सन 1912 ई० में पहले-पहल गोरांग नीति का मुझे जो अनुभव हुआ, उसकी दुखद स्मृति आज भी हृदय को दग्ध कर देती है। दिसंबर की पहली तारीख़ को मैं बंबई से जहाज़ पर बैठकर मातृभूमि की गोद से विदा हुआ, और अफ़्रीक़ा के तटवर्ती कई घाटों का पानी पीता हुआ 22 तारीख़ को दरबन पहुँचा। मैं अकेला नहीं था, साथ में परिवार भी था—मेरे अनुज देवीदयाल थे, उनकी अर्धांगिनी थी, मेरी पत्नी जगरानीदेवी थीं और उनकी गोद में पाँच महीने का बच्चा रामदत्त भी था। इस प्रकार हम लोग छोटे-बड़े पाँच प्राणी थे।
दरबन के मनमोहक बंदरगाह पर जहाज़ पहुँचते ही डॉक्टर, इमिग्रेशन-अफ़सर और पुलिस के दर्शन हुए। नस-नाड़ी की परीक्षा ली गई, पास-पोर्ट उगाहे गए और पुलिस का पक्का पहरा बैठ गया। बंदरगाह में जहाज़ कुछ देर से पहुँचा था, इसलिए इमिग्रेशन वालों को यात्रियों के भाग्य का फ़ैसला करने का अवकाश नहीं मिल सका। जहाज़ पर ही सबको रात काटनी पड़ी। दूसरे दिन सबेरे सब यात्री तो उतार दिए गए, किंतु हमारे परिवार को उस क़ैद से रिहाई न मिली।
मेरा और भाई देवीदयाल का जन्म दक्षिण अफ़्रीक़ा में ही हुआ था और हम लोग वहीं की भूमि पर बाल-क्रीड़ा के दिन व्यतीत कर चुके थे। किंतु इससे क्या? दक्षिण अफ़्रीक़ा के सत्ताधिकारियों की दृष्टि में हमारे जन्म-सिद्ध अधिकार का महत्व ही क्या? अंतर्राष्ट्रीय क़ानून (International Law) के अनुसार जिसका जहाँ जन्म हुआ हो, वहाँ से उसे निर्वासित करने का अधिकार संसार की किसी भी सरकार को नहीं है, पर गोरांग नीति के सामने विश्व मर्यादा की क्या गणना? दक्षिण अफ़्रीक़ा वाले सर्वतंत्र स्वतंत्र हैं और जो कुछ कर डालें, वही थोड़ा है।
हमारे पास नेटाल का डोमीसाइल सार्टिफ़िकेट, लॉर्ड मिलनर का पीलो परमिट और ट्रान्सवाल का रजिस्ट्रेशन सार्टिफ़िकेट था।
इनके अतिरिक्त और भी अनेक प्रामाणिक तथा महत्वपूर्ण काग़ज़ात थे, जिनसे हमारे वहाँ रहने का अधिकार सिद्ध होता था; किंतु दक्षिण अफ़्रीक़ा के अमलदारों की दृष्टि में वे सब रद्दी के टोकरे में ही जगह पाने योग्य थे। उस समय यात्रियों के भाग्य-विधाता इमिग्रेशन-अमलदार मि० कज़िन्स थे और आप भारतीयों के प्रति बुरे व्यवहार के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हो रहे थे। आपकी कृपा से हमें भी चार दिन तक जहाज़ पर बंदी रहना पड़ा। वे चार दिन कितने दुःख और कितनी उद्विग्नता से कटे थे, उसका स्मरण कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
बंदरगाह पर जहाज़ था। हित-मित्र, सगे-स्नेही उसके पास ही खड़े थे; लेकिन क्या मजाल कि हम उनसे मिलकर बातचीत भी कर सकें। दूर से ही एक-दूसरे को देखते और आपस में आँसुओं से अभिवादन कर लेते थे। उसी जहाज़ से हमें देश वापिस जाने की आज्ञा मिल चुकी थी, इसलिए चिंता, उद्विग्नता और व्याकुलता की कोई सीमा नहीं थी। यदि केवल हम दोनों भाई होते, तो साहस का बॉध न टूटने पाता; किंतु स्त्रियों और बच्चों के साथ होने के कारण रोम-रोम में दुःसह दुःख व्याप रहा था।
जब हमारे ही जन्म-सिद्ध अधिकार पर कुठार चला दिया गया, तब भारत में जन्म पाने वाली स्त्रियों और बच्चों की क्या विसात? महात्मा गाँधी के आदेशानुसार मैंने ससराम के योरोपियन मैजिस्ट्रेट से शादी की सनद ले ली थी और उसे इमिग्रेशन अमलदार की ख़िदमत में पेश भी किया था, किंतु उसमें त्रुटि यह रह गई थी कि उस पर महिलाओं के अँगूठे के निशान नहीं थे। महिलाएँ भारतीय और उस पर उनके अँगूठे की छाप नदारद; फिर ऐसी सनद भी कहीं जायज़ हो सकती है? जब हमारे जन्म-सिद्ध अधिकार ही रद; भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक प्रमाण-पत्र भी नाजायज़, तब भला सनद की क्या गिनती, चाहे वह एक योरोपियन मैजिस्ट्रेट ही की लिखी हुई क्यों न हो और चाहे उस पर एक भारतीय अदालत की मुहर ही क्यों न लग चुकी हो।
