''एक राजा निरबंसिया थे”—माँ कहानी सुनाया करती थीं। उनके आसपास ही चार-पाँच बच्चे अपनी मुठ्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढ़ाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुंदर-सा चौक पुरा होता, उसी चौक पर मिट्टी की छः ग़ौरें रखी जातीं, जिनमें से ऊपरवाली के बिंदिया और सिंदूर लगता, बाक़ी पाँचों नीचे दबी पूजा ग्रहण करती रहतीं। एक ओर दीपक की बाती स्थिर-सी जलती रहती और मंगल-घट रखा रहता, जिस पर रोली से सथिया बनाया जाता। सभी बैठे बच्चों के मुख पर फूल चढ़ाने की उतावली की जगह कहानी सुनने की सहज स्थिरता उभर आती।
“एक राजा निरबंसिया थे”, माँ सुनाया करती थीं, “उनके राज में बड़ी ख़ुशहाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना काम-काज देखते थे। कोई दुखी नहीं दिखाई पड़ता था। राजा के एक लक्ष्मी-सी रानी थी, चंद्रमा-सी सुंदर...और राजा को बहुत प्यारी। राजा राज-काज देखते और सुख-से रानी के महल में रहते...”
मेरे सामने मेरे ख़यालों का राजा था, राजा जगपती! तब जगपती से मेरी दाँतकाटी दोस्ती थी, दोनों मिडिल स्कूल में पढ़ने जाते। दोनों एक-से घर के थे, इसलिए बराबरी की निभती थी। मैं मैट्रिक पास करके एक स्कूल में नौकर हो गया और जगपती क़स्बे के ही वकील के यहाँ मुहर्रिर। जिस साल जगपती मुहर्रिर हुआ, उसी वर्ष पास के गाँव में उसकी शादी हुई, पर ऐसी हुई कि लोगों ने तमाशा बना देना चाहा। लड़कीवालों का कुछ विश्वास था कि शादी के बाद लड़की की विदा नहीं होगी। ब्याह हो जाएगा और सातवीं भाँवर तब पड़ेगी, जब पहली विदा की सायत होगी और तभी लड़की अपनी ससुराल जाएगी। जगपती की पत्नी थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी थी, पर घर की लीक को कौन मेटे! बारात बिना बहू के वापस आ गई और लड़केवालों ने तय कर लिया कि अब जगपती की शादी कहीं और कर दी जाएगी, चाहें कानी-लूली से हो, पर वह लड़की अब घर में नहीं आएगी। लेकिन साल ख़त्म होते-होते सब ठीक-ठाक हो गया। लड़कीवालों ने माफ़ी माँग ली और जगपती की पत्नी अपनी ससुराल आ गई।
जगपती को जैसे सब-कुछ मिल गया और सास ने बहू की बलाइयाँ लेकर घर की सब चाबियाँ सौंप दीं, गृहस्थी का ढंग-बार समझा दिया। जगपती की माँ न जाने कब से आस लगाए बैठीं थीं। उन्होंने आराम की साँस ली। पूजा-पाठ में समय कटने लगा, दुपहरियाँ दूसरे घरों के आँगन में बीतने लगीं। पर साँस का रोग था उन्हें, सो एक दिन उन्होंने अपनी अंतिम घड़ियाँ गिनते हुए चंदा को पास बुलाकर समझाया था—“बेटा, जगपती बड़े लाड-प्यार का पला है। जब से तुम्हारे ससुर नहीं रहे, तब से इसके छोटे-छोटे हठ को पूरा करती रही हूँ…अब तुम ध्यान रखना।” फिर रुककर उन्होंने कहा था, “जगपती किसी लायक़ हुआ है, तो रिश्तेदारों की आँखों में करकने लगा है। तुम्हारे बाप ने ब्याह के वक़्त नादानी की, जो तुम्हें विदा नहीं किया। मेरे दुश्मन देवर-जेठों को मौक़ा मिल गया। तूमार खड़ा कर दिया कि अब विदा करवाना नाक कटवाना है।… जगपती का ब्याह क्या हुआ, उन लोगों की छाती पर साँप लोट गया। सोचा, घर की इज़्ज़त रखने की आड़ लेकर रंग में भंग कर दें।…अब बेटा, इस घर की लाज तुम्हारी लाज है।… आज को तुम्हारे ससुर होते, तो भला...” कहते कहते माँ की आँखों में आँसू आ गए, और वे जगपती की देखभाल उसे सौंपकर सदा के लिए मौन हो गई थीं।
एक अरमान उनके साथ ही चला गया कि जगपती की संतान को, चार बरस इंतज़ार करने के बाद भी वे गोद में न खिला पाईं। और चंदा ने मन में सब्र कर लिया था, यही सोचकर कि कुल-देवता का अंश तो उसे जीवन-भर पूजने को मिल गया था। घर में चारों तरफ़ जैसे उदारता बिखरी रहती, अपनापा बरसता रहता। उसे लगता, जैसे घर की अँधेरी, एकांत कोठरियों में यह शांत शीतलता है जो उसे भरमा लेती है। घर की सब कुंडियों की खनक उसके कानों में बस गई थी, हर दरवाज़े की चरमराहट पहचान बन गई थीं।…
“एक रोज़ राजा आखेट को गए”, माँ सुनाती थीं, ''राजा आखेट को जाते थे, तो सातवें रोज़ ज़रूर महल में लौट आते थे। पर उस दफ़ा जब गए, तो सातवाँ दिन निकल गया, पर राजा नहीं लौटे। रानी को बड़ी चिंता हुई। रानी एक मंत्री को साथ लेकर खोज में निकलीं…”
और इसी बीच जगपती को रिश्तेदारी की एक शादी में जाना पड़ा। उसके दूर रिश्ते के भाई दयाराम की शादी थी। कह गया था कि दसवें दिन ज़रूर वापस आ जाएगा। पर छठे दिन ही ख़बर मिली कि बारात घर लौटने पर दयाराम के घर डाका पड़ गया। किसी मुख़बिर ने सारी ख़बरें पहुँचा दी थीं कि लड़कीवालों ने दयाराम का घर सोने-चाँदी से पाट दिया है…आख़िर पुश्तैनी ज़मींदार की इकलौती लड़की थी। घर आए मेहमान लगभग विदा हो चुके थे। दूसरे रोज़ जगपती भी चलनेवाला था, पर उसी रात डाका पड़ा। जवान आदमी, भला ख़ून मानता है! डाकेवालों ने जब बंदूक़ें चलाई, तो सबकी घिग्घी बंध गई पर जगपती और दयाराम ने छाती ठोककर लाठियाँ उठा लीं। घर में कोहराम मच गया।...फिर सन्नाटा छा गया। डाकेवाले बराबर गोलियाँ दाग़ रहे थे। बाहर का दरवाज़ा टूट चुका था। पर जगपती ने हिम्मत बढ़ाते हुए हाँक लगाई, ''ये हवाई बंदूक़ें इन ठेल-पिलाई लाठियों का मुक़ाबला नहीं कर पाएँगी, जवानो!”
पर दरवाज़े तड़-तड़ टूटते रहे, और अंत में एक गोली जगपती की जाँघ को पार करती निकल गई, दूसरी उसकी जाँघ के ऊपर कूल्हे में समा कर रह गई।
चंदा रोती-कलपती और मनौतियाँ मानती जब वहाँ पहुँची, तो जगपती अस्पताल में था। दयाराम के थोड़ी चोट आई थी। उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई थीं। जगपती की देखभाल के लिए वहीं अस्पताल में मरीज़ों के रिश्तेदारों के लिए जो कोठरियाँ बनीं थीं, उन्हीं में चंदा को रुकना पड़ा। क़स्बे के अस्पताल से दयाराम का गाँव चार कोस पड़ता था। दूसरे-तीसरे वहाँ से आदमी आते-जाते रहते, जिस सामान की ज़रूरत होती, पहुँचा जाते।
पर धीरे-धीरे उन लोगों ने भी ख़बर लेना छोड़ दिया। एक दिन में ठीक होनेवाला घाव तो था नहीं। जाँघ की हड्डी चटख गई थी और कूल्हे में ऑपरेशन से छः इंच गहरा घाव था।
क़स्बे का अस्पताल था। कंपाउंडर ही मरीज़ों की देखभाल रखते। बड़ा डॉक्टर तो नाम के लिए था या क़स्बे के बड़े आदमियों के लिए। छोटे लोगों के लिए तो कम्पोटर साहब ही ईश्वर के अवतार थे। मरीज़ों की देखभाल करने वाले रिश्तेदारों की खाने-पीने की मुश्किलों से लेकर मरीज़ की नब्ज़ तक संभालते थे। छोटी-सी इमारत में अस्पताल आबाद था। रोगियों को सिर्फ़ छः-सात खाटें थी। मरीज़ों के कमरे से लगा दवा बनाने का कमरा था, उसी में एक ओर एक आरामकुर्सी थी और एक नीची-सी मेज़। उसी कुर्सी पर बड़ा डॉक्टर आकर कभी-कभार बैठता था, नहीं तो बचनसिंह कंपाउंडर ही जमे रहते। अस्पताल में या तो फ़ौजदारी के शहीद आते या गिर-गिरा के हाथ-पैर तोड़ लेने वाले एक-आध लोग। छठे-छमासे कोई औरत दिख गई तो दीख गई, जैसे उन्हें कभी रोग घेरता ही नहीं था। कभी कोई बीमार पड़ती तो घरवाले हाल बता के आठ-दस रोज़ क़ी दवा एक साथ ले जाते और फिर उसके जीने-मरने की ख़बर तक न मिलती।
उस दिन बचनसिंह जगपती के घाव की पट्टी बदलने आया। उसके आने में और पट्टी खोलने में कुछ ऐसी लापरवाही थी, जैसे ग़लत बंधी पगड़ी को ठीक से बाँधने के लिए खोल रहा हो। चंदा उसकी कुर्सी के पास ही साँस रोके खड़ी थी। वह और रोगियों से बात करता जा रहा था। इधर मिनट-भर को देखता, फिर जैसे अभ्यस्त-से उसके हाथ अपना काम करने लगते। पट्टी एक जगह ख़ून से चिपक गई थी, जगपती बुरी तरह कराह उठा। चंदा के मुँह से चीख़ निकल गई। बचनसिंह ने सतर्क होकर देखा तो चंदा मुख में धोती का पल्ला खोंसे अपनी भयातुर आवाज़ दबाने की चेष्टा कर रही थी। जगपती एकबारगी मछली-सा तड़पकर रह गया। बचनसिंह की उँगलियाँ थोड़ी-सी थरथराई कि उसकी बाँह पर टप-से चंदा का आँसू चू पड़ा।
बचनसिंह सिहर-सा गया और उसके हाथों की अभ्यस्त निठुराई को जैसे किसी मानवीय कोमलता ने धीरे-से छू दिया। आहों, कराहों, दर्द-भरी चीख़ों और चटखते शरीर के जिस वातावरण में रहते हुए भी वह बिल्कुल अलग रहता था, फोड़ों को पके आम-सा दबा देता था, खाल को आलू-सा छील देता था...उसके मन से जिस दर्द का अहसास उठ गया था, वह उसे आज फिर हुआ और वह बच्चे की तरह फूँक-फूँककर पट्टी को नम करके खोलने लगा। चंदा की ओर धीरे-से निगाह उठाकर देखते हुए फुसफुसाया, “च्…च्...रोगी की हिम्मत टूट जाती है ऐसे।”
पर जैसे यह कहते-कहते उसका मन ख़ुद अपनी बात से उचंट गया। यह बेपरवाही तो चीख़ और कराहों की एकरसता से उसे मिली थी, रोगी की हिम्मत बढ़ाने की कर्तव्यनिष्ठा से नहीं। जब तक वह घाव की मरहम-पट्टी करता रहा, तब तक किन्हीं दो आँखों की करूणा उसे घेरे रही।
और हाथ धोते समय वह चंदा की उन चूड़ियों से भरी कलाइयों को बेझिझक देखता रहा, जो अपनी ख़ुशी उससे माँग रही थीं। चंदा पानी डालती जा रही थी और बचनसिंह हाथ धोते-धोते उसकी कलाइयों, हथेलियों और पैरों को देखता जा रहा था। दवाख़ाने की ओर जाते हुए उसने चंदा को हाथ के इशारे से बुलाकर कहा, “दिल छोटा मत करना जाँघ का घाव तो दस रोज़ में भर जाएगा, कूल्हे का घाव कुछ दिन ज़रूर लेगा। अच्छी से अच्छी दवाई दूँगा। दवाइयाँ तो ऐसी हैं कि मुर्दे को चंगा कर दें। पर हमारे अस्पताल में नहीं आतीं, फिर भी...”
“तो किसी दूसरे अस्पताल से नहीं आ सकतीं वो दवाइयाँ?” चंदा ने पूछा।
“आ तो सकती हैं, पर मरीज़ को अपना पैसा खरचना पड़ता है उनमें…” बचनसिंह ने कहा।
चंदा चुप रह गई तो बचनसिंह के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा, “किसी चीज़ क़ी ज़रूरत हो तो मुझे बताना। रही दवाइयाँ, सो कहीं न कहीं से इंतज़ाम करके ला दूँगा। महकमे से मँगाएँगे, तो आते-अवाते महीनों लग जाएँगे। शहर के डॉक्टर से मँगवा दूँगा। ताक़त की दवाइयों की बड़ी ज़रूरत है उन्हें। अच्छा, देखा जाएगा…” कहते-कहते वह रुक गया।
चंदा से कृतज्ञता भरी नज़रों से उसे देखा और उसे लगा जैसे आँधी में उड़ते पत्ते को कोई अटकाव मिल गया हो। आकर वह जगपती की खाट से लगकर बैठ गई। उसकी हथेली लेकर वह सहलाती रही। नाख़ूनों को अपने पोरों से दबाती रही।
धीरे-धीरे बाहर अँधेरा बढ़ चला। बचनसिंह तेल की एक लालटेन लाकर मरीज़ों के कमरे के एक कोने में रख गया। चंदा ने जगपती की कलाई दबाते-दबाते धीरे से कहा, “कंपाउंडर साहब कह रहे थे…” और इतना कहकर वह जगपती का ध्यान आकृष्ट करने के लिए चुप हो गई।
“क्या कह रहे थे?” जगपती ने अनमने स्वर में बोला।
“कुछ ताक़त की दवाइयाँ तुम्हारे लिए ज़रूरी हैं!”
“मैं जानता हूँ।”
“पर...”
“देखो चंदा, चादर के बराबर ही पैर फैलाए जा सकते हैं। हमारी औक़ात इन दवाइयों की नहीं है ।”
“औक़ात आदमी की देखी जाती है कि पैसे की, तुम तो...”
“देखा जाएगा।”
“कंपाउंडर साहब इंतज़ाम कर देंगे, उनसे कहूँगी मैं।”
“नहीं चंदा, उधारखाते से मेरा इलाज नहीं होगा…चाहे एक के चार दिन लग जाएँ।”
“इसमें तो…”
“तुम नहीं जानतीं, क़र्ज़ कोढ का रोग होता है, एक बार लगने से तन तो गलता ही है, मन भी रोगी हो जाता है।”
“लेकिन... ” कहते-कहते वह रुक गई।
जगपती अपनी बात की टेक रखने के लिए दूसरी ओर मुँह घुमाकर लेटा रहा।
और तीसरे रोज़ जगपती के सिरहाने कई ताक़त की दवाइयाँ रखी थीं, और चंदा की ठहरने वाली कोठरी में उसके लेटने के लिए एक खाट भी पहुँच गई थी। चंदा जब आई, तो जगपती के चेहरे पर मानसिक पीड़ा की असंख्य रेखाएँ उभरी थीं, जैसे वह अपनी बीमारी से लड़ने के अलावा स्वयं अपनी आत्मा से भी लड़ रहा हो। चंदा की नादानी और स्नेह से भी उलझ रहा हो और सबसे ऊपर सहायता करने वाले की दया से जूझ रहा हो।
चंदा ने देखा तो यह सब सह न पाई। उसके जी में आया कि कह दे, क्या आज तक तुमने कभी किसी से उधार पैसे नहीं लिए? पर वह तो ख़ुद तुमने लिए थे और तुम्हें मेरे सामने स्वीकार नहीं करना पड़ा था। इसीलिए लेते झिझक नहीं लगी, पर आज मेरे सामने उसे स्वीकार करते तुम्हारा झूठा पौरूष तिलमिलाकर जाग पड़ा है। पर जगपती के मुख पर बिखरी हुई पीड़ा में जिस आदर्श की गहराई थी, वह चंदा के मन में चोर की तरह घुस गई, और बड़ी स्वाभाविकता से उसने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ''ये दवाइयाँ किसी की मेहरबानी नहीं हैं। मैंने हाथ का कड़ा बेचने को दे दिया था, उसी में आई हैं।”
“मुझसे पूछा तक नहीं और... ” जगपती ने कहा और जैसे ख़ुद मन की कमज़ोरी को दबा गया—कड़ा बेचने से तो अच्छा था कि बचनसिंह की दया ही ओढ ली जाती। और उसे हल्का-सा पछतावा भी था कि नाहक वह रौ में बड़ी-बड़ी बातें कह जाता है, ज्ञानियों की तरह सीख दे देता है।
और जब चंदा अँधेरा होते उठकर अपनी कोठरी में सोने के लिए जाने को हुई, तो कहते-कहते यह बात दबा गई कि बचनसिंह ने उसके लिए एक खाट का इंतज़ाम भी कर दिया है। कमरे से निकली, तो सीधी कोठरी में गई और हाथ का कड़ा लेकर सीधे दवाख़ाने की ओर चली गई, जहाँ बचनसिंह अकेला डॉक्टर की कुर्सी पर आराम से टाँगें फैलाए लैम्प की पीली रौशनी में लेटा था। जगपती का व्यवहार चंदा को लग गया था, और यह भी कि वह क्यों बचनसिंह का अहसान अभी से लाद ले, पति के लिए ज़ेवर की कितनी औक़ात है। वह बेधड़क-सी दवाख़ाने में घुस गई। दिन की पहचान के कारण उसे कमरे की मेज़-कुर्सी और दवाओं की अलमारी की स्थिति का अनुमान था, वैसे कमरा अँधेरा ही पड़ा था, क्योंकि लैम्प की रौशनी केवल अपने वृत्त में अधिक प्रकाशवान होकर कोनों के अँधेरे को और भी घनीभूत कर रही थी। बचनसिंह ने चंदा को घुसते ही पहचान लिया। वह उठकर खड़ा हो गया। चंदा ने भीतर क़दम तो रख दिया पर सहसा सहम गई, जैसे वह किसी अँधेरे कुएँ में अपने-आप कूद पड़ी हो, ऐसा कुआँ, जो निरंतर पतला होता गया है और जिसमें पानी की गहराई पाताल की पर्तों तक चली गई हो, जिसमें पड़कर वह नीचे धँसती चली जा रही हो, नीचे...अँधेरा...एकांत घुटन...पाप!
