यमलोक का जीवन
yamlok ka jiwan
उत्तरी ध्रुव की ओर तक अनेक साहसी यूरोपियन गए हैं। तत्संबंधी ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत चेष्टाएँ हुई हैं, और अब तक हो भी रही हैं। उस वर्ष डाक्टर नानसन उत्तरी ध्रुव में बहुत दूर तक निकल गए। वहाँ तक और कोई नहीं गया था। अपने भ्रमण का वृतांत जो उन्होंने प्रकाशित किया है, वह बहुत ही मनोरंजक है। उत्तरी ध्रुव की ओर तो बहुत लोगों का ध्यान था; परंतु आज तक दक्षिणी ध्रुव में सैर करने और उसकी व्यवस्था जानने का विचार दो ही एक आदमियों के मन में आया था। विद्या और सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ नई-नई बातें जानने, नए-नए काम करने और नए-नए देशों का पता लगाने के लिए मनुष्यों की प्रवृति सहज ही हो रही है। इसी प्रवृति के कारण थोड़ी ही दूर जाकर उनको लौट आना पड़ा। लोगों का ख़याल था कि उत्तरी ध्रुव की जैसी दशा दक्षिणी ध्रुव की नहीं, वहाँ जानने के लिए कुछ विशेष बातें भी नहीं। परंतु कुछ काल से किसी-किसी को दूर तक दक्षिणी ध्रुव में जाने की उत्सुकता बहुत बढ़ गई। यहाँ तक कि कुछ जर्मन लोगों ने उस दिशा की ओर बड़े-बड़े जहाज़ो में प्रयाण भी किया। वे अभी तक वहीं हैं, उन्होंने दक्षिणी ध्रुव का बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त किया है। उनके भ्रमण-वृतांत के प्रकाशित होने पर वहाँ का विशेष हाल सुनने को मिलेगा। जर्मनी वालों की देखा-देखी इंगलैंड से भी कुछ लोग दक्षिणी ध्रुव की ओर गए हैं। इन लोगों को इंगलैंड की रॉयल सोसायटी ने भेजा है। जो लोग गए हैं वे अभी तक लौटे नहीं। उनमें से डॉ. शैकलटन बीमारी के कारण लौट आए हैं। उन्होंने लोगों के कौतूहल का निवारण करने के लिए इस चढ़ाई का संक्षिप्त वृतांत प्रकाशित किया है। उन्हीं के वृतांत के आधार पर इस दक्षिणी ध्रुव की चढ़ाई के संबंध में हम यह लेख लिख रहे हैं।
पौराणिकों का मत है कि दक्षिणी में यम का वास है; अथवा दक्षिण यम की दिशा है। इसलिए उसे वे याम्य दिशा कहते हैं। जब दक्षिणी याम्य दिशा हुई, तब यमलोक भी उसी तरफ़ हुआ। यही कारण है जो हमने इस लेख का नाम ‘यमलोक का जीवन’ रखा है। इस चढ़ाई का प्रबंध रॉयल सोसायटी और रॉयल जियोग्राफ़िकल सोसायटी ने किया। गर्वमेंट ने भी 6,75,000 रुपया देकर इसकी सहायता की। इसके लिए ‘डिस्कवरी' नाम का एक ख़ास जहाज़ तैयार किया गया। कप्तान स्कॉट उसके अधिकारी नियत हुए। यह धूमपोत इंग्लैंड के काउस स्थान से महाराज सातवें एडवर्ड और उनकी महारानी के सामने 6 अगस्त 1901 को छूटा। इस पर सरकारी सामुदायिक विभाग के चुने हुए 11 अफ़सर और 37 मनुष्य भेजे गए। उनके साथ उत्तरी ध्रुव के 23 कुत्ते भी भेजे गए। ये कुत्ते बर्फ़ के ऊपर छोटी-छोटी गाड़ियाँ खींचने के लिए थे।