इधर तो हमारी दुर्गति और दुश्चिंता की सीमा नहीं थी और प्रतिक्षण एक युग की नाईं बीत रहा था; उधर हमारे मित्रों, हितैषियों और शुभचिंतकों पर जो कुछ आपत्तियाँ छाई हुई थीं, उनकी करुण-कहानी सुप्रसिद्ध भारत-हितैषी मि० हेनरी एस० एल० पोलक साहब की उस चिट्ठी में पाई जाती है, जो उन्होंने दक्षिण अफ़्रीक़ा के गृह-सचिव (Minister of Interior) को लिखी थी, और जो 4 जनवरी के 'इंडियन ओपिनियन' में प्रकाशित हुई थी। उसका आशय यहाँ दिया जाता है—श्रीमान्! आप शायद यह जानते होंगे कि मैं ट्रान्सवाल सुप्रीम कोर्ट का अटर्नी और 'इंडियन ओपिनियन' का संपादक हूँ। हाल ही में दरबन आने पर श्री० गाँधी (महात्मा जी) ने दो भारतीय युवक—श्री० भवानीदयाल और श्री० देवीदयाल का मामला मुझे सौंपा। इनकी स्त्रियाँ भी साथ हैं और उनमें से एक की गोद में पाँच मास का एक बच्चा भी है। ये लोग 22 तारीख़ को 'पालम कोटा' जहाज़ से दरबन पहुँचे। दयाल बंधुओं का जन्म ट्रान्सवाल में हुआ है, और नैटाल में इनकी स्थायी संपत्ति भी है। इनसे मिलने के वास्ते मैं जहाज़ पर गया, और मुझे मालूम हुआ कि इमिग्रेशन-अमलदार मि० नजिन्त इनके संबंध में अगले दिन कुछ फ़ैसला करेंगे।
दूसरे दिन 23 तारीख़ को मि० कजिन्स दिन भर अदालत की कार्रवाई में व्यस्त रहे, और बहुत देर में ऑफ़िस लौटे। उस दिन तो कोई फ़ैसला नहीं हो सका; किंतु मैंने उसी दिन ट्रान्सवात के एक जवाबदार और प्रतिष्टित सज्जन का लिखित साक्षी-पत्र उनकी सेवा में उपस्थित किया, जिसमें कहा गया था कि वे व्यक्तिगत रूप से प्रार्थियों को जानते हैं और यह भी जानते हैं कि दोनों प्रार्थी 31 मई 1902 ई० के दिन ट्रान्सवाल में मौजूद थे। अतएव सन् 1908 ई० के 36 वें क़ानून के अनुसार प्रार्थियों का ट्रान्सवात में प्रवेश करने का दावा उचित और न्याय-संगत है। 24 तारीख़ को मैं फिर मि० कज़िन्स के पास पहुँचा और मुझसे कहा गया कि उन्होंने दयाल-बंधुओं को दान्तवाल में प्रवेश करने के लिए प्रार्थना-पत्र भेजने के संबंध में कोई विचार नहीं किया है और जब तक ट्रान्सवाल के एशियाटिक रजिस्ट्रार की अनुमति न मिल जाएगी, तब तक वे इस विषय पर कोई भी कार्यवाही करने में असमर्थ हैं। अंतिम घड़ी में मिः कजिन्स ने प्रार्थियों को बड़े ही असमंजस में डाल दिया। ख़ैर, मैंने तुरंत रजिस्ट्रार के पास तार भेजा, और शाम तक जवाब आगया कि वे इस प्रकार के प्रार्थना-पत्र की क़दर नहीं कर सकते। इस परिस्थिति मैंने मि० कज़िन्स से पुनः निवेदन किया कि ऋतु बहुत ख़राब हो गई है, और जहाज़ पर कोयला लदने वाला है, अतएव दयाल बंधुओं को मामूली ज़मानत तथा मेरी व्यक्तिगत जवाबदारी पर उतरने दिया जाए, किंतु उन्होंने ऐसा करने से एकबारगी इंकार कर दिया।
रजिस्ट्रार से अधिक पत्र-व्यवहार करने के लिए यथेष्ट समय नहीं था, इसलिए मैंने मि० गुड्रिक और मि० लौटन से अनुरोध किया कि वे दयाल-बंधुओं के संबंध में मि० कज़िन्स के निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट की आज्ञाप्राप्त करने की व्यवस्था करें। फिर इसी बात की सूचना देकर मैंने मि० कज़िन्स से पूछा कि वे क्रिसमस के दिन कहाँ मिलेंगे, ताकि उनके पास अदालत की आज्ञा पहुँचाई जा सके। जवाब में उन्होंने कहा कि वे उस दिन कहाँ रहेंगे, यह सर्वथा अनिश्चित है। इस उत्तर का मैंने इसलिए तीव्र प्रतिवाद किया कि प्रार्थियों की न्यायपूर्ण स्वाधीनता उनके व्यक्तिगत कार्यों की मुहताज न होनी चाहिए। इस पर मुझे प्रत्युत्तर मिला कि वे मुझसे अधिक कुछ नहीं कह सकते।
