कुछ सड़कें छोड़कर गीली सड़क पर तेज़ी से चलती कार की मद्धम लेकिन लंबी फूत्कार सुनाई दी—फिर वह फूत्कार बंद हो गई। दूर कहीं अस्पष्ट चिल्लाहटों ने वातावरण की नीरवता को भंग किया। उसके बाद तारों-भरे आसमान से जैसे किसी मोटे आवरण ने इन दोनों जनों को लपेट लिया और ख़ामोशी छा गई। तारो उठकर मुँडेर पर जा बैठा था, उसका मुँह रियो की तरफ़ था जो अपनी कुर्सी में धँसा बैठा था। टिमटिमाते आसमान की पृष्ठभूमि में रियो के भारी-भरकम शरीर की काली रेखाकृति दीख रही थी। तारो को बहुत कुछ कहना था, उसके अपने शब्दों में ही हम सारी बातें बताएँगे।
“मैं चाहता हूँ, तुम्हें मेरी बात समझने में आसानी हो, इसलिए सबसे पहले मैं यही कहूँगा कि मेरी ज़िंदगी शुरू से ऐसी नहीं थी। जवानी में मैं अपनी मासूमियत के ख़्याल पर ज़िंदा था, जिसका मतलब है कि मेरे मन में कोई ख़्याल ही नहीं था। मैं उन लोगों में से नहीं, जो अपने को यंत्रणा देते हैं। मैंने उचित ढंग से अपनी ज़िंदगी शुरू की थी। मैंने जिस काम में हाथ डाला, उसी में मुझे सफलता मिली। बुद्धिजीवियों के क्षेत्र में, बेतकल्लुफ़ी से विचरण करता था, औरतों के साथ मेरी ख़ूब पटती थी और अगर कभी-कभी मेरे मन में पश्चात्ताप की कसक उठती थी तो वह जितनी आसनी से पैदा होती थी, उतनी आसानी से ख़त्म भी हो जाती थी। फिर एक दिन मैंने सोचना शुरू किया और अब…
“मैं तुम्हें यह बता दूँ कि तुम्हारी तरह जवानी में मैं ग़रीब नहीं था। मेरे पिता ऊँचे ओहदे पर थे—वे पब्लिक प्रोसीक्यूशनों के डायरेक्टर थे। लेकिन उनकी तरफ़ देखकर कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता था। देखने में वे बड़े ख़ुशमिज़ाज और दयालु मालूम होते थे, और वे सचमुच ऐसे ही थे। मेरी माँ बड़ी सादी और शर्मीली औरत थीं और मैं हमेशा उन्हें बहुत चाहता था, लेकिन मैं माँ के बारे में बात न ही करूँ तो अच्छा है। मेरे पिता मुझ पर हमेशा मेहरबान थे और मेरा ख़याल है कि वे मुझे समझने की कोशिश भी करते थे। वे एक आदर्श पति नहीं थे—इस बात को मैं अब जान गया हूँ, लेकिन इस बात से मेरे मन पर कोई विशेष आघात नहीं पहुँचा। अपनी बेवफ़ाइयों में भी वे बड़ी शालीनता से व्यवहार करते थे जैसी कि उनसे उम्मीद की जा सकती थी। आज तक उनकी बदनामी नहीं हुई। कहने का मतलब यह कि उनमें मौलिकता बिलकुल नहीं थी और अब उनके मरने के बाद मुझे एहसास हुआ है कि वे पलस्तर के बने संत तो नहीं थे, लेकिन एक आदमी की हैसियत से वे बड़े नेक और शालीन थे। बस, वे बीच के रास्ते पर चलते थे। वे उस क़िस्म के लोगों में से थे, जिनके लिए मन में हल्की, लेकिन स्थिर भावना उमड़ती है—यही भावना सबसे अधिक टिकाऊ होती है।
“मेरे पिता में एक विशेष बात थी—हमेशा वे रात को सोने से पहले रेलवे का बड़ा टाइम टेबल पढ़ते थे। इसलिए नहीं कि उन्हें अकसर ट्रेन में सफ़र करना पड़ता था। ज़्यादा से ज़्यादा वे ब्रिटेन तक जाते थे, जहाँ देहात में उनका छोटा-सा मकान था। हम लोग हर साल गर्मियों में वहाँ जाया करते थे। लेकिन वे चलते-फिरते टाइमटेबल थे। वे आपको पेरिस-बर्लिन एक्सप्रेसों के आने और जाने का सही टाइम बता सकते थे; ल्यों से वार्सा कैसे पहुँचा जा सकता है, किस वक़्त कौन-सी ट्रेन पकड़नी चाहिए, इसका उन्हें पूरा पता रहता था। तुम अगर उनसे किन्हीं दो राजधानियों के बीच का फ़ासला पूछते तो वे तुम्हें सही-सही बता सकते थे। भला तुम मुझे बता सकते हो कि ब्रियान्को से केमोनी कैसे पहुँचा जा सकता है? मेरे ख़याल में तो अगर किसी स्टेशन मास्टर से यह सवाल किया जाए तो वह भी अपना सिर खुजलाने लगेगा। लेकिन मेरे पिता के पास इस सवाल का जवाब तुरंत तैयार मिलता था। क़रीब-क़रीब हर शाम वे इस विषय में अपने ज्ञान की में वृद्धि करते थे और उन्हें इस बात पर बड़ा गर्व था। उनके इस शौक़ से मेरा बहुत मनोरंजन होता था। मैं यात्रा संबंधी बड़े पेचीदा सवाल उनसे पूछा करता था और उनके जवाबों को रेलवे टाइम टेबल से मिलाकर देखा करता था। उनके जवाब हमेशा बिलकुल सही निकलते थे। शाम को मैं और मेरे पिता रेलवे के खेल खेला करते थे, जिसकी वजह से हम दोनों की ख़ूब पटती थी। उन्हें मेरे जैसे श्रोता की ही ज़रूरत थी, जो ध्यान से उनकी बातें सुने और पसंद करे। मेरी दृष्टि में उनकी यह प्रवीणता अधिकांश गुणों की तरह प्रशंसनीय थी।
“लेकिन मैं बहक़ रहा हूँ और अपने आदरणीय पिता को बहुत अधिक महत्त्व दे रहा हूँ। दरअसल उन्होंने मेरे हृदय-परिवर्तन की महान् घटना में केवल अप्रत्यक्ष योग दिया था, मैं उस घटना के बारे में तुम्हें बताना चाहता हूँ। सबसे बड़ा काम उन्होंने सिर्फ़ यही किया कि मेरे विचार जागृत किए। जब मैं सत्रह बरस का था तो मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैं कचहरी में आकर उन्हें बोलता हुआ सुनूँ। कचहरी में एक बड़ा केस चल रहा था और शायद उनका ख़याल था कि मैं उन्हें उनके सर्वोत्तम रूप में देखूँगा। मुझे यह भी शक हुआ कि उनका ख़याल था कि मैं क़ानून की शान-शौक़त और औपचारिक दिखावे से प्रभावित हो जाऊँगा और मुझे यही पेशा अपनाने की प्रेरणा मिलेगी। मैं जानता था कि वे मेरे वहाँ जाने के लिए बड़े उत्सुक थे। और हम घर में अपने पिता का जो व्यक्तित्व देखते थे, उससे अलग क़िस्म का व्यक्तित्व देखने को मिलेगा, यह कल्पना मुझे अत्यंत सुखद मालूम हुई। मेरे वहाँ जाने के सिर्फ़ यही दो कारण थे। अदालत की कार्यवाही मुझे हमेशा सहज और क़ायदे के मुताबिक़ मालूम होती थी, जैसी कि चौदह जुलाई की परेड या स्कूल के भाषण-दिवस की कार्यवाही। इस संबंध में मेरे विचार अमूर्त थे और मैंने इस बारे में कभी गंभीरता से नहीं सोचा था।
“उस दिन की कार्यवाही के बाद मेरे मन में सिर्फ़ एक ही तस्वीर उभरी थी, वह तस्वीर मुजरिम की थी। मुझे इस बात में शक नहीं कि वह अपराधी था—उसने क्या अपराध किया था, यह ज़्यादा महत्त्व की बात नहीं, तीस बरस का वह नाटा आदमी, जिसके बाल बिखरे और भुरभुरे थे, सब कुछ क़बूल करने के लिए इतना उत्सुक दिखाई दे रहा था? अपने अपराध पर उसे सच्ची ग्लानि हो रही थी और उसके साथ जो होने वाला था उसके प्रति वह आशंकित था। कुछ मिनट बाद मैंने सिवा अपराधी के चेहरे के, हर तरफ़ देखना बंद कर दिया। वह पीले रंग का उल्लू मालूम होता था, बहुत ज़्यादा रोशनी से जैसे उसकी आँखें अंधी हो रही हों। उसकी टाई कुछ अस्त-व्यस्त थी। वह लगातार दाँतों से अपने नाख़ून काट रहा था, सिर्फ़ दाएँ हाथ के...क्या इससे भी आगे कुछ कहने की ज़रूरत है! क्यों! तुम तो समझ ही गए होगे—वह एक ज़िंदा इंसान था।
“जहाँ तक मेरा संबंध था—अचानक बिजली की तरह मेरे मन में वह एहसास कौंध गया। अभी तक तो मैं उस आदमी को उसकी उपाधि 'प्रतिवादी' के साधारण रूप में देखता रहा था। मैं ठीक से नहीं कह सकता कि मैं अपने पिता को भूल गया, लेकिन उसी क्षण जैसे किसी चीज़ ने मेरे मर्मस्थल को जकड़ लिया और कटघरे में खड़े उस आदमी पर मेरे सारे ध्यान को केंद्रित कर दिया। मुक़दमे की कार्यवाही मुझे बिलकुल सुनाई नहीं दी। मैं सिर्फ़ इतना जानता था कि वे लोग उस ज़िंदा आदमी को मारने पर तुले हुए थे और किसी सहज, प्राकृतिक भावना की लहर ने बहाकर मुझे उस आदमी के पक्ष में खड़ा कर दिया। मुझे उस वक़्त होश आया, जब मेरे पिता अदालत के सामने बोलने के लिए खड़े हुए।
“लाल गाउन में उनका व्यक्तित्व एकदम बदल गया था। वे दयालु या ख़ुशमिज़ाज नहीं मालूम होते थे। उनके मुँह से लंबे दिखावटी वाक्य साँपों की अंतहीन पाँत की तरह निकल रहे थे। मुझे एहसास हुआ कि मेरे पिता क़ैदी की मौत को पुकार रहे थे, वे जूरी से कह रहे थे कि वे क़ैदी को दोषी सिद्ध करके समाज के प्रति अपने दायित्व को पूरा करें। यहाँ तक कि वे यह भी कह रहे थे कि उस आदमी का सर काट देना चाहिए। मैं मानता हूँ कि उन्होंने ऐन यही शब्द इस्तेमाल नहीं किए थे। उनका फ़ार्मूला था, 'इसे सबसे बड़ी सज़ा मिलनी चाहिए।' लेकिन इन दोनों बातों में बहुत कम फ़र्क़ था और मतलब एक ही था। मेरे पिता ने जिस सर की माँग की थी, वह सर उन्हें मिल गया। लेकिन सर उतारने का काम मेरे पिता ने नहीं किया। मैं अंत तक मुक़दमे को सुनता रहा था, मेरे मन में उस अभागे आदमी के प्रति एक ऐसी भयंकर और नज़दीकी आत्मीयता जागृत हुई, जो मेरे पिता ने कभी महसूस नहीं की होगी। फिर भी सरकारी वकील होने के नाते उन्हें उस मौक़े पर मौजूद रहना पड़ा, जिसे शिष्ट भाषा में 'क़ैदी के अंतिम क्षण' कहा जाता है; लेकिन दरअसल हत्या कहना चाहिए—हत्या का सबसे घृणित रूप!