बचनसिंह अवाक ताकता रह गया और चंदा ऐसे वापस लौट पड़ी, जैसे किसी काले पिशाच के पंजों से मुक्ति मिली हो। बचनसिंह के सामने क्षण-भर में सारी परिस्थिति कौंध गई और उसने वहीं से बहुत संयत आवाज़ में ज़बान को दबाते हुए जैसे वायु में स्पष्ट ध्वनित कर दिया—‘चंदा!’ वह आवाज़ इतनी बे-आवाज़ थी और निरर्थक होते हुए भी इतनी सार्थक थी कि उस ख़ामोशी में अर्थ भर गया।
चंदा रुक गई।
बचनसिंह उसके पास जाकर रुक गया।
सामने का घना पेड़ स्तब्ध खड़ा था, उसकी काली परछाई की परिधि जैसे एक बार फैलकर उन्हें अपने वृत्त में समेट लेती और दूसरे ही क्षण मुक्त कर देती। दवाख़ाने का लैम्प सहसा भभककर रुक गया और मरीज़ों के कमरे से एक कराह की आवाज़ दूर मैदान के छो तक जाकर डूब गई।
चंदा ने वैसे ही नीचे ताकते हुए अपने को संयत करते हुए कहा, “यह कड़ा तुम्हें देने आई थी।
''तो वापस क्यों चली जा रही थीं?”
चंदा चुप। और दो क्षण रुककर उसने अपने हाथ का सोने का कड़ा धीरे-से उसकी ओर बढ़ा दिया, जैसे देने का साहस न होते हुए भी यह काम आवश्यक था।
बचनसिंह ने उसकी सारी काया को एक बार देखते हुए अपनी आँखें उसके सिर पर जमा दीं, उसके ऊपर पड़े कपड़े के पार नरम चिकनाई से भरे लंबे-लंबे बाल थे, जिनकी भाप-सी महक फैलती जा रही थी। वह धीरे-धीरे से बोला, “लाओ।”
चंदा ने कड़ा उसकी ओर बढ़ा दिया। कड़ा हाथ में लेकर वह बोला, “सुनो।”
चंदा ने प्रश्न-भरी नज़रें उसकी ओर उठा दीं।
उनमें झाँकते हुए, अपने हाथ से उसकी कलाई पकड़ते हुए उसने वह कड़ा उसकी कलाई में पहना दिया।
चंदा चुपचाप कोठरी की ओर चल दी और बचनसिंह दवाख़ाने की ओर।
कालिख बुरी तरह बढ़ गई थी और सामने खड़े पेड़ की काली परछाई गहरी पड़ गई थी। दोनों लौट गए थे। पर जैसे उस कालिख में कुछ रह गया था, छूट गया था। दवाख़ाने का लैम्प जो जलते-जलते एक बार भभका था, उसमें तेल न रह जाने के कारण बत्ती की लौ बीच से फट गई थी, उसके ऊपर धुएँ की लकीरें बल खाती, साँप की तरह अँधेरे में विलीन हो जाती थीं।
सुबह जब चंदा जगपती के पास पहुँची और बिस्तर ठीक करने लगी तो जगपती को लगा कि चंदा बहुत उदास थी। क्षण-क्षण में चंदा के मुख पर अनगिनत भाव आ-जा रहे थे, जिनमें असमंजस था, पीड़ा थी और निरीहता थी। कोई अदृश्य पाप कर चुकने के बाद हृदय की गहराई से किए गए पश्चाताप जैसी धूमिल चमक!...
“रानी मंत्री के साथ जब निराश होकर लौटीं, तो देखा, राजा महल में उपस्थित थे। उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा।” माँ सुनाया करती थीं, “पर राजा को रानी का इस तरह मंत्री के साथ जाना अच्छा नहीं लगा। रानी ने राजा को समझाया कि वह तो केवल राजा के प्रति अटूट प्रेम के कारण अपने को न रोक सकी। राजा-रानी एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। दोनों के दिलो में एक बात शूल-सी गड़ती रहती कि उनके कोई संतान न थी…राजवंश का दीपक बुझने जा रहा था। संतान के अभाव में उनका लोक-परलोक बिगड़ा जा रहा था और कुल की मर्यादा नष्ट होने की शंका बढ़ती जा रही थी।…”
दूसरे दिन बचनसिंह ने मरीज़ों की मरहम-पट्टी करते वक़्त बताया था कि उसका तबादला मैनपुरी के सदर अस्पताल में हो गया है और वह परसों यहाँ से चला जाएगा। जगपती ने सुना, तो उसे भला ही लगा।…आए दिन रोग घेरे रहते हैं, बचनसिंह उसके शहर के अस्पताल में पहुँचा जा रहा है, तो कुछ मदद मिलती ही रहेगी। आख़िर वह ठीक तो होगा ही और फिर मैनपुरी के सिवा कहाँ जाएगा? पर दूसरे ही क्षण उसका दिल अकथ भारीपन से भर गया। पता नहीं क्यों, चंदा के अस्तित्व का ध्यान आते ही उसे इस सूचना में कुछ ऐसे नुकीले काँटे दिखाई देने लगे, जो उसके शरीर में किसी भी समय चुभ सकते थे, ज़रा-सा बेख़बर होने पर बींध सकते थे। और तब उसके सामने आदमी के अधिकार की लक्ष्मण-रेखाएँ धुएँ की लकीर की तरह काँपकर मिटने लगीं और मन में छुपे संदेह के राक्षस बाना बदल योगी के रूप में घूमने लगे।
और पंद्रह-बीस रोज़ बाद जब जगपती की हालत सुधर गई, तो चंदा उसे लेकर घर लौट आई। जगपती चलने-फिरने लायक़ हो गया था। घर का ताला जब खोला, तब रात झुक आई थी। और फिर उनकी गली में तो शाम से ही अँधेरा झरना शुरू हो जाता था। पर गली में आते ही उन्हें लगा, जैसे कि वनवास काटकर राजधानी लौटे हों। नुक्कड़ पर ही जमुना सुनार की कोठरी में सुरही फिंक रही थी, जिसके दराज़दार दरवाज़ों से लालटेन की रौशनी की लकीर झाँक रही थी और कच्ची तंबाकू का धुआँ रूँधी गली के मुहाने पर बुरी तरह भर गया था। सामने ही मुंशीजी अपनी जिंगला खटिया के गड्ढे में, कुप्पी के मद्धिम प्रकाश में ख़सरा-खतौनी बिछाए मीज़ान लगाने में मशग़ूल थे। जब जगपती के घर का दरवाज़ा खड़का, तो अँधेरे में उसकी चाची ने अपने जंगले से देखा और वहीं से बैठे-बैठे अपने घर के भीतर ऐलान कर दिया—“राजा निरबंसिया अस्पताल से लौट आए...कुलमा भी आई हैं!”
ये शब्द सुनकर घर के अँधेरे बरोठे में घुसते ही जगपती हाँफ़कर बैठ गया, झुँझलाकर चंदा से बोला, “अँधेरे में क्या मेरे हाथ-पैर तुड़वाओगी? भीतर जाकर लालटेन जला लाओ न।”
“तेल नहीं होगा, इस वक़्त ज़रा ऐसे ही काम...”
“तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा…न तेल न... ” कहते-कहते जगपती एकदम चुप रह गया। चंदा को लगा कि आज पहली बार जगपती ने उसके व्यर्थ मातृत्व पर इतनी गहरी चोट कर दी, जिसकी गहराई की उसने कभी कल्पना नहीं की थी। दोनों ख़ामोश, बिना एक बात किए अंदर चले गए।
रात के बढ़ते सन्नाटे में दोनों के सामने दो बातें थीं…
जगपती के कानों में जैसे कोई व्यंग्य से कह रहा था—राजा निरबंसिया अस्पताल से आ गए!
और चंदा के दिल में यह बात चुभ रही थी—तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा…
और सिसकती-सिसकती चंदा न जाने कब सो गई। पर जगपती की आँखों में नींद न आई। खाट पर पड़े-पड़े उसके चारों ओर एक मोहक, भयावना-सा जाल फैल गया। लेटे-लेटे उसे लगा, जैसे उसका स्वयं का आकार बहुत क्षीण होता-होता बिंदु-सा रह गया, पर बिंदु के हाथ थे, पैर थे और दिल की धड़कन भी। कोठरी का घुटा-घुटा-सा अँधियारा, मटमैली दीवारें और गहन गुफ़ाओं-सी अलमारियाँ, जिनमें से बार-बार झाँककर देखता था...और वह सिहए उठता था...फिर जैसे सब कुछ तब्दील हो गया हो।...उसे लगा कि उसका आकार बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है। वह मनुष्य हुआ, लंबा-तगड़ा-तंदुरुस्त पुरुष हुआ, उसकी शिराओं में कुछ फूट पड़ने के लिए व्याकुलता से खौल उठा। उसके हाथ शरीर के अनुपात से बहुत बड़े, डरावने और भयानक हो गए, उनके लंबे-लंबे नाख़ून निकल आए...वह राक्षस हुआ, दैत्य हुआ...आदिम, बर्बर!
और बड़ी तेज़ी से सारा कमरा एकबारगी चक्कर काट गया…। फिर सब धीरे-धीरे स्थिर होने लगा और उसकी साँसें ठीक होती जान पड़ीं। फिर जैसे बहुत कोशिश करने पर घिग्घी बंध जाने के बाद उसकी आवाज़ फूटी, “चंदा!”
चंदा की नर्म साँसों की हल्की सरसराहट कमरे में जान डालने लगी। जगपती अपनी पाटी का सहारा लेकर झुका। काँपते पैर उसने ज़मीन पर रखे और चंदा की खाट के पाए से सिर टिकाकर बैठ गया। उसे लगा, जैसे चंदा की इन साँसों की आवाज़ में जीवन का संगीत गूँज रहा है। वह उठा और चंदा के मुख पर झुक गया।...उस अँधेरे में आँखें गड़ाए-गड़ाए जैसे बहुत देर बाद स्वयं चंदा के मुख पर आभा फूटकर अपने-आप बिखरने लगी…उसके नक़्श उज्ज्वल हो उठे और जगपती की आँखों को ज्योति मिल गई। वह मुग्ध-सा ताकता रहा।
चंदा के बिखरे बाल, जिनमें हाल के जन्मे बच्चे के गभुआरे बालों की-सी महक...दूध की कचाइंध...शरीर के रस की-सी मिठास और स्नेह-सी चिकनाहट और वह माथा जिस पर बालों के पास तमाम छोटे-छोटे, नर्म-नर्म-नर्म-से रोएँ...रेशम से...और उसपर कभी लगाई गई सेंदूर की बिंदी का हल्का मिटा हुआ सा आभास…नन्हें-नन्हें निर्द्वंर्द्व सोए पलक! और उनकी मासूम-सी काँटों की तरह बरौनियाँ और साँस में घुलकर आती हुई वह आत्मा की निष्कपट आवाज़ की लय फूल की पँखुरी-से पतले-पतले ओंठ, उन पर पड़ी अछूती रेखाएँ, जिनमें सिर्फ़ दूध सी महक!
उसकी आँखों के सामने ममता-सी छा गई, केवल ममता, और उसके मुख से अस्फुट शब्द निकल गया, “बच्ची!”
डरते-डरते उसके बालों की एक लट को बड़े जतन से उसने हथेली पर रखा और उँगली से उस पर जैसे लकीरें खींचने लगा। उसे लगा, जैसे कोई शिशु उसके अंक में आने के लिए छटपटाकर, निराश होकर सो गया हो। उसने दोनों हथेलियों को पसारकर उसके सिर को अपनी सीमा में भर लेना चाहा कि कोई कठोर चीज़ उसकी उँगलियों से टकराई।
वह जैसे होश में आया।
बड़े सहारे से उसने चंदा के सिर के नीचे टटोला। एक रूमाल में बंधा कुछ उसके हाथ में आ गया। अपने को संयत करता वह वहीं ज़मीन पर बैठ गया, उसी अँधेरे में उस रूमाल को खोला, तो जैसे साँप सूँघ गया, चंदा के हाथों के दोनों सोने के कड़े उसमें लिपटे थे!
और तब उसके सामने सब सृष्टि धीरे-धीरे टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरने लगी। ये कड़े तो चंदा बेचकर उसका इलाज कर रही थी। वे सब दवाइयाँ और ताक़त के टॉनिक...उसने तो कहा था, ये दवाइयाँ किसी की मेहरबानी नहीं हैं, मैंने हाथ के कड़े बेचने को दे दिए थे...पर...उसका गला बुरी तरह सूख गया। ज़बान जैसे तालु से चिपककर रह गई। उसने चाहा कि चंदा को झकाझोरकर उठाए, पर शरीर की शक्ति बह-सी गई थी, रक्त पानी हो गया था।
थोड़ा संयत हुआ, उसने वे कड़े उसी रूमाल में लपेटकर उसकी खाट के कोने पर रख दिए और बड़ी मुश्किल से अपनी खाट की पाटी पकड़कर लुढ़क गया।
चंदा झूठ बोली! पर क्यों? कड़े आज तक छुपाए रही। उसने इतना बड़ा दुराव क्यों किया? आख़िर क्यों? किसलिए? और जगपती का दिल भारी हो गया। उसे फिर लगा कि उसका शरीर सिमटता जा रहा है और वह एक सींक का बना ढाँचा रह गया...नितांत हल्का, तिनके-सा, हवा में उड़कर भटकने वाले तिनके-सा।
उस रात के बाद रोज़ जगपती सोचता रहा कि चंदा से कड़े माँगकर बेच ले और कोई छोटा-मोटा कारोबार ही शुरू कर दे, क्योंकि नौकरी छूट चुकी थी। इतने दिन की ग़ैरहाज़िरी के बाद वकील साहब ने दूसरा मुहर्रिर रख लिया था। वह रोज़ यही सोचता पर जब चंदा सामने आती, तो न जाने कैसी असहाय-सी उसकी अवस्था हो जाती। उसे लगता, जैसे कड़े माँगकर वह चंदा से पत्नीत्व का पद भी छीन लेगा। मातृत्व तो भगवान ने छीन ही लिया...वह सोचता आख़िर चंदा क्या रह जाएगी? एक स्त्री से यदि पत्नीत्व और मातृत्व छीन लिया गया, तो उसके जीवन की सार्थकता ही क्या? चंदा के साथ वह यह अन्याय कैसे करे? उससे दूसरी आँख की रौशनी कैसे माँग ले? फिर तो वह नितांत अंधी हो जाएगी और उन कड़ों को माँगने के पीछे जिस इतिहास की आत्मा नंगी हो जाएगी, कैसे वह उस लज्जा को स्वयं ही उघारकर ढाँपेगा?
और वह उन्हीं ख़यालों में डूबा सुबह से शाम तक इधर-उधर काम की टोह में घूमता रहता। किसी से उधार ले ले? पर किस संपत्ति पर? क्या है उसके पास, जिसके आधार पर कोई उसे कुछ देगा? और मुहल्ले के लोग...जो एक-एक पाई पर जान देते हैं, कोई चीज़ ख़रीदते वक़्त भाव में एक पैसा कम मिलने पर मीलों पैदल जाकर एक पैसा बचाते हैं, एक-एक पैसे की मसाले की पुड़िया बँधवाकर ग्यारह मर्तबा पैसों का हिसाब जोड़कर एकाध पैसा उधारकर, मिन्नतें करते सौदा घर लाते हैं। गली में कोई खोंचेवाला फँस गया, तो दो पैसे की चीज़ को लड़-झगड़कर—चार दाने ज़्यादा पाने की नीयत से—दो जगह बँधवाते हैं। भाव के ज़रा-से फ़र्क़ पर घंटों बहस करते हैं, शाम को सड़ी-गली तरकारियों को किफ़ायत के कारण लाते हैं, ऐसे लोगों से किस मुँह से माँगकर वह उनकी ग़रीबी के अहसास पर ठोकर लगाए!
पर उस दिन शाम को जब वह घर पहुँचा, तो बरोठे में ही एक साइकिल रखी नज़र आई। दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने के बाद भी वह आगंतुक की कल्पना न कर पाया। भीतरवाले दरवाज़े पर जब पहुँचा, तो सहसा हँसी की आवाज़ सुनकर ठिठक गया। उस हँसी में एक अजीब-सा उन्माद था। और उसके बाद चंदा का स्वर—
“अब आते ही होंगे, बैठिए न दो मिनट और!...अपनी आँख से देख लीजिए और उन्हें समझाते जाइए कि अभी तंदरुस्ती इस लायक़ नहीं, जो दिन-दिन-भर घूमना बर्दाश्त कर सकें।”
“हाँ…भई, कमज़ोरी इतनी जल्दी नहीं मिट सकती, ख़याल नहीं करेंगे तो नुक़सान उठाएँगे!” कोई पुरुष-स्वर था यह।
जगपती असमंजस में पड़ गया। वह एकदम भीतर घुस जाए? इसमें क्या हर्ज है? पर जब उसने पैर उठाए, तो वे बाहर जा रहे थे। बाहर बरोठे में साइकिल को पकड़ते ही उसे सूझ आई, वहीं से जैसे अनजान बनता बड़े प्रयत्न से आवाज़ क़ो खोलता चिल्लाया, “अरे चंदा! यह साइकिल किसकी है? कौन मेहरबान...”