1500 मील की यात्रा करके यह धूमपोत 9 जनवरी 1902 को दक्षिणी ध्रुव के किनारे पहुँचा। दक्षिणी ध्रुव के आस-पास का प्रदेश आस्ट्रेलिया के बराबर हैं। वहाँ पहुँचकर, जहाँ तक हो सका, इस चढ़ाई ने अपना काम किया; अंततः इसको यरबरा नामक सजीव ज्वालामुखी पहाड़ के पास ठहर जाना पड़ा। क्योंकि जाड़े के दिन आ गए और बर्फ़ अधिक पड़ने के कारण चढ़ाई के लोग और अधिक काम न कर सके। 8 फरवरी को काम बंद हुआ। सब लोग बर्फ़ से बचने और दक्षिणी ध्रुव की लंबी रात में आराम से रहने का प्रबंध करके ठहर गए। वहाँ की रात 2 अप्रैल से 27 अगस्त तक रहती हैं। रात का आरंभ हुआ। बर्फ़ भी खूब पड़ने लगी। 400 मील तक समुद्र के ऊपर बर्फ़ जम गई। ‘डिस्कवरी’ का संबंध बाहरी दुनिया से बिल्कुल ही छूट गया।
नवंबर 1902 में कप्तान स्कॉट, डाक्टर विल्सन और लैफ्टिनेंट शैकलटन ने सब कुत्ते साथ लिए और स्लेज नाम की छोटी-छोटी गाड़ियाँ लेकर वे बर्फ़ के ऊपर दक्षिणी ध्रुव की ओर दूर तक चले गए। मार्ग में उनको सख़्त तकलीफ़ें हुईं तथापि वे 82’ 17 अंश तक दक्षिणी की ओर गए और वहाँ उन्होंने अँग्रेज़ी झंडा गाड़ा। दक्षिणी ध्रुव वहाँ से 467 मील रह गया। आज तक जितने लोग दक्षिणी ध्रुव की तरफ़ गए थे, उन सबसे वे लोग 207 मील और आगे बढ गए। इस चढ़ाई की सहायता के लिए और इसे भोजन, वस्त्र इत्यादि पहुँचाने के लिए पीछे से धूमपोत और भेजे गए। उन्हीं में से ‘मानिंग’ नाम के धूमपोत में लेफ्टिनेंट शैकलटन बीमार हो जाने के कारण इंगलैंड लौट आए। उन्होंने दक्षिणी ध्रुव की जीवन-यात्रा के संबंध में जो कुछ प्रकाशित किया है, उसका सारांश उन्हीं के मुँह से सुनिए :
उत्तरी ध्रुव की अपेक्षा दक्षिणी ध्रुव में शीत अधिक है। उत्तरी ध्रुव के जिस अंश में जितना शीत है, दक्षिणी ध्रुव में शीत की अपेक्षा बहुत अधिक है। पृथ्वी का वह भाग जो दक्षिणी ध्रुव के आसपास है, इतना शोभाशाली है कि एक बार वहाँ जाकर फिर लौटने को जी नहीं चाहता। वहाँ के शीत की, वहाँ की तकलीफ़ों की और वहाँ की निर्जनता की कुछ परवाह न करके पुनर्वार वहाँ जाने की इच्छा होती है। उसकी प्राकृतिक शोभा कभी नहीं भूलती। वहाँ बलात् ले जाने के लिए चित्त को उत्कंठित किया करती है।
चलते-चलते एक दिन सहसा हम लोगों को कुछ सफ़ेदी नज़र आई। वह सफ़ेदी बर्फ़ के छोटे-छोटे टुकड़ों की चादर थी। हमारा जहाज़ (डिस्कवरी) धीरे-धीरे उस बर्फ़ को फाड़ता हुआ आगे बढ़ने लगा। कुछ देर बाद हमारे दाहिने बाएं और आगे-पीछे समुद्र शुभ्र रजतमय हो गया। बर्फ़ की सफ़ेद लाइन, जिस तरफ़ नज़र उठाइए, उसी तरफ़ देख पड़ने लगी। उस बर्फ़ के ऊपर सील नामक मछलियाँ और पेंगुइन नामक चिड़िया आनंद से खेल रही थीं। सीलों ने तो हमारी कुछ परवा न की। उन्होंने हमारी तरफ़ नज़र तक नहीं उठाई। परंतु पेंगुइन चिड़िया एक विलक्षण प्रकार की आवाज़ करते हुए हमारी तरफ़ दौड़ी। हमारे जहाज़ को देखकर उन्हें शायद आश्चर्य-सा हुआ। उन्होंने शायद अपने मन में समझा कि यह कोई महाबलवान दानव उनके घर में घुस आया है। ये चिड़िया बहुत बड़ी न थीं। उनकी छाती सफ़ेद और पीठ काली थी।
