कथा, आख्यायिका और छोटी कहानी
katha, akhyayika aur chhoti kahani
कहानियों पर लिखते हुए एक अरसा पहले शिवदान सिंह चौहान ने लिखा था उपन्यास की तरह कहानी गद्य-साहित्य का कोई नया रूप-विधान नहीं है। हिंदी की छोटी कहानी को लेकर भारतीयता का दावा करना मेरा उद्देश्य नहीं है; चाहे वह दावा किसी ज्ञात और परिमापित परंपरा को लेकर हो, चाहे कथा-स्वरूप को ऐतिह्यता को लेकर। मगर छोटी कहानियों के विकास पर विचार करते हुए उपर्युक्त दोनो तथ्यों की ओर हमारा ध्यान बरबस ही चला जाता है। शिवदानजी की एक बात मुझे बराबर इस ओर सचेष्ट बनाने में सहायक हुई है कि कथाओं, आख्यायिकाओं या आख्यानों से छोटी कहानी का नमागत संबंध स्थापित किया जाए। इस संबंध में, हिंदी में जो छिट-पुट प्रयत्न हुए हैं वे निश्चित रूप से असंतोषप्रद कहे जाएँगे। हिंदी कहानी पर विचार करने वाले प्रत्येक विद्वान ने कथा की लंबी परंपरा की ओर निर्देश किया है, किंतु किसी ने भी उस परिमापिन परंपरा से आज की छोटी कहानियों का विकास सिद्ध किया हो, ऐसा कम-से-कम मुझे ज्ञात1 नहीं है।
इस उलझन के अनेक कारण हैं और उनमें शायद सबसे बड़ा कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल की वह स्थापना है जो सिद्ध करती है कि 'इंदुमती' जिसे हिंदी की प्रथम कहानी कहलाने का सौभाग्य प्राप्त है, अँग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होनेवाली कहानियों के ढाँचे की कहानी है। उन्होंने इस संबंध में लिखा था अँग्रेज़ी की मासिक पत्र-पत्रिकाओं में जैसी छोटी-छोटी आख्यायिकाएँ या कहानियाँ निकला करती हैं वैसी कहानियों की रचना 'गल्प' के नाम से पग मापा में चल पड़ी थी। द्वितीय उत्थान की सारी प्रवृत्तियों का आयाम लेकर प्रकट होनेवाली 'सरस्वती' पत्रिका में इस प्रकार की छोटी कहानियों के दर्शन होने लगे। 'सरस्वती' के प्रथम वर्ष में ही पं. किशोरी लाल गोस्वामी की 'इंदुमती' नाम की कहानी छपी जो मौलिक जान पड़ती है।
यही नहीं, अपनी उपर्युक्त स्थापना को संबलित करने के सिलसिले में उन्होंने बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा उपर्युक्त दृष्टि से यदि हम देखें तो इंशा की 'रानी केतकी की बड़ी कहानी' न आधुनिक उपन्यास के अंतर्गत आएगी न शिव प्रसाद सिंह का 'राजा भोज का सपना' या 'वीर सिंह का वृत्तांत’ आधुनिक छोटी कहानी के अंतर्गत।
स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल ने कहानी संबंधी चर्चा में निर्माण पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है। उसका परिणाम परवर्ती कथा के साहित्येतिहास लेखकों पर पड़ता मालूम होता है। आचार्य शुक्ल के पश्चात उनकी इस स्थापना को लेकर अनावश्यक खींचतान हुई है। आज का कथा-समीक्षक बड़ी आसानी से कह देता है कि आधुनिक हिंदी कहानी पारंपरिक रूप से कथाओं और आख्यायिकाओं से स्वतंत्र जाति (गार) की रचना है। आचार्य शुक्ल ने जब 'इंदुमती' को अँग्रेज़ी ढंग पर लिखी गई कहानी माना था तो उनका ध्यान निश्चित रूप से केवल उसके निर्माण पर था।
