दुनिया की हर एक वस्तु मरती है, मरता नहीं अकेला एक भूतकाल। भूतकाल चिरंजीव है। महासागर में भाटा आता है, चंद्र का क्षय होता है, कुबेर निर्धन होता है, पर्वत घुल जाते हैं, साम्राज्य स्मृति-पटल से मिट जाते हैं, लेकिन लोकक्षयकृत् भूतकाल का क्षय नहीं होता। भूतकाल, दिन-दिन समृद्ध ही होता जाता है। लेकिन आप उसका संग्रह नहीं कर सकते, क्योंकि आप तो वर्तमान में ही रहते हैं। यदि भूतकाल का वृक्ष आपको अपने आँगन में रखना हो, तो आपके पास उसे सींचने के लिए अमित स्मृति-जल होना चाहिए।
हर एक मनुष्य की यह इच्छा होती है कि उसकी जड़ें भी भूतकाल में हो। अपनी संतति के द्वारा वह भविष्य में तो पैर पसार सकता है, लेकिन भूतकाल में प्रवेश करने के लिए पैर, भूतों के समान उल्टे होने चाहिए। लेकिन मनुष्य ने एक हिकमत खोज ली है। वह साल में एक बार भृतकाल में बसने वाले अपने पिता, पितामह और प्रपितामह का स्मरण कर अन्हें श्रद्धांजलि अर्पण करता है, और भूतकाल पर अपनी विरासत का अंधिकार साबित करता है।
यूँ तो भूतकाल सर्वत्र रहता है; परंतु जिस प्रकार विष्णु वैकुंठ में रहते हैं, अथवा महादेव कैलाश में रहते हैं, उसी प्रकार भूतकाल गयाजी में रहता है। आज इतने वर्षों बाद भूतकाल में आसानी से प्रवेश करने के विचार से ही मैं फिर गया में प्रवेश कर रहा हूँ। हर एक हिंदू गयाजी जाकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध करता है। पर आज मेरा जी गयाका ही श्राद्ध करना चाहता है।
हम रात को गया पहुँचे। मैं पहले एक बार वहाँ हो आया था, इसलिए वहाँ पहुँचने पर किसी तरह की असुविधा का कोई डर न था। गया तीर्थस्थान है, इसलिए वहाँ हज़ारों या लाखों मनुष्य भी एक साथ आ जाएँ, तो भी असुविधा की कोई आशंका नहीं रहती। हर एक घर में कितने मनुष्य रह सकते हैं, जिसका हिसाब म्युनिसिपलिटी की ओर से कर लिया गया है। हमारे लोगों को ज़ियादा सुविधाओं की ज़रुरत नहीं होती। इसलिए अगर दक्षिणा के विषय में किसी प्रकार की चख-चख न हो, ते यात्रा सुख से हो सकती है। स्टेशन पर पहुँचते ही गया वाले पष्टो के अनिवार्य आपके सामने हाज़िर हो जाते हैं, और आप कहाँ के हैं? कहाँ से आए हैं? वग़ैरा सवाल हिंदुस्तान की हर एक भाषा पूछ लेते हैं। आप जिस भाषा में जवाब देते है, असी भाषा में वे संभाषण शुरू कर देते हैं। वे आरतिये हिंदुस्तान के किसी भी विश्वविद्यालय के स्नातक नहीं होते हुए भी वे हिंदुस्तान की सभी भाषाएँ जानते हैं, और यदि आपको उनके व्याकरण ज्ञानपर आपत्ति न हो, तो वे सभी भाषाओं में अस्सलित बोल भी लेते हैं।
मुझे याद नहीं पड़ता कि मेरे हिस्से कौन पंडा आया था। मैं समझता हूँ कि मैंने असका दर्शन भी नहीं किया। उसके मुनीम के मुनीम का मुनीम मुझे स्टेशन पर मिला, और वहाँ से एक उतारे पर ले गया। इस डर से कि कहीं मैं असकी वाचालता का शिकार न हो जाऊँ। मैंने पहले ही उससे कह दिया—देखो भाई, मैं पहले एक बार यहाँ आ चुका हूँ। यात्रा के लिए आवश्यक सारा पैसा मैंने अनंत भट्ट को बनारस ही दे दिया है। उनसे तुम्हें मिल जाएगा। अब यहाँ मुझे जिन-जिन सुविधाओं की ज़रूरत है। अनके लिए ये पैसे लो। मुझे कल श्राद्ध करना है। लेकिन वह मैं कर्नाटक के नृसिंहाचार्य से ही करवाऊँगा। उन्हें कल सवेरे आठ बजे से पहले यहाँ भेज देना। दोपहर में श्राद्ध ख़त्म होने के बाद तुम अपनी वही ले आना। मैं उसमें दस्तख़त कर दूँगा। अब अधिक कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। जाओ, जो काम मैंने बतलाए हैं, सो करो और मुझे आराम करने दो। मेरा यह मिज़ाज देखर वह बेचारा चकरा गया, और बिना एक शब्द बोले मेरे कहे अनुसार इंतिज़ाम करने चला गया। अगर मैं उसे अपना यह रूप न दिखाता तो वह भलामानस अपनी आशाभरी चिकनी-चुपड़ी बातों में मेरा कम-से-कम आध घंटा तो ज़रूर ही बरबाद करता!
