मई बीत चला था, मगर स्त्रेलत्सोव परिवार में सभी कुछ पहले जैसे ही चल रहा था। ओलगा और निकोलाई के दांपत्य जीवन में कोई तार टूट गया था। उनके संबंधों में कोई अदृश्य दरार पड़ गई थी।
घर में नन्हा कोत्या भी था। बड़ों जैसी सूझ-बूझ से वह माँ-बाप के बीच पैदा हुए मनमुटाव को तुरंत भाँप गया था। कई बार खाना खाते समय निकोलाई उसकी सवालिया नज़रें स्वयं पर टिकी पाता, लेकिन कुछ जवाब दे पाना मुमकिन नहीं था। नन्हा जिज्ञासु व्यक्ति इस उम्र का नहीं था।
ओलगा, यूरी ओव्रज्नी से स्कूल में ही नहीं मिलती थी। निकोलाई को इसका अनुमान था, लेकिन वह अपने को इस बात के लिए विवश नहीं कर सकता था कि पत्नी पर नज़र रखे। जब वह सहेलियों के यहाँ देर तक रहती, तब भी वह ओसारे से बाहर नहीं निकलता था, चुपचाप अँधेरे में ओसारे पर बैठा सिगरेट पीता हुआ बाट जोहता रहता…गेट के बाहर ओलगा के तेज़ क़दमों की आहट होती। और हर बार एड़ियों की यह जानी-पहचानी टपटप सुनते ही उसे छाती में हल्की-सी घुटन महसूस होती, हृदय की धड़कन मानो धीमी पड़ जाती। वे चुपचाप खाना खाते, कभी-कभार इधर-उधर की निरर्थक बात करके सोने चले जाते, सुबह फिर से वही सिलसिला शुरू हो जाता।
जून के शुरू में ही सहसा किस्लोवोदस्त से आए निकोलाई के बड़े भाई के तार ने इस निरानंद जीवन को झकझोरा। मशीन-ट्रेक्टर के दफ़्तर में ही निकोलाई को तार मिला था, 'दो तारीख़ को पहुँचूँगा। गाड़ी बाईस, डिब्बा सात, मिलना, प्यार-अलेक्सांद्र’
मेहमान के आने के साथ दो दिनों में ही स्त्रेलत्सोव परिवार में जीवन एकदम बदल गया। ओलगा खिल गई, ख़ुश नज़र आने लगी, अब वह प्रायः घर से निकलती ही नहीं थी। नन्हें कोत्या में भी अस्थाई तौर पर खो गया बचपना लौट आया, दो दिन तक वह साशा ताऊ से चिपका रहा।
अलेक्सांद्र मिख़ाईलोविच और निकोलाई नदी पर मछली पकड़ने गए थे। मछली पकड़ने के बाद विशाल छतनार एल्म की शीतल छाया में बैठकर वे नाश्ता करने ही लगे थे कि नदी के उस ओर से मोटरगाड़ी के इंजन का शोर सुनाई दिया और पल-भर को हॉर्न बजा।
लगता है, मेरा बुलावा आ गया। तट पर उगती झाड़ियों पर नज़र गड़ाए निकोलाई ने कहा।
कुछ हो गया क्या?
कोई मीटिंग-वीटिंग होगी शायद, पता नहीं, क्या कुछ हो सकता है। जो भी है, बहुत बेमौक़ा है। भैया, अगर मैं चला गया तो तुम यहीं रहना। कल या तो मैं ख़ुद आऊँगा, खाना-वाना ले आऊँगा या किसी को भेज दूँगा। निकोलाई चुपचाप नाव की ओर चल दिया।
पिछले साल ही लाल सेना से सेवामुक्त हुआ सीनियर लेफ़्टिनेंट पेत्लिन परेड मार्च करता हुआ अलेक्सांद्र मिख़ाईलोविच के पास गया और फिर टोपी तक हाथ उठाकर उसने सलामी दी।
“साथी जनरल इजाज़त हो, और उसने लिफ़ाफ़ा आगे बढ़ा दिया, “आपके नाम बीजपत्र है।
अलेक्सांद्र मिख़ाईलोविच ने बीजपत्र पढ़ा। उसकी बाँछें खिल गईं। बग़ल में खड़े निकोलाई को कसकर बाँहों में भर लिया। उसकी साँस तेज़ चल रही थी, ज़रा रुक-रुककर बोल रहा था, लो, भैया, तुरंत मास्को पहुँचने का आदेश मिला है, नियुक्ति होगी। जनरल हेडक्वार्टर का ऑर्डर है? ठीक है! करेंगे सेवा अपनी जन्मभूमि की और अपनी कम्युनिस्ट पार्टी की। उसने निकोलाई को कसकर छाती से लगा लिया। इन सारे दिनों में पहली बार भाई की धुँधली पड़ गई आँखों में आँसू दिखे।
निकोलाई पहली कतार में मार्च कर रहा था। टीले के शिखर पर पहुँचकर उसने पीछे नज़र डाली और सुखोई इल्मेन गाँव के लिए लड़ाई के बाद बचे सैनिकों को एक झलक देख लिया। इस नष्ट-भ्रष्ट रेजिमेंट की मंथर गति में कुछ ऐसा था, जो एक साथ ही भव्य भी था और मर्मस्पर्शी भी। निकोलाई ने इन जाने-पहचाने मुरझाए, स्याह पड़े चेहरों पर नज़र दौड़ाई। इन कमबख़्त पाँच दिनों में रेजिमेंट ने कितने लोग गँवाए थे। सहसा पल-भर को उसका गला रुँध आया, उसने अपना सिर झुका लिया और हैल्मेट आँखों पर सरका लिया, ताकि साथी उसके आँसू न देख पाएँ।
बथुए के घने झंखाड़ से भरे चौराहे पर एक बार फिर पैदल सैनिकों के बूटों की धमाधम दब गई। बस, पौधों के भारी लटकते सिरों के चमड़े से रगड़ खाने की आवाज़ आ रही थी और उनके हरे बीजाणु सैनिकों के बूटों पर गिर रहे थे। धूल की घुटनभरी गंध में अब बथुए की भीनी-भीनी उदासी-भरी महक मिल गई थी।
दोन के निस्सीम मैदान—स्तेपी में खोए इस छोटे से गाँव तक भी युद्ध आ पहुँचा। अस्पताल की गाड़ियाँ खड़ी थीं, गलियों में सफ़रमैना आ-जा रहे थे, ऊपर तक लदे तीन टन के ट्रक ताज़े कटे पटरे नदी की ओर ले जा रहे थे। चौक से थोड़ी दूर एक बाग़ में विमानभेदी तोपें लगाई गई थीं। तोपें पेड़ों के पास खड़ी थीं। सबसे नज़दीक खड़ी तोप की ऊँची उठी डरावनी नाल को हल्के हरे, अधपके सेबों से लदी डाल ने अपने आलिंगन में ले रखा था।
ज्यार्गित्सेव ने निकोलाई की बग़ल में कोहनी मारी और ख़ुशी से चिल्लाया, “अरे निकोलाई, यह तो अपनी किचन है। ख़ुश हो जा प्यारे! पड़ाव भी डलेगा यहाँ और ठंडे पानी की नदी भी है। और क्या ख़ाक चाहिए!
रात उन्होंने उसी बाग़ में बिताई।
प्रात: निकोलाई शीघ्र ही जाग गया। बग़ीचे में मुरझाती घास की, धुएँ की और जली खिचड़ी की गंध फैल रही थी। फ़ील्ड किचन के पास निकोलाई का दोस्त टैंकमार बंदूक का प्योत्र लोपाखिन अपनी टेढ़ी टाँगें फैलाए खड़ा था। वह सिगरेट पी रहा था और अलसाया-सा बावर्ची लिसीचेचरो से तू-तू मैं-मैं कर रहा था।
लोपाखिन से निकोलाई की दोस्ती हुए ज़्यादा समय नहीं हुआ था। 'उज्ज्वल पय' नामक राजकीय फ़ार्म के लिए लड़ाई में उनकी खंदकें पास-पास थीं। लोपाखिन एक दिन पहले ही आख़िर कुमक के साथ रेजिमेंट में आया था। निकोलाई उसे लड़ाई में पहली ही बार देख रहा था। उसने यह देखा था कि कैसे टैंक की चक्रपट्टी के नीचे पीली, चिकनी मिट्टी लोपाखिन की खंदक में ढही और उसने सोचा कि टैंकमार बंदूकची मारे गए। लेकिन कुछ क्षण बाद ही अधढही खंदक में से अभी तक बैठ न पाई पीली धूल के बादल में से बंदूक की लंबी नली निकली, एक धमाका हुआ और सहसा थम गए टैंक के काले बख़्तर पर आग की लपट छिपकली-सी लपक गई और फिर घना काला धुआँ निकलने लगा। प्राय: उसी क्षण लोपाखिन ने निकोलाई को आवाज़ लगाई, अबे ओ, कलुए मच्छड़ ज़िंदा है? गोली क्यों चलाता बे? देखता नहीं, वो चले आ रहे हैं!