क्रिसमस-दिवस के प्रातः मेरीत्सबर्ग के मि० जे० एस० टेथम, के० सी० ने जस्टिस ब्रूम के मकान पर पहुँचकर यह आज्ञा प्राप्त की कि प्रार्थियों को सौ पाउंड की ज़मानत पर उतरने दिया जाए। मेरोत्सबर्ग से ख़बर मिलने पर मैंने अपने संदेश-वाहक द्वारा मि० टेथम का संदेश और दरबन के महान् प्रतिभाशाली और परम प्रतिष्ठित व्यापारी पारसी रुस्तमजी का सौ पाउंड का चेक ज़मानत रूप में मि० कज़िन्स के पास भेजा। पहले तो उन्होंने मेरे संदेश-वाहक का बहुत सा समय निष्प्रयोजन ही नष्ट किया, और फिर मेरा पत्र पढ़कर भी उसे लेने से साफ़ इंकार कर दिया तथा चेक भी लौटा दिया। मैं स्वयं नहीं जा सका था, क्योंकि इस मामले की दौड़-धूप से मेरे घुटने पर सख़्त चोट लग गई थी। इस बात की सूचना पाकर फिर मैं स्वयं ज़मानत की नक़द रक़म साथ लेकर मि० कज़िन्स के बँगले पर पहुँचा। यद्यपि मैं मि० टेथम के एजेंट के तौर पर काम कर रहा था, तो भी मि० कज़िन्स ने बड़े कड़े और रूखे स्वर में कहा कि मुझे उन पर अदालत की आज्ञा तामील करने का कोई हक़ नहीं है। वे ज़मानत की नक़द रक़म लेने से भी साफ़ मुकर गए और मुझे अगले दिन 26 तारीख़ को नौ बजे फिर बुलाया।
बॉक्सिंग-दिन के प्रातः ठीक समय पर मैं इस आशा से वहाँ पहुँचा कि प्रार्थियों को तत्क्षण छुट्टी मिल जाएगी। आधे घंटे तक प्रतीक्षा करने के बाद मि० कज़िन्स मेरे पास आए और कहने लगे कि मि० टेथम का तार उन्हें भी मिल गया है, किंतु अदालत की आज्ञा में ज़मानत के विषय पर कोई स्पष्टीकरण नहीं है। उनकी समझ में आज्ञा का आदेश यह है कि प्रार्थी एक बंदी-पत्र पर हस्ताक्षर करके उतरें, पहरे के अंदर नज़रबंद रहें और जब तक ट्रान्सवाल के प्रवेशाधिकार के संबंध में कोई निर्णय न हो जाए, तब तक ज़मानत की रक़म से अपना ख़र्च चलाएँ। मैंने मि० कज़िन्स को बतलाया कि यह शर्त बिलकुल अनावश्यक है। दयाल-बंधु प्रतिष्ठित पुरुष है, और मैं ख़ुद भी व्यक्तिगत रूप से उनको निश्चित समय पर हाज़िर कर देने के लिए ज़िम्मेदार होता हूँ। परंतु मेरी बातों पर विचार करने से उन्होने साफ़ इंकार कर दिया। मैंने पुन: निवेदन किया कि उनका यह कार्य ग़ैर-क़ानूनी है, और उच्च अदालत की आज्ञा के विपरीत है। यह बात मैं दयाल बंधुओं को भी समझा देना चाहता हूँ। इस पर मि० कज़िन्स ने कहा कि मेरी जो ख़ुशी हो, प्रार्थियों को समझा दूँ किंतु वे तब तक उतरने की इजाज़त नहीं देंगे, जब तक कि प्रार्थी बंदी-पत्र पर दस्तख़त न करें या जब तक कि प्रार्थियों को बिना किसी शर्त के उतारने देने के लिए अदालत की आज्ञा ख़ुद उन्हें न मिल जाए।
मैंने प्रार्थियों को सब बातें समझाकर यह सलाह दी कि वे बंदी-पत्र पर हस्ताक्षर न करें। यह बात उन्होंने मान ली। फिर प्रार्थियों ने मेरे आदेश से अदालत की आज्ञानुसार ज़मानत की रक़म मि० कज़िन्स के सामने रख दी, लेकिन बंदी-पत्र पर प्रार्थियों के हस्ताक्षर किए बिना उन्होंने ज़मानत की रक़म छूना अस्वीकार कर दिया। जहाज़ के कप्तान एक मेज़ पर पड़ी हुई ज़मानत की रक़म उठाकर मि० कज़िन्स के हवाले करने की चेष्टा करने लगे। इस पर मि० कज़िन्स बोल उठे कि कप्तान ने अपनी निजी ज़िम्मेदारी पर रक़म में हाथ लगाया है।
जाँच करने पर मुझे यह भी मालूम हुआ कि मि० कज़िन्स ने जहाज़ के कप्तान को अदालत की आज्ञा के संबंध में कोई सूचना नहीं दी है। मैंने तुरंत कप्तान को सब बातें समझा दी, और ताकीद कर दी कि यदि प्रार्थियों को नेटाल के किनारे से हटाया गया, तो अदालत की आज्ञा भंग करने की जवाबदारी उन पर और मि० कज़िन्स पर होगी। जहाज़ खुलने का वक़्त हो गया था। मि० कज़िन्स ने जहाज़ के कप्तान से कहा कि जब तक जज की विशेष आज्ञा न प्राप्त हो जाए, तब तक जहाज़ ज़रूर रुका रहेगा, और इस विलंब का मुख्य कारण मेरी वह सम्मति है, जो मैंने दयाल-बंधुओं को दी है। मैंने उत्तर में निवेदन किया कि मैं वहाँ उनकी ग़ैर-क़ानूनी कार्यवाही का प्रतिवाद करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ।
