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सरदार पूर्णसिंह और उनकी विचार धारा

sardar purnsinh aur unki vichar dhara

कन्हैयालाल सहल

कन्हैयालाल सहल

सरदार पूर्णसिंह और उनकी विचार धारा

कन्हैयालाल सहल

और अधिककन्हैयालाल सहल

    फ्रांस के एक प्रसिद्ध आलोचक का कथन है कि यदि किसी कलाकार की कृतियों के रहस्य को हृदयंगम करना हो तो उसके जीवन की सभी घटनाओं का भली-भाँति अध्ययन करना चाहिए। सरदार पूर्णसिंह ने चार पाँच निबंध लिखकर ही हिंदी के निबंध-साहित्य में जो शीर्ष स्थान प्राप्त किया है, आख़िर उसका रहस्य क्या है? ‘सिसटर्स आफ़ दी स्पिनिंग व्हील’ नामक पुस्तक की भूमिका में अर्नेस्ट एंड प्रेस रिज ने स्वयं पूर्णसिंह के लिखे हुए संक्षिप्त आत्म-चरित को उदधृत किया है जिसका कुछ अंश यहाँ दिया जा रहा है—“सन् 1600 में, मैं जापान चल दिया और तीन वर्ष तक टोकियो की इम्पीरियल यूनिवर्सिटी में मैंने व्यावहारिक रसायन का अध्ययन किया और जापान के औद्योगिक जीवन की बहुत सी बातों का ज्ञान प्राप्त किया। वहाँ मैं अनेक प्रसिद्ध जापानियों के संपर्क में आया और उनके द्वारा मैंने पुष्पों से, प्रकृति से और बुद्ध भगवान से प्रेम करना सीखा। वहाँ मैं कवियों से, कलाविदों से, चुपचाप शांत रहने वाले पुरुषों से तथा आनंद में विभोर रहने वाले व्यक्तियों से मिलता और सदा हृदय की गुप्त विभूतियों की खोज में रहता। जापान-प्रवास के अंतिम दिनों में मुझे वहाँ आत्म-स्वतंत्रता का एक नवीन आनंद प्राप्त हुआ। मेरी सब चीजें छूट गई और मैं भिक्षु हो गया। मेरी आँखों में आनंदाश्रु बहने लगे। मुझे ऐसा मालूम पड़ने लगा, जैसे मैं सबको प्यार करता हूँ और सब मुझको प्यार करते हैं। यदि जापान सुंदर था, तो मेरे चारों ओर के लोग इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण मुझमें देखने लगे। एक फ़ारसी कवि का कथन है—’क्या तुम चमन में गुलाब देखने के लिए जाते हो? कैसे अफ़सोस की बात है? अपने हृदय का द्वार खोल दो और उसमें प्रवेश करके देखो, वहाँ कैसे अग्नि की लपटों के समान गुलाब खिल रहे हैं। मेरी भी कुछ ऐसी ही दशा थी। आनंदातिरेक से मैं अपने आपे से बाहर था। मुझे अपने सामने, पीछे, ऊपर, नीचे, सब ओर बुद्ध ही बुद्ध दिखाई देते थे। इसी समय जापान से एक भारतीय संत से, जो भारतवर्ष से आया था, मेरी भेंट हो गई। उन्होंने मुझे एक ईश्वरीयज्योति से स्पर्श किया और मैं संन्यासी हो गया।”