“उस दिन के बाद से मैं जब भी रेलवे टाइम टेबल देखता तो मेरा मन ग्लानि से काँप उठता। मैं मुक़दमों की कार्यवाही में, मौत की सज़ाओं में और फाँसियों में एक हैरत-भरी दिलचस्पी लेने लगा। मुझे यह क्षोभपूर्ण एहसास हुआ कि मेरे पिता ने अकसर ये पाशविक हत्याएँ देखी होंगी—जब वे सुबह बहुत जल्दी उठा करते थे और तब मैं उनके जल्दी उठने के कारण का अनुमान नहीं लगा पाता था। मुझे याद है कि ऐसे मौक़ों पर ग़लती से बचने के लिए वे अपनी घड़ी में अलार्म लगा देते थे। माँ के सामने इस प्रसंग को खोलने का मुझमें साहस नहीं था। लेकिन अब मैं अपनी माँ को ज़्यादा ग़ौर से देखने लगा और देखा कि उनका दांपत्य जीवन अब निरर्थक था और माँ ने उसके सुधार की उम्मीद भी छोड़ दी थी। इससे मुझे माँ को ‘माफ़ करने’ में मदद मिली। उस वक़्त मैं यही सोचता था। बाद में मुझे मालूम हुआ कि माफ़ी की कोई बात ही नहीं थी; शादी से पहले वह बड़ी ग़रीब थीं और ग़रीबी ने उन्हें परिस्थितियों के आगे झुकना सिखाया था।
“शायद तुम मुझसे यह सुनने की उम्मीद रखते हो कि मैंने फ़ौरन घर छोड़ दिया। नहीं, मैंने बहुत महीने, दरअसल पूरा साल वहाँ गुज़ारा। फिर एक दिन शाम को मेरे पिता ने अलार्म वाली घड़ी माँगी, क्योंकि उन्हें अगले दिन जल्दी उठना था। उस रात मुझे नींद नहीं आई। अगले दिन पिता जी के घर लौटने से पहले ही मैं जा चुका था।
संक्षेप में यह हुआ कि मेरे पिता ने मुझे ख़त लिखा, वे मुझे तलाश करने के लिए तहक़ीक़ात करवा रहे थे। मैं उनसे मिलने गया और अपने कारण बताए बग़ैर मैंने उन्हें शांतभाव से समझा दिया कि अगर उन्होंने मुझे घर लौटने के लिए मज़बूर किया तो मैं आत्महत्या कर लूँगा। उन्होंने मुझे आज़ादी देकर सारा झगड़ा ख़त्म कर दिया, क्योंकि वे दयालु हृदय आदमी थे—जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ। उन्होंने मुझे 'अपने ढंग से ज़िंदगी बसर करने' की बेवक़ूफ़ी पर लेक्चर दिया (उनकी दृष्टि में मेरे उस व्यवहार का यही कारण था। मैंने उन्हें धोखा न दिया हो ऐसा नहीं कह सकता) और मुझे बहुत-सी नेक सलाहें भी दीं। मैं देख रहा था कि इस बात ने उनके दिल पर गहरा असर डाला था और वे बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रहे थे। बाद में, बहुत अरसे के बाद मैं बीच-बीच में अपनी माँ से मिलने के लिए जाने लगा, ऐसे मौक़ों पर मैं अपने पिता से भी ज़रूर मिलता था। मेरा ख़्याल है कि कभी-कभी की इन मुलाक़ातों से मेरे पिता संतुष्ट थे। व्यक्तिगत तौर पर मेरे मन में उनके प्रति ज़रा भी दुश्मनी नहीं थी, बल्कि दिल में कुछ उदासी-सी छा गई थी। पिता की मौत के बाद मैंने माँ को अपने पास बुला लिया और अगर वे ज़िंदा रहतीं तो अभी मेरे पास ही रहतीं।
“मुझे अपनी शुरू की ज़िंदगी के बारे में ज़्यादा इसलिए बताना पड़ा, क्योंकि मेरे लिए यह शुरुआत थी...हर चीज़ की। अठारह बरस की उम्र में ही मुझे ग़रीबी का सामना करना पड़ा—उससे पहले मैं आराम की ज़िंदगी बसर करता आया था। मैंने बहुत-से काम किए और किसी काम में मुझे असफलता नहीं मिली। लेकिन मेरी असली दिलचस्पी मौत की सज़ा में थी। मैं कटघरे में खड़े उस बेचारे अंधे 'उल्लू' के साथ हिसाब चुकता करना चाहता था, इसलिए मैं लोगों के शब्दों में एक आंदोलनकारी बन गया। बस, मैं विनाश नहीं करना चाहता था। मेरे विचार में मेरे इर्द-गिर्द की सामाजिक व्यवस्था मौत की सज़ा पर आधारित थी और स्थापित सत्ता के ख़िलाफ़ लड़कर मैं हत्या के ख़िलाफ़ लडूँगा, यह मेरा विचार था। और लोगों ने भी मुझे यही कहा था और मेरा अभी तक यह विश्वास है कि मेरा यह विचार ठोस रूप से सही था। मैं उन लोगों के एक दल में मिल गया, जिन्हें मैं उस समय पसंद करता था और दरअसल जिन्हें मैं अभी भी पसंद करता हूँ। यूरोप का कोई ऐसा देश नहीं जिसके आंदोलनों में मैंने हिस्सा न लिया हो। लेकिन वह दूसरी ही कहानी है।
“यह कहने की ज़रूरत नहीं कि मौक़ा पड़ने पर हम भी मौत की सज़ाएँ देते थे। लेकिन मुझे बताया गया था कि एक नए संसार के निर्माण के लिए—जिसमें हत्याएँ बंद हो जाएँगी—ये मौतें ज़रूरी हैं। यह भी कुछ हद तक सच था—और हो सकता है, जहाँ सच्चाई की व्यवस्था का सवाल है मुझमें डटे रहने की क्षमता नहीं। इसका कारण चाहे कुछ भी हो, मेरे मन में हिचकिचाहट पैदा हुई, लेकिन फिर मुझे कटघरे में खड़े उस अभागे 'उल्लू' का ख़याल आया और उससे मुझे अपना काम जारी रखने का साहस मिला। यह साहस उस दिन तक बना रहा, जब मैं एक फाँसी के वक़्त मौजूद था—हंगरी में और मुझे वैसा ही विक्षिप्त आतंक महसूस हुआ, जैसा बचपन में हुआ था। मेरी आँखों के आगे सब चीज़ें चकराने लगीं।
“क्या तुमने कभी किसी फ़ायरिंग स्क्वैड द्वारा किसी आदमी को गोली से उड़ाया जाता देखा है। नहीं, तुमने नहीं देखा होगा। चुने हुए लोगों को ही यह दृश्य देखने को मिलता है। एक प्राइवेट दावत की तरह इसमें शामिल होने के लिए निमंत्रण की ज़रूरत होती है। किताबों और तस्वीरों से आम तौर पर फ़ायरिंग स्क्वैड के बारे में विचार बटोरे जाते हैं। कल्पना की जाती है कि एक खंभे के साथ एक आदमी बँधा है, जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी है और कुछ दूर पर सिपाही खड़े हैं। लेकिन दरअसल नज़ारा बिलकुल और ही तरह का होता है। तुम्हें मालूम है कि फ़ायरिंग स्क्वैड मौत की सज़ा पाए आदमी से सिर्फ़ डेढ़ गज़ दूर खड़ा होता है! क्या तुम्हें मालूम है कि अगर उनका शिकार दो क़दम भी आगे बढ़ आए तो उसके सीने पर राइफ़ल का स्पर्श होगा। क्या तुम जानते हो कि इतने कम फ़ासले पर खड़े होकर सिपाही उस आदमी के दिल पर निशाना लगाते हैं और उनकी बड़ी गोलियाँ इतना बड़ा छेद कर देती हैं, जिसमें पूरा हाथ जा सकता है? नहीं, तुम्हें यह नहीं मालूम। ये ऐसी बातें हैं, जिनका ज़िक्र नहीं किया जाता। शालीन लोगों को नींद में ख़लल नहीं पड़ना चाहिए न। क्यों! सचमुच यह सब जानते हैं कि ऐसे ब्योरों पर अधिक समय ख़र्च करना, भयंकर कुरुचि का परिचय देना है। लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है इस घटना के बाद से मुझे कभी ठीक तरह नींद नहीं आई। उसका कड़वा स्वाद मेरे मुँह में बना रहा और मेरा मन उसके ब्योरे में उलझा रहा और चिंतामग्न रहा।
और इस तरह मुझे एहसास हुआ, बहुत सालों से मैं प्लेग से पीड़ित हूँ। और यह एक विरोधाभास भी था, चूँकि मेरा पक्का विश्वास था कि मैं अपनी समस्त शक्ति से इससे जूझ रहा था। मुझे एहसास हुआ कि हज़ारों लोगों की मौतों में अप्रत्यक्ष रूप से मेरा हाथ रहा है। मैंने उन कामों और सिद्धांतों का समर्थन किया है, जिनसे वे मौतें हुई हैं और मौतों के सिवा उनका कोई नतीजा और नहीं निकल सकता था। और लोगों को इन विचारों से ज़रा भी परेशानी नहीं हुई थी, कम से कम वे स्वयं इसे व्यक्त नहीं करते थे। लेकिन मैं उनसे अलग था, मुझे जो एहसास हुआ था वह मेरे गले में अटक गया था। मैं उन लोगों के साथ होते हुए भी अकेला था। जब मैं इन बातों की चर्चा छेड़ता तो वे कहते कि मुझे इतना अधिक शंकालु नहीं होना चाहिए। मुझे याद रखना चाहिए कि कितने बड़े सवाल इसके साथ जुड़े हुए हैं। और उन्होंने कई दलीलें दीं, जो अकसर बहुत ज़ोरदार थीं ताकि मैं उस चीज़ को निगल सकूँ, जो उनकी दलीलों के बावजूद मेरे मन में ग्लानि पैदा करती थी। मैंने जवाब में कहा कि प्लेग से अभिशप्त लोगों में, विशिष्ट व्यक्तियों के पास भी जो लाल चोगा पहनते हैं—अपने कामों को सही ठहराने की दलीलें हैं और अगर एक बार मैंने अनिवार्यता और बहुमत की शक्ति की दलील मान ली, जो कि अकसर कम विशिष्ट लोगों द्वारा पेश की जाती है तो मैं विशिष्ट लोगों की दलीलों को कभी अस्वीकार नहीं कर सकता। इसके जवाब में उन लोगों ने यह कहा कि अगर मौत की सज़ा पूरी तरह से लाल चोगे वालों के हाथ में छोड़ दी जाए तो हम पूरी तरह से उनके हाथों में खेलने लगेंगे। इसका जवाब मैंने दिया कि अगर हम एक बार झुक जाते हैं तो फिर हर बार हमें झुकते जाना पड़ेगा। मुझे लगता है कि इतिहास ने मेरी बात को सच साबित किया है। आज इस बात की होड़ लगी हुई है कि कौन सबसे ज़्यादा हत्याएँ करता है। सब पागल होकर हत्या करने में लगे हैं और चाहने पर भी वे इसे बंद नहीं कर सकेंगे।