इस पर मि० कज़िन्स बेतरह बिगड़ उठे, और प्रार्थियों को यह भय दिखाकर कि बंदी-पत्र पर हस्ताक्षर किए बिना कदापि नहीं उतरने दिया जाएगा, मुझे एक अफ़सर के पहरे के अंदर उसी क्षण जहाज़ से चले जाने की अपमानजनक इजाज़त दी। मैं वहाँ से चुपचाप चला गया, क्योंकि मैं टेलीफ़ोन द्वारा अदालत की आज्ञा का स्पष्टीकरण कराके इस परिस्थिति का अंत लाने के वास्ते विशेष रूप से चिंतित था। मेरे चले जाने पर मि० कज़िन्स ने पुनः प्रार्थियों को धमकाना शुरू किया कि बंदी-पत्र पर सही बनाए बिना उनको तथा उनकी युवती पत्नियों को देश लौट जाना ही पड़ेगा। इस भय से भीत होकर प्रार्थियों ने बंदी-पत्र पर हस्ताक्षर बना दिए और जहाज़ से उतर कर पहरे के अंदर इमिग्रेशन-ऑफ़िस पहुँचे।
इधर मैंने टेलीफ़ोन द्वारा मेरीत्सबर्ग के मि० टेथम को सब समाचार सुनाया, और यह भी अनुरोध किया कि वे जज से मिल कर अदालत की आज्ञा का स्पष्टीकरण कराएँ। जैसा कि मेरा विश्वास था, जज ने तुरंत कहा कि अदालत की आज्ञा का वह अर्थ और भावार्थ नहीं है, जो इमिग्रेशन-अमलदार ने समझा है। वहाँ से हुक्म आने पर मि० कज़िन्स ने प्रार्थियों को चौदह दिन की मुलाक़ाती सनद (Visiting Pass) देकर रिहा कर दिया।
27 तारीख़ को मैंने मि० कज़िन्स से पूछा कि वे ट्रान्सवाल के एशियाटिक-रजिस्ट्रार के एजेंट की हैसियत से प्रार्थियों की अर्ज़ी क़ुबूल करके वहाँ भेज दें, लेकिन उन्होंने यह बात भी मंज़ूर न की। विवश होकर प्रार्थियों को स्वयं अपनी अर्ज़ी सीधे रजिस्ट्रार के पास भेजनी पड़ी।
इसके बाद मि० हेनरी पोलक ने इमिग्रेशन-अमलदार की इन कार्यवाहियों को अनेक प्रमाणों और युक्तियों से ग़ैर-क़ानूनी अन्याययुक्त और दुष्टतापूर्ण सिद्ध करके गृह-सचिव से विशेष विचार करने के लिए प्रार्थना की। मि० पोलक का पत्र बहुत बड़ा है और क़ानूनी दलीलों से भरा हुआ है। मैंने उसमें से केवल रोचक घटनाओं का ही आशय ऊपर दिया है, जिससे पाठक समझ जाएँ कि मेरे जीवन के वे चार दिन कितने स्मरणीय हैं।
pahla parichchhed
gorang niti ka pahla anubhav
san 1912 i० mein pahle pahal gorang niti ka mujhe jo anubhav hua, uski dukhad smriti aaj bhi hirdai ko dagdh kar deti hai. december ki pahli tarikh ko main bambai se jahaz par baithkar matribhumi ki god se vida hua, aur africa ke tatvarti kai ghaton ka pani pita hua 22 tarikh ko darban pahuncha. main akela nahin tha, saath mein parivar bhi tha—mere anuj devidyal the, unki ardhangini thi, meri patni jagranidevi theen aur unki god mein paanch mahine ka bachcha ramdatt bhi tha. is prakar hum log chhote baDe paanch parani the.
darban ke manmohak bandargah par jahaz pahunchte hi doctor, imigreshan afsar aur police ke darshan hue. nas naDi ki pariksha li gai, paas port ugahe gaye aur police ka pakka pahra baith gaya. bandargah mein jahaz kuch der se pahuncha tha, isliye imigreshan valon ko yatriyon ke bhagya ka faisla karne ka avkash nahin mil saka. jahaz par hi sabko raat katni paDi. dusre din sabere sab yatri to utaar diye gaye, kintu hamare parivar ko us qaid se rihai na mili.
mera aur bhai devidyal ka janm dakshain africa mein hi hua tha aur hum log vahin ki bhumi par baal kriDa ke din vyatit kar chuke the. kintu isse kyaa? dakshain africa ke sattadhikariyon ki drishti mein hamare janm siddh adhikar ka mahatv hi kyaa? antarrashtriy qanun (international law) ke anusar jiska jahan janm hua ho, vahan se use nirvasit karne ka adhikar sansar ki kisi bhi sarkar ko nahin hai, par gorang niti ke samne vishv maryada ki kya ganana? dakshain africa vale sarvtantr svtantr hain aur jo kuch kar Dalen, vahi thoDa hai.