पाँच रोज़ तक उस पतले बर्फ़ को फाड़ता हुआ हमारा जहाज़ चला गया। उस रोज़ हमको दक्षिणी ध्रुव के पास का प्रदेश देख पड़ा। बर्फ़ से ढ़के हुए उन आकाशभेदी पर्वतों का दृश्य हमको कभी न भूलेगा। 10 से लेकर 15 हज़ार फुट तक वे स्वच्छ और निरभ्र नीले आकाश के भीतर चले गए थे। वहाँ पर हम लोगों के लिए बहुत कम काम था। पौधे, सील और पेंगुइन के समान दो चार चिड़ियों को छोड़कर और कुछ था ही नहीं। यह बात उत्तरी ध्रुव में नहीं। वहाँ अनेक प्रकार के वनस्पति और पशु-पक्षी पाए जाते हैं।
दक्षिणी ध्रुव में एक प्रकार की सील बहुत अधिकता से होती है। उसी पर हम लोग प्रायः बसर करते थे। तौल में वह कोई 14 मन होती है। ये मछलियाँ बर्फ़ के ऊपर धीरे-धीरे घूमा करती है; आदमी से वे ज़रा भी नहीं डरती। उन्होंने कभी आदमी देखा ही नहीं। अतएव मारने के लिए भी यदि आदमी उनके पास पहुँचते हैं, तब भी वे अपनी जगह से नहीं हटती, परंतु पेंगुइन का मिज़ाज इतना सीधा नहीं। वे आदमी को देखकर उन पर हमला करने के लिए दौड़ती हैं। इन चिड़ियों के घोंसले बहुत छोटे और भद्दे होते हैं। जब ये चिड़िया अपने बच्चों को खिलाती हैं, तब उनको देखकर बड़ा आनंद आता है। बच्चों के माँ-बाप पास वाली समुद्र की उथली खाड़ियों की ओर उड़ जाते हैं। वहाँ वे मछलियों वगैरह का शिकार करके अपने मुँह में रख लेते हैं। मुँह में अपनी चोंच डालकर बड़े प्यार और बड़े प्रेम से उन लज़ीज़ चीज़ों को चुगते हैं।
जिस समय का जिक़्र हैं, वह ग्रीष्म ऋतु थी। ग्रीष्म क्या उसे वसंत ही कहना चाहिए। किसी किसी दिन आकाश निरभ्र और सूर्य चमकीला नज़र आता था। जब सूर्य की किरणें बर्फ़ के ऊँचे-ऊँचे टीलों पर पड़ती थीं, तब बड़ा कौतुक मालूम होता था। उनको देखकर तबियत बहुत ख़ुश होती थी। जान पड़ता था कि तपाए हुए सुर्ख़ सोने के तार सूर्य-मंडप से उन राशि-राशिमय बर्फ़ के शिखरों तक फैले हुए हैं। यह ऋतु सिर्फ़ छः हफ़्ते रहती है। 16 दिसंबर से 31 जनवरी तक ही यह शोभा देखने को मिलती है।
