कथा - आख्यायिका और उपन्यास
katha akhyayika aur upanyas
123 लाखों वर्ग मील में फैले हुए हजारों वर्ष के वृद्ध इस भारतवर्ष की साहित्यिक साधना इतनी विराट, इतनी जटिल और इतनी गंभीर है कि उसको प्राचीन और नवीन चिंताओं पर संक्षेप में फैसला सुना देना हिमाकत भर है। फिर भी मैं आपके सामने जो यह साहस करने के लिए खड़ा हूँ इसके लिए क्षमा माँगने की जरुरत नहीं समझता। हम जिस भीड़-भभ्भड़ और वैयक्तिक-स्वाधीनता के युग में पैदा हुए हैं उसमें इससे कहीं अधिक हिमाकत की बातें क्षम्य ही समझ ली जाती हैं। प्राचीन और नवीन चिंता की तुलना या एक साथ एक आसन पर बैठाना भी कुछ अजीब-सा लगता है। एक तरफ लगभग 6 हजार वर्षों की सुचिंतित साधना और दूसरी तरफ हर साल रंग बदलने वाली 100 वर्ष की आधुनिक जिज्ञासा, दोनों में कुछ ऐसा असादृश्य, ऐसा अनैक्य और ऐसा प्रकृतिवयोऽनुभूति भेद है कि दोनों का ऐक्य साथ बैठाना नितांत अनुचित जान पड़ता है। फिर भी यह सादृश्य-अनैक्य और प्रकृति भेद वास्तविक है और वह वास्तविकता उपेक्षणीय नहीं है। नवीन चिंता जितनी भी कच्ची, जितनी भी अल्पव्यस्क और जितनी भी अस्थिर स्वभाववाली क्यों न हो उसमें नवीन प्राण हैं और प्राणवत्ता सबसे बड़ा गुण है। और केवल इसी कारण से हम प्राचीन और नवीन को एक नजर देख लेने का प्रयास करते हैं। यह तो मेरे लिए असंभव ही है कि भारतवर्ष की विराट चिंताराशि के सभी अंशों की आलोचना करूँ। वह किसी के लिए भी असंभव ही है, परंतु अपनी सुविधा के लिए मैंने निश्चय किया है कि सारे भारतीय इतिहास की ओर न देखकर आज से डेढ़ हजार वर्ष पूर्वकाल तक के इतिहास को ही सामने रख के काम चलाऊँ। परंतु यह भी असंभव कार्य है। इसलिए इसमें से भी एक ही अंश हमने लिया है गद्य-काव्य, तत्रापि कथा आख्यायिका और उपन्यास। इतनी परिमिति पर भी मुझे भरोसा नहीं है। इसलिए भगवान की ओर से संयोगवश प्राप्त दो और परिमिति सीमाओं पर मैं भरोसा करके अपना कार्य निःसंकोच शुरू कर देता हूँ। पहली सीमा स्वयं मेरी विद्या-बुद्धि है, और दूसरी आपका दिया हुआ घंटे भर का समय। इसके बाद मैं आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि प्राचीन भारत की बात कहते समय मैं यथासमय एक भी वाक्य अपनी ओर से नहीं कहूँगा। सभी प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथों से उद्धृत वाक्यों के अनुवाद होंगे। बीच-बीच में फाँको या गैपों को भरने की कोशिश करने की छूट ले लेता हूँ।
सबसे पहले मैं आपको यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैंने भारतवर्ष की हजारों वर्ष की पुरानी साधना को एकदम छोड़कर आज से 15 सौ वर्ष पूर्व तक की साहित्यिक साधना को ही क्यों आलोचना के लिए चुना है। सन् ईसवी की पहली शताब्दी में मथुरा के कुषाण सम्राटों के शासन संबंधी ऐतिहासिक चिन्हों का मिलना एकाएक बंद हो जाता है। इसके बाद के दो-तीन सौ वर्षों का काल भारतीय इतिहास का अंधकार-युग कहा जाता है। आए दिन विद्वान् इस युग के इतिहास संबंधी नए-नए सिद्धांत उपस्थित करते रहते हैं और पुराने सिद्धांतों का खंडन करते हैं। अबतक इस काल का इतिहास लिखने योग्य पर्याप्त सामग्री नहीं उपलब्ध हुई है। किंतु सन् 220 में मगध का प्रसिद्ध पाटलिपुत्र 400 वर्षों की गाढ़ निद्रा के बाद अचानक जाग उठता है। इसी वर्ष चंद्रगुप्त नामधारी एक साधारण राजकुमार, जिसका विवाह सुप्रसिद्ध लिच्छवि वंश में हुआ था और इसीलिए जिसकी ताकत बढ़ गई थी, अचानक प्रबल पराक्रम से उत्तर भारत में स्थित विदेशियों को उखाड़ फेंकता है। उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने, जो अपने योग्य पिता का योग्य पुत्र था, इस उन्मूलन कार्य को और भी आगे बढ़ाया और उसके योग्यतर प्रतापी पुत्र द्वितीय चंद्रगुप्त या सुप्रसिद्ध विक्रमादित्य ने अपने रास्ते में एक भी काँटा नहीं रहने दिया। उसका सुव्यवस्थित साम्राज्य ब्रह्मदेश से पश्चिम समुद्र तक और हिमालय से नर्मदा तक फैला हुआ था। गुप्त-सम्राटों के इस सुदृढ़ साम्राज्य ने भारतीय जनसमूह में नवीन राष्ट्रीयता और विद्या-प्रेम का संचार किया। इस युग में राजकार्य से लेकर समाज, धर्म तक, साहित्य तक में एक अद्भुत क्रांति का परिचय मिलता है। ब्राह्मण धर्म और संस्कृत भाषा एकदम नवीन प्राण लेकर जाग उठे। पुराने क्षत्रपों द्वारा व्यवहृत प्रत्येक शब्द मानों उद्देश्य के साथ बहिष्कार कर दिए गए। कुषाणों द्वारा समर्थिक गांधार शैली की कला एकाएक बंद हो गई और संपूर्णतः स्वदेशी मूर्तिशिल्प और वास्तुशिल्प की प्रतिष्ठा हुई। राजकीय पदों के नाम नए सिरे से एकदम बदल दिए गए। समाज और जाति की व्यवस्था में भी परिवर्तन किया गया था, इस बात का सबूत मिल जाता है। सारा उत्तरी भारत जैसे एक नया जीवन लेकर नई उमंग के साथ प्रकट हुआ। इस काल में भारतीय चिंता स्रोत एकदम नई दिशा की ओर मुड़ता है। साहित्य की चर्चा करने वाला कोई भी व्यक्ति इस नए घुमाव की उपेक्षा नहीं कर सकता। जिन दो-तीन सौ वर्षों की ओर शुरू में इशारा किया गया है उनमें भारतवर्ष में शायद विदेशी जातियों के एकाधिक आक्रमण हुए थे, प्रजा संत्रस्त थी। नगरियाँ विध्वस्त हो गई थीं, जनपद आग की लपटों के शिकार हुए थे। कालिदास ने अयोध्या की दारुण दीनावस्था दिखाने के बहाने मानों गुप्त सम्राटों के पूर्ववर्ती काल के समृद्ध नागरिकों की जो दुर्दशा हुई थी, उसका अत्यंत हृदयविदारी चित्र खींचा है। शक्तिशाली राजा के अभाव में नगरियों की असंख्य अट्टालिकएँ भग्न, जीर्ण और पतित हो चुकी थीं, उनके प्राचीर गिर चुके थे, दिनांतकालीन प्रचंड आँधी से छिन्न-भिन्न मेघपटल की भाँति वे श्रीहीन हो गए थे। नागरिकों को जिन राजपथों पर घनी रात में भी निर्भय विचरण करने वाली अभिसारिकाओं के नूपुरशिंजन का स्वर सुनाई देता था, वे राजपथ शृगालों के विकट नाद से भयंकर हो उठे थे। जिन पुष्करिणियों में जलक्रीड़ा-कालीन मृदंगों की मधुर ध्वनि उठा करती थी उनमें जंगली भैंसे लोटा करते थे और अपने शृंग-प्रहार से उन्हें गदला कर रहे थे। मृदंग के ताल पर नाचने के अभ्यस्त सुवर्णयष्टि पर विश्राम करने वाले क्रीड़ा-मयूर अब जंगली हो चुके थे, उनके मुलायम बर्हभार दावाग्नि से दग्ध हो चुके थे। अट्टालिकाओं की जिन सीढ़ियों पर रमणियों के सराग पद संचरण करते थे उन पर व्याघ्रों के लहूलुहान पैर दौड़ा करते थे, बड़े-बड़े राजकीय हाथी जो पद्मवन में अवतीर्ण होकर मृणालनाओं द्वारा करेणुओं की संवर्धना किया करते थे, सिंहों से आक्रांत हो रहे थे। सौंधस्तंभों पर लकड़ी की बनी स्त्री मूर्तियों का रंग धूसर हो गया था और उन साँपों की लटकती हुई केंचुल ही उत्तरीय का कार्य कर रही थी। हर्म्यों में के अमल-धवल प्राचीर काले पड़ गए थे, दीवारों के फाँक में से तृणावलियाँ निकल पड़ी थीं, चंद्र किरणें भी उन्हें पूर्ववत् उद्भासित नहीं कर सकती थीं। जिन उद्यान लताओं से विलासिनियाँ अति सदय भाव से पुष्प चयन करती थीं उन्हीं को वानरों ने बुरी तरह से छिन्न-भिन्न कर डाला था; अट्टालिकाओं के गवाक्ष रात में न तो मांगल्य प्रदीप से और न दिन में गृहलक्ष्मियों की मुखकांति से ही उद्भासित हो रहे थे, मानों उनकी लज्जा ढकने के लिए ही मकड़ियों ने उनपर जाला तान दिया था। नदियों के सैकतों पर पूजन सामग्री नहीं पड़ती थी, स्थान की चहल-पहल जाती रही थी; उपांत देश के वेतसलता-कुंज सूने पड़ गए थे। (रघुवंश 16-12-29)! ऐसे ही विध्वस्त भारतवर्ष को गुप्त सम्राटों ने नया जीवन दिया। कालिदास के शब्दों में उस दुर्दशाग्रस्त नगरी को इस प्रकार नई बना दिया जैसे ‘निदाघग्लापित धरित्री को प्रचुर जल वर्षण से मेघगण!'