“जो भी हो, दलीलों से मुझे ज़्यादा सरोकार नहीं था। मुझे तो उस बेचारे 'उल्लू' में दिलचस्पी थी, जबकि धोखाधड़ी की कार्यवाही में प्लेग की बदबू से सड़े मुँहों ने एक हथकड़ी लगे आदमी को बताया था कि उसकी मौत नज़दीक आ रही है। उन्होंने इस तरह के वैज्ञानिक प्रबंध किए कि कई दिन और कई रातों तक मानसिक पीड़ा झेलने के बाद उसे बेरहमी से क़त्ल कर दिया जाए। मुझे इंसान के सीने में बने जितने बड़े छेद से सरोकार था और मैंने मन ही मन तय कर लिया कि जहाँ तक मेरा संबंध है, दुनिया की कोई चीज़ मुझसे कोई ऐसी दलील को स्वीकार नहीं करवा सकती, जो इन क़त्लों को सही ठहराए। हाँ, मैंने जानबूझकर अंधे हठ का रास्ता चुना, उस दिन तक के लिए जब मुझे अपना रास्ता ज़्यादा साफ़ दिखाई देगा।
“अभी भी मेरे विचार वही हैं। कई साल तक मुझे इस बात पर शर्मिंदगी रही, सख़्त शर्मिंदगी रही कि मैं अपने नेक इरादों के साथ, कई स्तर पीछे हटकर भी हत्यारा बना था। वक़्त के साथ-साथ मैं सिर्फ़ इतना ही सीख सका कि वे लोग भी, जो दूसरों से बेहतर हैं, आजकल अपने को और दूसरों को हत्या करने से नहीं रोक सकते, क्योंकि वे इसी तर्क के सहारे ज़िंदा रहते हैं, और हम इस दुनिया में किसी की जान को जोख़िम में डाले बग़ैर कोई छोटे से छोटा काम भी नहीं कर सकते। हाँ, तब से मुझे अपने पर शर्म आती रही है; मुझे एहसास हो गया है कि हम सब प्लेग से पीड़ित हैं, मेरे मन की शांति नष्ट हो गई है। और आज भी मैं उसे पाने की कोशिश कर रहा हूँ; अभी भी सभी दूसरे लोगों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि मैं किसी का जानी दुश्मन न बनूँ। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि इंसान को प्लेग के अभिशाप से मुक्त होने के लिए भरसक कोशिश करनी चाहिए और सिर्फ़ इसी तरीक़े से हम कुछ शांति की उम्मीद कर सकते हैं। और अगर शांति नहीं तो शालीन मौत तो नसीब हो सकती है। इसी से और सिर्फ़ इसी से इंसान की मुसीबतें कम हो सकती हैं। अगर वे मरने से नहीं बच सकते तो उन्हें कम से कम नुक़सान पहुँचे और हो सकता है थोड़ा फ़ायदा भी पहुँचे। इसीलिए मैंने तय किया कि मैं ऐसी किसी चीज़ से संबंध नहीं रखूँगा, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, अच्छे या बुरे कारणों से किसी इंसान को मौत के मुँह में धकेलती है या ऐसा करने वालों को सही ठहराती है।
“इसीलिए महामारी मुझे इसके सिवा कोई नया सबक़ नहीं सिखा पाई कि मुझे तुम्हारे साथ मिलकर उससे लड़ना चाहिए। मैं पूरी तरह से जानता हूँ—हाँ रियो, मैं कह सकता हूँ कि मैं इस दुनिया की नस-नस पहचानता हूँ—हममें से हरेक के भीतर प्लेग है, धरती का कोई आदमी इससे मुक्त नहीं है। और मैं यह भी जानता हूँ कि हमें अपने ऊपर लगातार निगरानी रखनी पड़ेगी, ताकि लापरवाही के किसी क्षण में हम किसी के चेहरे पर अपनी साँस डालकर उसे छूत न दें। दरअसल क़ुदरती चीज़ तो रोग का कीटाणु है। बाक़ी सब चीज़ें ईमानदारी, पवित्रता (अगर तुम इसे भी जोड़ना चाहो) इंसान की इच्छा-शक्ति का फल है, ऐसी निगरानी का फल है जिसमें कभी ढील नहीं होनी चाहिए। नेक आदमी, जो किसी को छूत नहीं देता, वह है जो सबसे कम लापरवाही दिखाता है—लापरवाही से बचने के लिए बहुत बड़ी इच्छा-शक्ति की और कभी न ख़त्म होने वाले मानसिक तनाव की ज़रूरत है। हाँ रियो, प्लेग का शिकार होना बड़ी थकान पैदा करता है। लेकिन प्लेग का शिकार न होना और भी ज़्यादा थकान पैदा करता है। इसीलिए दुनिया में आज हर आदमी थका हुआ नज़र आता है; हर आदमी एक माने में प्लेग से तंग आ गया है। इसीलिए हममें से कुछ लोग, जो अपने शरीरों में से प्लेग को बाहर निकालना चाहते हैं, इतनी हताशपूर्ण थकान महसूस करते हैं—ऐसी थकान, जिससे मौत के सिवा और कोई चीज़ हमें मुक्ति नहीं दिला सकती।
“जब तक मुझे वह मुक्ति नहीं मिलती, मैं जानता हूँ कि आज की दुनिया में मेरी कोई जगह नहीं है। जब मैंने हत्या करने से इनकार किया था, तभी से मैंने अपने को निर्वासित कर लिया था। यह निर्वासन कभी ख़त्म नहीं होगा। 'इतिहास का निर्माण' करने का काम मैं दूसरों पर छोड़ता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि मुझमें इतनी योग्यता नहीं कि मैं उन लोगों के कामों के औचित्य पर अपना निर्णय दे सकूँ। मेरे मन की बनावट में कोई कमी है, जिसकी वजह से मैं समझदार हत्यारा नहीं बन सकता। इसलिए यह विशिष्टता नहीं, बल्कि कमज़ोरी है। लेकिन इन परिस्थितियों में मैं जैसा हूँ, वैसा ही रहने के लिए तैयार हूँ। मैंने विनयशीलता सीख ली है। मैं सिर्फ़ यह कहता हूँ कि इस धरती पर महामारियाँ हैं और उनसे पीड़ित लोग हैं और यह हम पर निर्भर करता है कि जहाँ तक संभव हो सके, हम इन महामारियों का साथ न दें। हो सकता है, इस बात में बचकानी सरलता हो; यह सरल है या नहीं, इसका निर्णय तो मैं नहीं कर सकता, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि यह बात सच्ची है। तुमने देख ही लिया है कि मैंने इतनी ज़्यादा दलीलें सुनी थीं, जिन्होंने क़रीब-क़रीब मेरी मति भ्रष्ट कर दी थी, और दूसरे लोगों की मति भी अधिक भ्रष्ट कर दी थी कि वे हत्या के समर्थक बन गए थे। मुझे यह एहसास हुआ कि हम स्पष्ट नपी-तुली भाषा का प्रयोग नहीं करते—यही हमारी सारी मुसीबतों की जड़ है। इसलिए मैंने यह किया कि मैं हमेशा अपनी बातचीत और व्यवहार में स्पष्टता बरतूँगा। अपने को सही रास्ते पर लाने का मेरे पास सिर्फ़ यही तरीक़ा था। इसीलिए मैं सिर्फ़ यही कहता हूँ कि दुनिया में महामारियाँ हैं और उनका शिकार होने वाले लोग हैं—अगर इतना कहने-मात्र से ही मैं प्लेग की छूत को फैलाने का साधन बनता हूँ तो कम से कम मैं जान-बूझकर ऐसा नहीं करता। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मैं मायूस हत्यारा बनने की कोशिश करता हूँ। तुमने देख ही लिया होगा कि मैं महत्त्वाकांक्षी आदमी नहीं हूँ।
“मैं मानता हूँ कि इन दो श्रेणियों में हमें तीसरी श्रेणी भी जोड़ लेनी चाहिए—सच्चे चिकित्सकों की श्रेणी, लेकिन यह एक मानी हुई बात है कि ऐसे लोग बहुत विरले होते हैं और निश्चय ही उनका काम बहुत कठिन होगा। इसीलिए मैंने हर मुसीबत में, मुसीबतज़दा लोगों की तरफ़ होने का फ़ैसला किया ताकि मैं नुक़सान को कम कर सकूँ। कम से कम उन लोगों में मैं यह तलाश कर सकता हूँ कि तीसरी श्रेणी तक, अर्थात् शांति तक कैसे पहुँचता जा सकता है!
kuch saDken chhoDkar gili saDak par tezi se chalti kaar ki maddham lekin lambi phutkar sunai di—phir wo phutkar band ho gai. door kahin aspasht chillahton ne vatavarn ki niravta ko bhang kiya. uske baad taron bhare asman se jaise kisi mote avarn ne in donon janon ko lapet liya aur khamoshi chha gai. taro uthkar munDer par ja baitha tha, uska munh riyo ki taraf tha jo apni kursi mein dhansa baitha tha. timtimate asman ki prishthabhumi mein riyo ke bhari bharkam sharir ki kali rekhakriti deekh rahi thi. taro ko bahut kuch kahna tha, uske apne shabdon mein hi hum sari baten batayenge.