जिस दिन यरवस नामक ज्वालामुखी पर्वत हम लोगों को पहले-पहल दिखलाई दिया, वह दिन हमें बख़ूबी याद है। इस पर्वत का पता 60 वर्ष हुए सर जेम्स रास ने लगाया था। यह पर्वत 12,500 फुट ऊँचा है। जब हम लोग उसके पास पहुँचे, हमने देखा कि उसके मुँह से धुवें की धारा भक-भक निकल रही है। जहाँ चारों ओर बर्फ़ के ऊँचे-ऊँचे टीले खड़े हुए हैं, जहाँ समुद्र ही बर्फ़मय हो गया है, वहाँ इस ज्वालागर्भ पर्वत को देखकर बड़ा विस्मय होता है। जहाँ प्रचंड शीत वहाँ अग्नि वमन करने वाला पर्वत! परंतु प्रकृति बड़ी विचित्र है। वह अपनी विचित्रता के ऐसे ही ऐसे विलक्षण उदाहरण कभी-कभी दिखलाती है। इस पहाड़ के नीचे ही कुछ दूर पर लोगों ने शीत ऋतु बिताने के लिए, रहने का स्थान बनाना चाहा। हमको आशा थी कि यहाँ रहने से हम लोगों को कुछ गर्मी मिलेगी; परंतु हमारा यह ख़याल बिल्कुल ही ग़लत निकला।
पहले तो हम लोगों को बहुत गर्म कपड़े नहीं पहनने पड़े; परंतु कुछ काल में थर्मामीटर का पारा शून्य के नीचे चला गया। तब हम लोगों ने निहायत गर्म कपड़े निकाले। मोटे चमड़े के बूट भी सर्द मालूम होने लगे। इस कारण से संबूर के बूट पहनने की ज़रुरत पड़ी।
बर्फ़ की वर्षा अधिक हो गई। हमारा जहाज़ बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ने लगा। हम लोगों को भय हुआ कि कहीं नियत स्थान पर पहुँचने के पहले ही जहाज़ न रुक जाए। परंतु राम-राम करके किसी तरह हम लोग वहाँ तक पहुँचे, जहाँ हमने जाड़ा व्यतीत करने का निश्चय किया था। हमको मालूम था कि 122 दिन की रात आने वाली है। इसलिए बहुत जल्द हमने ठहरने का प्रबंध किया और सब सामान ठीक करके जहाज़ का लंगर डाला।
ज्यों ही जहाज़ ठहरा और उसके चारों तरफ बर्फ़ का ढ़ेर इकट्ठा हुआ; त्यों ही हम लोगों ने बर्फ़ में बड़े-बड़े बाँस गाड़ दिए और किनारे तक गाड़ते चले गए। फिर लंबे-लंबे रस्से लेकर हमने उन बाँसो पर बाँधे। बिना यह किए हम लोगों को जहाज़ का पता लगाना मुश्किल हो जाता। तब किनारे पर एक झोंपड़ा बनाया गया। उसमें थर्मामीटर और बैरोमीटर इत्यादि यंत्र रखे गए।
सूर्य बिल्कुल ही आकाश से लोप होने को हुआ। परंतु उसका संपूर्ण तिरोभाव होने के पहले, अप्रैल के महीने में कई दिनों तक 24 घंटे का ऊषाकाल रहा। अस्ताचलगामी सूर्य की किरणों के सुंदर रंग बर्फ़ के संयोग से इतना मनोहर दृश्य दिखलाने लगे कि उनका वर्णन साधारण मनुष्य से होना असंभव है। उस शोभा को चित्रित करने के लिए कालिदास या शेक्सपियर की लेखनी ही समर्थ हो सकती है।
ध्रुव प्रदेश की रात एक ऐसी वस्तु है जिसकी समता संसार की और किसी वस्तु से नहीं की जा सकती। वह सर्वथा अनुपमेय है। वह कैसी होती है, यह जानने के लिए उसे आँख ही से देखना चाहिए। लिखने या बतलाने से उसका ज़रा भी अनुमान नहीं हो सकता। ज्यों ही रात हुई और शीत बढ़ा, त्यों ही हम लोगों ने संबूर के कोट, बूट और टोपियाँ वगैरह निकालीं। मोटे-मोटे नीले कोटों के ऊपर हमने शीतल हवा से बचने के लिए, एक विशेष तरह का ‘ओवरकोट’ भी पहना। बर्फ़दश एक प्रकार का रोग होता