तां शिल्पिसंघा प्रभुणा नियुक्तास्तथागतां संभृतसाधनात्वात्।
पुरी नवीचक्रुरपां विसगति मेघा निदाघग्लपितामिवोर्वीमू।
(रघुवंश 16-38)
गुप्त सम्राटों के इस पराक्रम को भारतीय जनता ने भक्ति और प्रेम से देखा। शताब्दियों और सहस्राब्दक बीत गए पर आज भी भारतीय जीवन में गुप्त सम्राट घुले हुए हैं। केवल इसलिए नहीं कि विक्रमादित्य और कालिदास की कहानियाँ भारतीय लोक-जीवन का अविच्छेद्य अंग बन गई हैं, बल्कि इसलिए कि आज के भारतीय धर्म, समाज, आचार, विचार, क्रिया, कांड आदि में सर्वत्र गुप्तकालीन साहित्य की अमिट छाप है। जो पुराण और स्मृतियाँ निस्संदिग्ध रूप में आज प्रमाण मानी जाती हैं, वे अंतिम तौर पर गुप्तकाल में रचित हुए थे, वे आज भी भारतीय चिंतास्रोत को बहुत कुछ गति दे रहे हैं। आज गुप्तकाल के पूर्ववर्ती शास्त्र और साहित्य की भारतवर्ष केवल श्रद्धा और भक्ति से पूजा भर करता है, व्यवहार के लिए उसने इस काल के निर्धारित ग्रंथों को ही स्वीकार किया है। गुप्तयुग के बाद भारतीय मनीषा की मौलिकता भोथी हो गई। टीकाओं और निबंधों का युग शुरू हो गया। टीकाओं की टीका उसकी भी टीका, इस प्रकार मूलग्रंथ की टीकाओं की छः-छः आठ-आठ पुस्तक चलती रही। आज जब हम किसी विषय की आलोचना करते समय 'हमारे यहाँ' के शास्त्रों की दुहाई देते हैं, तो अधिकतर इसी काल के बने ग्रंथों की ओर इशारा करते हैं। यद्यपि गुप्त सम्राटों का प्रबल पराक्रम छठी शताब्दी में ढीला पड़ा था पर साहित्य के क्षेत्र में उस युग के स्थापित आदर्शों का प्रभाव किसी-न-किसी रूप में ईसा की नवीं शताब्दी तक चलता रहा। मौटेतौर पर इस काल को हम गुप्तकाल ही कहे जाएँगे।
सन् 1883 ई. में मैक्समूलर ने अपना वह प्रसिद्ध मत उपस्थित किया था जिसमें कहा गया था कि यवनों, पार्थियनों और शकों आदि के द्वारा उत्तर-पश्चिम भारत पर बार-बार आक्रमण होते रहने के कारण कुछ काल के लिए संस्कृत में साहित्य बनना बंद हो गया था। कालिदास के युग में नए सिरे से संस्कृत भाषा की पुनः प्रतिष्ठा हुई और उसमें एक अभिनव ऐहिकतापरक (सेक्यूलर) स्वर सुनाई देने लगा। (इंडिया 1883, पृ. 281) यह मत बहुत दिनों तक विद्वन्मंडली में समादृत रहा, पर हाल ही में इसमें परिवर्तन हुआ। आजकल यद्यपि यह मूल रूप से नहीं माना जाता है कि उक्त पुनः प्रतिष्ठा के युग के पहले तक संस्कृत भाषा ऐहिकतापरक भावों के लिए बहुत कम प्रयुक्त होती थी। ऐसे भावों का प्रधान वाहक प्राकृत भाषा थी। प्राकृत की ही पुस्तकें बाद में चलकर ब्राह्मणों द्वारा संस्कृत में अनूदित हुईं। (हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिटरेचर 1828, पृ. 39)। स्वयं कीथ साहब इस मत को नहीं मानते। उन्होंने वैदिक साहित्य के प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिखाने का प्रयत्न किया है कि ऐहिकतापरक काव्य का बीज बहुत प्राचीनकाल के संस्कृत साहित्य में भी वर्तमान था। राजाओं की प्रशंसा या स्तुतिगान वाले कवि उन दिनों भी थे और इस स्तुति संबंधी गानों को जो अधिकाधिक परिमार्जित रूप देने की चेष्टा की गई होगी, इस कल्पना में बिल्कुल ही अतिरंजना नहीं है। परंतु संस्कृत में ऐहिकतापरक रचना होती रही हो या नहीं, निर्विवाद बात यह है कि सन् ईसवी के आसपास ऐहिकतापरक रचनाओं का बहुत प्राचुर्य हो गया था। इनका आरंभ भी निश्चय ही प्राकृत से हुआ था। इस प्रकार की रचनाओं का सबसे प्राचीन और साथ ही सबसे प्रौढ़ संकलन हाल की सतसई में जो ऐतिहासिकतापरक रचनाएँ हैं, उनके भावों का प्रवेश भारतीय साहित्य में किसी विजातीय मूल से हुआ है। वह मूल आभीरों या अहीरों की लोक गाथाएँ हैं। यहाँ इस विषय पर विस्तारपूर्वक विचार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह हमारे वक्तव्य के बाहर चला जाता है। हमने अपनी नई पुस्तक 'हिंदी साहित्य की भूमिका' में इस प्रश्न पर कुछ ज्यादा विस्तार के साथ आलोचना की है। यहाँ प्रकृत इतना ही है कि सन् ईसवी के बाद लगभग तीन सौ वर्ष तक संस्कृत में एक जड़िमा की अवस्था आ गई है और इसके बाद गुप्त सम्राटों की छत्रछाया में उसमें एकाएक नवीन अज्ञात स्फूर्ति का परिचय मिलता है। इतनी भूमिका के बाद हम अब मूल विषय पर आ सकते हैं।
यद्यपि वैदिक साहित्य में गद्य-पद्य में लिखी हुई कहानियों की कमी नहीं है पर जिसे हम अलंकृत गद्य काव्य कहते हैं, जिसका प्रधान उद्देश्य रससृष्टि है, निश्चित रूप से उसका प्रचार गुप्त सम्राटों की छत्रछाया में ही हुआ। यद्यपि यह निश्चित है कि जिस रूप में सुविकसित गद्य का प्रचार इस युग में दिखाई देता है, उस रूप को प्राप्त होने में उसे कई शताब्दियाँ लग गई होंगी। सौभाग्यवश हमारे पास कुछ ऐसी प्रशस्तियाँ प्राप्त हैं जिन पर से अलंकृत गद्य के प्राचीन अस्तित्व में कोई संदेह नहीं रह जाता। गिरनार के महाक्षत्रप रुद्रदामा (साधारणतः 'रुद्रदामन्' नाम से परिचित) का खुदवाया हुआ जो लेख मिला है उससे निस्संदिग्ध रूप से प्रमाणित होता है कि सन् 150 ई. के पूर्व संस्कृत में सुदंर गद्य काव्य लिखे जाते थे। यह सारा लेख गद्य काव्य का एक नमूना है। इसमें महाक्षत्रप ने अपने को ‘स्फुटलघु-मधुर-चित्र-कांत- शब्द-समयोदारालंकृत गद्य-पद्य' का मर्मज्ञ बताया है जिससे अलंकृत गद्यों के ही नहीं अलंकार शास्त्र के अस्तित्व का भी प्रमाण पाया जाता है। यह गद्य काव्य क्या थे, यह तो हमें नहीं मालूम पर उनकी रचना प्रौढ़ और गुम्फ आकर्षण होते होंगे, इस विषय में संदेह की जगह नहीं है। सम्राट समुद्रगुप्त ने प्रयाग के स्तंभ पर हरिषेण कवि द्वारा रचित जो प्रशस्ति खुदवाई थी, यह एक दूसरा सबूत है। हरिषेण ने इस प्रशस्ति को संभवतः सन् 530 ई. में लिखा होगा। इसमें गद्य और पद्य दोनों का समावेश है और रचना में काव्य के सभी गुण उपस्थित हैं। सुबंधु और बाण ने अपने रोमांसों के लिए जिस जाति का गद्य लिखा है इस प्रशस्ति का गद्य उसी जाति का है। हरिषेण के इस काव्य से निश्चित रूप से प्रमाणित होता है कि इससे पहले भी गद्य-काव्य का अस्तित्व था।