पहली बार ज़रा देर को घोड़ा दबाकर निकोलाई ने मेड़ पर उगते डेज़ी के सफ़ेद फूल उड़ा दिए, फिर जब थोड़ा नीचे निशाना लेकर गोली चलाई तो अपनी मशीनगन की ज़ोरदार तड़ातड़ के पीछे दो बार निकली तीखी चीख़ उसने बड़े आनंद से सुनी।
उसी शाम लड़ाई के बाद लोपाखिन खंदक में बनी कोठरी में आया। उन दोनों में सचमुच ही सैनिकों की सरलता-भरी और गाढ़ी दोस्ती हो गई। दोनों नदी की ओर चल दिए। लोपाखिन ने सुझाया, चल, पुल पार कर लेते हैं, वहाँ पानी ज़्यादा गहरा होगा।
नहाकर निकोलाई ने ताज़गी महसूस की। सिर का दर्द मिट गया। उसने लोपाखिन से कहा, ऐसे स्नान के बाद एक-एक जाम और घर का बना बढ़िया शोरबा मिल जाए तो बस और क्या चाहिए! मगर इस कमबख़्त लिसीचेंको ने फिर वही खिचड़ी बना रखी है! मर जाए साला खिचड़ी हड़प-हड़प के! इतने में उनकी जान-पहचान के दो सैनिक बाँध के दूसरी ओर से प्रकट हुए। जब वे लोपाखिन के पास पहुँचे तो उसने अपनी गर्दन शिकारी पंछी की तरह तानकर पूछा, “पोटली में क्या है जवानो?
चिंगट। लंबू ने अनिच्छा से उत्तर दिया।
हमें भी साथ रख लो, डोल और नमक लाना मेरा काम, उबालेंगे मिलकर, ठीक है?
निकोलाई ने अपनी खिचड़ी ख़त्म की और अपना बर्तन धोकर पोंछ दिया। लोपाखिन ने अपने हिस्से की खिचड़ी नहीं खाई। वह अलाव के पास पंजों के बल बैठा डोल में डंडी चला रहा था और लालायित नज़रों से चिंगटों को देख रहा था।
फ़ील्ड अस्पताल की गाड़ियाँ पूरब को जा रही थीं। सबसे आख़िर में नई अमरीकी लारी थी, उसका हरा रोगन धुँधला-सा चमक रहा था, लेकिन उसमें गोलियों से छेद हो चुके थे।
गाड़ी पर तिरपाल ही तान देते, निकोलाई ने झुँझलाते हुए कहा, ऐसी गर्मी है, भुन जाएँगे बेचारे!
निकोलाई कान लगाकर सुनने लगा। गाँव में अशुभ सन्नाटा छाया हुआ था। शीघ्र ही परिचय से तोपों की जानी-पहचानी, कराह-भरी धमाधम कानों में पड़ने लगी।
'चख लिए चिंगट! हताशा-भरे स्वर में लोपाखिन ने कहा।
सचमुच वे चिंगट नहीं उबाल पाए। कुछ मिनट बाद ही रेजिमेंट को सावधान किया गया। कप्तान सुस्कोप ने लाइन बनाकर खड़े हो गए सैनिकों पर नज़र दौड़ाई और कहा, साथियो! हमें आदेश मिला है...गाँव के पीछे टीले पर हमें शत्रु का सामना करना है और जब तक एक भी आदमी बचा रहेगा, हम डटे रहेंगे।
निकोलाई ने कंधे बिचकाए और गोलमटोल-सा जवाब दिया, डटे तो रहना चाहिए। लेकिन मन ही मन उसने सोचा...यह है युद्ध का रोमांच! रेजिमेंट में इने-गिने लोग रह गए हैं, बस ध्वज, कुछ मशीनगनें और टैंकमार बंदूकें, किचन बचा पाए हैं...और अब आड़ बनकर डटने जा रहे हैं।'
पवनचक्की के पास कोई सात साल का एक लड़का खड़ा था, जिसके पटसनी बाल धूप में सफ़ेद लग रहे थे। निकोलाई ने उसे ध्यान से देखा तो आश्चर्य से उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। हूबहू उसके अपने बेटे जैसा...कहाँ है अब उसका नन्हा, उसके कलेजे का टुकड़ा—कोत्या! निकोलाई का मन हुआ फिर से उस लड़के को एक नज़र देख ले, लेकिन उसने अपना मन मार लिया। आख़िर फिर वह लोभ संवरण न कर सका, उसने मुड़कर देख ही लिया। लड़का सारे कालम को गुज़रते देख रहा था। अपना छोटा-सा हाथ सिर के ऊपर उठाकर हिलाते हुए उन्हें विदा कर रहा था। सुबह की ही भाँति निकोलाई के दिल में टीस उठी, कलेजा मुँह को आ गया और गला रुँध गया।
सैनिक दबादब खंदकें खोदने में जुटे हुए थे। निकोलाई ने घुटने तक गहरी खंदक खोद ली और तब साँस लेकर कमर सीधी की। थोड़ी ही दूरी पर ग्यार्गिसेव खंदक खोद रहा था। पौने चार बजे थे। तभी दूर से आता इंजनों का शोर सुनाई दिया। टैंक आ रहे थे। निकोलाई गिनने लगा...चौदह टैंक थे। वे खोह में छिप गए। धावे से पहले आरंभिक स्थिति ग्रहण करते हुए अलग-अलग होने लगे और फिर लड़ाई के पहले के अपार आंतरिक तनाव-भरे अल्प क्षण आ गए। जब हृदय की धड़कन तेज़ हो जाती है और हर सैनिक को, उसके इर्द-गिर्द चाहे कितने भी साथी क्यों न हों, पल-भर को अकेलेपन की तीव्र अनुभूति और कलेजे को चीरती उदासी महसूस होती है।
खोह में इंजन गुर्राए, टैंक प्रकट हुए। उनके पीछे पैदल सिपाही कमर एकदम सीधी किए चल रहे थे। जब टैंकों ने आधे से अधिक फ़ासला तय कर लिया और झाड़ियों के पास पहुँचकर रफ़्तार बढ़ा ली तो निकोलाई को लंबे स्वर में दिया गया आदेश सुनाई दिया। सब मशीनगनों और टैंकों ने एक साथ तड़ातड़ गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं।
मशीनगनों की बौछार तले ज़मीन से सटे पैदल सिपाहियों ने कुछेक बार उठने की कोशिश की, मगर हर बार उन्हें नीचे गिरना पड़ा। आख़िर वे उठे, तेज़ी से थोड़ी-थोड़ी दूर तक दौड़कर खंदका के पास आने लगे, लेकिन तभी टैंक एकदम घूम गए और वापस चल दिए, ढलान पर छह जलते और टूटे टैंक रह गए।
निकोलाई ने पानी का घूँट भरकर अफ़सोस के साथ बोतल सूखे होंठों से अलग की, सावधानी से खंदक के बाहर झाँककर देखा।
एक बार फिर गोलियों की बौछार के कारण टैंकों से पीछे छूटे पैदल सैनिक बूची ढलान पर लेट गए और फिर आगे निकल आए टैंक पूरी रफ़्तार से रक्षा लाइन की ओर बढ़ चले।
चारों ओर घमासान लड़ाई हो रही थी। रेजिमेंट के गिने-चुने सैनिक अपनी अंतिम शक्ति बटोरकर डटे हुए थे। उनकी गोलाबारी क्षीण पड़ती जा रही थी; लड़ने में समर्थ लोग थोडे से ही बचे थे। ज़िंदा बचे सैनिक संगीनों से जर्मनों का सामना करने को तैयार हो रहे थे। उधर निकोलाई मिट्टी तले अधदबा-सा अभी भी खंदक के तले पर पड़ा हुआ था, सिसकियों के साथ लंबी-लंबी साँसों से फेफड़ों में हवा खींच रहा था। उसकी नाक में से ख़ून बह रहा था, गरम गुदगुदाता हुआ ख़ून! उसे बड़ी ज़ोर से कै हुई और वह ज़मीन पर गिर पड़ा। कुछ देर में ठीक हो गया।