“main chahta hoon, tumhein meri baat samajhne mein asani ho, isliye sabse pahle main yahi kahunga ki meri zindagi shuru se aisi nahin thi. javani mein main apni masumiyat ke khyaal par zinda tha, jiska matlab hai ki mere man mein koi khyaal hi nahin tha. main un logon mein se nahin, jo apne ko yantranaa dete hain. mainne uchit Dhang se apni zindagi shuru ki thi. mainne jis kaam mein haath Dala, usi mein mujhe saphalta mili. buddhijiviyon ke kshaetr mein, betakallufi se vicharn karta tha, aurton ke saath meri khoob patti thi aur agar kabhi kabhi mere man mein pashchattap ki kasak uthti thi to wo jitni asani se paida hoti thi, utni asani se khatm bhi ho jati thi. phir ek din mainne sochna shuru kiya aur ab…
“main tumhein ye bata doon ki tumhari tarah javani mein main gharib nahin tha. mere pita unche ohde par the—ve public prosikyushnon ke Dayarektar the. lekin unki taraf dekhkar koi ye anuman nahin laga sakta tha. dekhne mein ve baDe ख़ushmiज़aj aur dayalu malum hote the, aur ve sachmuch aise hi the. meri maan baDi sadi aur sharmili aurat theen aur main hamesha unhen bahut chahta tha, lekin main maan ke bare mein baat na hi karun to achchha hai. mere pita mujh par hamesha mehrban the aur mera khayal hai ki ve mujhe samajhne ki koshish bhi karte the. ve ek adarsh pati nahin the—is baat ko main ab jaan gaya hoon, lekin is baat se mere man par koi vishesh aghat nahin pahuncha. apni bevfaiyon mein bhi ve baDi shalinata se vyvahar karte the jaisi ki unse ummid ki ja sakti thi. aaj tak unki badnami nahin hui. kahne ka matlab ye ki unmen maulikta bilkul nahin thi aur ab unke marne ke baad mujhe ehsaas hua hai ki ve palastar ke bane sant to nahin the, lekin ek adami ki haisiyat se ve baDe nek aur shalin the. bus, ve beech ke raste par chalte the. ve us qim ke logon mein se the, jinke liye man mein halki, lekin sthir bhavna umaDti hai—yahi bhavna sabse adhik tikau hoti hai.
“mere pita mein ek vishesh baat thi—hamesha ve raat ko sone se pahle railway ka baDa time table paDhte the. isliye nahin ki unhen aksar train mein saफ़r karna paDta tha. zyada se zyada ve briten tak jate the, jahan dehat mein unka chhota sa makan tha. hum log har saal garmiyon mein vahan jaya karte the. lekin ve chalte phirte taimtebal the. ve aapko peris berlin eksapreson ke aane aur jane ka sahi time bata sakte the; lyon se varsa kaise pahuncha ja sakta hai, kis vaक़t kaun si train pakaDni chahiye, iska unhen pura pata rahta tha. tum agar unse kinhin do rajdhaniyon ke beech ka fasla puchhte to ve tumhein sahi sahi bata sakte the. bhala tum mujhe bata sakte ho ki briyanko se kemoni kaise pahuncha ja sakta hai? mere khayal mein to agar kisi station master se ye saval kiya jaye to wo bhi apna sir khujlane lagega. lekin mere pita ke paas is saval ka javab turant taiyar milta tha. qarib qarib har shaam ve is vishay mein apne gyaan ki mein vriddhi karte the aur unhen is baat par baDa garv tha. unke is shauq se mera bahut manoranjan hota tha. main yatra sambandhi baDe pechida saval unse puchha karta tha aur unke javabon ko railway time table se milakar dekha karta tha. unke javab hamesha bilkul sahi nikalte the. shaam ko main aur mere pita railway ke khel khela karte the, jiski vajah se hum donon ki khoob patti thi. unhen mere jaise shrota ki hi zarurat thi, jo dhyaan se unki baten sune aur pasand kare. meri drishti mein unki ye pravinata adhikansh gunon ki tarah prashansniy thi.
“lekin main bahaq raha hoon aur apne adarnaiy pita ko bahut adhik mahattv de raha hoon. darasal unhonne mere hirdai parivartan ki mahan ghatna mein keval apratyaksh yog diya tha, main us ghatna ke bare mein tumhein batana chahta hoon. sabse baDa kaam unhonne sirf yahi kiya ki mere vichar jagrit kiye. jab main satrah baras ka tha to mere pita ne mujhse kaha ki main kachahri mein aakar unhen bolta hua sunun. kachahri mein ek baDa kes chal raha tha aur shayad unka khayal tha ki main unhen unke sarvottam roop mein dekhunga. mujhe ye bhi shak hua ki unka khayal tha ki main qanun ki shaan shauqat aur aupacharik dikhave se prabhavit ho jaunga aur mujhe yahi pesha apnane ki prerna milegi. main janta tha ki ve mere vahan jane ke liye baDe utsuk the. aur hum ghar mein apne pita ka jo vyaktitv dekhte the, usse alag qim ka vyaktitv dekhne ko milega, ye kalpana mujhe atyant sukhad malum hui. mere vahan jane ke sirf yahi do karan the. adalat ki karyavahi mujhe hamesha sahj aur qayde ke mutabiq malum hoti thi, jaisi ki chaudah julai ki parade ya school ke bhashan divas ki karyavahi. is sambandh mein mere vichar amurt the aur mainne is bare mein kabhi gambhirta se nahin socha tha.
“us din ki karyavahi ke baad mere man mein sirf ek hi tasvir ubhri thi, wo tasvir mujrim ki thi. mujhe is baat mein shak nahin ki wo apradhi tha—usne kya apradh kiya tha, ye zyada mahattv ki baat nahin, tees baras ka wo nata adami, jiske baal bikhre aur bhurbhure the, sab kuch qabu karne ke liye itna utsuk dikhai de raha tha? apne apradh par use sachchi glani ho rahi thi aur uske saath jo hone vala tha uske prati wo ashankit tha. kuch minat baad mainne siva apradhi ke chehre ke, har taraf dekhana band kar diya. wo pile rang ka ullu malum hota tha, bahut zyada roshni se jaise uski ankhen andhi ho rahi hon. uski tie kuch ast vyast thi. wo lagatar danton se apne nakhun kaat raha tha, sirf dayen haath ke. . . kya isse bhi aage kuch kahne ki zarurat hai! kyon! tum to samajh hi gaye hoge—vah ek zinda insaan tha.
“jahan tak mera sambandh tha—achanak bijli ki tarah mere man mein wo ehsaas kaundh gaya. abhi tak to main us adami ko uski upadhi prativadi ke sadharan roop mein dekhta raha tha. main theek se nahin kah sakta ki main apne pita ko bhool gaya, lekin usi kshan jaise kisi cheez ne mere marmasthal ko jakaD liya aur katghare mein khaDe us adami par mere sare dhyaan ko kendrit kar diya. muqadme ki karyavahi mujhe bilkul sunai nahin di. main sirf itna janta tha ki ve log us zinda adami ko marne par tule hue the aur kisi sahj, prakritik bhavna ki lahr ne bahakar mujhe us adami ke paksh mein khaDa kar diya. mujhe us vaक़t hosh aaya, jab mere pita adalat ke samne bolne ke liye khaDe hue.
“laal gown mein unka vyaktitv ekdam badal gaya tha. ve dayalu ya ख़ushmiज़aj nahin malum hote the. unke munh se lambe dikhavati vaaky sanpon ki anthin paant ki tarah nikal rahe the. mujhe ehsaas hua ki mere pita qaidi ki maut ko pukar rahe the, ve juri se kah rahe the ki ve qaidi ko doshi siddh karke samaj ke prati apne dayitv ko pura karen. yahan tak ki ve ye bhi kah rahe the ki us adami ka sar kaat dena chahiye. main manata hoon ki unhonne ain yahi shabd istemal nahin kiye the. unka formula tha, ise sabse baDi saza milani chahiye. lekin in donon baton mein bahut kam farq tha aur matlab ek hi tha. mere pita ne jis sar ki maang ki thi, wo sar unhen mil gaya. lekin sar utarne ka kaam mere pita ne nahin kiya. main ant tak muqadme ko sunta raha tha, mere man mein us abhage adami ke prati ek aisi bhayankar aur nazdiki atmiyata jagrit hui, jo mere pita ne kabhi mahsus nahin ki hogi. phir bhi sarkari vakil hone ke nate unhen us mauqe par maujud rahna paDa, jise shisht bhasha mein qaidi ke antim kshan kaha jata hai; lekin darasal hattya kahna chahiye—hattya ka sabse ghrinait roop!