यह गद्य-काव्य क्या है? संस्कृत के अलंकार ग्रंथों में इसके लक्षण बताए गए हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि यह कहानी या उपन्यास जरूर है। क्योंकि जबतक कहानी नहीं है तबतक उसमें आलंबन आदि विभाव हो ही नहीं सकते। फलतः रस-सृष्टि असंभव हो जाएगी क्योंकि आखिर रस, विभाव-अनुभाव संचारी आदि भावों से ही होता है। इसलिए सभी अलंकारिकों ने तो मान ही लिया है कि गद्य-काव्य एक कहानी है। इसके बाद उसके भेद बताए गए हैं। यह दो प्रकार का होता है, कथा और आख्यायिका। कहा गया है कि एक वक्ता स्वयं नायक होगा और दूसरी का वक्ता नायक भी हो सकता है, और कोई और भी हो सकता है। ‘साहित्यदर्पण' में कहा गया है कि कथा में सरस वस्तु गद्य में कही जाएगी, उसमें कहीं आर्या छंद भी होंगे, कहीं वक्त्र और अपवक्त्र और भी होंगे, शुरू में पद्यबद्ध नमस्कार होगा और फिर साधुप्रशंसा ओर दुर्जन-निंदा होगी।
दंडी, किंतु इस प्रकार के भेद को नहीं मानते, उन्होंने ठीक ही कहा है कि यह भेद व्यर्थ का है। क्योंकि कहानी नायक कहे या दूसरा कहे, इसमें क्या बन या बिगड़ गया फिर वक्त्र या अपवक्त्र छंद हों या न हों, किसी में उच्छ्वास नाम देकर अध्याय भेद किऐ गए हों और किसी में लम्भ नाम देकर तो इन बातों से कहानी का क्या बनता-बिगड़ता है। ये तो नितांत ऊपरी बातें हैं। इसीलिए वस्तुतः कथा और आख्यायिका ये दो नाम ही भर हैं, दोनों एक ही जाति की चीजें हैं। दंडी का कहना ठीक है,
संदर्भ - ( अपादः पादसंतानो गद्यमाख्यायिका कथा।
इति तस्य प्रभेदौ द्वौ तमोराख्यायिका किल।
नाय केनैव वाच्यान्या नायकेनतरेण वा।
स्वगुणाविष्क्रिया दोषो नात्र भूतार्थशंसिनः।
अपि त्वमियमो दृष्टस्तत्राप्यन्यैरुदीरणात्।
अन्यो वक्ता स्वयं वेति की हग्वा भेदलक्षणम्।
वक्त्रं चापरवक्त्रं सोच्छात्वं च भेदकम्।
चिह्नमाख्यायिकायाश्चेत् प्रसंगेन कथास्वापि।
आर्यादिवत्प्रदेशः किं न वक्त्रापरवक्त्र योः?
भेदश्च दृष्टो लभादिरुच्छवासोवास्तु किं ततः।
तत्कथा ख्यायिकेत्येव जातिः संशा द्वयांकिता।
अत्रैवाविभविष्यंति शेषाश्चाख्यानजातयः। )
परंतु आख्यायिका नाम से प्रचलित ग्रंथों को देखकर विचार किया जाए तो ऐसा जान पड़ता है कि कथा की कहानी कल्पित हुआ करती थी और आख्यायिका की ऐतिहासिक। ‘कादंबरी’ कथा है और 'हर्षचरित' आख्यायिका। इन दो जाति के अतिरिक्त एक और तरह की रचनाएँ संस्कृत में पाई जाती हैं। जो हमारे आलोच्य विषय के अंतर्गत हैं। इन्हें ‘चंपू’ कहते हैं। ‘चंपू' शब्द का मूल क्या है, यह नहीं मालूम। इसमें गद्य और पद्य दोनों ही मिले होते हैं। प्रायः ऐसे स्थलों पर इनमें पद्य का प्रयोग होता है जहाँ कवि कोई आकर्षक दृश्य अंकित करना चाहता हो, या वक्ता के मुख से कोई मार्मिक उक्ति कहलवाना चाहता हो। चंपुओं में कई ऐसे हैं जिन्हें हम ‘रोमांस' कह सकते हैं।
कथा साहित्य की चर्चा करते समय ‘बृहत्कथा’ को नहीं भूला जा सकता। रामायण, महाभारत और बृहत्कथा के ये तीन ग्रंथ समस्त संस्कृत काव्य, नाटक, कथा, आख्यायिका और चंपू के मूल हैं। भारतवर्ष के तीनों बड़े-बड़े गद्य काव्यकार दंडी, सुबंधु और बाणभट्ट बृहत्कथा के ऋणी हैं। भारतवर्ष का यह दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि यह अमूल्य निधि आज अपने मूल रूप में प्राप्त नहीं है। सन् ईसवी की आठवीं नवीं शताब्दी तक के भारतीय साहित्य में बृहत्कथा और उसके लेखक गुणाढ्य पंडित की चर्चा प्रायः ही आती रहती है। यहाँ तक कि लगभग 875 ई. में कंबोडिया की एक संस्कृत प्रशस्ति में गुणाढ्य और उसकी बृहत्कथा की चर्चा आती रहती है। परंतु आज वह नहीं मिलती। यह ग्रंथ संस्कृत में नहीं बल्कि प्राकृत में लिखा गया था और प्राकृत भी पैशाची प्राकृत। इसके निर्माण की कहानी बड़ी ही मनोरंजक है। गुणाढ्य पंडित महाराज सातवाहन के सभा पंडित थे। एक बार राजा सातवाहन अपनी प्रियाओं के साथ जल-क्रीड़ा करते समय संस्कृत की कम जानकारी के कारण लज्जित हुए और यह प्रतिज्ञा कर बैठे कि जबतक संस्कृत धारावाहिक रूप से लिखने बोलने नहीं लगेंगे तबतक बाहर मुँह नहीं दिखाएँगे। राजकाज बंद हो गया। गुणाढ्य पंडित बुलाए गए। उन्होंने 6 महीने में ही इस असाध्य साधन का संकल्प किया। गुणाढ्य ने इसपर प्रतिज्ञा की कि यदि कोई 6 महीने में संस्कृत सिखा देगा तो वे संस्कृत में लिखना-बोलना ही बंद कर देंगे। 6 महीने बाद तो राजा सचमुच ही धारावाहिक रूप से संस्कृत बोलने लगे पर गुणाढ्य को मौन होकर नगर बाहर पिशाचों में अध्युषित विंध्याटवी में मौन धारण करना पड़ा। उनके दो शिष्य उनके साथ हो लिए। वहीं किसी शापग्रस्त पिशाचयोनि प्राप्त गन्धर्व से कहानी सुनकर गुणाढ्य पंडित ने इस विशाल ग्रंथ को पैशाची भाषा में लिखा। कागज का काम सूखे चमड़ों से और स्याही का काम रक्त से लिया गया। पिशाचों की बस्ती में मिल ही क्या सकता था। कथा संपूर्ण करके गुणाढ्य अपने शिष्यों सहित राजधानी को लौट आए। स्वयं नगर के उपांत भाग में ठहरे और शिष्यों से ग्रंथ राजा के पास स्वीकारार्थ भिजवा दिया। राजा ने अवहेलना पूर्वक इस मौनोन्मत्त लेखक द्वारा रक्त से चमड़े पर लिखे हुए पैशाची ग्रंथ का तिरस्कार किया। राजा ने कहा कि भला ऐसे ग्रंथ के वक्तव्य वस्तु में विचार योग्य हो ही क्या सकता है।
पैशाची वाग् मसी रक्तं मौनोन्मत्तश्च लेखकः।
इति राजाऽब्रवीत का वा वस्तुसारविचारणा॥
(बृहत्कथामंजरी 1/87)
शिष्यों से यह समाचार सुनकर गुणाढ्य बड़े व्यथित हुए। चिता में ग्रंथ फेंकने ही जा रहे थे कि शिष्यों ने फिर एक बार सुनने का आग्रह किया। आग जला दी गई, पंडित आसन बाँधकर बैठ गए। एक-एक पन्ना पढ़कर सुनाया जाने लगा और समाप्त होते ही आग में डाल दिया जाने लगा। कथा इतनी मधुर और मनोरंजक थी कि पशु, पक्षी, मृग, व्याघ्र आदि सभी खाना-पीना छोड़कर तन्मय भाव से सुनने लगे। उसके माँस सूख गए। जब राजा की रंधनशाला में ऐसे ही पशुओं का माँस पहुँचा तो शुष्क माँस के भक्षण से राजा के पेट में दर्द हुआ। वैद्य ने नाड़ी देखकर रोग का निदान किया, कसाईयों से कैफ़ियत तलब की गई और इस प्रकार अज्ञात पंडित के कथावाचक की मनोहारिता राजा के कानों तक पहुँची। आश्चर्यचकित होकर स्वयं उपस्थित हुए लेकिन तबतक ग्रंथ के सात भागों में से छः जल चुके थे। राजा पंडित के पैरों में गिरकर सिर्फ एक भाग ही बचा सके। उस भाग की कथा हमारे पास मूल रूप में तो नहीं पर संस्कृत अनुवाद के रूप में अब भी उपलब्ध होती है।
