प्राचीन ऋषियों ने कहा था—चरैवेति, चरैवेति—चलते चलो, चलते चलो।
आधुनिक मानव कहता है—उड़ते चलो, उड़ते चलो।
प्राचीन ऋषियों का कहना है—पृथ्वी चल रही है, चंद्रमा चल रहा है, सूर्यदेवता चल रहे हैं, इसलिए तुम भी चलते चलो, चलते चलो।
आधुनिक मानव देखता है—पृथ्वी, चंद्रमा या सूर्यदेवता की दूरी प्रति घंटा लाखों, करोड़ों, अरबों मील है। किंतु उसके पैर की गति अत्यंत परिमित, धीमी है। अतः वह कहता है, चीन ने जो साधन दिए हैं, उनका सहारा लेकर कम से कम पाँच सौ मील प्रति घंटे के हिसाब से तो उड़ते चलो।
प्राचीन ऋषि की दुनिया छोटी थी, वह उसे पैदल चल कर भी पार कर ले सकते थे। आधुनिक मानव का संसार बहुत लंबा-चौड़ा हो गया है। वह कहाँ तक पैरों को घसीटता हुआ वह उड़ेगा, वह उड़ रहा है!
मैं भी यह दूसरी बार उड़ रहा हूँ। चार्ट बताता है, बंबई से पेरिस पौने पाँच हज़ार मील है; फिर बीच में समुद्र-पहाड़ हैं, मरुभूमि है, जंगल हैं। ऋषियों का वचन मानकर पैदल चला जाता, तो कितने दिन लग जाते! किंतु यह टाइम-टेबुल बताता है, अभी दोपहर को 1 : 40 बजे हम चल रहे हैं, कल सुबह-सुबह ठीक आठ बजे पेरिस की रंगीनियों में डूबते उतारते होंगे!
सांताक्रूज से अभी एक झमा के साथ हमारा यह जहाज़ खड़ा है। ऊपर से बंबई की पूरी झलक भी नहीं लेने पास, कि यह देखिए, नीचे समुद्र लहरा रहा है और ऊपर हम उड़े जा रहे हैं।
पथ-पुस्तिका में उन स्थानों के रंगीन चित्र देख रहा हूँ जो हमारे नीचे आएँगे—तरह-तरह के द्वीप, तरह-तरह के रंग, तरह-तरह के जीव-जंतु! अपने स्वाद से जीभ को पानी-पानी कर देने वाली समुद्री मछलियाँ, अपने मोती से हमारे गलों को जगमगाने वाली सीपियाँ, अपने आँसू की लड़ियों से मुकायें बनाने वाली जल-परियाँ। वह द्वीप जहाँ क़ैदियों को गले में तख़्ता पहना पर छोड़ दिया जाता था, वह द्वीप जहाँ लदस्युओं के अड्डे रहते थे। क़ालीनों का बंदरगाह मझट, मार्कोपोलो की प्रसिद्ध सराय, हरमुज़, संसार की सबसे गर्म जगह रास मसंदम, खजूरों की भूमि नज़्द। जिनमें सबसे पहले मक्खन तैयार हुआ बेदुइनों के वे चलते-फिरते घर, ऊँचें के कारवान, अरबी घोड़ों के झुंड! जब हम और चले जाए हैं, नीचे हम क्या क्या न छोड़ते जाएँगे! निस्संदेह हम पैदल चलते, तो इन सबको देखते; किंतु, इनमें से कितने को देख पाते!
नहीं-नहीं, उड़ते चलो, उड़ते चलो! बंबई से काहिरा, काहिरा से पेरिस—सिर्फ़ दो हुक्के और हम अपने मंतव्य स्थान को पा लेंगे।
अहा! हम उड़ते जा रहे हैं, देखते जा रहे हैं और लिखते भी जा रहे हैं—यह सुख तो ऐरोलेन पर ही मिल सकता है।
पिछली बार की तरह इस बार की यह यूरोप-यात्रा भी आकस्मिक ही रही। उस दिन पटना रेडियो स्टेशन पर संगीत सभा हो रही थी। रात में, वहीं जाने के लिए में तैयार हो रहा था कि एक तार मिला—पेरिस में होने वाली सांस्कृतिक स्वाधीनता काँग्रेस के साहित्यिक-समारोह में सम्मिलित होने के निमंत्रण पर क्या विचार कर सकोगे?
तार भेजने वाले का नाम स्पष्ट नहीं था; किंतु स्थान का नाम बंबई स्पष्ट था। मैं सोचने लगा, यह अचानक निमंत्रण कैसा? किससे?
