Font by Mehr Nastaliq Web

पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी

panDit mahavir parsad dvivedi

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

     

    हिंदी-साहित्य में जब एक और कल्पना-प्रसूत-साहित्य का निर्माण हो रहा था तब कितने ही विज्ञों के द्वारा ज्ञान का क्षेत्र भी परिष्कृत हो रहा था। भारतेंदु जी हिंदी साहित्य सेवियों के लिए पथ-निर्देश कर गए थे। उनके बाद साहित्य-निर्माण का भार उन लोगों पर पड़ा, जिनकी शक्ति परिमित थी। उन लोगों में साहित्य के प्रति अनुराग था, उत्साह था, सेवा-भाव था। उन लोगों ने भारतेंदु-निर्दिष्ट पथ पर हिंदी साहित्य को अग्रसर करने के लिए सभी तरह के प्रयास किए। उन्होंने निबंध लिखे, नाटकों की रचना की, उपन्यासों और आख्यायिकाओं का प्रणयन किया, अन्य भाषाओं के कुछ ग्रंथ-रत्नों के अनुवाद भी किए, पत्र भी निकाले, परंतु उनमें से अधिकांश साधनहीन थे। उनके प्रयास प्रयास-मात्र रहे। पंडित राधाचरण गोस्वामी का 'भारतेंदु', पंडित प्रतापनारायण मिश्र का 'ब्राह्मण' और पंडित बालकृष्ण भट्ट का 'हिंदी-प्रदीप' उन्हीं की जीवन-साधना के स्मृति-स्तंभ हैं। प्रतिभा ईश्वर-प्रदत्त शक्ति है, पर उसके विकास के लिए मनुष्य-प्रदत्त शक्ति की आवश्यकता है। उन दिनों हिंदी-साहित्य की ओर उपेक्षा भाव था। सर्व-साधारण को आकृष्ट करने के लिए कौतूहल-वर्द्धक साहित्य की आवश्यकता थी और इस आवश्यकता की पूर्ति की देवकीनंदन खत्री ने। उनके उपन्यासों ने हिंदी भाषा भाषियों के हृदय में साहित्य के प्रति अनुराग अवश्य पैदा कर दिया। काशीधाम उपन्यासों का एक प्रधान क्षेत्र हो गया। और कितने ही उपन्यास प्रकाशित हुए। कुछ मौलिक थे और कुछ अनुवाद पर सभी तरह के उपन्यासों का यथेष्ट प्रचार हुआ। यही आधुनिक हिंदी-साहित्य का निर्माणकाल अथवा प्रयास-काल है।

    (दो)

    साहित्य का सबसे बड़ा समालोचक काल है। अधिकांश लेखकों का गौरव अल्पकालीन होता है। कुछ ही वर्षों में उनकी रचना की महत्ता नष्ट हो जाती है। कुछ लोग अपने जीवन भर गौरव का उपभोग करते हैं। उनके बाद उनका भी गौरव विलुप्त हो जाता है। पर कुछ ऐसे होते हैं, जिनकी रचना में स्थायित्व है। यह कहना कठिन है। इसकी यथार्थ परीक्षा तो काल ही करता है, पर इसमें संदेह नहीं कि हम लोग प्रायः लोकप्रिय साहित्य को ही स्थायी साहित्य मान बैठते हैं।

    आज जो काव्य, नाटक अथवा उपन्यास अभूतपूर्व जान पड़ता है, उसकी नवीनता कुछ ही वर्षों में नष्ट हो जाती है तब उसके स्थान में दूसरे अभूतपूर्व काव्य, नाटक अथवा उपन्यास आ जाते हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माण-काल में जो रचनाएँ अभूतपूर्व थीं, उनमें से अधिकांश तो बिलकुल विलुप्त हो गई हैं और कुछ केवल संग्रह-ग्रंथों में हैं। कुछ ऐसी हैं जिनका दर्शन हमें पुस्तकालयों में ही होता है। सर्वसाधारण की पठनीय सामग्री में अब उसका स्थान नहीं है। रचनाएँ स्पृहणीय न होने पर भी उनके लेखक श्रद्धेय अवश्य हैं।