चंदा उसकी आवाज़ सुनकर कमरे से बाहर निकलकर जैसे ख़ुश-ख़बरी सुना रही थी, “अपने कंपाउंडर साहब आए हैं। खोजते-खोजते आज घर का पता पाए हैं, तुम्हारे इंतज़ार में बैठे हैं!”
“कौन बचनसिंह?...अच्छा, अच्छा…वही तो मैं कहूँ, भला कौन...” कहता जगपती पास पहुँचा, और बातों में इस तरह उलझ गया, जैसे सारी परिस्थिति उसने स्वीकार कर ली हो।
बचनसिंह जब फिर आने की बात कहकर चला गया, तो चंदा ने बहुत अपनेपन से जगपती के सामने बात शुरू की, “जाने कैसे-कैसे आदमी होते हैं...”
“क्यों, क्या हुआ? कैसे होते हैं आदमी?” जगपती ने पूछा।
“इतनी छोटी जान-पहचान में तुम मर्दों के घर में न रहते घुसकर बैठ सकते हो? तुम तो उल्टे पैरों लौट आओगे।” चंदा कहकर जगपती के मुख पर कुछ इच्छित प्रतिक्रिया देख सकने के लिए गहरी निगाहों से ताकने लगी।
जगपती ने चंदा की ओर ऐसे देखा, जैसे यह बात भी कहने की या पूछने की है! फिर बोला, “बचनसिंह अपनी तरह का आदमी है, अपनी तरह का अकेला...”
“होगा...पर...” कहते-कहते चंदा रुक गई।
“आड़े वक़्त काम आने वाला आदमी है, लेकिन उससे फ़ायदा उठा सकना जितना आसान है...उतना...मेरा मतलब है कि जिससे कुछ लिया जाएगा, उसे दिया भी जाएगा।” जगपती ने आँखें दीवार पर गड़ाते हुए कहा।
और चंदा उठकर चली गई।
उस दिन के बाद बचनसिंह लगभग रोज़ ही आने-जाने लगा। जगपती उसके साथ इधर-उधर घूमता भी रहता। बचनसिंह के साथ वह जब तक रहता, अजीब-सी घुटन उसके दिल को बाँध लेती, और तभी जीवन की तमाम विषमताएँ भी उसकी निगाहों के सामने उभरने लगतीं, आख़िर वह स्वयं एक आदमी है, बेकार...यह माना कि उसके सामने पेट पालने की कोई इतनी विकराल समस्या नहीं, वह भूखों नहीं मर रहा है, जाड़े में काँप नहीं रहा है, पर उसके दो हाथ-पैर हैं…शरीर का पिंजरा है, जो कुछ माँगता है, कुछ! और वह सोचता, यह कुछ क्या है? सुख? शायद हाँ, शायद नहीं। वह तो दुःख में भी जी सकने का आदी है, अभावों में जीवित रह सकने वाला आश्चर्यजनक कीड़ा है। तो फिर वासना? शायद हाँ, शायद नहीं। चंदा का शरीर लेकर उसने उस क्षणिकता को भी देखा है। तो फिर धन...शायद हाँ, शायद नहीं। उसने धन के लिए अपने को खपाया है।
पर वह भी तो उस अदृश्य प्यास को बुझा नहीं पाया। तो फिर?...तो फिर क्या?...वह कुछ क्या है, जो उसकी आत्मा में नासूर-सा रिसता रहता है, अपना उपचार माँगता है? शायद काम! हाँ, यही, बिल्कुल यही, जो उसके जीवन की घड़ियों को निपट सूना न छोड़े, जिसमें वह अपनी शक्ति लगा सके, अपना मन डुबो सके, अपने को सार्थक अनुभव कर सके, चाहे उसमें सुख हो या दुःख, अरक्षा हो या सुरक्षा, शोषण हो या पोषण...उसे सिर्फ़ काम चाहिए! करने के लिए कुछ चाहिए। यही तो उसकी प्रकृत आवश्यकता है, पहली और आख़िरी माँग है, क्योंकि वह उस घर में नहीं पैदा हुआ, जहाँ सिर्फ़ ज़बान हिलाकर शासन करने वाले होते हैं। वह उस घर में भी नहीं पैदा हुआ, जहाँ सिर्फ़ माँगकर जीने वाले होते हैं। वह उस घर का है, जो सिर्फ़ काम करना जानता है, काम ही जिसकी आस है। सिर्फ़ वह काम चाहता है, काम।
और एक दिन उसकी काम-धाम की समस्या भी हल हो गई। तालाब वाले ऊँचे मैदान के दक्षिण ओर जगपती की लकड़ी की टाल खुल गई। बोर्ड तक टंग गया। टाल की ज़मीन पर लक्ष्मी-पूजन भी हो गया और हवन भी हुआ। लकड़ी की कोई कमी नहीं थी। गाँव से आने वाली गाड़ियों को, इस कारोबार में पैरे हुए आदमियों की मदद से मोल-तोल करवा के वहाँ गिरवा दिया गया। गाँठें एक ओर रखी गईं, चैलों का चट्टा क़रीने से लग गया और गुद्दे चीरने के लिए डाल दिए गए। दो-तीन गाड़ियों का सौदा करके टाल चालू कर दी गई। भविष्य में स्वयं पेड़ ख़रीदकर कटाने का तय किया गया। बड़ी-बड़ी स्कीमें बनीं कि किस तरह जलाने की लकड़ी से बढ़ाते-बढ़ाते एक दिन इमारती लकड़ी की कोठी बनेगी। चीरने की नई मशीन लगेगी। कारोबार बढ़ जाने पर बचनसिंह भी नौकरी छोड़कर उसी में लग जाएगा, और उसने महसूस किया कि वह काम में लग गया है, अब चौबीसों घंटे उसके सामने काम है...उसके समय का उपयोग है। दिन-भर में वह एक घंटे के लिए किसी का मित्र हो सकता है, कुछ देर के लिए वह पति हो सकता है, पर बाक़ी समय? दिन और रात के बाक़ी घंटे...उन घंटों के अभाव को सिर्फ़ उसका अपना काम ही भर सकता है...और अब वह कामदार था...
वह कामदार तो था, लेकिन जब टाल की उस ऊँची ज़मीन पर पड़े छप्पर के नीचे तख़्त पर वह गल्ला रखकर बैठता, सामने लगे लकड़ियों के ढेर, कटे हुए पेड़ के तने, जड़ों को लुढ़का हुआ देखता, तो एक निरीहता बरबस उसके दिल को बाँधने लगती। उसे लगता, एक व्यर्थ पिशाच का शरीर टुकड़े-टुकड़े करके उसके सामने डाल दिया गया है।...फिर इन पर कुल्हाड़ी चलेगी और इनके रेशे-रेशे अलग हो जाएँगे और तब इनकी ठठरियों को सुखाकर किसी पैसेवाले के हाथ तक पर तौलकर बेच दिया जाएगा।
और तब उसकी निगाहें सामने खड़े ताड़ पर अटक जातीं, जिसके बड़े-बड़े पत्तों पर सुर्ख़ गर्दनवाले गिद्ध पर फड़फड़ाकर देर तक ख़ामोश बैठे रहते। ताड़ का काला गड़रेदार तना...और उसके सामने ठहरी हुई वायु में निस्सहाय काँपती, भारहीन नीम की पत्तियाँ चकराती झड़ती रहतीं...धूल-भरी धरती पर लकड़ी की गाड़ियों के पहियों की पड़ी हुई लीक धुँधली-सी चमक उठती और बग़लवाले मूँगफल्ली के पेंच की एकरस खरखराती आवाज़ कानों में भरने लगती। बग़लवाली कच्ची पगडंडी से कोई गुज़रकर, टीले के ढलान से तालाब की निचाई में उतर जाता, जिसके गंदले पानी में कूड़ा तैरता रहता और सूअर कीचड़ में मुँह डालकर उस कूड़े को रौंदते रहते...
दुपहर सिमटती और शाम की धुँध छाने लगती, तो वह लालटेन जलाकर छप्पर के खंभे की कील में टाँग देता और उसके थोड़ी ही देर बाद अस्पताल वाली सड़क से बचनसिंह एक काले धब्बे की तरह आता दिखाई पड़ता।
गहरे पड़ते अँधेरे में उसका आकार धीरे-धीरे बढ़ता जाता और जगपती के सामने जब वह आकर खड़ा होता, तो वह उसे बहुत विशाल-सा लगने लगता, जिसके सामने उसे अपना अस्तित्व डूबता महसूस होता।
एक-आध बिक्री की बातें होतीं और तब दोनों घर की ओर चल देते। घर पहुँचकर बचनसिंह कुछ देर ज़रूर रुकता, बैठता, इधर-उधर की बातें करता। कभी मौक़ा पड़ जाता, तो जगपती और बचनसिंह की थाली भी साथ लग जाती। चंदा सामने बैठकर दोनों को खिलाती।
बचनसिंह बोलता जाता, “क्या तरकारी बनी है। मसाला ऐसा पड़ा है कि उसकी भी बहार है और तरकारी का स्वाद भी न मरा। होटलों में या तो मसाला ही मसाला रहेगा या सिर्फ़ तरकारी ही तरकारी। वाह! वाह! क्या बात है अंदाज़ की”
और चंदा बीच-बीच में टोककर बोलती जाती, “इन्हें तो जब तक दाल में प्याज़ का भुना घी न मिले, तब तक पेट ही नहीं भरता।”
या—“सिरका अगर इन्हें मिल जाए, तो समझो, सब कुछ मिल गया। पहले मुझे सिरका न जाने कैसा लगता था, पर अब ऐसा ज़बान पर चढ़ा है कि…”
या—“इन्हें काग़ज़-सी पतली रोटी पसंद ही नहीं आती। अब मुझसे कोई पतली रोटी बनाने को कहे, तो बनती ही नहीं, आदत पड़ गई है, और फिर मन ही नहीं करता…”
पर चंदा की आँखें बचनसिंह की थाली पर ही जमीं रहतीं। रोटी निबटी, तो रोटी परोस दी, दाल ख़त्म नहीं हुई, तो भी एक चमचा और परोस दी।
और जगपती सिर झुकाए खाता रहता। सिर्फ़ एक गिलास पानी माँगता और चंदा चौंककर पानी देने से पहले कहती, “अरे तुमने तो कुछ लिया भी नहीं!” कहते-कहते वह पानी दे देती और तब उसके दिल पर गहरी-सी चोट लगती, न जाने क्यों वह ख़ामोशी की चोट उसे बड़ी पीड़ा दे जाती…पर वह अपने को समझा लेती, कोई मेहमान तो नहीं हैं…माँग सकते थे। भूख नहीं होगी।
जगपती खाना खाकर टाल पर लेटने चला जाता, क्योंकि अभी तक कोई चौकीदार नहीं मिला था। छप्पर के नीचे तख़्त पर जब वह लेटता, तो अनायास ही उसका दिल भर-भर आता। पता नहीं कौन-कौन-से दर्द एक-दूसरे से मिलकर तरह-तरह की टीस, चटखन और ऐंठन पैदा करने लगते। कोई एक रग दुखती तो वह सहलाता भी, जब सभी नसें चटखती हों तो कहाँ-कहाँ राहत का अकेला हाथ सहलाए!
लेटे-लेटे उसकी निगाह ताड़ के उस ओर बनी पुख़्ता क़ब्र पर जम जाती, जिसके सिराहने कंटीला बबूल का एकाकी पेड़ सुन्न-सा खड़ा रहता। जिस क़ब्र पर एक पर्दानशीन औरत बड़े लिहाज़ से आकर सवेरे-सवेरे बेला और चमेली के फूल चढ़ा जाती…घूम-घूमकर उसके फेरे लेती और माथा टेककर कुछ क़दम उदास-उदास-सी चलकर एकदम तेज़ी से मुड़कर बिसातियों के मुहल्ले में खो जाती। शाम होते फिर आती। एक दीया बारती और अगर की बत्तियाँ जलाती। फिर मुड़ते हुए ओढ़नी का पल्ला कंधों पर डालती, तो दीए की लौ काँपती, कभी काँपकर बुझ जाती, पर उसके क़दम बढ़ चुके होते, पहले धीमे, थके, उदास-से और फिर तेज़ सधे सामान्य-से। और वह फिर उसी मुहल्ले में खो जाती और तब रात की तनहाइयों में...बबूल के काँटों के बीच, उस साँय-साँय करते ऊँचे-नीचे मैदान में जैसे उस क़ब्र से कोई रूह निकलकर निपट अकेली भटकती रहती।...
तभी ताड़ पर बैठे सुर्ख़ गर्दनवाले गिद्ध मनहूस-सी आवाज़ में किलबिला उठते और ताड़ के पत्ते भयानकता से खड़बड़ा उठते। जगपती का बदन काँप जाता और वह भटकती रूह ज़िंदा रह सकने के लिए जैसे क़ब्र की ईंटों में, बबूल के साया-तले दुबक जाती। जगपती अपनी टाँगों को पेट से भींचकर, कंबल से मुँह छुपा औंधा लेट जाता।
तड़के ही ठेके पर लगे लकड़हारे लकड़ी चीरने आ जाते। तब जगपती कंबल लपेट, घर की ओर चला जाता…
“राजा रोज़ सबेरे टहलने जाते थे,” माँ सुनाया करती थीं, “एक दिन जैसे ही महल के बाहर निकलकर आए कि सड़क पर झाड़ू लगाने वाली मेहतरानी उन्हें देखते ही अपना झाडूपंजा पटककर माथा पीटने लगी और कहने लगी, “हाय राम! आज राजा निरबंसिया का मुँह देखा है, न जाने रोटी भी नसीब होगी कि नहीं…न जाने कौन-सी बिपत टूट पड़े!” राजा को इतना दुःख हुआ कि उल्टे पैरों महल को लौट गए। मंत्री को हुक्म दिया कि उस मेहतरानी का घर नाज़ से भर दें। और सब राजसी वस्त्र उतार, राजा उसी क्षण जंगल की ओर चले गए। उसी रात रानी को सपना हुआ कि कल की रात तेरी मनोकामना पूरी होने वाली है। रानी बहुत पछता रही थी। पर फ़ौरन ही रानी राजा को खोजती-खोजती उस सराय में पहुँच गई, जहाँ वह टिके हुए थे। रानी भेस बदलकर सेवा करने वाली भटियारिन बनकर राजा के पास रात में पहुँची। रातभर उनके साथ रही और सुबह राजा के जगने से पहले सराय छोड़ महल में लौट गई। राजा सुबह उठकर दूसरे देश की ओर चले गए। दो ही दिनों में राजा के निकल जाने की ख़बर राज-भर में फैल गई, राजा निकल गए, चारों तरफ़ यही ख़बर थी...”