निकोलाई ने हौले-हौले सिर उठाया और अपनी धुँधलाई नज़र इधर-उधर दौड़ाते ही सब कुछ समझ गया, जर्मन बिलकुल पास ही थे।
इस तरह मिनट बीत रहे थे, जो उसके लिए घंटों के समान थे।
जर्मन बमों से खेतों में आग लग गई थी और दूर-दूर तक अनाज की तैयार खड़ी फ़सल सारी रात जलती रही थी। सारी रात आधे दहकते आकाश में दहकती, काँपती सुर्ख़ी छाई रही। जलते अनाज की गंध हवा के साथ पूरब की ओर आ रही थी।
विस्फोटों की धूल अभी बैठी भी न थी कि क्षितिज पर जर्मन विमानों की दूसरी लहर उभरी। कोई तीस बमवर्षक विमान थे। चार विमान अलग होकर रक्षा लाइन की ओर बढ़ चले।
लोपाखिन ने मानो नींद में लेफ़्टिनेंट की तीखी ऊँची आवाज़ सुनी, दुश्मन के विमानों पर फ़ायर! पलांश में ही उसने फ़ायर किया, कंधे व सारे शरीर में झटका महसूस किया। दूसरे वार में लोपाखिन ने टैंक का काम तमाम कर दिया। प्रायः उसी समय दो और टैंक भी जल गए।
आधे घंटे के बाद जर्मनों ने दुबारा हमला किया। इस बार जलते टैंक का इंजन मानो असह्य पीड़ा से गुर्रा उठा। टैंक सीधा समकोण पर पहुँचकर घूम गया, बाग़ में घुस गया और वहाँ गोलाबारी से टूटे चेरी के घने पेड़ों की टहनियों से आग बुझाने की कोशिश करने लगा।
सूरज डूबने से थोड़ी देर पहले पुल पर क़ब्ज़ा करने की अपनी नाकाम कोशिशों से पस्त जर्मनों ने हमले बंद कर दिए, टीलों पर खंदकें खोदकर जम गए और धावा बोलना छोड़कर पुल पर और कछार के सूने रास्तों पर विधिवत् गोलाबारी करने लगे। शाम को पुल के रास्ते की रक्षा कर रही टुकड़ियों को दोन के बाएँ पट पर हटने का आदेश मिला। और जब अँधेरा घिर आया तो टुकड़ियाँ ज़रा भी आहट किए बिना जले हुए गाँव के खंडहरों के पार जंगल से होते हुए दोन की ओर जाने लगीं।
रात को बारिश होती रही। पौ फटते ही थम गई। सूबेदार ने सबको नींद से उठाया और खाँसी से बैठे गले से कहा, हमें लेफ़्टिनेंट को ढंग से दफ़नाकर आगे चलना चाहिए।
अभी कल ही तो लोपाखिन ने लेफ़्टिनेंट की खंदक में वोदका पी थी, अभी कुछ घंटे पहले तक तो पिस्तौल केस की यह तनियाँ और यह बैग उसकी सुघड़, गरम देह पर अच्छी तरह बैठे हुए थे। अब यही देह क़ब्र के पास निश्चल रखी हुई है, मृत्यु ने इसे छोटा कर दिया है। ख़ून से सनी बरसाती में लिपटा लेफ़्टिनेंट गोलोश्चेकोव यहाँ लेटा हुआ है और उसके पीले चेहरे पर वर्षा की बूँदें ज्यों की त्यों पड़ी हुई हैं!...और अब विदाई का अंतिम क्षण आ गया है!
दो सैनिक क़ब्र में कूद गए। बड़े ध्यान से उन्होंने लेफ़्टिनेंट का शव क़ब्र में उतारा। सलामी में तीन बार बंदूकें दाग़ी गईं। लोपाखिन का दिल कभी भी इतना भारी, इतना उदास नहीं हुआ था, जितना इस समय।
रात की हुई वर्षा के बाद जंगल जवान हो उठा था। उसे निहारते हुए स्त्रेलत्सोव ने विचारमग्न स्वर में कहा, कितना सुंदर है! है न?”
लोपाखिन ने कनखी से अपने दोस्त को देखा, लेकिन बोला कुछ नहीं। लोपाखिन को भी प्रकृति से प्रेम था, किंतु इस समय वह कुछ नहीं देख रहा था, सिवाय शत्रु के वाहनों से उठती धूल के, जो धीरे-धीरे पश्चिम की ओर बढ़ रही थी। वहाँ पश्चिम में, नीली धुँध में डूबी दोन-तटीय स्तेपियों में लड़ाइयों में मारे गए उसके साथी रह गए थे; और भी दूर पश्चिम में उसका शहर रह गया था, जहाँ वह जन्मा था, जहाँ उसका परिवार था, उसके पिता का बनाया छोटा-सा मकान था और मकान के सामने पिता के लगाए छोटे से मेपल वृक्ष थे, जिन पर बारहों महीने कोयले की धूल जमी रहती थी और इसलिए वे बढ़ नहीं पाए थे, बौने ही रह गए थे। फिर भी सुबह पिता के साथ खान में जाते समय उन्हें एक नज़र देख लेने से ही दिल खिल उठता था।
डिवीजन कमांडर कर्नल मार्चेको शहर के पास लड़ाई में घायल हुआ था। सुबह पट्टियाँ बदलने के बाद कर्नल मार्चेको ने चाय का गिलास पिया और आराम करने लेट गया। उसे झपकी आई ही थी कि किसी ने दरवाज़े पर हौले से दस्तक दी। इजाज़त पाने की प्रतीक्षा किए बिना, स्टाफ़-चीफ़ मेजर गोलोव्कोव अँधेरे कमरे में घुस आया और भर्राए स्वर बोला, अड़तीसवीं रेजिमेंट आई है।
उसने सारी शक्ति जुटाकर बेगानी-सी आवाज़ में पूछा, कैसे हैं?
“सत्ताईस सैनिक हैं, उनमें पाँच घायल हैं। रेजिमेंट का ध्वज उन्होंने बचाए रखा है। जवान बाहर लाइन में खड़े हैं, और फिर कर्नल से मुँह सटाकर कहा, वसीली, तुम उठो नहीं, भैया, मैं सलामी लूँगा, तुम्हारी हालत इतनी ख़राब है।
कुछ क्षण मार्चेको खाट पर बैठा पट्टी से बँधे सिर पर हाथ रखे हौले-हौले डोलता रहा। पुनः आत्मबल के अंतिम प्रयास से दृढ़ स्वर में बोला, मैं उनके पास जाऊँगा। तुम्हें पता है, क्योदोर, इस ध्वज तले लड़ाई से पहले आठ साल तक मैंने सैनिक सेवा की है...मैं ख़ुद उनकी सलामी लूँगा!
मकान के ओसारे से मोर्च को धीरे-धीरे सावधानी से उतरा, हाथ से रेलिंग का सहारा लेकर। जब उसने ज़मीन पर पाँव रखा तो सत्ताईस जोड़ी घिसी एड़ियाँ एक साथ चटखीं। कर्नल ने रुककर अपनी एक खुली आँख से, जो काले मनके की तरह चमक रही थी, सैनिकों पर नज़र दौड़ाई और फिर सहसा उसकी ज़ोरदार आवाज़ गूँजी, ‘‘जवानो! मातृभूमि कभी भी तुम्हारा पराक्रम नहीं भूलेगी और न ही तुम्हारी यातनाएँ!
धन्य हो तुम कि तुमने रेजिमेंट का ध्वज बचाए रखा। दुश्मन भले ही अभी आगे बढ़ रहा है, लेकिन विजय हमारी ही होगी। तुम लोग जर्मनी तक अपनी यह ध्वज ले के जाओगे और तब उस अभिशप्त देश में हाहाकार मचेगा जिसने लुटेरे, आततायियों और हत्यारों के झुंडों को जन्म दिया है। जर्मन धरती पर अंतिम लड़ाइयों में तब हमारी सेना...हमारी महान् मुक्तिवाहिनी सेना के लाल ध्वज लहराएँगे। धन्यवाद तुम्हारा सैनिको!
