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यासनाया पोल्याना

yasnaya polyana

बलराज साहनी

बलराज साहनी

यासनाया पोल्याना

बलराज साहनी

और अधिकबलराज साहनी

    ताल्स्ताय जैसे महान व्यक्ति का ख़याल आते ही मन में से छोटे-छोटे संकुचित क़िस्म के विचार निकल जाते हैं, और मन ईर्ष्या-द्वेष से छुटकारा पाकर ऊँची उड़ान भरने लगता है। ताल्स्ताय ने संसार के सर्वोत्तम उपन्यास लिखे हैं। उनके विचारों ने गाँधी जी जैसे महान व्यक्ति के जीवन को झकझोरा और नया मोड़ दिया, जिसका प्रभाव करोड़ों हिंदुस्तानी अपने जीवन में महसूस करते हैं। मुझे गाँधीजी के चरणों में बैठने का, उनके आश्रम में रहकर काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। और यह भी मेरा सौभाग्य था कि मुझे ताल्स्ताय के निवास स्थान की यात्रा करने का मौका मिला। इस कृतज्ञता को प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।

    सुबह खिड़की में से देखा, मास्को दरिया जमा हुआ था। बर्फ़ अभी भी पड़ रही थी। ठीक आठ बजे बायकाफ़ गए। और उनके पीछे-पीछे बाक़ी साथियों के साथ परीक्षित भी था। कल रात वह हमारे होटल में ही सोया था। कमरे में दाख़िल होते ही परीक्षित ने कहा, वह देखिए डैडी, दरिया में जहाज़ किस तरह बर्फ़ को काटता हुआ जा रहा है। हम सब खिड़की के पास पहुँच गए। सचमुच बड़ा अनोखा दृश्य था।

    हम नीचे खाने वाले कमरे में गए। जल्दी-जल्दी नाश्ता किया, जो सादा भी था और स्वादिष्ट भी। दही से भरे हुए गिलास और पनीर से गुथे हुए मैदे के मोटे पेड़े, जिनपर जाम लगाकर खाने की बायकाफ़ ने सिफ़ारिश की। ठेठ रूसी क़िस्म का नाश्ता था वह और ज्ञानी जी जैसे ठेठ पंजाबी व्यक्ति के तो बहुत ही अनुकूल। वे कहने लगे, बलराज जी, मेरा बस चले तो अपने मुल्क में खाने-पीने की चीज़ों का तो एकदम राष्ट्रीयकरण कर दूँ। वहाँ तो हमें ज़हर खिलाई जा रही है।

    आज गोलुव्येव को हमारे साथ नहीं जाना था, और बायकाफ़ सिर्फ़ अँग्रेज़ी जानते थे। हम निश्चिंत होकर हिंदी और पंजाबी में बोल सकते थे।

    सौ मील के उस सफ़र के लिए एक बड़ी, लेकिन पुरानी चैका कार का प्रबंध किया गया था। ज्ञानी जी आगे बैठ गए, बीच की दो स्टूल जैसी सीटों पर बायकाफ़ और परीक्षित बैठे, और पिछली सीट पर हम बाक़ी के तीन व्यक्ति। रास्ते में हिंदुस्तानी और रूसी चुटकुलों का मुक़ाबला होने लगा, जिसमें बायकाफ़ और परीक्षित बढ़-बढ़कर हिस्सा लेने लगे। अवश्य उनमें कुछ चुटकले अश्लील भी थे।