    अड़तालीस वर्ष का समय कुछ अधिक नहीं होता; परंतु गत अड़तालीस वर्ष हिंदी-साहित्य के लिए अवश्य महत्त्वपूर्ण हैं। अड़तालीस वर्ष पहले हिंदी-साहित्य की जो स्थिति थी, आज वह नहीं है। हिंदी साहित्य अब ख़ूब संपन्न हो गया है। 'सरस्वती' का संपादन-भार लेने के बाद द्विवेदी जी ने हिंदी की हीनावस्था को प्रकट करने के लिए जो एक व्यंग्य चित्र उसमें प्रकाशित कराया था आज वही चित्र हम लोगों को उपहास-जनक प्रतीत होगा। हिंदी साहित्य की यह आश्चर्यजनक उन्नति द्विवेदी जी की साधना का फल है। द्विवेदी जी ने अपनी साहित्य-सेवा के द्वारा हिंदी में सुरुचि और सुशिक्षा का प्रचार किया।

    द्विवेदी जी का एक बड़ा काम उनकी समालोचना है। उनके समय में ‘सरस्वती’ का पुस्तक-परिचय महत्त्वपूर्ण था। द्विवेदी जी की सम्मति एक कठोर निरीक्षक की सम्मति थी। हिंदी में अब तो सम्मतियाँ प्रकाशित करने की चाल ख़ूब बढ़ गई है। विद्वानों की सम्मतियाँ आदरणीय अवश्य हैं। समाज में जिन लोगों की विशेष प्रतिष्ठा है उनकी सम्मतियों का प्रभाव भी ख़ूब पड़ता है। इसीलिए लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों की अनुकूल सम्मतियाँ प्रकाशित करने से प्रकाशकों और लेखकों को यथेष्ट लाभ होता है। सर्व-साधारण को यह विश्वास रहता है कि जो विद्वान् हैं वे ख़ूब सोच-विचार कर, गुण-दोषों की अच्छी तरह परीक्षा कर, किसी रचना पर अपनी सम्मति दिया करते हैं। आजकल हिंदी में जो सम्मतियाँ प्रकाशित होती रहती हैं, उन्हें पढ़ने से यही जान पड़ता है कि इन सम्मतियों का आधार कोई सिद्धांत नहीं रुचि मात्र है। किसी विद्वान् को कोई रचना रुचिकर नहीं है, किसी को उपन्यासों और कथाओं से विरक्ति है, किसी को स्त्रियों के चित्रों से चिढ़ है। ऐसे विद्वान् ऐसी रचनाओं के विरुद्ध अपनी सम्मति देंगे ही, परंतु समालोचना करना एक बात है और अपनी रुचि के अनुसार किसी रचना को अच्छी या बुरी कहना दूसरी बात है। विद्वानों में भी रुचि वैचित्र्य होता है। रुचि-रुचि में भेद भी है। किसी की रुचि दूषित होती है ओर किसी की विशेष परिष्कृत। शिक्षा और संस्कार के प्रभाव से किसी देश के अधिकांश लोगों की रुचि एक-सी हो जाती है। उसे हम लोक-रुचि कहते हैं। न तो विद्वानों की रुचि उपेक्षणीय है और न लोक-रुचि। परंतु इसमें संदेह नहीं कि ऐसी रुचि के आधार पर यदि कोई सम्मति दी जाए तो यह समालोचना नहीं है, और व्यवसाय की दृष्टि से चाहे उनका कितना ही अधिक मूल्य क्यों न हो, साहित्य की दृष्टि से उनका कोई महत्त्व नहीं है। समालोचना या सम्मति दान का आधार कोई सिद्धांत होता है। यदि किसी विद्वान को देव की रचना की अपेक्षा बिहारी की रचना अधिक रुचिकर है, या अधिकांश लोगों को 'सेवा सदन' की अपेक्षा 'रंगभूमि' अधिक चित्ताकर्षक है, तो उसी के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि देव से बिहारी श्रेष्ठ हैं या रंगभूमि से सेवासदन हीन है। किसी रचना के गुण दोषों की विवेचना करने के लिए हमें अपनी व्यक्तिगत रुचि की उपेक्षा कर उन सिद्धांतों के अनुसार आलोचना करनी चाहिए जिनसे साहित्य की यथार्थ महिमा प्रकट होती है। द्विवेदी जी एक सिद्धांत को लेकर आलोचना करते थे। इससे उनकी आलोचना का यथेष्ट प्रभाव पड़ा।