“us din ke baad se main jab bhi railway time table dekhta to mera man glani se kaanp uthta. main muqadmon ki karyavahi mein, maut ki sazaon mein aur phansiyon mein ek hairat bhari dilchaspi lene laga. mujhe ye kshaobhapurn ehsaas hua ki mere pita ne aksar ye pashavik hatyayen dekhi hongi—jab ve subah bahut jaldi utha karte the aur tab main unke jaldi uthne ke karan ka anuman nahin laga pata tha. mujhe yaad hai ki aise mauqon par ghalati se bachne ke liye ve apni ghaDi mein alarm laga dete the. maan ke samne is prsang ko kholne ka mujhmen sahas nahin tha. lekin ab main apni maan ko zyada ghaur se dekhne laga aur dekha ki unka danpaty jivan ab nirarthak tha aur maan ne uske sudhar ki ummid bhi chhoD di thi. isse mujhe maan ko ‘maaf karne’ mein madad mili. us vaक़t main yahi sochta tha. baad mein mujhe malum hua ki mafi ki koi baat hi nahin thee; shadi se pahle wo baDi gharib theen aur gharib ne unhen paristhitiyon ke aage jhukna sikhaya tha.
“shayad tum mujhse ye sunne ki ummid rakhte ho ki mainne fauran ghar chhoD diya. nahin, mainne bahut mahine, darasal pura saal vahan guzara. phir ek din shaam ko mere pita ne alarm vali ghaDi mangi, kyonki unhen agle din jaldi uthna tha. us raat mujhe neend nahin i. agle din pita ji ke ghar lautne se pahle hi main ja chuka tha.
sankshep mein ye hua ki mere pita ne mujhe ख़t likha, ve mujhe talash karne ke liye tahqiqat karva rahe the. main unse milne gaya aur apne karan bataye baghair mainne unhen shantbhav se samjha diya ki agar unhonne mujhe ghar lautne ke liye mazbur kiya to main atmahatya kar lunga. unhonne mujhe azadi dekar sara jhagDa khatm kar diya, kyonki ve dayalu hirdai adami the—jaisa ki main pahle kah chuka hoon. unhonne mujhe apne Dhang se zindagi basar karne ki bevaqufi par lecture diya (unki drishti mein mere us vyvahar ka yahi karan tha. mainne unhen dhokha na diya ho aisa nahin kah sakta) aur mujhe bahut si nek salahen bhi deen. main dekh raha tha ki is baat ne unke dil par gahra asar Dala tha aur ve baDi mushkil se apne ansuon ko rokne ki koshish kar rahe the. baad mein, bahut arse ke baad main beech beech mein apni maan se milne ke liye jane laga, aise mauqon par main apne pita se bhi zarur milta tha. mera khyaal hai ki kabhi kabhi ki in mulaqaton se mere pita santusht the. vyaktigat taur par mere man mein unke prati zara bhi dushmani nahin thi, balki dil mein kuch udasi si chha gai thi. pita ki maut ke baad mainne maan ko apne paas bula liya aur agar ve zinda rahtin to abhi mere paas hi rahtin.
“mujhe apni shuru ki zindagi ke bare mein zyada isliye batana paDa, kyonki mere liye ye shuruat thi. . . har cheez ki. atharah baras ki umr mein hi mujhe gharib ka samna karna paDa— usse pahle main aram ki zindagi basar karta aaya tha. mainne bahut se kaam kiye aur kisi kaam mein mujhe asphalta nahin mili. lekin meri asli dilchaspi maut ki saza mein thi. main katghare mein khaDe us bechare andhe ullu ke saath hisab chukta karna chahta tha, isliye main logon ke shabdon mein ek andolankari ban gaya. bus, main vinash nahin karna chahta tha. mere vichar mein mere ird gird ki samajik vyavastha maut ki saza par adharit thi aur sthapit satta ke khilaf laDkar main hattya ke khilaf laDunga, ye mera vichar tha. aur logon ne bhi mujhe yahi kaha tha aur mera abhi tak ye vishvas hai ki mera ye vichar thos roop se sahi tha. main un logon ke ek dal mein mil gaya, jinhen main us samay pasand karta tha aur darasal jinhen main abhi bhi pasand karta hoon. europe ka koi aisa desh nahin jiske andolnon mein mainne hissa na liya ho. lekin wo dusri hi kahani hai.
“yah kahne ki zarurat nahin ki mauqa paDne par hum bhi maut ki sazayen dete the. lekin mujhe bataya gaya tha ki ek nae sansar ke nirman ke liye—jismen hatyayen band ho jayengi—ye mauten zaruri hain. ye bhi kuch had tak sach tha—aur ho sakta hai, jahan sachchai ki vyavastha ka saval hai mujhmen Date rahne ki kshamata nahin. iska karan chahe kuch bhi ho, mere man mein hichkichahat paida hui, lekin phir mujhe katghare mein khaDe us abhage ullu ka khayal aaya aur usse mujhe apna kaam jari rakhne ka sahas mila. ye sahas us din tak bana raha, jab main ek phansi ke vaक़t maujud tha—hangri mein aur mujhe vaisa hi vikshaipt atank mahsus hua, jaisa bachpan mein hua tha. meri ankhon ke aage sab chizen chakrane lagin.
“kya tumne kabhi kisi fayring skvaiD dvara kisi adami ko goli se uDaya jata dekha hai. nahin, tumne nahin dekha hoga. chune hue logon ko hi ye drishya dekhne ko milta hai. ek praivet davat ki tarah ismen shamil hone ke liye nimantran ki zarurat hoti hai. kitabon aur tasviron se aam taur par fayring skvaiD ke bare mein vichar batore jate hain. kalpana ki jati hai ki ek khambhe ke saath ek adami bandha hai, jiski ankhon par patti bandhi hai aur kuch door par sipahi khaDe hain. lekin darasal nazara bilkul aur hi tarah ka hota hai. tumhein malum hai ki fayring skvaiD maut ki saza pae adami se sirf DeDh gaz door khaDa hota hai! kya tumhein malum hai ki agar unka shikar do qadam bhi aage baDh aaye to uske sine par rifle ka sparsh hoga. kya tum jante ho ki itne kam fasle par khaDe hokar sipahi us adami ke dil par nishana lagate hain aur unki baDi goliyan itna baDa chhed kar deti hain, jismen pura haath ja sakta hai? nahin, tumhein ye nahin malum. ye aisi baten hain, jinka zikr nahin kiya jata. shalin logon ko neend mein khalal nahin paDna chahiye na. kyon! sachmuch ye sab jante hain ki aise byoron par adhik samay kharch karna, bhayankar kuruchi ka parichai dena hai. lekin jahan tak mera saval hai is ghatna ke baad se mujhe kabhi theek tarah neend nahin i. uska kaDva svaad mere munh mein bana raha aur mera man uske byore mein uljha raha aur chintamagn raha.
aur is tarah mujhe ehsaas hua, bahut salon se main pleg se piDit hoon. aur ye ek virodhabhas bhi tha, chunki mera pakka vishvas tha ki main apni samast shakti se isse joojh raha tha. mujhe ehsaas hua ki hazaron logon ki mauton mein apratyaksh roop se mera haath raha hai. mainne un kamon aur siddhanton ka samarthan kiya hai, jinse ve mauten hui hain aur mauton ke siva unka koi natija aur nahin nikal sakta tha. aur logon ko in vicharon se zara bhi pareshani nahin hui thi, kam se kam ve svayan ise vyakt nahin karte the. lekin main unse alag tha, mujhe jo ehsaas hua tha wo mere gale mein atak gaya tha. main un logon ke saath hote hue bhi akela tha. jab main in baton ki charcha chheDta to ve kahte ki mujhe itna adhik shankalu nahin hona chahiye. mujhe yaad rakhna chahiye ki kitne baDe saval iske saath juDe hue hain. aur unhonne kai dalilen deen, jo aksar bahut zordar theen taki main us cheez ko nigal sakun, jo unki dalilon ke bavjud mere man mein glani paida karti thi. mainne javab mein kaha ki pleg se abhishapt logon mein, vishisht vyaktiyon ke paas bhi jo laal choga pahante hain—apne kamon ko sahi thahrane ki dalilen hain aur agar ek baar mainne anivaryata aur bahumat ki shakti ki dalil maan li, jo ki aksar kam vishisht logon dvara pesh ki jati hai to main vishisht logon ki dalilon ko kabhi asvikar nahin kar sakta. iske javab mein un logon ne ye kaha ki agar maut ki saza puri tarah se laal choge valon ke haath mein chhoD di jaye to hum puri tarah se unke hathon mein khelne lagenge. iska javab mainne diya ki agar hum ek baar jhuk jate hain to phir har baar hamein jhukte jana paDega. mujhe lagta hai ki itihas ne meri baat ko sach sabit kiya hai. aaj is baat ki hoD lagi hui hai ki kaun sabse zyada hatyayen karta hai. sab pagal hokar hattya karne mein lage hain aur chahne par bhi ve ise band nahin kar sakenge.
“jo bhi ho, dalilon se mujhe zyada sarokar nahin tha. mujhe to us bechare ullu mein dilchaspi thi, jabki dhokhadhDi ki karyavahi mein pleg ki badbu se saDe munhon ne ek hathkaDi lage adami ko bataya tha ki uski maut naज़dik aa rahi hai. unhonne is tarah ke vaij~naanik parbandh kiye ki kai din aur kai raton tak manasik piDa jhelne ke baad use berahmi se qatl kar diya jaye. mujhe insaan ke sine mein bane jitne baDe chhed se sarokar tha aur mainne man hi man tay kar liya ki jahan tak mera sambandh hai, duniya ki koi cheez mujhse koi aisi dalil ko svikar nahin karva sakti, jo in qatlon ko sahi thahraye. haan, mainne janbujhkar andhe hath ka rasta chuna, us din tak ke liye jab mujhe apna rasta zyada saaf dikhai dega.