बुद्धस्वामी के बृहत्कथा श्लोक संग्रह, क्षेमेंद्र के बृहत्कथामंजरी और सोमदेव के कथासरित्सागर में बृहत्कथा (या वस्तुतः ‘बड्डकहा', क्योंकि यही उसका मूल नाम था) के उस अवशिष्ट अंग की कहानियाँ संग्रहीत हैं। इनमें पहला ग्रंथ नेपाल और बाकी कश्मीर के पंडितों की रचना है। पंडितों में गुणाढ्य के विषय में और उनकी लिखी बृहत्कथा के विषय में कई प्रश्नों को लेकर काफी मतभेद रहा है। पहली बात है कि गुणाढ्य कहाँ के रहने वाले थे? कश्मीरी कथाओं के अनुसार वे प्रतिष्ठान में उत्पन्न हुए थे और नेपाली कथा के अनुसार कौशांबी में। फिर काल को लेकर मतभेद है। कुछ लोग सातवाहन को भी उसके साथ ही गुणाढ्य को सन् ईसवी के पूर्व की पहली शताब्दी में रखते हैं और कुछ बहुत बाद में। दुर्भाग्यवश यह काल संबंधी झगड़ा भारतवर्ष के सभी प्राचीन आचार्यों के साथ अविच्छेद्य रूप से संबद्ध है। हमारे साहित्यालोचकों का अधिकांश श्रम इन काल निर्णय संबंधी कसरतों में ही चला जाता है। ग्रंथ के मूल वक्तव्य तक पहुँचने के पहले सर्वत्र एक तर्क का दुस्तर फेनिल समुद्र पार करना पड़ता है। यह तीसरा प्रश्न भी बृहत्कथा के संबंध में उठता है, वह यह कि पैशाची किस देश की भाषा है? इधर ग्रियर्सन जैसे भाषा विशेषज्ञ ने अपना फैसला सुना दिया है। पैशाची भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम सीमांत की बर्बर जातियों की भाषा थी। ये कच्चा माँस खाते थे इसलिए इन्हें पिशाच कहा जाता था। गुणाढ्य की पुस्तकों के सभी संस्कृत संस्करण कश्मीर में (सिर्फ एक नेपाल में) पाए जाते हैं। इसपर से ग्रियर्सन का तर्क प्रबल ही होता है क्योंकि कश्मीर इन सीमांत प्रदेशों से सटा हुआ है। परंतु अन्यान्य प्रमाण ग्रियर्सन के विरुद्ध जाते हैं। पाली में पैशाची के लिए बहुत से लक्षण मिल जाते हैं और दर्दिस्तान आदि की वर्तमान भाषाओं में वे विशेषताएँ कभी-कभी नहीं पाई जातीं जिन्हें प्राकृत वैयाकरणों ने पैशाची वस्तुतः किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं थी। वह अनार्य जातियों द्वारा आर्यभाषा बोलने के प्रयत्नस्वरूप उत्पन्न एक विकृत आर्यभाषा थी। भिन्न-भिन्न स्थानों के अनार्य अपनी सुविधा के अनुसार उसे भिन्न ढाँचों में मोड़ लिया करते हैं। मुझे हार्नले का यह मत सही जान पड़ता है क्योंकि इस मत को स्वीकार करने से पैशाची संबंधी नाना प्रकार की पुरानी उक्तियों का समाधान हो जाता है।
एक और प्रश्न यह उठाया गया है कि गुणाढ्य ने मूल कहानी गद्य में लिखी थी या पद्य में? श्लोक-संग्रह से तो जान पड़ता है कि वह पद्य में ही लिखी गई होगी पर 'कथा' की परवर्ती परिभाषाओं को देखकर बहुतेरे पंडित उसे गद्य में लिखा ही बताते हैं। ये सभी विवाद जबतक चलते रहेंगे जबतक भारतवर्ष का सौभाग्य उस खोए हुए ग्रंथ को फिर से न पा ले।
गुणाढ्य की कहानियों का जो रूप संस्कृत की उपर्युक्त पुस्तकों से प्राप्त है उसपर से स्पष्ट ही मालूम होता है कि उनमें भाषागत अलंकरण की ओर उतना ध्यान नहीं है, जितना कहानी के वक्तव्य वस्तु की ओर। इन कहानियों में 'कहानीपन' इतना अधिक मात्रा में है कि किसी-किसी यूरोपियन पंडित को यह स्वीकार करने में हिचक हुई है कि इसी ग्रंथ की शैली का उत्तरकालीन वितास सुबंधु की ‘वासवदत्ता’ और बाणभट्ट की ‘कादंबरी’ है। जहाँ रूपक और उपमा पंक्तिबद्ध होकर चलते हैं, दीपक और उत्प्रेक्षा उतराए रहते और शब्दश्लेष और अर्थश्लेष हमेशा पाठक के चित्त को ले भागने के लिए आँख फाड़े बैठे रहते हैं; घटनाओं की योजना, पात्रों की कल्पना और रस का परिपाक इतने कौशल के साथ एक दूसरे से उपगूहित है कि एक को दूसरे से अलग करके देखना असंभव है। यद्यपि कश्मीरी और नेपाली संस्करणों के देखने से स्पष्ट है कि मूल कहानी के संग्रहकारों ने अपनी-अपनी रुचि-अरुचि के अनुसार बहुत-कुछ काट-छाँट और घटा-बढ़ाकर हमारे सामने रखा है, फिर भी इतने हाथों से कट-छँट जाने के बाद भी कहानियों के 'कहानी-रस' में कहीं भी शैथिल्य नहीं आया। केवल शब्द-परिवृत्ति-सहत्व ही कविता का एक बड़ा भारी गुण है, परंतु अर्थ और गुण की शैली सबकुछ के परिवर्तन को सहकर भी जिस रचना का रस तिलमात्र भी खंडित नहीं हुआ उसको प्रशंसा के लिए क्या कहा जाए? कोई आश्चर्य नहीं कि यह ग्रंथ दो हजार वर्षों तक भारतीय कल्पना को भी अभिभूत किए रहा है और इसमें कोई संदेह नहीं कि वह उत्तरोत्तर ओर भी आदर और सम्मान प्राप्त करेगा। आज संसार में कई सभ्य भाषाओं में इस ग्रंथ की कहानियों का अनुवाद हो चुका है और वह जर्मन, अँग्रेज़ी और अन्य साहित्यों के कहानी साहित्य को प्रभावित करने में समर्थ हुआ है।
यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि प्राचीन आलंकारिक ग्रंथों में आख्यायिका और कथा के जो लक्षण दिए हुए हैं वे बाह्य हैं और उनसे कथा के वक्तव्य वस्तु से कोई सीधा संबंध नहीं है। परवर्ती गद्य-काव्यों में नाना भाँति से अलंकृत करके सुललित गद्यों में कहानी लिखना ही प्रधान हो उठा था। इन काव्यों में कवि को कहानी करने की जल्दी नहीं है। वह रूपक और दीपक श्लेष आदि को अपना प्रधान कृतित्व मान लेता है। उसे कहना है कि विंध्याचल पहाड़ पर एक जंगल था और वह बड़े ठाट-बाट से शुरू करेगा “पूर्व समुद्र के से पश्चिम सागर के तीर तक विस्तीर्ण, मध्यप्रदेश का अलंकार-स्वरूप, पृथ्वी के मेखला के समान विंध्याटवी नामक एक वन है, जिसमें जंगल हाथियों के मदजल से सिक्त होकर संवर्द्धित और अत्यंत ऊँचे होने के कारण मस्तक-संलग्न नक्षत्र-समूह के समान श्वेत कुसुमधारी नाना प्रकार के वृक्ष सुशोभित हैं; जिनमें कहीं मदमत्त कुरर पक्षी अपने चंचुओं से मरीच-पल्लव कुतर रहे हैं, कहीं गजशावकों के झुंड से तमाल वृक्ष के किसलय टूट रहे हैं और इसीलिए उसकी सुगंधि से धारा वन आमोदित हो रहा है। मधुमद के कारण लाल हो गए हुए केरल-कामिनियों के कोमल कपोल की सी शोभा वाले लाल-लाल पल्लव-समूह विकसित हो रहे हैं, मानों वन-देवताओं के चरणों के अलक्तकरस या महावर से ही रंग कर लाल हो गए हों, जिसमें अनेकानेक ऐसे लतामंडप विराज रहे हैं जिनके तलदेश शुक पक्षियों के कुतरे हुए दाडिम फल के रस से भीग गए हैं। जिसके भीतर चपल वानरों द्वारा कंपित या नारंगी के वृक्ष से फल और पल्लव गिरे हुए हैं, जो निरंतर पुष्परेणु के झड़ते रहने से रेणुमय हो गए हैं, जिनके भीतर पथिकों ने लवंग पल्लवों की शय्या रखी है, जिनके चारों और नारिकेल, केतकी और वकुल वृक्ष घिरे हुए हैं जिनकी शोभा तांबूली लता से वेष्ठित पूग वृक्षों के समूह बढा रहे हैं जो साक्षात् वन-देवताओं के ही मानों आवास-भवन हैं। कहीं मदमत्त हाथियों की गंडस्थल-क्षरित मदधारा से सिक्त होकर ही मानो