है। उसके होने का हम लोगों को पल-पल पर डर मालूम होने लगा। हम लोग एक दूसरे के मुँह की तरफ देखने लगे कि कहीं बर्फदंश के चिह्न तो नहीं दिखाई देते। जिसे बर्फ़दंश होता है उसे ऐसा जान पड़ता है कि बर्र ने डंक मारा। जिसे इस तरह का दंश होता था वह फ़ौरन अपना दस्ताना उतार कर उस जगह को देर तक रगड़ता था। ऐसा करने से पीड़ा कम हो जाती है और विशेष विकार नहीं बढ़ता। परंतु यदि ऐसा न किया जाए तो उस जगह मांस के गल जाने का डर रहता है।
यहाँ पर बहुत सख़्त जाड़ा पड़ता है। जाड़े का अनुमान करने के लिए हम यह लिख देना चाहते हैं कि हम लोग 2 या 3 मिनट से अधिक अपने हाथ को दस्ताने के बाहर नहीं निकाल सकते थे। यदि इससे ज़रा भी अधिक देर लग जाए तो फ़ौरन ही बर्फ़दंश हो जाए। इतना जाड़ा पड़ने पर भी मुँह के आस-पास का भाग बिल्कुल खुला रखना पड़ता था। अगर खुला न रखा जाए, या किसी चीज़ से ढंक दिया जाए, तो मुँह से निकली हुई साँस फ़ौरन जम जाए, यहाँ तक कि उसके जमने से आँखो की बीरलियाँ चिपक जाएँ। ऐसा होने से हम लोग कुछ देर के लिए अंधे हो जाएँ। नंगे हाथ से हम लोग धातु की कोई चीज़ नहीं छू सकते थे। अगर छूते तो फ़ौरन ही एक सफ़ेद-सफ़ेद दाग पड़ जाता और उस जगह पर बर्फ़दंश की पीड़ा होने लगती। एक दिल्लगी सुनिए। एक टीन में कोई चीज़ रखी थी। वह टीन बर्फ़ के ऊपर पड़ी थी। उसे हमारे एक कुत्ते ने देखा और जबान को भीतर डालकर उसे वह चाटने लगा। बस दो तीन दफ़े जबान लगाने की देर थी कि वह वहीं चिपक गई। कुत्ता बेचारा चीखने और दर्द से बेक़रार होने लगा। यह तमाशा एक खलासी ने देखा। वह वहाँ दौड़ा गया। बलपूर्वक उस टीन को कुत्ते की जबान से अलग किया।
ज़ोर से जाड़ा पड़ने के पहले हम लोगों ने अपनी छोटी-छोटी बेपहिए की गाड़ियों में कुत्ते जोते और जहाज से कुछ दूर आगे का सफ़र करना विचारा, हम लोग रवाना हुए। बारह घंटे तक हम बाहर रहे। इस बीच में बर्फ़ का एक सख़्त तूफ़ान आया। इससे हम लोगों की बड़ी दुर्दशा हुई। मुँह में और हाथों में भी, बर्फ़दंश की पीड़ा होने लगी। इसलिए हमने तत्काल अपने छोटे-छोटे खेमे खड़े किए और बड़ी मुश्किल से हाथ-पैरों के बल पर रेंगकर उनके भीतर हम सब गए। यदि ऐसा करने में और ज़रा देर हो जाती तो हम लोगों का काम वहीं तमाम हो जाता।
लेफ़्टिनेट रायडस और मिस्टर स्केल्टन भी कुछ आदमियों के साथ, बेपहिए की गाड़ियाँ लेकर, हमारे जहाज़ से कोई 60 मील दूर तक चले गए। इन गाड़ियों को कुत्ते खींचते थे। रास्ते में एक भयानक बर्फ़ का तूफ़ान आया इस कारण इन लोगों को पाँच दिन तक छोलदारी के भीतर बंद रहना पड़ा। जब तूफ़ान बंद हुआ तब इन्होंने देखा कि छोलदारी के ऊपर-नीचे, इधर-उधर सब कहीं बर्फ़ जम गई है। बड़ी कठिनाई से बर्फ़ को कुदालियों से काटकर ये लोग उसके भीतर से बाहर आए। समुद्र के जम जाने के कारण हम लोगों ने इसी प्रकार, इन छोटी-छोटी गाड़ियों पर दूर-दूर तक सफ़र किया और जीव-जंतु, वनस्पति, भूगोल और भूस्तर-विद्या-संबंधी अनेक जाँचे की और अनेक प्रकार की वस्तुओं के नमूने इकट्ठे किए।