hamare paas netal ka Domisail sartifiket, laurD milnar ka pilo permit aur transval ka registration sartifiket tha.
inke atirikt aur bhi anek pramanaik tatha mahatvapurn kaghzat the, jinse hamare vahan rahne ka adhikar siddh hota tha; kintu dakshain africa ke amaldaron ki drishti mein ve sab raddi ke tokre mein hi jagah pane yogya the. us samay yatriyon ke bhagya vidhata imigreshan amaldar mi० kazins the aur aap bhartiyon ke prati bure vyvahar ke liye vishesh roop se prasiddh ho rahe the. apaki kripa se hamein bhi chaar din tak jahaz par bandi rahna paDa. ve chaar din kitne duःkh aur kitni udvignata se kate the, uska smarn kar aaj bhi rongte khaDe ho jate hain.
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jab hamare hi janm siddh adhikar par kuthar chala diya gaya, tab bharat mein janm pane vali striyon aur bachchon ki kya visat? mahatma gandhi ke adeshanusar mainne sasram ke european maijistret se shadi ki sanad le li thi aur use imigreshan amaldar ki khidmat mein pesh bhi kiya tha, kintu usmen truti ye rah gai thi ki us par mahilaon ke anguthe ke nishan nahin the. mahilayen bharatiy aur us par unke anguthe ki chhaap nadarad; phir aisi sanad bhi kahin jayaz ho sakti hai? jab hamare janm siddh adhikar hi rad; bhinn bhinn prakar ke anek praman patr bhi najayaz, tab bhala sanad ki kya ginti, chahe wo ek european maijistret hi ki likhi hui kyon na ho aur chahe us par ek bharatiy adalat ki muhr hi kyon na lag chuki ho.
idhar to hamari durgati aur dushchinta ki sima nahin thi aur pratikshan ek yug ki nain beet raha tha; udhar hamare mitron, hitaishiyon aur shubhchintkon par jo kuch apattiyan chhai hui theen, unki karun kahani suprasiddh bharat hitaishai mi० henri s० l० polak sahab ki us chitthi mein pai jati hai, jo unhonne dakshain africa ke grih sachiv (minister of interior) ko likhi thi, aur jo 4 january ke inDiyan opiniyan mein prakashit hui thi. uska ashay yahan diya jata hai—shriman! aap shayad ye jante honge ki main transval supreme court ka atarni aur inDiyan opiniyan ka sampadak hoon. haal hi mein darban aane par shree० gandhi (mahatma jee) ne do bharatiy yuvak—shri० bhavanidyal aur shree० devidyal ka mamla mujhe saumpa. inki striyan bhi saath hain aur unmen se ek ki god mein paanch maas ka ek bachcha bhi hai. ye log 22 tarikh ko palam qouta jahaz se darban pahunche. dayal bandhuon ka janm transval mein hua hai, aur naital mein inki sthayi sampatti bhi hai. inse milne ke vaste main jahaz par gaya, aur mujhe malum hua ki imigreshan amaldar mi० najint inke sambandh mein agle din kuch faisla karenge.
dusre din 23 tarikh ko mi० kajins din bhar adalat ki karrvai mein vyast rahe, aur bahut der mein office laute. us din to koi faisla nahin ho saka; kintu mainne usi din transvat ke ek javabadar aur prtishtit sajjan ka likhit sakshi patr unki seva mein upasthit kiya, jismen kaha gaya tha ki ve vyaktigat roop se prarthiyon ko jante hain aur ye bhi jante hain ki donon prarthi 31 mai 1902 i० ke din transval mein maujud the. atev san 1908 i० ke 36 ven qanun ke anusar prarthiyon ka transvat mein pravesh karne ka dava uchit aur nyaay sangat hai. 24 tarikh ko main phir mi० kazins ke paas pahuncha aur mujhse kaha gaya ki unhonne dayal bandhuon ko dantval mein pravesh karne ke liye pararthna patr bhejne ke sambandh mein koi vichar nahin kiya hai aur jab tak transval ke eshiyatik registrar ki anumti na mil jayegi, tab tak ve is vishay par koi bhi karyavahi karne mein asmarth hain. antim ghaDi mein miः kajins ne prarthiyon ko baDe hi asmanjas mein Daal diya. khair, mainne turant registrar ke paas taar bheja, aur shaam tak javab aagya ki ve is prakar ke pararthna patr ki qadar nahin kar sakte. is paristhiti mainne mi० kazins se punः nivedan kiya ki ritu bahut kharab ho gai hai, aur jahaz par koyala ladne vala hai, atev dayal bandhuon ko mamuli zamanat tatha meri vyaktigat javabdari par utarne diya jaye, kintu unhonne aisa karne se ekbargi inkaar kar diya.
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idhar mainne telephone dvara meritsbarg ke mi० tetham ko sab samachar sunaya, aur ye bhi anurodh kiya ki ve jaj se mil kar adalat ki aagya ka spashtikarn karayen. jaisa ki mera vishvas tha, jaj ne turant kaha ki adalat ki aagya ka wo arth aur bhavarth nahin hai, jo imigreshan amaldar ne samjha hai. vahan se hukm aane par mi० kazins ne prarthiyon ko chaudah din ki mulaqati sanad (visiting pass) dekar riha kar diya.