हमारे सम्मुख जो प्रश्न है उसका संकट स्पष्ट कर दूँ। भारत में कथा और आख्यायिका की श्रेण्य और मौखिक परंपरा संस्कृत से लेकर हिंदी प्रेमाख्यानों तक बराबर बनी रही, फिर क्या हिंदी कथा-साहित्य के निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं है? क्या हिंदी कथा-साहित्य के प्रेरणा-स्रोत श्रेण्य कथाएँ या आख्यायिकाएँ नहीं हैं? क्या इंदुमती के कथानक को आख्यायिकाओं की अभिप्रेत रूढ़ियों से सर्वथा मुक्त माना जा सकता है? जिसे आज के विद्वान ‘टेंपेस्ट' का प्रमाण मानते हैं उसका निर्देश क्या अभिप्राय-संबंधी कथानक रूढ़ि के रूप में नहीं किया जा सकता? दूसरे प्रश्न भी हैं जिन्हें यथा स्थान रखूँगा। कथाओं, आख्यायिकाओं, दृष्टांतों, धर्म-रूपकों इत्यादि की श्रेण्य और मौखिक परंपरा की तो बात ही जाने दें, हिंदी में ही इनकी हमें तात्कालिक परंपरा मिल जाती है। मगर दुर्भाग्य की बात यह है कि हिंदी कथा-साहित्य के आलोचक उपलब्ध सामग्री पर बिना सम्यक विचार किए यह कहा की न पर है कि हिंदी की आधुनिक कहानियाँ2 मात्र अँग्रेज़ी ढंग की हैं।
यह ठीक है कि केवल निर्माण की दृष्टि से हम रानी केतकी की कहानी को छोटी कहानी के अंतर्गत नहीं रख सकते। उसमें कथानक-संबंधी जो रूढ़ियाँ हैं वे निश्चित रूप से आख्यायिकाओं की परंपरा की चीज़ हैं किंतु उनका विचारमूलकवा भी क्या आख्यायिकाओं का है? इस रचना पर दृष्टिपात करते ही ऐसा भान होता है कि इसमें विचारों का ढाँचा वहाँ नहीं है जो उसके विधान का है। नासिस्तोमा वान की चर्चा मैं इस प्रसंग में इसलिए नहीं करना चाहता कि यह अनुवादित रचना है। इस अनुवाद की तुलना में मूल नावक को न वैचारिक स्वतंत्रता रहती है वह सर्वज्ञात है। उसके कथात्मक ढाँचे को देखकर ही उसे पुरानी रचना कह देने का कोई अर्थ नहीं है। उस अर्थ में ‘इंदुमती’ भी पुरानी रचना है और प्रेमचंद्र की अधिकांश कहानियाँ भी। वस्तुतः ‘रानी केतकी की कहानी’ आधुनिक कथा-साहित्य के वैचारिक रूप को पूर्वाशित करने वाली रचना है। उसके अंतर्गत स्त्री-पुरुष के परस्पर संबंधों को लेकर जो लेखकीय दृष्टिकोण इधर आभासित हुआ है वह क्या मध्य युग का दृष्टिकोण कहा जाएगा? यहाँ जहाँ यौवन के विविध व्यापारों के बीच जो विचारमूलक यन्धिात है वह क्या अपनी भंगिमा से आधुनिकता का पूर्वाशित नहीं करता?
घटना-विन्यास का बनना को एकमात्र भेदक तत्व मानकर क्या हम कहानी की विधा के साथ अन्याय नहीं करते? अज्ञात रूप से ही सही जाना इतवा का कहानी कथा-साहित्य की परंपरा में अतिक्रमण का वह बिंब है इससे आधुनिकता प्रारंभ होता है। हाँ, यह ज़रूर है कि गना कहानी अपने युग की तात्कालिक प्रेरणा नहीं बन पाई। किंतु इतना तो मानना ही पड़ता है कि सदमा का संपूर्ण वैचारिक ढाँचा हर कहानी में पूर्वाशित होकर आता है। इस संबंध में और विस्तार विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि हिंदी कहानी के स्थाय पर कथाओं और आख्यायिकाओं की बातों व निर्माण की छाया प्रेमचंद्र की कहानियों तक पड़ती है।
