते पारषि आवे जाहीं॥

    आदि अंति मधि कहै कोइ, देषै दादू अचिरज होइ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 326)

    परमत्तत्त्व तो ऐसी अनुपम सत्ता है, जिसे तो काल नष्ट कर पाता है और वह स्वतः नष्ट होता है। वह मारने से मरता है, आग से जलता है। वह तो अक्षर-अविनश्वर है, उसका क्षरण नहीं होता। उसे सर्दी लगती है गर्मी। वह पानी में डूबता है, वह मिट्टी में मिलता है। ही वह आकाश में विलीन होता है। वह ऐसा अघट अनुपम तत्त्व है। तात्पर्य यह कि जगत् की वस्तुओं की प्रकृति और उनकी परिणति से उस परम तत्त्व की तुलना संभव नहीं है। इसको मन से समझा जा सकता है, लेकिन शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। वह परम सत्ता तो गूँगे के गुड़ की भाँति है। गूँगा व्यक्ति गुड़ का स्वाद भर लेता है, इससे उसे प्रसन्नता होती है। इस प्रसन्नता को अपनी मुख मुद्रा से हाथ पैर हिलाकर अनेक अभिनय करके, प्रकट करना चाहता है। फिर भी, वह उस स्वाद का स्वरूप प्रकट नहीं कर सकता। यहाँ अनुभूति का नहीं, अभिव्यक्ति का संकट है या कि सम्प्रेषण का संकट है। अनुभूत वस्तु अभिव्यक्ति के साधनों में समाहित नहीं हो पाती। दादू ने इस संकट को इन शब्दों में व्यक्त किया है—

    दादू मेरा एक मुष, कीरति अनंत अपार।

    गुण केते परमिति नहीं, रहे विचारि विचार॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 44)

    कवि का मुख एक है, जबकि परमात्मा के गुण अनंत हैं, जिन्हें प्रकट नहीं किया जा सकता। जीव उन गुणों को विचारता ही रहता है—

    दादू गूंगे का गुर कहौं, मन जानत है षाइ।

    राम रसायन पीवतां, सो सुष कह्यो जाइ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 88)

    राम के इस स्वरूप को पढ़-पढ़कर अनेक पंडित थक गए, लेकिन किसी ने उस राम की सीमा को पार नहीं किया, उसके बारे में अनेक मुनियों ने प्रवचन दिए; फिर भी सारी कथा वे कह नहीं पाए। यह ईश्वर है कैसा, इस बारे में दादू ने एक साखी में कहा है कि पानी के भीतर प्रवेश करके यदि हम आँखें खोलें तो हमें चतुर्दिक् पानी-ही-पानी दिखाई देता है, उसी प्रकार सृष्टि में ईश्वर का विचार करना चाहिए—

    दादू पांणी मां है पेसि करि, देषे दिष्टि उघाड़ि।

    जला बिम्ब सब भरि रह्या, जैसा ब्रह्म विचारि॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 47)

    इस राम के अनेक नाम हैंः किंतु इस विवाद में दादू पड़ना नहीं चाहते। वह तो सिर्फ़ यही कहते हैं कि राम के सिवा दूसरा कोई है ही नहीं। जो कुछ सत्य है, वह राम ही है।

    बाबा दूसर नांही कोई।

    येक अनेक नाँव तुम्हारे, मोपै और होइ॥

    अलष इलाही येक तू, तूं ही राम रहीम।

    तूं ही मालिक मोहना, केसौ नाँव करीम॥

    सांई सिरजनहार तूं, तूं पावन तूं पाक।

    तूं कांइम करतार तूं, तूं हरि हाजिर आप॥

    रमिता राजिक येक तू, तूं सारंग सुबिहान।

    कादिर करता येक तूं, तूं साहिब सुलितान॥

    अविगत अलह येक तूं, गनी गुसांई येक।

    अजब अनुपम आप है, दादू नाँव अनेक॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 406)

    अंत में, थक-हारकर दादू कहते हैं कि राम सरीखा तो राम ही है, वह जैसा है, बस 'है'। रे मन! तू उस राम का सुमिरन कर!