और उस दिन टोले-मुहल्ले के हर आँगन में बरसात के मेह की तरह यह ख़बर बरसकर फैल गई कि चंदा के बाल-बच्चा होने वाला है।
नुक्कड़ पर जमुना सुनार की कोठरी में फिंकती सुरही रुक गई। मुंशीजी ने अपना मीज़ान लगाना छोड़ विस्फारित नेत्रों से ताककर ख़बर सुनी। बंसी किरानेवाले ने कुएँ में से आधी गईं रस्सी खींच, डोल मन पर पटककर सुना। सुदर्शन दर्जी ने मशीन के पहिए को हथेली से रगड़कर रोककर सुना। और हंसराज पंजाबी ने अपनी नील-लगी मलगुजी क़मीज़ की आस्तीनें चढ़ाते हुए सुना। और जगपती की बेवा चाची ने औरतों के जमघट में बड़े विश्वास, पर भेद-भरे स्वर में सुनाया—“आज छः साल हो गए शादी को न बाल, न बच्चा, न जाने किसका पाप है उसके पेट में।…और किसका होगा सिवा उस मुसटंडे कंपोटर के! न जाने कहाँ से कुलच्छनी इस मुहल्ले में आ गई!...इस गली की तो पुश्तों से ऐसी मरजाद रही है कि ग़ैर, मरद औरत की परछाईं तब नहीं देख पाए। यहाँ के मरद तो बस अपने घर की औरतों को जानते हैं, उन्हें तो पड़ोसी के घर की ज़नानियों की गिनती तक नहीं मालूम।” यह कहते-कहते उनका चेहरा तमतमा आया और सब औरतें देवलोक की देवियाँ की तरह गंभीर बनीं, अपनी पवित्रता की महानता के बोझ से दबी धीरे-धीरे खिसक गईं।
सुबह यह ख़बर फैलने से पहले जगपती टाल पर चला गया था। पर सुनी उसने भी आज ही थी। दिन-भर वह तख़्त पर कोने की ओर मुँह किए पड़ा रहा। न ठेके की लकड़ियाँ चिरवाईं, न बिक्री की ओर ध्यान दिया, न दुपहर का खाना खाने ही घर गया। जब रात अच्छी तरह फैल गई, वह हिंसक पशु की भाँति उठा। उसने अपनी अँगुलियाँ चटकाईं, मुठ्ठी बाँधकर बाँह का ज़ोर देखा, तो नसें तनीं और बाह में कठोर कंपन-सा हुआ। उसने तीन-चार पूरी साँसें खींचीं और मज़बूत क़दमों से घर की ओर चल पड़ा। मैदान ख़त्म हुआ, कंकड़ की सड़क आई...सड़क ख़त्म हुई, गली आई। पर गली के अँधेरे में घुसते वह सहम गया, जैसे किसी ने अदृश्य हाथों से उसे पकड़कर सारा रक्त निचोड़ लिया, उसकी फटी हुई शक्ति की नस पर हिम-शीतल होंठ रखकर सारा रस चूस लिया। और गली के अँधेरे की हिकारत-भरी कालिख और भी भारी हो गई, जिसमें घुसने से उसकी साँस रुक जाएगी...घुट जाएगी।
वह पीछे मुड़ा, पर रुक गया। फिर कुछ संयत होकर वह चोरों की तरह निःशब्द क़दमों से किसी तरह घर की भीतरी देहरी तक पहुँच गया।
दाईं ओर की रसोईवाली दहलीज़ में कुप्पी टिमटिमा रही थीं और चंदा अस्त-व्यस्त-सी दीवार से सिर टेके शायद आसमान निहारते-निहारते सो गई थी। कुप्पी का प्रकाश उसके आधे चेहरे को उजागर किए था और आधा चेहरा गहन कालिमा में डूबा अदृश्य था।
वह ख़ामोशी से खड़ा ताकता रहा। चंदा के चेहरे पर नारीत्व की प्रौढ़ता आज उसे दिखाई दी। चेहरे की सारी कमनीयता न जाने कहाँ खो गई थी, उसका अछूतापन न जाने कहाँ लुप्त हो गया था। फूला-फूला मुख। जैसे टहनी से तोड़े फूल को पानी में डालकर ताज़ा किया गया हो, जिसकी पंखुरियों में टूटन की सुरमई रेखाएँ पड़ गई हों, पर भीगने से भारीपन आ गया हो।
उसके खुले पैर पर उसकी निगाह पड़ी, तो सूजा-सा लगा। एड़ियाँ भरी, सूजी-सी और नाख़ूनों के पास अजब-सा सूखापन। जगपती का दिल एक बार मसोस उठा। उसने चाहा कि बढ़कर उसे उठा ले। अपने हाथों से उसका पूरा शरीर छू-छूकर सारा कलुष पोंछ दे, उसे अपनी साँसों की अग्नि में तपाकर एक बार फिर पवित्र कर ले, और उसकी आँखों की गहराई में झाँककर कहे—देवलोक से किस शापवश निर्वासित हो तुम इधर आ गईं, चंदा? यह शाप तो अमिट था।
तभी चंदा ने हड़बड़ाकर आँखें खोलीं। जगपती को सामने देख उसे लगा कि वह एकदम नंगी हो गई हो। अतिशय लज्जित हो उसने अपने पैर समेट लिए। घुटनों से धोती नीचे सरकाई और बहुत संयत-सी उठकर रसोई के अँधेरे में खो गई।
जगपती एकदम हताश हो, वहीं कमरे की देहरी पर चौखट से सिर टिका बैठ गया। नज़र कमरे में गई तो लगा कि पराए स्वर यहाँ गूँज रहे हैं, जिनमें चंदा का भी एक है। एक तरफ़ घर के हर कोने से, अँधेरा सैलाब की तरह बढ़ता आ रहा था...एक अजीब निस्तब्धता...असमंजस! गति, पर पथभ्रष्ट! शक्लें, पर आकारहीन।
“खाना खा लेते,” चंदा का स्वर कानों में पड़ा। वह अनजाने ऐसे उठ बैठा, जैसे तैयार बैठा हो। उसकी बात की आज तक उसने अवज्ञा न की थी। खाने तो बैठ गया, पर कौर नीचे नहीं सरक रहा था। तभी चंदा ने बड़े सधे शब्दों में कहा, “कल मैं गाँव जाना चाहती हूँ।”
जैसे वह इस सूचना से परिचित था, बोला, “अच्छा।”
चंदा फिर बोली, “मैंने बहुत पहले घर चिठ्ठी डाल दी थी, भैया कल लेने आ रहे हैं।”
“तो ठीक है।” जगपती वैसे ही डूबा-डूबा बोला।
चंदा का बाँध टूट गया और वह वहीं घुटनों में मुँह दबाकर कातर-सी फफक-फफककर रो पड़ी। न उठ सकी, न हिल सकी।
जगपती क्षण-भर को विचलित हुआ, पर जैसे जम जाने के लिए। उसके होंठ फड़के और क्रोध के ज्वालामुखी को जबरन दबाते हुए भी वह फूट पड़ा, “यह सब मुझे क्या दिखा रही है? बेशर्म! बेग़ैरत!...उस वक़्त नहीं सोचा था, जब…जब…मेरी लाश तले…”
“तब…तब की बात झूठ है।”, सिसकियों के बीच चंदा का स्वर फूटा, “लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया...”
एक भरपूर हाथ चंदा की कनपटी पर आग सुलगाता पड़ा। और जगपती अपनी हथेली दूसरी से दबाता, खाना छोड़कर कोठरी में घुस गया और रात-भर कुंडी चढ़ाए उसी कालिख में घुटता रहा।
दूसरे दिन चंदा घर छोड़कर अपने गाँव चली गई।
जगपती पूरा दिन और रात टाल पर ही काट देता, उसी बीराने में, तालाब के बग़ल, क़ब्र, बबूल और ताड़ के पड़ोस में। पर मन मुर्दा हो गया था। ज़बरदस्ती वह अपने को वहीं रोके रहता।...उसका दिल होता, कहीं निकल जाए। पर ऐसी कमज़ोरी उसके तन और मन को खोखला कर गई थी कि चाहने पर भी वह जा न पाता। हिकारत-भरी नज़रें सहता, पर वहीं पड़ा रहता। काफ़ी दिनों बाद जब नहीं रह गया, तो एक दिन जगपती घर पर ताला लगा, नज़दीक के गाँव में लकड़ी कटाने चला गया। उसे लग रहा था कि अब वह पंगु हो गया है, बिलकुल लँगड़ा, एक रेंगता कीड़ा, जिसके न आँख है, न कान, न मन, न इच्छा।
वह उस बाग़ में पहुँच गया, जहाँ ख़रीदे पेड़ कटने थे। दो आरेवालों ने पतले पेड़ के तने पर आरा रखा और कर्र-कर्र का अबाध शोर शुरू हो गया। दूसरे पेड़ पर बन्ने और शकूरे की कुल्हाड़ी बज उठी। और गाँव से दूर उस बाग़ में एक लयपूर्ण शोर शुरू हो गया। जड़ पर कुल्हाड़ी पड़ती तो पूरा पेड़ थर्रा जाता।
क़रीब के खेत की मेढ पर बैठे जगपती का शरीर भी जैसे काँप-काँप उठता। चंदा ने कहा था, “लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया…” क्या वह ठीक कहती थी! क्या बचनसिंह ने टाल के लिए जो रुपए दिए थे, उसका ब्याज़ इधर चुकता हुआ? क्या सिर्फ़ वही रुपए आग बन गए, जिसकी आँच में उसकी सहनशीलता, विश्वास और आदर्श मोम-से पिघल गए?
“शकूरे!” बाग़ से लगे दड़े पर से किसी ने आवाज़ लगाई। शकूरे ने कुल्हाड़ी रोककर वहीं से हाँक लगाई, “कोने के खेत से लीक बनी है, ज़रा मेड़ मारकर नंघा ला गाड़ी।”
जगपती का ध्यान भंग हुआ। उसने मुड़कर दड़े पर आँखें गड़ाईं। दो भैंसा गाड़ियाँ लकड़ी भरने के लिए आ पहुँची थीं। शकूरे ने जगपती के पास आकर कहा, “एक गाड़ी का भुर्त तो हो गया, बल्कि डेढ़ का…अब इस पतरिया पेड़ को न छाँट दें?”
जगपती ने उस पेड़ की ओर देखा, जिसे काटने के लिए शकूरे ने इशारा किया था। पेड़ की शाख़ हरी पत्तियों से भरी थी। वह बोला, “अरे, यह तो हरा है अभी इसे छोड़ दो।”
“हरा होने से क्या, उखट तो गया है। न फूल का, न फल का। अब कौन इसमें फल-फूल आएँगे, चार दिन में पत्ती झुरा जाएँगी।” शकूरे ने पेड़ की ओर देखते हुए उस्तादी अंदाज़ से कहा।
“जैसा ठीक समझो तुम,” जगपती ने कहा, और उठकर मेड़-मेड़ पक्के कुएँ पर पानी पीने चला गया।
दुपहर ढलते गाड़ियाँ भरकर तैयार हुईं और शहर की ओर रवाना हो गईं। जगपती को उनके साथ आना पड़ा। गाड़ियाँ लकड़ी से लदीं शहर की ओर चली जा रही थीं और जगपती गर्दन झुकाए कच्ची सड़क की धूल में डूबा, भारी क़दमों से धीरे-धीरे उन्हीं की बजती घंटियों के साथ निर्जीव-सा बढ़ता जा रहा था...
“कई बरस बाद राजा परदेस से बहुत-सा धन कमाकर गाड़ी में लादकर अपने देश की ओर लौटे,” माँ सुनाया करती थीं, “राजा की गाड़ी का पहिया महल से कुछ दूर पतेल की झाड़ी में उलझ गया। हर तरह कोशिश की, पर पहिया न निकला। तब एक पंडित ने बताया कि सकट के दिन का जनमा बालक अगर अपने घर की सुपारी लाकर इसमें छुआ दे, तो पहिया निकल जाएगा। वहीं दो बालक खेल रहे थे। उन्होंने यह सुना तो कूदकर पहुँचे और कहने लगे कि हमारी पैदाइश सकट की है, पर सुपारी तब लाएँगे, जब तुम आधा धन देने का वादा करो। राजा ने बात मान ली। बालक दौड़े-दौड़े घर गए। सुपारी लाकर छुआ दी, फिर घर का रास्ता बताते आगे-आगे चले। आख़िर गाड़ी महल के सामने उन्होंने रोक ली।
“राजा को बड़ा अचरज हुआ कि हमारे ही महल में ये बालक कहाँ से आ गए? भीतर पहुँचे, तो रानी ख़ुशी से बेहाल हो गई।
“पर राजा ने पहले उन बालकों के बारे में पूछा, तो रानी ने कहा कि ये दोनों बालक उन्हीं के राजकुमार हैं। राजा को विश्वास नहीं हुआ। रानी बहुत दुखी हुई।”
गाड़ियाँ जब टाल पर आकर लगीं और जगपती तख़्त पर हाथ-पैर ढीले करके बैठ गया, तो पगडंडी से गुज़रते मुंशीजी ने उसके पास आकर बताया, “अभी उस दिन वसूली में तुम्हारी ससुराल के नज़दीक एक गाँव में जाना हुआ, तो पता लगा कि पंद्रह-बीस दिन हुए, चंदा के लड़का हुआ है।” और फिर जैसे मुहल्ले में सुनी-सुनाई बातों पर पर्दा डालते हुए बोले, “भगवान के राज में देर है, अँधेर नहीं, जगपती भैया!”
जगपती ने सुना तो पहले उसने गहरी नज़रों से मुंशीजी को ताका, पर वह उनके तीर का निशाना ठीक-ठीक नहीं खोज पाया। पर सब-कुछ सहन करते हुए बोला, “देर और अँधेर दोनों हैं!”
“अँधेर तो सरासर है…तिरिया चरित्तर है सब! बड़े-बड़े हार गए…” कहते-कहते मुंशीजी रुक गए, पर कुछ इस तरह, जैसे कोई बड़ी भेद-भरी बात है, जिसे उनकी गोल होती हुई आँखें समझा देंगी।
जगपती मुंशीजी की तरफ़ ताकता रह गया। मिनट-भर मनहूस-सा मौन छाया रहा, उसे तोड़ते हुए मुंशीजी बड़ी दर्द-भरी आवाज़ में बोले, “सुन तो लिया होगा, तुमने?”
“क्या?” कहने को जगपती कह गया, पर उसे लगा कि अभी मुंशीजी उस गाँव में फैली बातों को ही बड़ी बेदर्दी से कह डालेंगे, उसने नाहक़ पूछा।
तभी मुंशीजी ने उसकी नाक के पास मुँह ले जाते हुए कहा, “चंदा दूसरे के घर बैठ रही है…कोई मदसूदन है वहीं का। पर बच्चा दीवार बन गया है, चाहते तो वो यही हैं कि मर जाए, तो रास्ता खुले, पर रामजी की मरजी...सुना है, बच्चा रहते भी वह चंदा को बैठाने को तैयार है।”
जगपती की साँस गले में अटककर रह गई। बस, आँखें मुंशीजी के चेहरे पर पथराई-सी जड़ी थीं।
मुंशीजी बोले, “अदालत से बच्चा तुम्हें मिल सकता है।…अब काहे का शरम-लिहाज!”
“अपना कहकर किस मुँह से माँगूँ, बाबा? हर तरफ़ तो कर्ज से दबा हूँ, तन से, मन से, पैसे से, इज़्ज़त से, किसके बल पर दुनिया संजोने की कोशिश करूँ?” कहते-कहते वह अपने में खो गया।
मुंशीजी वहीं बैठ गए। जब रात झुक आई तो जगपती के साथ ही मुंशीजी भी उठे। उसके कंधे पर हाथ रखे वे उसे गली तक लाए। अपनी कोठरी आने पर पीठ सहलाकर उन्होंने उसे छोड़ दिया। वह गर्दन झुकाए गली के अँधेरे में उन्हीं ख़यालों में डूबा ऐसे चलता चला आया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। पर कुछ ऐसा बोझ था, जो न सोचने देता था और न समझने। जब चाची की बैठक के पास से गुज़रने लगा, तो सहसा उसके कानों में भनक पड़ी—“आ गए सत्यानासी! कुलबोरन!”
उसने ज़रा नज़र उठाकर देखा, तो गली की चाची-भौजाइयाँ बैठक में जमा थीं और चंदा की चर्चा छिड़ी थी। पर वह चुपचाप निकल गया।
इतने दिनों बाद ताला खोला और बरोठे के अँधेरे में कुछ सूझ न पड़ा, तो एकाएक वह रात उसकी आँखों के सामने घूम गई, जब वह अस्पताल से चंदा के साथ लौटा था। बेवा चाची का वह ज़हरबुझा तीर, ‘राजा निरबंसिया अस्पताल से लौट आए।’ और आज सत्यानासी! कुलबोरन! और स्वयं उसका वह वाक्य, जो चंदा को छेद गया था, ‘तुम्हारे कभी कुछ न होगा…!’ और उस रात की शिशु चंदा!
चंदा का लड़का हुआ है।…वह कुछ और जनती, आदमी का बच्चा न जनती! ...वह और कुछ भी जनती, कंकड़-पत्थर! वह नारी न बनती, बच्ची ही बनी रहती, उस रात की शिशु चंदा। पर चंदा यह सब क्या करने जा रही है? उसके जीते-जी वह दूसरे के घर बैठने जा रही है? कितने बड़े पाप में धकेल दिया चंदा को…पर उसे भी तो कुछ सोचना चाहिए! आख़िर क्या? पर मेरे जीते-जी तो यह सब अच्छा नहीं। वह इतनी घृणा बर्दाश्त करके भी जीने को तैयार है! या मुझे जलाने को? वह मुझे नीच समझती है, कायर…नहीं तो एक बार ख़बर तो लेती। बच्चा हुआ, तो पता लगता। पर नहीं, वह उसका कौन है? कोई भी नहीं! औलाद ही तो वह स्नेह की धुरी है, जो आदमी-औरत के पहियों को साधकर तन के दलदल से पार ले जाती है…नहीं तो हर औरत वेश्या है और हर आदमी वासना का कीड़ा। तो क्या चंदा औरत नहीं रही? वह ज़रूर औरत थी, पर स्वयं मैंने उसे नरक में डाल दिया। वह बच्चा मेरा कोई नहीं, पर चंदा तो मेरी है। एक बार उसे ले आता फिर यहाँ…रात के मोहक अँधेरे में उसके फूल-से अधरों को देखता…निर्द्वंद्व सोई पलकों को निहारता...साँसों की दूध-सी अछूती महक को समेट लेता...
