राजेंद्र बाला घोष (बंग महिला) : चंद्रदेव से मेरी बातें, दुलाईवाली
माधवराव सप्रे : एक टोकरी भर मिट्टी
सुभद्रा कुमारी चौहान : राही
प्रेमचंद : ईदगाह, दुनिया का अनमोल रतन
राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह : कानों में कंगना
चंद्रधर शर्मा गुलेरी : उसने कहा था
जयशंकर प्रसाद : आकाशदीप
जैनेंद्र : अपना-अपना भाग्य
फणीश्वरनाथ रेणु : तीसरी क़सम, लाल पान की बेगम
अज्ञेय : गैंग्रीन
शेखर जोशी : कोसी का घटवार
भीष्म साहनी : अमृतसर आ गया है, चीफ़ की दावत
कृष्णा सोबती : सिक्का बदल गया
हरिशंकर परसाई : इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर
ज्ञानरंजन : पिता
कमलेश्वर : राजा निरबंसिया
निर्मल वर्मा : परिंदे
राजेंद्र बाला घोष (बंग महिला) : चन्द्रदेव से मेरी बातें, दुलाईवाली
राजेंद्र बाला घोष (बंग महिला)
जन्म सन् 1882 ई. में मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। हिंदी में पहली बार रामचंद्र शुक्ल ने इनकी कई रचनाओं का अपनी ओर से ‘परिवर्तन–संशोधन और परिवर्धन’ करके ‘कुसुम’ नामक संग्रह संपादित किया, जो 1911 में इंडियन प्रेस (प्रयाग) से छपा।
इनकी रचनाएँ उस समय की प्रसिद्ध पत्रिकाएँ जैसे–‘सरस्वती’, ‘आनंद कादंबनी’, ‘भारतेन्दु’, ‘समालोचक’, ‘लक्ष्मी’ आदि में छपीं।
प्रमुख कहानियाँ :-
चंद्रदेव से मेरी बातें (1904 ई.), कुंभ में छोटी बहू (1906 ई.), दुलाईवाली (1907 ई.), भाई-बहन (1908 ई.), हृदय परीक्षा (1915 ई.) आदि।
चंद्रदेव से मेरी बातें :
यह कहानी सन् 1904 ई. में ‘सरस्वती’ पत्रिका में निबंध के रूप में प्रकाशित हुई थी, लेकिन बाद में कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने इसे कहानी के रूप में ही प्रकाशित किया।
‘चंद्रदेव से मेरी बातें’ पत्रात्मक शैली में लिखी गई हिंदी की पहली कहानी है।
कुछ विद्वानों के अनुसार यह हिंदी की पहली राजनीतिक कहानी है।
‘चंद्रदेव से मेरी बातें’ कहानी में बंग महिला के द्वारा देश के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन और उनकी ग़लत नीतियों पर टिकी हुई व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है।
कहानी के पात्र :
भगवान चंद्रदेव- इन्हें संकेत करके पत्रात्मक शैली में कहानी लिखी गई है।
लेखिका- बंग महिला (राजेंद्र बाला घोष)
दुलाईवाली :
यह 1907 ई. की सरस्वती (भाग-8, संख्या-5) में प्रकाशित हुई थी। यथार्थ चित्रण, पात्रानुकूल भाषा और स्थानीय रंगों की दृष्टि से यह कहानी आज भी महत्वपूर्ण है। इसे मनोरंजन प्रधान कहानी कहा जाता है।
कहानी का आरंभ काशी नगरी से होता है और समापन इलाहाबाद (प्रयागराज) में जाकर।
कहानी के पात्र :-
वंशीधर- मुख्य पात्र जो कि इलाहाबाद का निवासी है।
नवल किशोर- वंशीधर का ममेरा भाई है। जो कि हँसमुख व्यक्ति है।
जानकीदेई- वंशीधर की पत्नी। एक गृहस्थ महिला है।
अन्य पात्र- नवल किशोर की पत्नी, वंशीधर की सास, साला, साली, इक्केवाला, आदि।
माधवराव सप्रे : एक टोकरी भर मिट्टी
माधवराव सप्रे
जन्म- 1871 ई० मृत्यु- सन् 1931 ई०।
सन् 1900 ई० में पेंडरा से 'छत्तीसगढ़ मित्र' निकाला। यह पत्र केवल तीन वर्ष चलने के बाद बंद हो गया।
1909 ई० में 'हिंदी ग्रंथमाला' (नागपुर) का प्रकाशन किया। तदनंतर राजनीति और शिक्षा पर पुस्तकें लिखी।
बाल गंगाधर तिलक के 'केसरी' पत्र से प्रेरित होकर 'हिंदी केसरी' पत्र निकाला। मराठी ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद किया।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के मराठी ग्रंथ 'गीतारहस्य' का हिंदी में अनुवाद किया है।
1924 ई. के देहरादून में हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे।
एक टोकरी भर मिट्टी :
एक टोकरी भर मिट्टी कहानी का प्रकाशन ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका में 1901ई० में प्रकाशित हुआ था।
एक टोकरी भर मिट्टी कहानी की चर्चा हिंदी में 1968 में 'सारिका पत्रिका' के फ़रवरी अंक से शुरू होती है।
इस कहानी को बहुत सारे आधुनिक समीक्षकों ने हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी माना है।
डॉ० गोपाल राय ने इस कहानी को “संवेदना के क्षण की अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिंदी की पहली कहानी के रूप में मान्यता देते हुए इसकी भाषा को ठेठ देशी हिंदी भाषा बताया है।”
कहानी में सिर्फ़ दो पात्र है- ज़मींदार और अनाथ विधवा
गौण पात्र- ज़मींदार का वकील और विधवा की पोती।
कथासार :
एक ज़मींदार है जिसके अहाते में एक वृद्ध विधवा की झोपड़ी है। ज़मींदार की इच्छा है कि वह किसी भी तरह उस वृद्ध विधवा की ज़मीन ले ले ताकि ज़मींदार की ज़मीन का विस्तार हो। इसके लिए वह तमाम हथकंडे अपनाता है और अंत में विधवा को हटाने में सफल हो जाता है। बाद में विधवा के एक कथन से ज़मींदार का हृदय परिवर्तित होता है और वह पुनः उसकी झोपड़ी वापस कर देता है।
'एक टोकरी भर मिट्टी’ वर्ग भेद को रेखांकित करती है।
हृदय परिवर्तन का सिद्धांत भी इस कहानी का महत्वपूर्ण पक्ष है।
मातृभूमि के प्रति लगाव की कहानी है।
सुभद्रा कुमारी चौहान : राही
सुभद्रा कुमारी चौहान
जन्म -16 अगस्त 1904
कहानी संग्रह :- बिखरे मोती (1932), उन्मादिनी (1934), सीधे साधे चित्र (1947)।
गजानन माधव मुक्तिबोध के अनुसार—सुभद्रा कुमारी चौहान नारी के रूप में ही रहकर साधारण नारियों की आकांक्षाओं और भावों को व्यक्त करती हैं। बहन, माता, पत्नी के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका के भाव उन्होंने व्यक्त किए हैं। उनकी शैली में वही सरलता है, वही अकृत्रिमता और स्पष्टता है जो उनके जीवन में है।
राही :
कहानी के पात्र :- इस कहानी में दो पात्र है (राही और अनीता)।
राही- एक ग़रीब औरत जिसे चोरी के ज़ुर्म में क़ैद किया जाता है। भीख माँगने वाली माँगरोरी जाति से संबंध।
अनीता- एक अमीर घर की महिला जो स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण जेल गई है।
जेल के परिवेश पर आधारित इस कहानी में राही की विवशता के कारण की गई चोरी की जानकारी से दुखी होकर अनीता द्वारा तत्कालीन कांग्रेसी आंदोलनकारियों की सत्तालोलुपता और ढोंग पर चिंतन।
विवश- ग़रीबों की सेवा को वास्तविक देशभक्ति दर्शाने पर बल।
प्रेमचंद : ईदगाह, दुनिया का अनमोल रतन
प्रेमचंद