    ऊपर के उद्धरण से स्पष्ट है कि आध्यात्मिकता सरदार पूर्णसिंह के जीवन का अभिन्न अंग थी, वे आध्यात्मिक वातावरण में साँस लेते थे। उनके निबंधो में स्थान-स्थान पर जो आध्यात्मिक उन्मेष दिखलाई पड़ता है, उसका भी रहस्य यही है। सरदार जी ने जो निबंध हिंदी साहित्य को भेंट किए हैं, उनमें उनके वैयक्तिक जीवन की झलक स्पष्ट है। स्व प. पद्मसिंह शर्मा ने लिखा है कि पूर्णसिंह बड़े सहृदय, भावुक और उदार प्रकृति के पुरुष थे। स्वामी रामतीर्थ की तरह वेदांत की मस्ती उन पर सदा छाई रहती थी। वेदांत-विषय की चर्चा करते हुए उनकी वाणी में अपूर्व ओज और प्रवाह जाता था, तल्लीनता की दशा में झूमने लगते थे। एक बार ज्वालापुर महाविद्यालय में आए हुए थे। उनसे जब व्याख्यान सुनाने के लिए कहा गया तो कुछ इधर-उधर की बातों के बाद वेदांत का प्रसंग छिड़ गया। कोई एक घंटे तक आवेश की-सी दशा में बड़े ही हृदयग्राही और प्रभावोत्पादक प्रकार से मस्ती में झूम-झूम कर वर्णन करते रहे। बातों का सिलसिला ख़त्म करके बोले—‘लो व्याख्यान हो गया। ऐसे व्याख्यान भीड़ में नहीं हुआ करते, यह तो एकांत मे कहने-सुनने की बातें है। स्वर्गीय पं. भीमसेन शर्मा ने इच्छा प्रकट की कि वह व्याख्यान लिखवा दिया जाय ताकि ‘भारतोदय’ में प्रकाशित हो जाए। पूर्णसिंह ने कहा—‘अब किसे याद है, जाने जोश में क्या-क्या कह गया हूँ।’ उन दिनों पूर्णसिंह पर रामतीर्थ के वेदांत की मस्ती का बड़ा गहरा रंग चढ़ा हुआ था। उस रंग मे वे बड़े शराबोर थे। उनके आचार-विचार और व्यवहार में वही रंग झलकता था।

    सरदार पूर्ण सिंह का उक्त व्याख्यान यदि किसी प्रकार लिपिबद्ध कर लिया गया होता तो उससे हिंदी साहित्य की भी वृद्धि होती क्योंकि साधनाजन्य ऐसे ही आवेश के क्षणों में चिरंतन साहित्य की सृष्टि होती है। साहित्य में मुख्यत कलाकार की अनुभूति ही अभिव्यक्त होती है। उसके अंतर्जगत में जो कुछ है, उसे यह बहिर्जगत को दे देना चाहता है। सरदार पूर्णसिंह ने अपने निबंधों द्वारा अपनी अंतरात्मा की ही अभिव्यक्ति की है। ‘मज़दूरी और प्रेम’ से कुछ उद्धरण लीजिए—

    (1) “मेरी प्रिया अपने हाथ से चुनी हुई लकड़ियों को अपने दिल से चुराई हुई एक चिनगारी से लाल में बदल देती है। जब वह आटे को चलनी से छानती है तब मुझे उसकी चलनी के नीचे एक अद्भुत ज्योति की लौ नज़र आती है।”

    (2) “प्रकृति की मंद-मंद हँसी में ये अनपढ़ लोग ईश्वर के हँसते हुए ओंठ देख रहे हैं। पशुओं के अज्ञान में गंभीर ज्ञान दिया हुआ है। इन लोगों के जीवन में अद्भुत आत्मानुभव भरा हुआ है।”

    ऊपर के दोनों उद्धरणों में अध्यात्मिकता की झलक स्पष्ट है। इतना ही नहीं, सरदार जी की तर्क-शैली भी स्थान-स्थान पर आध्यात्मिकता के आधार पर अग्रसर होती हुई दिखलाई पड़ती है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित अंश को लीजिए—

    “मनुष्य की विविध कामनाएँ उसके जीवन को मानो उसके स्वार्थ रूपी धुरे पर चक्कर देती है। परंतु उसका जीवन अपना तो है ही नहीं, वह तो किसी आध्यात्मिक सूर्य मंडल के साथ की चाल है और अंतत: यह चाल जीवन का परमार्थ रूप है।”

    यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि सरदार पूर्णसिंह इस बात को मानकर अपने पक्ष की स्थापना कर रहे हैं कि ‘मनुष्य का जीवन उसका अपना जीवन तो है ही नहीं, मनुष्य तो किसी दिव्य ज्योति की अभिन्न किरण है—सूर्य से उसकी किरण अलग होते हुए भी अलग कहाँ है?

    रहस्यवाद की चर्चा करते हुए आलोचकों ने रहस्यवादी कवियों पर ही अपने विचार प्रकट किए हैं पर कोई कारण नहीं कि रहस्यवाद का क्षेत्र केवल काव्य तक ही सीमित रहे। सरदार पूर्णसिंह ने अपने निबंध यद्यपि गद्य में लिखे हैं, तो भी उनके निबंधों में जो रहस्यवादी वातावरण है तथा उनके जीवन में जो आध्यात्मिक भावोन्मेष था, उसको देखते हुए यदि हम उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रसिद्ध रहस्यवादी लेखक कहें तो इसमें कोई अत्युक्ति होगी। और फिर एक बात यह भी है, सरदारजी ने जो गद्यात्मक लेख लिखे हैं, वे आख़िर किस काव्य से कम हैं? उनके पढ़ने में सहृदय पाठकों को काव्य का-सा आनंद प्राप्त होता है। सरदारजी की वाणी में कार्लाइल का-सा आवेश और प्रवाह है; ईसा मसीह, गांधी, रस्किन एवं टाल्स्टाय की सी पवित्रता है।