आज का अँधेरा! घर में तेल भी नहीं जो दीया जला ले। और फिर किसके लिए कौन जलाए? चंदा के लिए...पर उसे तो बेच दिया था। सिवा चंदा के कौन-सी सम्पत्ति उसके पास थी, जिसके आधार पर कोई क़र्ज़ देता? क़र्ज़ न मिलता तो यह सब कैसे चलता? काम...पेड़ कहाँ से कटते? और तब शकूरे के वे शब्द उसके कानों में गूँज गए, ‘हरा होने से क्या, उखट तो गया है…’ वह स्वयं भी तो एक उखटा हुआ पेड़ है, न फल का, न फूल का, सब व्यर्थ ही तो है। जो कुछ सोचा, उस पर कभी विश्वास न कर पाया। चंदा को चाहता रहा, पर उसके दिल में चाहत न जगा पाया। उसे कहीं से एक पैसा माँगने पर डाँटता रहा, पर ख़ुद लेता रहा और आज…वह दूसरे के घर बैठ रही है…उसे छोड़कर…वह अकेला है…हर तरफ़ बोझ है, जिसमें उसकी नस-नस कुचली जा रही हैं, रग-रग फट गई है।…और वह किसी तरह टटोल-टटोलकर भीतर घर में पहुँचा…
“रानी अपने कुल-देवता के मंदिर में पहुँचीं,” माँ सुनाया करती थीं, “अपने सतीत्व को सिद्ध करने के लिए उन्होंने घोर तपस्या की। राजा देखते रहे! कुल-देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी दैवी शक्ति से दोनों बालकों को तत्काल जन्मे शिशुओं में बदल दिया। रानी की छातियों में दूध भर आया और उनमें से धार फूट पड़ी, जो शिशुओं के मुँह में गिरने लगी। राजा को रानी के सतीत्व का सबूत मिल गया। उन्होंने रानी के चरण पकड़ लिए और कहा कि तुम देवी हो! ये मेरे पुत्र हैं! और उस दिन से राजा ने फिर से राज-काज संभाल लिया।”
पर उसी रात जगपती अपना सारा कारोबार त्याग, अफ़ीम और तेल पीकर मर गया क्योंकि चंदा के पास कोई दैवी शक्ति नहीं थी और जगपती राजा नहीं, बचनसिंह कंपाउंडर का क़र्ज़दार था।…
“राजा ने दो बातें कीं,” माँ सुनाती थीं, “एक तो रानी के नाम से उन्होंने बहुत बड़ा मंदिर बनवाया और दूसरे, राज के नए सिक्कों पर बड़े राजकुमार का नाम खुदवाकर चालू किया, जिससे राज-भर में अपने उत्तराधिकारी की ख़बर हो जाए…”
जगपती ने मरते वक़्त दो परचे छोड़े, एक चंदा के नाम, दूसरा क़ानून के नाम।
चंदा को उसने लिखा था—“चंदा, मेरी अंतिम चाह यही है कि तुम बच्चे को लेकर चली आना…अभी एक-दो दिन मेरी लाश की दुर्गति होगी, तब तक तुम आ सकोगी। चंदा आदमी को पाप नहीं, पश्चाताप मारता है, मैं बहुत पहले मर चुका था। बच्चे को लेकर ज़रूर चली आना।”
क़ानून को उसने लिखा था—“किसी ने मुझे मारा नहीं है, किसी आदमी ने नहीं। मैं जानता हूँ कि मेरे ज़हर की पहचान करने के लिए मेरा सीना चीरा जाएगा। उसमें ज़हर है। मैंने अफ़ीम नहीं, रुपए खाए हैं। उन रुपयों में क़र्ज़ का ज़हर था, उसी ने मुझे मारा है। मेरी लाश तब तक न जलाई जाए, जब तक चंदा बच्चे को लेकर न आ जाए। आग बच्चे से दिलवाई जाए। बस।”
माँ जब कहानी समाप्त करती थीं, तो आसपास बैठे बच्चे फूल चढ़ाते थे। मेरी कहानी भी ख़त्म हो गई, पर...
ek raja nirbansiya the”—man kahani sunaya karti theen. unke asapas hi chaar paanch bachche apni muththiyon mein phool dabaye kahani samapt hone par gauron par chaDhane ke liye utsuk se baith jate the. aate ka sundar sa chauk pura hota, usi chauk par mitti ki chhः ghauren rakhi jatin, jinmen se uuparvali ke bindiya aur sindur lagta, baqi panchon niche dabi puja grhan karti rahtin. ek or dipak ki bati sthir si jalti rahti aur mangal ghat rakha rahta, jis par roli se sathiya banaya jata. sabhi baithe bachchon ke mukh par phool chaDhane ki utavli ki jagah kahani sunne ki sahj sthirta ubhar aati.
“ek raja nirbansiya the”, maan sunaya karti theen, “unke raaj mein baDi khushhali thi. sab varan ke log apna apna kaam kaaj dekhte the. koi dukhi nahin dikhai paDta tha. raja ke ek lakshmi si rani thi, chandrma si sundar. . . aur raja ko bahut pyari. raja raaj kaaj dekhte aur sukh se rani ke mahl mein rahte. . . ”
mere samne mere khayalon ka raja tha, raja jagapti! tab jagapti se meri dantkati dosti thi, donon miDil skool mein paDhne jate. donon ek se ghar ke the, isliye barabari ki nibhti thi. main maitrik paas karke ek skool mein naukar ho gaya aur jagapti qasbe ke hi vakil ke yahan muharrir. jis saal jagapti muharrir hua, usi varsh paas ke gaanv mein uski shadi hui, par aisi hui ki logon ne tamasha bana dena chaha. laDkivalon ka kuch vishvas tha ki shadi ke baad laDki ki vida nahin hogi. byaah ho jayega aur satvin bhanvar tab paDegi, jab pahli vida ki sayat hogi aur tabhi laDki apni sasural jayegi. jagapti ki patni thoDi bahut paDhi likhi thi, par ghar ki leek ko kaun mete! barat bina bahu ke vapas aa gai aur laDkevalon ne tay kar liya ki ab jagapti ki shadi kahin aur kar di jayegi, chahen kani luli se ho, par wo laDki ab ghar mein nahin ayegi. lekin saal khatm hote hote sab theek thaak ho gaya. laDkivalon ne mafi maang li aur jagapti ki patni apni sasural aa gai.
jagapti ko jaise sab kuch mil gaya aur saas ne bahu ki balaiyan lekar ghar ki sab chabiyan saump deen, grihasthi ka Dhang baar samjha diya. jagapti ki maan na jane kab se aas lagaye baithin theen. unhonne aram ki saans li. puja paath mein samay katne laga, dupahariyan dusre gharon ke angan mein bitne lagin. par saans ka rog tha unhen, so ek din unhonne apni antim ghaDiyan ginte hue chanda ko paas bulakar samjhaya tha—“beta, jagapti baDe laaD pyaar ka pala hai. jab se tumhare sasur nahin rahe, tab se iske chhote chhote hath ko pura karti rahi hun…ab tum dhyaan rakhna. ” phir rukkar unhonne kaha tha, “jagapti kisi layaq hua hai, to rishtedaron ki ankhon mein karakne laga hai. tumhare baap ne byaah ke vaqt nadani ki, jo tumhein vida nahin kiya. mere dushman devar jethon ko mauqa mil gaya. tumar khaDa kar diya ki ab vida karvana naak katvana hai. … jagapti ka byaah kya hua, un logon ki chhati par saanp lot gaya. socha, ghar ki izzat rakhne ki aaD lekar rang mein bhang kar den. …ab beta, is ghar ki laaj tumhari laaj hai. … aaj ko tumhare sasur hote, to bhala. . . ” kahte kahte maan ki ankhon mein ansu aa ge, aur ve jagapti ki dekhbhal use saumpkar sada ke liye maun ho gai theen.
ek arman unke saath hi chala gaya ki jagapti ki santan ko, chaar baras intzaar karne ke baad bhi ve god mein na khila pain. aur chanda ne man mein sabr kar liya tha, yahi sochkar ki kul devta ka ansh to use jivan bhar pujne ko mil gaya tha. ghar mein charon taraf jaise udarta bikhri rahti, apnapa barasta rahta. use lagta, jaise ghar ki andheri, ekaant kothariyon mein ye shaant shitalta hai jo use bharma leti hai. ghar ki sab kunDiyon ki khanak uske kanon mein bas gai thi, har darvaze ki charamrahat pahchan ban gai theen. …
“ek roz raja akhet ko ge”, maan sunati theen, raja akhet ko jate the, to satven roz zarur mahl mein laut aate the. par us dafa jab ge, to satvan din nikal gaya, par raja nahin laute. rani ko baDi chinta hui. rani ek mantri ko saath lekar khoj mein niklin…”
aur isi beech jagapti ko rishtedari ki ek shadi mein jana paDa. uske door rishte ke bhai dayaram ki shadi thi. kah gaya tha ki dasven din zarur vapas aa jayega. par chhathe din hi khabar mili ki barat ghar lautne par dayaram ke ghar Daka paD gaya. kisi mukhbir ne sari khabren pahuncha di theen ki laDkivalon ne dayaram ka ghar sone chandi se paat diya hai…akhir pushtaini zamindar ki iklauti laDki thi. ghar aaye mehman lagbhag vida ho chuke the. dusre roz jagapti bhi chalnevala tha, par usi raat Daka paDa. javan adami, bhala khoon manata hai! Dakevalon ne jab banduqen chalai, to sabki ghigghi bandh gai par jagapti aur dayaram ne chhati thokkar lathiyan utha leen. ghar mein kohram mach gaya. . . . phir sannata chha gaya. Dakevale barabar goliyan daagh rahe the. bahar ka darvaza toot chuka tha. par jagapti ne himmat baDhate hue haank lagai, ye havai banduqen in thel pilai lathiyon ka muqabala nahin kar payengi, javano!”
par darvaze taD taD tutte rahe, aur ant mein ek goli jagapti ki jaangh ko paar karti nikal gai, dusri uski jaangh ke uupar kulhe mein sama kar rah gai.
chanda roti kalapti aur manautiyan manti jab vahan pahunchi, to jagapti aspatal mein tha. dayaram ke thoDi chot aai thi. use aspatal se chhutti mil gai theen. jagapti ki dekhbhal ke liye vahin aspatal mein marizon ke rishtedaron ke liye jo kothriyan banin theen, unhin mein chanda ko rukna paDa. qasbe ke aspatal se dayaram ka gaanv chaar kos paDta tha. dusre tisre vahan se adami aate jate rahte, jis saman ki zarurat hoti, pahuncha jate.
par dhire dhire un logon ne bhi khabar lena chhoD diya. ek din mein theek honevala ghaav to tha nahin. jaangh ki haDDi chatakh gai thi aur kulhe mein aupreshan se chhः inch gahra ghaav tha.
qasbe ka aspatal tha. kampaunDar hi marizon ki dekhbhal rakhte. baDa Dauktar to naam ke liye tha ya qasbe ke baDe adamiyon ke liye. chhote logon ke liye to kampotar sahab hi iishvar ke avtar the. marizon ki dekhbhal karne vale rishtedaron ki khane pine ki mushkilon se lekar mariz ki nabz tak sambhalte the. chhoti si imarat mein aspatal abad tha. rogiyon ko sirf chhः saat khaten thi. marizon ke kamre se laga dava banane ka kamra tha, usi mein ek or ek aramakursi thi aur ek nichi si mez. usi kursi par baDa Dauktar aakar kabhi kabhar baithta tha, nahin to bachansinh kampaunDar hi jame rahte. aspatal mein ya to faujadari ke shahid aate ya gir gira ke haath pair toD lene vale ek aadh log. chhathe chhamase koi aurat dikh gai to deekh gai, jaise unhen kabhi rog gherta hi nahin tha. kabhi koi bimar paDti to gharvale haal bata ke aath das roz qi dava ek saath le jate aur phir uske jine marne ki khabar tak na milti.
us din bachansinh jagapti ke ghaav ki patti badalne aaya. uske aane mein aur patti kholne mein kuch aisi laparvahi thi, jaise ghalat bandhi pagDi ko theek se bandhne ke liye khol raha ho. chanda uski kursi ke paas hi saans roke khaDi thi. wo aur rogiyon se baat karta ja raha tha. idhar minat bhar ko dekhta, phir jaise abhyast se uske haath apna kaam karne lagte. patti ek jagah khoon se chipak gai thi, jagapti buri tarah karah utha. chanda ke munh se cheekh nikal gai. bachansinh ne satark hokar dekha to chanda mukh mein dhoti ka palla khonse apni bhayatur avaz dabane ki cheshta kar rahi thi. jagapti ekbargi machhli sa taDapkar rah gaya. bachansinh ki ungliyan thoDi si thartharai ki uski baanh par tap se chanda ka ansu chu paDa.
bachansinh sihar sa gaya aur uske hathon ki abhyast nithurai ko jaise kisi manaviy komalta ne dhire se chhu diya. ahon, karahon, dard bhari chikhon aur chatakhte sharir ke jis vatavran mein rahte hue bhi wo bilkul alag rahta tha, phoDon ko pake aam sa daba deta tha, khaal ko aalu sa chheel deta tha. . . uske man se jis dard ka ahsas uth gaya tha, wo use aaj phir hua aur wo bachche ki tarah phoonk phunkakar patti ko nam karke kholne laga. chanda ki or dhire se nigah uthakar dekhte hue phusaphusaya, “a…a. . . rogi ki himmat toot jati hai aise. ”
par jaise ye kahte kahte uska man khud apni baat se uchant gaya. ye beparvahi to cheekh aur karahon ki ekrasta se use mili thi, rogi ki himmat baDhane ki kartavynishtha se nahin. jab tak wo ghaav ki marham patti karta raha, tab tak kinhin do ankhon ki karuna use ghere rahi.
aur haath dhote samay wo chanda ki un chuDiyon se bhari kalaiyon ko bejhijhak dekhta raha, jo apni khushi usse maang rahi theen. chanda pani Dalti ja rahi thi aur bachansinh haath dhote dhote uski kalaiyon, hatheliyon aur pairon ko dekhta ja raha tha. davakhane ki or jate hue usne chanda ko haath ke ishare se bulakar kaha, “dil chhota mat karna jaangh ka ghaav to das roz mein bhar jayega, kulhe ka ghaav kuch din zarur lega. achchhi se achchhi davai dunga. davaiyan to aisi hain ki murde ko changa kar den. par hamare aspatal mein nahin atin, phir bhi. . . ”
“to kisi dusre aspatal se nahin aa saktin wo davaiyan?” chanda ne puchha.
“a to sakti hain, par mariz ko apna paisa kharachna paDta hai unmen…” bachansinh ne kaha.
chanda chup rah gai to bachansinh ke munh se anayas hi nikal paDa, “kisi cheez qi zarurat ho to mujhe batana. rahi davaiyan, so kahin na kahin se intzaam karke la dunga. mahkame se mangayenge, to aate avate mahinon lag jayenge. shahr ke Dauktar se mangva dunga. taqat ki davaiyon ki baDi zarurat hai unhen. achchha, dekha jayega…” kahte kahte wo ruk gaya.
chanda se kritagyta bhari nazron se use dekha aur use laga jaise andhi mein uDte patte ko koi atkav mil gaya ho. aakar wo jagapti ki khaat se lagkar baith gai. uski hatheli lekar wo sahlati rahi. nakhunon ko apne poron se dabati rahi.
dhire dhire bahar andhera baDh chala. bachansinh tel ki ek lalten lakar marizon ke kamre ke ek kone mein rakh gaya. chanda ne jagapti ki kalai dabate dabate dhire se kaha, “kampaunDar sahab kah rahe the…” aur itna kahkar wo jagapti ka dhyaan akrisht karne ke liye chup ho gai.
“kya kah rahe the?” jagapti ne anamne svar mein bola.
“kuchh taqat ki davaiyan tumhare liye zaruri hain!”
“main janta hoon. ”
“par. . . ”
“dekho chanda, chadar ke barabar hi pair phailaye ja sakte hain. hamari auqat in davaiyon ki nahin hai. ”
“auqat adami ki dekhi jati hai ki paise ki, tum to. . . ”
“dekha jayega. ”
“kampaunDar sahab intzaam kar denge, unse kahungi main. ”
“nahin chanda, udharkhate se mera ilaaj nahin hoga…chahe ek ke chaar din lag jayen. ”
“ismen to…”
“tum nahin jantin, qarz koDh ka rog hota hai, ek baar lagne se tan to galta hi hai, man bhi rogi ho jata hai. ”
“lekin. . . ” kahte kahte wo ruk gai.
jagapti apni baat ki tek rakhne ke liye dusri or munh ghumakar leta raha.
aur tisre roz jagapti ke sirhane kai taqat ki davaiyan rakhi theen, aur chanda ki thaharne vali kothari mein uske letne ke liye ek khaat bhi pahunch gai thi. chanda jab aai, to jagapti ke chehre par manasik piDa ki asankhya rekhayen ubhri theen, jaise wo apni bimari se laDne ke alava svayan apni aatma se bhi laD raha ho. chanda ki nadani aur sneh se bhi ulajh raha ho aur sabse uupar sahayata karne vale ki daya se joojh raha ho.
chanda ne dekha to ye sab sah na pai. uske ji mein aaya ki kah de, kya aaj tak tumne kabhi kisi se udhaar paise nahin liye? par wo to khud tumne liye the aur tumhein mere samne svikar nahin karna paDa tha. isiliye lete jhijhak nahin lagi, par aaj mere samne use svikar karte tumhara jhutha paurush tilamilakar jaag paDa hai. par jagapti ke mukh par bikhri hui piDa mein jis adarsh ki gahrai thi, wo chanda ke man mein chor ki tarah ghus gai, aur baDi svabhavikta se usne mathe par haath pherte hue kaha, ye davaiyan kisi ki mehrbani nahin hain. mainne haath ka kaDa bechne ko de diya tha, usi mein aai hain. ”
“mujhse puchha tak nahin aur. . . ” jagapti ne kaha aur jaise khud man ki kamzori ko daba gaya—kaDa bechne se to achchha tha ki bachansinh ki daya hi oDh li jati. aur use halka sa pachhtava bhi tha ki nahak wo rau mein baDi baDi baten kah jata hai, gyaniyon ki tarah seekh de deta hai.
aur jab chanda andhera hote uthkar apni kothari mein sone ke liye jane ko hui, to kahte kahte ye baat daba gai ki bachansinh ne uske liye ek khaat ka intzaam bhi kar diya hai. kamre se nikli, to sidhi kothari mein gai aur haath ka kaDa lekar sidhe davakhane ki or chali gai, jahan bachansinh akela Dauktar ki kursi par aram se tangen phailaye laimp ki pili raushani mein leta tha. jagapti ka vyvahar chanda ko lag gaya tha, aur ye bhi ki wo kyon bachansinh ka ahsan abhi se laad le, pati ke liye zevar ki kitni auqat hai. wo bedhaDak si davakhane mein ghus gai. din ki pahchan ke karan use kamre ki mez kursi aur davaon ki almari ki sthiti ka anuman tha, vaise kamra andhera hi paDa tha, kyonki laimp ki raushani keval apne vritt mein adhik prakashvan hokar konon ke andhere ko aur bhi ghanibhut kar rahi thi. bachansinh ne chanda ko ghuste hi pahchan liya. wo uthkar khaDa ho gaya. chanda ne bhitar qadam to rakh diya par sahsa saham gai, jaise wo kisi andhere kuen mein apne aap kood paDi ho, aisa kuan, jo nirantar patla hota gaya hai aur jismen pani ki gahrai patal ki parton tak chali gai ho, jismen paDkar wo niche dhansti chali ja rahi ho, niche. . . andhera. . . ekaant ghutan. . . paap!
