ध्रुवदास की संपूर्ण रचनाएँ
दोहा 34
प्रेम-रसासव छकि दोऊ, करत बिलास विनोद।
चढ़त रहत, उतरत नहीं, गौर स्याम-छबि मोद॥
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रसनिधि रसिक किसोरबिबि, सहचरि परम प्रबीन।
महाप्रेम-रस-मोद में, रहति निरंतर लीन॥
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कुँवरि छबीली अमित छवि, छिन-छिन औरै और।
रहि गये चितवत चित्र से, परम रसिक शिरमौर॥
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कहि न सकत रसना कछुक, प्रेम-स्वाद आनंद।
को जानै ‘ध्रुव' प्रेम-रस, बिन बृंदावन-चंद॥
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फूलसों फूलनि ऐन रची सुख सैन सुदेश सुरंग सुहाई।
लाड़िलीलाल बिलास की रासि ओ पानिप रूप बढ़ी अधिकाई॥
सखी चहूँओर बिलौकैं झरोखनि जाति नहीं उपमा ध्रुव पाई।
खंजन कोटि जुरे छबि के ऐंकि नैननि की नव कुंज बनाई॥
दोहा-नवल रंगीली कुंज में, नवल रंगीले लाल।
नवल रंगीली खेल रचो, चितवनि नैन बिशाल॥
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