साथ में सियाराम था। मैंने उससे कहा, चलो, पेरिस चलें। पेरिस का मतलब उसने संगीत सभा समझ लिया। कोई बुरा तो नहीं समझा? उसने हाँ भर दी। मैं रेडियो स्टेशन की ओर तेज़ी से आप खाना बाना बुन रहा था।
चुनाव के बाद की थकान थी, कुछ अधूरे काम थे। सोचा था, कुछ दिनों घर पर ही रह कर उन कामों को पूरा कर लूँगा। पेरिस जाऊँ, तो फिर वही दौड़-धूप; फिर काम अधूरे के रह जाएँगे!
रेडियो-स्टेशन पर एक-दो मित्रों को वह तार दिखलाया, फिर उसे जेब में रख दिया, सो तीन दिनों तक वह वहीं पड़ा रहा। मेरा मन असमंजस में था। किंतु धीरे-धीरे मित्रों को इसकी ख़बर होती जाती थी और उन सबका आग्रह कि ज़रूर जाओ। अंततः प्यारे गंगा ने सारे तर्क-वितर्क को शांत कर दिया—नहीं, तुम्हें जाना ही चाहिए। ये काम दो महीने बाद भी हो जाएँगे और यूरोप की आबोहवा में थकान भी भूल जाएगी! ...और प्रोफ़ेसर कपिल ने अपने ही हाथों से स्वीकृति का तार भाई मसानी के पास भेज दिया। तार के प्रेक्षक वही थे, दूसरे दिन, दिन की रोशनी में स्पष्ट हो गया था।
उधर मसानी के तार पर तार आने लगे, इधर बेमन की तैयारियाँ भी होने लगीं। किंतु बीच में एक ऐसा भी अवसर आया कि मैंने तय किया, अब जाना रोक ही देना है। किंतु फिर मित्रों ने कहा, जाइए ही, यहाँ हम सब सम्हाल लेंगे। किंतु इन झंझटों का यह असर कि जा रहा हूँ, पर मेरे पास मेडिकल सर्टिफिकेट भी अधूरे ही हैं। कभी-कभी चिंता होती है, न जाने इसके चलते क्या हो? किंतु, चलते समय एयर इंडिया के मि० दस्तूर ने विश्वास दिलाया—है चिंता न कीजिए सब ठीक रहेगा!
हाँ, इस बार एयर इंडिया इंटरनेशनल के प्लेन पर जा रहा हूँ—अपने देश के प्लेन पर! पिछली बार बी० ओ० ए० सी० के प्लेन पर गया था। प्लेन का रंगरूप तो एक ही है, किंतु निस्संदेह ही इसके भीतर भारतीय वातावरण लगता है!
यह हमारे सामने के थैले में जो पंखा है, उसपर एक नृत्यशील भारतीय लड़की का चित्र है। भारतीय कला इससे छलकी पड़ती है। जो बैग हमें छोटे सामानों को रखने के लिए मिला है, उसपर एक भारतीय पग्गड़धारी चपरासी का चित्र है, जो हमें सलाम करता-सा दीखता है। जो होस्टेस अभी रूई और पिपरममिंट की पुड़िया दे गई है, वह एक पारसी लड़की है।
प्लेन में अधिकांश यात्री भारतीय हैं। कैसा संयोग, इसी प्लेन से पेरिस के भारतीय राजदूत मि० मल्लिक भी जा रहे हैं—दाढ़ी और पगड़ी वाले बूढ़े सज्जन!
यह कल्पना करके बार-बार पुलक होती है कि हम एक भारतीय हवाई जहाज़ से सफ़र कर रहे हैं। किंतु, सोचता हूँ, हमलोग अपने देश में अपने हवाई जहाज़ बनाना कब तक शुरू करेंगे? वह भी होकर रहेगा, शीघ्र ही होना चाहिए।
उड़ा जा रहा हूँ, किंतु अजीव सूना-सूना लग रहा है, यद्यपि पिछली बार की अपेक्षा इस बार की यात्रा निस्संदेह ही महत्वपूर्ण है। इस कांग्रेस की ओर से इस साहित्य-समारोह के अतिरिक्त बीसवीं सदी की सर्वोत्तम कलाकृतियों का प्रदर्शन भी होने जा रहा है। एक साथ, एक ही जगह, यूरोप के संगीत, नृत्य, कला, साहित्य सबकी बानगी देखने-सुनने का सुअवसर प्राप्त होगा!
इस बार के साथी भी अच्छे मिले हैं। मित्रवर मसानी के पिता सर रुस्तम भसानी हमारे दल के नेता है। सर रुस्तम बंबई के प्रसिद्ध शिक्षा-प्रेमी ही नहीं हैं, एक उच्च कोटि के लेखक भी हैं। बंबई विश्वविद्यालय के वह वाइस चांसलर रह चुके है और उनकी लिखी दादा भाई नौरोजी की जीवनी उत्कृष्ट कोटि की जीवनी मानी जाती है। उनकी कुछ रचनाओं का अनुवाद फ़्रेंच में भी हो चुका है!