    एक तरफ़ तो राम है, जो अलख है, निरंजन है; जिसकी गति को कोई नहीं जान पाता, दूसरी तरफ़ आम आदमी है, जो विषय वासना में लिप्त है। उसकी इस ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप का बोध ही नहीं है। वह माया के वश में पड़ा हुआ है। इंद्रियों के सुख के पीछे भागता है और बार-बार निराश होता है, उस का चंचल मन भटकता रहता है। मेरा-तेरा करता हुआ वह जो जीवन जीता है, वह जीवन मानव-जीवन नहीं होता, बल्कि पशुओं के समान निरर्थक होता है। मोह-माया के बंधनों में पड़कर वह अनेक पाप करता है, जिससे उसे चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ता है। मानव जन्म में वह मुक्ति का एक मौक़ा पाता है, उस मौक़े को भी वह काम-क्रोध के वशीभूत होकर गंवा देता है। ऐसे आम मनुष्य को कभी मुक्ति नहीं मिल सकती। और दादू के अनुसार मुक्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। परंपरा से मानव-जीवन के चार पुरुषार्थ या लक्ष्य; धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, माने गए हैं। दादू आदि संतों के लिए जीवन का एक ही लक्ष्य है और वह चरम-परम लक्ष्य है—जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति।

    एक तरफ़ तो यह जीव अज्ञान के अंधकार में पड़ा रहता है, दूसरी तरफ़ राम रहस्यमय हैं। दोनों के बीच जगत् है, जो दुःखों का घर है। जीव को यहाँ अनेक प्रकार की यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं। यदि उसके मन में कभी मुक्ति की कामना जाग्रत हो भी जाए, तो भी मुक्ति सहज ही में नहीं मिल पाती। मनुष्य के अपने संस्कार और यह मायावी संसार मुक्ति में बाधा बनकर खड़े हो जाते हैं। मनुष्य की इंद्रियाँ हैं, जिनसे वह इस लौकिक विश्व के संपर्क में आता है और इस लोक की जानकारी प्राप्त करता है। फिर एक मन है, जो द्वंद्व में पड़ा रहता है और जिसमें एकाग्रता नहीं है। ईश्वर-मिलन में ये दोनों तत्त्व बाधक हैं। इनका शमन करना पड़ता है। इसके पहले मनुष्य का शरीर है, शरीर की अपनी आवश्यकताएँ हैं। शरीर पैदा होता है और अंतत. मर जाता है अर्थात् मिट्टी में मिल जाता है। ये सब मरणशील तत्त्व हैं। इसी शरीर में जीव का निवास है। उसे ही आत्मा भी कहते हैं। यह परमात्मा का बिछुड़ा हुआ अंश है। शरीर का भोग करते हुए जीव अपनी सुख-सुविधानुसार नहीं चलता, बल्कि मन और इंद्रियों की इच्छाओं के अनुसार चलता है। जगत् के अन्य संबंधों को यदि छोड़ भी दिया जाए, तब भी दादू के अनुसार, मनुष्य स्वभावतः पाप माया की ओर प्रवृत्त होता है। वह इंद्रियाँ और मन से संचालित होता है। ऐसे व्यक्ति की मुक्ति कैसे हो सकती है? दादू की रचनाओं का मूल आशय यही है। पहले वह उन बाधाओं का वर्णन करते हैं, जो व्यक्ति की मुक्ति में बाधक बनती हैं। फिर उन्होंने उस प्रक्रिया का वर्णन किया है, जिससे जीव को मुक्ति मिल सकती है।

    ऐसे व्यक्ति को मुक्ति दिलाने का काम गुरु करता है। प्रसंगात यहाँ यह भी कह दिया जाना चाहिए कि दादू आदि निर्गुण संतों के अनुसार, ज्ञान ही मुक्ति-प्रदाता है, गुरु ज्ञान देता है, ज्ञान से शक्ति मिलती है, प्रकाश मिलता है। इससे अज्ञान का अंधकार मिटता है। अज्ञान व्यक्ति की स्वाभाविक कमज़ोरी है। ज्ञान की शक्ति उसे स्वयं अर्जित करनी पड़ती है। इसी ज्ञान से व्यक्ति को मानव-जीवन की सार्थकता समझ में आती है। ज्ञान पर बल देने के कारण ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण भक्ति के कवियों को ज्ञानाश्रयी शाखा की कोटि में रखा है।