    सरदार पूर्णसिंह के निबंधों की रहस्यात्मकता की ओर हिंदी के आलोचकों का ध्यान आकृष्ट होना चाहिए। आधुनिक रहस्यवादी कवियों के संबंध मे बहुधा यह सुना जाता है कि उनके काव्य में केवल काव्योचित आराधना है, उनके जीवन में आध्यात्मिक साधना नहीं किंतु जहाँ तक मैं समझता हूँ, इस तरह की बात सरदार पूर्णसिंह के संबंध में नहीं कही जा सकती।

    अंत मे एक महत्वपूर्ण तथ्य का निर्देश कर देना भी यहाँ आवश्यक है। यद्यपि सरदार पूर्णसिंह की ख्याति निबंध लेखक के रूप में ही है किंतु सरदारजी कविता भी किया करते थे जैसा कि जायसवालजी के ‘सिख कवि पूर्णसिंह’ लेख की निम्नलिखित पंक्तियों से जान पड़ता है—

    “जब वे ईश्वर को संबोधन करके लिखी हुई अपनी कविता को पढ़ते थे, उनके गालों पर आँसुओं की बूँदें ढुलकने लगतीं, उनका चेहरा उत्तरोत्तर उज्ज्वल होता आता और उनकी दशा बिलकुल आत्मज्ञान में विभोर चेतनाहीन व्यक्ति की-सी हो जाती थी। उस समय सुनने वालों को ऐसा मालूम होता था, मानों पूर्णसिंह उनके हृदय में प्रवेश कर रहे हों। वे कुछ देर के लिये माया-मोह पूर्ण संसार को भुला देते थे।”

    केवल कविता पढ़ते समय ही नहीं, अन्य आवेश के क्षणों में भी सरदार पूर्णसिद्ध ‘हाल’ की अवस्था में पहुँच जाते थे। “सन् 1606 की बात है, एक दिन आचार्य द्विवेदी जी तथा पद्मसिंहजी प्रो. पूर्णसिंह जी से मिलने के लिए देहरादून पहुँचे। बंगले के पास पहुँच कर 50 क़दम की दूरी से उन्होंने देखा कि प्रो. साहब बंगले की ओर धीर गति से रहे हैं। वे अभी कुछ फासले पर थे। पूर्णसिंह जी अपने बंगले के दरवाज़े पर पहुँच चुके थे। इतने ही में उनके बंगले से एक काषायवेषधारी साधु आता दिखाई दिया। साधु जल्दी-जल्दी कुछ बड़बड़ाता हुआ रहा था, बंगले के दरवाज़े पर प्रोफ़ेसर साहब और साधु का सामना हो गया। प्रोफ़ेसर साहब साधु से कुछ सुनकर आवेश की-सी दशा में गए। साधु को बंगले की ओर लौटने के लिए आग्रह करने लगे। साधु क्रोध में था, लौटना चाहता था और पूर्णसिंह उससे लिपट रहे थे और मना रहे थे। द्विवेदी जी तथा पद्मसिंह जी यह तमाशा देखने के लिए जल्दी-जल्दी बंगले की ओर बढ़े। अब पास पहुँचे तो पूर्णसिंह होश में थे, ज़मीन पर लोट रहे थे, कोट के बटन तोड़ दिए थे, साफा सिर से दूर पड़ा था। यह विचित्र दशा देखकर दोनों साहित्यिक घबराए, कुछ देर समझ में आया। साधु भी कुछ चकित सा क्रोध-मुद्रा में पास ही खड़ा था। पद्मसिंह जी ने पूर्णसिंह को उठाने और होश में लाने की चेष्टा की। कुछ देर तक वह उसी दशा में पड़े रहे। पद्मसिंहजी ने उन्हें झझोड़ कर कहा—‘उठिए, आपसे मिलने द्विवेदी भी आए हैं।’ अब उन्हें कुछ होश आया तो एकदम घबरा कर उठ बैठे और हाथ मिला कर बोले—‘आप कब आए? क्षमा कीजिए, मुझे मालूम था कि आप रहे हैं, मैं इस समय आपे में था, आत्म-विस्मृति की दशा में पहुँच गया था।”