bachansinh avak takta rah gaya aur chanda aise vapas laut paDi, jaise kisi kale pishach ke panjon se mukti mili ho. bachansinh ke samne kshan bhar mein sari paristhiti kaundh gai aur usne vahin se bahut sanyat avaz mein zaban ko dabate hue jaise vayu mein aspasht dhvanit kar diya—‘chanda!’ wo avaz itni be avaz thi aur nirarthak hote hue bhi itni sarthak thi ki us khamoshi mein arth bhar gaya.
chanda ruk gai.
bachansinh uske paas jakar ruk gaya.
samne ka ghana peD stabdh khaDa tha, uski kali parchhai ki paridhi jaise ek baar phailkar unhen apne vritt mein samet leti aur dusre hi kshan mukt kar deti. davakhane ka laimp sahsa bhabhakkar ruk gaya aur marizon ke kamre se ek karah ki avaz door maidan ke chho tak jakar Doob gai.
chanda ne vaise hi niche takte hue apne ko sanyat karte hue kaha, “yah kaDa tumhein dene aai thi.
to vapas kyon chali ja rahi theen?”
chanda chup. aur do kshan rukkar usne apne haath ka sone ka kaDa dhire se uski or baDha diya, jaise dene ka sahas na hote hue bhi ye kaam avashyak tha.
bachansinh ne uski sari kaya ko ek baar dekhte hue apni ankhen uske sir par jama deen, uske uupar paDe kapDe ke paar naram chiknai se bhare lambe lambe baal the, jinki bhaap si mahak phailti ja rahi thi. wo dhire dhire se bola, “lao. ”
chanda ne kaDa uski or baDha diya. kaDa haath mein lekar wo bola, “suno. ”
chanda ne parashn bhari nazren uski or utha deen.
unmen jhankte hue, apne haath se uski kalai pakaDte hue usne wo kaDa uski kalai mein pahna diya.
chanda chupchap kothari ki or chal di aur bachansinh davakhane ki or.
kalikh buri tarah baDh gai thi aur samne khaDe peD ki kali parchhai gahri paD gai thi. donon laut ge the. par jaise us kalikh mein kuch rah gaya tha, chhoot gaya tha. davakhane ka laimp jo jalte jalte ek baar bhabhka tha, usmen tel na rah jane ke karan batti ki lau beech se phat gai thi, uske uupar dhuen ki lakiren bal khati, saanp ki tarah andhere mein vilin ho jati theen.
subah jab chanda jagapti ke paas pahunchi aur bistar theek karne lagi to jagapti ko laga ki chanda bahut udaas thi. kshan kshan mein chanda ke mukh par anaginat bhaav aa ja rahe the, jinmen asmanjas tha, piDa thi aur nirihata thi. koi adrishya paap kar chukne ke baad hriday ki gahrai se kiye ge pashchatap jaisi dhumil chamak!. . .
“rani mantri ke saath jab nirash hokar lautin, to dekha, raja mahl mein upasthit the. unki khushi ka thikana na raha. ” maan sunaya karti theen, “par raja ko rani ka is tarah mantri ke saath jana achchha nahin laga. rani ne raja ko samjhaya ki wo to keval raja ke prati atut prem ke karan apne ko na rok saki. raja rani ek dusre ko bahut chahte the. donon ke dilo mein ek baat shool si gaDti rahti ki unke koi santan na thi…rajvansh ka dipak bujhne ja raha tha. santan ke abhav mein unka lok parlok bigDa ja raha tha aur kul ki maryada nasht hone ki shanka baDhti ja rahi thi. …”
dusre din bachansinh ne marizon ki marham patti karte vaqt bataya tha ki uska tabadla mainapuri ke sadar aspatal mein ho gaya hai aur wo parson yahan se chala jayega. jagapti ne suna, to use bhala hi laga. …aye din rog ghere rahte hain, bachansinh uske shahr ke aspatal mein pahuncha ja raha hai, to kuch madad milti hi rahegi. akhir wo theek to hoga hi aur phir mainapuri ke siva kahan jayega? par dusre hi kshan uska dil akath bharipan se bhar gaya. pata nahin kyon, chanda ke astitv ka dhyaan aate hi use is suchana mein kuch aise nukile kante dikhai dene lage, jo uske sharir mein kisi bhi samay chubh sakte the, zara sa bekhbar hone par beendh sakte the. aur tab uske samne adami ke adhikar ki lakshman rekhayen dhuen ki lakir ki tarah kanpakar mitne lagin aur man mein chhupe sandeh ke rakshas bana badal yogi ke roop mein ghumne lage.
aur pandrah bees roz baad jab jagapti ki haalat sudhar gai, to chanda use lekar ghar laut aai. jagapti chalne phirne layaq ho gaya tha. ghar ka tala jab khola, tab raat jhuk aai thi. aur phir unki gali mein to shaam se hi andhera jharna shuru ho jata tha. par gali mein aate hi unhen laga, jaise ki vanvas katkar rajdhani laute hon. nukkaD par hi jamuna sunar ki kothari mein surhi phink rahi thi, jiske darazdar darvazon se lalten ki raushani ki lakir jhaank rahi thi aur kachchi tambaku ka dhuan rundhi gali ke muhane par buri tarah bhar gaya tha. samne hi munshiji apni jingla khatiya ke gaDDhe mein, kuppi ke maddhim parkash mein khasra khatauni bichhaye mizan lagane mein mashghul the. jab jagapti ke ghar ka darvaza khaDka, to andhere mein uski chachi ne apne jangle se dekha aur vahin se baithe baithe apne ghar ke bhitar ailan kar diya—“raja nirbansiya aspatal se laut aaye. . . kulma bhi aai hain!”
ye shabd sunkar ghar ke andhere barothe mein ghuste hi jagapti hanfakar baith gaya, jhunjhlakar chanda se bola, “andhere mein kya mere haath pair tuDvaogi? bhitar jakar lalten jala lao na. ”
“tel nahin hoga, is vaqt zara aise hi kaam. . . ”
“tumhare kabhi kuch nahin hoga…na tel na. . . ” kahte kahte jagapti ekdam chup rah gaya. chanda ko laga ki aaj pahli baar jagapti ne uske vyarth matritv par itni gahri chot kar di, jiski gahrai ki usne kabhi kalpana nahin ki thi. donon khamosh, bina ek baat kiye andar chale ge.
raat ke baDhte sannate mein donon ke samne do baten theen…
jagapti ke kanon mein jaise koi vyangya se kah raha tha—raja nirbansiya aspatal se aa ge!
aur chanda ke dil mein ye baat chubh rahi thi—tumhare kabhi kuch nahin hoga…
aur sisakti sisakti chanda na jane kab so gai. par jagapti ki ankhon mein neend na aai. khaat par paDe paDe uske charon or ek mohak, bhayavana sa jaal phail gaya. lete lete use laga, jaise uska svayan ka akar bahut ksheen hota hota bindu sa rah gaya, par bindu ke haath the, pair the aur dil ki dhaDkan bhi. kothari ka ghuta ghuta sa andhiyara, matmaili divaren aur gahan gufaon si almariyan, jinmen se baar baar jhankakar dekhta tha. . . aur wo sihe uthta tha. . . phir jaise sab kuch tabdil ho gaya ho. . . . use laga ki uska akar baDhta ja raha hai, baDhta ja raha hai. wo manushya hua, lamba tagDa tandurust purush hua, uski shiraon mein kuch phoot paDne ke liye vyakulta se khaul utha. uske haath sharir ke anupat se bahut baDe, Daravne aur bhayanak ho ge, unke lambe lambe nakhun nikal aaye. . . wo rakshas hua, daitya hua. . . aadim, barbar!
aur baDi tezi se sara kamra ekbargi chakkar kaat gaya…. phir sab dhire dhire sthir hone laga aur uski sansen theek hoti jaan paDin. phir jaise bahut koshish karne par ghigghi bandh jane ke baad uski avaz phuti, “chanda!”
chanda ki narm sanson ki halki sarsarahat kamre mein jaan Dalne lagi. jagapti apni pati ka sahara lekar jhuka. kanpte pair usne zamin par rakhe aur chanda ki khaat ke pae se sir tikakar baith gaya. use laga, jaise chanda ki in sanson ki avaz mein jivan ka sangit goonj raha hai. wo utha aur chanda ke mukh par jhuk gaya. . . . us andhere mein ankhen gaDaye gaDaye jaise bahut der baad svayan chanda ke mukh par aabha phutkar apne aap bikharne lagi…uske naqsh ujjval ho uthe aur jagapti ki ankhon ko jyoti mil gai. wo mugdh sa takta raha.
chanda ke bikhre baal, jinmen haal ke janme bachche ke gabhuare balon ki si mahak. . . doodh ki kachaindh. . . sharir ke ras ki si mithas aur sneh si chiknahat aur wo matha jis par balon ke paas tamam chhote chhote, narm narm narm se roen. . . resham se. . . aur uspar kabhi lagai gai sendur ki bindi ka halka mita hua sa abhas…nanhen nanhen nirdvanrdv soe palak! aur unki masum si kanton ki tarah barauniyan aur saans mein ghulkar aati hui wo aatma ki nishkapat avaz ki lay phool ki pankhuri se patle patle onth, un par paDi achhuti rekhayen, jinmen sirf doodh si mahak!
uski ankhon ke samne mamta si chha gai, keval mamta, aur uske mukh se asphut shabd nikal gaya, “bachchi!”
Darte Darte uske balon ki ek lat ko baDe jatan se usne hatheli par rakha aur ungli se us par jaise lakiren khinchne laga. use laga, jaise koi shishu uske ank mein aane ke liye chhataptakar, nirash hokar so gaya ho. usne donon hatheliyon ko pasarkar uske sir ko apni sima mein bhar lena chaha ki koi kathor cheez uski ungliyon se takrai.
wo jaise hosh mein aaya.
baDe sahare se usne chanda ke sir ke niche tatola. ek rumal mein bandha kuch uske haath mein aa gaya. apne ko sanyat karta wo vahin zamin par baith gaya, usi andhere mein us rumal ko khola, to jaise saanp soongh gaya, chanda ke hathon ke donon sone ke kaDe usmen lipte the!
aur tab uske samne sab srishti dhire dhire tukDe tukDe hokar bikharne lagi. ye kaDe to chanda bechkar uska ilaaj kar rahi thi. ve sab davaiyan aur taqat ke taunik. . . usne to kaha tha, ye davaiyan kisi ki mehrbani nahin hain, mainne haath ke kaDe bechne ko de diye the. . . par. . . uska gala buri tarah sookh gaya. zaban jaise talu se chipakkar rah gai. usne chaha ki chanda ko jhakajhorkar uthaye, par sharir ki shakti bah si gai thi, rakt pani ho gaya tha.
thoDa sanyat hua, usne ve kaDe usi rumal mein lapetkar uski khaat ke kone par rakh diye aur baDi mushkil se apni khaat ki pati pakaDkar luDhak gaya.
chanda jhooth boli! par kyon? kaDe aaj tak chhupaye rahi. usne itna baDa durav kyon kiya? akhir kyon? kisaliye? aur jagapti ka dil bhari ho gaya. use phir laga ki uska sharir simatta ja raha hai aur wo ek seenk ka bana Dhancha rah gaya. . . nitant halka, tinke sa, hava mein uDkar bhatakne vale tinke sa.
us raat ke baad roz jagapti sochta raha ki chanda se kaDe mangakar bech le aur koi chhota mota karobar hi shuru kar de, kyonki naukari chhoot chuki thi. itne din ki ghairhaziri ke baad vakil sahab ne dusra muharrir rakh liya tha. wo roz yahi sochta par jab chanda samne aati, to na jane kaisi ashay si uski avastha ho jati. use lagta, jaise kaDe mangakar wo chanda se patnitv ka pad bhi chheen lega. matritv to bhagvan ne chheen hi liya. . . wo sochta akhir chanda kya rah jayegi? ek stri se yadi patnitv aur matritv chheen liya gaya, to uske jivan ki sarthakta hi kyaa? chanda ke saath wo ye anyay kaise kare? usse dusri ankh ki raushani kaise maang le? phir to wo nitant andhi ho jayegi aur un kaDon ko mangne ke pichhe jis itihas ki aatma nangi ho jayegi, kaise wo us lajja ko svayan hi ugharkar Dhanpega?
aur wo unhin khayalon mein Duba subah se shaam tak idhar udhar kaam ki toh mein ghumta rahta. kisi se udhaar le le? par kis sampatti par? kya hai uske paas, jiske adhar par koi use kuch dega? aur muhalle ke log. . . jo ek ek pai par jaan dete hain, koi cheez kharidte vaqt bhaav mein ek paisa kam milne par milon paidal jakar ek paisa bachate hain, ek ek paise ki masale ki puDiya bandhvakar gyarah martaba paison ka hisab joDkar ekaadh paisa udharkar, minnten karte sauda ghar late hain. gali mein koi khonchevala phans gaya, to do paise ki cheez ko laD jhagaDkar—char dane zyada pane ki niyat se—do jagah bandhvate hain. bhaav ke zara se farq par ghanton bahs karte hain, shaam ko saDi gali tarkariyon ko kifayat ke karan late hain, aise logon se kis munh se mangakar wo unki gharibi ke ahsas par thokar lagaye!
par us din shaam ko jab wo ghar pahuncha, to barothe mein hi ek saikil rakhi nazar aai. dimagh par bahut zor Dalne ke baad bhi wo agantuk ki kalpana na kar paya. bhitarvale darvaze par jab pahuncha, to sahsa hansi ki avaz sunkar thithak gaya. us hansi mein ek ajib sa unmaad tha. aur uske baad chanda ka svar—
“ab aate hi honge, baithiye na do minat aur!. . . apni ankh se dekh lijiye aur unhen samjhate jaiye ki abhi tandrusti is layaq nahin, jo din din bhar ghumna bardasht kar saken. ”
“han…bhai, kamzori itni jaldi nahin mit sakti, khayal nahin karenge to nuqsan uthayenge!” koi purush svar tha ye.
jagapti asmanjas mein paD gaya. wo ekdam bhitar ghus jaye? ismen kya harj hai? par jab usne pair uthaye, to ve bahar ja rahe the. bahar barothe mein saikil ko pakaDte hi use soojh aai, vahin se jaise anjan banta baDe prayatn se avaz qo kholta chillaya, “are chanda! ye saikil kiski hai? kaun mehrban. . . ”
“kaun bachansinh?. . . achchha, achchha…vahi to main kahun, bhala kaun. . . ” kahta jagapti paas pahuncha, aur baton mein is tarah ulajh gaya, jaise sari paristhiti usne svikar kar li ho.
bachansinh jab phir aane ki baat kahkar chala gaya, to chanda ne bahut apnepan se jagapti ke samne baat shuru ki, “jane kaise kaise adami hote hain. . . ”
“kyon, kya hua? kaise hote hain adami?” jagapti ne puchha.
“itni chhoti jaan pahchan mein tum mardon ke ghar mein na rahte ghuskar baith sakte ho? tum to ulte pairon laut aoge. ” chanda kahkar jagapti ke mukh par kuch ichchhit pratikriya dekh sakne ke liye gahri nigahon se takne lagi.
jagapti ne chanda ki or aise dekha, jaise ye baat bhi kahne ki ya puchhne ki hai! phir bola, “bachansinh apni tarah ka adami hai, apni tarah ka akela. . . ”
“hoga. . . par. . . ” kahte kahte chanda ruk gai.