    ऐसा ज्ञान, मनुष्य को अपने आप नहीं मिल सकता। इसके लिए उसे गुरु की शरण लेनी पड़ती है। ज्ञान का तात्पर्य ईश्वर के अस्तित्व के बारे में ज्ञान है। यह ज्ञान लौकिक विषयों की जानकारी से भिन्न है। ईश्वर के बारे में ज्ञान देने का दावा तो बहुत लोग करते हैं, लेकिन सच्चा गुरु किसी-किसी भाग्यवान को ही मिल पाता है। सच्चे गुरु और नक़ली धर्म प्रचारकों में दादू ने अंतर किया है और माया के बंधन में पड़े हुए तथाकथित गुरुयों को उन्होंने 'अंधा गुरु' कहा है। सच्चा गुरु वह है, जो शिष्य के हाथ में ज्ञान का दीपक थमा देता है। इसके प्रकाश में सत्य उद्घाटित हो जाता है। भेष बनाकर घूमनेवाले तथाकथित नक़ली गुरुओं की कमी इस संसार में नहीं है। सच्चा गुरु मिल जाने से मुक्ति आसान हो जाती है, हालाँकि सच्चा गुरु सौभाग्य से ही मिलता है। अतः व्यक्ति को गुरु का आभारी होना चाहिए कि उसे सच्चे गुरु मिल गए—

    सतगुरु पसु माणस करै, मांणस से सिध सोइ।

    दादू सिद्ध तैं देवता, देव निरंजण होइ॥

    दादू काळे काल मुषि, अंधे लोचन देइ।

    दादू जैसा गुरु मिल्या, जीव ब्रह्म कर लेइ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 2)

    दादू वाणी की शुरुआत गुरु की महिमा के गान से होती है। गुरु की कृपा से सृष्टि का रहस्य समझ में आता है, जीवन का चरम लक्ष्य प्रकट होता है और व्यक्तित्व का रूपांतरण हो जाता है। ऐसा गुरु ज्ञान के दरवाज़ों को खोल देता है, और दिखाई पड़नेवाली चीज़ें भी दीखने लगती हैं, दूर के स्थान नज़दीक हो जाते हैं। अतः दादू गुरु की महिमा का गान गोविंद से भी अधिक करते हैं; यह गुरु बाहर नहीं, भीतर ही है—

    दादू मंझे चेला मंझि गुरु, मंझे ही उपदेस।

    बाहरि ढूंढे बावरे, जटा बँधाये केस॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 4)

    इस स्वार्थपूर्ण और क्रूर समाज-व्यवस्था में व्यक्तियों के आपसी संबंध स्वार्थ के संबंध हो गये हैं। सच्चा संबंध तो गुरु का ही है, जो शरीर से नहीं बल्कि प्राण से संबंध रखता है। स्वार्थ के संबंध तो क्षणिक सुख के दिनों के हैं, दुःख की लंबी अवधि में संबंध तो सतगुरु ही रखता है—

    दादू आप सुवारथ सब सगे, प्राण सनेही नाहि।

    प्राण सनेही राम है, कै साधू कलि मांहि॥

    सुष का साथी जगत सब, दुष का नाहीं कोइ।

    दुष का साथी साईयां, दादू सतगुर होइ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 13)

    आत्मा के भीतर ही परमात्मा है। इसकी जानकारी और समझ गुरु देता है। यदि सतगुरु नहीं मिलते तो मैं भवसागर में डूब जाता। स्वयं सतगुरु ने मेरे जीवन की नौका खेकर दुःख के समुद्र से पार लगा दिया। मेरी आत्मा प्यासी थी, चारों ओर ईश्वर की कृपा का जल व्याप्त था, किंतु प्यास तभी बुझ पाई जब सतगुरु मिले—

    सरवर भरिया दहदिसा, पंषी प्यासा जाइ।

    दादू गुर परसाद बिन, क्यूं जल पीवै आइ॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 5)

    इस संसार में सतगुरु तो कम हैं, लेकिन कपट वेषधारी साधु बहुत हैं। जो व्यक्ति इनके प्रभाव में जाता है, वह कभी मुक्त नहीं हो पाता। ऐसे अँधे गुरुओं के बारे में दादू कहते हैं—

    झूठे अंधे गुर घणें, भरम दिढावै आइ।

    दादू साचा गुर मिलै, जीव ब्रह्म ह्वै जाइ॥

    झूठे अंधे गुर घणें, बंधे विषै विकार।

    दादू साचा गुर मिलै, सनमुष सिरजनहार॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 12)