    बहुत वर्षों पहले सरदार पूर्णसिंह ने लिखा था—‘समस्त धन घरों से निकल कर एक ही दो स्थानों में एकत्र हो गया। साधारण लोग मर रहे हैं, मज़दूरों के हाथ-पाँव फट रहे हैं, लहू चल रहा है। सर्दी से ठिठुर रहे हैं। एक तरफ़ दरिद्रता का अखंड राज्य है; दूसरी तरफ़ अमीरी का चरम दृश्य। आज श्री विनोबा भावे भी कह रहे हैं ‘हिंदुस्तान में जो ग़रीबी का मसला है, वह सिर्फ़ पैदाइश बढ़ने से हल नहीं होगा, पैदाइश किस ढंग से की जाती है, उस पर सब कुछ निर्भर है। मतलब यह है कि अभी समाज में जैसे दो टुकड़े पड़ गए, वैसे टुकड़े अगर क़ायम रहे तो चाहे कुछ पैदाइश बढ़ भी जाए तो भी हमारा मसला हल नहीं होगा, दुखियों के दु:ख दूर नहीं होंगे। दोंनो वर्गों को खाना चाहिए, लेकिन खाने के लिए काम करने का बोझ नीचे की श्रेणी के लोगों पर पड़ रहा है। दोनों का जीवन क्षीण हो रहा है; एक को खाना नहीं मिलता, दूसरे को भूख नहीं लगती। इस तरह से दोनों निकम्मे होते जा रहे हैं। लेकिन भगवान की योजना में ऐसा नहीं था। उसने हर एक को हाथ पाँव दिए, हर एक को दिमाग़ दिया। अगर उसकी यह मंशा होती कि कुछ लोग काम ही करें और कुछ सिर्फ़ दिमाग़ से सोचे, तब तो वह चंद लोगों को सिर देता और चंद लोगों को धड़ देता जैसे राहु और केतु। लेकिन वैसा उसने नहीं किया। उसने हर एक को दिमाग़ दिया और हर एक को हाथ-पाँव दिए हर एक को पेट दिया और हर और एक को भूख दो। मतलब इसका यह कि हर एक को दिमाग़ का भी काम मिलना चाहिए और शरीर के लिए कसरत भी मिलनी चाहिए। हर एक को पैदाइश का काम करना चाहिए। भेद तभी मिटेगा जब कि प्रोफ़ेसर और विद्यार्थी, न्यायाधीश और वकील, व्यापारी और पढ़े-लिखे लोग सब अपने हाथों से कुछ कुछ काम करेंगे, अपने घर में चक्की पीसेंगे, चरखा कातेंगे, कुछ पैदाइश करेंगे। जो कारीगर थे उनको हमने नीच माना, जो मज़दूर थे उनको नीच माना, जो किसान थे उनको नीच माना और जो काम नहीं करते हैं, मेहनत नहीं करते हैं, उन्हें ऊँचा माना। इसी कारण हिंदुस्तान नीचे गिर गया। काम करना भगवान की पूजा करना है, काम करना देश की सेवा करना है। बिना काम किए खाना पाप है। गीता में भगवान ने बताया है कि जो शरीर श्रम नहीं करता और सिर्फ़ खाता है वह चोरी का अन्न खाता है। जो उत्तम से उत्तम लोग हो गए हैं, जिन्होंने क्रांति की है ये हाथों से काम करते थे। मोहम्मद पैगंबर हाथों से काम करते थे। हमारे जितने संत हो गए, वे कुछ कुछ हाथों से करते थे। महात्मा गांधी अंत तक सूत कातते रहे और जिस दिन वे क़त्ल हुए उस दिन भी कातकर वे भगवान की प्रार्थना में गए थे। जब हाथ से काम होने लगेगा तो देखोगे कि चंद दिनों में हिंदुस्तान एक उन्नत देश बनेगा, सिर्फ़ पैदाइश बढ़ेगी इतना ही नहीं बल्कि श्रम की इज़्ज़त होगी और काम करने वाले लोग जो आज गिर गए हैं और नीच समझे जाते हैं, वे ऊपर उठेंगे। जब कबीर जुलाहा बुनता था, तब जुलाहे की जो इज़्ज़त थी, वह आज कहाँ है? जब रैदास चमार का काम करता था, तब चमार की जो इज़्ज़त थी वह आज कहाँ है? जब नामदेव दर्ज़ी का काम करता था, तब दर्ज़ी की जो इज़्ज़त थी वह आज कहाँ है? जब कृष्ण भगवान मज़दूर बनकर किसानों में काम करते थे और ग्वाल बनकर गायों की सेवा करते थे तब किसानों की और गाय की सेवा करने वालों की जो इज़्ज़त थी, वह आज कहाँ है?”