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 तथा मृत्यु 08 अक्टुबर 1936 को हुई। प्रेमचंद का जन्म वाराणसी से लगभग चार मील दूर लमही नामक गाँव में हुआ था। प्रेमचंद के पिता का नाम अजायबराय था। उनकी माता आनंदी देवी थी। उनका घर का नाम ‘धनपत राय श्रीवास्तव’ था। ‘नबाब राय’ के नाम से वे लिखते थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा उर्दू, फ़ारसी में हुई थी।
कहानी संग्रह :- सोज़े वतन, मानसरोवर (आठ खंड), प्रेमचंद की असंकलित कहानियाँ, प्रेमचंद की शेष रचनाएँ।
ईदगाह :
प्रकाशन-सन् 1933 में लिखी गई 'ईदगाह' कहानी उस दौर की प्रसिद्ध पत्रिका 'चाँद' में प्रकाशित हुई थी।
कहानी के पात्र :-
हमिद- एक छोटा सा बच्चा
अमीना- हामिद की दादी
हमिद के दोस्त- मोहमद, मोहसीन, नूरे और अम्मी
हिंदी में बाल मनोविज्ञान से संबंधित कहानियाँ बहुत कम लिखी गई हैं। प्रेमचंद उन दुर्लभ कथाकारों में से हैं जिन्होंने पूरी प्रामाणिकता एवं तन्मयता के साथ बाल जीवन को अपनी कहानियों में जगह दी है। उनकी कहानियाँ भारत की साझी संस्कृति एवं ग्रामीण जीवन के विविध रंगों से सराबोर हैं।
ईदगाह प्रेमचंद की इन्हीं विशेषताओं को अभिव्यक्त करने वाली प्रतिनिधि कहानी है। इस कहानी में ईद जैसे महत्त्वपूर्ण त्योहार को आधार बनाकर ग्रामीण मुस्लिम जीवन का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया गया है।
हामिद का चरित्र हमें बताता है कि अभाव उम्र से पहले बच्चों में कैसे बड़ों जैसी समझदारी पैदा कर देता है। मेले में हामिद अपनी हर चाह पर संयम रखने में विजयी होता है। साथ ही रुस्तमे हिंद चिमटे के माध्यम से प्रेमचंद ने श्रम के सौंदर्य एवं महत्त्व को भी उद्घाटित किया है। चित्रात्मक भाषा की दृष्टि से भी यह कहानी अनूठी है। 'ईदगाह' कहानी का उद्देश्य हामिद के बहाने ऐसे चरित्र का उद्घाटन करना है जो अभावों के कारण समय से पहले ही परिपक्व हो गया है। यह किसी भी समाज के स्वस्थ होने का लक्षण नहीं है कि उसके बच्चे अपने सहज बचपन को भूलकर बुज़ुर्गों सरीखा आचरण करने लगें।
बच्चों में खिलौनों की स्वाभाविक लालसा होती है और मेले में जाने पर खेलकूद मनोरंजन व खाने-पीने की भी हामिद मेले में जाकर और अपनी जेब में तीन पैसे होने पर भी ऐसा नहीं करता। वह इन पैसों से खिलौना ले सकता था या शर्बत पी सकता था लेकिन उसने इन पैसों को अपने बजाए दादी के लिए ख़र्च करना ज़रूरी समझा। यह उसका दादी के प्रति प्रेम भी है और दादी से आशीर्वाद पाने की आकांक्षा भी।
कहानी के अंत में प्रेमचंद एक टिप्पणी करते हैं जो असल में कहानी की परिणति भी है—और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र—बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता! प्रेमचंद के साहित्य का सार है मनुष्यता की जय। वे बुरे दिखाई देने वाले पात्रों में भी अच्छाई की खोज करते हैं और निर्धनता में भी उच्च मानवीय गुणों की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। ईदगाह उनकी इसी कला का श्रेष्ठ उदाहरण है।
दुनिया का सबसे अनमोल रत्न :
‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’ प्रेमचंद की पहली कहानी है। संसार का अनमोल रतन, 1907 'ज़माना' पत्रिका में छपी थी। यह कहानी संग्रह (सोजे वतन) का हिस्सा है जिसे अँग्रेज़ सरकार ने बैन कर दिया था।
कहानी में अंत में देशप्रेम और देशभक्ति की भावना उजागर की गई है।
इसमें दिलफ़रेब दिलफ़िगार से कहती है कि ‘अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ।’ दिलफ़रेब दो बार नाकाम हो कर लौटता है मगर तीसरी बार जब वह आता है तो वह रत्न खोजने में कामयाब हो जाता है जिसके सामने दुनिया की हर चीज़ फीकी है।
यह कहानी वर्णात्मक शैली में लिखी गई। कहानी अलिफ़ लैला के क़िस्सेनुमा शैली को अपनाती है। इस कहानी में उर्दू शब्दावली की बहुलता है। कहानी सच्चे प्रेमी के प्रेम परीक्षा की कहानी है।
कहानी के पात्र :-
दिलफ़िगार– कहानी का मुख्य पात्र है जो कि दिलफ़रेब से बेपनाह प्रेम करता है।
दिलफ़रेब- एक बेहद ख़ूबसूरत स्त्री और कहानी की मुख्य नारी पात्र।
काला चोर- जो एक क़ैदी है। ज़ुर्म करने के कारण उसे फाँसी दी जा रही थी।
एक बुज़ुर्ग- जो दिलफ़िगार की हौसला अफ़ज़ाई करता है।
राधिकारमण प्रसाद सिंह : कानों में कंगना
राधिकारमण प्रसाद सिंह
जन्म सन् 1890 ई० में हुआ। राधिका रमण प्रसाद सिंह की कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा है। दो कहानी संग्रह 'कुसुमांजलि'(1912 ई.) तथा 'गान्धीटोपी'(1938 ई.) में प्रकाशित हुए हैं।
राधिका रमण प्रसाद सिंह एक विशेष प्रकार की भावुकता प्रधान, काव्यात्मक, लच्छेदार तथा मुहावरेदार भाषा-शैली के कारण प्रसिद्ध हैं। तत्सम सामाजिक शब्द-योजना तथा तर्कपूर्ण पदावली के कारण आपके लेखन में बंगला गद्य शैली की झलक पाई जाती है।
राधिका रमण प्रसाद सिंह आरा (शाहाबाद) की नागरी प्रचारिणी सभा व बिहार और प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के द्वितीय अधिवेशन (बेतिया-चम्पारन के सभापति रह चुके हैं।
कानों में कंगना :
'इंदु' पत्रिका में राधिकारमण प्रसाद सिंह की कहानी 'कानों में कंगना' का प्रकाशन 1913 ई. में हुआ।
वासना और प्रेम में भेद को स्पष्ट किया गया है।
कहानी के पात्र :-
किरण- कहानी की नायिका और योगीश्वर की पुत्री।
नरेंद्र (लेखक)- किरण का पति।
योगीश्वर- नरेंद्र के गुरु और किरण के पिता।
नाचनेवाली किन्नरी और जुही।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी : उसने कहा था
चंद्रधर शर्मा गुलेरी
जन्म सन् 1883 ई. में और देहावसान 1922 ई. में हुआ था। उनका पैतृक निवास स्थान हिमाचल प्रदेश में काँगड़ा जिले का गुलेर गाँव था।
आधुनिक हिंदी कहानी, निबंध तथा समीक्षा एवं भाषाशास्त्र के विकास में चंद्रधर शर्मा गुलेरी का योगदान महत्त्वपूर्ण समझा जाता है।
कहानीकार की हैसियत से चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने कुल तीन कहानियाँ लिखीं। आपकी पहली कहानी 'सुखमय जीवन' 1911 ई० में 'भारत मित्र' में छपी थी।
आपकी प्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था' कोई चार वर्ष बाद 1915 ई० की 'सरस्वती' (भाग 16, खंड 1, पृ० 314) में प्रकाशित हुई। तीसरी कहानी 'बुद्ध का काँटा'(1913) है।