    हालाँकि दादू जीव की मुक्ति का अंतिम श्रेय गुरु को देते हैं, फिर भी मुक्ति के लिए जीव को स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है। गुरु का उपदेश बहुत सहज और सरल लगता है, लेकिन उसका पालन बहुत कठिन होता है। इस प्रक्रिया में बहुत बार असफलता मिलती है, निराशा के कठिन दौर से गुज़रना पड़ता है, तब कहीं लक्ष्य मिलता है। इसलिए दादू ने सिर्फ़ गुरु की महिमा का ही गान नहीं किया, बल्कि शिष्य के प्रयत्नों को भी महत्त्व दिया है। उन्होंने यह भी बताया है कि सच्चे गुरु के साथ-साथ ग्रहणशील शिष्य भी आवश्यक होता है। यदि शिष्य जड़ है तो सतगुरु भी उसको मुक्ति नहीं दिला सकता—

    दादू वैद विचारा क्या करै, जै रोगी रहै साच।

    मीठा बारा चरपरा, मांगै मेरा वाछ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 14)

    दादू ने शिष्यों की प्रयत्नावस्था का विस्तृत वर्णन किया है। गुरु जब ज्ञान देता है, तब शिष्य को ईश्वर के अस्तित्व का बोध होता है। इसी के साथ, उसके मन में विरह की अनुभूति जाग्रत होती है। लौकिक जीवन में पहले संयोग होता है, तब वियोग होता है। संतों के जीवन में विरह पहले होता है क्योंकि संयोग के बाद तो कभी वियोग होगा ही नहीं। यह विरह अनुभवजन्य नहीं, ज्ञानगम्य होता है। गुरु प्रदत्त उपदेश के ज्ञान से यहे विरह उत्पन्न होता है।

    निर्गुण कवियों ने स्त्री-पुरुष संबंध के प्रतीक के माध्यम से आत्मा-परमात्मा के संबंध को व्याख्यायित किया है। यहाँ आत्मा को स्त्री के रूप में और परमात्मा को पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। इस विरह में प्रियतम के ऐश्वर्य का वर्णन उतना नहीं होता, जितना प्रिय से मिलने की तड़प होती है। जीवात्मा ने प्रियतम को तो कभी देखा ही नहीं, अतः उसका सौंदर्य-वर्णन क्या करे? अतः वह अपने ही दुःख का वर्णन करता है। यह दुःख मनुष्य को लौकिक भूमिका से ऊपर उठा देता है क्योंकि यह दुःख अलौकिक है। जिसमें इस दुख का संचार नहीं होता, वह कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। अतः पीड़ादायक होते हुए भी यह वांछनीय है। ईश्वर मिलन की पहली सीढ़ी है—

    दादू पीड उपजी, हम करी पुकार।

    ताथै साहिब ना मिल्या, दादू बीती बार॥

    अंदरि पीड़ ऊभरै, बाहिर करै पुकार।

    दादू सौ क्यूं करि लहै, साहिब का दीदार॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 38)

    गुरु के शब्द-बाण से शिष्य घायल हो गया है और उसके अंग-प्रत्यंग में पीड़ा व्याप गई है। यह ऐसी पीड़ा है, जो बाहर दिखाई नहीं देती। रात-दिन विरहणी आत्मा रोती रहती है, किसी काम में उसका मन नहीं लगता। सांसारिक विषयों से उसका चित्त उचट-सा गया है और प्रियतम अभी तक उसे मिला नहीं है, अतः जीवन में एक पीड़ादायक ख़ालीपन गया है। इससे एक विशेष प्रकार की उदासी घर कर गई है। इसका कारण यह है—

    साहब मुषि बोले नहीं, सेवग फिरै उदास। (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 29)

    उसके दुःख का कारण अब स्वयं राम हैं, जो बोलता नहीं है। इस दुःख को वह किसी और से नहीं कह पाता। स्त्रयं ईश्वर ही इस दुःख को सुनने का अधिकारी है, वह नहीं सुनता। अतः दादू में एकाकीपन और उदासी का भाव गया है—

    ना बहु मिलै मैं सुषी, कहु क्यूं जीवनि होइ।

    जिनि मुझ कूं घाइल कीया, मेरी दारु सोइ॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 29)