भारी, ढलवाँ तहों में दंड से लटकते लाल ध्वज का धुँधला सुनहरा झब्बा हवा से हिल रहा था। धीमे क़दमों से ध्वज के पास आकर कर्नल ने एक घुटना टेका। पट्टी बँधा सिर श्रद्धा से झुकाकर काँपते होंठों से मखमली ध्वज चूमा, जिससे बारूद और लंबे मार्चों की धूल की गंध तथा स्तेपी की नागदौन की अमिट गंध आ रही थी।
लोपाखिन अपने जबड़े भींचे और बिना हिले-डुले खड़ा था। दाहिनी ओर से रुँधी सिसकी सुनाई देने पर ही उसने सिर ज़रा-सा घुमाया। सूबेदार योप्रिश्चेंकी के, चौथे युद्ध में लड़ रहे बूढ़े सैनिक योप्रिश्चेंकी के, कंधे काँप रहे थे और बग़लों से सटी बाँहें हिल रही थीं, झुकी पलकों तले से झुर्रीदार गालों पर छोटे-छोटे चमकते आँसू बहते जा रहे थे। लेकिन कायदे का पालन करता सूबेदार आँसू पोंछने के लिए हाथ नहीं उठा रहा था, बस उसका सफ़ेद बालों वाला सिर नीचे ही नीचे झुकता जा रहा था...
mai beet chala tha, magar strelatsov parivar mein sabhi kuch pahle jaise hi chal raha tha. olga aur nikolai ke danpaty jivan mein koi taar toot gaya tha. unke sambandhon mein koi adrshy darar paD gai thi.
ghar mein nanha kotya bhi tha. baDon jaisi soojh boojh se wo maan baap ke beech paida hue manmutav ko turant bhaanp gaya tha. kai baar khana khate samay nikolai uski savaliya nazren svayan par tiki pata, lekin kuch javab de pana mumkin nahin tha. nanha jij~naasu vekti is umr ka nahin tha.
olga, yuri ovrajni se school mein hi nahin milti thi. nikolai ko iska anuman tha, lekin wo apne ko is baat ke liye vivash nahin kar sakta tha ki patni par nazar rakhe. jab wo saheliyon ke yahan der tak rahti, tab bhi wo osare se bahar nahin nikalta tha, chupchap andhere mein osare par baitha cigarette pita hua baat johta rahta…gate ke bahar olga ke tez qadmon ki aahat hoti. aur har baar eDiyon ki ye jani pahchani taptap sunte hi use chhati mein halki si ghutan mahsus hoti, hirdai ki dhaDkan mano dhimi paD jati. ve chupchap khana khate, kabhi kabhar idhar udhar ki nirarthak baat karke sone chale jate, subah phir se vahi silsila shuru ho jata.
june ke shuru mein hi sahsa kislovodast se aaye nikolai ke baDe bhai ke taar ne is niranand jivan ko jhakjhora. machine trektar ke daftar mein hi nikolai ko taar mila tha, do tarikh ko pahunchunga. gaDi bais, Dibba saat, milna, pyaar aleksandr’
mehman ke aane ke saath do dinon mein hi strelatsov parivar mein jivan ekdam badal gaya. olga khil gai, khush nazar aane lagi, ab wo praya ghar se nikalti hi nahin thi. nannhe kotya mein bhi asthai taur par kho gaya bachpana laut aaya, do din tak wo sasha tau se chipka raha.
aleksandr mikhailovich aur nikolai nadi par machhli pakaDne gaye the. machhli pakaDne ke baad vishal chhatnar elm ki shital chhaya mein baithkar ve nashta karne hi lage the ki nadi ke us or se motargaDi ke engine ka shor sunai diya aur pal bhar ko horn baja.
lagta hai, mera bulava aa gaya. tat par ugti jhaDiyon par nazar gaDaye nikolai ne kaha.
kuchh ho gaya kyaa?
koi miting viting hogi shayad, pata nahin, kya kuch ho sakta hai. jo bhi hai, bahut bemauqa hai. bhaiya, agar main chala gaya to tum yahin rahna. kal ya to main khu aunga, khana vana le aunga ya kisi ko bhej dunga. nikolai chupchap naav ki or chal diya.
pichhle saal hi laal sena se sevamukt hua siniyar leफ़tinent petlin parade march karta hua aleksandr mikhailovich ke paas gaya aur phir topi tak haath uthakar usne salami di.
“sathi general ijazat ho, aur usne lifafa aage baDha diya, “apke naam bijpatr hai.
aleksandr mikhailovich ne bijpatr paDha. uski banchhen khil gain. baghal mein khaDe nikolai ko kaskar banhon mein bhar liya. uski saans tez chal rahi thi, zara ruk rukkar bol raha tha, lo, bhaiya, turant masco pahunchne ka adesh mila hai, niyukti hogi. general headquarter ka order hai? theek hai! karenge seva apni janmabhumi ki aur apni communist party ki. usne nikolai ko kaskar chhati se laga liya. in sare dinon mein pahli baar bhai ki dhundhli paD gai ankhon mein ansu dikhe.
nikolai pahli katar mein march kar raha tha. tile ke sikhar par pahunchakar usne pichhe nazar Dali aur sukhoi ilmen gaanv ke liye laDai ke baad bache sainikon ko ek jhalak dekh liya. is nasht bhrasht rejiment ki manthar gati mein kuch aisa tha, jo ek saath hi bhavy bhi tha aur marmasparshi bhi. nikolai ne in jane pahchane murjhaye, syaah paDe chehron par nazar dauDai. in kambakht paanch dinon mein rejiment ne kitne log ganvaye the. sahsa pal bhar ko uska gala rundh aaya, usne apna sir jhuka liya aur hailmet ankhon par sarka liya, taki sathi uske ansu na dekh payen.
bathue ke ghane jhankhaD se bhare chaurahe par ek baar phir paidal sainikon ke buton ki dhamadham dab gai. bus, paudhon ke bhari latakte siron ke chamDe se ragaD khane ki avaz aa rahi thi aur unke hare bijanau sainikon ke buton par gir rahe the. dhool ki ghutanabhri gandh mein ab bathue ki bhini bhini udasi bhari mahak mil gai thi.
don ke nissim maidan—stepi mein khoe is chhote se gaanv tak bhi yudh aa pahuncha. aspatal ki gaDiyan khaDi theen, galiyon mein saफ़ramaina aa ja rahe the, upar tak lade teen tan ke truck taze kate patre nadi ki or le ja rahe the. chauk se thoDi door ek baagh mein vimanbhedi topen lagai gai theen. topen peDon ke paas khaDi theen. sabse naज़dik khaDi top ki unchi uthi Daravni naal ko halke hare, adhapke sebon se ladi Daal ne apne alingan mein le rakha tha.
jyargitsev ne nikolai ki baghal mein kohni mari aur khushi se chillaya, “are nikolai, ye to apni kitchen hai. khush ho ja pyare! paDav bhi Dalega yahan aur thanDe pani ki nadi bhi hai. aur kya ख़aak chahiye!
raat unhonne usi baag mein bitai.
pratah nikolai sheeghr hi jaag gaya. baghiche mein murjhati ghaas ki, dhuen ki aur jali khichDi ki gandh phail rahi thi. field kitchen ke paas nikolai ka dost tainkmar banduk ka pyotr lopakhin apni teDhi tangen phailaye khaDa tha. wo cigarette pi raha tha aur alsaya sa bavarchi lisichechro se tu tu main main kar raha tha.
lopakhin se nikolai ki dosti hue zyada samay nahin hua tha. ujjval pay namak rajakiy faarm ke liye laDai mein unki khandken paas paas theen. lopakhin ek din pahle hi akhir kumak ke saath rejiment mein aaya tha. nikolai use laDai mein pahli hi baar dekh raha tha. usne ye dekha tha ki kaise tank ki chakrpatti ke niche pili, chikni mitti lopakhin ki khandak mein Dhahi aur usne socha ki tainkmar bandukchi mare gaye. lekin kuch kshan baad hi adhaDhhi khandak mein se abhi tak baith na pai pili dhool ke badal mein se banduk ki lambi nali nikli, ek dhamaka hua aur sahsa tham gaye tank ke kale bakhtar par aag ki lapat chhipkali si lapak gai aur phir ghana kala dhuan nikalne laga. prayah usi kshan lopakhin ne nikolai ko avaz lagai, abe o, kalue machchhaD zinda hai? goli kyon chalata be? dekhta nahin, wo chale aa rahe hain!
pahli baar zara der ko ghoDa dabakar nikolai ne meD par ugte daisy ke safed phool uDa diye, phir jab thoDa niche nishana lekar goli chalai to apni mashinagan ki zordar taDataD ke pichhe do baar nikli tikhi cheekh usne baDe anand se suni.
usi shaam laDai ke baad lopakhin khandak mein bani kothari mein aaya. un donon mein sachmuch hi sainikon ki saralta bhari aur gaDhi dosti ho gai. donon nadi ki or chal diye. lopakhin ne sujhaya, chal, pul paar kar lete hain, vahan pani zyada gahra hoga.