इलाइची लता का मदगंधी बन घन भाव से वनभूमि को आच्छादन करके अंधकार किए हुए हैं, कहीं शबर सेनापतिगण इस लोभ से सौ-सौ केशरियों का निपात कर रहे हैं कि उनके नखों से लग्न गजमुक्ताएँ पा सकेंगे, इत्यादि-इत्यादि और फिर भी उसे संतोष नहीं होगा। वह अब श्लेषों की झड़ी बाँध देगा, विरोधाभासों का ठाठ खड़ा कर देगा, श्लेषपरिपुष्ट उपमाओं का जंगल लगा देगा, तब जाकर कहेगा कि वह विंध्याटवी है। वह किसी भी ऐसे अवसर की उपेक्षा नहीं करेगा जहाँ उसे एक उत्प्रेक्षा या दीपक या रूपक पर विरोधाभास या श्लेष करने का अवसर मिल जाए। सुबंधु ने तो ग्रंथ के आरंभ में प्रतिज्ञा ही कर ली थी कि आदि से अंत तक श्लेष का निर्वाह करेंगे। इन कथाकारों में सबसे श्रेष्ठ बाणभट्ट हैं। इन्होंने कथा की प्रशंसा करते हुए मानों अपनी ही रचना के लिए कहा था, कि सुस्पष्ट मधुरालाप से और भाव से नितांत मनोहारा तथा अनुरागवश स्वयमेव शय्या पर उपस्थित अभिनवा वधू के समान सुगम कला विद्या संबंधी वाक्यविन्यास के कारण सुश्रव्या और रस के अनुकरण के कारण बिना प्रयास शब्द गुम्फ करने वाली कथा किसके हृदय में कौतुक-युक्त प्रेम नहीं उत्पन्न करती? सहज बोध दीपक और उपमा अलंकार से संपन्न अपूर्व पदार्थ के समावेश से विरचित और अनवरत श्लेषालंकार से किञ्चिद, दुर्बोध्य, कथा-काव्य, उज्ज्वल प्रदीप के समान उपादेय चंपक-पुष्प की कली से गूँथे हुए और बीच-बीच में चमेली के पुष्पों से अलंकृत धनसन्निविष्ट मोहन माला की भाँति किसे आकृष्ट नहीं करता।
स्फुरत्कलालापविलासकोमला करोति रागं हृदि कौतुकाधिकम्
रसेन शय्यां स्वयमभ्युपागता कथा जनस्याभिनवा वधूरिव।
हरंति के नोज्ज्वलदीपकोपमैर्नवैः;पदार्थैरुपपादिता कथा।
निरंतरश्लेषघना सुजातयो महास्रजश्चंपककुड्मलैरिव॥
(कादंबरी)
सच पूछा जाए तो बाणभट्ट ने इन पंक्तियों में कथा-काव्य का ठीक-ठीक लक्षण दिया है। कथा कलालाप-विलास से कोमल होगी, कृत्रिम पद-संघट्टना और अलंकारप्रियता के कारण नहीं बल्कि बिना प्रयास के रस के अनुकूल-गुम्फ वाली होगी, उज्ज्वल दीपक और उपमाओं से सुसज्जित रहेगी और निरंतर श्लेष अलंकार के आते रहने के कारण जरा दुर्बोध्य भी होगी, परंतु सारी बातें रस की अनुवर्तिनी होंगी। अर्थात् संस्कृत के अलंकारिक जिस रस को काव्य की आत्मा कहते हैं, जो अंगी है, वही कथा और आख्यायिका का भी प्राण है। काव्य में कहानी गौण है, अलंकार योजना गौण है, पद-संघट्टना भी गौण है। मुख्य है केवल 'रस'। यह रस अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता, शब्द से वह अप्रकाश्य है। उसे केवल व्यंग या ध्वनित किया जा सकता है। इस बात में काव्य और कथा-आख्यायिका समान है। विशेषता यह है कि कथा-आख्यायिका में इस रस के अनुकूल कहानी, अलंकार-योजना और पद संघट्टना सभी महत्त्वपूर्ण हैं किसी की उपेक्षा नहीं की जा सकती, एक पद्य के बंधन से मुक्त होने के कारण ही गद्य-कवि की जवाबदेही बढ़ जाती है। वह अलंकारों की पद संघट्टना की उपेक्षा नहीं कर सकता। कहानी तो उसका प्रधान वक्तव्य ही है। कहानी के रस को अनुकूल रखकर इन शर्तों का पालन करना सचमुच बहुत कठिन है और इसलिए संस्कृत के आलोचक ने गद्य को कवित्व की कसौटी कहा है 'गद्यं कवीना निकषं वदंति'।
अब प्रश्न हो सकता है कि यदि रस सचमुच ही इन कथा-आख्यायिकाओं की आत्मा है तो अलंकारों की इतनी योजना क्यों जरूरी समझी गई। आज के युग में यह बात समझ में नहीं आ सकती। जिन दिनों ये काव्य लिखे गए थे उन दिनों भारतवर्ष की समृद्धि अतुलनीय थी। उन दिनों के समाज की अवस्था और सहृदय की मनोवृत्ति जाने बिना इसको ठीक-ठीक समझना असंभव है। उन दिनों के सहृदयों की शिक्षा आज से बहुत भिन्न थी। उनके मनोविनोदों में काव्यचर्चा का महत्त्वपूर्ण स्थान था। उन दिनों जो राजसभा और सहृदय गोष्ठियों में प्रवेश करता था उसे अपनी विविध कला-मर्मज्ञता प्रमाणित करनी होती थी। कादंबरी वैशम्पायन नामक तोते को लेकर जब चांडाल-कन्या राजा शूद्रक के पास गए तो उसके साथी ने तोते के सभी गुणों का उल्लेख किया जो राजसभा के सदस्य होने की योग्यता प्रमाणित करते थे, उसने कहा कि यह तोता सभी शास्त्रार्थों को जानता है; संगीत, काव्य, नाटक, आख्यानक इत्यादि अनेकानेक सुभाषितों का पाठक और कर्ता है, परिहासालाप में चतुर है, वीणा, वेणु, मुरज आदि का अतुलनीय श्रोता है, नृत्य-प्रयोग और चित्र-कर्म में प्रवीण है, द्यूतव्यापार से प्रगल्भ है, प्रणयकलह में प्रकोप की मानिनी प्रिया को प्रसन्न करने में निपुण है, और हाथी, घोड़ा, पुरुष और स्त्री के लक्षणों का जानकार है। वात्स्यायन ने 'कामसूत्र' में जिन 64 कलाओं के नाम गिनाए हैं उनमें काव्य, नाटक, आख्यान, आख्यायिका, कथा आदि तो है ही अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक प्रहेलिका आदि और इन्हीं की जाति के अन्यान्य अलंकारों को भी कलाओं में ही गिना जाता था। उन दिनों सरस्वती-भवन, या कामदेव-भवन में नियमित समय पर काव्य-समाज बैठा करते थे। और गणिकाओं या नागरिकों के गृह पर काव्य-गोष्ठियाँ बैठा करती थीं। जिनमें नागरिकगण भिन्न-भिन्न काव्यों के पाठ और काव्यगत अलंकारों में नैपुण्य दिखाकर मनोविनोद किया करते थे। वात्स्यायन की गवाही से हम यह भी जान सकते हैं कि उन दिनों नगरों की जो उद्यान मात्राएँ या पिकनिक पार्टियाँ हुआ करती थीं उनमें काव्य प्रहेलिकाओं का विशिष्ट स्थान होता था। निश्चित तिथि को सूर्योदय होते ही नागरिकजन स्नानादि से निवृत हो घोड़ों पर सवार होकर निश्चित उद्यान या नगर के उपांतवर्ती वन के लिए रवाना हो जाते थे। साधारणतः उद्यान ऐसे चुने जाते थे जहाँ से एक दिन के भीतर लौट आया जा सके। नागरिकों के साथ पाल्कियों में या बहेलियों में गणिकाएँ रहा करती थीं जो उन दिनों अपनी शिक्षा, कवित्व और दक्षता के कारण समाज में काफी सम्मान की दृष्टि से देखी जाती थीं। नगर के बाहर निश्चित स्थान पर पहुँचने पर काफी धूम मच जाती थी। भेड़ों मुर्गों और तित्तिरों की लड़ाई होती थी, झूले जग जाते थे और काव्य संबंधी बहुविध क्रीड़ाएँ आरंभ होती थीं। (कामसूत्र प्रथमाधिकरण) इन क्रीड़ाओं में कई बड़ी मजेदार होती थीं। कमल के फूल दिए जाते थे और उनमें मात्राएँ (इकार उकार आदि) लगा दी जाती थीं और सहृदय नागरिकों से पूरा श्लोक उद्धार कराने का प्रयत्न कराया जाता था। कभी-कभी केवल मात्राएँ और अनुस्वार विसर्ग सुना