“aDe vaqt kaam aane vala adami hai, lekin usse fayda utha sakna jitna asan hai. . . utna. . . mera matlab hai ki jisse kuch liya jayega, use diya bhi jayega. ” jagapti ne ankhen divar par gaDate hue kaha.
aur chanda uthkar chali gai.
us din ke baad bachansinh lagbhag roz hi aane jane laga. jagapti uske saath idhar udhar ghumta bhi rahta. bachansinh ke saath wo jab tak rahta, ajib si ghutan uske dil ko baandh leti, aur tabhi jivan ki tamam vishamtayen bhi uski nigahon ke samne ubharne lagtin, akhir wo svayan ek adami hai, bekar. . . ye mana ki uske samne pet palne ki koi itni vikral samasya nahin, wo bhukhon nahin mar raha hai, jaDe mein kaanp nahin raha hai, par uske do haath pair hain…sharir ka pinjra hai, jo kuch mangta hai, kuchh! aur wo sochta, ye kuch kya hai? sukh? shayad haan, shayad nahin. wo to duःkha mein bhi ji sakne ka aadi hai, abhavon mein jivit rah sakne vala ashcharyajnak kiDa hai. to phir vasana? shayad haan, shayad nahin. chanda ka sharir lekar usne us kshanikta ko bhi dekha hai. to phir dhan. . . shayad haan, shayad nahin. usne dhan ke liye apne ko khapaya hai.
par wo bhi to us adrishya pyaas ko bujha nahin paya. to phir?. . . to phir kyaa?. . . wo kuch kya hai, jo uski aatma mein nasur sa rista rahta hai, apna upchaar mangta hai? shayad kaam! haan, yahi, bilkul yahi, jo uske jivan ki ghaDiyon ko nipat suna na chhoDe, jismen wo apni shakti laga sake, apna man Dubo sake, apne ko sarthak anubhav kar sake, chahe usmen sukh ho ya duःkha, araksha ho ya suraksha, shoshan ho ya poshan. . . use sirf kaam chahiye! karne ke liye kuch chahiye. yahi to uski prkrit avashyakta hai, pahli aur akhiri maang hai, kyonki wo us ghar mein nahin paida hua, jahan sirf zaban hilakar shasan karne vale hote hain. wo us ghar mein bhi nahin paida hua, jahan sirf mangakar jine vale hote hain. wo us ghar ka hai, jo sirf kaam karna janta hai, kaam hi jiski aas hai. sirf wo kaam chahta hai, kaam.
aur ek din uski kaam dhaam ki samasya bhi hal ho gai. talab vale uunche maidan ke dakshin or jagapti ki lakDi ki taal khul gai. borD tak tang gaya. taal ki zamin par lakshmi pujan bhi ho gaya aur havan bhi hua. lakDi ki koi kami nahin thi. gaanv se aane vali gaDiyon ko, is karobar mein paire hue adamiyon ki madad se mol tol karva ke vahan girva diya gaya. ganthen ek or rakhi gain, chailon ka chatta qarine se lag gaya aur gudde chirne ke liye Daal diye ge. do teen gaDiyon ka sauda karke taal chalu kar di gai. bhavishya mein svayan peD kharidkar katane ka tay kiya gaya. baDi baDi skimen banin ki kis tarah jalane ki lakDi se baDhate baDhate ek din imarti lakDi ki kothi banegi. chirne ki nai mashin lagegi. karobar baDh jane par bachansinh bhi naukari chhoDkar usi mein lag jayega, aur usne mahsus kiya ki wo kaam mein lag gaya hai, ab chaubison ghante uske samne kaam hai. . . uske samay ka upyog hai. din bhar mein wo ek ghante ke liye kisi ka mitr ho sakta hai, kuch der ke liye wo pati ho sakta hai, par baqi samay? din aur raat ke baqi ghante. . . un ghanton ke abhav ko sirf uska apna kaam hi bhar sakta hai. . . aur ab wo kamadar tha. . .
wo kamadar to tha, lekin jab taal ki us uunchi zamin par paDe chhappar ke niche takht par wo galla rakhkar baithta, samne lage lakaDiyon ke Dher, kate hue peD ke tane, jaDon ko luDhka hua dekhta, to ek nirihata barbas uske dil ko bandhne lagti. use lagta, ek vyarth pishach ka sharir tukDe tukDe karke uske samne Daal diya gaya hai. . . . phir in par kulhaDi chalegi aur inke reshe reshe alag ho jayenge aur tab inki thathariyon ko sukhakar kisi paisevale ke haath tak par taulkar bech diya jayega.
aur tab uski nigahen samne khaDe taaD par atak jatin, jiske baDe baDe patton par surkh gardanvale giddh par phaDaphDakar der tak khamosh baithe rahte. taaD ka kala gaDredar tana. . . aur uske samne thahri hui vayu mein nissahay kanpti, bharahin neem ki pattiyan chakrati jhaDti rahtin. . . dhool bhari dharti par lakDi ki gaDiyon ke pahiyon ki paDi hui leek dhundhli si chamak uthti aur baghalvale mungphalli ke pench ki ekras kharakhrati avaz kanon mein bharne lagti. baghalvali kachchi pagDanDi se koi guzarkar, tile ke Dhalan se talab ki nichai mein utar jata, jiske gandle pani mein kuDa tairta rahta aur suar kichaD mein munh Dalkar us kuDe ko raundte rahte. . .
duphar simatti aur shaam ki dhundh chhane lagti, to wo lalten jalakar chhappar ke khambhe ki keel mein taang deta aur uske thoDi hi der baad aspatal vali saDak se bachansinh ek kale dhabbe ki tarah aata dikhai paDta.
gahre paDte andhere mein uska akar dhire dhire baDhta jata aur jagapti ke samne jab wo aakar khaDa hota, to wo use bahut vishal sa lagne lagta, jiske samne use apna astitv Dubta mahsus hota.
ek aadh bikri ki baten hotin aur tab donon ghar ki or chal dete. ghar pahunchakar bachansinh kuch der zarur rukta, baithta, idhar udhar ki baten karta. kabhi mauqa paD jata, to jagapti aur bachansinh ki thali bhi saath lag jati. chanda samne baithkar donon ko khilati.
bachansinh bolta jata, “kya tarkari bani hai. masala aisa paDa hai ki uski bhi bahar hai aur tarkari ka svaad bhi na mara. hotlon mein ya to masala hi masala rahega ya sirf tarkari hi tarkari. vaah! vaah! kya baat hai andaz kee”
aur chanda beech beech mein tokkar bolti jati, “inhen to jab tak daal mein pyaaz ka bhuna ghi na mile, tab tak pet hi nahin bharta. ”
ya—“sirka agar inhen mil jaye, to samjho, sab kuch mil gaya. pahle mujhe sirka na jane kaisa lagta tha, par ab aisa zaban par chaDha hai ki…”
ya—“inhen kaghaz si patli roti pasand hi nahin aati. ab mujhse koi patli roti banane ko kahe, to banti hi nahin, aadat paD gai hai, aur phir man hi nahin karta…”
par chanda ki ankhen bachansinh ki thali par hi jamin rahtin. roti nibti, to roti paros di, daal khatm nahin hui, to bhi ek chamcha aur paros di.
aur jagapti sir jhukaye khata rahta. sirf ek gilas pani mangta aur chanda chaunkkar pani dene se pahle kahti, “are tumne to kuch liya bhi nahin!” kahte kahte wo pani de deti aur tab uske dil par gahri si chot lagti, na jane kyon wo khamoshi ki chot use baDi piDa de jati…par wo apne ko samjha leti, koi mehman to nahin hain…mang sakte the. bhookh nahin hogi.
jagapti khana khakar taal par letne chala jata, kyonki abhi tak koi chaukidar nahin mila tha. chhappar ke niche takht par jab wo letta, to anayas hi uska dil bhar bhar aata. pata nahin kaun kaun se dard ek dusre se milkar tarah tarah ki tees, chatkhan aur ainthan paida karne lagte. koi ek rag dukhti to wo sahlata bhi, jab sabhi nasen chatakhti hon to kahan kahan rahat ka akela haath sahlaye!
lete lete uski nigah taaD ke us or bani pukhta qabr par jam jati, jiske sirahne kantila babul ka ekaki peD sunn sa khaDa rahta. jis qabr par ek pardanashin aurat baDe lihaz se aakar savere savere bela aur chameli ke phool chaDha jati…ghum ghumkar uske phere leti aur matha tekkar kuch qadam udaas udaas si chalkar ekdam tezi se muDkar bisatiyon ke muhalle mein kho jati. shaam hote phir aati. ek diya barti aur agar ki battiyan jalati. phir muDte hue oDhni ka palla kandhon par Dalti, to diye ki lau kanpti, kabhi kanpakar bujh jati, par uske qadam baDh chuke hote, pahle dhime, thake, udaas se aur phir tez sadhe samanya se. aur wo phir usi muhalle mein kho jati aur tab raat ki tanhaiyon mein. . . babul ke kanton ke beech, us sanya sanya karte uunche niche maidan mein jaise us qabr se koi rooh nikalkar nipat akeli bhatakti rahti. . . .
tabhi taaD par baithe surkh gardanvale giddh manhus si avaz mein kilabila uthte aur taaD ke patte bhayanakta se khaDbaDa uthte. jagapti ka badan kaanp jata aur wo bhatakti rooh zinda rah sakne ke liye jaise qabr ki iinton mein, babul ke saya tale dubak jati. jagapti apni tangon ko pet se bhinchkar, kambal se munh chhupa aundha let jata.
taDke hi theke par lage lakaDhare lakDi chirne aa jate. tab jagapti kambal lapet, ghar ki or chala jata…
“raja roz sabere tahalne jate the,” maan sunaya karti theen, “ek din jaise hi mahl ke bahar nikalkar aaye ki saDak par jhaDu lagane vali mehtarani unhen dekhte hi apna jhaDupanja patakkar matha pitne lagi aur kahne lagi, “haay raam! aaj raja nirbansiya ka munh dekha hai, na jane roti bhi nasib hogi ki nahin…na jane kaun si bipat toot paDe!” raja ko itna duःkha hua ki ulte pairon mahl ko laut ge. mantri ko hukm diya ki us mehtarani ka ghar naaz se bhar den. aur sab rajasi vastra utaar, raja usi kshan jangal ki or chale ge. usi raat rani ko sapna hua ki kal ki raat teri manokamana puri hone vali hai. rani bahut pachhta rahi thi. par fauran hi rani raja ko khojti khojti us saray mein pahunch gai, jahan wo tike hue the. rani bhes badalkar seva karne vali bhatiyarin bankar raja ke paas raat mein pahunchi. ratbhar unke saath rahi aur subah raja ke jagne se pahle saray chhoD mahl mein laut gai. raja subah uthkar dusre desh ki or chale ge. do hi dinon mein raja ke nikal jane ki khabar raaj bhar mein phail gai, raja nikal ge, charon taraf yahi khabar thi. . . ”
aur us din tole muhalle ke har angan mein barsat ke meh ki tarah ye khabar baraskar phail gai ki chanda ke baal bachcha hone vala hai.
nukkaD par jamuna sunar ki kothari mein phinkti surhi ruk gai. munshiji ne apna mizan lagana chhoD vispharit netron se takkar khabar suni. bansi kiranevale ne kuen mein se aadhi gain rassi kheench, Dol man par patakkar suna. sudarshan darji ne mashin ke pahiye ko hatheli se ragaDkar rokkar suna. aur hansraj panjabi ne apni neel lagi malaguji qamiz ki astinen chaDhate hue suna. aur jagapti ki beva chachi ne aurton ke jamghat mein baDe vishvas, par bhed bhare svar mein sunaya—“aj chhः saal ho ge shadi ko na baal, na bachcha, na jane kiska paap hai uske pet mein. …aur kiska hoga siva us mustanDe kampotar ke! na jane kahan se kulachchhani is muhalle mein aa gai!. . . is gali ki to pushton se aisi marjad rahi hai ki ghair, marad aurat ki parchhain tab nahin dekh pae. yahan ke marad to bas apne ghar ki aurton ko jante hain, unhen to paDosi ke ghar ki zananiyon ki ginti tak nahin malum. ” ye kahte kahte unka chehra tamtama aaya aur sab aurten devlok ki deviyan ki tarah gambhir banin, apni pavitarta ki mahanta ke bojh se dabi dhire dhire khisak gain.
subah ye khabar phailne se pahle jagapti taal par chala gaya tha. par suni usne bhi aaj hi thi. din bhar wo takht par kone ki or munh kiye paDa raha. na theke ki lakDiyan chirvain, na bikri ki or dhyaan diya, na duphar ka khana khane hi ghar gaya. jab raat achchhi tarah phail gai, wo hinsak pashu ki bhanti utha. usne apni anguliyan chatkain, muththi bandhakar baanh ka zor dekha, to nasen tanin aur baah mein kathor kampan sa hua. usne teen chaar puri sansen khinchin aur mazbut qadmon se ghar ki or chal paDa. maidan khatm hua, kankaD ki saDak aai. . . saDak khatm hui, gali aai. par gali ke andhere mein ghuste wo saham gaya, jaise kisi ne adrishya hathon se use pakaDkar sara rakt nichoD liya, uski phati hui shakti ki nas par him shital honth rakhkar sara ras choos liya. aur gali ke andhere ki hikarat bhari kalikh aur bhi bhari ho gai, jismen ghusne se uski saans ruk jayegi. . . ghut jayegi.
wo pichhe muDa, par ruk gaya. phir kuch sanyat hokar wo choron ki tarah niःshabd qadmon se kisi tarah ghar ki bhitari dehri tak pahunch gaya.
dain or ki rasoivali dahliz mein kuppi timtima rahi theen aur chanda ast vyast si divar se sir teke shayad asman niharte niharte so gai thi. kuppi ka parkash uske aadhe chehre ko ujagar kiye tha aur aadha chehra gahan kalima mein Duba adrishya tha.
wo khamoshi se khaDa takta raha. chanda ke chehre par naritv ki prauDhta aaj use dikhai di. chehre ki sari kamniyta na jane kahan kho gai thi, uska achhutapan na jane kahan lupt ho gaya tha. phula phula mukh. jaise tahni se toDe phool ko pani mein Dalkar taza kiya gaya ho, jiski pankhuriyon mein tutan ki suramii rekhayen paD gai hon, par bhigne se bharipan aa gaya ho.
uske khule pair par uski nigah paDi, to suja sa laga. eDiyan bhari, suji si aur nakhunon ke paas ajab sa sukhapan. jagapti ka dil ek baar masos utha. usne chaha ki baDhkar use utha le. apne hathon se uska pura sharir chhu chhukar sara kalush ponchh de, use apni sanson ki agni mein tapakar ek baar phir pavitra kar le, aur uski ankhon ki gahrai mein jhankakar kahe—devlok se kis shapvash nirvasit ho tum idhar aa gain, chanda? ye shaap to amit tha.
tabhi chanda ne haDabDakar ankhen kholin. jagapti ko samne dekh use laga ki wo ekdam nangi ho gai ho. atishay lajjit ho usne apne pair samet liye. ghutnon se dhoti niche sarkai aur bahut sanyat si uthkar rasoi ke andhere mein kho gai.
jagapti ekdam hatash ho, vahin kamre ki dehri par chaukhat se sir tika baith gaya. nazar kamre mein gai to laga ki paraye svar yahan goonj rahe hain, jinmen chanda ka bhi ek hai. ek taraf ghar ke har kone se, andhera sailab ki tarah baDhta aa raha tha. . . ek ajib nistabdhata. . . asmanjas! gati, par pathabhrasht! shaklen, par akarhin.
“khana kha lete,” chanda ka svar kanon mein paDa. wo anjane aise uth baitha, jaise taiyar baitha ho. uski baat ki aaj tak usne avagya na ki thi. khane to baith gaya, par kaur niche nahin sarak raha tha. tabhi chanda ne baDe sadhe shabdon mein kaha, “kal main gaanv jana chahti hoon. ”
jaise wo is suchana se parichit tha, bola, “achchha. ”
chanda phir boli, “mainne bahut pahle ghar chiththi Daal di thi, bhaiya kal lene aa rahe hain. ”
“to theek hai. ” jagapti vaise hi Duba Duba bola.
chanda ka baandh toot gaya aur wo vahin ghutnon mein munh dabakar katar si phaphak phaphakkar ro paDi. na uth saki, na hil saki.
jagapti kshan bhar ko vichlit hua, par jaise jam jane ke liye. uske honth phaDke aur krodh ke jvalamukhi ko jabran dabate hue bhi wo phoot paDa, “yah sab mujhe kya dikha rahi hai? besharm! beghairat!. . . us vaqt nahin socha tha, jab…jab…meri laash tale…”
“tab…tab ki baat jhooth hai. ”, sisakiyon ke beech chanda ka svar phuta, “lekin jab tumne mujhe bech diya. . . ”
ek bharpur haath chanda ki kanpati par aag sulgata paDa. aur jagapti apni hatheli dusri se dabata, khana chhoDkar kothari mein ghus gaya aur raat bhar kunDi chaDhaye usi kalikh mein ghutta raha.
dusre din chanda ghar chhoDkar apne gaanv chali gai.
jagapti pura din aur raat taal par hi kaat deta, usi birane mein, talab ke baghal, qabr, babul aur taaD ke paDos mein. par man murda ho gaya tha. zabardasti wo apne ko vahin roke rahta. . . . uska dil hota, kahin nikal jaye. par aisi kamzori uske tan aur man ko khokhla kar gai thi ki chahne par bhi wo ja na pata. hikarat bhari nazren sahta, par vahin paDa rahta. kafi dinon baad jab nahin rah gaya, to ek din jagapti ghar par tala laga, nazdik ke gaanv mein lakDi katane chala gaya. use lag raha tha ki ab wo pangu ho gaya hai, bilkul langDa, ek rengta kiDa, jiske na ankh hai, na kaan, na man, na ichchha.
wo us baagh mein pahunch gaya, jahan kharide peD katne the. do arevalon ne patle peD ke tane par aara rakha aur karr karr ka abadh shor shuru ho gaya. dusre peD par banne aur shakure ki kulhaDi baj uthi. aur gaanv se door us baagh mein ek laypurn shor shuru ho gaya. jaD par kulhaDi paDti to pura peD tharra jata.
qarib ke khet ki meDh par baithe jagapti ka sharir bhi jaise kaanp kaanp uthta. chanda ne kaha tha, “lekin jab tumne mujhe bech diya…” kya wo theek kahti thee! kya bachansinh ne taal ke liye jo rupe diye the, uska byaaz idhar chukta hua? kya sirf vahi rupe aag ban ge, jiski anch mein uski sahanshilata, vishvas aur adarsh mom se pighal ge?
“shakure!” baagh se lage daDe par se kisi ne avaz lagai. shakure ne kulhaDi rokkar vahin se haank lagai, “kone ke khet se leek bani hai, zara meD markar nangha la gaDi. ”
jagapti ka dhyaan bhang hua. usne muDkar daDe par ankhen gaDain. do bhainsa gaDiyan lakDi bharne ke liye aa pahunchi theen. shakure ne jagapti ke paas aakar kaha, “ek gaDi ka bhurt to ho gaya, balki DeDh ka…ab is patariya peD ko na chhaant den?”
jagapti ne us peD ki or dekha, jise katne ke liye shakure ne ishara kiya tha. peD ki shaakh hari pattiyon se bhari thi. wo bola, “are, ye to hara hai abhi ise chhoD do. ”
“hara hone se kya, ukhat to gaya hai. na phool ka, na phal ka. ab kaun ismen phal phool ayenge, chaar din mein patti jhura jayengi. ” shakure ne peD ki or dekhte hue ustadi andaz se kaha.
“jaisa theek samjho tum,” jagapti ne kaha, aur uthkar meD meD pakke kuen par pani pine chala gaya.
duphar Dhalte gaDiyan bharkar taiyar huin aur shahr ki or ravana ho gain. jagapti ko unke saath aana paDa. gaDiyan lakDi se ladin shahr ki or chali ja rahi theen aur jagapti gardan jhukaye kachchi saDak ki dhool mein Duba, bhari qadmon se dhire dhire unhin ki bajti ghantiyon ke saath nirjiv sa baDhta ja raha tha. . .