nahakar nikolai ne tazgi mahsus ki. sir ka dard mit gaya. usne lopakhin se kaha, aise snaan ke baad ek ek jaam aur ghar ka bana baDhiya shorba mil jaye to bus aur kya chahiye! magar is kambakht lisichenko ne phir vahi khichDi bana rakhi hai! mar jaye sala khichDi haDap haDap ke! itne mein unki jaan pahchan ke do sainik baandh ke dusri or se prakat hue. jab ve lopakhin ke paas pahunche to usne apni gardan shikari panchhi ki tarah tankar puchha, “potli mein kya hai javano?
nikolai ne apni khichDi khatm ki aur apna bartan dhokar ponchh diya. lopakhin ne apne hisse ki khichDi nahin khai. wo alav ke paas panjon ke bal baitha Dol mein DanDi chala raha tha aur lalayit nazron se chington ko dekh raha tha.
field aspatal ki gaDiyan purab ko ja rahi theen. sabse akhir mein nai americi lari thi, uska hara rogan dhundhla sa chamak raha tha, lekin usmen goliyon se chhed ho chuke the.
gaDi par tirpal hi taan dete, nikolai ne jhunjhlate hue kaha, aisi garmi hai, bhun jayenge bechare!
nikolai kaan lagakar sunne laga. gaanv mein ashubh sannata chhaya hua tha. sheeghr hi parichai se topon ki jani pahchani, karah bhari dhamadham kanon mein paDne lagi.
chakh liye chingat! hatasha bhare svar mein lopakhin ne kaha.
sachmuch ve chingat nahin ubaal pae. kuch minat baad hi rejiment ko savdhan kiya gaya. kaptan suskop ne line banakar khaDe ho gaye sainikon par nazar dauDai aur kaha, sathiyo! hamein adesh mila hai. . . gaanv ke pichhe tile par hamein shatru ka samna karna hai aur jab tak ek bhi adami bacha rahega, hum Date rahenge.
nikolai ne kandhe bichkaye aur golamtol sa javab diya, Date to rahna chahiye. lekin man hi man usne socha. . . ye hai yudh ka romanch! rejiment mein ine gine log rah gaye hain, bus dhvaj, kuch mashinagnen aur tainkmar banduken, kitchen bacha pae hain. . . aur ab aaD bankar Datne ja rahe hain.
pavanchakki ke paas koi saat saal ka ek laDka khaDa tha, jiske patasni baal dhoop mein safed lag rahe the. nikolai ne use dhyaan se dekha to ashchary se uski ankhen phati ki phati rah gain. hubhu uske apne bete jaisa. . . kahan hai ab uska nanha, uske kaleje ka tukDa—kotya! nikolai ka man hua phir se us laDke ko ek nazar dekh le, lekin usne apna man maar liya. akhir phir wo lobh sanvarn na kar saka, usne muDkar dekh hi liya. laDka sare kalam ko guzarte dekh raha tha. apna chhota sa haath sir ke upar uthakar hilate hue unhen vida kar raha tha. subah ki hi bhanti nikolai ke dil mein tees uthi, kaleja munh ko aa gaya aur gala rundh gaya.
sainik dabadab khandken khodne mein jute hue the. nikolai ne ghutne tak gahri khandak khod li aur tab saans lekar kamar sidhi ki. thoDi hi duri par gyargisev khandak khod raha tha. paune chaar baje the. tabhi door se aata enginon ka shor sunai diya. tank aa rahe the. nikolai ginne laga. . . chaudah tank the. ve khoh mein chhip gaye. dhave se pahle arambhik sthiti grahn karte hue alag alag hone lage aur phir laDai ke pahle ke apar antrik tanav bhare alp kshan aa gaye. jab hirdai ki dhaDkan tez ho jati hai aur har sainik ko, uske ird gird chahe kitne bhi sathi kyon na hon, pal bhar ko akelepan ki teevr anubhuti aur kaleje ko chirti udasi mahsus hoti hai.
khoh mein engine gurraye, tank prakat hue. unke pichhe paidal sipahi kamar ekdam sidhi kiye chal rahe the. jab tankon ne aadhe se adhik fasla tay kar liya aur jhaDiyon ke paas pahunchakar raftar baDha li to nikolai ko lambe svar mein diya gaya adesh sunai diya. sab mashinagnon aur tankon ne ek saath taDataD goliyan barsani shuru kar deen.
mashinagnon ki bauchhar tale zamin se sate paidal sipahiyon ne kuchhek baar uthne ki koshish ki, magar har baar unhen niche girna paDa. akhir ve uthe, tezi se thoDi thoDi door tak dauDkar khandka ke paas aane lage, lekin tabhi tank ekdam ghoom gaye aur vapas chal diye, Dhalan par chhah jalte aur tute tank rah gaye.
nikolai ne pani ka ghoont bharkar afsos ke saath botal sukhe honthon se alag ki, savadhani se khandak ke bahar jhankakar dekha.
ek baar phir goliyon ki bauchhar ke karan tankon se pichhe chhute paidal sainik buchi Dhalan par let gaye aur phir aage nikal aaye tank puri raftar se rakhsha line ki or baDh chale.
charon or ghamasan laDai ho rahi thi. rejiment ke gine chune sainik apni antim shakti batorkar Date hue the. unki golabari kshain paDti ja rahi thee; laDne mein samarth log thoDe se hi bache the. zinda bache sainik sanginon se jarmnon ka samna karne ko taiyar ho rahe the. udhar nikolai mitti tale adhadba sa abhi bhi khandak ke tale par paDa hua tha, siskiyon ke saath lambi lambi sanson se phephaDon mein hava kheench raha tha. uski naak mein se khoon bah raha tha, garam gudgudata hua khoon! use baDi zor se kai hui aur wo zamin par gir paDa. kuch der mein theek ho gaya.
nikolai ne haule haule sir uthaya aur apni dhundhlai nazar idhar udhar dauDate hi sab kuch samajh gaya, german bilkul paas hi the.
is tarah minat beet rahe the, jo uske liye ghanton ke saman the.
german bamon se kheton mein aag lag gai thi aur door door tak anaj ki taiyar khaDi fasal sari raat jalti rahi thi. sari raat aadhe dahakte akash mein dahakti, kanpti surkhi chhai rahi. jalte anaj ki gandh hava ke saath purab ki or aa rahi thi.
visphoton ki dhool abhi baithi bhi na thi ki kshaitij par german vimanon ki dusri lahr ubhri. koi tees bamvarshak viman the. chaar viman alag hokar rakhsha line ki or baDh chale.
lopakhin ne mano neend mein leफ़tinent ki tikhi unchi avaz suni, dushman ke vimanon par fire! palansh mein hi usne fire kiya, kandhe va sare sharir mein jhatka mahsus kiya. dusre vaar mein lopakhin ne tank ka kaam tamam kar diya. praya usi samay do aur tank bhi jal gaye.
aadhe ghante ke baad jarmnon ne dubara hamla kiya. is baar jalte tank ka engine mano asahy piDa se gurra utha. tank sidha samkon par pahunchakar ghoom gaya, baagh mein ghus gaya aur vahan golabari se tute cheri ke ghane peDon ki tahniyon se aag bujhane ki koshish karne laga.
suraj Dubne se thoDi der pahle pul par qabza karne ki apni nakam koshishon se past jarmnon ne hamle band kar diye, tilon par khandken khodkar jam gaye aur dhava bolna chhoDkar pul par aur kachhar ke sune raston par vidhivat golabari karne lage. shaam ko pul ke raste ki rakhsha kar rahi tukDiyon ko don ke bayen pat par hatne ka adesh mila. aur jab andhera ghir aaya to tukDiyan zara bhi aahat kiye bina jale hue gaanv ke khanDahron ke paar jangal se hote hue don ki or jane lagin.
raat ko barish hoti rahi. pau phatte hi tham gai. subedar ne sabko neend se uthaya aur khansi se baithe gale se kaha, hamen leफ़tinent ko Dhang se dafnakar aage chalna chahiye.
abhi kal hi to lopakhin ne leफ़tinent ki khandak mein vodka pi thi, abhi kuch ghante pahle tak to pistol kes ki ye taniyan aur ye bag uski sughaD, garam deh par achchhi tarah baithe hue the. ab yahi deh क़br ke paas nishchal rakhi hui hai, mirtyu ne ise chhota kar diya hai. khoon se sani barsati mein lipta leफ़tinent goloshchekov yahan leta hua hai aur uske pile chehre par varsha ki bunden jyon ki tyon paDi hui hain!. . . aur ab vidai ka antim kshan aa gaya hai!