अभी आए थे, मेरी बग़ल में बैठे और बड़े प्रेम से बातें की, जैसे कोई पिता अपने बच्चे की मिजाज़पुरशी कर रहा हो।
पी० वाई० देशपांडे मेरे पुराने परिचितों में से हैं। जब सोशलिस्ट पार्टी का जन्म हुआ, वह भी शामिल थे। मराठी के सुप्रसिद्ध लेखक : 'नागपुर टाइम्स' के संचालकों में। वह भी आकर इस बार की यूरोप-यात्रा के खाके के बारे में बातें कर गए हैं। वह पहली ही बार यूरोप जा रहे हैं।
चौथे-पाँचवें सज्जन हैं, फिलिप स्मैट और का० ना० सुब्रह्मण्यम्। फिलिप स्मैट—सुप्रसिद्ध 'मेरठ षडयंत्र' के अभियुक्त। अँग्रेज़ हैं, किंतु अब भारत को ही घर बना लिया है। एक भारतीय महिला से शादी की है। मैसूर से 'मिस इंडिया' नामक पत्रिका निकालते हैं। शांत चेहरा मौन स्वभाव! सुब्रह्मण्यम् मद्रासी हैं, तेलगु के नामी लेखक! घड़ल्ले से बोले जा रहे हैं।
और, मेरे सामने हैं, मेरे दो आत्मीय—शिवाजी और उनकी पत्नी शीला। जब मुझे निमंत्रण मिला, शिवाजी ने भी साथ देने की इच्छा प्रकट की। मैंने मसानी को लिखा और वह भी प्रतिनिधि की हैसियत से जा रहे हैं। उनकी पत्नी शीला ने उनका साथ देकर बिल्कुल घरेलू वातावरण बना दिया है!
प्लेन उड़ा जा रहा है। हम संध्या को चले हैं, नीचे समुद्र लहरा रहा है; ऊपर हम आगे बढ़े जा रहे हैं—अपनी मातृभूमि से दूर! कितनी दूर?—अभी कप्तान का सूचना पत्रक नहीं मिला है।
बम्बई में दो दिन रहा, वहाँ के मित्रों के चेहरे और स्वागत सत्कार के दृश्य आँखों के सामने घूम रहे हैं।
बम्बई स्टेशन पर उतरकर जब बाहर हो रहा था, इस काँग्रेस की भारतीय शाखा के श्री बरखेदकर मिले। उन्होंने मेरी कोटवाली तस्वीर देखी थी, अतः हिचकिचा रहे थे, किंतु मेरे मोटे चश्मे ने उनकी झिझक दूर की। उन्होंने मसानी का सलाम कहा, किंतु मैं तो पहले से ही तय कर चुका था, मैं पृथ्वीराजजी के साथ ठहरूँगा। अतः सीधे भाटूँगा!
पृथ्वीराज जी, उनकी धर्मपत्नी रमाजी, बेटे शमी और शशि और बेटी उसी के स्नेह से अब भी अभिभूत हो रहा हूँ। शमी ने अपने स्वाभाविक नाटकीय ढंग से कहा था—चाचाजी, वहाँ एक चपरासी भी लेते चलिए!
जब मसानी से उनके दफ़्तर में मिला, हिंदी में ही बातें शुरु हुई! हमलोग सदा हिंदी में ही बातें करते आए हैं, तब भी, जब वह मुश्किल से हिंदी में बोल सकते थे।
हमारी विदाई के लिए जो समारोह हुआ था, उसमें अशोक और पुरुषोत्तम आए थे। पुरुषोत्तम ने उलहूना दिया—मेरे यहाँ नहीं ठहरे! और अशोक के सिर पर पूरी बम्बई पार्टी कीहमारी बिदाई के लिए जो समारोह हुआ था, उसमें अशोक और पुरुषोत्तम आए थे। पुरुषोत्तम ने उलहना दिया—मेरे यहाँ नहीं ठहरे! और अशोक के सिर पर पूरी बम्बई पार्टी की ज़िम्मेवारी; तो भी, मेरे ही कारण वहाँ आए थे, ऐसा उन्होंने स्नेह से कहा!
देवेंद्र मेरे साथ गया था, पीछे वीरेंद्र भी गए थे। शीला को पहुँचाने बालाजी आए थे। शिशिर आजकल बम्बई में ही हैं, कल से ही साथ में लगे हैं। देवघर का इंद्रनारायण सम्मेलन में काम करता था; अख़बारों में आज भोर को मेरे; जाने की सूचना पढ़ी थी। वह अपने साथ एक सज्जन को लेते आया था। उसी सज्जन, श्री मुकुन्द गोस्वामी के मगही पान के बीड़े चाभता उड़ा जा रहा हूँ।
किंतु, यह पान कब तक चलेगा, कहाँ तक चलेगा? ज़्यादा से ज़्यादा काहिरा तक तो क्यों नहीं सिगरेट शुरु कर दूँ। पिछले छः सात महीनों से सिगरेट छोड़ रखा था, और पान पर ही काटे जा रहा था। किंतु यूरोप में पान कहाँ? अतः बम्बई में ही दो दिन सिगरेट के ख़रीद लिए।
किंतु, यह क्या? सिगरेट जलाता हूँ, तो मुँह में अजीब स्वाद लगता है! कुछ मज़ा नहीं आ रहा है। लेकिन, आएगा, आएगा! पुरानी चीज़ भी नया अभ्यास खोजती है न?