    समालोचना सचमुच साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। इतिहास, विज्ञान आदि साहित्य की अन्य शाखाओं की तरह समालोचना की भी आवश्यकता है। किसी रचना का गुण-दोष बतला देने से ही समालोचना का कार्य समाप्त नहीं हो जाता। समालोचना के लिए सबसे बड़ी आवश्यक बात यह है कि उसमें उन सिद्धांतों की विवेचना की जाए जिनके आधार पर सत्साहित्य की प्रतिष्ठा होती है। सत् और असत् की विवेचना ही समालोचना है। कभी-कभी समाज की कुछ ऐसी विकृत अवस्था हो जाती है कि उसे अनिष्टकर रचनाएँ ही विशेष रुचिकर मालूम होती हैं। ऐसी अवस्था में समालोचक का यह कर्त्तव्य है कि वह सत् और असत् की विवेचना कर जनसमाज की रुचि को सत्साहित्य की ओर प्रेरित करने की चेष्टा करे।

    समालोचना के विषय में अमेरिका के प्रसिद्ध कवि वाल्ट हिटमेन का कथन है—साहित्य-मर्मज्ञों की यह धारणा-सी हो गई है कि केवल साहित्य की अवनति के दिनों में समालोचना का उदय होता है। संभव है, ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात सच हो, किंतु इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि यह बात तीनों कालों के लिए एक समान सत्य है। मैं तो समझता हूँ कि यदि उचित प्रकार की समालोचना हो, यदि यह बात केवल उन लोगों के हाथ में रहे जो सचमुच बड़े हैं, तो वे सहज ही में आधुनिक काल के लेखकों की कुरुचिपूर्ण प्रणाली की धज्जियाँ उड़ा सकते हैं, इतना ही नहीं, वे इसका भले प्रकार विध्वंस करके उच्च कोटि के लेखकों, यहाँ तक कि कवियों, को भी उत्पन्न कर सकते हैं। किंतु इसके लिए समालोचकों को एक आदर्श की कल्पना क्या, सृष्टि करनी होगी। संसार में ऐसे मनुष्य कितने हैं, जो ऐसे साहित्य-मर्मज्ञों के महत्त्व की बराबरी कर सकें, जो सदैव सत्य की खोज में व्यस्त रहते हैं। यदि हम समालोचना को केवल उसी अर्थ में प्रयुक्त करें जिसमें उसे होना चाहिए, तो वह सचमुच बड़ा काम है। यह एक कला है, शायद इसे हम एक 'धर्म' का स्थान देने में भी संकोच न करेंगे, क्योंकि इस संसार में जो कुछ है, मनुष्य ने जितनी भी सफलताएँ यहाँ प्राप्त की हैं, ये सब इनके अंतर्गत आ जाती हैं। इसके सिद्धांत सुनिश्चित हैं। एक ओर सारा विश्व इसमें समाया हुआ है, सार्वभौमिकता इसमें कूट-कूटकर भरी है किंतु दूसरी ओर यह छोटी से छोटी बात की भी अवहेलना नहीं करता। समालोचक की आँख सदैव खुली रहती है और कान सदा चैतन्य रहते हैं। उसे हृदय और भावनाओं का तथा नैसर्गिक और बौद्धिक विकास दोनों प्रकार का अच्छा ज्ञान रहता है। उसका क्षेत्र केवल बुद्धि तक नहीं हैं, हृदय पर भी उसका विकास है, क्योंकि पिता के अनुभवों, माता के भावों, देशभक्त की चिंताओं का भी उसे पूरा-पूरा ज्ञान होता है। वह साहित्य का मर्मज्ञ होता है—इस विषय में तो कहना ही क्या, सारी पुस्तकों का भंडार उसकी हथेली पर नाचता है। सच पूछो तो उसे पुस्तकों का व्यसन-सा होता है। इन पर सब गुणों से व्यक्त होने पर ही समालोचक सच्चा समालोचक हो सकता है। यही बात द्विवेदी जी में थी।