    दादू ने कुछ परम्परागत काव्य रूढ़ियों के माध्यम से भी अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है। जैसे भ्रमर सुगंध का लोभी होता है, हरिण संगीत पर मोहित होता है, पतंगा दीपक पर अपनी जान लुटा देता है, चकोर चंद्रमा से प्रेम करता है, चातक पीव-पीव पुकारता रहता है, वैसे ही मैं राम से एकनिष्ठ प्रेम करता हूँ—

    ज्यूं अमली कै चिति अमल है, सूरे कै संग्राम।

    निर्धन के चिति धन बसै, त्यूं दादू के मन राम॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 30)

    जीव का परमात्मा से यह प्रेम अधिकारजन्य नहीं है, वह तो सिर्फ़ प्रभु-दर्शन का प्यासा है। राम से मिलन सिर्फ़ जीव की आराधना से ही संभव नहीं है। जीव की तपस्या के साथ-साथ ईश्वर की कृपा भी उतनी ही आवश्यक है, जिस से अंततः ईश्वर मिलन संभव है। जीव भाँति-भाँति से इस पीड़ा को व्यक्त करता है।

    दादू की साखियों में कई बार कातर निराशा भी व्यक्त हुई है। संसार से सारे संबंध त्याग दिए हैं, राम की एकनिष्ठ पूजा की है, लेकिन ईश्वर मिलन हो नहीं पा रहा है, तपस्या में कोई कमी नहीं है, इंतज़ार भी बहुत किया है। इन सबसे होनेवाली थकान निराशा तक पहुँच चुकी है। दादू ने इस भाव को व्यक्त करते हुए कहा है—

    दादू लाइक हम नहीं, हरि के दरसण जोग।

    बिन देषे मरि जाहिने, पीव के विरह वियोग॥ (दादू दयाल ग्रंथावली, पृ. 36)

    इस स्थिति में जीवन भी निरर्थक लगने लगता है। यह बोध उस समय भी होता है, जब व्यक्ति विषय-वासना में अपना सारा जीवन गँवा कर अंत समय में 'ज्ञान' प्राप्त करता है। तब उसे 'ज्ञान' तो मिल जाता है, लेकिन उसके पास 'कर्म' करने की शक्ति नहीं बचती और वह पश्चात्ताप करता हुआ मर जाता है। यह निरर्थकता उससे अलग है। इसमें जीव (साधक) प्रयत्न करता रहता है और उसे आशंका होती रहती है कि ईश्वर शायद मिले। यह पीड़ा हालाँकि दादू की रचनाओं में बहुत कम साखियों में व्यक्त हुई है, फिर भी दादू ने इस पीड़ा को वाणी दी है।

    इस निराशा से पहले दादू ने साधना की जटिलता का वर्णन किया है। वह आत्म-स्वीकार करता हुआ कहता है कि मेरा मन ही अपराधी है—

    बाबा मन अपराधी मेरा, कह्या माने तेरा॥

    माया मोहि मदि माता, कनक कामनी राता॥

    काम क्रोध अहंकारा, भावै विषै विकारा॥

    काल मीच नहीं सूझ, आतम रांमन बूझै॥

    संम्रथ सिरजनहारा, दादू करै पुकारा॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 353)

    दादू कहना चाहते हैं कि सच्चा गुरु मिल गया, उसने सच्चा ज्ञान भी दे दिया। शिष्य ने भी सत्य ज्ञान को स्वीकार कर लिया, फिर भी मुक्ति नहीं मिली। क्यों? क्योंकि व्यक्ति की पुरानी आदतें हैं। उसका स्वभाव है कि वह माया की तरफ़ झुकता है। उसमें काम, क्रोध और अहंकार है। विकारग्रस्त मन और सुख के पीछे भागने वाली इंद्रियाँ हैं। इनको वश में करना है। जब तक प्रयासपूर्वक इनको वश में नहीं किया जाएगा, तब तक परमात्मा से मिलन संभव नहीं है। गुरु के ज्ञान से सत्य तो प्रकट हो गया, जिसके द्वारा वह इनको वश में कर सकता है। इनको वश में करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ेगा और उस प्रक्रिया में अपने व्यक्तित्व को बदलना होगा। जब परिवर्तित व्यक्तित्व सहज रूप से राममय हो जाएगा तब उसे प्रयास करना नहीं पड़ेगा और तभी वह इस लायक़ होगा कि उसे राम मिल जाए।