“abhi bhi mere vichar vahi hain. kai saal tak mujhe is baat par sharmindagi rahi, sakht sharmindagi rahi ki main apne nek iradon ke saath, kai star pichhe hatkar bhi hatyara bana tha. vaक़t ke saath saath main sirf itna hi seekh saka ki ve log bhi, jo dusron se behtar hain, ajkal apne ko aur dusron ko hattya karne se nahin rok sakte, kyonki ve isi tark ke sahare zinda rahte hain, aur hum is duniya mein kisi ki jaan ko jokhim mein Dale baghair koi chhote se chhota kaam bhi nahin kar sakte. haan, tab se mujhe apne par sharm aati rahi hai; mujhe ehsaas ho gaya hai ki hum sab pleg se piDit hain, mere man ki shanti nasht ho gai hai. aur aaj bhi main use pane ki koshish kar raha hoon; abhi bhi sabhi dusre logon ko samajhne ki koshish kar raha hoon aur chahta hoon ki main kisi ka jani dushman na banun. main sirf itna janta hoon ki insaan ko pleg ke abhishap se mukt hone ke liye bharsak koshish karni chahiye aur sirf isi tariqe se hum kuch shanti ki ummid kar sakte hain. aur agar shanti nahin to shalin maut to nasib ho sakti hai. isi se aur sirf isi se insaan ki musibaten kam ho sakti hain. agar ve marne se nahin bach sakte to unhen kam se kam nuqsan pahunche aur ho sakta hai thoDa fayda bhi pahunche. isiliye mainne tay kiya ki main aisi kisi cheez se sambandh nahin rakhunga, jo pratyaksh ya apratyaksh roop se, achchhe ya bure karnon se kisi insaan ko maut ke munh mein dhakelti hai ya aisa karne valon ko sahi thahrati hai.
“isiliye mahamari mujhe iske siva koi naya sabaq nahin sikha pai ki mujhe tumhare saath milkar usse laDna chahiye. main puri tarah se janta hun—han riyo, main kah sakta hoon ki main is duniya ki nas nas pahchanta hun—hammen se harek ke bhitar pleg hai, dharti ka koi adami isse mukt nahin hai. aur main ye bhi janta hoon ki hamein apne upar lagatar nigrani rakhni paDegi, taki laparvahi ke kisi kshan mein hum kisi ke chehre par apni saans Dalkar use chhoot na den. darasal qudrati cheez to rog ka kitanau hai. baqi sab chizen imandari, pavitarta (agar tum ise bhi joDna chaho) insaan ki ichha shakti ka phal hai, aisi nigrani ka phal hai jismen kabhi Dheel nahin honi chahiye. nek adami, jo kisi ko chhoot nahin deta, wo hai jo sabse kam laparvahi dikhata hai—laparvahi se bachne ke liye bahut baDi ichha shakti ki aur kabhi na khatm hone vale manasik tanav ki zarurat hai. haan riyo, pleg ka shikar hona baDi thakan paida karta hai. lekin pleg ka shikar na hona aur bhi zyada thakan paida karta hai. isiliye duniya mein aaj har adami thaka hua nazar aata hai; har adami ek mane mein pleg se tang aa gaya hai. isiliye hammen se kuch log, jo apne shariron mein se pleg ko bahar nikalna chahte hain, itni hatashpurn thakan mahsus karte hain—aisi thakan, jisse maut ke siva aur koi cheez hamein mukti nahin dila sakti.
“jab tak mujhe wo mukti nahin milti, main janta hoon ki aaj ki duniya mein meri koi jagah nahin hai. jab mainne hattya karne se inkaar kiya tha, tabhi se mainne apne ko nirvasit kar liya tha. ye nirvasan kabhi khatm nahin hoga. itihas ka nirman karne ka kaam main dusron par chhoDta hoon. main ye bhi janta hoon ki mujhmen itni yogyata nahin ki main un logon ke kamon ke auchity par apna nirnay de sakun. mere man ki banavat mein koi kami hai, jiski vajah se main samajhdar hatyara nahin ban sakta. isliye ye vishishtata nahin, balki kamzori hai. lekin in paristhitiyon mein main jaisa hoon, vaisa hi rahne ke liye taiyar hoon. mainne vinayshilata seekh li hai. main sirf ye kahta hoon ki is dharti par mahamariyan hain aur unse piDit log hain aur ye hum par nirbhar karta hai ki jahan tak sambhav ho sake, hum in mahamariyon ka saath na den. ho sakta hai, is baat mein bachkani saralta ho; ye saral hai ya nahin, iska nirnay to main nahin kar sakta, lekin main ye janta hoon ki ye baat sachchi hai. tumne dekh hi liya hai ki mainne itni zyada dalilen suni theen, jinhonne qarib qarib meri mati bhrasht kar di thi, aur dusre logon ki mati bhi adhik bhrasht kar di thi ki ve hattya ke samarthak ban gaye the. mujhe ye ehsaas hua ki hum aspasht napi tuli bhasha ka prayog nahin karte—yahi hamari sari musibaton ki jaD hai. isliye mainne ye kiya ki main hamesha apni batachit aur vyvahar mein spashtata bartunga. apne ko sahi raste par lane ka mere paas sirf yahi tariqa tha. isiliye main sirf yahi kahta hoon ki duniya mein mahamariyan hain aur unka shikar hone vale log hain—agar itna kahne maatr se hi main pleg ki chhoot ko phailane ka sadhan banta hoon to kam se kam main jaan bujhkar aisa nahin karta. sankshaep mein ye kaha ja sakta hai ki main mayus hatyara banne ki koshish karta hoon. tumne dekh hi liya hoga ki main mahattvakankshi adami nahin hoon.
“main manata hoon ki in do shreniyon mein hamein tisri shrenai bhi joD leni chahiye—sachche chikitskon ki shrenai, lekin ye ek mani hui baat hai ki aise log bahut virle hote hain aur nishchay hi unka kaam bahut kathin hoga. isiliye mainne har musibat mein, musibatज़da logon ki taraf hone ka faisla kiya taki main nuqsan ko kam kar sakun. kam se kam un logon mein main ye talash kar sakta hoon ki tisri shrenai tak, arthat shanti tak kaise pahunchta ja sakta hai!
kuch saDken chhoDkar gili saDak par tezi se chalti kaar ki maddham lekin lambi phutkar sunai di—phir wo phutkar band ho gai. door kahin aspasht chillahton ne vatavarn ki niravta ko bhang kiya. uske baad taron bhare asman se jaise kisi mote avarn ne in donon janon ko lapet liya aur khamoshi chha gai. taro uthkar munDer par ja baitha tha, uska munh riyo ki taraf tha jo apni kursi mein dhansa baitha tha. timtimate asman ki prishthabhumi mein riyo ke bhari bharkam sharir ki kali rekhakriti deekh rahi thi. taro ko bahut kuch kahna tha, uske apne shabdon mein hi hum sari baten batayenge.
“main chahta hoon, tumhein meri baat samajhne mein asani ho, isliye sabse pahle main yahi kahunga ki meri zindagi shuru se aisi nahin thi. javani mein main apni masumiyat ke khyaal par zinda tha, jiska matlab hai ki mere man mein koi khyaal hi nahin tha. main un logon mein se nahin, jo apne ko yantranaa dete hain. mainne uchit Dhang se apni zindagi shuru ki thi. mainne jis kaam mein haath Dala, usi mein mujhe saphalta mili. buddhijiviyon ke kshaetr mein, betakallufi se vicharn karta tha, aurton ke saath meri khoob patti thi aur agar kabhi kabhi mere man mein pashchattap ki kasak uthti thi to wo jitni asani se paida hoti thi, utni asani se khatm bhi ho jati thi. phir ek din mainne sochna shuru kiya aur ab…
“main tumhein ye bata doon ki tumhari tarah javani mein main gharib nahin tha. mere pita unche ohde par the—ve public prosikyushnon ke Dayarektar the. lekin unki taraf dekhkar koi ye anuman nahin laga sakta tha. dekhne mein ve baDe ख़ushmiज़aj aur dayalu malum hote the, aur ve sachmuch aise hi the. meri maan baDi sadi aur sharmili aurat theen aur main hamesha unhen bahut chahta tha, lekin main maan ke bare mein baat na hi karun to achchha hai. mere pita mujh par hamesha mehrban the aur mera khayal hai ki ve mujhe samajhne ki koshish bhi karte the. ve ek adarsh pati nahin the—is baat ko main ab jaan gaya hoon, lekin is baat se mere man par koi vishesh aghat nahin pahuncha. apni bevfaiyon mein bhi ve baDi shalinata se vyvahar karte the jaisi ki unse ummid ki ja sakti thi. aaj tak unki badnami nahin hui. kahne ka matlab ye ki unmen maulikta bilkul nahin thi aur ab unke marne ke baad mujhe ehsaas hua hai ki ve palastar ke bane sant to nahin the, lekin ek adami ki haisiyat se ve baDe nek aur shalin the. bus, ve beech ke raste par chalte the. ve us qim ke logon mein se the, jinke liye man mein halki, lekin sthir bhavna umaDti hai—yahi bhavna sabse adhik tikau hoti hai.
“mere pita mein ek vishesh baat thi—hamesha ve raat ko sone se pahle railway ka baDa time table paDhte the. isliye nahin ki unhen aksar train mein saफ़r karna paDta tha. zyada se zyada ve briten tak jate the, jahan dehat mein unka chhota sa makan tha. hum log har saal garmiyon mein vahan jaya karte the. lekin ve chalte phirte taimtebal the. ve aapko peris berlin eksapreson ke aane aur jane ka sahi time bata sakte the; lyon se varsa kaise pahuncha ja sakta hai, kis vaक़t kaun si train pakaDni chahiye, iska unhen pura pata rahta tha. tum agar unse kinhin do rajdhaniyon ke beech ka fasla puchhte to ve tumhein sahi sahi bata sakte the. bhala tum mujhe bata sakte ho ki briyanko se kemoni kaise pahuncha ja sakta hai? mere khayal mein to agar kisi station master se ye saval kiya jaye to wo bhi apna sir khujlane lagega. lekin mere pita ke paas is saval ka javab turant taiyar milta tha. qarib qarib har shaam ve is vishay mein apne gyaan ki mein vriddhi karte the aur unhen is baat par baDa garv tha. unke is shauq se mera bahut manoranjan hota tha. main yatra sambandhi baDe pechida saval unse puchha karta tha aur unke javabon ko railway time table se milakar dekha karta tha. unke javab hamesha bilkul sahi nikalte the. shaam ko main aur mere pita railway ke khel khela karte the, jiski vajah se hum donon ki khoob patti thi. unhen mere jaise shrota ki hi zarurat thi, jo dhyaan se unki baten sune aur pasand kare. meri drishti mein unki ye pravinata adhikansh gunon ki tarah prashansniy thi.