27 tarikh ko mainne mi० kazins se puchha ki ve transval ke eshiyatik registrar ke ejent ki haisiyat se prarthiyon ki arzi qubul karke vahan bhej den, lekin unhonne ye baat bhi manzur na ki. vivash hokar prarthiyon ko svayan apni arzi sidhe registrar ke paas bhejni paDi.
iske baad mi० henri polak ne imigreshan amaldar ki in karyvahiyon ko anek prmanon aur yuktiyon se ghair qanuni anyayyukt aur dushtatapurn siddh karke grih sachiv se vishesh vichar karne ke liye pararthna ki. mi० polak ka patr bahut baDa hai aur qanuni dalilon se bhara hua hai. mainne usmen se keval rochak ghatnaon ka hi ashay upar diya hai, jisse pathak samajh jayen ki mere jivan ke ve chaar din kitne smarnaiy hain.
pahla parichchhed
gorang niti ka pahla anubhav
san 1912 i० mein pahle pahal gorang niti ka mujhe jo anubhav hua, uski dukhad smriti aaj bhi hirdai ko dagdh kar deti hai. december ki pahli tarikh ko main bambai se jahaz par baithkar matribhumi ki god se vida hua, aur africa ke tatvarti kai ghaton ka pani pita hua 22 tarikh ko darban pahuncha. main akela nahin tha, saath mein parivar bhi tha—mere anuj devidyal the, unki ardhangini thi, meri patni jagranidevi theen aur unki god mein paanch mahine ka bachcha ramdatt bhi tha. is prakar hum log chhote baDe paanch parani the.
darban ke manmohak bandargah par jahaz pahunchte hi doctor, imigreshan afsar aur police ke darshan hue. nas naDi ki pariksha li gai, paas port ugahe gaye aur police ka pakka pahra baith gaya. bandargah mein jahaz kuch der se pahuncha tha, isliye imigreshan valon ko yatriyon ke bhagya ka faisla karne ka avkash nahin mil saka. jahaz par hi sabko raat katni paDi. dusre din sabere sab yatri to utaar diye gaye, kintu hamare parivar ko us qaid se rihai na mili.
mera aur bhai devidyal ka janm dakshain africa mein hi hua tha aur hum log vahin ki bhumi par baal kriDa ke din vyatit kar chuke the. kintu isse kyaa? dakshain africa ke sattadhikariyon ki drishti mein hamare janm siddh adhikar ka mahatv hi kyaa? antarrashtriy qanun (international law) ke anusar jiska jahan janm hua ho, vahan se use nirvasit karne ka adhikar sansar ki kisi bhi sarkar ko nahin hai, par gorang niti ke samne vishv maryada ki kya ganana? dakshain africa vale sarvtantr svtantr hain aur jo kuch kar Dalen, vahi thoDa hai.
hamare paas netal ka Domisail sartifiket, laurD milnar ka pilo permit aur transval ka registration sartifiket tha.
inke atirikt aur bhi anek pramanaik tatha mahatvapurn kaghzat the, jinse hamare vahan rahne ka adhikar siddh hota tha; kintu dakshain africa ke amaldaron ki drishti mein ve sab raddi ke tokre mein hi jagah pane yogya the. us samay yatriyon ke bhagya vidhata imigreshan amaldar mi० kazins the aur aap bhartiyon ke prati bure vyvahar ke liye vishesh roop se prasiddh ho rahe the. apaki kripa se hamein bhi chaar din tak jahaz par bandi rahna paDa. ve chaar din kitne duःkh aur kitni udvignata se kate the, uska smarn kar aaj bhi rongte khaDe ho jate hain.
bandargah par jahaz tha. hit mitr, sage snehi uske paas hi khaDe the; lekin kya majal ki hum unse milkar batachit bhi kar saken. door se hi ek dusre ko dekhte aur aapas mein ansuon se abhivadan kar lete the. usi jahaz se hamein desh vapis jane ki aagya mil chuki thi, isliye chinta, udvignata aur vyakulta ki koi sima nahin thi. yadi keval hum donon bhai hote, to sahas ka baudh na tutne pata; kintu striyon aur bachchon ke saath hone ke karan rom rom mein duःsah duःkh vyaap raha tha.
jab hamare hi janm siddh adhikar par kuthar chala diya gaya, tab bharat mein janm pane vali striyon aur bachchon ki kya visat? mahatma gandhi ke adeshanusar mainne sasram ke european maijistret se shadi ki sanad le li thi aur use imigreshan amaldar ki khidmat mein pesh bhi kiya tha, kintu usmen truti ye rah gai thi ki us par mahilaon ke anguthe ke nishan nahin the. mahilayen bharatiy aur us par unke anguthe ki chhaap nadarad; phir aisi sanad bhi kahin jayaz ho sakti hai? jab hamare janm siddh adhikar hi rad; bhinn bhinn prakar ke anek praman patr bhi najayaz, tab bhala sanad ki kya ginti, chahe wo ek european maijistret hi ki likhi hui kyon na ho aur chahe us par ek bharatiy adalat ki muhr hi kyon na lag chuki ho.