दिए जाते थे और सुनने वाले को अपनी बुद्धि से व्यंजन बिठाकर सार्थक श्लोक तैयार कर लेने पड़ते थे और ऐसी ही और भी बहुतेरी काव्य क्रीड़ाएँ की जाती थीं, जिनका विस्तृत विवरण मैंने अन्यत्र दिया है। इस प्रकार की उद्यान यात्राएँ अंत:पुरिकाओं की भी होती थीं और विशेष करके अविवाहित कन्याओं को इन कलाओं से पारदर्शिता प्राप्त करनी होती थी। इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि अंत:पुरों में से कलाएँ और भी अधिक पोषित होती थीं। वहाँ अंत:पुरिकाएँ सब प्रकार की बाहरी चिंताओं से मुक्त थीं और नाना प्रकार के कला-विलासों में पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक चतुरा होती थीं। संस्कृत नाटिकाओं में और आख्यायिकाओं में प्रायः ही राजाओं के राजमहिषियों के निकट कला-विलास में पराजित होने की कथा पाई जाती है। परंतु कामसूत्र की गवाही से स्पष्ट है कि रमणियों की उद्यान-यात्राएँ सब समय निरापद नहीं हुआ करती थीं। गुंडे आए दिन उद्यान गोष्ठियों पर छापा मारा करते थे और कुमारियों का हरण कर ले जाया करते थे। ऐसे कलामय और काव्यमय वातावरण की कल्पना करने के बाद कादंबरी- आदि कथाओं को पढ़िए तो आपको इसमें कुछ भी अद्भुत नहीं जँचेगा। आज विदेशी शिक्षा के प्रभाव से जो बात हमें दुरूह जान पड़ती है वह उन दिनों नितांत स्वाभाविक थीं, परंतु फिर भी मैं आपको बता देना चाहता हूँ कि हमारी इन बातों का अर्थ आप यह न लगावें कि इन महान काव्यों में ही बात प्रधान है। कथा में, यह ठीक है कि अलंकार-योजना और पद संघट्टना काफी महत्त्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं पर उनमें रस सर्वत्र प्रधान है। प्रत्येक उपमा और प्रत्येक रूपक रस को अधिक परिपुष्ट और अलंकृत करने के उद्देश्य से व्यवहृत हुए हैं। यह जरूर है कि ग्रंथकार कभी सफल और कभी असफल भी हुआ। इनमें सबसे सफल कथा-काव्य कादंबरी है। इसके विषय में कविवर रवींद्र नाथ ठाकुर ने ठीक ही कहा है कि एक काल का मधुलोभी यदि अन्य काल से मधुसंग्रह करने की चाह रखता हो तो वह अपने युग के बाँगन में बैठकर उसे नहीं पायेगा, उसे भी उसी काल में प्रवेश करना पड़ेगा। जो सहृदय कादंबरी का रसास्वादन करना चाहते हैं उन्हें भूल जाना होगा कि दफ्तर जाने का समय हो गया है, उन्हें समझ लेना होगा कि वे काव्य-रस विलासी कोई राजेश्वर हैं और राजसभा में बैठे हुए हंस और 'समान-विद्या-वयोऽलंकारैः अखिलकला-कलापलोचन-कठोरमतिभिः अति प्रगल्भैः आग्राम्य-परिहास कुशलै, काव्य-नाटकाख्यायिका लेख्य-व्याख्याना-क्रिया-निपुणैः, विनय-व्यवहरिभि, आत्मनः, प्रतिबिंबैरिव राजकुमारैः सह रममाण' हैं। इस प्रकार की रस चर्चा में रसिक-परिवृत्त होकर हम प्रतिदिन के सुख-दुःख से व्याकुल-धर्मसिक्त, कर्मनिरत, युध्यमान संसार से विच्छिन्न हो जाते हैं।
एक तरफ जहाँ बृहत्कथा की ये संतान ये अलंकृत गद्य-काव्य हैं वहाँ दूसरी तरफ बेतालपञ्चविंशति, सिंहासनद्वात्रिशतिका, शुकसप्तति आदि रोमांटिक कहानियाँ हैं जिसमें अलंकरण की अपेक्षा कहानीपन की ओर ही ज्यादा ध्यान दिया गया है। ये कहानियाँ बहुत ही मनोरंजक और आकर्षक हैं, नीति और उपदेश संबंधी कहानियों की चर्चा न करने का तो हमने पहले ही संकल्प कर लिया है। इसलिए यहीं हम इस चर्चा को बंद करते हैं।
सज्जनों, बड़ी देर तक मैंने आपको प्राचीन युग के खंडहरों में भटका रखा। मुझे अफ़सोस है कि मैं आपको प्राचीन साहित्य के रस लोक में नहीं ले जा सका। जहाँ कहीं सूर्योदय होते ही अभिसारिकाओं की जल्दबाजी से गिरे हुए केशों के मंदार-पुष्पों, कान के स्वर्णकमलों और पत्रच्छेदों और वक्षःस्थल-विराजित हार के मोतियों के रमण मार्ग का पता आसानी से लग जाता था।
गत्युत्कम्पादलकपतितैर्यत्र मंदादपुष्पैः
पत्रच्छेदैः कनककमलैः कर्णविभ्रंशिभिश्च।
मुक्ताजालै स्तन परिचितच्छिन्नसूत्रैश्च हारैः
नैशो मार्गः मवितुरु दये सूच्यते कामिनीनाम्॥
कहीं, जल-क्रीड़ा के समय पानी के भीतर से बजता हुआ मृदंग जो तीर पर चक्कर काटने वाले उत्कलाप मयूरों की केका से अभिनंदित होता रहता था, विलासिनियों के श्रवण और कपोल दोनों को लाल कर देता था
तीरस्यलीभिर्वहिरूत्कलापैः प्रागिस्नधकेकैरभिनंद्यमानम्।
श्रोत्रेषु संमूर्च्छति रक्तमासां गीतानुगं वारिमृदंगवाद्यम्॥
कहीं, कंदुक-क्रीड़ा के समय अंत:पुरिकाओं के चरणों में अमंद मणि-नूपुर क्वणित होते रहते थे, मेखला से झनझनाती रहती हार के तार टूट जाते थे। और सोने की चूड़ियाँ चंचल होकर वाचाल हो उठती थीं।
अमंदमणिनूपुरक्वणनचारुचारिक्रमं
झणज्झणितमे खलास्खलितनारहारच्छटम्
इद् तरलकंकणावलिशेषवाचालितं
मनोहरति सुभ्रवः किमपि कंदुकक्रीडनम्।
और कहीं, प्रभात होते ही पद्य-मधु से रंगे हुए वृद्ध कलहंस की भाँति चंद्रमा आकाश गंगा के पुलिन से उदास होकर पश्चिम जलधि के तट पर उतर आते थे; दिङ्मण्डल वृद्ध रंकु मृग की रोमराजि के समान पांडुर हो उठता था, हाथी के रक्त से रजित सिंह के सटाभार के समान या लोहित वर्ण लाक्षारस के सूत्र के समान सूर्य की किरणें आकाश रूपी वन भूमि से नक्षत्रों के फूलों को इस प्रकार झाड़ देती थीं मानो वे पद्मराग मणि की शलाकाओं रूपी वन भूमि से नक्षत्रों के फूलों को इस प्रकार झाड़ देती थीं मानों वे पद्मराग की श्लाकाओं की बनी हुई झाडू हों, उत्तर ओर अवस्थित सप्तर्षि मंडल संध्योपासना के लिए मानसरोवर के तट पर उतर जाते थे, पश्चिमी समुद्र के तीर पर सीपियों के उन्मुक्त मुख से बिखरे हुए मुक्तापटल ऐसे लगते थे, मानो मोर जाग पड़ते थे, सिंह जमुहाई लेने लगते थे, करेणुबालाएँ मदस्रावी प्रियतम गजों को जगाने लगती थीं, वृक्षगण पल्लवांजलि से भगवान सूर्य को शिशिरसिक्त कुसुमांजलि समर्पित करने लगते थे, वन-देवताओं की अट्टालिकाओं और उन्नत वृक्षों की चोटी पर गर्दभ लोम धूसर अग्निहोत्र का धूप इस प्रकार सट जाता था मानों कर्बुर वर्ण कपोतों की पंक्ति हो; शिशिर बिंदु को वहन करके पद्म वन को प्रकंपित करके परिश्रांत शबर-रमणियों के धर्म बिंदु को विलुप्त करके अन्य महिष के फेनबिंदु से सिंच के, कंपित पल्लव और लतासमूह के नृत्य की शिक्षा दे करके, प्रस्फूटित पद्मों का मधु बरसा के पुष्प सौरभ के भ्रमरों को संतुष्ट करके मंद-मंद संचारी प्रभात वायु बहने लगती थी; कमल वन के मत्त गज के गंडस्थलीय मद के लोभ से स्तुति पाठक भ्रमर रूपी वैतालिक गुंजार करने लगते थे, ऊषर में शयन