    खिड़की के पास बैठे हुए गोपालन को कहीं से हवा लग रही थी। मैंने सोचा, उसे यूँही वहम हो रहा है। फिर देखा कि कुछ गड़बड़ ज़रूर थी। दरवाज़े की किसी दरार में से बर्फ़ानी ठंड गोपालन की टाँगों में सूई की तरह चुभ रही थी। तब एक भेद खुला मोटर को अंदर से गर्म रखने वाली मशीन काम नहीं कर रही थी। ड्राइवर ने बताया कि वह बिगड़ी हुई थी। आख़िर कुछ देर के बाद हमारी वैसी ही हालत बन गई जैसी कि रेफ्रिजिरेटर में पड़ी हुई मछली या माँस की होती है। दरवाज़े में से रही ठंड की गोपालन को कोई चिंता रही, क्योंकि घुटनों से लेकर पाँवों तक अब दोनों टाँगें जैसे बेजान बन चुकी थीं। काश, उस समय कोई फ़ोटो खींचने वाला होता। किसी-किसी समय हम सीटों पर इस प्रकार बैठे होते, जैसे नमाज़ पढ़ रहे हों। किसी प्रकार के भी आसन में आराम नहीं मिल रहा था। जब किसी एक की हालत ज़ियादा बिगड़ती, हम उसे आगे की सीट पर बैठा देते, जहाँ कार का इंजन नज़दीक होने के कारण कुछ गर्मी थी। बाहर दूर-दूर तक बर्फ़ ही बर्फ़ दिखाई दे रही थी। कहीं-कहीं बर्फ़ के जंगल दिखाई देते। कुछ आगे जाने पर एक क़स्बा आया। छोटे-छोटे, खिलौनों जैसे घर दिखाई दिए। ऐसे लगा, जैसे कोई फ़ौजी कैम्प हो। एक ओर काफ़ी बड़ी फ़ैक्ट्री थी, जिसका धुवाँ सर्दी के कारण सुस्त-सा होकर धरती पर लेटता जा रहा था। नज़दीक ही कोई दरिया था, जो पूरी तरह जमा हुआ नहीं था। वह भी ठंडा धुवाँ-सा छोड़े जा रहा था। कहीं-कहीं दोनों धुएँ आपस में मिल रहे थे। हमने मोटर रुकवाई और फ़ोटो खींची। मैंने ज्ञानी जी से कहा, यहाँ के ग़रीब लोगों के सामने इंक़लाब करने के अलावा और चारा ही क्या था?

    जवाब में ज्ञानी जी ने एक बहुत अच्छा शेर सुनाया, जिसका अर्थ था : ग़रीब की झोंपड़ी में सिर्फ़ उसके आँसुओं के प्रकाश से रौशनी होती है, लेकिन उस रौशनी में हज़ारों इंक़लाब छिपे हुए होते हैं।

    ध्यान ताल्स्ताय के उपन्यासों की ओर चला गया। उनमें हर मौसम के बहुत सुंदर प्राकृतिक वर्णन मिलते हैं—ख़ास तौर पर 'अन्ना कैरानीना' में। 'अन्ना कैरानीना' और 'पुनर्जागरण' उपन्यासों के पात्र कभी इन्हीं बर्फ़ों पर अपनी 'स्लेजें' (बर्फ़-गाड़ियाँ) इधर-उधर दौड़ाया करते थे, जिनके आगे जुते हुए घोड़ों की घंटियाँ बजा करती थीं।

    'तूला' नामक शहर गुज़रा। फुटपाथों पर माताएँ स्लेजनुमा क़िस्म की बच्चा गाड़ियों में अपने बच्चों को सैर करा रही थीं। शायद गर्मियों में इन्हीं गाड़ियों के निचले डंडे निकालकर पहिये लगा दिए जाते होंगे। एक व्यक्ति स्लेज पर घरेलू सामान लादे जा रहा था। लिबास सबका यूरोपियन क़िस्म का था। हाँ, कहीं-कहीं हैट की जगह कश्तीनुमा पोस्तीन की टोपियाँ भी देखने में रही थीं।

    वहाँ से लगभग बीस मील का सफ़र तय करके हम यासनाया पोल्याना पहुँच गए और ईश्वर का धन्यवाद किया।

    मोटर से उतरकर हम पहले लकड़ी के बने एक शेड में दाख़िल हुए। क्या यही ताल्स्ताय की कुटिया थी? लेकिन नहीं। वे तो, सुना है बहुत धनवान थे। बरामदे में उनके चित्र, पुस्तकें और बिल्ले (कोट पर लगानेवाले) बिक रहे थे। हमने वे ख़रीदे। इतने में बायकाफ़ ने फिर मोटर में बैठने की सज़ा सुनाई। अब मोटर एक बड़े फाटक के अंदर दाख़िल हुई। ताज़ा बर्फ़ से ढकी हुई सड़क पर से चलती हुई मोटर एक और इमारत के सामने जाकर रुकी। उसके सामने गाइड खड़ा था। बायकाफ़ ने फ़ोन करके उसे हमारे पहुँचने की सूचना दी थी। बर्फ़ पर खड़े-खड़े परिचय कराया गया। वे सज्जन यासनाया पोल्याना की सोवियत-हिन्द मित्रता संस्था के प्रधान थे। ताल्स्ताय की सारी ज़मीन-जायदाद आदि को अब एक क़ौमी यादगार क़रार दे दिया गया है। वे सज्जन उसके डायरेक्टर थे। उन्होंने रूसी साहित्य की ऊँची डिग्रियाँ प्राप्त की हुई थीं। ताल्स्ताय पर थीसिस लिखकर डॉक्टरेट की डिग्री ली थी। हमारा सौभाग्य था कि ऐसा विद्वान व्यक्ति हमें गाइड बनकर सब कुछ दिखाने वाला था।

    उन्होंने प्रोग्राम बताया : पहले इस इमारत में एक प्रदर्शिनी देखेंगे। फिर उस इमारत में जाएँगे जहाँ ताल्स्ताय ने अपनी उम्र के पचास साल बिताए थे। उसके बाद उनकी क़ब्र देखने जाएँगे। वहाँ से लौटने पर खाना खाएँगे।

    हमने ख़ुशी से प्रोग्राम मंज़ूर कर लिया। हम चाहते थे कि जल्द से जल्द किसी गर्म स्थान में पहुँचकर टाँगों को आराम पहुँचा सकें।

    ख़ुशक़िस्मती से वह इमारत अंदर से गर्म थी। ताल्स्ताय-परिवार उसका गोदाम के रूप में उपयोग करता था। अब वहाँ ताल्स्ताय के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को लेकर प्रदर्शनियाँ की जाती हैं। उस समय जो प्रदर्शनी लगी हुई थी वह उन चित्रों की थी, जो ताल्स्ताय की बच्चों और किसानों के बारे में लिखी हुई कहानियों के आधार पर बनाए गए थे। कहानियों और उनके पात्रों से परिचित होने के कारण हम प्रदर्शनी में ज़ियादा दिलचस्पी ले सके। दूसरी तरफ़, मेज़ों पर ताल्स्ताय-लिखित पुस्तकों और पुस्तिकाओं की भरमार लगी हुई थी। एक थी- 'रूसी भाषा कैसे सीखें।' एक गणित-संबंधी थी। इसी प्रकार अन्य कई विभिन्न विषयों-संबंधी थीं। गाइड ने उनमें से केवल चार-पाँच के ही नाम बताए। लेकिन दूसरे कमरे में मैंने परीक्षित से कुछ और पुस्तकों के रूसी नामों के बारे में जाना। मैं हैरान था कि एक उपन्यासकार ने बच्चों और देहाती लोगों की शिक्षा के लिए कितनी मेहनत की थी, कितनी पाठय-पुस्तकें लिखी थीं। इसके उलट, हमारे देश के लेखक किसी दूसरी भाषा की अच्छी पुस्तक का अपनी भाषा में अनुवाद करना अपना अपमान समझते हैं।

    दूधिया सफ़ेद बर्फ़ पर चलते हुए हम मुख्य इमारत की ओर गए। रास्ते में एक शिला देखी, जिसपर कुछ लिखा हुआ था। गाइड ने बताया कि उस स्थान पर एक बहुत बड़ा मकान होता था। उसकी जगह, निशानी के तौर पर, वह शिला लगा दी गई थी। आख़िर हम मुख्य इमारत के दरवाज़े पर पहुँचे। दाएँ हाथ पर मज़बूत पेड़ देखा, जो एक ओर को झुका हुआ था। उसे एक लकड़ी से सहारा दिया गया था। कुछ रूसी नौजवान इमारत में से निकलकर उस पेड़ की ओर गए। उनमें से एक पागलों की तरह ऊँची आवाज़ में कुछ बोलने लगा। बीच-बीच में 'ताल्स्ताय' शब्द सुनाई देता। उसे देखकर अजीब-सा लगा और अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। जब हम उसके निकट पहुँचे तो वह नौजवान एकाएक चुप हो गया। वह पूरे होश में था। हमने पूछा तो नहीं, लेकिन जानने की इच्छा ज़रूर हुई कि वह क्या बोल रहा था। पता लगा कि उस पेड़ का भी ताल्स्तय के जीवन से गहरा संबंध था। सुबह के समय उसके नीचे बैठकर वे किसानों से मिला करते थे, गोष्ठियाँ किया करते थे। अपने उपन्यासों और कहानियों के कितने ही पात्र उन्होंने उस पेड़ के नीचे बैठकर अपनी कल्पना में साकार किए थे।

    गाइड ने ताल्स्ताय का रोजनामचा सुनाया। सुबह आठ बजे उठना, कुछ पढ़ना, फिर नहाकर नाश्ता करना। दस बजे वे लिखने बैठ जाते थे और दो बजे तक लिखते रहते थे। दोपहर के खाने के बाद वे लोगों से मिलते थे, पढ़ते थे। वे 16 भाषाएँ जानते थे, जिनमें एक भाषा अरबी भी थी। मौत से पहले वे जापानी भाषा सीख रहे थे। संगीत का उन्हें बेहद शौक़ था। बुढ़ापे में उन्होंने संगीत सीखना शुरू कर दिया था। संगीत को वे सब कलाओं से ऊँचा स्थान देते थे। परंतु कविता से उनका कोई लगाव नहीं था। और यह सचमुच बहुत ही अजीब बात है। शेक्सपियर और गेटे जैसे कवियों को भी वे पसंद नहीं करते थे।

    हम इमारत के अंदर दाख़िल हुए। ड्योढ़ी जिसे अँग्रेज़ी में हाल कहा जाता है, लोगों की भीड़ से भरी हुई भी। पता लगा कि हर साल वहाँ एक लाख दर्शक आते हैं। भीड़ में दो फ़ौजी अफ़सर भी थे, जो बहुत रोबदार दिखाई दे रहे थे। वहाँ हर एक दर्शक को टोकरी में पड़े चमड़े के गिलाफ़ उठाकर अपने बूटों पर चढ़ाने पड़ते हैं, ताकि फ़र्श ख़राब हो। हम सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर की मंज़िल पर पहुँचे। वहाँ एक बग्घी देखी, जिसपर सवार होकर ताल्स्ताय की पत्नी अपने बुढ़ापे की उम्र में बाहर जाया करती थी। फिर डाइनिंग-रूम देखा। आज के ज़माने के हिसाब से ताल्स्ताय का रहन-सहन बहुत सादा प्रतीत हुआ, लेकिन उतना सादा नहीं, जितना गाँधी जी या टैगोर का था। एक कोने में पियानो पड़ा हुआ था और दूसरे कोने में ग्रामोफ़ोन। खाना खाने की मेज़ बहुत बड़ी थी और उसके गिर्द आठ-दस कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं। प्लेटें, छुरी-काँटे, नैपकिन आदि चीज़ें जिस ढंग से इस्तेमाल होती थीं, उसी तरह रखी हुई थीं। ऐसे लग रहा था, जैसे ताल्स्ताय-परिवार अभी-अभी खाने के लिए बैठनेवाला हो। मेज़ के पास एक छोटे-सी मेज़ पर 'समावार' रखा हुआ था। मेज़ से कुछ दूर, दीवार के पास एक सोफ़ा पड़ा था। एक आराम-कुर्सी थी। कुछ और कुर्सियाँ भी पड़ी हुई थीं। इस भाग में चाय पी जाती थी। कमरे का एक दूसरा कोना गोष्ठी करने के लिए था, जहाँ जामुनी रंग के चमड़े से मढ़े हुए सोफ़ों-कुर्सियों के बीच में एक गोल मेज़ रखी हुई थी। वहाँ ताल्स्ताय अपने ख़ास जिगरी दोस्तों से मिला करते थे। दीवार पर उनकी बेटियों के, उनकी जवानी के ज़माने के चित्र टंगे हुए थे, जो उस समय प्रसिद्ध चित्रकारों द्वारा बनवाए गए थे। प्रसिद्ध चित्रकार रेपिन ताल्स्ताय का बहुत प्यारा दोस्त था। रेपिन ने ताल्स्ताय के बुढ़ापे के दिनों का एक चित्र बनाया था, जो आम तौर पर पुस्तकों में पाया जाता है। वह चित्र भी दीवार पर टंगा हुआ था। एक और चित्र ज़माने का था, जब ताल्स्ताय 'अन्ना कैरानीना' लिख रहे थे, और उनकी उम्र लगभग पचास वर्ष की थी।

    उस कमरे में से गुज़रकर हम इमारत के पिछले बरामदे में पहुँचे। उसमें भी गोष्ठी के लिए एक जगह बनी हुई थी। आगे एक छोटा-सा कमरा था, जहाँ ताल्स्ताय अपनी उम्र के अंतिम दिनों में बैठकर लिखा करके थे। वहीं से वे एक दिन बेचैनी की हालत में उठकर घर से निकल गए थे और लौटकर नहीं आए थे। उस समय उनकी उम्र 82 वर्ष की थी। उस उम्र में भी उनकी सेहत बहुत अच्छी थी। अगर वे घर छोड़कर चले जाते, तो वे कम से कम दस साल तक और ज़िंदा रहते।

    हमने देखा कि लिखने की मेज़ के पास पड़ी हुई कुर्सी नीची थी। गाइड ने बताया कि ताल्स्ताय की नज़र बहुत कमज़ोर थी, लेकिन उन्हें ऐनक लगाना पसंद नहीं था। लिखते समय उनके चेहरे और काग़ज़ के बीच में बहुत ही कम फ़ासला होता। इसीलिए वे इतनी नीची कुर्सी का प्रयोग करते थे। मेज़ के पीछे एक दीवान पड़ा था, जिस पर वे आराम किया करते थे। अँगीठी पर कुछ पुस्तकें पड़ी थीं, जिनमें से दो पुस्तकें खोलकर उलटी रखी हुई थी। गाइड ने बताया कि वे पुस्तकें और अन्य चीज़ें हू-ब-हू उसी हालत में पड़ी हुई हैं जिस हालत में कि ताल्स्ताय उन्हें छोड़कर गए थे। ताल्स्ताय की पत्नी ने किसी भी चीज़ को अपनी जगह से हटाया नही था। जब द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन फ़ौजें ला के पास पहुँच गई थीं तो ताल्स्ताय के घर की हर एक चीज़ को बड़ी सावधानी से देश के पिछले भाग में भेज दिया गया था। युद्ध ख़त्म होने के बाद सभी चीज़ें फिर उसी हालत में लाकर रख दी गई थीं। अँगीठी पर पड़ी हुई पुस्तकों में कोई इस्लाम के बारे में थी, कोई बौद्ध धर्म के बारे में। उनके ऊपर एक शेल्फ़ रूसी भाषा में लिखित विश्वकोष की जिल्दों से भरी पड़ी थी।

    उसके आगे लेखक का सोने का कमरा था। हद दर्जे की सादगी नज़र आई वहाँ। एक शेल्फ़ पर देसी क़िस्म की दवाइयों की बोतलें पड़ी थीं। व्यायाम करने के लिए 'डम्बल' थे, और सैर का साथी एक मोटा डंडा। एक ऐसी छड़ी थी, जिसे ऊपर से खोलकर बैठने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता था। चमडे की पेटियाँ दीवारों पर टंगी हुई थीं। एक मेज़ पर मुँह-हाथ धोने के लिए चिलमची और जग था। एक कोने में दीवार के साथ लगा हुआ लोहे का पलंग था। गाइड ने एक फ़ोटो की ओर हमारा ध्यान दिलाया, जो ताल्स्ताया ने मृत्यु से कुछ ही पहले एक वैज्ञानिक के साथ इसी पलंग पर बैठकर खिंचवाई थी। फ़ोटो में ताल्स्ताय के चेहरे पर थकावट और आँखों में बेचैनी नज़र आती थी।

    वहाँ काम करने वाली एक बूढ़ी स्त्री ने आकर कहा कि उसने ताल्स्ताय की पली के सोने के कमरे का दरवाज़ा भी खोल दिया है। गाइड ने हमें बताया कि यह कमरा आम लोगों को नहीं दिखाया जाता, क्योंकि इमारत का वह भाग पिछली जंग में बहुत कमज़ोर हो चुका है। कमरे में प्रवेश करने से पहले उन्होंने ताल्स्ताय की पत्नी के बारे में कुछ जानकारी देना ज़रूरी समझा। उन्होंने कहा :

    “यह बात बिलकुल बेबुनियाद है कि ताल्स्ताय की अपनी पत्नी से अनबन थी। अगर ऐसा होता तो वे पचास साल उसके साथ एक छत के नीचे गुज़ार सकते। इसी घर में वह ताल्स्ताय के तेरह बच्चों की माँ बनी थी। ताल्स्ताय से वह उम्र में सोलह साल छोटी थी।

    गोपालन : कहा जाता है कि 'अन्ना कैरानीना' में किटी का पात्र ताल्स्ताय की पली पर आधारित है। इस उपन्यास में ताल्स्ताय ने अपने जीवन की बहुत-सी व्यक्तिगत बातों का ज़िक्र किया है, जिसके लिए उनकी पली नाराज़ थी।

    गाइड : किसी हद तक मैं इस बात को मानता हूँ, लेकिन फिर भी कहूँगा कि जब आप इस कमरे में घूमें तो एक चीज़ को ध्यान से देखिएगा। बाद में हम फिर इस विषय पर बातें करेंगे। यूरोप में ताल्स्ताय के कई आलोचकों ने इस बात को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है।

    सो हमने वह कमरा जासूसोंवाली नज़र से देखा, लेकिन कोई ख़ास रहस्य-भरी बात हमें दिखाई नहीं दी। गाइड ने फिर कहा :

    इस कमरे की चीज़ों से आपको श्रीमती तालस्ताय का चरित्र साफ़ नज़र सकता है। उन चीजों से—ख़ास कर दीवार पर टँगे हए चित्रों से आप इस बात को बड़ी आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वह किस हद तक इसाई धर्म को मानने वाली स्त्री थी। वह ज्यों-ज्यों बुढ़ापे में प्रवेश करती गई उसकी धार्मिकता अपनी चरम सीमा को पहुँचती गई। वह धार्मिक रस्मों रीतियों और अंधविश्वासों पर ज़ियादा ज़ोर देने लगी। ताल्स्ताय को यह बात पसंद नहीं थी। वे धर्म को दर्शन-शास्त्र के रूप में देखते थे।

    धार्मिक चित्रों के अलावा दीवारों पर और भी बहुत-से चित्र थे। ताल्स्ताय की जवानी से बुढ़ापे तक के चित्र वहाँ लगे हुए थे। उन्हें देखकर हमें बहुत आनंद आया। एक-दो चित्र उस ज़माने के भी थे जब ताल्स्ताय फ़ौजी अफ़सर थे। उन चित्रों में उन्होंने फ़ौजी वर्दी पहनी हुई थी।

    गाइड : यह चित्र इस बात का सबसे अच्छा सबूत है कि श्रीमती ताल्स्ताय का जीवन अपने पति और बच्चों के गिर्द घूमता था। परिवार का एक-एक चित्र उसने संभालकर रखा हुआ है। ताल्स्ताय की मृत्यु के नौ साल बाद तक वह इस घर में रही। अपने पति के घर से निकल जाने, सर्दी में भटकने और मर जाने का उसे बहुत दुःख था। वह ख़ुद को उनकी मौत की ज़िम्मेदार समझती थी। आख़िर इसी कमरे में उनकी मृत्यु हुई थी। अगर पति-पत्नी का आपस में प्यार होता तो वह अकेली यहाँ कभी रहती, जबकि वह आसानी से मास्को में रह सकती थी। इन सब बातों को देखकर इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि ताल्स्ताय का घर छोड़कर चले जाना उनकी मानसिक अशांति का परिणाम था और कुछ नहीं।

    ऊपरी मंज़िल पर, एक तरफ़ ताल्स्ताय के सेक्रेट्री का कमरा था, जो बरामदे में पुस्तकों की अलमारियों की दीवार बनाकर तैयार किया गया था। ताल्स्ताय की लाइब्रेरी में कई भाषाओं की दस हज़ार से ज़ियादा पुस्तकें थीं।

    मैंने सोचा कि ताल्स्ताय बहुत ख़ुशक़िस्मत आदमी थे। अच्छे अमीर माता-पिता के घर में जन्म हुआ था उनका। कई हज़ार एकड़ ज़मीन उन्हें विरसे में मिली थी, जिसमें सफ़ेदे के सुंदर जंगल और बाग़ थे। शहर की भागदौड़ और पैसा कमाने की मजबूरी से दूर थे वे। पचास साल तक निश्चिंत होकर रहने और लिखने का समय मिला था उन्हें। ऐसी क़िस्मत कितने लेखकों की हो सकती है?

    लेकिन नहीं, लिखने के लिए सुख-सुविधा ही काफ़ी नहीं होती। वह तो प्रतिभा और लगन की पैदावार है। अपने विचारों और आदर्शों के अनुसार निडर होकर अपने जीवन को ढालने की शक्ति थी ताल्स्ताय में।

    गाइड के कुछ और दिलचस्प बातें बताई। ताल्स्ताय की मृत्यु 1610 में हुई थी और उनकी पत्नी की 1616 में। ये नौ साल रुस में बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल के साथ थे। कई दोस्तों ने श्रीमती ताल्स्ताय को ज़मीन और मकान बेचकर शहर में रहने की राय दी थी। लेकिन वह नहीं गई थी। हर प्रकार की आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उसने मकान नहीं बेचा था, क्योंकि उसके साथ उसके पति की यादें जुड़ी हुई थी। इंक़लाब के बाद तो उसे किसी ओर से भी सहायता की आशा नहीं रही थी। लेकिन जब लेनिन ख़ुद उसके यहाँ गए और उसकी ख़बर ली और उसकी अच्छी तरह देखभाल करने का उन्होंने हुक्म दिया तो वह हैरान रह गई।

    फिर गाइड ने आलमारी पर उलटी पड़ी हुई एक फ़ोटो उठाकर हमें दिखाई, जिससे प्रकट होता था कि जर्मनों ने इस घर की कैसी दुर्दशा की थी, उसे ख़ाली देखकर उन्होंने उसे फ़ौजी बैरक बना दिया था, हालाँकि वे अच्छी तरह जानते थे कि वह ताल्स्ताय का घर है। सिपाहियों ने फ़र्शों पर आग जलाई थी। आज जर्मनी में कई लोग उस बात को मानने के तैयार नहीं हैं। लेकिन वह फ़ोटो इस बात की गवाह है। वह उस दिन खींची गई थी जब रूसियों ने दोबारा उस घर में प्रवेश किया था।

    वहाँ से नीचे आकर हमने फिर उसी ड्योड़ी को देखा, जहाँ बूटों पर चमड़े के ग़िलाफ़ चढ़ाएँ थे। वह स्थान लाइब्रेरी का मुख्य भाग था। उसके पीछे कई और कमरे थे। वह स्थान लाइब्रेरी का मुख्य भाग था। उसके पीछे कई और कमरे थे। ठीक पीछे वह कमरा या जहाँ तालस्ताय के शव के अंतिम दर्शन के लिए दिन-भर बाहरी दरवाज़े से आकर पिछले दरवाज़े से निकल जाते रहे थे। इसके साथ वाले दूसरे को तालस्ताय ने अन्ना कैरानीना लिखने के लिए इस्तेमाल किया था। उससे आगे वह कमरा था, जो उस घर में लेखक को सबसे प्रिय था। उसे दे मेहरावें-सी बनी हुई थीं। पहले वह एक गोदाम के रूप में उपयोग में लाया जाता था। लेकिन तालस्ताय साफ़ करवाकर उसे लिखने का कमरा बना लिया था। उसी में उन्होंने अपना महान उपन्यास युद्ध और शांति लिखा था। कमरे का दरवाज़ा और खिड़कियाँ बाहर बाग़ की ओर खुलते थे, जहाँ सफ़ेदे, चीड़ और वैद के वृक्ष लगे हुए थे। वह बाग़ तालस्ताय के मन में बड़ा सुखद अनुभव पैदा करता होगा।

    पक्षी उड़ गया था और हम उसका पिंजरा देख रहे थे। बाहर बर्फ़ गिर रही थी। धरती दूधिया सफ़ेद बनी हुई थी। बर्फ़ पेड़ों की शाख़ाओं पर अटक जाती थी। गर्मी के मौसम यह बाग़ कितना सुंदर होता होगा। अपने उपन्यास के पात्रों को मन में बसाकर इस बाग़ में घूमना लेखक को कितना अच्छा लगता होगा। इसीलिए तो वे ‘युद्ध और शांति’ जैसे इतने बड़े उपन्यास का लंबा सफल तय कर पाए।

    उस घर के दो फ़र्लांग के फासले पर उन्हीं जंगलों में, जो तालस्ताय की अपनी मिलकियत थे और जिनमें वे अपने मुज़ारों के साथ मिलकर लकड़ियाँ चीरते और दूसरे काम किया करते थे, तालस्ताय हमेशा की नींद में सोए पड़े हैं। एक खाई पर ज़मीन की तीन तहें आकर मिलती हैं। राजपूत शैली के चित्रों में धरती की तहें इसी प्रकार गोल आकार की खींची जाती है। सबसे ऊपरी तह पर तालस्ताय की सादी-सी क़ब्र है। उसके ऊपर कोई सलीब नहीं है, कोई संगमरमर का पत्थर नहीं है, ही कोई चबूतरा है और ही वहाँ कुछ लिखा हुआ है। बस एक डिब्बा-सा है, जिसपर घास उगी हुई है। वह स्थान तालस्ताय ने अपनी क़ब्र के लिए खुद चुना था। वहाँ वे अपने बचपन के दोस्तों के साथ खेला करते थे। उन्हें नर्म घास पर फिसलना बहुत अच्छा लगता था। बचपन में तालस्ताय को यक़ीन था कि वहाँ कोई जादू की लकड़ी दबी पड़ी है। अगर वह मिल जाए तो जीवन में मनुष्य की सभी इच्छाएँ पूरी हो सकती है। जिस जगह उन्हें बचपन में लकड़ी के दबे हुए होने का यक़ीन था, उसी को उन्होंने अपने दफ़नाए जाने के लिए चुना था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बलराज साहनी समग्र (पृष्ठ 534)
    • रचनाकार : बलराज साहनी
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