    सरदार पूर्णसिंह भी इसी स्वर में स्वर मिला रहे हैं—“जब तक जीवन के अरण्य में पादरी, मौलवी, पंडित और साधु-संन्यासी हल, कुदाल और खुरपा लेकर मज़दूरी करेंगे तब तक उनका आलस्य जाने का नहीं, तब तक उनका मन और उनकी बुद्धि अनंत काल बीत जाने तक मानसिक जुआ खेलती ही रहेगी। उनका चिंतन बासी, उनका ध्यान बासी, उनकी पुस्तकें बासी, उनके खेल बासी, उनका विश्वास बासी और उनका ख़ुदा भी बासी हो गया।

    “मज़दूरी करना जीवन-यात्रा का आध्यात्मिक नियम है। जोन आव् आर्क की फ़क़ीरी और भेड़ें चराना, टालस्टाय का त्याग और जूते गाँठना, उमर खैयाम का प्रसन्नतापूर्वक तंबू सीते फिरना, ख़लीफ़ा उमर का अपने रंग महलों में बटाई आदि बुनना, ब्रह्मज्ञानी कबीर और रैदास का शूद्र होना, गुरु नानक और भगवान श्रीकृष्ण का मूक पशुओं को लाठी लेकर हाँकना—सच्ची फ़क़ीरी का अनमोल भूषण है।”

    उक्त दोनों विचारकों के उद्धरण पढ़ लेने पर हाथ के काम का जो मनोविज्ञान है उस पर विचार कर लेना आवश्यक जान पड़ता है। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि जब ऊँचे कहे जाने वाले हाथ भी काम करने लगेंगे तब श्रम का महत्व बढ़ेगा। कोई भी काम नीचा नहीं समझा जाएगा, केवल काम ही उच्च माना जाएगा। दूसरी बात यह भी है कि बड़े-बड़े लोग जब हाथ का काम करने लगेंगे तो नीचे समझे जाने वाले लोगों के प्रति उनके मन में सहानुभूति के भाव भी जागृत होंगे। उच्च और निम्न श्रेणियों के बीच में जो खाई है, किसी अंश तक वह भी पटेगी। इसके अतिरिक्त श्री विनोबा भावे यह भी मानते हैं कि केवल मस्तिष्क से काम करने वाले सही चिंतन नहीं कर सकते। उन्हीं के शब्दों में ‘हर एक मनुष्य कुछ कुछ मज़दूरी करने लगे, तो दिमाग़ भी साफ़ रहेगा। यह बात मैं अपने तज़ुर्बे से कहता हूँ। मैंने घंटों हाथों से काम किया है, लेकिन उससे मेरा दिमाग़ हमेशा ताज़ा रहा है। सोचने की ताक़त कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी है। और मैं मानता हूँ कि मैंने हाथों से जो काम किया है वह अगर मैं नहीं करता तो सोचने का ढंग मुझे अच्छा नहीं सूझता और मैं वैसे साफ़ विचार नहीं कर पाता जैसे आज करता हूँ। न्यायाधीश अगर रोज़ घंटा कुछ कुछ पैदाइश का काम करेगा, कुदाली चलाएगा, लकड़ी चीरेगा, चक्की पीसेगा या सूत कातेगा और बाक़ी के समय में फैसला देगा तो वह फैसला सही निकलेगा। उसमें उसका दिमाग़ अच्छा चलेगा। इस तरह से अगर हम करते हैं तो हमारा दिमाग़ कभी थकता नहीं है। उसको जो विश्रान्ति मिलनी चाहिए, यह काम करने में मिलती है। यह अनुभव की बात है।” सरदार पूर्णसिंह का भी कहना है कि ‘बिना कास, बिना मज़दूरी, बिना हाथ के कला-कौशल के विचार और चिंतन किस काम के। सभी देशों के इतिहासों से सिद्ध है कि निकम्मे पादरियों, मौलवियों, पंडितों और साधुओं का दान के अन्न पर पला हुआ ईश्वर चिंतन, अंत में पाप, आलस्य और भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो जाता है। जिन देशों में हाथ और मुँह पर मज़दूरी की धूल नहीं पड़ने पाती, वे धर्म और कला-कौशल में कभी उन्नति नहीं कर सकते। निकम्मे रह कर मनुष्यों की चिंतन शक्ति थक गई है। बिस्तरों और आसनों पर सोते और बैठे मन के घोड़े हार गए हैं। सारा जीवन निचुड़ चुका है।’