do sainik क़br mein kood gaye. baDe dhyaan se unhonne leफ़tinent ka shau क़br mein utara. salami mein teen baar banduken daghi gain. lopakhin ka dil kabhi bhi itna bhari, itna udaas nahin hua tha, jitna is samay.
raat ki hui varsha ke baad jangal javan ho utha tha. use niharte hue strelatsov ne vicharamagn svar mein kaha, kitna sundar hai! hai n?”
lopakhin ne kankhi se apne dost ko dekha, lekin bola kuch nahin. lopakhin ko bhi prakrti se prem tha, kintu is samay wo kuch nahin dekh raha tha, sivay shatru ke vahnon se uthti dhool ke, jo dhire dhire pashchim ki or baDh rahi thi. vahan pashchim mein, nili dhundh mein Dubi don tatiy stepiyon mein laDaiyon mein mare gaye uske sathi rah gaye the; aur bhi door pashchim mein uska shahr rah gaya tha, jahan wo janma tha, jahan uska parivar tha, uske pita ka banaya chhota sa makan tha aur makan ke samne pita ke lagaye chhote se mepal vriksh the, jin par barahon mahine koyle ki dhool jami rahti thi aur isliye ve baDh nahin pae the, baune hi rah gaye the. phir bhi subah pita ke saath khaan mein jate samay unhen ek nazar dekh lene se hi dil khil uthta tha.
Divijan commander colonel marcheko shahr ke paas laDai mein ghayal hua tha. subah pattiyan badalne ke baad colonel marcheko ne chaay ka gilas piya aur aram karne let gaya. use jhapki i hi thi ki kisi ne darvaze par haule se dastak di. ijazat pane ki pratiksha kiye bina, staff chief major golovkov andhere kamre mein ghus aaya aur bharraye svar bola, aDtisvin rejiment i hai.
usne sari shakti jutakar begani si avaz mein puchha, kaise hain?
“sattais sainik hain, unmen paanch ghayal hain. rejiment ka dhvaj unhonne bachaye rakha hai. javan bahar line mein khaDe hain, aur phir colonel se munh satakar kaha, vasili, tum utho nahin, bhaiya, main salami lunga, tumhari haalat itni kharab hai.
kuch kshan marcheko khaat par baitha patti se bandhe sir par haath rakhe haule haule Dolta raha. pun atmabal ke antim prayas se driDh svar mein bola, main unke paas jaunga. tumhein pata hai, kyodor, is dhvaj tale laDai se pahle aath saal tak mainne sainik seva ki hai. . . main khu unki salami lunga!
makan ke osare se morch ko dhire dhire savadhani se utra, haath se railing ka sahara lekar. jab usne zamin par paanv rakha to sattais joDi ghisi eDiyan ek saath chatkhin. colonel ne rukkar apni ek khuli ankh se, jo kale manke ki tarah chamak rahi thi, sainikon par nazar dauDai aur phir sahsa uski zordar avaz gunji, ‘‘javano! matribhumi kabhi bhi tumhara parakram nahin bhulegi aur na hi tumhari yatnayen!
dhany ho tum ki tumne rejiment ka dhvaj bachaye rakha. dushman bhale hi abhi aage baDh raha hai, lekin vijay hamari hi hogi. tum log jarmni tak apni ye dhvaj le ke jaoge aur tab us abhishapt desh mein hahakar machega jisne lutere, attayiyon aur hatyaron ke jhunDon ko janm diya hai. german dharti par antim laDaiyon mein tab hamari sena. . . hamari mahan muktivahini sena ke laal dhvaj lahrayenge. dhanyavad tumhara sainiko!
bhari, Dhalvan tahon mein danD se latakte laal dhvaj ka dhundhla sunahra jhabba hava se hil raha tha. dhime qadmon se dhvaj ke paas aakar colonel ne ek ghutna teka. patti bandha sir shardha se jhukakar kanpte honthon se makhamli dhvaj chuma, jisse barud aur lambe marchon ki dhool ki gandh tatha stepi ki nagadaun ki amit gandh aa rahi thi.
lopakhin apne jabDe bhinche aur bina hile Dule khaDa tha. dahini or se rundhi siski sunai dene par hi usne sir zara sa ghumaya. subedar yoprishchenki ke, chauthe yudh mein laD rahe buDhe sainik yoprishchenki ke, kandhe kaanp rahe the aur baghlon se sati banhen hil rahi theen, jhuki palkon tale se jhurridar galon par chhote chhote chamakte ansu bahte ja rahe the. lekin kayde ka palan karta subedar ansu ponchhne ke liye haath nahin utha raha tha, bus uska safed balon vala sir niche hi niche jhukta ja raha tha. . .
mai beet chala tha, magar strelatsov parivar mein sabhi kuch pahle jaise hi chal raha tha. olga aur nikolai ke danpaty jivan mein koi taar toot gaya tha. unke sambandhon mein koi adrshy darar paD gai thi.
ghar mein nanha kotya bhi tha. baDon jaisi soojh boojh se wo maan baap ke beech paida hue manmutav ko turant bhaanp gaya tha. kai baar khana khate samay nikolai uski savaliya nazren svayan par tiki pata, lekin kuch javab de pana mumkin nahin tha. nanha jij~naasu vekti is umr ka nahin tha.
olga, yuri ovrajni se school mein hi nahin milti thi. nikolai ko iska anuman tha, lekin wo apne ko is baat ke liye vivash nahin kar sakta tha ki patni par nazar rakhe. jab wo saheliyon ke yahan der tak rahti, tab bhi wo osare se bahar nahin nikalta tha, chupchap andhere mein osare par baitha cigarette pita hua baat johta rahta…gate ke bahar olga ke tez qadmon ki aahat hoti. aur har baar eDiyon ki ye jani pahchani taptap sunte hi use chhati mein halki si ghutan mahsus hoti, hirdai ki dhaDkan mano dhimi paD jati. ve chupchap khana khate, kabhi kabhar idhar udhar ki nirarthak baat karke sone chale jate, subah phir se vahi silsila shuru ho jata.
june ke shuru mein hi sahsa kislovodast se aaye nikolai ke baDe bhai ke taar ne is niranand jivan ko jhakjhora. machine trektar ke daftar mein hi nikolai ko taar mila tha, do tarikh ko pahunchunga. gaDi bais, Dibba saat, milna, pyaar aleksandr’
mehman ke aane ke saath do dinon mein hi strelatsov parivar mein jivan ekdam badal gaya. olga khil gai, khush nazar aane lagi, ab wo praya ghar se nikalti hi nahin thi. nannhe kotya mein bhi asthai taur par kho gaya bachpana laut aaya, do din tak wo sasha tau se chipka raha.
aleksandr mikhailovich aur nikolai nadi par machhli pakaDne gaye the. machhli pakaDne ke baad vishal chhatnar elm ki shital chhaya mein baithkar ve nashta karne hi lage the ki nadi ke us or se motargaDi ke engine ka shor sunai diya aur pal bhar ko horn baja.
lagta hai, mera bulava aa gaya. tat par ugti jhaDiyon par nazar gaDaye nikolai ne kaha.
kuchh ho gaya kyaa?
koi miting viting hogi shayad, pata nahin, kya kuch ho sakta hai. jo bhi hai, bahut bemauqa hai. bhaiya, agar main chala gaya to tum yahin rahna. kal ya to main khu aunga, khana vana le aunga ya kisi ko bhej dunga. nikolai chupchap naav ki or chal diya.
pichhle saal hi laal sena se sevamukt hua siniyar leफ़tinent petlin parade march karta hua aleksandr mikhailovich ke paas gaya aur phir topi tak haath uthakar usne salami di.