“lekin main bahaq raha hoon aur apne adarnaiy pita ko bahut adhik mahattv de raha hoon. darasal unhonne mere hirdai parivartan ki mahan ghatna mein keval apratyaksh yog diya tha, main us ghatna ke bare mein tumhein batana chahta hoon. sabse baDa kaam unhonne sirf yahi kiya ki mere vichar jagrit kiye. jab main satrah baras ka tha to mere pita ne mujhse kaha ki main kachahri mein aakar unhen bolta hua sunun. kachahri mein ek baDa kes chal raha tha aur shayad unka khayal tha ki main unhen unke sarvottam roop mein dekhunga. mujhe ye bhi shak hua ki unka khayal tha ki main qanun ki shaan shauqat aur aupacharik dikhave se prabhavit ho jaunga aur mujhe yahi pesha apnane ki prerna milegi. main janta tha ki ve mere vahan jane ke liye baDe utsuk the. aur hum ghar mein apne pita ka jo vyaktitv dekhte the, usse alag qim ka vyaktitv dekhne ko milega, ye kalpana mujhe atyant sukhad malum hui. mere vahan jane ke sirf yahi do karan the. adalat ki karyavahi mujhe hamesha sahj aur qayde ke mutabiq malum hoti thi, jaisi ki chaudah julai ki parade ya school ke bhashan divas ki karyavahi. is sambandh mein mere vichar amurt the aur mainne is bare mein kabhi gambhirta se nahin socha tha.
“us din ki karyavahi ke baad mere man mein sirf ek hi tasvir ubhri thi, wo tasvir mujrim ki thi. mujhe is baat mein shak nahin ki wo apradhi tha—usne kya apradh kiya tha, ye zyada mahattv ki baat nahin, tees baras ka wo nata adami, jiske baal bikhre aur bhurbhure the, sab kuch qabu karne ke liye itna utsuk dikhai de raha tha? apne apradh par use sachchi glani ho rahi thi aur uske saath jo hone vala tha uske prati wo ashankit tha. kuch minat baad mainne siva apradhi ke chehre ke, har taraf dekhana band kar diya. wo pile rang ka ullu malum hota tha, bahut zyada roshni se jaise uski ankhen andhi ho rahi hon. uski tie kuch ast vyast thi. wo lagatar danton se apne nakhun kaat raha tha, sirf dayen haath ke. . . kya isse bhi aage kuch kahne ki zarurat hai! kyon! tum to samajh hi gaye hoge—vah ek zinda insaan tha.
“jahan tak mera sambandh tha—achanak bijli ki tarah mere man mein wo ehsaas kaundh gaya. abhi tak to main us adami ko uski upadhi prativadi ke sadharan roop mein dekhta raha tha. main theek se nahin kah sakta ki main apne pita ko bhool gaya, lekin usi kshan jaise kisi cheez ne mere marmasthal ko jakaD liya aur katghare mein khaDe us adami par mere sare dhyaan ko kendrit kar diya. muqadme ki karyavahi mujhe bilkul sunai nahin di. main sirf itna janta tha ki ve log us zinda adami ko marne par tule hue the aur kisi sahj, prakritik bhavna ki lahr ne bahakar mujhe us adami ke paksh mein khaDa kar diya. mujhe us vaक़t hosh aaya, jab mere pita adalat ke samne bolne ke liye khaDe hue.
“laal gown mein unka vyaktitv ekdam badal gaya tha. ve dayalu ya ख़ushmiज़aj nahin malum hote the. unke munh se lambe dikhavati vaaky sanpon ki anthin paant ki tarah nikal rahe the. mujhe ehsaas hua ki mere pita qaidi ki maut ko pukar rahe the, ve juri se kah rahe the ki ve qaidi ko doshi siddh karke samaj ke prati apne dayitv ko pura karen. yahan tak ki ve ye bhi kah rahe the ki us adami ka sar kaat dena chahiye. main manata hoon ki unhonne ain yahi shabd istemal nahin kiye the. unka formula tha, ise sabse baDi saza milani chahiye. lekin in donon baton mein bahut kam farq tha aur matlab ek hi tha. mere pita ne jis sar ki maang ki thi, wo sar unhen mil gaya. lekin sar utarne ka kaam mere pita ne nahin kiya. main ant tak muqadme ko sunta raha tha, mere man mein us abhage adami ke prati ek aisi bhayankar aur nazdiki atmiyata jagrit hui, jo mere pita ne kabhi mahsus nahin ki hogi. phir bhi sarkari vakil hone ke nate unhen us mauqe par maujud rahna paDa, jise shisht bhasha mein qaidi ke antim kshan kaha jata hai; lekin darasal hattya kahna chahiye—hattya ka sabse ghrinait roop!
“us din ke baad se main jab bhi railway time table dekhta to mera man glani se kaanp uthta. main muqadmon ki karyavahi mein, maut ki sazaon mein aur phansiyon mein ek hairat bhari dilchaspi lene laga. mujhe ye kshaobhapurn ehsaas hua ki mere pita ne aksar ye pashavik hatyayen dekhi hongi—jab ve subah bahut jaldi utha karte the aur tab main unke jaldi uthne ke karan ka anuman nahin laga pata tha. mujhe yaad hai ki aise mauqon par ghalati se bachne ke liye ve apni ghaDi mein alarm laga dete the. maan ke samne is prsang ko kholne ka mujhmen sahas nahin tha. lekin ab main apni maan ko zyada ghaur se dekhne laga aur dekha ki unka danpaty jivan ab nirarthak tha aur maan ne uske sudhar ki ummid bhi chhoD di thi. isse mujhe maan ko ‘maaf karne’ mein madad mili. us vaक़t main yahi sochta tha. baad mein mujhe malum hua ki mafi ki koi baat hi nahin thee; shadi se pahle wo baDi gharib theen aur gharib ne unhen paristhitiyon ke aage jhukna sikhaya tha.
“shayad tum mujhse ye sunne ki ummid rakhte ho ki mainne fauran ghar chhoD diya. nahin, mainne bahut mahine, darasal pura saal vahan guzara. phir ek din shaam ko mere pita ne alarm vali ghaDi mangi, kyonki unhen agle din jaldi uthna tha. us raat mujhe neend nahin i. agle din pita ji ke ghar lautne se pahle hi main ja chuka tha.
sankshep mein ye hua ki mere pita ne mujhe ख़t likha, ve mujhe talash karne ke liye tahqiqat karva rahe the. main unse milne gaya aur apne karan bataye baghair mainne unhen shantbhav se samjha diya ki agar unhonne mujhe ghar lautne ke liye mazbur kiya to main atmahatya kar lunga. unhonne mujhe azadi dekar sara jhagDa khatm kar diya, kyonki ve dayalu hirdai adami the—jaisa ki main pahle kah chuka hoon. unhonne mujhe apne Dhang se zindagi basar karne ki bevaqufi par lecture diya (unki drishti mein mere us vyvahar ka yahi karan tha. mainne unhen dhokha na diya ho aisa nahin kah sakta) aur mujhe bahut si nek salahen bhi deen. main dekh raha tha ki is baat ne unke dil par gahra asar Dala tha aur ve baDi mushkil se apne ansuon ko rokne ki koshish kar rahe the. baad mein, bahut arse ke baad main beech beech mein apni maan se milne ke liye jane laga, aise mauqon par main apne pita se bhi zarur milta tha. mera khyaal hai ki kabhi kabhi ki in mulaqaton se mere pita santusht the. vyaktigat taur par mere man mein unke prati zara bhi dushmani nahin thi, balki dil mein kuch udasi si chha gai thi. pita ki maut ke baad mainne maan ko apne paas bula liya aur agar ve zinda rahtin to abhi mere paas hi rahtin.
“mujhe apni shuru ki zindagi ke bare mein zyada isliye batana paDa, kyonki mere liye ye shuruat thi. . . har cheez ki. atharah baras ki umr mein hi mujhe gharib ka samna karna paDa— usse pahle main aram ki zindagi basar karta aaya tha. mainne bahut se kaam kiye aur kisi kaam mein mujhe asphalta nahin mili. lekin meri asli dilchaspi maut ki saza mein thi. main katghare mein khaDe us bechare andhe ullu ke saath hisab chukta karna chahta tha, isliye main logon ke shabdon mein ek andolankari ban gaya. bus, main vinash nahin karna chahta tha. mere vichar mein mere ird gird ki samajik vyavastha maut ki saza par adharit thi aur sthapit satta ke khilaf laDkar main hattya ke khilaf laDunga, ye mera vichar tha. aur logon ne bhi mujhe yahi kaha tha aur mera abhi tak ye vishvas hai ki mera ye vichar thos roop se sahi tha. main un logon ke ek dal mein mil gaya, jinhen main us samay pasand karta tha aur darasal jinhen main abhi bhi pasand karta hoon. europe ka koi aisa desh nahin jiske andolnon mein mainne hissa na liya ho. lekin wo dusri hi kahani hai.
“yah kahne ki zarurat nahin ki mauqa paDne par hum bhi maut ki sazayen dete the. lekin mujhe bataya gaya tha ki ek nae sansar ke nirman ke liye—jismen hatyayen band ho jayengi—ye mauten zaruri hain. ye bhi kuch had tak sach tha—aur ho sakta hai, jahan sachchai ki vyavastha ka saval hai mujhmen Date rahne ki kshamata nahin. iska karan chahe kuch bhi ho, mere man mein hichkichahat paida hui, lekin phir mujhe katghare mein khaDe us abhage ullu ka khayal aaya aur usse mujhe apna kaam jari rakhne ka sahas mila. ye sahas us din tak bana raha, jab main ek phansi ke vaक़t maujud tha—hangri mein aur mujhe vaisa hi vikshaipt atank mahsus hua, jaisa bachpan mein hua tha. meri ankhon ke aage sab chizen chakrane lagin.