अंधकार फैल रहा है। प्लेन की बत्तियाँ जल रही हैं। उधर होस्टेस खाने के लिए हर सीट के सामने सँकरा टेबुल सजा रही है। चलो बेनीपुरी, हाथ-मुँह धोओ, खाओ-पीओ और सोओ। बहुत थके हों! पेरिस घूँघट उठाए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होगी; फिर वहाँ विश्राम कहाँ? हाँ, शांति और क्लान्ति भी नहीं होगी वहाँ; किंतु उस रास-हास के लिए भी तो शक्ति-संचय आवश्यक है!
10/5/52
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prachin rishiyon ne kaha tha—charaiweti, charaiweti—chalte chalo, chalte chalo
adhunik manaw kahta hai—uDte chalo, uDte chalo
prachin rishiyon ka kahna hai—prithwi chal rahi hai, chandrma chal raha hai, surydewta chal rahe hain, isliye tum bhi chalte chalo, chalte chalo
adhunik manaw dekhta hai—prithwi, chandrma ya surydewta ki ga prati ghanta lakhon, karoDon, arbon meel hai kintu uske pair ki gati atyant parimit, dhimi hai atः wo kahta hai, chin ne jo sadhan diye hain, unka sahara lekar kam se kam panch sau meel prati ghante ke hisab se to uDte chalo
prachin rishi ki duniya chhoti thi, wo use paidal chal kar bhi par kar le sakte the adhunik manaw ka sansar bahut wa, lamba chauDa ho gaya hai wo kahan tak pairon ko ghasitta ch—wah uDega, wo uD raha hai!
main bhi ye dusri bar uD raha hoon chart batata hai, bambai se peris paune panch hazar meel hai; phir beech mein samudrpaD hain, marubhumi hai, jangal hain rishiyon ka wachan mankar paidal chala jata, to kitne din lag jate! kintu ye time tebul batata hai, abhi dopahar ko 1 40 baje hum chal rahe hain, kal subah subah theek aath baje peris ki ranginiyon mein Dubte utarte honge!
santakruj se abhi ek jhama ke sath hamara ye jahaj khaDa hai upar se bambai ki puri jhalak bhi nahin lene pas, ki ye dekhiye, niche samudr lahra raha hai aur upar hum uDe ja rahe hain
path pustika mein un sthanon ke rangin chitr dekh raha hoon jo hamare niche ayenge– tarah tarah ke dweep, tarah tarah ke lang, tarah tarah ke jeew jantu! apne swad se jeebh ko pani pani kar dene wali samudri machhliyan, apne moti se hamare glon, ko jagmagane wali sipiyan, apne ansu ki laDiyon se mukayen banane wali jal pariyan wo dweep jahan qaidiyon ko gale mein takhta pahna par chhoD diya jata tha, wo dweep jahan ladasyuon ke aDDe rahte the qalinon ka bandargah majhat, markopolo ki prasiddh saray harmuz, sansar ki sabse garm jagah ras masandam, khajuron ki bhumi nazd jinmen sabse pahle makkhan taiyar hua beduinon ke we chalte phirte ghar, unchen ke karwan, arbi ghoDon ke jhunD! jab hum aur chale jaye hain, niche hum kya kya na chhoDte jayenge! nissandeh hum paidal chalte, to in sabko dekhte; kintu, inmen se kitne ko dekh pate!
nahin nahin, uDte chalo, uDte chalo! bambai se kahira, kahira se peris—sirf do hudakke aur hum apne mantawya sthan ko pa lenge
aha! hum uDte ja rahe hain, dekhte ja rahe hain aur likhte bhi ja rahe hain—yah sukh to airolen par hi mil sakta hai
pichhli bar ki tarah is bar ki ye europe yatra bhi akasmik hi rahi us din patna radio station par sangit sabha ho rahi thi raat mein, wahin jane ke liye mein taiyar ho raha tha ki ek tar mila—
peris mein hone wali sanskritik swadhinata kangres ke sahityik samaroh mein sammilit hone ke nimantran par kya wichar kar sakoge?
tar bhejne wale ka nam aspasht nahin tha; kintu sthan ka nam bambai aspasht tha main sochne laga, ye achanak nimantran kaisa? kisse?