आपके दो निबंध 'कछुआ धरम' तथा 'मारेसि मोहि कुठाउँ' बहुत प्रसिद्ध हुए थे।
1910 ई० की 'सरस्वती' के 'जयसिंह काव्य' तथा 1913 ई० की 'सरस्वती' में 'पृथ्वीराज विजय महाकाव्य' शीर्षक आपके दो लेख उल्लेखनीय हैं।
'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' की दूसरी जिल्द में प्रकाशित 'पुरानी हिंदी' विषयक स्थापनाएँ आपकी भाषा वैज्ञानिकता का परिचय देती हैं। यह निबंध हिंदी भाषा के इतिहास-प्रसंग में अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है।
चंद्रशर्मा गुलेरी ने 1900 ई० के आसपास जयपुर से अपने संपादकत्व में 'समालोचक' नाम का एक पत्र निकलवाया था। 1920 ई० में आप नागरी प्रचारिणी सभा (काशी) की व्याकरण संशोधन-समिति के सदस्य भी रहे।
काशी की नागरी प्रचारिणी सभा पत्रिका के संपादक भी रहे। उन्होंने धर्म, ज्योतिष, पुरातत्व, भाषाशास्त्र, इतिहास, साहित्य आदि कई क्षेत्रों में गंभीर अध्ययन और अनुशीलन किया था।
उसने कहा था :
पहली बार हिंदी कहानी में कथ्य, चरित्र और संवेदना की दृष्टि से ही नहीं वरन् शिल्प और भाषा की दृष्टि से भी पूर्ण परिपक्वता नज़र आती है।
यह रचना हिंदी कहानी की शिल्प-विधि तथा विषय-वस्तु के विकास की दृष्टि से 'मील का पत्थर' मानी जाती है। इसमें एक यथार्थपूर्ण वातावरण में प्रेम के सूक्ष्म तथा उदात्त स्वरूप की मार्मिक व्यंजना की गई है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कहानी के विषय में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए लिखा—“इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती है पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा है—केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा। कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्ज प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार से सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता। इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।”
डॉ. नगेंद्र के अनुसार—उसने कहा था कहानी का आरंभ चंचल मधुर है, पर अंत में जैसे सारी ही कहानी रस में डूब जाती है। लहना सिंह के पुरुषार्थी व्यक्तित्व से शक्ति प्राप्त कर अंत में उसके बलिदान की करुणा कितनी गंभीर हो जाती है शर्त, हास, ओज, कारुण्य इनके मिश्रण से इसका जो परिचय होता है वह अत्यंत प्रगाढ़ और पृष्ठ है।
‘उसने कहा था’ कहानी के पाँच खंड हैं। इनमें से चार युद्धस्थल पर आधारित हैं और एक अमृतसर पर।
कहानी में युद्ध का वर्णन बड़ी सूझबूझ और तटस्थता से किया हुआ है। लेखक ने कहीं भी युद्ध का समर्थन नहीं किया है।
सिर्फ़ युद्ध की भयावहता का दृश्य चित्रित किया गया है। चूँकि कहानी का नायक अँग्रेज़ों की तरफ़ से लड़ रहा है, इसलिए अँग्रेज़ों का समर्थन दिखाई देता है। वैसे यह समर्थन भी अँग्रेज़ों का नहीं है, वरन् उस भारतीय फ़ौज का समर्थन है जो अँग्रेज़ों की तरफ़ से लड़ रही है और जिसमें 'उसने कहा था' का नायक लड़ रहा है। इस प्रकार प्रथम युद्ध की लहनासिंह के भावनात्मक युद्ध के रंग को गाढ़ा करता है।
इस कहानी की केंद्रीय संवेदना प्रेम तथा विश्वास की भावना है। उसने कहा था कहानी युद्ध की पृष्ठभूमि पर रचे कथा-विन्यास में संबंधों के विश्वास को रेखांकित करती है। किशोरावस्था का सहज आकर्षण पवित्र स्नेह-संबंध में परिणत होकर भावों के संसार में डूबता-उतरता विशुद्ध कर्तव्य भावना का रूप धारण कर लेता है।
पूर्वदीप्ति शिल्प का सृजनात्मक प्रयोग महत्वपूर्ण है।
नामवर सिंह के अनुसार इस कहानी में महत्वपूर्ण है आँचलिकता। यह कहानी आँचलिक भाषा, आँचलिक जीवन, आँचलिक गीत को लेकर चलती है।
कहानी के प्रमुख पात्र :-
लहनासिंह- कथा नायक व कहानी के आरंब में दिखाई देने वाला 12 वर्षीय लड़का।
सूबेदारनी- सूबेदार हजारासिंह की पत्नी व कहानी के आरंभ में दिखाई देने वाली 8 वर्षीय लड़की।
हजारासिंह- सेना का सूबेदार।
बोधासिंह- हजारासिंह व सूबेदारनी का पुत्र।
वजीरासिंह- सेना का जवान।
लपटन साहब- जर्मन जासूस।
जयशंकर प्रसाद : आकाशदीप
जयशंकर प्रसाद
जन्म: 30 जनवरी 1889, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
कहानी संग्रह :- छाया, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इंद्रजाल।
पहली कहानी 'ग्राम' 1911 ई. में 'इंदु' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
पहला कहानी संग्रह 'छाया' 1912 ई. में आया और उसके बाद 'प्रतिध्वनि' 1926, आकाशदीप 1929, आँधी 1931 तथा इंद्रजाल 1936 ई. में प्रकाशित हुआ।
इन संकलनों में कुल 69 कहानियाँ हैं। आकाशदीप कहानी संग्रह में कुल 19 कहानियाँ हैं।
आकाशदीप कहानी :
चंपा और बुद्धगुप्त दोनों पहली बार बंदी के रूप में समुद्री नाव में मिलते हैं। फिर चंपा की प्रेरणा से बुद्धगुप्त पहले नाव की रस्सी काटकर उसे पोत से अलग कर देता है और फिर द्वंद्व युद्ध में नाविकों के नायक को पराजित कर नाव का मालिक बन जाता है। धीरे-धीरे उनमें प्रेम भाव जाग्रत होता है, परंतु यह जानकर कि बुद्धगुप्त ने चंपा के पिता की हत्या की थी। इस आशंका के कारण चंपा बुद्धगुप्त के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा देती है। बुद्धगुप्त चंपा द्वीप छोड़कर भारत चला जाता है और चंपा उसी द्वीप में आकाशद्वीप जलाती रहती है। प्रेम और घृणा के अंतद्वंद्व में चंपा एकाकी जीवन का वरण करती है।
कहानी के पात्र :ृ
1. चंपा- कहानी की मुख्य पात्र है जो जाह्नवी के तट पर, चंपा नगरी की एक क्षत्रिय बालिका है। वाणिक् मणिभद्र की पाप-वासना ने चंपा को बंदी बना लिया। इसके पिता मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे जिसकी मृत्यु जलदस्यु के कारण हुई थी। चंपा अपने पिता की मृत्यु की दोषी बुधगुप्त को मानती है। क्योंकि उसके आक्रमण से ही उसके पिता ने जल समाधि ले लिया था।
2. बुद्धगुप्त- कहानी का नायक है जो ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय है। वह बहादुर और वीर पुरुष है। इसी ने चंपा और स्वयं को मणिभद्र के चंगुल से आज़ाद कराया है। मुख्यतः यह जलदस्यु है जिसका काम समुद्र में आने वाली जहाज़ों को लूटना होता है। बाद में उसके अंदर चारित्रिक परिवर्तन होता और वह लूटपाट छोड़कर व्यापार करने लगता है। और उसका एक प्रेमी रूप कहानी में उभर कर आता है।