आधुनिक कथा-साहित्य के पूर्व भारत में कथा की दो धाराएँ स्पष्ट देखी जा सकती हैं—एक श्रेण्य आख्यानक साहित्य का और दूसरा मध्ययुग के प्रेमाख्यानों का। मध्ययुग के प्रेमाख्यान वस्तुतः एक पतनशीन परिस्थिति में लिखित होने के कारण परिप्रेक्ष्यहीन और आधुनिक जीवनदृष्टि से भिन्न थे। उनकी तुलना में श्रेण्य आख्यानक साहित्य जीवंत और परिप्रेक्ष्य वलिन था, आवश्यकता सिर्फ़ इस बात की थी कि उसकी 'नैतिक भंगिमा’ को युग के अनुरूप बना लिया जाए। हिंदी के आधुनिक कहानी-साहित्य को वहाँ से सीधा प्रेरणा मिलती है। श्रेण्य आख्यानों की केवल नैतिक भंगिमा ही आधुनिकता के अनुकूल नहीं थी, बल्कि भारतीय जीवन के अंर्तद्वंदों से निर्मित होने के कारण उसमें उदाहृत जीवन के कुछ-एक रूप भी आधुनिक जीवन से मेल खाते थे। इसी अर्थ में 'रानी केतकी की कहानी' अपने निर्माण में चाहे कारण, प्रयत्न, साहास्य और फल-संबंधी कथानक रूढ़ियों का उपयोग करने के कारण आख्यायिकाओं की परंपरा की चीज़ मान ली जाए, किंतु जीवनदृष्टि के कारण उसे हम निश्चित रूप से आधुनिकता बोधक ही कहेंगे। 'रानी केतकी की कहानी’, 'नासिकेतोपाख्यान', 'गदालसापार’ इत्यादि रचनाओं में कथानक-संबंधी उपर्युक्त रूढ़ियाँ ज़रूर किसी न किसी रूप में आई हैं, जिससे उनका निर्माण-पक्ष आधुनिक कहानियों से अलग-सा दिखता है। किंतु घटना-विधान में उनका उपयोग ‘इंदुमती' के नायक सगा किया है, चाहे उसका रूप आकस्मिकता का ही रहा हो। आकस्मिकता के रूप में हमें रूढ़ियों का उपयोग शिवपूजन जी की बहुत-सी कहानियाँ में मिल जाएगा जो सन् १९११ से 11 के आसपास लिखी गई है।
कथा के अभिप्राय-पक्ष को लेकर बात करूँ तो शायद मेरी स्थापना को और भी बल मिले। संपूर्ण भारतीय कथा और आख्यायिका-साहित्य से अभिप्राय विशप का अभिव्यक्ति करना है, चाहे वह अभिप्राय धर्म के विषय को लेकर निर्मित होता हो या लोक-जीवन के विषय को लेकर। अभिप्राय का अक्न लेखक की सामर्थ्य माना जाता रहा है। इन अभिप्रायों 3 के... उपयोग कर लेना था।
इन छायानुवादों में सामयिक जीवन का बनना स्पष्ट रूप से प्रकाशित होता है। जैसा मैंने ऊपर स्पष्ट कर दिया है, कथाओं और आख्यायिकाओं में अभिप्राय की प्रधानता के कारण कथानक का ढाँचा जीवन व व्यावहारिक रूप में मेयर और अधिकाधिक काल्पनिक होता था। वस्तुतः कथाएँ (फ़ैबल्स), रूपक-कथाएँ (पैराबल्स), धर्म कथाएँ और नीति-उपदेश वाली कहानियों में अभिप्राय के अनुरूप कथानक का निर्माण शुद्ध काल्पनिक रूप से किया जाता है। इन कहानियों के रूप पर विचार करते हुए डब्ल्यू. एच. ऑडेन4 ने लिखा है—The Quest is one of the oldest, hardest and most popular of all literary genres. In some instances it may be founded on historical fact—the Quest of the Golden I leece may have its origin in search of scafaring traders for amber—and certain themes, like the theme of the enchanted cruel Princess whose heart can be melted only by the predestined lover, may be distoried recollections of religious rites but the persistent appeal of the Quest as a literary form is due, 1 believe, to its validity as a symbolic description of our subjective personal experience of existence as historical.”