    हमारे देश और हमारे युग के लिए जो साहित्योद्यान चाहिए, उस आनंद-कानन के लिए ऐसे ही मालियों, ऐसे ही निरीक्षकों और ऐसे ही समालोचकों की आवश्यकता थी। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार काट-छाँट करने वाले मालियों के हाथ पड़कर नंदन-कानन की भी दुर्दशा हो जाएगी। भारत की भौगोलिक स्थिति कितनी विस्तीर्ण और कितनी विभिन्न है, इसमें कितनी जातियों का समावेश हो गया है, इसमें कितने विचित्र आदर्श हैं। इसी ने सबसे पहले एक स्वतंत्र, शक्ति-संपन्न और पूर्ण-पुरुष की कल्पना संसार के सामने रखी है। आदर्शों के इन ऋजु-कुटिल और नाना पंथों में समाज को सत्य का आलोक प्रदान करने के लिए सच्चे समालोचकों का होना अनिवार्य है।

    यह सच है कि किसी रचना के मूल्य की परीक्षा साहित्य के नियमोपनियमों के द्वारा कदापि नहीं हो सकती। सच पूछा जाए तो मौलिक और उच्च कोटि की कृति का ऐसे प्रचलित नियमोपनियमों से कोई संबंध नहीं होता। प्रतिभा किसी प्रकार के बंधन को स्वीकार नहीं कर सकती। प्रतिभा अपना नियम आप बना लेती है। परंतु प्रतिभा की सृजन-शक्ति में और असंयमों की उच्छृंखलता में भेद है। इसी से साहित्य में मर्मज्ञों की आवश्यकता है और इसी आवश्यकता की पूर्ति द्विवेदी जी ने की थी।

    (तीन)

    जो युग के प्रवर्तक होते हैं उन्हें सबसे पहले लोक रुचि को परिष्कृत करना पड़ता है। समाज की एक विशेष बौद्धिक अवस्था के अनुसार समाज की एक विशेष रुचि मध्ययुग में भक्तिभाव का प्राबल्य होने पर जो सगुणोपासना आरंभ हुई, उसी के कारण रीतिकाल में शृंगार-रस, नायिका-भेद और नख-शिख वर्णन की ओर लोगों की रुचि बढ़ी। भारतवर्ष के लिए वह अंधायुग था। शिक्षा का प्रचार रुक गया था। लोगों में अंधविश्वास और अंधभक्ति अधिक होने के कारण ज्ञान के लिए अधिक आग्रह नहीं था। जाति में अवसाद था, आत्मशैथिल्य था, इसीलिए कल्पना के माया-लोक में कल्पित नायक और नायिका की प्रेमलीला से ही उन्हें मनस्तुष्टि होती थी। भारतेंदुजी ने हिंदी गद्य-साहित्य में नवयुग का दर्शन तो अवश्य कराया, पर गद्य साहित्य में मध्ययुग के आदर्श ही उन्होंने स्वीकृत किए। 