3.मणिभद्र- कहानी का खलनायक, जिसने चंपा और बुद्धगुप्त को बंदी बना लिया था।
4.जया- आदिवासी युवती, चंपा की सहयोगी।
प्यार और घृणा का द्वंद्व चंपा के जीवन की स्थायी पीड़ा है।
आकाशदीप कहानी में प्रेम का अंतद्वंद बेहद मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
इस कहानी में प्रसाद की स्वच्छंदतावादी दृष्टि की अभिव्यक्ति हुई है।
इस छोटी-सी कथा को प्रसाद ने सात भागों में बाँटकर लिखा है।
यह नायिका प्रधान कहानी है। इस कहानी की नायिका चंपा है। इसमें समुद्री जीवन के परिवेश को ऐतिहासिक सौंदर्य में चित्रित किया गया है।
'आकाशदीप' कहानी का संपूर्ण परिवेश समुद्र का है। कहानी की सारी घटनाएँ समुद्र में पोत या नौका में घटित होती हैं। कहानी के पात्र जब अपने पिछले जीवन की चर्चा करते हैं या विचार करते हैं, तब वे भूमि पर आते हैं।
यह मूलतः रोमांटिक अवसाद की कहानी है। इसकी नायिका चंपा और नायक बुद्धगुप्त है। हालाँकि इसे नायिका प्रधान कहानी ही कहा जाएगा। इसे हिंदी में 'उसने कहा था' की परंपरा की कहानी माना जाता है।
जैनेन्द्र : अपना-अपना भाग्य
जैनेन्द्र
मूल नाम : आनंदी लाल
जन्म: 2 जनवरी 1905, कौड़ियालगंज, अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)
कहानी संग्रह :- फाँसी, वातायन, नीलम देश की राजकन्या, एक रात, दो चिड़ियाँ, पाजेब, जयसंधि, जैनेंद्र कुमार को प्रेमचंद ने हिंदी का गोर्की कहा।
जैनेंद्र कुमार एक अलग रास्ते व कहानी के अलग लहज़े का चुनाव करते हैं। प्रेमचंद्र के यहाँ, जहाँ समाज केंद्र में है वहीं जैनेन्द्र के यहाँ व्यक्ति केंद्र में है। जैनेंद्र हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कथाकार हैं। विचारों की प्रधानता व बौद्धिकता का आग्रह उनके यहाँ प्रमुख रूप से है।
जैनेंद्र पहले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने हिंदी गद्य को मनोवैज्ञानिक गहराइयों से जोड़ा।
लेखन की शुरुआत 1927 ई० में हुई। जब प्रथम कहानी ‘खेल’ विशाल भारत में प्रकाशित हुई थी।
सन् 1929 मे प्रकाशित उनका प्रथम कहानी संग्रह 'फाँसी' में आसपास के जीवन यथार्थ को आधार बनाया गया है, पर वहाँ भी विचारों की प्रधानता प्रमुख है।
अपना-अपना भाग्य :
कहानी का पात्र :- दस वर्ष का अनाथ बच्चा, कथानायक और कथानायक का मित्र
यह कहानी आत्मकथात्मक शैली/मैं शैली में लिखी गई है और यह चार भागों में है।
कहानी एक बाल मज़दूर के ईर्द-गिर्द घूमती है, जो परिवार की घोर ग़रीबी के चलते नैनीताल आकर व एक दुकान पर मज़दूरी करता है। किसी कारणवश मालिक इसे नौकरी से निकाल देता है। रात को अधनंगे अकेले भटकने के दौरान इसकी मुलाक़ात दो सैलानी मित्रों से होती है जो रात में नैनीताल की ख़ूबसूरती का आनंद उठा रहे हैं। इस बालक से वे कई तरह के सवाल पूछते हैं और उसकी सहायता के लिए उसे किसी दूसरे होटल में ठहरे अपने वकील मित्रों के पास ले जाते हैं। पर वहाँ से भी बालक को कोई मदद नहीं मिलती। अंत में दोनों मित्र ख़ुद उसकी सहायता के लिए कुछ पैसे देना चाहते हैं। पर पास में खुले पैसे न होने के चलते वे बालक से कल मिलने का वादा करके अपने होटल में सोने चले जाते हैं। इधर रात में ठंड से ठिठुरकर बालक की मौत हो जाती है। दोनों मित्रों को जब इसकी सूचना मिलती है तो वे यह कहकर अपने को सांत्वना देते हैं कि यही उसके भाग्य में लिखा था।
'अपना-अपना भाग्य' कहानी जैनेंद्र कुमार की बहुचर्चित कहानियों में से है। जिसमें एक बाल मज़दूर को केंद्र में रखकर सामाजिक पाखंड व संवेदनहीनता का मनोवैज्ञानिक स्तर पर विश्लेषण किया गया है। जहाँ सिर्फ़ भाग्य के नाम पर किसी की बेबस छोड़ देना घोर अमानवीयता का परिचायक है। यह वह नव मध्यवर्ग है जो बातें तो बड़ी-बड़ी करता है, पर व्यक्ति की सहायता के नाम पर भाग्य की दुहाई देकर किनारा कर लेता है। यह परतंत्र भारत के नवशिक्षित वर्ग की हक़ीक़त भी है जो अँग्रेज़ों को ख़ुश रखने के लिए हर प्रकार के कार्य ख़ुशी-ख़ुशी करता है पर अपने ही देशवासियों की सहायता, सहयोग करने में स्वार्थी मनोवृत्ति आगे आ जाती है। इस कहानी में घटना का चित्रण प्रमुख न होकर व्यक्ति की मनोवृत्तियों के चित्रण पर बल दिया गया है। जहाँ भाग्य का पाखंड किसी को उसके हाल पर छोड़ देना का बहाना भर है। और सहानुभूति सिर्फ़ दिखावे तक सीमित है। यह भाग्यवादी सिद्धांत कहीं-न-कहीं उस क्षुद्र मानसिकता की परिचायक है जो हर घटना, विसंगिति को नियति से जोड़कर देखने की आदी है।। जैनेंद्र कुमार इस कहानी के माध्यम से 'अपना-अपना भाग्य' जैसे अंधविश्वास के पाखंड का पर्दाफ़ाश करते हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु : तीसरी कसम, लाल पान की बेगम
फणीश्वरनाथ रेणु
जन्म 4 मार्च 1921 ई. को बिहार राज्य के पूर्णिया ज़िले के औराही हिंगना गाँव में हुआ था।
ये छात्र आंदोलन से जुड़े रहे और 1942 ई. के बाद स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।
'ठुमरी', 'एक आदिम रात्रि की महक', 'अग्निखोर', एक श्रावणी दोपहरी की धूप, 'अच्छे आदमी' आदि प्रमुख कहानी संग्रह हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु नई कहानी आंदोलन में ग्राम संवेदना की कथा-धारा के प्रमुख कथाकार है। उन्होंने प्रकारांतर से अपने लेखन से कृषक भारत की मूल्य व्यवस्था की कसौटी पर औद्योगीकरण तथा शहरीकरण की नीतियों का मूल्यांकन किया है।
आँचलिक जनजीवन के कुशल चितेरे रेणु ने अपनी कहानियों में भी ग्राम संवेदना का मार्मिक चित्रण किया है।
ग्रामीण जीवन के सुख-दुख, आशा-आकांक्षा, सपने अंधविश्वास, परंपरा, रीति-रिवाज, बोली-भाषा आदि के सुंदर चित्र उनकी कहानियों में मिलते हैं।
रेणु की कहानियों का संसार मुख्यतः ऐसे लोगों से निर्मित है जो गाँव के प्रति किसी हद तक एक रोमानी मोह से ग्रस्त हैं और जिन्हें गाँवों का सांस्कृतिक और लोकतात्त्विक वैभव गहुत गहराई से छूता और बाँधता है।
रेणु ने आधुनिकीकरण की विडंबना के तौर पर शहर की ओर भागने वाले ग्रामीण युवकों को अंकित किया है तो दूसरी ओर भारतीय ग्रामों की लोक कला और लोक संस्कृति को उसके सारे ह्रास के बीच, पुनर्जीवित करने की कोशिश भी की है।