छोटी कहानियों के युग में आकर जीवन के व्यावहारिक स में जो अंतर आ गया है उसने उनके ढाँप में भी परिवर्तन के लिए सभावनाएँ पैदा कर दीं। फलतः छोटी कहानियाँ केवल अभिप्राय को लेकर नहीं लिखी जाने लगीं, उनमें अभिप्रेत विषय के क्रियामक ढाँचे का भी यथावत उदहृत करने की चेष्टा प्रारंभ हुई। वस्तुतः छोटी कहानियाँ जीवन के शोध से प्रेरित होकर लिखी जाने के कारण अपने निर्माण में कथाओं और आख्यायिकाओं से भिन्न स्थापत्य ग्रहण करता है, या उनके स्थापत्य पर पुराने निर्माण की स्पष्ट छायाएं भी मिल जाएँगी।
लेकिन कथाओं और आख्यायिकाओं बानी वह ज्यान टिप्पणी आज की कहानी का सत्य नहीं है, जिसके अनुसार जैसे इनके दिन सुख से बीते तेरा बामे की स्गल-कामना की जाती थी। हमारे भौतिक अस्तित्व का इतिहास ऐसा नहीं है। हम हारकर हमेशा पराजित रह जाते हैं, या फ़िर जीतकर भी कालांतर में पराजित होते हैं। सत्य और असत्य का संघर्ष भौतिक जगत में कभी भी नियमित रूप से निर्णयात्मक नहीं हो पाया। यह सत्य हमारे बाधा का सत्य है, ईसा का नहीं। इस अर्थ में आज का कथाकार इस बोध के प्रति बहुत ईमानदार है। ईमानदारी की ओर संकेत करते हुए ऑडेन ने लिखा है—“There was Morgoth before Sauron and before the Fourth Age ends, who can be sure that no successor to Sauron will appear; Victory does not mean the restoration of the Earthly Paradise or the advent of the new Jerusalem in our historical existence even the best solution involves loss as well gain.”
‘इंदुमती’ में यदि चंद्रशेखर और इंदुमती के प्रेम का अंत वियोग महानायक से, 'उसने कहा था' में लहना सिंह के प्रेम का अंत उसकी मृत्यु से। दोनों का प्रेम अपने-अपने म्यान पर पूर्ण और सात्विक है। 'क्षोभ' का यह ना भंगिमा कहानी को जीवन-सत्य के अधिक निकल खींच हानी है, हमारा एतिहासिक अस्तित्व यहाँ अपने पूरे व्यावहारिक ढाँच में उतर आया है।
विषय बोध का यही रूप छोटी कहानियों के संपूर्ण स्थापत्य को कथाओं और आख्यायिकाओं से अलग कर देता है। आप आधुनिक कहानियों में स्थापत्य का पूर्णता कथानक की निधना पाप पाएँगे, अर्थात् ये कहानियाँ आंतरिक निर्माण के कारण पूर्णता ग्रहण करता है, घटनाओं के पौवा-पर्य मानन मे नहीं। मेरी दृष्टि में छोटी कहानियों की उपलब्धि उनका आंतरिक स्थापत्य है जो वातावरण और चरित्र के आनराकरबन से ही पूर्णत: निर्मित हो जाता है। घटनापूर्ण कहानियों की तुलना में ऐसी कहानियों का स्थापत्य किसी भी दृष्टि से अपूर्ण या रूपाकारहीन5 नहीं है।
छोटी कहानियों में कथाओं और आख्यायिकाओं से अलग जो एक विशेषता है वह है बोध का अर्थमत्ता। इन छोटी कहानियों में अभिप्राय के स्थान पर बोध का या भावना का अर्थ ही वह गतिकारक तत्व रहता है जो पात्र को अनसारित करता है या उसे अधिकाधिक आत्मोन्मुख बनाता है। 'इंदुमती' को ही लीजिए, इस कहानी में अभिप्राय से संबद्ध कथानक-रूढ़ियों के प्रत्यक्ष व्यवहार का अभाव है, यद्यपि चंद्रशेखर का 'इंदुमती' के स्थान पर पहुँच जाना कथानक-रूढ़ियों का एक हल्का सा आभास प्रस्तुत करता है। 'इंदुमती' में प्रयोग के अभिप्राय से उसका अर्थ निश्चित रूप से बड़ा है। स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक आकर्षण को लेकर, उसके जीवन संबंधी अर्थ को लेकर यहाँ सर्वथा एक नया दृष्टिकोण ही लेखक प्रस्तुत करता है।