    भारतवर्ष में पिछले 200 वर्षों से शिक्षा की जो प्रणाली प्रचलित रही, उसने श्रमजीवियों और बुद्धिजीवियों के बीच एक बड़ी भारी दीवार खड़ी कर दी—श्रम के महत्व को उसने बढ़ने दिया। हमारा शिक्षित वर्ग अधिकांश में बुद्धि-विलासी बन गया। ऐसे निरे बुद्धि विलासियों के प्रति स्वयं आचार्य शुक्ल की यह फटकार पड़ते ही बनती है—“जो आँख भर यह भी नहीं देखते कि आम सौरभपूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं जानते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने-ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देश-प्रेम का दावा करे तो उनसे पूछना चाहिए, कि भाइयों, बिना परिचय के यह प्रेम कैसा? जिनके सुख-दु:ख के तुम कभी साथी हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह समझते नहीं बनता। उनसे कोसों दूर बैठे-बैठे, पड़े-पड़े या खड़े-खड़े तुम विलायती बोली में अर्थशास्त्र की दुहाई दिया करो पर प्रेम का नाम उसके साथ घसीटो।“

    अँग्रेज़ी शासन के बाद जिस तरह की आर्थिक व्यवस्था इस देश में प्रचलित हुई उसमें मोटी आसामियों (अमीरों) ने ग़रीबी के बारे में सोचना ही बंद कर दिया। तभी तो स्वर्गीय आचार्य शुक्ल जैसे साहित्यसेवी समालोचक को भी व्यंग्यात्मक स्वर में कहना पड़ा “मोटे आद‌मियों! तुम ज़रा-सा दुबले हो जाते अपने अंदेशों से ही सही, तो जाने कितनी ठठरियों पर माँस चढ़ जाता।” अब हमारा देश स्वतंत्र हुआ है। क्या अब भी वैसी ही शिक्षण पद्धति और आर्थिक व्यवस्था बनी रहेगी? श्रम और बौद्धिकता दोनों में संतुलन उपस्थित करने वाली शिक्षण पद्धति क्या इस देश में प्रचलित होगी? और आर्थिक व्यवस्था का स्वरूप भी क्या अब बदलेगा? सरदार पूर्णसिंह और विनोबा भावे हाथ से काम करने पर जो ज़ोर दे रहे हैं, उससे दो वर्गों में भेदभाव तो किसी अंश में अवश्य दूर होगा किंतु गांधीजी के रामराज्य का स्वप्न अथवा वर्ग रहित समाज की स्थापना का उच्चादर्श भी क्या इससे चरितार्थ हो सकेगा? क्या इस देश से-ऐसे छद्म-वेशधारियों का भी नितान्त अभाव है जो केवल नियम-निर्वाह के लिए थोड़ा सूत कात लेते हैं, फिर भी धन पर धन संग्रह करते चले जा रहे हैं और जिनके हृदय में ग़रीबों के प्रति कोई सच्ची सहानुभूति नहीं? वर्तमान परिस्थितियाँ सच्चे मार्ग निर्देश के लिए आज चीत्कार कर रही हैं।

    सरदार पूर्णसिंह के संबंध में हिंदी संसार ने समुचित रीति से अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया है। उनके लिखे हुए निबंध अभी पत्र-पत्रिकाओं मे बिखरे पड़े हैं अथवा पाठ्य-पुस्तकों की शोभा बढ़ा रहे हैं किंतु सरदार पूर्णसिंह की विस्तृत जीवनी तथा समीक्षा के साथ उनके समस्त निबंध पुस्तकाकार प्रकाशित होने चाहिए। देवनागरी और गुरुमुखी को लेकर हिंदी-पंजाबी की जो भाषा-समस्या आज उठ खड़ी है, उसको देखते हुए सरदार पूर्णसिंह की हिंदी-विषयक सेवाओं का जो महत्व है उसके स्मरण मात्र से हमारे हृदय में पूत भावनाओं का संचार हुए बिना नहीं रहता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दो शब्द (पृष्ठ 95)
    • रचनाकार : कन्हैयालाल सहल
    • प्रकाशन : आत्माराम एंड सन्स
    • संस्करण : 1950

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