idhar to hamari durgati aur dushchinta ki sima nahin thi aur pratikshan ek yug ki nain beet raha tha; udhar hamare mitron, hitaishiyon aur shubhchintkon par jo kuch apattiyan chhai hui theen, unki karun kahani suprasiddh bharat hitaishai mi० henri s० l० polak sahab ki us chitthi mein pai jati hai, jo unhonne dakshain africa ke grih sachiv (minister of interior) ko likhi thi, aur jo 4 january ke inDiyan opiniyan mein prakashit hui thi. uska ashay yahan diya jata hai—shriman! aap shayad ye jante honge ki main transval supreme court ka atarni aur inDiyan opiniyan ka sampadak hoon. haal hi mein darban aane par shree० gandhi (mahatma jee) ne do bharatiy yuvak—shri० bhavanidyal aur shree० devidyal ka mamla mujhe saumpa. inki striyan bhi saath hain aur unmen se ek ki god mein paanch maas ka ek bachcha bhi hai. ye log 22 tarikh ko palam qouta jahaz se darban pahunche. dayal bandhuon ka janm transval mein hua hai, aur naital mein inki sthayi sampatti bhi hai. inse milne ke vaste main jahaz par gaya, aur mujhe malum hua ki imigreshan amaldar mi० najint inke sambandh mein agle din kuch faisla karenge.
dusre din 23 tarikh ko mi० kajins din bhar adalat ki karrvai mein vyast rahe, aur bahut der mein office laute. us din to koi faisla nahin ho saka; kintu mainne usi din transvat ke ek javabadar aur prtishtit sajjan ka likhit sakshi patr unki seva mein upasthit kiya, jismen kaha gaya tha ki ve vyaktigat roop se prarthiyon ko jante hain aur ye bhi jante hain ki donon prarthi 31 mai 1902 i० ke din transval mein maujud the. atev san 1908 i० ke 36 ven qanun ke anusar prarthiyon ka transvat mein pravesh karne ka dava uchit aur nyaay sangat hai. 24 tarikh ko main phir mi० kazins ke paas pahuncha aur mujhse kaha gaya ki unhonne dayal bandhuon ko dantval mein pravesh karne ke liye pararthna patr bhejne ke sambandh mein koi vichar nahin kiya hai aur jab tak transval ke eshiyatik registrar ki anumti na mil jayegi, tab tak ve is vishay par koi bhi karyavahi karne mein asmarth hain. antim ghaDi mein miः kajins ne prarthiyon ko baDe hi asmanjas mein Daal diya. khair, mainne turant registrar ke paas taar bheja, aur shaam tak javab aagya ki ve is prakar ke pararthna patr ki qadar nahin kar sakte. is paristhiti mainne mi० kazins se punः nivedan kiya ki ritu bahut kharab ho gai hai, aur jahaz par koyala ladne vala hai, atev dayal bandhuon ko mamuli zamanat tatha meri vyaktigat javabdari par utarne diya jaye, kintu unhonne aisa karne se ekbargi inkaar kar diya.
registrar se adhik patr vyvahar karne ke liye yathesht samay nahin tha, isliye mainne mi० guDrik aur mi० lautan se anurodh kiya ki ve dayal bandhuon ke sambandh mein mi० kazins ke nirnay ke viruddh supreme court ki agyaprapt karne ki vyavastha karen. phir isi baat ki suchana dekar mainne mi० kazins se puchha ki ve christmas ke din kahan milenge, taki unke paas adalat ki aagya pahunchai ja sake. javab mein unhonne kaha ki ve us din kahan rahenge, ye sarvatha anishchit hai. is uttar ka mainne isliye teevr prativad kiya ki prarthiyon ki nyayapurn svadhinata unke vyaktigat karyon ki muhtaj na honi chahiye. is par mujhe pratyuttar mila ki ve mujhse adhik kuch nahin kah sakte.
christmas divas ke praatः meritsbarg ke mi० je० s० tetham, ke० see० ne justice broom ke makan par pahunchakar ye aagya praapt ki ki prarthiyon ko sau paunD ki zamanat par utarne diya jaye. merotsbarg se khabar milne par mainne apne sandesh vahak dvara mi० tetham ka sandesh aur darban ke mahan pratibhashali aur param pratishthit vyapari parsi rustamji ka sau paunD ka check zamanat roop mein mi० kazins ke paas bheja. pahle to unhonne mere sandesh vahak ka bahut sa samay nishprayojan hi nasht kiya, aur phir mera patr paDhkar bhi use lene se saaf inkaar kar diya tatha check bhi lauta diya. main svayan nahin ja saka tha, kyonki is mamle ki dauD dhoop se mere ghutne par sakht chot lag gai thi. is baat ki suchana pakar phir main svayan zamanat ki naqad raqam saath lekar mi० kazins ke bangale par pahuncha. yadyapi main mi० tetham ke ejent ke taur par kaam kar raha tha, to bhi mi० kazins ne baDe kaDe aur rukhe svar mein kaha ki mujhe un par adalat ki aagya tamil karne ka koi haq nahin hai. ve zamanat ki naqad raqam lene se bhi saaf mukar gaye aur mujhe agle din 26 tarikh ko nau baje phir bulaya.