“sathi general ijazat ho, aur usne lifafa aage baDha diya, “apke naam bijpatr hai.
aleksandr mikhailovich ne bijpatr paDha. uski banchhen khil gain. baghal mein khaDe nikolai ko kaskar banhon mein bhar liya. uski saans tez chal rahi thi, zara ruk rukkar bol raha tha, lo, bhaiya, turant masco pahunchne ka adesh mila hai, niyukti hogi. general headquarter ka order hai? theek hai! karenge seva apni janmabhumi ki aur apni communist party ki. usne nikolai ko kaskar chhati se laga liya. in sare dinon mein pahli baar bhai ki dhundhli paD gai ankhon mein ansu dikhe.
nikolai pahli katar mein march kar raha tha. tile ke sikhar par pahunchakar usne pichhe nazar Dali aur sukhoi ilmen gaanv ke liye laDai ke baad bache sainikon ko ek jhalak dekh liya. is nasht bhrasht rejiment ki manthar gati mein kuch aisa tha, jo ek saath hi bhavy bhi tha aur marmasparshi bhi. nikolai ne in jane pahchane murjhaye, syaah paDe chehron par nazar dauDai. in kambakht paanch dinon mein rejiment ne kitne log ganvaye the. sahsa pal bhar ko uska gala rundh aaya, usne apna sir jhuka liya aur hailmet ankhon par sarka liya, taki sathi uske ansu na dekh payen.
bathue ke ghane jhankhaD se bhare chaurahe par ek baar phir paidal sainikon ke buton ki dhamadham dab gai. bus, paudhon ke bhari latakte siron ke chamDe se ragaD khane ki avaz aa rahi thi aur unke hare bijanau sainikon ke buton par gir rahe the. dhool ki ghutanabhri gandh mein ab bathue ki bhini bhini udasi bhari mahak mil gai thi.
don ke nissim maidan—stepi mein khoe is chhote se gaanv tak bhi yudh aa pahuncha. aspatal ki gaDiyan khaDi theen, galiyon mein saफ़ramaina aa ja rahe the, upar tak lade teen tan ke truck taze kate patre nadi ki or le ja rahe the. chauk se thoDi door ek baagh mein vimanbhedi topen lagai gai theen. topen peDon ke paas khaDi theen. sabse naज़dik khaDi top ki unchi uthi Daravni naal ko halke hare, adhapke sebon se ladi Daal ne apne alingan mein le rakha tha.
jyargitsev ne nikolai ki baghal mein kohni mari aur khushi se chillaya, “are nikolai, ye to apni kitchen hai. khush ho ja pyare! paDav bhi Dalega yahan aur thanDe pani ki nadi bhi hai. aur kya ख़aak chahiye!
raat unhonne usi baag mein bitai.
pratah nikolai sheeghr hi jaag gaya. baghiche mein murjhati ghaas ki, dhuen ki aur jali khichDi ki gandh phail rahi thi. field kitchen ke paas nikolai ka dost tainkmar banduk ka pyotr lopakhin apni teDhi tangen phailaye khaDa tha. wo cigarette pi raha tha aur alsaya sa bavarchi lisichechro se tu tu main main kar raha tha.
lopakhin se nikolai ki dosti hue zyada samay nahin hua tha. ujjval pay namak rajakiy faarm ke liye laDai mein unki khandken paas paas theen. lopakhin ek din pahle hi akhir kumak ke saath rejiment mein aaya tha. nikolai use laDai mein pahli hi baar dekh raha tha. usne ye dekha tha ki kaise tank ki chakrpatti ke niche pili, chikni mitti lopakhin ki khandak mein Dhahi aur usne socha ki tainkmar bandukchi mare gaye. lekin kuch kshan baad hi adhaDhhi khandak mein se abhi tak baith na pai pili dhool ke badal mein se banduk ki lambi nali nikli, ek dhamaka hua aur sahsa tham gaye tank ke kale bakhtar par aag ki lapat chhipkali si lapak gai aur phir ghana kala dhuan nikalne laga. prayah usi kshan lopakhin ne nikolai ko avaz lagai, abe o, kalue machchhaD zinda hai? goli kyon chalata be? dekhta nahin, wo chale aa rahe hain!
pahli baar zara der ko ghoDa dabakar nikolai ne meD par ugte daisy ke safed phool uDa diye, phir jab thoDa niche nishana lekar goli chalai to apni mashinagan ki zordar taDataD ke pichhe do baar nikli tikhi cheekh usne baDe anand se suni.
usi shaam laDai ke baad lopakhin khandak mein bani kothari mein aaya. un donon mein sachmuch hi sainikon ki saralta bhari aur gaDhi dosti ho gai. donon nadi ki or chal diye. lopakhin ne sujhaya, chal, pul paar kar lete hain, vahan pani zyada gahra hoga.
nahakar nikolai ne tazgi mahsus ki. sir ka dard mit gaya. usne lopakhin se kaha, aise snaan ke baad ek ek jaam aur ghar ka bana baDhiya shorba mil jaye to bus aur kya chahiye! magar is kambakht lisichenko ne phir vahi khichDi bana rakhi hai! mar jaye sala khichDi haDap haDap ke! itne mein unki jaan pahchan ke do sainik baandh ke dusri or se prakat hue. jab ve lopakhin ke paas pahunche to usne apni gardan shikari panchhi ki tarah tankar puchha, “potli mein kya hai javano?
nikolai ne apni khichDi khatm ki aur apna bartan dhokar ponchh diya. lopakhin ne apne hisse ki khichDi nahin khai. wo alav ke paas panjon ke bal baitha Dol mein DanDi chala raha tha aur lalayit nazron se chington ko dekh raha tha.
field aspatal ki gaDiyan purab ko ja rahi theen. sabse akhir mein nai americi lari thi, uska hara rogan dhundhla sa chamak raha tha, lekin usmen goliyon se chhed ho chuke the.
gaDi par tirpal hi taan dete, nikolai ne jhunjhlate hue kaha, aisi garmi hai, bhun jayenge bechare!
nikolai kaan lagakar sunne laga. gaanv mein ashubh sannata chhaya hua tha. sheeghr hi parichai se topon ki jani pahchani, karah bhari dhamadham kanon mein paDne lagi.
chakh liye chingat! hatasha bhare svar mein lopakhin ne kaha.
sachmuch ve chingat nahin ubaal pae. kuch minat baad hi rejiment ko savdhan kiya gaya. kaptan suskop ne line banakar khaDe ho gaye sainikon par nazar dauDai aur kaha, sathiyo! hamein adesh mila hai. . . gaanv ke pichhe tile par hamein shatru ka samna karna hai aur jab tak ek bhi adami bacha rahega, hum Date rahenge.
nikolai ne kandhe bichkaye aur golamtol sa javab diya, Date to rahna chahiye. lekin man hi man usne socha. . . ye hai yudh ka romanch! rejiment mein ine gine log rah gaye hain, bus dhvaj, kuch mashinagnen aur tainkmar banduken, kitchen bacha pae hain. . . aur ab aaD bankar Datne ja rahe hain.
pavanchakki ke paas koi saat saal ka ek laDka khaDa tha, jiske patasni baal dhoop mein safed lag rahe the. nikolai ne use dhyaan se dekha to ashchary se uski ankhen phati ki phati rah gain. hubhu uske apne bete jaisa. . . kahan hai ab uska nanha, uske kaleje ka tukDa—kotya! nikolai ka man hua phir se us laDke ko ek nazar dekh le, lekin usne apna man maar liya. akhir phir wo lobh sanvarn na kar saka, usne muDkar dekh hi liya. laDka sare kalam ko guzarte dekh raha tha. apna chhota sa haath sir ke upar uthakar hilate hue unhen vida kar raha tha. subah ki hi bhanti nikolai ke dil mein tees uthi, kaleja munh ko aa gaya aur gala rundh gaya.
sainik dabadab khandken khodne mein jute hue the. nikolai ne ghutne tak gahri khandak khod li aur tab saans lekar kamar sidhi ki. thoDi hi duri par gyargisev khandak khod raha tha. paune chaar baje the. tabhi door se aata enginon ka shor sunai diya. tank aa rahe the. nikolai ginne laga. . . chaudah tank the. ve khoh mein chhip gaye. dhave se pahle arambhik sthiti grahn karte hue alag alag hone lage aur phir laDai ke pahle ke apar antrik tanav bhare alp kshan aa gaye. jab hirdai ki dhaDkan tez ho jati hai aur har sainik ko, uske ird gird chahe kitne bhi sathi kyon na hon, pal bhar ko akelepan ki teevr anubhuti aur kaleje ko chirti udasi mahsus hoti hai.
khoh mein engine gurraye, tank prakat hue. unke pichhe paidal sipahi kamar ekdam sidhi kiye chal rahe the. jab tankon ne aadhe se adhik fasla tay kar liya aur jhaDiyon ke paas pahunchakar raftar baDha li to nikolai ko lambe svar mein diya gaya adesh sunai diya. sab mashinagnon aur tankon ne ek saath taDataD goliyan barsani shuru kar deen.
mashinagnon ki bauchhar tale zamin se sate paidal sipahiyon ne kuchhek baar uthne ki koshish ki, magar har baar unhen niche girna paDa. akhir ve uthe, tezi se thoDi thoDi door tak dauDkar khandka ke paas aane lage, lekin tabhi tank ekdam ghoom gaye aur vapas chal diye, Dhalan par chhah jalte aur tute tank rah gaye.