    ब्रजभाषा में एक तो स्वाभाविक माधुर्य है और फिर ब्रज भाषा के कवियों ने उसे अलंकारों से सजाकर एक ऐसा मनमोहक रूप प्रदान कर दिया है कि वह मूर्तिमती कविता ही हो गई है।

    यमक और अनुप्रास की छटा में भाव विकृत रूप हो गया था। पर लोग यही समझ रहे थे कि कविता के लिए एकमात्र ब्रजभाषा ही उपयुक्त है। गद्य और पद्य की भाषा एक हो नहीं सकती। द्विवेदी जी ने बोलचाल की भाषा में स्वयं कविताएँ लिखीं और उसी का पक्ष समर्थन किया। श्रीधर पाठक जी ने गोल्डस्मिथ की एक कविता का पद्यात्मक अनुवाद बोलचाल की भाषा में किया। द्विवेदी जी ने भी उसी भाषा में ‘कुमारसंभव-सार’ लिखा। खड़ी बोली की इस प्रधानता से हिंदी के काव्य-साहित्य में वस्तुवाद की प्रतिष्ठा हुई। कल्पना का मायालोक टूट गया और राष्ट्रीय और सदुपदेशपूर्ण कविताओं का प्रचार बढ़ने लगा।

    समाज में जैसा अंध-विश्वास प्रबल होता है, वैसा अंधभक्ति-भाव भी प्रबल होता है। उस अंधभक्ति के ऊपर आघात होते ही समाज विक्षुब्ध, विचलित हो उठता है। परंतु समाज का यह विक्षोभ उसके लिए श्रेयस्कर होता है, क्योंकि तभी हम सत्य की परीक्षा के लिए उत्कंठित होते हैं। सत्य वही है जो तर्क का आघात सह लेता है। पर तर्क जब हम लोगों की चिरकालीन बद्ध-मूल धारणाओं को भी भ्रमपूर्ण सिद्ध करने के लिए प्रयत्न करता है, उस समय हमें वह सहन नहीं होता। पर समालोचना की उपयोगिता उसी में है। द्विवेदी जी ने समय-समय पर कुछ ऐसे लेख लिखे हैं जिनके कारण हिंदी साहित्य में एक आँधी-सी आ गई है। पर उन्हीं आँधियों के कारण हिंदी में सुरुचि का प्रचार हुआ है। जब तक हम लोग सत्य को साग्रह स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं तब तक हम लोग उन्नति कर ही नहीं सकते। अपने दोषों की ओर आँख मूँद लेने से हमारी उन्नति की गति अवरुद्ध हो जाएगी। पर उन समालोचनाओं से क्या लाभ जो साहित्य में नए आदर्शों की सृष्टि नहीं करतीं। इसीलिए अपने अट्ठारह वर्ष के संपादनकाल में द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ में क्या विदेशी और क्या स्वदेशी, सभी श्रेष्ठ साहित्य-कला-कोविदों और कलाकारों के परिचय प्रकाशित किए हैं। यही नहीं, उन्होंने सर्व-साधारण की ज्ञान-वृद्धि के लिए सभी प्रकार के उपयोगी विषयों पर लेख लिखे हैं। द्विवेदी जी के जीवन का लक्ष्य था जनसमाज की सेवा। उन्होंने जो कुछ लिखा है जन-समाज के लिए लिखा है। लोगों में शिक्षा का प्रचार हो, उनके ज्ञान में वृद्धि हो, सत्साहित्य की और उनकी प्रवृत्ति हो, वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों को पहचानें, इसी उद्देश्य से वे लेख लिखते थे। वे कला के लिए कला के उपासक नहीं थे। जो जीवन के लिए श्रेयस्कर नहीं है, ऐसी कला में वे किसी प्रकार का सार नहीं देखते थे। वे तुलसी और सूर के उपासक थे, देव और मतिराम के नहीं। उनके संपादन-काल में ‘सरस्वती’ में एक भी ऐसा लेख नहीं प्रकाशित हुआ, जिसका समाज पर बुरा प्रभाव पड़े। ऐसे विज्ञापनों को भी वे ‘सरस्वती’ में प्रकाशित नहीं होने देते थे, जिनमें किसी प्रकार की अश्लीलता हो। ‘सरस्वती’ के द्वारा द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य में सुरुचि का प्रचार किया और साहित्य के क्षेत्र को ख़ूब विस्तृत किया। हिंदी में अभी किसी भी विषय पर यदि कोई लेखों का संग्रह करना चाहे, तो उसे ‘सरस्वती’ का ही आश्रय लेना पड़ेगा। अधिकांश सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, कविताएँ, समालोचनाएँ आदि रचनाएँ उसी से निकली हैं।