करने के कारण वन्य-मृगों के निचले रोम धूसर वर्ण हो उठते थे और जब प्रभातिक वायु उनका शरीर स्पर्श करती थी तो उनींदी आँखों की ताराएँ ढुलमुला जाती थीं और बरौनियाँ इस प्रकार सटी होती थीं मानों उत्तम जतुरस से सटा दी गई हों, वनचर पशु इतस्ततः विचरण करने लगते थे, सरोवर में कलहंसों का श्रुति मधुर कोलाहल सुनाई देने लगता था, मयूर गण नाच उठते और वनस्थली एक अपूर्व महिमा से उद्भासित हो उठती थी। (कादंबरी के प्रभात वर्णन से)। मैं उस जादू भरे रसलोक में आपको नहीं ले गया जहाँ प्रिया के पदाघात से अशोक पुष्पित हो जाता है, क्रीड़ा-पर्वत पर चूड़ियों की झंकार से मयूर नाच उठता है, प्रथम आषाढ़ के मेघ गर्जन से हंस उत्कंठित हो जाता है, कपोल देश की पत्राली आँकते समय प्रियतम के हाथ काँप जाते हैं, चूत मंजरी के स्वाद से काषायित कंठ कोकिल अकारण ही हृदय कुरेद देते हैं। क्रौंच-निनाद से वनस्थली की शस्य राशि अचानक कम्पायमान हो उठती है और मलयानिल के झोंके अनिवर्चनीय रसलोक को जगा देते हैं। इस मनोहर लोक की बात छोड़कर मैंने शुष्क वाग्जाल में आपको फँसा रखने का अपराध किया है। मैं उसका प्रायश्चित करने का मौका नहीं पा सकूँगा, परंतु मित्रों, वह दुनिया कितनी भी रमणीय क्यों न रही हो, कितनी भी आकर्षक क्यों न रही हो उसे हमें छोड़ना ही पड़ेगा। आज न समुद्रगुप्त का साम्राज्य है और न कालिदास का वाग्वैदग्ध्य। यंत्रों के नितांत गद्यात्मक युग में हम वास कर रहे हैं। यहाँ कल्पना पद-पद पर वास्तविकता से टकरा कर भोथी हो जाती है। दुनिया बदल गई है, दुनिया का विश्वास बदल गया है। यंत्रों के आविष्कार ने हमारे अंदर नई आशा और नई आशंकाएँ पैदा कर दी हैं। यह बेकार की बात है कि हम इस बहस में पड़े रहें कि उस मनोहारी युग में हम फिर से लौटकर जा सकते हैं या नहीं। जमाने की अनिवार्य तरंगों ने हमें जिस किनारे ला पटका है वहीं से हमें यात्रा शुरू करनी होगी। पीछे लौट जाने के प्रयत्न में बहादुरी और उद्भटता जितनी भी हो बुद्धिमानी बिल्कुल नहीं है। आज जब हमारे सामने नई समस्याएँ उपस्थित हैं तो पुरानी कलाओं के लिए हाय-हाय करना बेकार है। नए युग को अत्यंत संक्षेप में बताना हो तो कहेंगे कि यह युग मानवता का युग है। पुराने काल में लोगों का विश्वास एक अदृश्य नियंता शक्ति के ऊपर था। मनुष्य ने आज अपने आपको ही अपने भाग्य का नियंता मान लिया है। उसने शास्त्रों और महापुरुषों के उपदेशों को नमस्कार कर दिया है और ईश्वर के हाथ से जगत की व्यवस्था का चार्ज ले लिया है। उसके अंदर दोष हैं, गुण हैं, शक्ति है, कमजोरी है। उसने सबको स्वीकार कर लिया है। अपनी इसी पूँजी पर उसने व्यापार शुरू किया है। उसने समस्त गुण-दोषों को शिरसा स्वीकार करके अपने लिए नई दुनिया बनाने की ठानी है। उसके सभी प्रयत्न धीरे-धीरे इस दिशा की ओर नियोजित हो रहे हैं। साहित्य और कला संबंधी प्रयत्नों का इस तरह न जानना ही आश्चर्य होता है। इसीलिए आज यह काव्य और कथा के क्षेत्र में भी उसी ओर अग्रसर हुआ है। मैं इन प्रयत्नों के संबंध में आलोचना करने का प्रयास नहीं करूँगा। परंतु आज हमारा वक्तव्य बिल्कुल अधूरा रह जाएगा यदि यंत्रों के प्रवेश से जो परिवर्तन हुए हैं उसकी और संक्षेप में इशारा न कर दूँ।
नए यंत्र युग ने जिन गुण-दोषों को उत्पन्न किया है उन सबको लेकर उपन्यास और कहानियाँ अवतीर्ण हुई हैं। छापे के कल ने ही इनकी माँग बढ़ाई है और छापे के कल ने ही उनकी पूर्ति का साधन बनाया है। यह गलत धारणा है कि उपन्यास और कहानियाँ संस्कृत की कथा और आख्यायिकाओं की सीधी संतान हैं। एक युग गया है जब कादंबरी और दशकुमारचरित की रीति पर सभी प्रांतीय भाषाओं में उपन्यास लिखे गए थे। और कहीं-कहीं तो उपन्यास का और हृदयेश की कहानियाँ उसी रीति पर अर्थात् शब्दों में झंकार देकर गद्य-काव्य बनाने का उद्देश्य लेकर लिखी गई थीं। पर शीघ्र ही सर्वत्र भ्रम टूट गया। झंकार कविता का प्राण हो सकता है पर वह उपन्यास का प्राण नहीं हो सकता, क्योंकि वह विशुद्ध गद्य युग है और उसकी प्रकृति में गद्य का सहज स्वाभाविक प्रवाह है। इस नवीन साहित्यांग का कथा-आख्यायिका आदि से जो मौलिक अंतर है वह आदर्शगत है। यंत्र युग की विशेष वैयक्तिक स्वाधीनता उपन्यास का आदर्श है और काव्यकाल का पूर्व निर्धारित और परंपरा समर्थित सदाचार कथा-आख्यायिका का आदर्श है। उपन्यास में दुनिया जैसी है वैसे चित्रित करने का प्रयास रहता है। कुछ थोड़े से ऐतिहासिक और जासूसी आदि श्रेणियों के उपन्यास समाज की वर्तमान अवस्था से दूर हट जाते हैं सही, परंतु वे इतिहास और जासूसी की वर्तमान पहुँच के आधार पर ही अपनी कल्पना दौड़ाया करते हैं। काव्य और आख्यायिका में कवि कल्पना के बल पर अपनी वास्तविक दुनिया से भिन्न एकदम नई दुनिया बना सकता है। उपन्यास और काव्य में मौलिक अंतर है कि उपन्यास मौजूदा को भूलाकर भविष्य की कल्पना नहीं कर सकता जबकि काव्य वर्तमान परिस्थिति की संपूर्णतः उपेक्षा करके अपने आदर्श गढ़ सकता है। यही कारण है कि उपन्यासकार वर्तमान पर जमा रहता है; वह कवि की भाँति जमाने के आगे रहने का दावा नहीं करता, फिर उपन्यासकार का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य भी यह है कि वह समाज की स्थिति और गति को ठीक-ठीक चित्रित करता है। प्रेमचंद्र को पढ़ने का अर्थ है भारतवर्ष के गाँवों को सच्चे रूप में देखना।
फिर भी उपन्यास एक स्थाई साहित्य है, यंत्र युग की प्रधान साहित्यिक देन। समाचारपत्रों की तरह घंटेभर में बासी होने वाला साहित्य नहीं तथापि इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अधिकांश छपे हुए उपन्यायों का मूल्य किसी बासी दैनिक पत्र से किसी प्रकार से कम नहीं है। यह विचित्र बात है कि उपन्यासों का वह गुण जो उनके बारे में बार-बार दोहराया जाता है अर्थात् समाज को ठीक-ठीक उपस्थित करना बड़ी आसानी से दैनिक पत्रों से भी सिद्ध हो जाता है। एक अमेरिकन लेखक ने लिखा है कि अगर अमेरिका को ठीक-ठीक समझना चाहते हो तो किसी लोकप्रिय दैनिक के किसी अंक को देख लो, अमेरिका अपने सब गुण-दोषों के साथ खड़ा हो जाएगा। उसके स्त्री, पुरुष क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, कैसी बातों में रुचि रखते हैं, किन रोगों के शिकार हैं, आदि कोई भी बात अप्रकट नहीं रह जाएगी। यह ठीक है हिंदी में जो विज्ञापन छपा करते हैं वे उनमें छपी हुई कामकाजी बातों से अधिक नहीं होते। क्योंकि लेखक और संपादक लोग जो काम-काज की बातें छापते रहते हैं उनमें उनका कुछ खर्च नहीं होता, परंतु विज्ञापनदाता जो बातें छापते हैं उसके लिए उन्हें काफी पैसे खर्च करने होते हैं। इसीलिए उनके अध्ययन से समाज को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। अच्छी साहित्यिक पुस्तकों के विज्ञापनों की अपेक्षा शास्त्र-विशेष की पुस्तकों के विज्ञापन न जाने क्यों हिंदी पत्रों में अधिक छपा करते हैं। तो फिर स्वभावतः ही प्रश्न होता है कि उपन्यास का कार्य यदि समाज को सही ढंग से पाठक के सामने उपस्थित करना है तो दैनिक पत्र क्या बुरे हैं। प्रश्न ठीक है पर उत्तर भी बहुत कठिन नहीं है।