रेणु' ग्रंथावली के संपादक भारत यायावर के अनुसार रेणु के लेखन का आरंभ 1936 के आस-पास ही हो चुका था लेकिन तत्कालीन प्रकाशन का कोई विवरण उपलब्ध नहीं हैं। उनकी अगस्त 1944 में पहली उल्लेखनीय कहानी 'वट बाबा' के प्रकाशन के बाद अगले पाँच वर्षों में तेरह कहानियाँ पत्र पत्रिकाओं में छपीं।
भारत यायावर लिखते हैं कि—“रेणु हिंदी के पहले कथाकार हैं, जो ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ और ‘मन के रंग’ को, यानी मनुष्य के राग-विराग और प्रेम को, दुख और करुणा को, हास-उल्लास और पीड़ा को अपनी कहानियों में एक साथ लेकर ‘आत्मा के शिल्पी’ के रूप में उपस्थित होते हैं।”
तीसरी क़सम :
‘तीसरी क़सम, अर्थात् मारे गए गुलफ़ाम’ रेणु की एक प्रतिनिधि कहानी है जिसका लेखन उन्होंने 1956 में किया था। और उसका प्रकाशन 1957 में पटना से निकलने वाली पत्रिका ‘अपरंपरा’ में हुआ जिसे बाद में ‘ठुमरी’ नामक कथा संग्रह में संकलित और प्रकाशित किया गया।
विश्वनाथ त्रिपाठी ने 'तीसरी क़सम' के संदर्भ में कहा है कि कहानी मानो उपन्यास होना चाहती है।
कहानी के पात्र :-
हीरामन- नायक
हीराबाई- नायिका
अन्य पात्र- पलटन दास, लालमोहर, धुन्निराम, मुनीम।
लाल पान की बेगम :
यह कहानी पहली बार इलाहाबाद से निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के 1957 ई. के जनवरी अंक प्रकाशित हुई थी।
1959 में प्रकाशित फणीश्वरनाथ रेणु के कथा संग्रह ‘ठुमरी’ में यह कहानी शामिल थी।
रेणु ने सर्वे-सेटलमेंट के माध्यम से किसानी जीवन के संघर्ष को दर्शाया है।
कहानी के पात्र :-
बिरजू की माँ- नायिका और एक सशक्त महिला। जो कि सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है।
बिरजू के पिता- बिरजू की माँ की बात मानने वाले।
बिरजू, चम्पिया, भाई और बहन।
मखनी बुआ- जिनका कोई नहीं है।
जंगी की पुतोहू- एक मुँहजोर नवविवाहित स्त्री जो बिरजू की माँ से नहीं डरती है।
सुनरी- गाँव की एक स्त्री।
अज्ञेय : गैंग्रीन
अज्ञेय
मूल नाम- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्याय
अज्ञेय मनोविश्लेषणवादी रचनाकार है।
कहानी संग्रह :-
'विपथगा' 1937, 'परंपरा' 1944, 'कोठरी की बात' 1945, 'शरणार्थी' 1948, 'जयदोल' 1951, 'अमरवल्लरी और अन्य कहानियाँ 1954, कड़ियाँ और अन्य कहानियाँ 1954 तथा 'ये तेरे प्रतिरूप' 1961 अज्ञेय ने कुल मिलाकर लगभग सड़सठ (67) कहानियाँ रची हैं।
अज्ञेय की संपूर्ण कहानियाँ खंड-1 (छोड़ा हुआ रास्ता-1975) तथा 'अज्ञेय की संपूर्ण कहानियाँ खंड-2 (लौटती पगडंडियाँ-1975)।
उनकी कहानियों को डॉ. देवराज उपाध्याय ने पाँच वर्गों में विभाजित किया है।
1. क्रांतिकारी जीवन से संबंधित
2. प्रेम संबंधी
3. मनोवैज्ञानिक
4. सामाजिक संदर्भ से जुड़ी कहानियाँ
5. सेक्स एवं रोमांस से संबंधित कहानियाँ
गैंग्रीन :
अज्ञेय के द्वारा 'गैंग्रीन' शीर्षक से यह कहानी 1934 में लिखी गई।
कहानी का संकलन 'विपथगा' कहानी संग्रह में।
यह कहानी पहले पहल 'गैंग्रीन' नाम से प्रकाशित हुई थी, लेकिन बाद में कहानी की मूल संवेदना को अधिक प्रखरता से उभारने के लिए लेखक ने इसे 'रोज' शीर्षक दिया।
स्थूल दृष्टि से देखने पर रोज़ कहानी एक औसत स्त्री की ज़िंदगी में रोज़-रोज़ घटने वाली नीरस और अनुत्पादक घटनाओं का ब्यौरा मात्र लगती है, लेकिन असल में यह स्त्री की नियति को आलोचनात्मक ढंग से देखने का आह्वान करती है।
डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में एकाकी काटना होता है। उसका दुर्बल, बीमार और चिड़चिड़ा पुत्र हमेशा सोता रहता है या रोता रहता है। मालती उसकी देखभाल करती हुई सुबह से रात ग्यारह बजे तक घर के कार्यों में अपने को व्यस्त रखती है। उसका जीवन ऊब और उदासी के बीच यंत्रवत चल रहा है। किसी तरह के मनोविनोद, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गए हैं। जैसे वह अपने जीवन का भार ढोने में ही घुल रही हो। प्रसंगवश मध्यवर्गीय भारतीय समाज में घरेलू स्त्री के जीवन और मनोदशा पर लेखक अपनी सहानुभूतिपूर्ण मानवीय दृष्टि केंद्रित करता है।
कहानी के केंद्र में मालती और उसकी छटपटाहट है।
रोज़ कहानी संस्मरण शैली में लिखी गई कहानी है।
कहानी अपने अंत में जड़ व्यवस्था के शिकंजे में फँसे मध्यवर्गीय समाज की त्रासदी बन जाती है।
आलोचक विजय मोहन सिंह के अनुसार—रोज़ अज्ञेय की सर्वाधिक चर्चित कहानी है क्योंकि इसमें संबंधों की वास्तविकता को एकांत वैयक्तिक अनुभूतियों से अलग ले जाकर सामाजिक संदर्भ में देखा गया है। मध्यवर्ग की पारिवारिक एकरसता को जितनी मार्मिकता से कहानी व्यक्त कर सकी है वह उस युग की कहानियों में विरल है।
कहानी के पात्र :-
मालती- गैंग्रीन/रोज़ कहानी की मुख्य पात्र। विवाहित स्त्री जो एक बच्चे की माँ और अपने यांत्रिक जीवन से त्रस्त है।
महेश्वर- मालती का पति जो एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेंसरी में डॉक्टर है।
टिटी- मालती और महेश्वर का बच्चा।
कथाकार- जो कि एक अतिथि है, मालती के बचपन का मित्र और रिश्ते का भाई है।
शेखर जोशी : कोसी का घटवार
शेखर जोशी
जन्म : सन् 1932, स्थान : अल्मोड़ा (उत्तरांचल)
कहानी संग्रह :- कोसी का घटवार, साथ के लोग, दाज्यू, हलवाहा, नौरंगी बीमार है
एक पेड़ की याद (शब्दचित्र-संग्रह)
शेखर जोशी की कहानियाँ नई कहानी आंदोलन के प्रगतिशील पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हैं। समाज का मेहनतकश और सुविधाहीन तबका उनकी कहानियों में जगह पाता है। निहायत सहज एवं आडंबरहीन भाषा-शैला में वे सामाजिक यथार्थ के बारीक़ नुक्तों को पकड़ते और प्रस्तुत करते हैं। उनके रचना-संसार से गुज़रते हुए समकालीन जनजीवन की बहुविध विडंबनाओं को महसूस किया जा सकता है। ऐसा करने में उनकी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि और यथार्थ बोध का बड़ा योगदान रहा है।
शेखर जोशी की कहानियाँ हमें संपूर्ण पहाड़ी-जीवन को दिखाती हैं, पहाड़ी-जीवन के आचार व्यवहार, रीति-रिवाज, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों, शहर से निकल के पहाड़ से जुड़ना या पहाड़ से निकलकर शहर की भीड़ में शामिल होना उनकी कहानियों में अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत होता है, जिसमें 'दाज्यू', 'कोसी का घटवार' 'बोझ', 'समर्पण' आदि प्रमुख हैं।
कारख़ाने के औद्योगिक जीवन पर हिंदी में गिने-चुने लेखकों ने लिखा है। शेखर जोशी उनमें से एक हैं। 'बदबू' 'मेंटल', 'उस्ताद' 'आशीर्वचन', 'नौरंगी बीमार हैं', 'डांगरी वाले' आदि औद्योगिक जीवन की विश्वसनीय कहानियाँ हैं।