दूसरे दिन मैं फल्गु नदी के किनारे श्राद्ध करने गया। फल्गु नदी ज़मीन के नीचे बहती है। उसे सीताजी का शाप है। रेत खोदने पर पानी मिलता है। नदी में हमेशा यात्रियों की भीड़ रहती है और उस भीड़ में हृष्टपुष्ट और रूपवान पंडे, सॉडों की तरह दक्षिणा की आशा से घूमते-फिरते दिखाई देते हैं। मैंने नदी में स्नान किया। उपले लाया। उनपर चरु तैयार किया। नृसिंहाचार्य आउ। वे सब मंत्र जानते थे, उनके अचारण भी अच्छे थे, इसीलिए मैंने अन्हें पसंद किया था।
नदी के पाट में बैठकर करने योग्य सारी क्रियाएँ समाप्त करके मैं पिण्ड के साथ गदाधर के मंदिर में गया। वहाँ सैकडों यात्री जगह-जगह की कतारों में बैठे हुए थे और श्राद्ध की क़वायद कर रहे थे। श्राद्ध-सहश अत्यंत पवित्र भावना वाली धार्मिक क्रिया का जैसा यांत्रिक स्वरूप यहाँ देखने को मिला, वह मुझे बहुत बुरा लगा। पग-पगपर दक्षिणा के लिए लड़ने वाले और अगर कोई ग़रीब, अज्ञानी यात्री मुँहमाँगी दक्षिणा न दे पाए, तो असके मरे हुए पुरखों को गालियाँ देने वाले गयावालों को देखकर यदि किसी को हिंदू धर्म की तरफ़ से निराशा हो जाए तो असे ज़ियादा दोष नहीं दिया जा सकता। हम पिंडदान के लिए धर्मशिला के पास जा बैठे। धर्मशिला पर श्री विष्णु का पदचिह्न है। जिस विष्णुपद पर लोग पिंड चढ़ाते जाते हैं, और गायें आ कर उन्हें खाती जाती है।
यह सिलसिला बराबर जारी रहता है। पिंड-प्रदान की क्रिया समाप्त होने पर गया-पुत्रों से यात्रा का सुफल प्राप्त करना बाक़ी रह जाता है। इस वक़्त गयापुत्र मनमानी दक्षिणा ऐंठ सकते हैं। हम उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं, और वे फूलों की माला से हमारे हाथ बाँध देते है; फिर जबतक अन्हें मनचाही दक्षिणा न मिले, तब-तक हाथों का बंधन छोड़ने से इंकार करते हैं। जेब गर्म हो जानेपर माला तोड़ डालते हैं, और हमारी पीठ थपथपाकर यात्रा की सफलता घोषित करते हैं और हमें विश्वास दिलाते हैं कि हमारे सभी पूर्वज सीधे स्वर्ग को पहुँच गए!
मैं बनारस में ही सारी दक्षिणा दे चुका था, इसलिए यहाँ साफ़ बच गया। हमारे मुनीम एक गयापुत्र को ले आए, और उसे मेरे सामने लाकर खड़ा कर दिया। गयापुत्र कोई बीस साल का रहा होगा। वह पीतांबर पढ़ने आया था। बदन पर रेशमी क़मीज़ और जैकेट थी। बाल इंगलिश तर्ज़ के थे, और पोमेड लगाकर बाक़ायदा चमकदार बनाए गए थे। मैंने बहुत यत्नपूर्वक अपनी सारी श्रद्धा एकत्र की, उसके सामने दोनों हाथ जोड़े और अन्हें माला से बँधने दिया। गयापुत्र रूठने की तैयारी में ही था कि इतने में मुनीम ने कहा—दक्षिणा के पैसे जमा करा दिए गए हैं। गयापुत्र ने माला तोड़ दी और वह चलता बना। वह गयापुत्र तो शायद मुझे भूल गया होगा, लेकिन मैं असे अभी तक भूला नहीं हूँ।
हमारे उपाध्याय ने कहा—गया आकर श्राद्ध करना मनुष्य गृहस्थ जीवन का अंतिम कर्तव्य है। वह कर्तव्य संपन्न हुआ है। अब तुम्हें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, इन पर रिपुओ का त्याग करना चाहिए। लेकिन जिस कलियुग में यह बात किसी से होती नहीं। इसलिए उसके बदले किसी एक वन्नुका त्याग करना चाहिए। मैंने पूछा—शकर छोड़ दूँ तो? आस-पास खड़े हुए दस-पंद्रह आदमी यह सुनकर चकित रह गए। उन्होंने कहा—“शकर क्यों छोड़ी जाए? मैंने कहा— आज पाँच साल से मैं शकर खाता ही नहीं हूँ। अपाआप महाराज ने सुझाया—करेला या कद्दू-जैसी कोई चीज़ छोड़ दो। मैंने कहा—धर्म के साथ ऐसा कपट मैं नहीं करूँगा। मैं तो क्रोध का ही त्याग करने का प्रयत्न करूँगा। और, मन ही मन इससे एक बात और जोड़ते हुए कहा—और अंध-श्रद्धा का भी।
गटाधर का मंदिर सुंदर है। नदी के पाट से बहुत ऊँचाई पर होने के कारण उसकी शोभा और भी बढ़ गई है। दोपहर को हमने नन्दिावान के घर भोजन किया। गया-माहात्म्य का श्राद्ध किया और तुरंत ही... जाने का निश्चय किया। गया-माहाम्य हिंदू धर्म... एक अद्भुत प्रमाण है। निष्कास भाव से परोपकार करने वाले गधातुले तेज़ से... देवोंने षड्यंत्र रचा और उससे साक्षात श्री विष्णु ने भाग लेकर अत्यन्त निर्दयतासे—और दग़ाबाज़ी से भी कह सकते हैं—उसका ख़ून किया। इस आत्रय की एक कथा इस माहात्म्य में है।
तो अब वह कथा सुनिए।
- पुस्तक : काका कालेलकर के यात्रा-संस्मरण (पृष्ठ 16)
- रचनाकार : काका कालेलकर
- प्रकाशन : नवजीवन मुद्रणालय
- संस्करण : 1948
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