बोध का यह सर्वथा नया अर्थ कहानियों की अतरंग विशपता है। इस अर्थ को विकसित करने में निश्चित रूप से युग-चेतना ने सहायता प्रदान की है। कथाओं में अद्भुत वृत्तांतों, आकस्मिक घटनाओं, चमत्कारिक उपायों और दैवी साहाय्य की जो साधन-सज्जा थी वह कहानियों में सर्वथा बदल गई। यहाँ जीवन के कार्य-कारण रूप पर, उसकी मौलिक ऐतिहय्ता पर अधिक बल है। इस प्रसंग में आचार्य शुक्ल की एक पंक्ति बहुत ध्यान देने योग्य है। उन्होंने अपने इतिहास में लिखा था—द्वितीय उत्थान की सारी प्रवृत्तियों का आभास लेकर प्रकट होनेवाली 'सरस्वती' पत्रिका में इस प्रकार की छोटी कहानियों के दर्शन होने लगे। द्वितीय उत्थान को जिन सारी प्रवृत्तियों को लेकर प्रकट होनेवाली पत्रिका में ये कहानियाँ छपती हैं उसके पीछे युग का अभ्याहत बोध है। इस संबंध में डॉ. धीरेंद्र वर्मा द्वारा संपादित ‘साहित्य कोश' में छोटी कहानियों के प्रेरणा-स्रोत पर विचार करते हुए लिखा गया है—हिंदी की आधुनिक कहानी के विकास में एक ओर मानव-जीवन के प्रेम, करुणा, विनोद, हास्य, व्यंग्य, विस्मय, आश्चर्यपूर्व साधारण और यथार्थ परिस्थितियों के आघात-प्रतिघात सहायक हुए हैं, दूसरी ओर प्राचीन प्रेमप्रधान खंडकाव्य, प्रबंधकाव्य नाटकों और प्रेमाख्यान से प्राप्त काव्यात्मक कल्पना ने योग दिया है।
उपर्युक्त दोनों संकेतों के आधार पर यदि हम हिंदी की छोटी कहानियों की विकास प्रक्रिया का विवेचन करें तो स्पष्ट ही हमें उसके स्वरूप और संघटन का विशेषताओं के संबंध में, उसके प्रेरणा-स्रोतों के संबंध में और उसके विकास के आंतरिक तत्त्वों के संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त होगी। इस संबंध में हम श्री शिवदान सिंह चौहान की टिप्पणी ऊपर उद्धृत कर चुके हैं, उसे यहाँ दुहराना अभीष्ट नहीं है।
युग-बोध ने आधुनिक छोटी कहानियों के स्वरूप में बहुत बड़ा परिवर्तन उपस्थित कर दिया है, इसलिए परंपरागत होने पर भी इनमें अपने पुराने रूप से काफ़ी फासला है। कथानक के सर्वथा नए रूप को देखकर, वस्तु-समष्टि की नई भंगिमाओं के कारण और तथ्यों के स्थान पर प्रतीको द्वारा लाक्षणिक मकेलो वाले कथा-सपन्न को लेकर ऐसा कहना स्वाभाविक है कि ये कहानियाँ परंपरा से स्वतंत्र और एक स्वतंत्र रचनाशीलता का परिणाम है। किंतु ऐसा है नहीं, इनके पीछे पूरी पर परंपरित रचना-प्रक्रिया का योग है।
विकास की इस प्रक्रिया को ध्यान में रखकर छोटी कहानियों के स्वरूप की चर्चा करूं। कथानक के रूप को लेकर बात शुरू की जाए। कथानक के निर्माण में कथाओं और आख्यानों में लेखक की कल्पना कुछ उसी तरह की स्वतंत्रता लेती है जैसी अँग्रेज़ी 'रोमांस' नामक विधा में लिया करती थी; अर्थात् यहाँ कल्पना को अपना विश्व निर्मित करने के लिए पूरी स्वतंत्रता है, वह आवश्यकतानुसार कारण-कार्य के नियम (लॉ ऑफ़ causation) और मनुष्य की वास्तविक्ता तथा ऐतिहासिकता से ऊपर उठकर कथानक का निर्माण कर सकती है। छोटी कहानियों में 'फैंटेसी' के अतिरिक्त किसी रूप में ऐसी छूट नहीं है। कहानी लेखक अपने कथानक को अधिक से अधिक बोध की वास्तविकता प्रदान करने की चेष्टा करता है। इस अर्थ में कहानियों के कथानक अनिवार्यता हमारे प्रत्यक्ष अनुभव के विश्व से लिए गए हैं, कल्पना या इच्छा के लोक से नहीं। 'वस्तु-समष्टि' में ये कहानियाँ सामान्यतः नौवन के किसी स्वरूप की मार्मिकता6 सामने लाती है।
स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में कहानियाँ अधिक बोधात्मक अंतक्रियाओं से निर्मित होती हैं। फ़्लौबर्ट ने जॉर्ज सेंड (Georges Sand) को अपनी कहानी 'अन क्यूर सिंपल' (Un Coeur Simple) भेजते हुए इस तथ्य का उद्घाटन किया था कि कथा का कोई भी विषय जबतक दूसरे विषयों से अंतर्क्रियाभूत नहीं होता तबतक कहानी कहानी नहीं हो सकती। कथानक की निबंधना में विचार-तत्व (थीम) को लेकर भी कहानियों में बोध की व्यावहारिकता देखी जा सकती है। यशपाल जी ने अभी हाल में ‘नई कहानियाँ' के 'मने तो कुछ' शीर्षक स्तंभ के अंतर्गत लिखा है-“ऐसा भी तो साहित्य हो सकता है जो केवल अप्राप्त काल्पनिक मुख की रसानुभूति के बजाए, सर्वसाधारण का परिचित अनुभूतियों के आधार पर मंमत्र संतोष प्राप्त करने के विषय में बात करे; ऐसे साहित्य से सर्वसाधारण का मनोरंगन क्यों नहीं होगा। वस्तुतः कहानियों ने ऐसे ही अनुभवों से सर्वसाधारण को रसानुभूति का अवसर दिया है। बोध की वास्तविकता कल्पना के मुख से मार्मिक तो होती ही है!