sath mein siyaram tha mainne usse kaha, chalo, peris chalen peris ka matlab usne sangit sabha samajh liya koi bura to nahin samjha? usne han bhar di main radio station ki or tezi se aap khana bana bun raha tha
chunaw ke baad ki thakan thi, kuch adhure kaam the socha tha, kuch dinon ghar par hi rah kar un kamon ko pura kar lunga peris jaun, to phir wahi dauD dhoop; phir kaam adhure ke rah jayenge!
radio station par ek do mitron ko wo tar dikhlaya, phir use jeb mein rakh diya, so teen dinon tak wo wahin paDa raha mera man asmanjas mein tha kintu dhire dhire mitron ko iski khabar hoti jati thi aur un sabka agrah ki zarur jao antatः pyare ganga ne sare tark witark ko shant kar diya—nahin, tumhein jana hi chahiye ye kaam do mahine baad bhi ho jayenge aur europe ki awahwa mein thakan bhi bhool jayegi!
aur, professor kapil ne apne hi hathon se swikriti ka tar bhai masani ke pas bhej diya tar ke prekshak wahi the, dusre din, din ki roshni mein aspasht ho gaya tha
udhar masani ke tar par tar aane lage, idhar beman ki taiyariyan bhi hone lagin kintu beech mein ek aisa bhi awsar aaya ki mainne tay kiya, ab jana rok hi dena hai kintu phir mitron ne kaha, jaiye hi, yahan hum sab samhal lenge
aur, aaj ja raha hoon kintu in jhanjhton ka ye asar ki ja raha hoon, par mere pas medical sartiphiket bhi adhure hi hain kabhi kabhi chinta hoti hai, na jane iske chalte kya ho? kintu, chalte samay air inDiya ke mi० dastur ne wishwas dilaya—hai chinta na kijiye sab theek rahega!
han, is bar air inDiya intarneshnal ke plane par ja raha hun—apne desh ke plane par! pichhli bar b० o० e० see० ke plane par gaya tha plane ka rangrup to ek hi hai, kintu nissandeh hi iske bhitar bharatiy watawarn lagta hai!
ye hamare samne ke thaile mein jo pankha hai, uspar ek nrityshil bharatiy laDki ka chitr hai bharatiy kala isse chhalki paDti hai jo bag hamein chhote samanon ko rakhne ke liye mila hai, uspar ek bharatiy paggaDdhari chaprasi ka chitr hai, jo hamein salam karta sa dikhta hai jo hostes abhi rui aur piparmit ki puDiya de gai hai, wo ek parsi laDki hai
plane mein adhikansh yatri bharatiy hain kaisa sanyog, isi plane se peris ke bharatiy rajadut mi० mallik bhi ja rahe hain—daDhi aur pagDi wale buDhe sajjan!
ye kalpana karke bar bar pulak hoti hai ki hum ek bharatiy hawai jahaj se safar kar rahe hain kintu, sochta hoon, hamlog apne desh mein apne hawai jahaj banana kab tak shuru karenge? wo bhi hokar rahega, sheeghr hi hona chahiye
uDa ja raha hoon, kintu ajiw suna suna lag raha hai, yadyapi pichhli bar ki apeksha is bar ki yatra nissandeh hi mahatw poorn hai is kangres ki or se is sahity samaroh ke atirikt biswin sadi ki sarwottam kalakritiyon ka pradarshan bhi hone ja raha hai ek sath, ek hi jagah, europe ke sangit, nrity, kala, sahity sabki bangi dekhne sunne ka suawsar prapt hoga!
is bar ke sathi bhi achchhe mile hain mitrawar masani ke pita sar rustam bhasani hamare dal ke neta hai sar rustam bambai ke prasiddh shiksha premi hi nahin hain, ek uchch koti ke lekhak bhi hain bambai wishwawidyalay ke wo wais chanslar rah chuke hai aur unki likhi dada bhai nauroji ki jiwani utkrisht koti ki jiwani mani jati hai unki kuch rachnaon ka anuwad french mein bhi ho chuka hai!
abhi aaye the, meri baghal mein baithe aur baDe prem se baten ki, jaise koi pita apne bachche ki mijazapurshi kar raha ho
pee० y० deshpanDe mere purane parichiton mein se hain jab socialist party ka janm hua, wo bhi shamil the marathi ke suprasiddh lekhak ha nagpur taims ke sanchalkon mein wo bhi aakar is bar ki europe yatra ke khake ke bare mein baten kar gaye hain wo pahli hi bar europe ja rahe hain
chauthe panchawen sajjan hain, philip smait aur ka० na० subrahmanyam philip smait—suprasiddh merath shaDyantr ke abhiyukt angrez hain, kintu ab bharat ko hi ghar bana liya hai ek bharatiy mahila se shadi ki hai maisur se miss inDiya namak patrika nikalte hain shant chehra maun swbhaw! subrahmanyam madrasi hain, telagu ke nami lekhak! ghaDalle se bole ja rahe hain
aur, mere samne hain, mere do atmiy—shiwaji aur unki patni shila jab mujhe nimantran mila, shiwaji ne bhi sath dene ki ichha prakat ki mainne masani ko likha aur wo bhi pratinidhi ki haisiyat se ja rahe hain unki patni shila ne unka sath dekar bilkul gharelu watawarn bana diya hai!