    (चार)

    मैं ‘सरस्वती’ के उन भक्त पाठकों में से हूँ जिन्होंने ‘सरस्वती’ के पहले अंक से लेकर आज तक के सभी अंकों का ख़ूब मनोयोग से अध्ययन किया है। अपने सौभाग्य से मुझे कुछ वर्षों तक ‘सरस्वती’ में काम करने का अवसर भी मिल गया और सात-आठ महीने तक मैं द्विवेदी जी का सहकारी रहा। द्विवेदी जी संपादन कार्य में कितने दक्ष थे, इसके लिए मेरे समान लोगों को अपनी सम्मति देने की आवश्यकता नहीं है। द्विवेदी जी की सबसे बड़ी विशेषता उनकी कार्य-तत्परता थी। वे अपने कार्य में इतने सावधान थे कि एक भी भूल उन्हें क्षम्य नहीं थी। प्रूफ़ की भूलों को वे सहसा क्षमा नहीं करते थे। एक बार सरस्वती के किसी अंक में पुराने कवरों पर चिट लगाकर उन्हें काम में लाने की आवश्यकता पड़ गई। द्विवेदी जी के लिए एक भूल भी अक्षम्य थी। उन्होंने इस संबंध में ख़ूब डांटकर पत्र लिखा था। सरस्वती के पाठकों के मनोरंजन आदि ज्ञान-वृद्धि के लिए अँग्रेज़ी, बंगाली, गुजराती, मराठी आदि कई भाषाओं के पत्रों से सामग्री संकलित की जाती थी। द्विवेदी जी जो कुछ लिखते थे उसकी सामग्री यदि उन्होंने किसी अन्य पत्र से ली तो उस मूल लेख या नोट को भी काटकर अपने लेख के साथ भेजते थे। रिव्यू, ऑव रिव्यूज़, मॉर्डन रिव्यू, प्रवासी और लीडर उन्हें विशेष प्रिय थे। गवर्नमेंट गज़ट और रिपोर्टों को वे ख़ूब ध्यान से पढ़ते थे और प्रति मास दो-चार नोट उन्हीं के आधार पर निकालते थे। उनसे देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों की वे मार्मिक आलोचना करते थे। साहित्य और शिक्षा का भी सूक्ष्म विवेचन रहता था। ऐतिहासिक और पुरातत्त्व संबंधी विषयों की भी चर्चा ये किया करते थे। द्विवेदी जी के बड़े काम के हैं। मेरा तो यह विश्वास है कि अँग्रेज़ी में जिस प्रकार अपने-अपने युग हैं, उसी प्रकार इस युग के बौद्धिक विकास का दिग्दर्शन हमें उन्हीं नोटों में होता है। इसी से मैंने पंडित देवीदत्त जी शुक्ल से कहा कि जब द्विवेदी जी अपने सब लेखों की विशेषता बतलाने के लिए Paston letters या फ़ाक्स और वेसली के Journal को पुस्तकाकार प्रकाशित करा लें, तब मेरी इच्छा के अनुसार वे अपने नोटों का भी एक संग्रह प्रकाशित कराएँ। उन्होंने मेरी बात मान ली और अपने कुछ नोटों का संग्रह प्रकाशित कराया भी। यदि मेरी सम्मति का कुछ मूल्य हो, तो मैं यही कहूँगा कि ये नोट हिंदी की स्थायी संपत्ति हैं। द्विवेदी जी की यथार्थ विशेषता इन्हीं नोटों से प्रकट होती है।