वस्तुतः कहानियों में कथानक-संबंधी सभी संभव अवयवों को नए व्यवधान से मंडित कर दिया गया—कारण, उपाय, प्रयत्न, फल सबको! इन कहानियों में इतिवृत्त के प्रवाह को 'कथानक' मानने का भ्रम नहीं है। कहानियों के निर्माण में 'कथानक' के अंतर्गत घटनाओं का रैखिक-प्रवाह अनिवार्य नहीं है। ‘उसने कहा था' के 'कथानक' से हम इस रैखिक-प्रवाह और चारित्रिक प्रवाह के भेद को स्पष्ट समझ सकते हैं।
कथा से भिन्न कहानियों में बोध का एक नया 'टेंपर'7 (Temper) उभरकर हमारे सामने आता है किंतु, यह नई भंगिमा ऐतिहासिक जीवन-प्रक्रिया का परिणाम है। 'बोध' और 'भावना' दोनों में कहानियाँ जीवन के अधिक निकट आ गई है, अंतर्क्रिया का रूप अधिक सामाजिक हो गया है। फ़्लौबर्ट के कथन का अर्थ भी यही है। प्रेमचंद्र की कहानियों में भी यही अर्थ है।
इनकी पिछली कहानियों में तो यह बोध-भंगिमा और भी स्पष्ट होकर हमारे सामने आती है। उनकी प्रारंभिक कहानियों में इतिवृत्त का प्रवाह कथानक के निर्माण की पुरानी परंपरा की याद दिलाता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार बालज़ाक (Balzac) की प्रसिद्ध कहानी 'दि ग्रेट मास्टरपीस' अपने वातावरण और परिवेश के चित्रण में तथा 'कथानक' की निबधना में रोमांस की परंपरा की याद दिलाती है। यों अपनी विचारणा में उसे हम शुद्ध आधुनिक कहानी ही कह सकते हैं। जिस प्रकार जीवन-बोध के कारण बालज़ाक की कहानी आधुनिक है उसी प्रकार प्रेमचंद्र की कहानियां भी आधुनिक हैं। इन कहानियों में आधिदैविक या दैविक ‘अभिप्रायों' की जगह 'मानवीय अमिप्राय' प्रधान है। ये अभिप्राय कहानियों पर विचार-वस्तु के रूप में आक्षेपित न होकर कथा के विकास से उत्पन्न हैं, फलतः इनमें जीवन अधिक है।
कल्पित कथानकों की तुलना में लोकाश्रित कथानकों की प्रतिष्ठा स्वयं एक ऐतिहासिक घटना है, फलतः इससे संतुलन स्थापित करने के लिए 'कथा' के दूसरे सापेक्ष अवयवों के सघटन में भी परिवर्तन के लक्षणों का उभरना आवश्यक था। सबद्ध रूप से अभिप्रायों में, चरित्र को निबधना में और सामान्य रूप से निर्माण में भी आधुनिक छोटी कहानियाँ कथाओं और आख्यायिकाओं में गुणात्मक रूप से विकसित है।
- रचनाकार : सुरेंद्र चौधरी
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