    व्यक्तित्व का यह रूपांतरण आसान नहीं है। इंद्रियाँ, मन और माया के बंधन को काटना पड़ेगा। यह कार्य असंभव नहीं है, परंतु मुश्किल अवश्य है। गुरु की कृपा के बिना यह कार्य सरलता से सम्पन्न नहीं हो पायेगा। जो ऐसा कर पाए वही आदर्श पुरुष है, संत है। दादू दयाल ऐसे व्यक्ति को अपना समानधर्मा मानते हैं और लौकिक मनुष्यों में सिर्फ़ उसी का आदर करते हैं।

    राम से जीव का मिलन कैसे होता है? इस प्रक्रिया का वर्णन भी दादू ने किया है। शुद्ध चित्त संत व्यक्ति और सृष्टिकर्ता ब्रह्म आपस में उसी प्रकार मिलते हैं, जिस प्रकार दूध और पानी या पानी में नमक घुल जाता है, उसी प्रकार जीव और ब्रह्म तदाकार हो जाते हैं। उनको फिर पृथक नहीं किया जा सकता।

    दादू ज्यों जल पैसे दूध में, त्यूं पाणी मैं लूंण।

    अँमे आतम राम सौं, मन हठ साधै कूण॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 22)

    जिस प्रकार किसी अफ़ीमची के चित्त में अमल (अफ़ीम) बसता है, योद्धा के मन में संग्राम की चाहत रहती है, उसी उत्कंठा और लालसा से मेरे मन में राम रहता है। जब परमात्मा से मिलन होता है तो यह दो अलग सत्ता का मिलन या समाहार नहीं होता, बल्कि जीव के पृथक् अस्तित्व की चेतना का परिहार हो जाता है और वह ब्रह्म में ही अपने आपको विर्जित कर देता है। जब तक जीव में अहंकार रहता है, तब तक ईश्वर उससे दूर रहता है, अहंकार का विनाश हो जाने के बाद, जब जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है तब फिर जीव का पृथक् अस्तित्व शेष नहीं रहता, ब्रह्म ही ब्रह्म रहता है। तब मन नाहीं मैं नहीं, नहीं काया नंहि जीव।

    दादू एकै देषिए, दह दिसि मेरा पीव॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, 47)

    दादू देखूं दयाल कूं, सकल रह्या भरपूरि।

    रोम-रोम मैं रमि रह्या, तूं जिनि जानें दूरि॥

    दादू देखूं दयाल कूं, बाहरि भीतरि सोइ।

    सब दिसि देखूं पीवं कूं, दूसर नाहीं कोइ॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 50)

    इस तरह जीव और ब्रह्म का परस्पर मेल हो जाता है। दादू ख़ुद हैरान हैं कि जीव और ब्रह्म का यह कैसा अद्भुत मेल है ! इसमें जीव ब्रह्ममय हो गया है, फिर भी उसे आनंद की अनुभूति हो रही है। इस स्थिति तक लाने का श्रेय गुरु का है अतः जीव गुरु का आभारी है। चरम आनंद के क्षण में भी, जीव गुरु की कृपा के महत्त्व को भूलता नहीं, उसे याद रखता है।

    निकट निवंजन देषि हौं, छिन दूरि जाई।

    बाहरि भीतरि एक-सा, सब रह्या समाई॥

    सतगुरि भेद बताईया, तब पूरा पाया।

    नैननि ही निरषौं सदा, घरि सहजै आया॥

    पूरे सौं परचा भया, पूरी मति जागी।

    जीव जानि जीवनि मिले, जैसे बड़भागी॥

    रोम-रोम में रमि रह्या, सो जीवनि मेरा।

    जीव पीव न्यारा नहीं, सब संगि बसेरा॥

    सुन्दर सो सहजै रहै, घटि अन्तरजामी।

    दादू सोई देषिहों, सारौं सिरि स्वामी॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 394)