इस चढ़ाई में कुत्तों ने बड़ा काम किया। हमारे पास 23 कुत्ते थे। क्या ही अच्छा होता यदि हम लोग अधिक कुत्ते ले गए होते। एक-एक कुत्ता सवा मन के क़रीब बोझ से लदी हुई गाड़ी खींचता था। इन कुत्तों में कुछ कुत्तियाएँ भी थीं। जाड़े में उनसे 9 बच्चे पैदा हुए। परंतु वे बहुत छोटे हुए। वे माँ-बाप के न तो डील-डौल में बराबर हुए और न बल में।
हमारे साथ एक बिल्ली भी थी। एक दफ़े रात को हमारे झोंपड़े के ऊपर वह गई, यहाँ वह कुछ अधिक देर तक रही। जब वह भीतर आई तब हम लोगों ने देखा कि उसका एक कान ही नदारद हैं। अगर ज़रा देर वह और वहाँ रहती तो शायद वह वहाँ से ज़िंदा न लौटती।
आठ बजे सुबह हम लोग भोजन करते थे। खाने की सामग्री में हलवा, सील मछली का ग़ोश्त, रोटी, मक्खन, चाय और कहवा मुख्य चीज़ें थीं। 9 बजे ईश्वर की प्रार्थना होती थी। प्रार्थना-पाठ जहाज़ का कप्तान करता था। फिर सब आदमी अपने-अपने काम में लग जाते थे। कुछ आदमी सोने के वास्ते थैलियाँ सीते थे; इन्हीं थैलियों के भीतर हम लोग रात को घुसे रहते थे। कुछ उन थैलियों की ओर दूसरे कपड़ों की मरम्मत करते थे। कुछ जहाज़ के ऊपर जमी हुई बर्फ़ को साफ़ करते थे, कुछ जहाज़ पर पड़े हुए मोम-कपड़े की मरम्मत करते थे, क्योंकि बर्फ़ के गिरने से उसमें सैकडों छेद हो जाते थे। कुछ आदमी मछलियों और चिड़ियों की खाल खींचकर उनमें मसाला भरते थे। ये चीज़ें इंगलैंड को लाए जाने के लिए नमूने के तौर पर रखी गई हैं। कुछ आदमी जलचर जीवों की तलाश में जाते थे; कुछ वनस्पतियों को खोजने निकल जाते थे और कुछ भूस्तर-विद्या के विषय में ज्ञान प्राप्त करने को बाहर निकलते थे। एक बजे फिर हम लोग भोजन करते थे। आठ बजे रात को जहाज़ की देख-भाल होती थी और बाद उसके हम लोग ताश वग़ैरह खेलकर सो रहते थे।
हम लोगों ने ‘साउथ पोलर टाइम्स’ नाम का एक अख़बार भी लिखना शुरु किया। वह महीने में एक बार लिखा जाता था। जहाज़ पर जितने अफ़सर थे, सब उसमें लेख लिखते थे; और लोग भी कोई-कोई उसमें लिखते थे। लेखों में इस चढ़ाई का सविस्तार वर्णन रहता था। इस अख़बार के अंक अभी तक प्रकाशित नहीं हुए। चढ़ाई के लौट आने पर वे इंगलैंड में प्रकाशित होंगे।
वहाँ बाहर कोई पौधा नहीं हो सकता था। मगर हम लोग इंग्लैंड से एक बक्स में थोड़ी-सी मिट्टी ले गए थे, उसी में हमने ‘कोक्यूसेज़’ नामक पौधे के बीज बोए, उनमें से दो पौधे हुए। फूल भी उनमें यथासमय निकले। ‘गुड फ्राईडे’ को हम लोग उन फूलों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। हमारे जहाज़ में वह मानो हमारा एक छोटा-सा फूलबाग था।