कोसी का घटवार :
कहानी में फ़्लैशबैक (पूर्वदीप्ति) की तकनीक का प्रयोग किया गया है।
कोसी का घटवार प्रेम कहानी हैं लेकिन इसके अलावा और भी महत्त्वपूर्ण स्वर इसमें अनुस्यूत हैं। कहानी प्रेम के बहाने युद्ध और पहाड़ के ऐतिहासिक संबंध को स्पष्ट करती है। कहानी की भाषा में कोसी नदी की धार की तरह ही सहजता है। आडंबरहीन कथ्य और शिल्प से सजी यह कहानी अर्थ सम्प्रेषणीयता में प्रभावी है।
हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कल्पना‘ के जनवरी 1957 ई० के अंक में ‘कोसी का घटवार‘ प्रकाशित हुई।
कहानी के पात्र- इस कहानी में कुल बारह पात्र है।
किंतु मुख्य पात्र दो हैं– लक्ष्मा और गोसाईं।
भीष्म साहनी : अमृतसर आ गया है, चीफ़ की दावत
भीष्म साहनी
8 अगस्त 1915 को जन्म रावलपिंडी (पाकिस्तान) में हुआ।
कहानी संग्रह :- भाग्य रेखा (1953), पहला पाठ (1957), भटकती राख (1966), पटरियाँ (1973), वाङ्चू (1978), शोभायात्रा (1981), नशाचर (1983), पाली (1989), डायन (1998)।
भीष्म साहनी यथार्थवादी प्रगतिवादी कहानीकार हैं। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, भीष्म साहनी को अतिरंजना का विरोधी मानते हैं और दबी ज़बान में काम की बात कहने का कुशल पारखी भी।
जिनकी प्रमुख कहानियाँ 'अमृतसर आ गया', 'कटघरे', 'चीफ़ की दावत', 'दहलीज़' 'पटरियाँ', 'सिर का सदका', 'सफ़र' आदि है।
इनकी कहानियों में वर्गगत भेदभाव, आर्थिक जटिलताओं के साथ-साथ चरित्रों की कुंठित मनःस्थिति, अंतर्विरोध और जीवन के कटु अनुभवों की अभिव्यक्ति हुई है।
इनकी कहानियों का एक निश्चित उद्देश्य रहता है और वह है, मनुष्य का विषमता के विरोध में किए जा रहे संघर्ष का यथातथ्य वर्णन करना।
अमृतसर आ गया :
'अमृतसर आ गया’ कहानी भीष्म साहनी के कहानी संग्रह ‘पटरियाँ’(1973) में संग्रहित है।
कहानी के पात्र :-
कथानायक, सरदार, तीन पठान, एक दुबला बाबू, एक बुढ़िया जो माला जपती है। लटकती मुछों वाला नया ग़रीब मुसाफ़िर, उसकी पत्नी और उसकी बेटी। एक मुस्लिम ग़रीब मुसाफ़िर और उसकी पत्नी तथा अन्य मुसाफ़िर।
'अमृतसर आ गया है' कहानी स्वतंत्रता के समय के भयावह सच की मार्मिक अभिव्यक्ति है। यह विभाजन की विभीषिका के साथ साम्प्रदायिकता की तस्वीर उभारती है।
उस समय के व्यक्तियों की अपने तत्कालीन परिवेश, मानसिक सोच को सहज, सरल भाषा में छोटी-छोटी घटनाओं एवं दृश्यों के माध्यम से पाठक के मानस पटल पर अंकित कर देती है।
'अमृतसर आ गया है' कहानी का घटनाकाल सिर्फ़ एक रात में रेलगाड़ी के डिब्बे की यात्रा तक सीमित है। वर्तमान पाकिस्तान के किसी शहर से चली यह रेलगाड़ी अगले दिन सुबह दिल्ली पहुँचती है।
हिंदू-मुस्लिम सहयात्रियों का सहज यात्रा कर रहे अनौपचारिक व्यवहार दंगे की ख़बर से बदल जाता है। मुस्लिम बहुल क्षेत्र में मुस्लिम आक्रामक हो जाते हैं और हिंदू सहमे हुए हैं। दंगे के कारण डरे हुए हिंदू यात्री को बलात् डिब्बे से उतार दिया जाता है और कोई विरोध नहीं करता। किंतु हिंदू बहुल क्षेत्र में प्रवेश करते ही उलट हिंदू यात्री आक्रामक हो उठते हैं, हिंदू यात्री को उतारने का प्रतिशोध मुस्लिम यात्री को जान से मारकर लिया जाता है और अब मुस्लिम यात्री डरे सहमे हैं।
चीफ़ की दावत :
चीफ़ की दावत प्रेमचंद की कहानी बूढ़ी काकी से आगे की कहानी है।
कहानी के पात्र :-
शामनाथ- एक मध्यवर्गीय व्यक्ति जो पदौन्नति के लिए कुछ भी कर सकता है।
शामनाथ की पत्नी- जो कि शामनाथ का उसके हर कार्य में उसका साथ निभाती है।
शामनाथ की माँ- मध्यमवर्गीय मूल्यों में मिसफिट होने के कारण उसे दरकिनार किया जाता है।
चीफ़- शामनाथ का बॉस एक अमेरिकी।
भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ़ की दावत' का मुख्य उद्देश्य मध्यम वर्गीय व्यक्ति की अवसरवादिता, उसकी महत्वाकांक्षा में पारिवारिक रिश्ते के विघटन को उजागर करना है। मध्यवर्ग के व्यक्ति की यह सामान्य विशेषता है कि वह उच्च वर्ग में शामिल होने के अवसरों की तलाश में रहता है, चाहे वह स्वयं निम्नवर्ग से मध्यवर्ग में पहुँचा हो। औद्योगीकरण के विकास के साथ भारत में मध्यवर्ग का तेज़ी से विकास हुआ। शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी पाकर या आजीविका का अन्य साधन पाकर निम्नवर्ग का व्यक्ति मध्यवर्ग में पहुँचकर उच्चवर्ग की संस्तुति के लिए उच्चवर्ग के मुँह की ओर ताकने लगा।
मध्यवर्गीय अवसरवादिता और मानवीय मूल्यों के विघटन को यह कहानी मुखरता से पाठक के सामने रखती है।
कृष्णा सोबती : सिक्का बदल गया
कृष्णा सोबती
जन्म 18 फरवरी 1925 को गुजरात के उस हिस्से में हुआ था जो भारत विभाजन के पश्चात पाकिस्तान में चला गया।
तदुपरांत इन्होंने दिल्ली को अपनी कर्मस्थली बनाई और मृत्युपर्यन्त दिल्ली में ही रहीं। लगभग 93 वर्ष की अवस्था में 25 जनवरी, 2019 को इनका निधन हुआ।
साहित्यिक योगदान के लिए 2017 में इन्हें हिंदी साहित्य के सर्वोच्च सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।
स्त्री की आत्मसजगता, नौकरीपेशा स्त्री की समस्या और परंपरागत समाज में उसकी घुटन एवं उससे बाहर निकलने की छटपटाहट कृष्णा सोबती की कहानियों में प्रामाणिकता के साथ अभिव्यक्त हुई है। कृष्णा सोबती नई कहानी आंदोलन से जुड़ी हुई कहानीकार हैं।
इनके प्रमुख कहानी संग्रह निम्न हैं :-
बादलों के घेरे (1980)
डार से बिछड़ी (1958)
मित्रो मरजानी (1967)
यारों के यार (1968)
तीन पहाड़ (1968)
एक लड़की (1991)
जैनी मेहरबान सिंह (प्रकाशन वर्ष-2007)
सिक्का बदल गया :
इसका प्रकाशन ‘प्रतीक’ में 1948 में हुआ था। अज्ञेय इस पत्रिका के संपादक थे।
कहानी में एक विधवा नारी की पराधीनता का मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है।
कृष्णा सोबती ने 'सिक्का बदल गया' कहानी में मनुष्य की विवशता का अत्यंत करुण चित्र खींचा है। बदलाव की आँधी में मानवीय मूल्य बदलते अवश्य हैं पर वे यकायक इतना नहीं बदल जाते कि उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाए। लेकिन देश विभाजन यहाँ की जनता के लिए एक ऐसी त्रासदी थी जिसे सामान्य बदलाव की संज्ञा नहीं दी जा सकती। विभाजन के बाद जो परिस्थितियाँ बनीं उसमें एक आदमी दूसरे आदमी को पहचानने के लिए तैयार नहीं था। सदियों से एक साथ रहते आए लोग अचानक एक-दूसरे के दुश्मन हो गए।