nikolai ne pani ka ghoont bharkar afsos ke saath botal sukhe honthon se alag ki, savadhani se khandak ke bahar jhankakar dekha.
ek baar phir goliyon ki bauchhar ke karan tankon se pichhe chhute paidal sainik buchi Dhalan par let gaye aur phir aage nikal aaye tank puri raftar se rakhsha line ki or baDh chale.
charon or ghamasan laDai ho rahi thi. rejiment ke gine chune sainik apni antim shakti batorkar Date hue the. unki golabari kshain paDti ja rahi thee; laDne mein samarth log thoDe se hi bache the. zinda bache sainik sanginon se jarmnon ka samna karne ko taiyar ho rahe the. udhar nikolai mitti tale adhadba sa abhi bhi khandak ke tale par paDa hua tha, siskiyon ke saath lambi lambi sanson se phephaDon mein hava kheench raha tha. uski naak mein se khoon bah raha tha, garam gudgudata hua khoon! use baDi zor se kai hui aur wo zamin par gir paDa. kuch der mein theek ho gaya.
nikolai ne haule haule sir uthaya aur apni dhundhlai nazar idhar udhar dauDate hi sab kuch samajh gaya, german bilkul paas hi the.
is tarah minat beet rahe the, jo uske liye ghanton ke saman the.
german bamon se kheton mein aag lag gai thi aur door door tak anaj ki taiyar khaDi fasal sari raat jalti rahi thi. sari raat aadhe dahakte akash mein dahakti, kanpti surkhi chhai rahi. jalte anaj ki gandh hava ke saath purab ki or aa rahi thi.
visphoton ki dhool abhi baithi bhi na thi ki kshaitij par german vimanon ki dusri lahr ubhri. koi tees bamvarshak viman the. chaar viman alag hokar rakhsha line ki or baDh chale.
lopakhin ne mano neend mein leफ़tinent ki tikhi unchi avaz suni, dushman ke vimanon par fire! palansh mein hi usne fire kiya, kandhe va sare sharir mein jhatka mahsus kiya. dusre vaar mein lopakhin ne tank ka kaam tamam kar diya. praya usi samay do aur tank bhi jal gaye.
aadhe ghante ke baad jarmnon ne dubara hamla kiya. is baar jalte tank ka engine mano asahy piDa se gurra utha. tank sidha samkon par pahunchakar ghoom gaya, baagh mein ghus gaya aur vahan golabari se tute cheri ke ghane peDon ki tahniyon se aag bujhane ki koshish karne laga.
suraj Dubne se thoDi der pahle pul par qabza karne ki apni nakam koshishon se past jarmnon ne hamle band kar diye, tilon par khandken khodkar jam gaye aur dhava bolna chhoDkar pul par aur kachhar ke sune raston par vidhivat golabari karne lage. shaam ko pul ke raste ki rakhsha kar rahi tukDiyon ko don ke bayen pat par hatne ka adesh mila. aur jab andhera ghir aaya to tukDiyan zara bhi aahat kiye bina jale hue gaanv ke khanDahron ke paar jangal se hote hue don ki or jane lagin.
raat ko barish hoti rahi. pau phatte hi tham gai. subedar ne sabko neend se uthaya aur khansi se baithe gale se kaha, hamen leफ़tinent ko Dhang se dafnakar aage chalna chahiye.
abhi kal hi to lopakhin ne leफ़tinent ki khandak mein vodka pi thi, abhi kuch ghante pahle tak to pistol kes ki ye taniyan aur ye bag uski sughaD, garam deh par achchhi tarah baithe hue the. ab yahi deh क़br ke paas nishchal rakhi hui hai, mirtyu ne ise chhota kar diya hai. khoon se sani barsati mein lipta leफ़tinent goloshchekov yahan leta hua hai aur uske pile chehre par varsha ki bunden jyon ki tyon paDi hui hain!. . . aur ab vidai ka antim kshan aa gaya hai!
do sainik क़br mein kood gaye. baDe dhyaan se unhonne leफ़tinent ka shau क़br mein utara. salami mein teen baar banduken daghi gain. lopakhin ka dil kabhi bhi itna bhari, itna udaas nahin hua tha, jitna is samay.
raat ki hui varsha ke baad jangal javan ho utha tha. use niharte hue strelatsov ne vicharamagn svar mein kaha, kitna sundar hai! hai n?”
lopakhin ne kankhi se apne dost ko dekha, lekin bola kuch nahin. lopakhin ko bhi prakrti se prem tha, kintu is samay wo kuch nahin dekh raha tha, sivay shatru ke vahnon se uthti dhool ke, jo dhire dhire pashchim ki or baDh rahi thi. vahan pashchim mein, nili dhundh mein Dubi don tatiy stepiyon mein laDaiyon mein mare gaye uske sathi rah gaye the; aur bhi door pashchim mein uska shahr rah gaya tha, jahan wo janma tha, jahan uska parivar tha, uske pita ka banaya chhota sa makan tha aur makan ke samne pita ke lagaye chhote se mepal vriksh the, jin par barahon mahine koyle ki dhool jami rahti thi aur isliye ve baDh nahin pae the, baune hi rah gaye the. phir bhi subah pita ke saath khaan mein jate samay unhen ek nazar dekh lene se hi dil khil uthta tha.
Divijan commander colonel marcheko shahr ke paas laDai mein ghayal hua tha. subah pattiyan badalne ke baad colonel marcheko ne chaay ka gilas piya aur aram karne let gaya. use jhapki i hi thi ki kisi ne darvaze par haule se dastak di. ijazat pane ki pratiksha kiye bina, staff chief major golovkov andhere kamre mein ghus aaya aur bharraye svar bola, aDtisvin rejiment i hai.
usne sari shakti jutakar begani si avaz mein puchha, kaise hain?
“sattais sainik hain, unmen paanch ghayal hain. rejiment ka dhvaj unhonne bachaye rakha hai. javan bahar line mein khaDe hain, aur phir colonel se munh satakar kaha, vasili, tum utho nahin, bhaiya, main salami lunga, tumhari haalat itni kharab hai.
kuch kshan marcheko khaat par baitha patti se bandhe sir par haath rakhe haule haule Dolta raha. pun atmabal ke antim prayas se driDh svar mein bola, main unke paas jaunga. tumhein pata hai, kyodor, is dhvaj tale laDai se pahle aath saal tak mainne sainik seva ki hai. . . main khu unki salami lunga!
makan ke osare se morch ko dhire dhire savadhani se utra, haath se railing ka sahara lekar. jab usne zamin par paanv rakha to sattais joDi ghisi eDiyan ek saath chatkhin. colonel ne rukkar apni ek khuli ankh se, jo kale manke ki tarah chamak rahi thi, sainikon par nazar dauDai aur phir sahsa uski zordar avaz gunji, ‘‘javano! matribhumi kabhi bhi tumhara parakram nahin bhulegi aur na hi tumhari yatnayen!
dhany ho tum ki tumne rejiment ka dhvaj bachaye rakha. dushman bhale hi abhi aage baDh raha hai, lekin vijay hamari hi hogi. tum log jarmni tak apni ye dhvaj le ke jaoge aur tab us abhishapt desh mein hahakar machega jisne lutere, attayiyon aur hatyaron ke jhunDon ko janm diya hai. german dharti par antim laDaiyon mein tab hamari sena. . . hamari mahan muktivahini sena ke laal dhvaj lahrayenge. dhanyavad tumhara sainiko!
bhari, Dhalvan tahon mein danD se latakte laal dhvaj ka dhundhla sunahra jhabba hava se hil raha tha. dhime qadmon se dhvaj ke paas aakar colonel ne ek ghutna teka. patti bandha sir shardha se jhukakar kanpte honthon se makhamli dhvaj chuma, jisse barud aur lambe marchon ki dhool ki gandh tatha stepi ki nagadaun ki amit gandh aa rahi thi.
lopakhin apne jabDe bhinche aur bina hile Dule khaDa tha. dahini or se rundhi siski sunai dene par hi usne sir zara sa ghumaya. subedar yoprishchenki ke, chauthe yudh mein laD rahe buDhe sainik yoprishchenki ke, kandhe kaanp rahe the aur baghlon se sati banhen hil rahi theen, jhuki palkon tale se jhurridar galon par chhote chhote chamakte ansu bahte ja rahe the. lekin kayde ka palan karta subedar ansu ponchhne ke liye haath nahin utha raha tha, bus uska safed balon vala sir niche hi niche jhukta ja raha tha. . .
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 254-262)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : मिखाइल अलेक्सान्द्रोविच शोलोख़ोव
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
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