किसी-किसी रात का दृश्य बड़ा ही मज़ेदार था। जिस समय पूरा चंद्रबिंब आकाश में उदित होता था उस समय वह सारा प्रदेश दुग्धफेन के समान शुभ्र दिखाई देता था। कभी-कभी उत्तर की ओर, दूर सफ़ेद रोशनी का एक धुँधला पुंज देख पड़ता था, जिससे मालूम होता था कि सूर्य ने अपना मुँह ढाँप रखा है; तथापि वह वहीं पर कहीं प्रकाशित है। इस महाविस्तृत और महाआतंकजनक सफ़ेद मैदान की शोभा मैं नहीं बयान कर सकता। उससे अधिक सौंदर्यमय वस्तु मैंने संसार में दूसरी नहीं देखी। कुछ दूर पर बर्फ़ से ढके हुए ऊँचे-ऊँचे पर्वत नज़र आते थे और आसमान को फाड़कर उसके भीतर घुस जाने की चेष्टा सी करते थे। पास ही वह ज्वालामुखी पर्वत अपने अग्निवर्षी मुँह से धुवें के प्रचंड पुंज छोड़ रहा था। अहा! क्या ही हर्ष और विस्मय से भरा हुआ दृश्य था। 22 अगस्त को सूर्य ने हम लोगों को अपने पुनदर्शन से फिर कृतार्थ किया। हम लोग तत्काल उसके दर्शनों के लिए बाहर निकले। जिसने सूर्य के बहु-काल व्यापी लोप का अनुभव नहीं किया, वह कदापि नहीं जान सकता कि उसका पुनर्दर्शन कितना आनंददायक होता है। आकाश ने अजीब रंगत धारण की; उसने बलात् हम लोगों के ह्दय का हरण कर लिया। जितने पदार्थ थे, सबमें नया उत्साह और नया जीवन-सा आ गया। जितने मेघ थे सबने इंद्रधनुष की शोभा छीनी; नाना प्रकार के मनोमुग्धकारी रंगो से वे भर गए।
अब बेपहिए का छोटी-छोटी गाड़ियों को साथ लेकर बाहर निकलने का मौसम आया। सब तैयारियाँ शीघ्र ही हुईं। कुत्ते, छोलदारियाँ, खाने-पीने का सामान, कपड़े-लत्ते और सोने के लिए थैलियाँ तैयार हुईं। हम लोग सफ़र में हमने एक बार भी कपड़े नहीं उतारे। हाँ मोजे अलबत्ते हर रोज़ निकालने पड़ते थे, क्योंकि न निकालने से पैर चिपक जाने का डर था। जब हम चले, हमारे सोने के थैलों का वज़न 7 सेर था; परंतु जब हम लौटे, तब वह 14 सेर हो गया था। बर्फ़ ने उनके वज़न को दूना कर दिया था। जब दो आदमी कोशिश करके खोलते थे तब रात को सोने के वक़्त ये थैले खुलते थे। वे इतने ठंडे हो जाते थे कि उनमें और बर्फ़ में कोई अंतर न रहता था। उसी के भीतर हम लोग किसी प्रकार बड़े कष्ट से रात बिताते थे। सुबह के वक़्त हमारे पैर सुन्न हो जाते थे, बड़ी-बड़ी मुश्किलों से वे मोजों और बूटों के भीतर जाते थे।
ऐसी मुसीबतें झेलते हुए लोग 300 मील तक गए। यहाँ तक जाने में हमको 94 दिन लगे। किसी-किसी दिन हम लोग 15 मील जाते थे। इस सफ़र से हमारे बहुत से कुत्ते मर गए। इसलिए हम लोगों को स्वंय गाड़ियाँ खींचनी पड़ी। जब हम लोगों ने देखा कि हमारे कुत्ते मर रहे हैं, तब हमने अपने खाने-पीने का बहुत-सा सामान एक जगह रख कर गाड़ियाँ हलकी कर लीं। तेल भी कम कर दिया गया। इसलिए एक ही दो बार चूल्हा जलने लगा। इसका फल यह हुआ कि हम लोगों को गर्म खाना कम नसीब होने लगा। ज़रा-सी शक्कर, सील के मांस का एक छोटा-सा सूखा टुकड़ा और डेढ़ बिस्कुट पर हम लोग बसर करने लगे। ये चीज़ें हम रास्ते में चलते-चलते खाते थे। कुत्तों की बुरी हालत थी। जब हम लोग खाते थे, तब वे हमारे मुँह की तरफ़ देखा करते थे कि अगर कोई टुकड़ा नीचे गिरे तो वे उसे उठा लें मगर यह उदारता दिखलाना हम लोगों के लिए स्वंय अपनी मृत्यु को बुलाना था। जब शाम को हम लोग कहीं ठहरते तब हम एक कुत्ते को प्रायः गोली मार देते। उसी के मांस से दूसरे कुत्तों का गुज़र होता। प्रतिदिन हमारी खुराक कम होने लगी; भूख से हम लोग विकल होने लगे; यहाँ तक कि बिस्कुट और हलवा हम लोगों को स्वप्न में भी देख पड़ने लगा। दिन-रात खाने ही की चीज़ों का ध्यान रहता था। एक प्रकार की निराशा ने सबके चेहरों का रंग फीका कर दिया। नवंबर भर हम लोग इसी तरह सख़्त मुसीबतों में मुब्तिला रह कर भी बराबर चले गए। दिसंबर में भी यही हालत रही। अंत को 31 दिसंबर के दिन हम लोग अपने सफ़र की अंतिम सीमा पर पहुँचे; वहाँ से आगे हम न बढ़ सके। वहीं हमने अँग्रेज़ी झंडा खड़ा कर दिया।
खाने का सामान बहुत कम रह गया था। कुत्ते प्रायः सभी मर चुके थे। अतएव हम लोगों ने वापस जाने का विचार किया। वहाँ से हमारा जहाज़ 300 मील दूर था। सब लोग निहायत कमज़ोर हो गए थे। खैर किसी तरह हम लोग पीछे लौटे। हममें से किसी-किसी को बर्फ़ ने कुछ काल के लिए अंधा तक कर दिया। कलेजे को कड़ा करके हम सबने जहाज़ की तरफ़ पैर फेरा। धीरे-धीरे सब कुत्ते मर गए, सिर्फ़ दो बचे। अतएव हम लोगों को ख़ुद गाड़ियाँ खींचनी पडी। कभी-कभी तीन-तीन मन वज़न गाड़ियों में भर कर हमने खींचा। ओह! उस मुसीबत का स्मरण आते ही बदन काँपने लगता है। वर्णनातीत दुःख सहकर 3 फरवरी 1904 को हम लोग अपने जहाज़ पर वापस आए। वहाँ हमने देखा कि हमारी मदद के लिए एक दूसरा जहाज़ आ गया है। उसमें हम लोगों की खानगी चिट्ठियाँ और अख़बार वग़ैरह मिले। तब हमने जाना कि बोर युद्ध की समाप्ति हो गई और हमारे बादशाह सातवें एडवर्ड की राजगद्दी का जलसा भी हो चुका।
हमारा ‘डिस्कवरी’ नामक जहाज़ 1902 के आरंभ से बर्फ़ के भीतर पड़ा है। आशा है यह शीघ्र ही वापस आवे और अपने काम की सफलता से भेजने वालों ही के नहीं, किंतु सारे संसार के आनंद और ज्ञान की वृद्धि करने का साधक होगा।
- पुस्तक : महावीर प्रसाद रचनावली 4 (पृष्ठ 352)
- रचनाकार : महावीर प्रसाद द्विवेदी
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