plane uDa ja raha hai hum sandhya ko chale hain, niche samudr lahra raha hai; upar hum aage baDhe ja rahe hain—apni matribhumi se door! kitni dur?—abhi kaptan ka suchana patrak nahin mila hai
bambai mein do din raha, wahan ke mitron ke chehre aur swagat satkar ke drishya ankhon ke samne ghoom rahe hain
bambai station par utarkar jab bahar ho raha tha, is kangres ki bharatiy shakha ke shri barkhedkar mile unhonne meri kotwali taswir dekhi thi, atः hichkicha rahe the, kintu mere mote chashme ne unki jhijhak door ki unhonne masani ka salam kaha, kintu main to pahle se hi tay kar chuka tha, main prithwirajji ke sath thahrunga atः sidhe bhatunga!
prithwiraj ji, unki dharmpatni ramaji, bete shami aur shashi aur beti usi ke sneh se ab bhi abhibhut ho raha hoon shami ne apne swabhawik natkiya Dhang se kaha tha—chachaji, wahan ek chaprasi bhi lete chaliye!
jab masani se unke daftar mein mila, hindi mein hi baten shuru hui! hamlog sada hindi mein hi baten karte aaye hain, tab bhi, jab wo mushkil se hindi mein bol sakte the
hamari widai ke liye jo samaroh hua tha, usmen ashok aur purushottam aaye the purushottam ne ulhuna diya—mere yahan nahin thahre! aur ashok ke sir par puri bambai party kihmari bidai ke liye jo samaroh hua tha, usmen ashok aur purushottam aaye the purushottam ne ulahna diya—mere yahan nahin thahre! aur ashok ke sir par puri bambai party ki zimewari; to bhi, mere hi karan wahan aaye the, aisa unhonne sneh se kaha!
dewendr mere sath gaya tha, pichhe wirendr bhi gaye the shila ko pahunchane balaji aaye the shishir ajkal bambai mein hi hain, kal se hi sath mein lage hain dewghar ka indrnarayan sammelan mein kaam karta tha; akhbaron mein aaj bhor ko mere; jane ki suchana paDhi thi wo apne sath ek sajjan ko lete aaya tha usi sajjan, shri mukund goswami ke maghi pan ke biDe chabhta uDa ja raha hoon
kintu, ye pan kab tak chalega, kahan tak chalega? zyada se zyada kahira tak to kyon nahin cigarette shuru kar doon pichhle chhः sat mahinon se cigarette chhoD rakha tha, aur pan par hi kate ja raha tha kintu europe mein pan kahan? atः bambai mein hi do din cigarette ke kharid liye
kintu, ye kya? cigarette jalata hoon, to munh mein ajiw swad lagta hai! kuch maza nahin aa raha hai lekin, ayega, ayega! purani cheez bhi naya abhyas khojti hai n?
andhkar phail raha hai plane ki battiyan jal rahi hain udhar hostes khane ke liye har seat ke samne sankra tebul saja rahi hai chalo benipuri, hath munh ghoo, khao pio aur soo bahut thake hon! peris ghunghat taye tumhari pratiksha kar rahi hogi; phir wahan wishram kahan? han, shanti aur klanti bhi nahin hogi wahan; kintu us ras has ke liye bhi to shakti sanchay awashyak hai!
10/5/52
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prachin rishiyon ne kaha tha—charaiweti, charaiweti—chalte chalo, chalte chalo
adhunik manaw kahta hai—uDte chalo, uDte chalo
prachin rishiyon ka kahna hai—prithwi chal rahi hai, chandrma chal raha hai, surydewta chal rahe hain, isliye tum bhi chalte chalo, chalte chalo
adhunik manaw dekhta hai—prithwi, chandrma ya surydewta ki ga prati ghanta lakhon, karoDon, arbon meel hai kintu uske pair ki gati atyant parimit, dhimi hai atः wo kahta hai, chin ne jo sadhan diye hain, unka sahara lekar kam se kam panch sau meel prati ghante ke hisab se to uDte chalo
prachin rishi ki duniya chhoti thi, wo use paidal chal kar bhi par kar le sakte the adhunik manaw ka sansar bahut wa, lamba chauDa ho gaya hai wo kahan tak pairon ko ghasitta ch—wah uDega, wo uD raha hai!