bauksing din ke praatः theek samay par main is aasha se vahan pahuncha ki prarthiyon ko tatkshan chhutti mil jayegi. aadhe ghante tak pratiksha karne ke baad mi० kazins mere paas aaye aur kahne lage ki mi० tetham ka taar unhen bhi mil gaya hai, kintu adalat ki aagya mein zamanat ke vishay par koi spashtikarn nahin hai. unki samajh mein aagya ka adesh ye hai ki prarthi ek bandi patr par hastakshar karke utren, pahre ke andar nazarband rahen aur jab tak transval ke prveshadhikar ke sambandh mein koi nirnay na ho jaye, tab tak zamanat ki raqam se apna kharch chalayen. mainne mi० kazins ko batlaya ki ye shart bilkul anavashyak hai. dayal bandhu pratishthit purush hai, aur main khu bhi vyaktigat roop se unko nishchit samay par hazir kar dene ke liye zimmedar hota hoon. parantu meri baton par vichar karne se unhone saaf inkaar kar diya. mainne punah nivedan kiya ki unka ye kaary ghair qanuni hai, aur uchch adalat ki aagya ke viprit hai. ye baat main dayal bandhuon ko bhi samjha dena chahta hoon. is par mi० kazins ne kaha ki meri jo khushi ho, prarthiyon ko samjha doon kintu ve tab tak utarne ki ijazat nahin denge, jab tak ki prarthi bandi patr par dastakhat na karen ya jab tak ki prarthiyon ko bina kisi shart ke utarne dene ke liye adalat ki aagya khu unhen na mil jaye.
mainne prarthiyon ko sab baten samjhakar ye salah di ki ve bandi patr par hastakshar na karen. ye baat unhonne maan li. phir prarthiyon ne mere adesh se adalat ki agyanusar zamanat ki raqam mi० kazins ke samne rakh di, lekin bandi patr par prarthiyon ke hastakshar kiye bina unhonne zamanat ki raqam chhuna asvikar kar diya. jahaz ke kaptan ek mez par paDi hui zamanat ki raqam uthakar mi० kazins ke havale karne ki cheshta karne lage. is par mi० kazins bol uthe ki kaptan ne apni niji zimmedari par raqam mein haath lagaya hai.
jaanch karne par mujhe ye bhi malum hua ki mi० kazins ne jahaz ke kaptan ko adalat ki aagya ke sambandh mein koi suchana nahin di hai. mainne turant kaptan ko sab baten samjha di, aur takid kar di ki yadi prarthiyon ko netal ke kinare se hataya gaya, to adalat ki aagya bhang karne ki javabdari un par aur mi० kazins par hogi. jahaz khulne ka vaqt ho gaya tha. mi० kazins ne jahaz ke kaptan se kaha ki jab tak jaj ki vishesh aagya na praapt ho jaye, tab tak jahaz zarur ruka rahega, aur is vilamb ka mukhy karan meri wo sammati hai, jo mainne dayal bandhuon ko di hai. mainne uttar mein nivedan kiya ki main vahan unki ghair qanuni karyavahi ka prativad karne ke liye upasthit hua hoon.
is par mi० kazins betarah bigaD uthe, aur prarthiyon ko ye bhay dikhakar ki bandi patr par hastakshar kiye bina kadapi nahin utarne diya jayega, mujhe ek afsar ke pahre ke andar usi kshan jahaz se chale jane ki apmanajnak ijazat di. main vahan se chupchap chala gaya, kyonki main telephone dvara adalat ki aagya ka spashtikarn karake is paristhiti ka ant lane ke vaste vishesh roop se chintit tha. mere chale jane par mi० kazins ne punः prarthiyon ko dhamkana shuru kiya ki bandi patr par sahi banaye bina unko tatha unki yuvati patniyon ko desh laut jana hi paDega. is bhay se bheet hokar prarthiyon ne bandi patr par hastakshar bana diye aur jahaz se utar kar pahre ke andar imigreshan office pahunche.
idhar mainne telephone dvara meritsbarg ke mi० tetham ko sab samachar sunaya, aur ye bhi anurodh kiya ki ve jaj se mil kar adalat ki aagya ka spashtikarn karayen. jaisa ki mera vishvas tha, jaj ne turant kaha ki adalat ki aagya ka wo arth aur bhavarth nahin hai, jo imigreshan amaldar ne samjha hai. vahan se hukm aane par mi० kazins ne prarthiyon ko chaudah din ki mulaqati sanad (visiting pass) dekar riha kar diya.
27 tarikh ko mainne mi० kazins se puchha ki ve transval ke eshiyatik registrar ke ejent ki haisiyat se prarthiyon ki arzi qubul karke vahan bhej den, lekin unhonne ye baat bhi manzur na ki. vivash hokar prarthiyon ko svayan apni arzi sidhe registrar ke paas bhejni paDi.
iske baad mi० henri polak ne imigreshan amaldar ki in karyvahiyon ko anek prmanon aur yuktiyon se ghair qanuni anyayyukt aur dushtatapurn siddh karke grih sachiv se vishesh vichar karne ke liye pararthna ki. mi० polak ka patr bahut baDa hai aur qanuni dalilon se bhara hua hai. mainne usmen se keval rochak ghatnaon ka hi ashay upar diya hai, jisse pathak samajh jayen ki mere jivan ke ve chaar din kitne smarnaiy hain.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।