    द्विवेदी जी गए और उनके साथ एक युग का भी अंत हो गया। उन्होंने साहित्य की एक मर्यादा स्थापित कर दी थी और कविता का एक आदर्श निश्चित कर दिया था। उन्होंने साहित्य को जन-समाज से कभी पृथक् न होने दिया। गंभीर से गंभीर विषयों पर लेख प्रकाशित हुए, पर वे सभी सर्वसाधारण के लिए सुपाठ्य और सरल थे। उनके काल में जो कहानियाँ प्रकाशित हुई, उनमें यथार्थ जगत् चित्र थे पर कला के नाम से समाज की वीभत्स लीलाएँ उनमें अंकित नहीं हुई। कविताओं में सरलता के साथ सरसता थी और उनमें असंयत कल्पना नहीं आने पाई। उन्होंने सर्वत्र भाषा और भाव दोनों की विशुद्धि पर ध्यान दिया, इसीलिए उनका युग सुरुचि और सुशिक्षा का युग था।

    द्विवेदी जी हिंदी-साहित्य में केवल ज्ञान का द्वार उन्मुक्त करके ही नहीं रुक गए, उन्होंने सच्चे सेवक की तरह हिंदी साहित्य के मंदिर को कलुषित होने से बचाया, उन्होंने हिंदी साहित्य को सदा उच्च आदर्श पर रखने की चेष्टा की। क्या भाषा और क्या भाव, कहीं भी उन्होंने विकार नहीं आने दिया। जहाँ उन्होंने भाषा या भाव-संबंधी कालुष्य देखा, वहीं उसका विरोध किया, फिर चाहे उसका प्रवर्तक कितना ही बड़ा साहित्य-सेवी या विद्वान् क्यों न हो। असत्य का उन्होंने सदा मूलोच्छेद ही किया, साहित्य में सस्ती कीर्ति लुटाने वालों के लिए उन्होंने जगह ही नहीं रखी, इसीलिए उनके संपादन-काल में समस्त हिंदी-साहित्य पर आतंक -सा छाया हुआ था। लेखक भी सावधान थे, और प्रकाशक सावधान थे। सभी अपने मन में यह बात समझते थे कि हिंदी-साहित्य पर किसी निरीक्षक की दृष्टि लगी हुई थी, जो किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। द्विवेदी जी के इस प्रभाव के कारण हिंदी-साहित्य उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहा। खेद यही है कि साहित्य-क्षेत्र से उनके हट जाने के बाद कोई दूसरा उनका स्थान नहीं ले सका।

    यदि कोई मुझसे पूछे कि द्विवेदी जी ने क्या किया, तो मैं उसे समग्र आधुनिक साहित्य दिखलाकर कह सकता हूँ कि यह सब उन्हीं की सेवा का फल है। कुछ लेखक ऐसे होते हैं, जिनकी रचना पर ही उनकी महत्ता निर्भर है। कुछ ऐसे होते हैं, जिनकी महत्ता उनकी रचनाओं से नहीं जानी जा सकती। द्विवेदी जी की साहित्य-सेवा उनकी रचना से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। उनके वयक्तित्व का प्रभाव समग्र साहित्य पर पड़ा है। मेघ की तरह उन्होंने विश्व से ज्ञान-राशि संचित कर और उसको बरसा कर समग्र साहित्योद्यान को हरा-भरा कर दिया। वर्तमान साहित्य उन्हीं की साधना कर सुफल है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-6 (पृष्ठ 376)
    • संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
    • रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए