ताल्स्ताय जैसे महान व्यक्ति का ख़याल आते ही मन में से छोटे-छोटे संकुचित क़िस्म के विचार निकल जाते हैं, और मन ईर्ष्या-द्वेष से छुटकारा पाकर ऊँची उड़ान भरने लगता है। ताल्स्ताय ने संसार के सर्वोत्तम उपन्यास लिखे हैं। उनके विचारों ने गाँधी जी जैसे महान व्यक्ति के जीवन को झकझोरा और नया मोड़ दिया, जिसका प्रभाव करोड़ों हिंदुस्तानी अपने जीवन में महसूस करते हैं। मुझे गाँधीजी के चरणों में बैठने का, उनके आश्रम में रहकर काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। और यह भी मेरा सौभाग्य था कि मुझे ताल्स्ताय के निवास स्थान की यात्रा करने का मौका मिला। इस कृतज्ञता को प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।
सुबह खिड़की में से देखा, मास्को दरिया जमा हुआ था। बर्फ़ अभी भी पड़ रही थी। ठीक आठ बजे बायकाफ़ आ गए। और उनके पीछे-पीछे बाक़ी साथियों के साथ परीक्षित भी था। कल रात वह हमारे होटल में ही सोया था। कमरे में दाख़िल होते ही परीक्षित ने कहा, वह देखिए डैडी, दरिया में जहाज़ किस तरह बर्फ़ को काटता हुआ जा रहा है। हम सब खिड़की के पास पहुँच गए। सचमुच बड़ा अनोखा दृश्य था।
हम नीचे खाने वाले कमरे में गए। जल्दी-जल्दी नाश्ता किया, जो सादा भी था और स्वादिष्ट भी। दही से भरे हुए गिलास और पनीर से गुथे हुए मैदे के मोटे पेड़े, जिनपर जाम लगाकर खाने की बायकाफ़ ने सिफ़ारिश की। ठेठ रूसी क़िस्म का नाश्ता था वह और ज्ञानी जी जैसे ठेठ पंजाबी व्यक्ति के तो बहुत ही अनुकूल। वे कहने लगे, बलराज जी, मेरा बस चले तो अपने मुल्क में खाने-पीने की चीज़ों का तो एकदम राष्ट्रीयकरण कर दूँ। वहाँ तो हमें ज़हर खिलाई जा रही है।
आज गोलुव्येव को हमारे साथ नहीं जाना था, और बायकाफ़ सिर्फ़ अँग्रेज़ी जानते थे। हम निश्चिंत होकर हिंदी और पंजाबी में बोल सकते थे।
सौ मील के उस सफ़र के लिए एक बड़ी, लेकिन पुरानी चैका कार का प्रबंध किया गया था। ज्ञानी जी आगे बैठ गए, बीच की दो स्टूल जैसी सीटों पर बायकाफ़ और परीक्षित बैठे, और पिछली सीट पर हम बाक़ी के तीन व्यक्ति। रास्ते में हिंदुस्तानी और रूसी चुटकुलों का मुक़ाबला होने लगा, जिसमें बायकाफ़ और परीक्षित बढ़-बढ़कर हिस्सा लेने लगे। अवश्य उनमें कुछ चुटकले अश्लील भी थे।
खिड़की के पास बैठे हुए गोपालन को कहीं से हवा लग रही थी। मैंने सोचा, उसे यूँही वहम हो रहा है। फिर देखा कि कुछ गड़बड़ ज़रूर थी। दरवाज़े की किसी दरार में से बर्फ़ानी ठंड गोपालन की टाँगों में सूई की तरह चुभ रही थी। तब एक भेद खुला मोटर को अंदर से गर्म रखने वाली मशीन काम नहीं कर रही थी। ड्राइवर ने बताया कि वह बिगड़ी हुई थी। आख़िर कुछ देर के बाद हमारी वैसी ही हालत बन गई जैसी कि रेफ्रिजिरेटर में पड़ी हुई मछली या माँस की होती है। दरवाज़े में से आ रही ठंड की गोपालन को कोई चिंता न रही, क्योंकि घुटनों से लेकर पाँवों तक अब दोनों टाँगें जैसे बेजान बन चुकी थीं। काश, उस समय कोई फ़ोटो खींचने वाला होता। किसी-किसी समय हम सीटों पर इस प्रकार बैठे होते, जैसे नमाज़ पढ़ रहे हों। किसी प्रकार के भी आसन में आराम नहीं मिल रहा था। जब किसी एक की हालत ज़ियादा बिगड़ती, हम उसे आगे की सीट पर बैठा देते, जहाँ कार का इंजन नज़दीक होने के कारण कुछ गर्मी थी। बाहर दूर-दूर तक बर्फ़ ही बर्फ़ दिखाई दे रही थी। कहीं-कहीं बर्फ़ के जंगल दिखाई देते। कुछ आगे जाने पर एक क़स्बा आया। छोटे-छोटे, खिलौनों जैसे घर दिखाई दिए। ऐसे लगा, जैसे कोई फ़ौजी कैम्प हो। एक ओर काफ़ी बड़ी फ़ैक्ट्री थी, जिसका धुवाँ सर्दी के कारण सुस्त-सा होकर धरती पर लेटता जा रहा था। नज़दीक ही कोई दरिया था, जो पूरी तरह जमा हुआ नहीं था। वह भी ठंडा धुवाँ-सा छोड़े जा रहा था। कहीं-कहीं दोनों धुएँ आपस में मिल रहे थे। हमने मोटर रुकवाई और फ़ोटो खींची। मैंने ज्ञानी जी से कहा, यहाँ के ग़रीब लोगों के सामने इंक़लाब करने के अलावा और चारा ही क्या था?
जवाब में ज्ञानी जी ने एक बहुत अच्छा शेर सुनाया, जिसका अर्थ था : ग़रीब की झोंपड़ी में सिर्फ़ उसके आँसुओं के प्रकाश से रौशनी होती है, लेकिन उस रौशनी में हज़ारों इंक़लाब छिपे हुए होते हैं।
ध्यान ताल्स्ताय के उपन्यासों की ओर चला गया। उनमें हर मौसम के बहुत सुंदर प्राकृतिक वर्णन मिलते हैं—ख़ास तौर पर 'अन्ना कैरानीना' में। 'अन्ना कैरानीना' और 'पुनर्जागरण' उपन्यासों के पात्र कभी इन्हीं बर्फ़ों पर अपनी 'स्लेजें' (बर्फ़-गाड़ियाँ) इधर-उधर दौड़ाया करते थे, जिनके आगे जुते हुए घोड़ों की घंटियाँ बजा करती थीं।
'तूला' नामक शहर गुज़रा। फुटपाथों पर माताएँ स्लेजनुमा क़िस्म की बच्चा गाड़ियों में अपने बच्चों को सैर करा रही थीं। शायद गर्मियों में इन्हीं गाड़ियों के निचले डंडे निकालकर पहिये लगा दिए जाते होंगे। एक व्यक्ति स्लेज पर घरेलू सामान लादे जा रहा था। लिबास सबका यूरोपियन क़िस्म का था। हाँ, कहीं-कहीं हैट की जगह कश्तीनुमा पोस्तीन की टोपियाँ भी देखने में आ रही थीं।
वहाँ से लगभग बीस मील का सफ़र तय करके हम यासनाया पोल्याना पहुँच गए और ईश्वर का धन्यवाद किया।
मोटर से उतरकर हम पहले लकड़ी के बने एक शेड में दाख़िल हुए। क्या यही ताल्स्ताय की कुटिया थी? लेकिन नहीं। वे तो, सुना है बहुत धनवान थे। बरामदे में उनके चित्र, पुस्तकें और बिल्ले (कोट पर लगानेवाले) बिक रहे थे। हमने वे ख़रीदे। इतने में बायकाफ़ ने फिर मोटर में बैठने की सज़ा सुनाई। अब मोटर एक बड़े फाटक के अंदर दाख़िल हुई। ताज़ा बर्फ़ से ढकी हुई सड़क पर से चलती हुई मोटर एक और इमारत के सामने जाकर रुकी। उसके सामने गाइड खड़ा था। बायकाफ़ ने फ़ोन करके उसे हमारे पहुँचने की सूचना दी थी। बर्फ़ पर खड़े-खड़े परिचय कराया गया। वे सज्जन यासनाया पोल्याना की सोवियत-हिन्द मित्रता संस्था के प्रधान थे। ताल्स्ताय की सारी ज़मीन-जायदाद आदि को अब एक क़ौमी यादगार क़रार दे दिया गया है। वे सज्जन उसके डायरेक्टर थे। उन्होंने रूसी साहित्य की ऊँची डिग्रियाँ प्राप्त की हुई थीं। ताल्स्ताय पर थीसिस लिखकर डॉक्टरेट की डिग्री ली थी। हमारा सौभाग्य था कि ऐसा विद्वान व्यक्ति हमें गाइड बनकर सब कुछ दिखाने वाला था।
उन्होंने प्रोग्राम बताया : पहले इस इमारत में एक प्रदर्शिनी देखेंगे। फिर उस इमारत में जाएँगे जहाँ ताल्स्ताय ने अपनी उम्र के पचास साल बिताए थे। उसके बाद उनकी क़ब्र देखने जाएँगे। वहाँ से लौटने पर खाना खाएँगे।
हमने ख़ुशी से प्रोग्राम मंज़ूर कर लिया। हम चाहते थे कि जल्द से जल्द किसी गर्म स्थान में पहुँचकर टाँगों को आराम पहुँचा सकें।
ख़ुशक़िस्मती से वह इमारत अंदर से गर्म थी। ताल्स्ताय-परिवार उसका गोदाम के रूप में उपयोग करता था। अब वहाँ ताल्स्ताय के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को लेकर प्रदर्शनियाँ की जाती हैं। उस समय जो प्रदर्शनी लगी हुई थी वह उन चित्रों की थी, जो ताल्स्ताय की बच्चों और किसानों के बारे में लिखी हुई कहानियों के आधार पर बनाए गए थे। कहानियों और उनके पात्रों से परिचित न होने के कारण हम प्रदर्शनी में ज़ियादा दिलचस्पी न ले सके। दूसरी तरफ़, मेज़ों पर ताल्स्ताय-लिखित पुस्तकों और पुस्तिकाओं की भरमार लगी हुई थी। एक थी- 'रूसी भाषा कैसे सीखें।' एक गणित-संबंधी थी। इसी प्रकार अन्य कई विभिन्न विषयों-संबंधी थीं। गाइड ने उनमें से केवल चार-पाँच के ही नाम बताए। लेकिन दूसरे कमरे में मैंने परीक्षित से कुछ और पुस्तकों के रूसी नामों के बारे में जाना। मैं हैरान था कि एक उपन्यासकार ने बच्चों और देहाती लोगों की शिक्षा के लिए कितनी मेहनत की थी, कितनी पाठय-पुस्तकें लिखी थीं। इसके उलट, हमारे देश के लेखक किसी दूसरी भाषा की अच्छी पुस्तक का अपनी भाषा में अनुवाद करना अपना अपमान समझते हैं।
दूधिया सफ़ेद बर्फ़ पर चलते हुए हम मुख्य इमारत की ओर गए। रास्ते में एक शिला देखी, जिसपर कुछ लिखा हुआ था। गाइड ने बताया कि उस स्थान पर एक बहुत बड़ा मकान होता था। उसकी जगह, निशानी के तौर पर, वह शिला लगा दी गई थी। आख़िर हम मुख्य इमारत के दरवाज़े पर पहुँचे। दाएँ हाथ पर मज़बूत पेड़ देखा, जो एक ओर को झुका हुआ था। उसे एक लकड़ी से सहारा दिया गया था। कुछ रूसी नौजवान इमारत में से निकलकर उस पेड़ की ओर गए। उनमें से एक पागलों की तरह ऊँची आवाज़ में कुछ बोलने लगा। बीच-बीच में 'ताल्स्ताय' शब्द सुनाई देता। उसे देखकर अजीब-सा लगा और अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। जब हम उसके निकट पहुँचे तो वह नौजवान एकाएक चुप हो गया। वह पूरे होश में था। हमने पूछा तो नहीं, लेकिन जानने की इच्छा ज़रूर हुई कि वह क्या बोल रहा था। पता लगा कि उस पेड़ का भी ताल्स्तय के जीवन से गहरा संबंध था। सुबह के समय उसके नीचे बैठकर वे किसानों से मिला करते थे, गोष्ठियाँ किया करते थे। अपने उपन्यासों और कहानियों के कितने ही पात्र उन्होंने उस पेड़ के नीचे बैठकर अपनी कल्पना में साकार किए थे।
गाइड ने ताल्स्ताय का रोजनामचा सुनाया। सुबह आठ बजे उठना, कुछ पढ़ना, फिर नहाकर नाश्ता करना। दस बजे वे लिखने बैठ जाते थे और दो बजे तक लिखते रहते थे। दोपहर के खाने के बाद वे लोगों से मिलते थे, पढ़ते थे। वे 16 भाषाएँ जानते थे, जिनमें एक भाषा अरबी भी थी। मौत से पहले वे जापानी भाषा सीख रहे थे। संगीत का उन्हें बेहद शौक़ था। बुढ़ापे में उन्होंने संगीत सीखना शुरू कर दिया था। संगीत को वे सब कलाओं से ऊँचा स्थान देते थे। परंतु कविता से उनका कोई लगाव नहीं था। और यह सचमुच बहुत ही अजीब बात है। शेक्सपियर और गेटे जैसे कवियों को भी वे पसंद नहीं करते थे।
हम इमारत के अंदर दाख़िल हुए। ड्योढ़ी जिसे अँग्रेज़ी में हाल कहा जाता है, लोगों की भीड़ से भरी हुई भी। पता लगा कि हर साल वहाँ एक लाख दर्शक आते हैं। भीड़ में दो फ़ौजी अफ़सर भी थे, जो बहुत रोबदार दिखाई दे रहे थे। वहाँ हर एक दर्शक को टोकरी में पड़े चमड़े के गिलाफ़ उठाकर अपने बूटों पर चढ़ाने पड़ते हैं, ताकि फ़र्श ख़राब न हो। हम सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर की मंज़िल पर पहुँचे। वहाँ एक बग्घी देखी, जिसपर सवार होकर ताल्स्ताय की पत्नी अपने बुढ़ापे की उम्र में बाहर जाया करती थी। फिर डाइनिंग-रूम देखा। आज के ज़माने के हिसाब से ताल्स्ताय का रहन-सहन बहुत सादा प्रतीत हुआ, लेकिन उतना सादा नहीं, जितना गाँधी जी या टैगोर का था। एक कोने में पियानो पड़ा हुआ था और दूसरे कोने में ग्रामोफ़ोन। खाना खाने की मेज़ बहुत बड़ी थी और उसके गिर्द आठ-दस कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं। प्लेटें, छुरी-काँटे, नैपकिन आदि चीज़ें जिस ढंग से इस्तेमाल होती थीं, उसी तरह रखी हुई थीं। ऐसे लग रहा था, जैसे ताल्स्ताय-परिवार अभी-अभी खाने के लिए बैठनेवाला हो। मेज़ के पास एक छोटे-सी मेज़ पर 'समावार' रखा हुआ था। मेज़ से कुछ दूर, दीवार के पास एक सोफ़ा पड़ा था। एक आराम-कुर्सी थी। कुछ और कुर्सियाँ भी पड़ी हुई थीं। इस भाग में चाय पी जाती थी। कमरे का एक दूसरा कोना गोष्ठी करने के लिए था, जहाँ जामुनी रंग के चमड़े से मढ़े हुए सोफ़ों-कुर्सियों के बीच में एक गोल मेज़ रखी हुई थी। वहाँ ताल्स्ताय अपने ख़ास जिगरी दोस्तों से मिला करते थे। दीवार पर उनकी बेटियों के, उनकी जवानी के ज़माने के चित्र टंगे हुए थे, जो उस समय प्रसिद्ध चित्रकारों द्वारा बनवाए गए थे। प्रसिद्ध चित्रकार रेपिन ताल्स्ताय का बहुत प्यारा दोस्त था। रेपिन ने ताल्स्ताय के बुढ़ापे के दिनों का एक चित्र बनाया था, जो आम तौर पर पुस्तकों में पाया जाता है। वह चित्र भी दीवार पर टंगा हुआ था। एक और चित्र ज़माने का था, जब ताल्स्ताय 'अन्ना कैरानीना' लिख रहे थे, और उनकी उम्र लगभग पचास वर्ष की थी।
उस कमरे में से गुज़रकर हम इमारत के पिछले बरामदे में पहुँचे। उसमें भी गोष्ठी के लिए एक जगह बनी हुई थी। आगे एक छोटा-सा कमरा था, जहाँ ताल्स्ताय अपनी उम्र के अंतिम दिनों में बैठकर लिखा करके थे। वहीं से वे एक दिन बेचैनी की हालत में उठकर घर से निकल गए थे और लौटकर नहीं आए थे। उस समय उनकी उम्र 82 वर्ष की थी। उस उम्र में भी उनकी सेहत बहुत अच्छी थी। अगर वे घर छोड़कर न चले जाते, तो वे कम से कम दस साल तक और ज़िंदा रहते।
हमने देखा कि लिखने की मेज़ के पास पड़ी हुई कुर्सी नीची थी। गाइड ने बताया कि ताल्स्ताय की नज़र बहुत कमज़ोर थी, लेकिन उन्हें ऐनक लगाना पसंद नहीं था। लिखते समय उनके चेहरे और काग़ज़ के बीच में बहुत ही कम फ़ासला होता। इसीलिए वे इतनी नीची कुर्सी का प्रयोग करते थे। मेज़ के पीछे एक दीवान पड़ा था, जिस पर वे आराम किया करते थे। अँगीठी पर कुछ पुस्तकें पड़ी थीं, जिनमें से दो पुस्तकें खोलकर उलटी रखी हुई थी। गाइड ने बताया कि वे पुस्तकें और अन्य चीज़ें हू-ब-हू उसी हालत में पड़ी हुई हैं जिस हालत में कि ताल्स्ताय उन्हें छोड़कर गए थे। ताल्स्ताय की पत्नी ने किसी भी चीज़ को अपनी जगह से हटाया नही था। जब द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन फ़ौजें ला के पास पहुँच गई थीं तो ताल्स्ताय के घर की हर एक चीज़ को बड़ी सावधानी से देश के पिछले भाग में भेज दिया गया था। युद्ध ख़त्म होने के बाद सभी चीज़ें फिर उसी हालत में लाकर रख दी गई थीं। अँगीठी पर पड़ी हुई पुस्तकों में कोई इस्लाम के बारे में थी, कोई बौद्ध धर्म के बारे में। उनके ऊपर एक शेल्फ़ रूसी भाषा में लिखित विश्वकोष की जिल्दों से भरी पड़ी थी।
उसके आगे लेखक का सोने का कमरा था। हद दर्जे की सादगी नज़र आई वहाँ। एक शेल्फ़ पर देसी क़िस्म की दवाइयों की बोतलें पड़ी थीं। व्यायाम करने के लिए 'डम्बल' थे, और सैर का साथी एक मोटा डंडा। एक ऐसी छड़ी थी, जिसे ऊपर से खोलकर बैठने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता था। चमडे की पेटियाँ दीवारों पर टंगी हुई थीं। एक मेज़ पर मुँह-हाथ धोने के लिए चिलमची और जग था। एक कोने में दीवार के साथ लगा हुआ लोहे का पलंग था। गाइड ने एक फ़ोटो की ओर हमारा ध्यान दिलाया, जो ताल्स्ताया ने मृत्यु से कुछ ही पहले एक वैज्ञानिक के साथ इसी पलंग पर बैठकर खिंचवाई थी। फ़ोटो में ताल्स्ताय के चेहरे पर थकावट और आँखों में बेचैनी नज़र आती थी।
वहाँ काम करने वाली एक बूढ़ी स्त्री ने आकर कहा कि उसने ताल्स्ताय की पली के सोने के कमरे का दरवाज़ा भी खोल दिया है। गाइड ने हमें बताया कि यह कमरा आम लोगों को नहीं दिखाया जाता, क्योंकि इमारत का वह भाग पिछली जंग में बहुत कमज़ोर हो चुका है। कमरे में प्रवेश करने से पहले उन्होंने ताल्स्ताय की पत्नी के बारे में कुछ जानकारी देना ज़रूरी समझा। उन्होंने कहा :
“यह बात बिलकुल बेबुनियाद है कि ताल्स्ताय की अपनी पत्नी से अनबन थी। अगर ऐसा होता तो वे पचास साल उसके साथ एक छत के नीचे न गुज़ार सकते। इसी घर में वह ताल्स्ताय के तेरह बच्चों की माँ बनी थी। ताल्स्ताय से वह उम्र में सोलह साल छोटी थी।
गोपालन : कहा जाता है कि 'अन्ना कैरानीना' में किटी का पात्र ताल्स्ताय की पली पर आधारित है। इस उपन्यास में ताल्स्ताय ने अपने जीवन की बहुत-सी व्यक्तिगत बातों का ज़िक्र किया है, जिसके लिए उनकी पली नाराज़ थी।
गाइड : किसी हद तक मैं इस बात को मानता हूँ, लेकिन फिर भी कहूँगा कि जब आप इस कमरे में घूमें तो एक चीज़ को ध्यान से देखिएगा। बाद में हम फिर इस विषय पर बातें करेंगे। यूरोप में ताल्स्ताय के कई आलोचकों ने इस बात को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है।
सो हमने वह कमरा जासूसोंवाली नज़र से देखा, लेकिन कोई ख़ास रहस्य-भरी बात हमें दिखाई नहीं दी। गाइड ने फिर कहा :
इस कमरे की चीज़ों से आपको श्रीमती तालस्ताय का चरित्र साफ़ नज़र आ सकता है। उन चीजों से—ख़ास कर दीवार पर टँगे हए चित्रों से आप इस बात को बड़ी आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वह किस हद तक इसाई धर्म को मानने वाली स्त्री थी। वह ज्यों-ज्यों बुढ़ापे में प्रवेश करती गई उसकी धार्मिकता अपनी चरम सीमा को पहुँचती गई। वह धार्मिक रस्मों रीतियों और अंधविश्वासों पर ज़ियादा ज़ोर देने लगी। ताल्स्ताय को यह बात पसंद नहीं थी। वे धर्म को दर्शन-शास्त्र के रूप में देखते थे।
धार्मिक चित्रों के अलावा दीवारों पर और भी बहुत-से चित्र थे। ताल्स्ताय की जवानी से बुढ़ापे तक के चित्र वहाँ लगे हुए थे। उन्हें देखकर हमें बहुत आनंद आया। एक-दो चित्र उस ज़माने के भी थे जब ताल्स्ताय फ़ौजी अफ़सर थे। उन चित्रों में उन्होंने फ़ौजी वर्दी पहनी हुई थी।
गाइड : यह चित्र इस बात का सबसे अच्छा सबूत है कि श्रीमती ताल्स्ताय का जीवन अपने पति और बच्चों के गिर्द घूमता था। परिवार का एक-एक चित्र उसने संभालकर रखा हुआ है। ताल्स्ताय की मृत्यु के नौ साल बाद तक वह इस घर में रही। अपने पति के घर से निकल जाने, सर्दी में भटकने और मर जाने का उसे बहुत दुःख था। वह ख़ुद को उनकी मौत की ज़िम्मेदार समझती थी। आख़िर इसी कमरे में उनकी मृत्यु हुई थी। अगर पति-पत्नी का आपस में प्यार न होता तो वह अकेली यहाँ कभी न रहती, जबकि वह आसानी से मास्को में रह सकती थी। इन सब बातों को देखकर इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि ताल्स्ताय का घर छोड़कर चले जाना उनकी मानसिक अशांति का परिणाम था और कुछ नहीं।
ऊपरी मंज़िल पर, एक तरफ़ ताल्स्ताय के सेक्रेट्री का कमरा था, जो बरामदे में पुस्तकों की अलमारियों की दीवार बनाकर तैयार किया गया था। ताल्स्ताय की लाइब्रेरी में कई भाषाओं की दस हज़ार से ज़ियादा पुस्तकें थीं।
मैंने सोचा कि ताल्स्ताय बहुत ख़ुशक़िस्मत आदमी थे। अच्छे अमीर माता-पिता के घर में जन्म हुआ था उनका। कई हज़ार एकड़ ज़मीन उन्हें विरसे में मिली थी, जिसमें सफ़ेदे के सुंदर जंगल और बाग़ थे। शहर की भागदौड़ और पैसा कमाने की मजबूरी से दूर थे वे। पचास साल तक निश्चिंत होकर रहने और लिखने का समय मिला था उन्हें। ऐसी क़िस्मत कितने लेखकों की हो सकती है?
लेकिन नहीं, लिखने के लिए सुख-सुविधा ही काफ़ी नहीं होती। वह तो प्रतिभा और लगन की पैदावार है। अपने विचारों और आदर्शों के अनुसार निडर होकर अपने जीवन को ढालने की शक्ति थी ताल्स्ताय में।
गाइड के कुछ और दिलचस्प बातें बताई। ताल्स्ताय की मृत्यु 1610 में हुई थी और उनकी पत्नी की 1616 में। ये नौ साल रुस में बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल के साथ थे। कई दोस्तों ने श्रीमती ताल्स्ताय को ज़मीन और मकान बेचकर शहर में रहने की राय दी थी। लेकिन वह नहीं गई थी। हर प्रकार की आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उसने मकान नहीं बेचा था, क्योंकि उसके साथ उसके पति की यादें जुड़ी हुई थी। इंक़लाब के बाद तो उसे किसी ओर से भी सहायता की आशा नहीं रही थी। लेकिन जब लेनिन ख़ुद उसके यहाँ गए और उसकी ख़बर ली और उसकी अच्छी तरह देखभाल करने का उन्होंने हुक्म दिया तो वह हैरान रह गई।
फिर गाइड ने आलमारी पर उलटी पड़ी हुई एक फ़ोटो उठाकर हमें दिखाई, जिससे प्रकट होता था कि जर्मनों ने इस घर की कैसी दुर्दशा की थी, उसे ख़ाली देखकर उन्होंने उसे फ़ौजी बैरक बना दिया था, हालाँकि वे अच्छी तरह जानते थे कि वह ताल्स्ताय का घर है। सिपाहियों ने फ़र्शों पर आग जलाई थी। आज जर्मनी में कई लोग उस बात को मानने के तैयार नहीं हैं। लेकिन वह फ़ोटो इस बात की गवाह है। वह उस दिन खींची गई थी जब रूसियों ने दोबारा उस घर में प्रवेश किया था।
वहाँ से नीचे आकर हमने फिर उसी ड्योड़ी को देखा, जहाँ बूटों पर चमड़े के ग़िलाफ़ चढ़ाएँ थे। वह स्थान लाइब्रेरी का मुख्य भाग था। उसके पीछे कई और कमरे थे। वह स्थान लाइब्रेरी का मुख्य भाग था। उसके पीछे कई और कमरे थे। ठीक पीछे वह कमरा या जहाँ तालस्ताय के शव के अंतिम दर्शन के लिए दिन-भर बाहरी दरवाज़े से आकर पिछले दरवाज़े से निकल जाते रहे थे। इसके साथ वाले दूसरे को तालस्ताय ने अन्ना कैरानीना लिखने के लिए इस्तेमाल किया था। उससे आगे वह कमरा था, जो उस घर में लेखक को सबसे प्रिय था। उसे दे मेहरावें-सी बनी हुई थीं। पहले वह एक गोदाम के रूप में उपयोग में लाया जाता था। लेकिन तालस्ताय साफ़ करवाकर उसे लिखने का कमरा बना लिया था। उसी में उन्होंने अपना महान उपन्यास युद्ध और शांति लिखा था। कमरे का दरवाज़ा और खिड़कियाँ बाहर बाग़ की ओर खुलते थे, जहाँ सफ़ेदे, चीड़ और वैद के वृक्ष लगे हुए थे। वह बाग़ तालस्ताय के मन में बड़ा सुखद अनुभव पैदा करता होगा।
पक्षी उड़ गया था और हम उसका पिंजरा देख रहे थे। बाहर बर्फ़ गिर रही थी। धरती दूधिया सफ़ेद बनी हुई थी। बर्फ़ पेड़ों की शाख़ाओं पर अटक जाती थी। गर्मी के मौसम यह बाग़ कितना सुंदर होता होगा। अपने उपन्यास के पात्रों को मन में बसाकर इस बाग़ में घूमना लेखक को कितना अच्छा लगता होगा। इसीलिए तो वे ‘युद्ध और शांति’ जैसे इतने बड़े उपन्यास का लंबा सफल तय कर पाए।
उस घर के दो फ़र्लांग के फासले पर उन्हीं जंगलों में, जो तालस्ताय की अपनी मिलकियत थे और जिनमें वे अपने मुज़ारों के साथ मिलकर लकड़ियाँ चीरते और दूसरे काम किया करते थे, तालस्ताय हमेशा की नींद में सोए पड़े हैं। एक खाई पर ज़मीन की तीन तहें आकर मिलती हैं। राजपूत शैली के चित्रों में धरती की तहें इसी प्रकार गोल आकार की खींची जाती है। सबसे ऊपरी तह पर तालस्ताय की सादी-सी क़ब्र है। उसके ऊपर कोई सलीब नहीं है, कोई संगमरमर का पत्थर नहीं है, न ही कोई चबूतरा है और न ही वहाँ कुछ लिखा हुआ है। बस एक डिब्बा-सा है, जिसपर घास उगी हुई है। वह स्थान तालस्ताय ने अपनी क़ब्र के लिए खुद चुना था। वहाँ वे अपने बचपन के दोस्तों के साथ खेला करते थे। उन्हें नर्म घास पर फिसलना बहुत अच्छा लगता था। बचपन में तालस्ताय को यक़ीन था कि वहाँ कोई जादू की लकड़ी दबी पड़ी है। अगर वह मिल जाए तो जीवन में मनुष्य की सभी इच्छाएँ पूरी हो सकती है। जिस जगह उन्हें बचपन में लकड़ी के दबे हुए होने का यक़ीन था, उसी को उन्होंने अपने दफ़नाए जाने के लिए चुना था।
talstay jaise mahan wekti ka khayal aate hi man mein se chhote chhote sankuchit qim ke wichar nikal jate hain, aur man irshya dwesh se chhutkara pakar unchi uDan bharne lagta hai talstay ne sansar ke sarwottam upanyas likhe hain unke wicharon ne gandhi ji jaise mahan wekti ke jiwan ko jhakjhora aur naya moD diya, jiska prabhaw karoDon hindustani apne jiwan mein mahsus karte hain mujhe gandhiji ke charnon mein baithne ka, unke ashram mein rahkar kaam karne ka saubhagya prapt hua tha aur ye bhi mera saubhagya tha ki mujhe talstay ke niwas sthan ki yatra karne ka mauka mila is kritaj~nata ko prakat karne ke liye mere pas shabd nahin hain
subah khiDki mein se dekha, masco dariya jama hua tha barf abhi bhi paD rahi thi theek aath baje baykaf aa gaye aur unke pichhe pichhe baqi sathiyon ke sath parikshait bhi tha kal raat wo hamare hotel mein hi soya tha kamre mein dakhil hote hi parikshait ne kaha, wah dekhiye daddy, dariya mein jahaz kis tarah barf ko katta hua ja raha hai hum sab khiDki ke pas pahunch gaye sachmuch baDa anokha drishya tha
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khiDki ke pas baithe hue gopalan ko kahin se hawa lag rahi thi mainne socha, use yunhi wahm ho raha hai phir dekha ki kuch gaDbaD zarur thi darwaze ki kisi darar mein se barfani thanD gopalan ki tangon mein sui ki tarah chubh rahi thi tab ek bhed khula motor ko andar se garm rakhne wali machine kaam nahin kar rahi thi Draiwar ne bataya ki wo bigDi hui thi akhir kuch der ke baad hamari waisi hi haalat ban gai jaisi ki rephrijiretar mein paDi hui machhli ya mans ki hoti hai darwaze mein se aa rahi thanD ki gopalan ko koi chinta na rahi, kyonki ghutnon se lekar panwon tak ab donon tangen jaise bejan ban chuki theen kash, us samay koi photo khinchne wala hota kisi kisi samay hum siton par is prakar baithe hote, jaise namaz paDh rahe hon kisi prakar ke bhi aasan mein aram nahin mil raha tha jab kisi ek ki haalat ziyada bigaDti, hum use aage ki seat par baitha dete, jahan kar ka engine nazdik hone ke karan kuch garmi thi bahar door door tak barf hi barf dikhai de rahi thi kahin kahin barf ke jangal dikhai dete kuch aage jane par ek qasba aaya chhote chhote, khilaunon jaise ghar dikhai diye aise laga, jaise koi fauji kaimp ho ek or kafi baDi faiktri thi, jiska dhuwan sardi ke karan sust sa hokar dharti par letta ja raha tha nazdik hi koi dariya tha, jo puri tarah jama hua nahin tha wo bhi thanDa dhuwan sa chhoDe ja raha tha kahin kahin donon dhuen aapas mein mil rahe the hamne motor rukwai aur photo khinchi mainne gyani ji se kaha, yahan ke gharib logon ke samne inqalab karne ke alawa aur chara hi kya tha?
jawab mein gyani ji ne ek bahut achchha sher sunaya, jiska arth tha ha gharib ki jhonpaDi mein sirf uske ansuon ke parkash se raushani hoti hai, lekin us raushani mein hazaron inqalab chhipe hue hote hain
dhyan talstay ke upanyason ki or chala gaya unmen har mausam ke bahut sundar prakritik warnan milte hain—khas taur par anna kairanina mein anna kairanina aur punarjagarn upanyason ke patr kabhi inhin barfon par apni slejen (barf gaDiyan) idhar udhar dauDaya karte the, jinke aage jute hue ghoDon ki ghantiyan baja karti theen
tula namak shahr guzra phutpathon par matayen slejanuma qim ki bachcha gaDiyon mein apne bachchon ko sair kara rahi theen shayad garmiyon mein inhin gaDiyon ke nichle DanDe nikalkar pahiye laga diye jate honge ek wekti sledge par gharelu saman lade ja raha tha libas sabka european qim ka tha han, kahin kahin hat ki jagah kashtinuma postin ki topiyan bhi dekhne mein aa rahi theen
wahan se lagbhag bees meel ka safar tay karke hum yasnaya polyana pahunch gaye aur ishwar ka dhanyawad kiya
motor se utarkar hum pahle lakDi ke bane ek shade mein dakhil hue kya yahi talstay ki kutiya thee? lekin nahin we to, suna hai bahut dhanwan the baramde mein unke chitr, pustken aur bille (coat par laganewale) bik rahe the hamne we kharide itne mein baykaf ne phir motor mein baithne ki saza sunai ab motor ek baDe phatak ke andar dakhil hui taza barf se Dhaki hui saDak par se chalti hui motor ek aur imarat ke samne jakar ruki uske samne guide khaDa tha baykaf ne phone karke use hamare pahunchne ki suchana di thi barf par khaDe khaDe parichai karaya gaya we sajjan yasnaya polyana ki sowiyat hind mitrata sanstha ke pardhan the talstay ki sari zamin jayadad aadi ko ab ek qaumi yadgar qarar de diya gaya hai we sajjan uske Dayarektar the unhonne rusi sahity ki unchi degreeyan prapt ki hui theen talstay par thisis likhkar Dauktret ki degre li thi hamara saubhagya tha ki aisa widwan wekti hamein guide bankar sab kuch dikhane wala tha
unhonne program bataya ha pahle is imarat mein ek prdarshini dekhenge phir us imarat mein jayenge jahan talstay ne apni umr ke pachas sal bitaye the uske baad unki qabr dekhne jayenge wahan se lautne par khana khayenge
hamne khushi se program manzur kar liya hum chahte the ki jald se jald kisi garm sthan mein pahunchakar tangon ko aram pahuncha saken
khushqismti se wo imarat andar se garm thi talstay pariwar uska godam ke roop mein upyog karta tha ab wahan talstay ke wyaktitw ke wibhinn pakshon ko lekar prdarshaniyan ki jati hain us samay jo pradarshani lagi hui thi wo un chitron ki thi, jo talstay ki bachchon aur kisanon ke bare mein likhi hui kahaniyon ke adhar par banaye gaye the kahaniyon aur unke patron se parichit na hone ke karan hum pradarshani mein ziyada dilchaspi na le sake dusri taraf, mezon par talstay likhit pustakon aur pustikaon ki bharmar lagi hui thi ek thi rusi bhasha kaise sikhen ek ganait sambandhi thi isi prakar any kai wibhinn wishyon sambandhi theen guide ne unmen se kewal chaar panch ke hi nam bataye lekin dusre kamre mein mainne parikshait se kuch aur pustakon ke rusi namon ke bare mein jana main hairan tha ki ek upanyasakar ne bachchon aur dehati logon ki shiksha ke liye kitni mehnat ki thi, kitni pathay pustken likhi theen iske ulat, hamare desh ke lekhak kisi dusri bhasha ki achchhi pustak ka apni bhasha mein anuwad karna apna apman samajhte hain
dudhiya safed barf par chalte hue hum mukhy imarat ki or gaye raste mein ek shila dekhi, jispar kuch likha hua tha guide ne bataya ki us sthan par ek bahut baDa makan hota tha uski jagah, nishani ke taur par, wo shila laga di gai thi akhir hum mukhy imarat ke darwaze par pahunche dayen hath par mazbut peD dekha, jo ek or ko jhuka hua tha use ek lakDi se sahara diya gaya tha kuch rusi naujawan imarat mein se nikalkar us peD ki or gaye unmen se ek pagalon ki tarah unchi awaz mein kuch bolne laga beech beech mein talstay shabd sunai deta use dekhkar ajib sa laga aur achchha prabhaw nahin paDa jab hum uske nikat pahunche to wo naujawan ekayek chup ho gaya wo pure hosh mein tha hamne puchha to nahin, lekin janne ki ichha zarur hui ki wo kya bol raha tha pata laga ki us peD ka bhi talstay ke jiwan se gahra sambandh tha subah ke samay uske niche baithkar we kisanon se mila karte the, goshthiyan kiya karte the apne upanyason aur kahaniyon ke kitne hi patr unhonne us peD ke niche baithkar apni kalpana mein sakar kiye the
guide ne talstay ka rojnamcha sunaya subah aath baje uthna, kuch paDhna, phir nahakar nashta karna das baje we likhne baith jate the aur do baje tak likhte rahte the dopahar ke khane ke baad we logon se milte the, paDhte the we 16 bhashayen jante the, jinmen ek bhasha arbi bhi thi maut se pahle we japani bhasha seekh rahe the sangit ka unhen behad shauq tha buDhape mein unhonne sangit sikhna shuru kar diya tha sangit ko we sab kalaon se uncha sthan dete the parantu kawita se unka koi lagaw nahin tha aur ye sachmuch bahut hi ajib baat hai shakespeare aur gete jaise kawiyon ko bhi we pasand nahin karte the
hum imarat ke andar dakhil hue DyoDhi jise angrezi mein haal kaha jata hai, logon ki bheeD se bhari hui bhi pata laga ki har sal wahan ek lakh darshak aate hain bheeD mein do fauji afsar bhi the, jo bahut robadar dikhai de rahe the wahan har ek darshak ko tokari mein paDe chamDe ke gilaf uthakar apne buton par chaDhane paDte hain, taki farsh kharab na ho hum siDhiyan chaDhkar upar ki manzil par pahunche wahan ek bagghi dekhi, jispar sawar hokar talstay ki patni apne buDhape ki umr mein bahar jaya karti thi phir Daining room dekha aaj ke zamane ke hisab se talstay ka rahan sahn bahut sada pratit hua, lekin utna sada nahin, jitna gandhi ji ya tagore ka tha ek kone mein piano paDa hua tha aur dusre kone mein gramophone khana khane ki mez bahut baDi thi aur uske gird aath das kursiyan paDi hui theen platen, chhuri kante, naipkin aadi chizen jis Dhang se istemal hoti theen, usi tarah rakhi hui theen aise lag raha tha, jaise talstay pariwar abhi abhi khane ke liye baithnewala ho mez ke pas ek chhote si mez par samawar rakha hua tha mez se kuch door, diwar ke pas ek sofa paDa tha ek aram kursi thi kuch aur kursiyan bhi paDi hui theen is bhag mein chay pi jati thi kamre ka ek dusra kona goshthi karne ke liye tha, jahan jamuni rang ke chamDe se maDhe hue sofon kursiyon ke beech mein ek gol mez rakhi hui thi wahan talstay apne khas jigri doston se mila karte the diwar par unki betiyon ke, unki jawani ke zamane ke chitr tange hue the, jo us samay prasiddh chitrkaron dwara banwaye gaye the prasiddh chitrkar repin talstay ka bahut pyara dost tha repin ne talstay ke buDhape ke dinon ka ek chitr banaya tha, jo aam taur par pustakon mein paya jata hai wo chitr bhi diwar par tanga hua tha ek aur chitr zamane ka tha, jab talstay anna kairanina likh rahe the, aur unki umr lagbhag pachas warsh ki thi
us kamre mein se guzarkar hum imarat ke pichhle baramde mein pahunche usmen bhi goshthi ke liye ek jagah bani hui thi aage ek chhota sa kamra tha, jahan talstay apni umr ke antim dinon mein baithkar likha karke the wahin se we ek din bechaini ki haalat mein uthkar ghar se nikal gaye the aur lautkar nahin aaye the us samay unki umr 82 warsh ki thi us umr mein bhi unki sehat bahut achchhi thi agar we ghar chhoDkar na chale jate, to we kam se kam das sal tak aur zinda rahte
hamne dekha ki likhne ki mez ke pas paDi hui kursi nichi thi guide ne bataya ki talstay ki nazar bahut kamzor thi, lekin unhen ainak lagana pasand nahin tha likhte samay unke chehre aur kaghaz ke beech mein bahut hi kam fasla hota isiliye we itni nichi kursi ka prayog karte the mez ke pichhe ek diwan paDa tha, jis par we aram kiya karte the angihti par kuch pustken paDi theen, jinmen se do pustken kholkar ulti rakhi hui thi guide ne bataya ki we pustken aur any chizen hu ba hu usi haalat mein paDi hui hain jis haalat mein ki talstay unhen chhoDkar gaye the talstay ki patni ne kisi bhi cheez ko apni jagah se hataya nahi tha jab dwitiy wishwayuddh mein german faujen la ke pas pahunch gai theen to talstay ke ghar ki har ek cheez ko baDi sawadhani se desh ke pichhle bhag mein bhej diya gaya tha yudh khatm hone ke baad sabhi chizen phir usi haalat mein lakar rakh di gai theen angihti par paDi hui pustakon mein koi islam ke bare mein thi, koi bauddh dharm ke bare mein unke upar ek shelf rusi bhasha mein likhit wishwkosh ki jildon se bhari paDi thi
uske aage lekhak ka sone ka kamra tha had darje ki sadgi nazar i wahan ek shelf par desi qim ki dawaiyon ki botalen paDi theen wyayam karne ke liye Dambal the, aur sair ka sathi ek mota DanDa ek aisi chhaDi thi, jise upar se kholkar baithne ke liye bhi istemal kiya ja sakta tha chamDe ki petiyan diwaron par tangi hui theen ek mez par munh hath dhone ke liye chilamchi aur jag tha ek kone mein diwar ke sath laga hua lohe ka palang tha guide ne ek photo ki or hamara dhyan dilaya, jo talstaya ne mirtyu se kuch hi pahle ek waij~nanik ke sath isi palang par baithkar khinchwai thi photo mein talstay ke chehre par thakawat aur ankhon mein bechaini nazar aati thi
wahan kaam karne wali ek buDhi istri ne aakar kaha ki usne talstay ki pali ke sone ke kamre ka darwaza bhi khol diya hai guide ne hamein bataya ki ye kamra aam logon ko nahin dikhaya jata, kyonki imarat ka wo bhag pichhli jang mein bahut kamzor ho chuka hai kamre mein prawesh karne se pahle unhonne talstay ki patni ke bare mein kuch jankari dena zaruri samjha unhonne kaha ha
“yah baat bilkul bebuniyad hai ki talstay ki apni patni se anban thi agar aisa hota to we pachas sal uske sath ek chhat ke niche na guzar sakte isi ghar mein wo talstay ke terah bachchon ki man bani thi talstay se wo umr mein solah sal chhoti thi
gopalan ha kaha jata hai ki anna kairanina mein kiti ka patr talstay ki pali par adharit hai is upanyas mein talstay ne apne jiwan ki bahut si wyaktigat baton ka zikr kiya hai, jiske liye unki pali naraz thi
guide ha kisi had tak main is baat ko manata hoon, lekin phir bhi kahunga ki jab aap is kamre mein ghumen to ek cheez ko dhyan se dekhiyega baad mein hum phir is wishay par baten karenge europe mein talstay ke kai alochkon ne is baat ko bahut baDha chaDhakar pesh kiya hai
so hamne wo kamra jasusonwali nazar se dekha, lekin koi khas rahasy bhari baat hamein dikhai nahin di guide ne phir kaha ha
is kamre ki chizon se aapko shirimati talastay ka charitr saf nazar aa sakta hai un chijon se—khas kar diwar par tange hae chitron se aap is baat ko baDi asani se andaza laga sakte hain ki wo kis had tak isai dharm ko manne wali istri thi wo jyon jyon buDhape mein prawesh karti gai uski dharmikta apni charam sima ko pahunchti gai wo dharmik rasmon ritiyon aur andhwishwason par ziyada zor dene lagi talstay ko ye baat pasand nahin thi we dharm ko darshan shastr ke roop mein dekhte the
dharmik chitron ke alawa diwaron par aur bhi bahut se chitr the talstay ki jawani se buDhape tak ke chitr wahan lage hue the unhen dekhkar hamein bahut anand aaya ek do chitr us zamane ke bhi the jab talstay fauji afsar the un chitron mein unhonne fauji wardi pahni hui thi
guide ha ye chitr is baat ka sabse achchha sabut hai ki shirimati talstay ka jiwan apne pati aur bachchon ke gird ghumta tha pariwar ka ek ek chitr usne sambhalkar rakha hua hai talstay ki mirtyu ke nau sal baad tak wo is ghar mein rahi apne pati ke ghar se nikal jane, sardi mein bhatakne aur mar jane ka use bahut duःkh tha wo khu ko unki maut ki zimmedar samajhti thi akhir isi kamre mein unki mirtyu hui thi agar pati patni ka aapas mein pyar na hota to wo akeli yahan kabhi na rahti, jabki wo asani se masco mein rah sakti thi in sab baton ko dekhkar is natije par pahunchna paDta hai ki talstay ka ghar chhoDkar chale jana unki manasik ashanti ka parinam tha aur kuch nahin
upri manzil par, ek taraf talstay ke sekretri ka kamra tha, jo baramde mein pustakon ki almariyon ki diwar banakar taiyar kiya gaya tha talstay ki library mein kai bhashaon ki das hazar se ziyada pustken theen
mainne socha ki talstay bahut khushqismat adami the achchhe amir mata pita ke ghar mein janm hua tha unka kai hazar acre zamin unhen wirse mein mili thi, jismen safede ke sundar jangal aur bagh the shahr ki bhagdauD aur paisa kamane ki majburi se door the we pachas sal tak nishchint hokar rahne aur likhne ka samay mila tha unhen aisi qimat kitne lekhkon ki ho sakti hai?
lekin nahin, likhne ke liye sukh suwidha hi kafi nahin hoti wo to pratibha aur lagan ki paidawar hai apne wicharon aur adarshon ke anusar niDar hokar apne jiwan ko Dhalne ki shakti thi talstay mein
guide ke kuch aur dilchasp baten batai talstay ki mirtyu 1610 mein hui thi aur unki patni ki 1616 mein ye nau sal rus mein bahut baDi rajanaitik uthal puthal ke sath the kai doston ne shirimati talstay ko zamin aur makan bechkar shahr mein rahne ki ray di thi lekin wo nahin gai thi har prakar ki arthik kathinaiyon ke bawjud usne makan nahin becha tha, kyonki uske sath uske pati ki yaden juDi hui thi inqalab ke baad to use kisi or se bhi sahayata ki aasha nahin rahi thi lekin jab lenin khu uske yahan gaye aur uski khabar li aur uski achchhi tarah dekhbhal karne ka unhonne hukm diya to wo hairan rah gai
phir guide ne almari par ulti paDi hui ek photo uthakar hamein dikhai, jisse prakat hota tha ki jarmnon ne is ghar ki kaisi durdasha ki thi, use khali dekhkar unhonne use fauji bairak bana diya tha, halanki we achchhi tarah jante the ki wo talstay ka ghar hai sipahiyon ne farshon par aag jalai thi aaj jarmni mein kai log us baat ko manne ke taiyar nahin hain lekin wo photo is baat ki gawah hai wo us din khinchi gai thi jab rusiyon ne dobara us ghar mein prawesh kiya tha
wahan se niche aakar hamne phir usi DyoDi ko dekha, jahan buton par chamDe ke ghilaf chaDhayen the wo sthan library ka mukhy bhag tha uske pichhe kai aur kamre the wo sthan library ka mukhy bhag tha uske pichhe kai aur kamre the theek pichhe wo kamra ya jahan talastay ke shau ke antim darshan ke liye din bhar bahari darwaze se aakar pichhle darwaze se nikal jate rahe the iske sath wale dusre ko talastay ne anna kairanina likhne ke liye istemal kiya tha usse aage wo kamra tha, jo us ghar mein lekhak ko sabse priy tha use de mehrawen si bani hui theen pahle wo ek godam ke roop mein upyog mein laya jata tha lekin talastay saf karwakar use likhne ka kamra bana liya tha usi mein unhonne apna mahan upanyas yudh aur shanti likha tha kamre ka darwaza aur khiDkiyan bahar bagh ki or khulte the, jahan safede, cheeD aur waid ke wriksh lage hue the wo bagh talastay ke man mein baDa sukhad anubhaw paida karta hoga
pakshi uD gaya tha aur hum uska pinjra dekh rahe the bahar barf gir rahi thi dharti dudhiya safed bani hui thi barf peDon ki shakhaon par atak jati thi garmi ke mausam ye bagh kitna sundar hota hoga apne upanyas ke patron ko man mein basakar is bagh mein ghumna lekhak ko kitna achchha lagta hoga isiliye to we ‘yudh aur shanti’ jaise itne baDe upanyas ka lamba saphal tay kar pae
us ghar ke do farlang ke phasle par unhin jangalon mein, jo talastay ki apni milkiyat the aur jinmen we apne muzaron ke sath milkar lakDiyan chirte aur dusre kaam kiya karte the, talastay hamesha ki neend mein soe paDe hain ek khai par zamin ki teen tahen aakar milti hain rajput shaili ke chitron mein dharti ki tahen isi prakar gol akar ki khinchi jati hai sabse upri tah par talastay ki sadi si qabr hai uske upar koi salib nahin hai, koi sangmarmar ka patthar nahin hai, na hi koi chabutara hai aur na hi wahan kuch likha hua hai bus ek Dibba sa hai, jispar ghas ugi hui hai wo sthan talastay ne apni qabr ke liye khud chuna tha wahan we apne bachpan ke doston ke sath khela karte the unhen narm ghas par phisalna bahut achchha lagta tha bachpan mein talastay ko yaqin tha ki wahan koi jadu ki lakDi dabi paDi hai agar wo mil jaye to jiwan mein manushya ki sabhi ichhayen puri ho sakti hai jis jagah unhen bachpan mein lakDi ke dabe hue hone ka yaqin tha, usi ko unhonne apne dafnaye jane ke liye chuna tha
talstay jaise mahan wekti ka khayal aate hi man mein se chhote chhote sankuchit qim ke wichar nikal jate hain, aur man irshya dwesh se chhutkara pakar unchi uDan bharne lagta hai talstay ne sansar ke sarwottam upanyas likhe hain unke wicharon ne gandhi ji jaise mahan wekti ke jiwan ko jhakjhora aur naya moD diya, jiska prabhaw karoDon hindustani apne jiwan mein mahsus karte hain mujhe gandhiji ke charnon mein baithne ka, unke ashram mein rahkar kaam karne ka saubhagya prapt hua tha aur ye bhi mera saubhagya tha ki mujhe talstay ke niwas sthan ki yatra karne ka mauka mila is kritaj~nata ko prakat karne ke liye mere pas shabd nahin hain
subah khiDki mein se dekha, masco dariya jama hua tha barf abhi bhi paD rahi thi theek aath baje baykaf aa gaye aur unke pichhe pichhe baqi sathiyon ke sath parikshait bhi tha kal raat wo hamare hotel mein hi soya tha kamre mein dakhil hote hi parikshait ne kaha, wah dekhiye daddy, dariya mein jahaz kis tarah barf ko katta hua ja raha hai hum sab khiDki ke pas pahunch gaye sachmuch baDa anokha drishya tha
hum niche khane wale kamre mein gaye jaldi jaldi nashta kiya, jo sada bhi tha aur swadisht bhi dahi se bhare hue gilas aur panir se guthe hue maide ke mote peDe, jinpar jam lagakar khane ki baykaf ne sifarish ki theth rusi qim ka nashta tha wo aur gyani ji jaise theth punjabi wekti ke to bahut hi anukul we kahne lage, balraj ji, mera bus chale to apne mulk mein khane pine ki chizon ka to ekdam rashtriyakarn kar doon wahan to hamein zahr khilai ja rahi hai
aj goluwyew ko hamare sath nahin jana tha, aur baykaf sirf angrezi jante the hum nishchint hokar hindi aur punjabi mein bol sakte the
sau meel ke us safar ke liye ek baDi, lekin purani chaika kar ka parbandh kiya gaya tha gyani ji aage baith gaye, beech ki do stool jaisi siton par baykaf aur parikshait baithe, aur pichhli seat par hum baqi ke teen wekti raste mein hindustani aur rusi chutakulon ka muqabala hone laga, jismen baykaf aur parikshait baDh baDhkar hissa lene lage awashy unmen kuch chutakle ashlil bhi the
khiDki ke pas baithe hue gopalan ko kahin se hawa lag rahi thi mainne socha, use yunhi wahm ho raha hai phir dekha ki kuch gaDbaD zarur thi darwaze ki kisi darar mein se barfani thanD gopalan ki tangon mein sui ki tarah chubh rahi thi tab ek bhed khula motor ko andar se garm rakhne wali machine kaam nahin kar rahi thi Draiwar ne bataya ki wo bigDi hui thi akhir kuch der ke baad hamari waisi hi haalat ban gai jaisi ki rephrijiretar mein paDi hui machhli ya mans ki hoti hai darwaze mein se aa rahi thanD ki gopalan ko koi chinta na rahi, kyonki ghutnon se lekar panwon tak ab donon tangen jaise bejan ban chuki theen kash, us samay koi photo khinchne wala hota kisi kisi samay hum siton par is prakar baithe hote, jaise namaz paDh rahe hon kisi prakar ke bhi aasan mein aram nahin mil raha tha jab kisi ek ki haalat ziyada bigaDti, hum use aage ki seat par baitha dete, jahan kar ka engine nazdik hone ke karan kuch garmi thi bahar door door tak barf hi barf dikhai de rahi thi kahin kahin barf ke jangal dikhai dete kuch aage jane par ek qasba aaya chhote chhote, khilaunon jaise ghar dikhai diye aise laga, jaise koi fauji kaimp ho ek or kafi baDi faiktri thi, jiska dhuwan sardi ke karan sust sa hokar dharti par letta ja raha tha nazdik hi koi dariya tha, jo puri tarah jama hua nahin tha wo bhi thanDa dhuwan sa chhoDe ja raha tha kahin kahin donon dhuen aapas mein mil rahe the hamne motor rukwai aur photo khinchi mainne gyani ji se kaha, yahan ke gharib logon ke samne inqalab karne ke alawa aur chara hi kya tha?
jawab mein gyani ji ne ek bahut achchha sher sunaya, jiska arth tha ha gharib ki jhonpaDi mein sirf uske ansuon ke parkash se raushani hoti hai, lekin us raushani mein hazaron inqalab chhipe hue hote hain
dhyan talstay ke upanyason ki or chala gaya unmen har mausam ke bahut sundar prakritik warnan milte hain—khas taur par anna kairanina mein anna kairanina aur punarjagarn upanyason ke patr kabhi inhin barfon par apni slejen (barf gaDiyan) idhar udhar dauDaya karte the, jinke aage jute hue ghoDon ki ghantiyan baja karti theen
tula namak shahr guzra phutpathon par matayen slejanuma qim ki bachcha gaDiyon mein apne bachchon ko sair kara rahi theen shayad garmiyon mein inhin gaDiyon ke nichle DanDe nikalkar pahiye laga diye jate honge ek wekti sledge par gharelu saman lade ja raha tha libas sabka european qim ka tha han, kahin kahin hat ki jagah kashtinuma postin ki topiyan bhi dekhne mein aa rahi theen
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khushqismti se wo imarat andar se garm thi talstay pariwar uska godam ke roop mein upyog karta tha ab wahan talstay ke wyaktitw ke wibhinn pakshon ko lekar prdarshaniyan ki jati hain us samay jo pradarshani lagi hui thi wo un chitron ki thi, jo talstay ki bachchon aur kisanon ke bare mein likhi hui kahaniyon ke adhar par banaye gaye the kahaniyon aur unke patron se parichit na hone ke karan hum pradarshani mein ziyada dilchaspi na le sake dusri taraf, mezon par talstay likhit pustakon aur pustikaon ki bharmar lagi hui thi ek thi rusi bhasha kaise sikhen ek ganait sambandhi thi isi prakar any kai wibhinn wishyon sambandhi theen guide ne unmen se kewal chaar panch ke hi nam bataye lekin dusre kamre mein mainne parikshait se kuch aur pustakon ke rusi namon ke bare mein jana main hairan tha ki ek upanyasakar ne bachchon aur dehati logon ki shiksha ke liye kitni mehnat ki thi, kitni pathay pustken likhi theen iske ulat, hamare desh ke lekhak kisi dusri bhasha ki achchhi pustak ka apni bhasha mein anuwad karna apna apman samajhte hain
dudhiya safed barf par chalte hue hum mukhy imarat ki or gaye raste mein ek shila dekhi, jispar kuch likha hua tha guide ne bataya ki us sthan par ek bahut baDa makan hota tha uski jagah, nishani ke taur par, wo shila laga di gai thi akhir hum mukhy imarat ke darwaze par pahunche dayen hath par mazbut peD dekha, jo ek or ko jhuka hua tha use ek lakDi se sahara diya gaya tha kuch rusi naujawan imarat mein se nikalkar us peD ki or gaye unmen se ek pagalon ki tarah unchi awaz mein kuch bolne laga beech beech mein talstay shabd sunai deta use dekhkar ajib sa laga aur achchha prabhaw nahin paDa jab hum uske nikat pahunche to wo naujawan ekayek chup ho gaya wo pure hosh mein tha hamne puchha to nahin, lekin janne ki ichha zarur hui ki wo kya bol raha tha pata laga ki us peD ka bhi talstay ke jiwan se gahra sambandh tha subah ke samay uske niche baithkar we kisanon se mila karte the, goshthiyan kiya karte the apne upanyason aur kahaniyon ke kitne hi patr unhonne us peD ke niche baithkar apni kalpana mein sakar kiye the
guide ne talstay ka rojnamcha sunaya subah aath baje uthna, kuch paDhna, phir nahakar nashta karna das baje we likhne baith jate the aur do baje tak likhte rahte the dopahar ke khane ke baad we logon se milte the, paDhte the we 16 bhashayen jante the, jinmen ek bhasha arbi bhi thi maut se pahle we japani bhasha seekh rahe the sangit ka unhen behad shauq tha buDhape mein unhonne sangit sikhna shuru kar diya tha sangit ko we sab kalaon se uncha sthan dete the parantu kawita se unka koi lagaw nahin tha aur ye sachmuch bahut hi ajib baat hai shakespeare aur gete jaise kawiyon ko bhi we pasand nahin karte the
hum imarat ke andar dakhil hue DyoDhi jise angrezi mein haal kaha jata hai, logon ki bheeD se bhari hui bhi pata laga ki har sal wahan ek lakh darshak aate hain bheeD mein do fauji afsar bhi the, jo bahut robadar dikhai de rahe the wahan har ek darshak ko tokari mein paDe chamDe ke gilaf uthakar apne buton par chaDhane paDte hain, taki farsh kharab na ho hum siDhiyan chaDhkar upar ki manzil par pahunche wahan ek bagghi dekhi, jispar sawar hokar talstay ki patni apne buDhape ki umr mein bahar jaya karti thi phir Daining room dekha aaj ke zamane ke hisab se talstay ka rahan sahn bahut sada pratit hua, lekin utna sada nahin, jitna gandhi ji ya tagore ka tha ek kone mein piano paDa hua tha aur dusre kone mein gramophone khana khane ki mez bahut baDi thi aur uske gird aath das kursiyan paDi hui theen platen, chhuri kante, naipkin aadi chizen jis Dhang se istemal hoti theen, usi tarah rakhi hui theen aise lag raha tha, jaise talstay pariwar abhi abhi khane ke liye baithnewala ho mez ke pas ek chhote si mez par samawar rakha hua tha mez se kuch door, diwar ke pas ek sofa paDa tha ek aram kursi thi kuch aur kursiyan bhi paDi hui theen is bhag mein chay pi jati thi kamre ka ek dusra kona goshthi karne ke liye tha, jahan jamuni rang ke chamDe se maDhe hue sofon kursiyon ke beech mein ek gol mez rakhi hui thi wahan talstay apne khas jigri doston se mila karte the diwar par unki betiyon ke, unki jawani ke zamane ke chitr tange hue the, jo us samay prasiddh chitrkaron dwara banwaye gaye the prasiddh chitrkar repin talstay ka bahut pyara dost tha repin ne talstay ke buDhape ke dinon ka ek chitr banaya tha, jo aam taur par pustakon mein paya jata hai wo chitr bhi diwar par tanga hua tha ek aur chitr zamane ka tha, jab talstay anna kairanina likh rahe the, aur unki umr lagbhag pachas warsh ki thi
us kamre mein se guzarkar hum imarat ke pichhle baramde mein pahunche usmen bhi goshthi ke liye ek jagah bani hui thi aage ek chhota sa kamra tha, jahan talstay apni umr ke antim dinon mein baithkar likha karke the wahin se we ek din bechaini ki haalat mein uthkar ghar se nikal gaye the aur lautkar nahin aaye the us samay unki umr 82 warsh ki thi us umr mein bhi unki sehat bahut achchhi thi agar we ghar chhoDkar na chale jate, to we kam se kam das sal tak aur zinda rahte
hamne dekha ki likhne ki mez ke pas paDi hui kursi nichi thi guide ne bataya ki talstay ki nazar bahut kamzor thi, lekin unhen ainak lagana pasand nahin tha likhte samay unke chehre aur kaghaz ke beech mein bahut hi kam fasla hota isiliye we itni nichi kursi ka prayog karte the mez ke pichhe ek diwan paDa tha, jis par we aram kiya karte the angihti par kuch pustken paDi theen, jinmen se do pustken kholkar ulti rakhi hui thi guide ne bataya ki we pustken aur any chizen hu ba hu usi haalat mein paDi hui hain jis haalat mein ki talstay unhen chhoDkar gaye the talstay ki patni ne kisi bhi cheez ko apni jagah se hataya nahi tha jab dwitiy wishwayuddh mein german faujen la ke pas pahunch gai theen to talstay ke ghar ki har ek cheez ko baDi sawadhani se desh ke pichhle bhag mein bhej diya gaya tha yudh khatm hone ke baad sabhi chizen phir usi haalat mein lakar rakh di gai theen angihti par paDi hui pustakon mein koi islam ke bare mein thi, koi bauddh dharm ke bare mein unke upar ek shelf rusi bhasha mein likhit wishwkosh ki jildon se bhari paDi thi
uske aage lekhak ka sone ka kamra tha had darje ki sadgi nazar i wahan ek shelf par desi qim ki dawaiyon ki botalen paDi theen wyayam karne ke liye Dambal the, aur sair ka sathi ek mota DanDa ek aisi chhaDi thi, jise upar se kholkar baithne ke liye bhi istemal kiya ja sakta tha chamDe ki petiyan diwaron par tangi hui theen ek mez par munh hath dhone ke liye chilamchi aur jag tha ek kone mein diwar ke sath laga hua lohe ka palang tha guide ne ek photo ki or hamara dhyan dilaya, jo talstaya ne mirtyu se kuch hi pahle ek waij~nanik ke sath isi palang par baithkar khinchwai thi photo mein talstay ke chehre par thakawat aur ankhon mein bechaini nazar aati thi
wahan kaam karne wali ek buDhi istri ne aakar kaha ki usne talstay ki pali ke sone ke kamre ka darwaza bhi khol diya hai guide ne hamein bataya ki ye kamra aam logon ko nahin dikhaya jata, kyonki imarat ka wo bhag pichhli jang mein bahut kamzor ho chuka hai kamre mein prawesh karne se pahle unhonne talstay ki patni ke bare mein kuch jankari dena zaruri samjha unhonne kaha ha
“yah baat bilkul bebuniyad hai ki talstay ki apni patni se anban thi agar aisa hota to we pachas sal uske sath ek chhat ke niche na guzar sakte isi ghar mein wo talstay ke terah bachchon ki man bani thi talstay se wo umr mein solah sal chhoti thi
gopalan ha kaha jata hai ki anna kairanina mein kiti ka patr talstay ki pali par adharit hai is upanyas mein talstay ne apne jiwan ki bahut si wyaktigat baton ka zikr kiya hai, jiske liye unki pali naraz thi
guide ha kisi had tak main is baat ko manata hoon, lekin phir bhi kahunga ki jab aap is kamre mein ghumen to ek cheez ko dhyan se dekhiyega baad mein hum phir is wishay par baten karenge europe mein talstay ke kai alochkon ne is baat ko bahut baDha chaDhakar pesh kiya hai
so hamne wo kamra jasusonwali nazar se dekha, lekin koi khas rahasy bhari baat hamein dikhai nahin di guide ne phir kaha ha
is kamre ki chizon se aapko shirimati talastay ka charitr saf nazar aa sakta hai un chijon se—khas kar diwar par tange hae chitron se aap is baat ko baDi asani se andaza laga sakte hain ki wo kis had tak isai dharm ko manne wali istri thi wo jyon jyon buDhape mein prawesh karti gai uski dharmikta apni charam sima ko pahunchti gai wo dharmik rasmon ritiyon aur andhwishwason par ziyada zor dene lagi talstay ko ye baat pasand nahin thi we dharm ko darshan shastr ke roop mein dekhte the
dharmik chitron ke alawa diwaron par aur bhi bahut se chitr the talstay ki jawani se buDhape tak ke chitr wahan lage hue the unhen dekhkar hamein bahut anand aaya ek do chitr us zamane ke bhi the jab talstay fauji afsar the un chitron mein unhonne fauji wardi pahni hui thi
guide ha ye chitr is baat ka sabse achchha sabut hai ki shirimati talstay ka jiwan apne pati aur bachchon ke gird ghumta tha pariwar ka ek ek chitr usne sambhalkar rakha hua hai talstay ki mirtyu ke nau sal baad tak wo is ghar mein rahi apne pati ke ghar se nikal jane, sardi mein bhatakne aur mar jane ka use bahut duःkh tha wo khu ko unki maut ki zimmedar samajhti thi akhir isi kamre mein unki mirtyu hui thi agar pati patni ka aapas mein pyar na hota to wo akeli yahan kabhi na rahti, jabki wo asani se masco mein rah sakti thi in sab baton ko dekhkar is natije par pahunchna paDta hai ki talstay ka ghar chhoDkar chale jana unki manasik ashanti ka parinam tha aur kuch nahin
upri manzil par, ek taraf talstay ke sekretri ka kamra tha, jo baramde mein pustakon ki almariyon ki diwar banakar taiyar kiya gaya tha talstay ki library mein kai bhashaon ki das hazar se ziyada pustken theen
mainne socha ki talstay bahut khushqismat adami the achchhe amir mata pita ke ghar mein janm hua tha unka kai hazar acre zamin unhen wirse mein mili thi, jismen safede ke sundar jangal aur bagh the shahr ki bhagdauD aur paisa kamane ki majburi se door the we pachas sal tak nishchint hokar rahne aur likhne ka samay mila tha unhen aisi qimat kitne lekhkon ki ho sakti hai?
lekin nahin, likhne ke liye sukh suwidha hi kafi nahin hoti wo to pratibha aur lagan ki paidawar hai apne wicharon aur adarshon ke anusar niDar hokar apne jiwan ko Dhalne ki shakti thi talstay mein
guide ke kuch aur dilchasp baten batai talstay ki mirtyu 1610 mein hui thi aur unki patni ki 1616 mein ye nau sal rus mein bahut baDi rajanaitik uthal puthal ke sath the kai doston ne shirimati talstay ko zamin aur makan bechkar shahr mein rahne ki ray di thi lekin wo nahin gai thi har prakar ki arthik kathinaiyon ke bawjud usne makan nahin becha tha, kyonki uske sath uske pati ki yaden juDi hui thi inqalab ke baad to use kisi or se bhi sahayata ki aasha nahin rahi thi lekin jab lenin khu uske yahan gaye aur uski khabar li aur uski achchhi tarah dekhbhal karne ka unhonne hukm diya to wo hairan rah gai
phir guide ne almari par ulti paDi hui ek photo uthakar hamein dikhai, jisse prakat hota tha ki jarmnon ne is ghar ki kaisi durdasha ki thi, use khali dekhkar unhonne use fauji bairak bana diya tha, halanki we achchhi tarah jante the ki wo talstay ka ghar hai sipahiyon ne farshon par aag jalai thi aaj jarmni mein kai log us baat ko manne ke taiyar nahin hain lekin wo photo is baat ki gawah hai wo us din khinchi gai thi jab rusiyon ne dobara us ghar mein prawesh kiya tha
wahan se niche aakar hamne phir usi DyoDi ko dekha, jahan buton par chamDe ke ghilaf chaDhayen the wo sthan library ka mukhy bhag tha uske pichhe kai aur kamre the wo sthan library ka mukhy bhag tha uske pichhe kai aur kamre the theek pichhe wo kamra ya jahan talastay ke shau ke antim darshan ke liye din bhar bahari darwaze se aakar pichhle darwaze se nikal jate rahe the iske sath wale dusre ko talastay ne anna kairanina likhne ke liye istemal kiya tha usse aage wo kamra tha, jo us ghar mein lekhak ko sabse priy tha use de mehrawen si bani hui theen pahle wo ek godam ke roop mein upyog mein laya jata tha lekin talastay saf karwakar use likhne ka kamra bana liya tha usi mein unhonne apna mahan upanyas yudh aur shanti likha tha kamre ka darwaza aur khiDkiyan bahar bagh ki or khulte the, jahan safede, cheeD aur waid ke wriksh lage hue the wo bagh talastay ke man mein baDa sukhad anubhaw paida karta hoga
pakshi uD gaya tha aur hum uska pinjra dekh rahe the bahar barf gir rahi thi dharti dudhiya safed bani hui thi barf peDon ki shakhaon par atak jati thi garmi ke mausam ye bagh kitna sundar hota hoga apne upanyas ke patron ko man mein basakar is bagh mein ghumna lekhak ko kitna achchha lagta hoga isiliye to we ‘yudh aur shanti’ jaise itne baDe upanyas ka lamba saphal tay kar pae
us ghar ke do farlang ke phasle par unhin jangalon mein, jo talastay ki apni milkiyat the aur jinmen we apne muzaron ke sath milkar lakDiyan chirte aur dusre kaam kiya karte the, talastay hamesha ki neend mein soe paDe hain ek khai par zamin ki teen tahen aakar milti hain rajput shaili ke chitron mein dharti ki tahen isi prakar gol akar ki khinchi jati hai sabse upri tah par talastay ki sadi si qabr hai uske upar koi salib nahin hai, koi sangmarmar ka patthar nahin hai, na hi koi chabutara hai aur na hi wahan kuch likha hua hai bus ek Dibba sa hai, jispar ghas ugi hui hai wo sthan talastay ne apni qabr ke liye khud chuna tha wahan we apne bachpan ke doston ke sath khela karte the unhen narm ghas par phisalna bahut achchha lagta tha bachpan mein talastay ko yaqin tha ki wahan koi jadu ki lakDi dabi paDi hai agar wo mil jaye to jiwan mein manushya ki sabhi ichhayen puri ho sakti hai jis jagah unhen bachpan mein lakDi ke dabe hue hone ka yaqin tha, usi ko unhonne apne dafnaye jane ke liye chuna tha
स्रोत :
पुस्तक : बलराज साहनी समग्र (पृष्ठ 534)
रचनाकार : बलराज साहनी
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