“kya tumne kabhi kisi fayring skvaiD dvara kisi adami ko goli se uDaya jata dekha hai. nahin, tumne nahin dekha hoga. chune hue logon ko hi ye drishya dekhne ko milta hai. ek praivet davat ki tarah ismen shamil hone ke liye nimantran ki zarurat hoti hai. kitabon aur tasviron se aam taur par fayring skvaiD ke bare mein vichar batore jate hain. kalpana ki jati hai ki ek khambhe ke saath ek adami bandha hai, jiski ankhon par patti bandhi hai aur kuch door par sipahi khaDe hain. lekin darasal nazara bilkul aur hi tarah ka hota hai. tumhein malum hai ki fayring skvaiD maut ki saza pae adami se sirf DeDh gaz door khaDa hota hai! kya tumhein malum hai ki agar unka shikar do qadam bhi aage baDh aaye to uske sine par rifle ka sparsh hoga. kya tum jante ho ki itne kam fasle par khaDe hokar sipahi us adami ke dil par nishana lagate hain aur unki baDi goliyan itna baDa chhed kar deti hain, jismen pura haath ja sakta hai? nahin, tumhein ye nahin malum. ye aisi baten hain, jinka zikr nahin kiya jata. shalin logon ko neend mein khalal nahin paDna chahiye na. kyon! sachmuch ye sab jante hain ki aise byoron par adhik samay kharch karna, bhayankar kuruchi ka parichai dena hai. lekin jahan tak mera saval hai is ghatna ke baad se mujhe kabhi theek tarah neend nahin i. uska kaDva svaad mere munh mein bana raha aur mera man uske byore mein uljha raha aur chintamagn raha.
aur is tarah mujhe ehsaas hua, bahut salon se main pleg se piDit hoon. aur ye ek virodhabhas bhi tha, chunki mera pakka vishvas tha ki main apni samast shakti se isse joojh raha tha. mujhe ehsaas hua ki hazaron logon ki mauton mein apratyaksh roop se mera haath raha hai. mainne un kamon aur siddhanton ka samarthan kiya hai, jinse ve mauten hui hain aur mauton ke siva unka koi natija aur nahin nikal sakta tha. aur logon ko in vicharon se zara bhi pareshani nahin hui thi, kam se kam ve svayan ise vyakt nahin karte the. lekin main unse alag tha, mujhe jo ehsaas hua tha wo mere gale mein atak gaya tha. main un logon ke saath hote hue bhi akela tha. jab main in baton ki charcha chheDta to ve kahte ki mujhe itna adhik shankalu nahin hona chahiye. mujhe yaad rakhna chahiye ki kitne baDe saval iske saath juDe hue hain. aur unhonne kai dalilen deen, jo aksar bahut zordar theen taki main us cheez ko nigal sakun, jo unki dalilon ke bavjud mere man mein glani paida karti thi. mainne javab mein kaha ki pleg se abhishapt logon mein, vishisht vyaktiyon ke paas bhi jo laal choga pahante hain—apne kamon ko sahi thahrane ki dalilen hain aur agar ek baar mainne anivaryata aur bahumat ki shakti ki dalil maan li, jo ki aksar kam vishisht logon dvara pesh ki jati hai to main vishisht logon ki dalilon ko kabhi asvikar nahin kar sakta. iske javab mein un logon ne ye kaha ki agar maut ki saza puri tarah se laal choge valon ke haath mein chhoD di jaye to hum puri tarah se unke hathon mein khelne lagenge. iska javab mainne diya ki agar hum ek baar jhuk jate hain to phir har baar hamein jhukte jana paDega. mujhe lagta hai ki itihas ne meri baat ko sach sabit kiya hai. aaj is baat ki hoD lagi hui hai ki kaun sabse zyada hatyayen karta hai. sab pagal hokar hattya karne mein lage hain aur chahne par bhi ve ise band nahin kar sakenge.
“jo bhi ho, dalilon se mujhe zyada sarokar nahin tha. mujhe to us bechare ullu mein dilchaspi thi, jabki dhokhadhDi ki karyavahi mein pleg ki badbu se saDe munhon ne ek hathkaDi lage adami ko bataya tha ki uski maut naज़dik aa rahi hai. unhonne is tarah ke vaij~naanik parbandh kiye ki kai din aur kai raton tak manasik piDa jhelne ke baad use berahmi se qatl kar diya jaye. mujhe insaan ke sine mein bane jitne baDe chhed se sarokar tha aur mainne man hi man tay kar liya ki jahan tak mera sambandh hai, duniya ki koi cheez mujhse koi aisi dalil ko svikar nahin karva sakti, jo in qatlon ko sahi thahraye. haan, mainne janbujhkar andhe hath ka rasta chuna, us din tak ke liye jab mujhe apna rasta zyada saaf dikhai dega.
“abhi bhi mere vichar vahi hain. kai saal tak mujhe is baat par sharmindagi rahi, sakht sharmindagi rahi ki main apne nek iradon ke saath, kai star pichhe hatkar bhi hatyara bana tha. vaक़t ke saath saath main sirf itna hi seekh saka ki ve log bhi, jo dusron se behtar hain, ajkal apne ko aur dusron ko hattya karne se nahin rok sakte, kyonki ve isi tark ke sahare zinda rahte hain, aur hum is duniya mein kisi ki jaan ko jokhim mein Dale baghair koi chhote se chhota kaam bhi nahin kar sakte. haan, tab se mujhe apne par sharm aati rahi hai; mujhe ehsaas ho gaya hai ki hum sab pleg se piDit hain, mere man ki shanti nasht ho gai hai. aur aaj bhi main use pane ki koshish kar raha hoon; abhi bhi sabhi dusre logon ko samajhne ki koshish kar raha hoon aur chahta hoon ki main kisi ka jani dushman na banun. main sirf itna janta hoon ki insaan ko pleg ke abhishap se mukt hone ke liye bharsak koshish karni chahiye aur sirf isi tariqe se hum kuch shanti ki ummid kar sakte hain. aur agar shanti nahin to shalin maut to nasib ho sakti hai. isi se aur sirf isi se insaan ki musibaten kam ho sakti hain. agar ve marne se nahin bach sakte to unhen kam se kam nuqsan pahunche aur ho sakta hai thoDa fayda bhi pahunche. isiliye mainne tay kiya ki main aisi kisi cheez se sambandh nahin rakhunga, jo pratyaksh ya apratyaksh roop se, achchhe ya bure karnon se kisi insaan ko maut ke munh mein dhakelti hai ya aisa karne valon ko sahi thahrati hai.
“isiliye mahamari mujhe iske siva koi naya sabaq nahin sikha pai ki mujhe tumhare saath milkar usse laDna chahiye. main puri tarah se janta hun—han riyo, main kah sakta hoon ki main is duniya ki nas nas pahchanta hun—hammen se harek ke bhitar pleg hai, dharti ka koi adami isse mukt nahin hai. aur main ye bhi janta hoon ki hamein apne upar lagatar nigrani rakhni paDegi, taki laparvahi ke kisi kshan mein hum kisi ke chehre par apni saans Dalkar use chhoot na den. darasal qudrati cheez to rog ka kitanau hai. baqi sab chizen imandari, pavitarta (agar tum ise bhi joDna chaho) insaan ki ichha shakti ka phal hai, aisi nigrani ka phal hai jismen kabhi Dheel nahin honi chahiye. nek adami, jo kisi ko chhoot nahin deta, wo hai jo sabse kam laparvahi dikhata hai—laparvahi se bachne ke liye bahut baDi ichha shakti ki aur kabhi na khatm hone vale manasik tanav ki zarurat hai. haan riyo, pleg ka shikar hona baDi thakan paida karta hai. lekin pleg ka shikar na hona aur bhi zyada thakan paida karta hai. isiliye duniya mein aaj har adami thaka hua nazar aata hai; har adami ek mane mein pleg se tang aa gaya hai. isiliye hammen se kuch log, jo apne shariron mein se pleg ko bahar nikalna chahte hain, itni hatashpurn thakan mahsus karte hain—aisi thakan, jisse maut ke siva aur koi cheez hamein mukti nahin dila sakti.
“jab tak mujhe wo mukti nahin milti, main janta hoon ki aaj ki duniya mein meri koi jagah nahin hai. jab mainne hattya karne se inkaar kiya tha, tabhi se mainne apne ko nirvasit kar liya tha. ye nirvasan kabhi khatm nahin hoga. itihas ka nirman karne ka kaam main dusron par chhoDta hoon. main ye bhi janta hoon ki mujhmen itni yogyata nahin ki main un logon ke kamon ke auchity par apna nirnay de sakun. mere man ki banavat mein koi kami hai, jiski vajah se main samajhdar hatyara nahin ban sakta. isliye ye vishishtata nahin, balki kamzori hai. lekin in paristhitiyon mein main jaisa hoon, vaisa hi rahne ke liye taiyar hoon. mainne vinayshilata seekh li hai. main sirf ye kahta hoon ki is dharti par mahamariyan hain aur unse piDit log hain aur ye hum par nirbhar karta hai ki jahan tak sambhav ho sake, hum in mahamariyon ka saath na den. ho sakta hai, is baat mein bachkani saralta ho; ye saral hai ya nahin, iska nirnay to main nahin kar sakta, lekin main ye janta hoon ki ye baat sachchi hai. tumne dekh hi liya hai ki mainne itni zyada dalilen suni theen, jinhonne qarib qarib meri mati bhrasht kar di thi, aur dusre logon ki mati bhi adhik bhrasht kar di thi ki ve hattya ke samarthak ban gaye the. mujhe ye ehsaas hua ki hum aspasht napi tuli bhasha ka prayog nahin karte—yahi hamari sari musibaton ki jaD hai. isliye mainne ye kiya ki main hamesha apni batachit aur vyvahar mein spashtata bartunga. apne ko sahi raste par lane ka mere paas sirf yahi tariqa tha. isiliye main sirf yahi kahta hoon ki duniya mein mahamariyan hain aur unka shikar hone vale log hain—agar itna kahne maatr se hi main pleg ki chhoot ko phailane ka sadhan banta hoon to kam se kam main jaan bujhkar aisa nahin karta. sankshaep mein ye kaha ja sakta hai ki main mayus hatyara banne ki koshish karta hoon. tumne dekh hi liya hoga ki main mahattvakankshi adami nahin hoon.
“main manata hoon ki in do shreniyon mein hamein tisri shrenai bhi joD leni chahiye—sachche chikitskon ki shrenai, lekin ye ek mani hui baat hai ki aise log bahut virle hote hain aur nishchay hi unka kaam bahut kathin hoga. isiliye mainne har musibat mein, musibatज़da logon ki taraf hone ka faisla kiya taki main nuqsan ko kam kar sakun. kam se kam un logon mein main ye talash kar sakta hoon ki tisri shrenai tak, arthat shanti tak kaise pahunchta ja sakta hai!
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 190-198)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : अल्बैर कामू
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
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