main bhi ye dusri bar uD raha hoon chart batata hai, bambai se peris paune panch hazar meel hai; phir beech mein samudrpaD hain, marubhumi hai, jangal hain rishiyon ka wachan mankar paidal chala jata, to kitne din lag jate! kintu ye time tebul batata hai, abhi dopahar ko 1 40 baje hum chal rahe hain, kal subah subah theek aath baje peris ki ranginiyon mein Dubte utarte honge!
santakruj se abhi ek jhama ke sath hamara ye jahaj khaDa hai upar se bambai ki puri jhalak bhi nahin lene pas, ki ye dekhiye, niche samudr lahra raha hai aur upar hum uDe ja rahe hain
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nahin nahin, uDte chalo, uDte chalo! bambai se kahira, kahira se peris—sirf do hudakke aur hum apne mantawya sthan ko pa lenge
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tar bhejne wale ka nam aspasht nahin tha; kintu sthan ka nam bambai aspasht tha main sochne laga, ye achanak nimantran kaisa? kisse?
sath mein siyaram tha mainne usse kaha, chalo, peris chalen peris ka matlab usne sangit sabha samajh liya koi bura to nahin samjha? usne han bhar di main radio station ki or tezi se aap khana bana bun raha tha
chunaw ke baad ki thakan thi, kuch adhure kaam the socha tha, kuch dinon ghar par hi rah kar un kamon ko pura kar lunga peris jaun, to phir wahi dauD dhoop; phir kaam adhure ke rah jayenge!
radio station par ek do mitron ko wo tar dikhlaya, phir use jeb mein rakh diya, so teen dinon tak wo wahin paDa raha mera man asmanjas mein tha kintu dhire dhire mitron ko iski khabar hoti jati thi aur un sabka agrah ki zarur jao antatः pyare ganga ne sare tark witark ko shant kar diya—nahin, tumhein jana hi chahiye ye kaam do mahine baad bhi ho jayenge aur europe ki awahwa mein thakan bhi bhool jayegi!
aur, professor kapil ne apne hi hathon se swikriti ka tar bhai masani ke pas bhej diya tar ke prekshak wahi the, dusre din, din ki roshni mein aspasht ho gaya tha
udhar masani ke tar par tar aane lage, idhar beman ki taiyariyan bhi hone lagin kintu beech mein ek aisa bhi awsar aaya ki mainne tay kiya, ab jana rok hi dena hai kintu phir mitron ne kaha, jaiye hi, yahan hum sab samhal lenge
aur, aaj ja raha hoon kintu in jhanjhton ka ye asar ki ja raha hoon, par mere pas medical sartiphiket bhi adhure hi hain kabhi kabhi chinta hoti hai, na jane iske chalte kya ho? kintu, chalte samay air inDiya ke mi० dastur ne wishwas dilaya—hai chinta na kijiye sab theek rahega!
han, is bar air inDiya intarneshnal ke plane par ja raha hun—apne desh ke plane par! pichhli bar b० o० e० see० ke plane par gaya tha plane ka rangrup to ek hi hai, kintu nissandeh hi iske bhitar bharatiy watawarn lagta hai!
ye hamare samne ke thaile mein jo pankha hai, uspar ek nrityshil bharatiy laDki ka chitr hai bharatiy kala isse chhalki paDti hai jo bag hamein chhote samanon ko rakhne ke liye mila hai, uspar ek bharatiy paggaDdhari chaprasi ka chitr hai, jo hamein salam karta sa dikhta hai jo hostes abhi rui aur piparmit ki puDiya de gai hai, wo ek parsi laDki hai
plane mein adhikansh yatri bharatiy hain kaisa sanyog, isi plane se peris ke bharatiy rajadut mi० mallik bhi ja rahe hain—daDhi aur pagDi wale buDhe sajjan!
ye kalpana karke bar bar pulak hoti hai ki hum ek bharatiy hawai jahaj se safar kar rahe hain kintu, sochta hoon, hamlog apne desh mein apne hawai jahaj banana kab tak shuru karenge? wo bhi hokar rahega, sheeghr hi hona chahiye
uDa ja raha hoon, kintu ajiw suna suna lag raha hai, yadyapi pichhli bar ki apeksha is bar ki yatra nissandeh hi mahatw poorn hai is kangres ki or se is sahity samaroh ke atirikt biswin sadi ki sarwottam kalakritiyon ka pradarshan bhi hone ja raha hai ek sath, ek hi jagah, europe ke sangit, nrity, kala, sahity sabki bangi dekhne sunne ka suawsar prapt hoga!
is bar ke sathi bhi achchhe mile hain mitrawar masani ke pita sar rustam bhasani hamare dal ke neta hai sar rustam bambai ke prasiddh shiksha premi hi nahin hain, ek uchch koti ke lekhak bhi hain bambai wishwawidyalay ke wo wais chanslar rah chuke hai aur unki likhi dada bhai nauroji ki jiwani utkrisht koti ki jiwani mani jati hai unki kuch rachnaon ka anuwad french mein bhi ho chuka hai!