उपन्यास इसलिए स्थाई साहित्य नहीं है कि वह उपन्यास है, बल्कि इसलिए कि उसके लेखक का अपना जबर्दस्त मत है जिसकी सच्चाई के विषय में उसे पूरा विश्वास है। वैयक्तिक स्वाधीनता का यह सर्वोत्तम रूप है। घासलेटी उपन्यास के लेखक का कोई अपना मत नहीं जो एक ही साथ उसका अपना भी हो और जिस पर उसका अखंड विश्वास भी हो। इसीलिए घासलेटी लेखक ललकारे जाने पर या तो भाग खड़ा होता है या विक्षुब्ध होकर गाली-गलौज पर उतर आता है। वह भीड़ के आदमियों को अपनी नजरों के सामने रख कर लिखता है। अपने प्रचारित मत पर उसे खुद विश्वास नहीं होता। प्रेमचंद्र का अपना मत है जिसपर वे पहाड़ के समान अविचलित खड़े हैं। इस एक महागुण के कारण ही हिंदी में अनेकानेक विरोधों के होते हुए भी जैनेंद्र ने अपना स्थान बना लिया है। जैसा कि शुरू में ही कहा गया है, उपन्यास यंत्र युग के समस्त गुण-दोषों को साथ ही लेकर उत्पन्न हुआ है। वैयक्तिक स्वाधीनता की जैसी अधोगति इस क्षेत्र में हुई है वैसी कहीं नहीं हुई और साथ ही उसकी जैसी सुदंर परिणति इस क्षेत्र में हुई है वैसी अन्यत्र नहीं हो सकी। उपन्यासकार है ही नहीं, यदि उसमें वैयक्तिक दृष्टिकोण न हो और अपनी विशेष दृष्टि पर उसे पूरा विश्वास न हो और सभी चीजें उसके लिए गौण हैं।
उपन्यास ने मनोरंजन के लिए लिखी जाने वाली कविताओं की ही नहीं, नाटकों की भी कमर तोड़ दी है। क्योंकि पाँच मील दौड़कर रंगशाला में जाने की अपेक्षा 5 सौ मील से किताब मँगा लेना आज के जमाने में अधिक सहज है। साथ ही उपन्यास में उन सब टंटों को हटा दिया गया है जो नाटक के लिए रंगमंच सजाने में होते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि इस युग में उपन्यास एक साथ ही शिष्टाचार संप्रदाय बहस का विषय, इतिहास का चित्र और पॉकेट का थियेटर हो गया है। इसने कल्पना-प्रसूत साहित्य को अन्य किसी भी साहित्यांग की अपेक्षा अधिक नजदीक ला दिया है। इस साहित्यांग में मशीन की विजय-ध्वजा है।
नाटक निश्चय ही उपन्यास से प्राचीन वस्तु है। बहुत प्राचीन युग में यह अभिनय प्रधान था। पर साहित्य में घुसते ही यह साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग हो गया। ऐसे नाटक भी संस्कृत में लिखे गए जो कभी खेले नहीं गए। हिंदी साहित्य के आधुनिक अभ्युत्थान का आरंभ नाटकों से होता है। ये नाटक अधिकतर संस्कृत से अनुवादित थे। प्रधान मार्गदर्शक बाबू हरिश्चंद्र थे। ये आधुनिकता से परिचित जरूर थे पर नख से शिख तक हिंदुस्तानी थे। इन्होंने उपन्यास लिखने का प्रयत्न नहीं के बराबर किया।
शायद वे उपन्यासों की अभारतीय प्रकृति को पहचान गए थे। जो हो, भारतेंदु ने नाटकों से ही हिंदी सहित्य का आरंभ किया। पर यह विडंबना ही है कि हिंदी भाषा जिसके आधुनिक युग का आरंभ ही नाटकों से होता है अन्यान्य गिनी जाने योग्य भारतीय भाषाओं की तुलना में आज भी नाटक-निर्माण के क्षेत्र में पिछड़ी हुई है। इसका कारण क्या है? आए दिन नाटकीय अभाव के कारण उद्विग्न साहित्यिक प्रायः ही इस प्रश्न पर विचार करते रहते हैं, पर इन विचारों का कोई अच्छा परिणाम नहीं निकलता। कभी-कभी अखिल भारतीय सम्मेलनों के मौके पर उत्साहशील साहित्यिक जो नाटकाभिनय का उपहासास्पद अभिनय किया करते हैं, वह निश्चय ही बहुत आशाजनक नहीं है।
असल में जिन दिनों हिंदी में मौलिक साहित्य उत्पन्न करने की प्रेरणा आने लगी थी उन दिनों मशीन ने नाटक के विभाग पर अपना पूरा अधिकार जमा लिया था। बिजली-बत्ती के आविष्कार नाटक के सब टेक्निक बदल डाले थे। पात्रों के प्रवेश और प्रस्थान की विधि में बहुत परिवर्तन हो गया था। पर यह सब हो ही रहा था कि कैमरे का इस क्षेत्र में प्रवेश हुआ। किताबों के लिए जो काम छापे की मशीन ने किया वही काम नाटकों के लिए कैमरे ने किया। इसने नाटकों का प्रचार ही नहीं किया उनकी माँग भी बढ़ा दी। आकाश, पाताल, समुद्र, जंगल कोई ऐसी जगह नहीं बच रही जहाँ से कैमरा दृश्य न ले आ दे सके। नतीजा यह हुआ कि नाटकों की पुरानी रूढ़ियाँ तड़ातड़ टूट गईं। अमुक दृश्य रंगमंच पर दिखाया जाए और अमुक न दिखाया जाए इस प्रकार की पुरानी रूढ़ियों में कोई दम नहीं रह गया। सूत्राधार और नटी के संवाद, विष्कंभक और प्रवेशकों की कल्पना सभी भोथी सिद्ध हुई। चलती हुई तस्वीरें सब कुछ करने लगीं। पर अभी तक भी उसमें भाषागत माधुर्य नहीं दिया जा सका था। ऐसी हालत में अगर अपने साहित्य में रंगशाला की स्थापना का उद्योग होता तो कुछ आशा थी। पर हम जब भी सोते रहे। अचानक विज्ञान ने एक और भी अध्याय जोड़ दिया और नाटक को विशुद्ध साहित्य की गोद से एकदम छीन लिया। चलती हुई तस्वीरें बोलने लगीं। जहाँ एक तरफ उसने मशीन को प्राधान्य दे दिया वहाँ सुष्ठुभाषी मनुष्य की सहायता भी उसके लिए आवश्यक हो गई। अब निश्चित है कि हिंदी नाटकों की प्राण-प्रतिष्ठा का एक मात्र मार्ग, बड़ी पूँजी लगा कर मशीन को अपने वश में करना है। उपन्यासों की भाँति सवाक् चित्रपटों ने भी भीड़ की रुचि को सामने रखा पर साहित्यिक सहायता की उसे जरुरत थी। ऐसा नहीं होने से प्रचार नहीं होने पाता। इस तरह यद्यपि नाटक एकदम छोड़ नहीं दी है। अब जब कि मशीन ने नाटक पर कब्जा जमा लिया है, विशुद्ध नाटक और उपन्यास की प्रतिद्वंद्विता भी कम हो गई है। धीरे-धीरे उपन्यास भी मशीन की गोद में जा रहा है। यद्यपि उसकी अपनी कुछ ऐसी विशेषता है जो उसे अंत तक अभिभूत नहीं होने देगी।
- पुस्तक : साहित्य सहचर (पृष्ठ 66)
- रचनाकार : हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
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