कहानी के पात्र :-
शाहनी- कहानी की मुख्य पात्र है, जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। दयावान, परोपकारी और नेकदिल है जो लोगों की मदद करती रहती है।
शाहजी- शाहनी के पति हैं जो दिवंगत हो चुके हैं।
शेरा- शाहनी का ख़ास कारिंदा है। जो अपनी माँ जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ।
हसैना- शेरे की पत्नी
दाऊद ख़ाँ- थानेदार है। शाहनी ने इसकी मंगेतर को मुँह दिखाई में सोने के कनफूल दिए थे।
बेगू पटवारी, इस्माइल मसीत के मुल्ला, जैलदार, रसूली, नवाब आदि अन्य पात्र हैं।
हरिशंकर परसाई : इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर
हरिशंकर परसाई
जन्म 22 अगस्त 1922 जमानी, हौशंगाबाद, मध्यप्रदेश में हुआ था।
कहानी संग्रह :- हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोला राम का जीव।
इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर
यह एक फैंटसी शैली में लिखी गई रचना है।
कहानी के पात्र :-
मातादीन- कहानी का मुख्य पात्र, यह सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर है जो पुलिस विभाग का प्रतिनिधित्व करता है।
पुलिस मंत्री- पुलिस विभाग का नाम हो ऐसा कुछ करने के लिए मातादीन को सलाह देता है।
यान चालाक- माता दिन को जो चाँद से लेने आया था।
कोतवाल और इंस्पेक्टर- ये चाँद के पुलिस और सिपाही है।
ज्ञानरंजन : पिता
ज्ञानरंजन
जन्म : 21 नवंबर 1931, अकोला, महाराष्ट्र
कहानी संग्रह :- फेंस के इधर और उधर, यात्रा, क्षणजीवी, सपना नहीं, प्रतिनिधि कहानियाँ
अन्य : कबाड़ख़ाना
संपादन : पहल (पत्रिका)
चर्चित कहानियाँ :- 'फेंस के इधर और उधर', 'पिता', 'शेष होते हुए', 'संबंध', 'यात्रा', 'घंटा' और 'बहिर्गमन' आदि।
ज्ञानरंजन साठोत्तरी कहानी के बहुचर्चित हस्ताक्षर हैं।
उन्होंने तत्कालीन सामाजिक अनुभव के उस आयाम को रूपायित किया है जो आज़ादी के बाद की व्यापक स्वप्नशीलता के सामने प्रश्नचिह्न लगाता हुआ एक सामान्य असंतुष्टि और कटुता को भर रहा था।
मध्यवर्गीय पात्रों के आत्मछल और सम्मोहन को अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाते हुए अपनी बाद की कहानियों में ज्ञानरंजन ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि मध्यवर्गीय व्यक्ति को अपनी सामाजिक भूमिका में पूरी तरह सार्थक और प्रभावी होना है तो उसे व्यक्तिवादी मौक़ापरस्ती को पूर्णतया छोड़कर व्यापक संघर्ष की दिशा अपनानी होगी।
विडंबनाओं पर से पर्दा हटाना और सजीव वातावरण का निर्माण शायद ज्ञानरंजन की लेखनी के सर्वोत्कृष्ट गुण हैं।
ज्ञानरंजन मध्यवर्गीय ज़िंदगी की कुरूपता, वीभत्सता और अश्लीलता में गहरे धँसे हैं। उन्होंने उसकी कोई भी दरार अनदेखी नहीं छोड़ी और यह सब करते हुए भी रचनाकार के रूप में जिस तरह अपनी तटस्थता बनाए रखने में वे कामयाब हुए हैं, वह उनकी ख़ास उपलब्धि है।
ज्ञानरंजन की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है समकालीन यथार्थ पर उनकी मजबूत पकड़, अनुभवों की समग्रता एवं सहज मानवीय संवेदना।
ज्ञानरंजन संबंधों और संघर्षो दोनों प्रकार की कहानियों में अनूठे हैं। उनकी कहानियाँ घर, परिवार, पिता, भाई-बहन अर्थात् पारिवारिक संबंधों के बीच घटित होती हैं।
कलह, फेंस के इधर और उधर शेष होते हुए, संबंध, पिता, यात्रा, मनहूस बंगला और क्षणजीवी कहानियाँ इसी जीवन सत्य का उद्घाटन करती हैं।
पिता :
'पिता' कहानी में पीढ़ियों का संघर्ष व्यक्त हुआ है। पिता के प्रति असंतोष और सहानुभूति की मिली-जुली प्रतिक्रिया ही कहानी का मूल कथ्य है। पिता कष्टों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं और इसीलिए सहज प्राप्त शहरी सुविधाओं की दृढ़ता पूर्वक उपेक्षा करते हैं।
'पिता' कहानी दृश्य के रूप में प्रस्तुत है लेकिन वह दृश्य ही इस स्थिति का बोध कराने को बाध्य करता है। पिता एक भीमकाय दरवाज़े की तरह हैं जिनसे टकराकर नयी पीढ़ी अपनी स्थिति को दयनीय महसूस करती है।
यहाँ इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अभी लोग पूरी तरह टूटे-बिखरे नहीं हैं। नई पीढ़ी संक्रमण की स्थिति से गुज़र रही है लेकिन उसे अभी तक मूल्य-बोध का कोई स्थायी रूप प्राप्त नहीं हो सका है। नई जीवन-पद्धति के अनुरूप मूल्य-आचरण करने और उपलब्ध सुख-सुविधाओं का उपभोग करने के लिए मनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद पिता का एक बुलंद भीमकाय दरवाज़े की तरह खड़े होकर सबको निहायत पिद्दी और दयनीय बनाते रहना बेटों के मन में उनके प्रति ऐसी उदासीनता पैदा करता है या एक प्रतिष्ठा की ज़िद भर देता है कि वे उनके अस्तित्व को ही नकारने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं।
पुरानी पीढ़ी की उपस्थिति को पूरी तरह से नकार न पाने की यह स्थिति युवा पीढ़ी के लिए एक चुनौती है। जिसका मुक़ाबला करने की शक्ति अभी उसमें नहीं आ सकी हैं।
यही शक्तिहीनता उसकी स्थिति को व्यंग्यात्मक और दुर्भाग्यपूर्ण बना देती है और वह पुरानी पीढ़ी के पूरी तरह चुक जाने की प्रतीक्षा करते-करते स्वयं असमय वृद्ध हो जाने के लिए विवश हो जाती है।
इतिहास की शक्तियों के सामने पराजित हो जाने और उनके प्रवाह में असहाय होकर बहते जाने की प्रक्रिया आज की सबसे दारुण त्रासदी है। यह बदलती हुई मानसिकता और उस मानसिकता के साथ-साथ चल पाने में असमर्थ पिता की कहानी है।
इसमें पुरानी पीढ़ी का अपने समकालीन परिवेश से कटते चले जाने का दर्द बहुत शिद्धत के साथ उभर कर सामने आता है।
कहानी के पात्र :-
पिता- मुख्य पात्र जो कि पुरानी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते है। स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर पात्र।
पुत्र- यह भी एक महत्वपूर्ण पात्र है। जो कि आधुनिक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है।
कमलेश्वर : राजा निरबंसिया
कमलेश्वर
सन् 1948 में प्रकाशित उनकी पहली कहानी 'कामरेड' थी।
चर्चित कहानियाँ :-
राजा निरबंसिया, खोई हुई दिशाएँ, गर्मियों के दिन, बयान मांस का दरिया, नीली झील, बदनाम बस्ती, साँप, लाश, जोख़िम राते, दिल्ली में एक मौत, इतने अच्छे दिन आदि।
राजा निरबंसिया :
कहानी का प्रकाशन- 1957 ई.