abhi aaye the, meri baghal mein baithe aur baDe prem se baten ki, jaise koi pita apne bachche ki mijazapurshi kar raha ho
pee० y० deshpanDe mere purane parichiton mein se hain jab socialist party ka janm hua, wo bhi shamil the marathi ke suprasiddh lekhak ha nagpur taims ke sanchalkon mein wo bhi aakar is bar ki europe yatra ke khake ke bare mein baten kar gaye hain wo pahli hi bar europe ja rahe hain
chauthe panchawen sajjan hain, philip smait aur ka० na० subrahmanyam philip smait—suprasiddh merath shaDyantr ke abhiyukt angrez hain, kintu ab bharat ko hi ghar bana liya hai ek bharatiy mahila se shadi ki hai maisur se miss inDiya namak patrika nikalte hain shant chehra maun swbhaw! subrahmanyam madrasi hain, telagu ke nami lekhak! ghaDalle se bole ja rahe hain
aur, mere samne hain, mere do atmiy—shiwaji aur unki patni shila jab mujhe nimantran mila, shiwaji ne bhi sath dene ki ichha prakat ki mainne masani ko likha aur wo bhi pratinidhi ki haisiyat se ja rahe hain unki patni shila ne unka sath dekar bilkul gharelu watawarn bana diya hai!
plane uDa ja raha hai hum sandhya ko chale hain, niche samudr lahra raha hai; upar hum aage baDhe ja rahe hain—apni matribhumi se door! kitni dur?—abhi kaptan ka suchana patrak nahin mila hai
bambai mein do din raha, wahan ke mitron ke chehre aur swagat satkar ke drishya ankhon ke samne ghoom rahe hain
bambai station par utarkar jab bahar ho raha tha, is kangres ki bharatiy shakha ke shri barkhedkar mile unhonne meri kotwali taswir dekhi thi, atः hichkicha rahe the, kintu mere mote chashme ne unki jhijhak door ki unhonne masani ka salam kaha, kintu main to pahle se hi tay kar chuka tha, main prithwirajji ke sath thahrunga atः sidhe bhatunga!
prithwiraj ji, unki dharmpatni ramaji, bete shami aur shashi aur beti usi ke sneh se ab bhi abhibhut ho raha hoon shami ne apne swabhawik natkiya Dhang se kaha tha—chachaji, wahan ek chaprasi bhi lete chaliye!
jab masani se unke daftar mein mila, hindi mein hi baten shuru hui! hamlog sada hindi mein hi baten karte aaye hain, tab bhi, jab wo mushkil se hindi mein bol sakte the
hamari widai ke liye jo samaroh hua tha, usmen ashok aur purushottam aaye the purushottam ne ulhuna diya—mere yahan nahin thahre! aur ashok ke sir par puri bambai party kihmari bidai ke liye jo samaroh hua tha, usmen ashok aur purushottam aaye the purushottam ne ulahna diya—mere yahan nahin thahre! aur ashok ke sir par puri bambai party ki zimewari; to bhi, mere hi karan wahan aaye the, aisa unhonne sneh se kaha!
dewendr mere sath gaya tha, pichhe wirendr bhi gaye the shila ko pahunchane balaji aaye the shishir ajkal bambai mein hi hain, kal se hi sath mein lage hain dewghar ka indrnarayan sammelan mein kaam karta tha; akhbaron mein aaj bhor ko mere; jane ki suchana paDhi thi wo apne sath ek sajjan ko lete aaya tha usi sajjan, shri mukund goswami ke maghi pan ke biDe chabhta uDa ja raha hoon
kintu, ye pan kab tak chalega, kahan tak chalega? zyada se zyada kahira tak to kyon nahin cigarette shuru kar doon pichhle chhः sat mahinon se cigarette chhoD rakha tha, aur pan par hi kate ja raha tha kintu europe mein pan kahan? atः bambai mein hi do din cigarette ke kharid liye
kintu, ye kya? cigarette jalata hoon, to munh mein ajiw swad lagta hai! kuch maza nahin aa raha hai lekin, ayega, ayega! purani cheez bhi naya abhyas khojti hai n?
andhkar phail raha hai plane ki battiyan jal rahi hain udhar hostes khane ke liye har seat ke samne sankra tebul saja rahi hai chalo benipuri, hath munh ghoo, khao pio aur soo bahut thake hon! peris ghunghat taye tumhari pratiksha kar rahi hogi; phir wahan wishram kahan? han, shanti aur klanti bhi nahin hogi wahan; kintu us ras has ke liye bhi to shakti sanchay awashyak hai!
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।