    जब आत्मा को परमात्मा मिल जाता है, तब आत्मा चरम आनंद का भोग कर रही होती है। उसे परम आनंद की अनुभूति हो रही होती है। आनंद की उस अनुभूति को दादू व्यक्त भी करते हैं। सांसारिक विषय-वासनाओं के कष्ट से जीव अब पूरी तरह से मुक्त है और वह हर समय परमात्मा के साहचर्यं सुख का भोग कर रहा है। अब उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं है, फिर उसे आनंद की अनुभूति कैसे हो सकती है? क्या दादू द्वैतवादी थे या अद्वैतवादी थे? पं० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के मूल्यांकन के प्रसंग में इस सवाल को उठाया है। उनके अनुसार कबीर तो द्वैतवादी हैं और अद्वैतवादी हैं, बल्कि उनकी अनुभूति 'द्वैताद्वैत विलक्षण' है। राम से पूर्ण मिलन होते हुए भी, एकाकार होते हुए भी जीव पृथक् रूप से मिलन सुख का अनुभव कर सकता है, करता है। दादू दयाल में भी कबीर की यह परंपरा मिलती है। वे कहते हैं—

    येक कहीं तो दोइ है, दोइ कहीं तो येक।

    यौं दादू हैरान है, ज्यों है तूं ही देष॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 90)

    नहीं तब येक है, मैं आइ तब दोइ।

    मैं तैं पड़दा मिटि गया, तब ज्यूं था त्यौं होइ॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 234)

    जहां राम तहां मैं नहीं, मैं तहां नाहीं राम।

    दादू महल बारीक है, द्वै कू नाहीं ठाम॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 236)

    दादू के अनुसार 'मैं' और 'राम' साथ-साथ नहीं रह सकते। जब मैं पर का पर्दा हट जाता है तब ही जीव पूर्ण स्थिति में पहुँच जाता है। वही स्थिति सत्य है, वांछनीय है। इस प्रकार, दादू उस विचार प्रणाली के समर्थक हैं, जो यह मानती है कि सृष्टि की रचना विचारमूलक है। यह विकास नहीं बल्कि पतन है। अतः सृष्टि का लोप ही वांछनीय है। इससे सारे जीव ब्रह्ममय हो जायेंगे और अपनी वास्तविक, सहज स्थिति प्राप्त कर सकेंगे।

    यहाँ यह प्रश्न भी उठता है कि क्या मुक्ति के लिए मृत्यु आवश्यक है? सगुण मत वालों के अनुसार, इस जीवन से मुक्ति मृत्यु के उपरांत ही संभव है। मुक्ति में यह काया ही बाधा है। इस बाधा के हटने के बाद ही कुछ हो सकता है। दादू ने इसका विरोध किया। उन्होंने कुछ साखियों में मृत्यु के बाद मुक्ति बताने वालों का विरोध किया है—

    मूवां पीछे मुकति बतावै, मूवा पीछें मेला।

    मूवां पीछे अमर अझै पद, दादू भूले गेला॥

    मूवां पीछे वैकुंठि वासा, मूवा श्रगि पठावैं।

    मूवां पीछे मुकति बतावै, दादू जग बौरावें॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 261)

    दादू ने कहा कि जो मृत्यु के बाद स्वर्ग भिजवाते हैं अथवा ईश्वर से मिलन बताते हैं; वे इस संसार को ठगते हैं। दादू के अनुसार, मुक्ति जीवित रहते ही संभव है, मृत्यु के बाद मुक्ति नहीं है। जो जीवित रहते हुए मुक्ति नहीं पा सकता, वह तो भव सागर में डूब जाता है।

    जीवत प्रगट नां भया, जीवत परचा नांहि।

    जीवत पांव पीव कौं, बूड़े भौजल मांहि॥

    जीवत पद पाया नहीं, जीवत मिले जाइ।

    जीवत जे छूटे नहीं, दादू गए बिलाई॥ (दादू दयाल ग्रन्थावली, पृ. 260)

    निर्गुण संतों ने इस स्थिति के लिए 'जीवत-मृतक' की संज्ञा दी है। जीवित रहते हुए ही जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों और मन को मार डालता है, वही संत 'जीवत-मृतक' हो जाता है; वही कलियुग में मुक्त हो पाता है। कितना विचित्र विरोधाभास है कि जो संत 'काया' को असत्य मानते हैं, वे इसी काया में जीव की मुक्ति भी देखते हैं। यहाँ काया बाधा नहीं बनती।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दादू दयाल (पृष्ठ 47)
    • रचनाकार : रामबक्ष जाट
    • प्रकाशन : साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
    • संस्करण : 2017

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