कहानी के पात्र :-
जगपति- चंदा का पति
चन्दा- जगपति की पत्नी
दयाराम- जगपती का रिश्तेदार (दूर के रिश्तेदार का भाई)
बचन सिंह- गाँव के अस्पताल का कंपाउंडर।
राजा निरबंसिया और उसकी रानी।
भटियारिन- राजा निरबंसिया की रानी ही भटियारिन बनकर राजा निरबंसिया से मिलने जाती है।
राजा निरबसिया कहानी में दाम्पत्य जीवन के बेहद कोमल और मधुर क्षणों को आर्थिक विपन्नता किस तरह लील जाती है इसे देखा जा सकता है।
ऊपर से बेहद सुंदर और स्वाभाविक लगनेवाली यह दुनिया अंदर से कितनी खोखली है इसे रूपक के तौर पर प्रस्तुत कर, कहानी और आख्यान तत्त्व के सम्मिश्रण से, कमलेश्वर ने एक नई ज़मीन तैयार की थी।
कहानी के शिल्प के संबंध में नामवर सिंह लिखते हैं—कहानी में लोककथा का यह उपयोग शिल्प-संबंधी नवीनता कही जा सकती है लेकिन यह कोरा शिल्प नहीं है, न इससे कहानी के कहानीपन में बाधा पड़ती है...।
मुख्य कथा की गति में जैसे ही संवेदना की तीव्रता आती है, वह सहधर्मी लोककथा से छू जाती है और हम देखते हैं कि लोककथा का टूटा हुआ सूत्र अनजाने ही हाथ में आ गया है। इस तरह दो युगों के युग-बोध को दर्शाती हुई यह कहानी एक महत्वपूर्ण कहानी के रूप में उभरकर सामने आती है।
कहानी लोककथा के साथ-साथ एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार के जीवन को लेकर चलती है। अतीत और वर्तमान दो युगों की कहानी है। लोककथा में राजा निरबंसिया की कथा चलती है, साथ ही चलती है जगपती और चंदा के जीवन की कहानी। इनके माध्यम से कहानी में समाज में स्त्री की छवि और उसके प्रति पुरुष एवं समाज के दृष्टिकोण को दर्शाया गया है। साथ की कर्ज की विकराल समस्या को दर्शाया गया है।
कहानी में जगपती का परिवार कर्ज़ के चलते तबाह हो जाता है। कहानी निसंतान स्त्री की व्यथा को बड़े ही मार्मिक ढंग से उकेरा गया है। इस तरह कहानी दो युगों की वास्तविकता पर प्रकाश डालती है। राजा के लिए निःसंतान होना बड़ी समस्या थी, लेकिन जगपती और चन्दा के लिए बड़ी समस्या आर्थिक अभाव है।
निर्मल वर्मा : परिंदे
जन्म: 3 अप्रैल 1929, शिमला (हिमाचल प्रदेश)
कहानी संग्रह :- परिंदे (1958), जलती झाड़ी (1965) पिछली गर्मियों में (1968), बीच बहस में (1973), कौवे और काला पानी (1983), सूखा तथा अन्य कहानियाँ (1995)
परिंदे :
परिंदे को नामवर सिंह 'नई कहानी' आंदोलन की पहली रचना मानते हैं जो कहानी कला के प्रचलित ढाँचे को तोड़कर अपना नया विधान ख़ुद रचती है। उनके अनुसार यह कहानी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ लेखक ने शब्द की अभेघ दीवार को लाँघकर शब्द के पहले के मौन जगत् में प्रवेश करने का प्रयत्न किया है और वहाँ जाकर प्रत्यक्ष इंद्रिय-बोध के द्वारा वस्तुओं के मूल रूप को पकड़ने का साहस दिखलाया है। इसीलिए उनकी कहानी कला में नवीनता है, भाषा में नव-जातक की सी सहजता और ताज़गी है, वस्तुओं के चित्रों में पहले-पहल देखे जाने का परिचित टटकापन है। (नामवरसिंह, 'कहानी नई कहानी)।
निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी में कुमाऊँ के कान्वेंट स्कूल में एक शिक्षिका लतिका जो कि होस्टल की वार्डन भी है, उसके जीवन की आंतरिक पीड़ा का मार्मिक चित्रण किया गया है। संपूर्ण कहानी में उसके जीवन की निराशा, उदासी और अकेलेपन का चित्रण मिलता है। भले ही वह स्कूल और होस्टल में लड़कियों के बीच रहती है, लेकिन उसके जीवन की पीड़ा कम नहीं है। सर्दियों की छुट्टियों में सभी लड़कियों के होस्टल छोड़कर घर जाने पर तो वह और भी अकेली पड़ जाती है। वह छुट्टियों में भी कहीं भी नहीं जाती और यहीं अकेली रहती है। उसे हमेशा अकेलापन सताने लगता है। उसके साथी शिक्षक भी उसके अकेलेपन को दूर करने की भरकस कोशिश करते है, किंतु वह अपने जीवन के संत्रास से मुक्त नहीं हो पाती है। वह अपने गुज़रे जीवन के सुखद पलों को याद करके और भी अधिक व्यथित हो जाती है। व्यथा ही उसके जीवन की कथा बन जाती है। वह अपने वर्तमान को अतीत से बाहर नहीं निकल पाती है और किसी के लौटने की प्रतीक्षा में उदासी भरे दिन काटने लगती है। प्रेम की अप्राप्ति से वह हीनता, कुंठा एवं संत्रास जैसी ग्रंथियों की शिकार हो जाती है। जिस तरह लतिका अपने जीवन की रिक्तता से अभिशप्त रहती है, उसी तरह कहानी के अन्य पात्र भी अकेलेपन की समस्या से जूझते दिखाई देते हैं। इस तरह कहानी आधुनिक भावबोध की सटीक अभिव्यक्ति करती है।
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