“kai baras baad raja pardes se bahut sa dhan kamakar gaDi mein ladkar apne desh ki or laute,” maan sunaya karti theen, “raja ki gaDi ka pahiya mahl se kuch door patel ki jhaDi mein ulajh gaya. har tarah koshish ki, par pahiya na nikla. tab ek panDit ne bataya ki sakat ke din ka janma balak agar apne ghar ki supari lakar ismen chhua de, to pahiya nikal jayega. vahin do balak khel rahe the. unhonne ye suna to kudkar pahunche aur kahne lage ki hamari paidaish sakat ki hai, par supari tab layenge, jab tum aadha dhan dene ka vada karo. raja ne baat maan li. balak dauDe dauDe ghar ge. supari lakar chhua di, phir ghar ka rasta batate aage aage chale. akhir gaDi mahl ke samne unhonne rok li.
“raja ko baDa achraj hua ki hamare hi mahl mein ye balak kahan se aa ge? bhitar pahunche, to rani khushi se behal ho gai.
“par raja ne pahle un balkon ke bare mein puchha, to rani ne kaha ki ye donon balak unhin ke rajakumar hain. raja ko vishvas nahin hua. rani bahut dukhi hui. ”
gaDiyan jab taal par aakar lagin aur jagapti takht par haath pair Dhile karke baith gaya, to pagDanDi se guzarte munshiji ne uske paas aakar bataya, “abhi us din vasuli mein tumhari sasural ke nazdik ek gaanv mein jana hua, to pata laga ki pandrah bees din hue, chanda ke laDka hua hai. ” aur phir jaise muhalle mein suni sunai baton par parda Dalte hue bole, “bhagvan ke raaj mein der hai, andher nahin, jagapti bhaiya!”
jagapti ne suna to pahle usne gahri nazron se munshiji ko taka, par wo unke teer ka nishana theek theek nahin khoj paya. par sab kuch sahn karte hue bola, “der aur andher donon hain!”
“andher to sarasar hai…tiriya charittar hai sab! baDe baDe haar ge…” kahte kahte munshiji ruk ge, par kuch is tarah, jaise koi baDi bhed bhari baat hai, jise unki gol hoti hui ankhen samjha dengi.
jagapti munshiji ki taraf takta rah gaya. minat bhar manhus sa maun chhaya raha, use toDte hue munshiji baDi dard bhari avaz mein bole, “sun to liya hoga, tumne?”
“kyaa?” kahne ko jagapti kah gaya, par use laga ki abhi munshiji us gaanv mein phaili baton ko hi baDi bedardi se kah Dalenge, usne nahaq puchha.
tabhi munshiji ne uski naak ke paas munh le jate hue kaha, “chanda dusre ke ghar baith rahi hai…koi madsudan hai vahin ka. par bachcha divar ban gaya hai, chahte to wo yahi hain ki mar jaye, to rasta khule, par ramji ki marji. . . suna hai, bachcha rahte bhi wo chanda ko baithane ko taiyar hai. ”
jagapti ki saans gale mein atakkar rah gai. bas, ankhen munshiji ke chehre par pathrai si jaDi theen.
munshiji bole, “adalat se bachcha tumhein mil sakta hai. …ab kahe ka sharam lihaj!”
“apna kahkar kis munh se mangun, baba? har taraf to karj se daba hoon, tan se, man se, paise se, izzat se, kiske bal par duniya sanjone ki koshish karun?” kahte kahte wo apne mein kho gaya.
munshiji vahin baith ge. jab raat jhuk aai to jagapti ke saath hi munshiji bhi uthe. uske kandhe par haath rakhe ve use gali tak laye. apni kothari aane par peeth sahlakar unhonne use chhoD diya. wo gardan jhukaye gali ke andhere mein unhin khayalon mein Duba aise chalta chala aaya, jaise kuch hua hi na ho. par kuch aisa bojh tha, jo na sochne deta tha aur na samajhne. jab chachi ki baithak ke paas se guzarne laga, to sahsa uske kanon mein bhanak paDi—“a ge satyanasi! kulboran!”
usne zara nazar uthakar dekha, to gali ki chachi bhaujaiyan baithak mein jama theen aur chanda ki charcha chhiDi thi. par wo chupchap nikal gaya.
itne dinon baad tala khola aur barothe ke andhere mein kuch soojh na paDa, to ekayek wo raat uski ankhon ke samne ghoom gai, jab wo aspatal se chanda ke saath lauta tha. beva chachi ka wo zaharabujha teer, ‘raja nirbansiya aspatal se laut aaye. ’ aur aaj satyanasi! kulboran! aur svayan uska wo vakya, jo chanda ko chhed gaya tha, ‘tumhare kabhi kuch na hoga…!’ aur us raat ki shishu chanda!
chanda ka laDka hua hai. …vah kuch aur janti, adami ka bachcha na janti!. . . wo aur kuch bhi janti, kankaD patthar! wo nari na banti, bachchi hi bani rahti, us raat ki shishu chanda. par chanda ye sab kya karne ja rahi hai? uske jite ji wo dusre ke ghar baithne ja rahi hai? kitne baDe paap mein dhakel diya chanda ko…par use bhi to kuch sochna chahiye! akhir kyaa? par mere jite ji to ye sab achchha nahin. wo itni ghrina bardasht karke bhi jine ko taiyar hai! ya mujhe jalane ko? wo mujhe neech samajhti hai, kayar…nahin to ek baar khabar to leti. bachcha hua, to pata lagta. par nahin, wo uska kaun hai? koi bhi nahin! aulad hi to wo sneh ki dhuri hai, jo adami aurat ke pahiyon ko sadhkar tan ke daldal se paar le jati hai…nahin to har aurat veshya hai aur har adami vasana ka kiDa. to kya chanda aurat nahin rahi? wo zarur aurat thi, par svayan mainne use narak mein Daal diya. wo bachcha mera koi nahin, par chanda to meri hai. ek baar use le aata phir yahan…rat ke mohak andhere mein uske phool se adhron ko dekhta…nirdvandv soi palkon ko niharta. . . sanson ki doodh si achhuti mahak ko samet leta. . .
aaj ka andhera! ghar mein tel bhi nahin jo diya jala le. aur phir kiske liye kaun jalaye? chanda ke liye. . . par use to bech diya tha. siva chanda ke kaun si sampatti uske paas thi, jiske adhar par koi qarz deta? qarz na milta to ye sab kaise chalta? kaam. . . peD kahan se katte? aur tab shakure ke ve shabd uske kanon mein goonj ge, ‘hara hone se kya, ukhat to gaya hai…’ wo svayan bhi to ek ukhta hua peD hai, na phal ka, na phool ka, sab vyarth hi to hai. jo kuch socha, us par kabhi vishvas na kar paya. chanda ko chahta raha, par uske dil mein chahat na jaga paya. use kahin se ek paisa mangne par Dantta raha, par khud leta raha aur aj…vah dusre ke ghar baith rahi hai…use chhoDkar…vah akela hai…har taraf bojh hai, jismen uski nas nas kuchli ja rahi hain, rag rag phat gai hai. …aur wo kisi tarah tatol tatolkar bhitar ghar mein pahuncha…
“rani apne kul devta ke mandir mein pahunchin,” maan sunaya karti theen, “apne satitv ko siddh karne ke liye unhonne ghor tapasya ki. raja dekhte rahe! kul devta prasann hue aur unhonne apni daivi shakti se donon balkon ko tatkal janme shishuon mein badal diya. rani ki chhatiyon mein doodh bhar aaya aur unmen se dhaar phoot paDi, jo shishuon ke munh mein girne lagi. raja ko rani ke satitv ka sabut mil gaya. unhonne rani ke charan pakaD liye aur kaha ki tum devi ho! ye mere putr hain! aur us din se raja ne phir se raaj kaaj sambhal liya. ”
par usi raat jagapti apna sara karobar tyaag, afim aur tel pikar mar gaya kyonki chanda ke paas koi daivi shakti nahin thi aur jagapti raja nahin, bachansinh kampaunDar ka qarzdar tha. …
“raja ne do baten keen,” maan sunati theen, “ek to rani ke naam se unhonne bahut baDa mandir banvaya aur dusre, raaj ke ne sikkon par baDe rajakumar ka naam khudvakar chalu kiya, jisse raaj bhar mein apne uttaradhikari ki khabar ho jaye…”
jagapti ne marte vaqt do parche chhoDe, ek chanda ke naam, dusra qanun ke naam.
chanda ko usne likha tha—“chanda, meri antim chaah yahi hai ki tum bachche ko lekar chali ana…abhi ek do din meri laash ki durgati hogi, tab tak tum aa sakogi. chanda adami ko paap nahin, pashchatap marta hai, main bahut pahle mar chuka tha. bachche ko lekar zarur chali aana. ”
qanun ko usne likha tha—“kisi ne mujhe mara nahin hai, kisi adami ne nahin. main janta hoon ki mere zahr ki pahchan karne ke liye mera sina chira jayega. usmen zahr hai. mainne afim nahin, rupe khaye hain. un rupyon mein qarz ka zahr tha, usi ne mujhe mara hai. meri laash tab tak na jalai jaye, jab tak chanda bachche ko lekar na aa jaye. aag bachche se dilvai jaye. bas. ”
maan jab kahani samapt karti theen, to asapas baithe bachche phool chaDhate the. meri kahani bhi khatm ho gai, par. . .
ek raja nirbansiya the”—man kahani sunaya karti theen. unke asapas hi chaar paanch bachche apni muththiyon mein phool dabaye kahani samapt hone par gauron par chaDhane ke liye utsuk se baith jate the. aate ka sundar sa chauk pura hota, usi chauk par mitti ki chhः ghauren rakhi jatin, jinmen se uuparvali ke bindiya aur sindur lagta, baqi panchon niche dabi puja grhan karti rahtin. ek or dipak ki bati sthir si jalti rahti aur mangal ghat rakha rahta, jis par roli se sathiya banaya jata. sabhi baithe bachchon ke mukh par phool chaDhane ki utavli ki jagah kahani sunne ki sahj sthirta ubhar aati.
“ek raja nirbansiya the”, maan sunaya karti theen, “unke raaj mein baDi khushhali thi. sab varan ke log apna apna kaam kaaj dekhte the. koi dukhi nahin dikhai paDta tha. raja ke ek lakshmi si rani thi, chandrma si sundar. . . aur raja ko bahut pyari. raja raaj kaaj dekhte aur sukh se rani ke mahl mein rahte. . . ”
mere samne mere khayalon ka raja tha, raja jagapti! tab jagapti se meri dantkati dosti thi, donon miDil skool mein paDhne jate. donon ek se ghar ke the, isliye barabari ki nibhti thi. main maitrik paas karke ek skool mein naukar ho gaya aur jagapti qasbe ke hi vakil ke yahan muharrir. jis saal jagapti muharrir hua, usi varsh paas ke gaanv mein uski shadi hui, par aisi hui ki logon ne tamasha bana dena chaha. laDkivalon ka kuch vishvas tha ki shadi ke baad laDki ki vida nahin hogi. byaah ho jayega aur satvin bhanvar tab paDegi, jab pahli vida ki sayat hogi aur tabhi laDki apni sasural jayegi. jagapti ki patni thoDi bahut paDhi likhi thi, par ghar ki leek ko kaun mete! barat bina bahu ke vapas aa gai aur laDkevalon ne tay kar liya ki ab jagapti ki shadi kahin aur kar di jayegi, chahen kani luli se ho, par wo laDki ab ghar mein nahin ayegi. lekin saal khatm hote hote sab theek thaak ho gaya. laDkivalon ne mafi maang li aur jagapti ki patni apni sasural aa gai.
jagapti ko jaise sab kuch mil gaya aur saas ne bahu ki balaiyan lekar ghar ki sab chabiyan saump deen, grihasthi ka Dhang baar samjha diya. jagapti ki maan na jane kab se aas lagaye baithin theen. unhonne aram ki saans li. puja paath mein samay katne laga, dupahariyan dusre gharon ke angan mein bitne lagin. par saans ka rog tha unhen, so ek din unhonne apni antim ghaDiyan ginte hue chanda ko paas bulakar samjhaya tha—“beta, jagapti baDe laaD pyaar ka pala hai. jab se tumhare sasur nahin rahe, tab se iske chhote chhote hath ko pura karti rahi hun…ab tum dhyaan rakhna. ” phir rukkar unhonne kaha tha, “jagapti kisi layaq hua hai, to rishtedaron ki ankhon mein karakne laga hai. tumhare baap ne byaah ke vaqt nadani ki, jo tumhein vida nahin kiya. mere dushman devar jethon ko mauqa mil gaya. tumar khaDa kar diya ki ab vida karvana naak katvana hai. … jagapti ka byaah kya hua, un logon ki chhati par saanp lot gaya. socha, ghar ki izzat rakhne ki aaD lekar rang mein bhang kar den. …ab beta, is ghar ki laaj tumhari laaj hai. … aaj ko tumhare sasur hote, to bhala. . . ” kahte kahte maan ki ankhon mein ansu aa ge, aur ve jagapti ki dekhbhal use saumpkar sada ke liye maun ho gai theen.
ek arman unke saath hi chala gaya ki jagapti ki santan ko, chaar baras intzaar karne ke baad bhi ve god mein na khila pain. aur chanda ne man mein sabr kar liya tha, yahi sochkar ki kul devta ka ansh to use jivan bhar pujne ko mil gaya tha. ghar mein charon taraf jaise udarta bikhri rahti, apnapa barasta rahta. use lagta, jaise ghar ki andheri, ekaant kothariyon mein ye shaant shitalta hai jo use bharma leti hai. ghar ki sab kunDiyon ki khanak uske kanon mein bas gai thi, har darvaze ki charamrahat pahchan ban gai theen. …
“ek roz raja akhet ko ge”, maan sunati theen, raja akhet ko jate the, to satven roz zarur mahl mein laut aate the. par us dafa jab ge, to satvan din nikal gaya, par raja nahin laute. rani ko baDi chinta hui. rani ek mantri ko saath lekar khoj mein niklin…”
aur isi beech jagapti ko rishtedari ki ek shadi mein jana paDa. uske door rishte ke bhai dayaram ki shadi thi. kah gaya tha ki dasven din zarur vapas aa jayega. par chhathe din hi khabar mili ki barat ghar lautne par dayaram ke ghar Daka paD gaya. kisi mukhbir ne sari khabren pahuncha di theen ki laDkivalon ne dayaram ka ghar sone chandi se paat diya hai…akhir pushtaini zamindar ki iklauti laDki thi. ghar aaye mehman lagbhag vida ho chuke the. dusre roz jagapti bhi chalnevala tha, par usi raat Daka paDa. javan adami, bhala khoon manata hai! Dakevalon ne jab banduqen chalai, to sabki ghigghi bandh gai par jagapti aur dayaram ne chhati thokkar lathiyan utha leen. ghar mein kohram mach gaya. . . . phir sannata chha gaya. Dakevale barabar goliyan daagh rahe the. bahar ka darvaza toot chuka tha. par jagapti ne himmat baDhate hue haank lagai, ye havai banduqen in thel pilai lathiyon ka muqabala nahin kar payengi, javano!”
par darvaze taD taD tutte rahe, aur ant mein ek goli jagapti ki jaangh ko paar karti nikal gai, dusri uski jaangh ke uupar kulhe mein sama kar rah gai.
chanda roti kalapti aur manautiyan manti jab vahan pahunchi, to jagapti aspatal mein tha. dayaram ke thoDi chot aai thi. use aspatal se chhutti mil gai theen. jagapti ki dekhbhal ke liye vahin aspatal mein marizon ke rishtedaron ke liye jo kothriyan banin theen, unhin mein chanda ko rukna paDa. qasbe ke aspatal se dayaram ka gaanv chaar kos paDta tha. dusre tisre vahan se adami aate jate rahte, jis saman ki zarurat hoti, pahuncha jate.
par dhire dhire un logon ne bhi khabar lena chhoD diya. ek din mein theek honevala ghaav to tha nahin. jaangh ki haDDi chatakh gai thi aur kulhe mein aupreshan se chhः inch gahra ghaav tha.
qasbe ka aspatal tha. kampaunDar hi marizon ki dekhbhal rakhte. baDa Dauktar to naam ke liye tha ya qasbe ke baDe adamiyon ke liye. chhote logon ke liye to kampotar sahab hi iishvar ke avtar the. marizon ki dekhbhal karne vale rishtedaron ki khane pine ki mushkilon se lekar mariz ki nabz tak sambhalte the. chhoti si imarat mein aspatal abad tha. rogiyon ko sirf chhः saat khaten thi. marizon ke kamre se laga dava banane ka kamra tha, usi mein ek or ek aramakursi thi aur ek nichi si mez. usi kursi par baDa Dauktar aakar kabhi kabhar baithta tha, nahin to bachansinh kampaunDar hi jame rahte. aspatal mein ya to faujadari ke shahid aate ya gir gira ke haath pair toD lene vale ek aadh log. chhathe chhamase koi aurat dikh gai to deekh gai, jaise unhen kabhi rog gherta hi nahin tha. kabhi koi bimar paDti to gharvale haal bata ke aath das roz qi dava ek saath le jate aur phir uske jine marne ki khabar tak na milti.
us din bachansinh jagapti ke ghaav ki patti badalne aaya. uske aane mein aur patti kholne mein kuch aisi laparvahi thi, jaise ghalat bandhi pagDi ko theek se bandhne ke liye khol raha ho. chanda uski kursi ke paas hi saans roke khaDi thi. wo aur rogiyon se baat karta ja raha tha. idhar minat bhar ko dekhta, phir jaise abhyast se uske haath apna kaam karne lagte. patti ek jagah khoon se chipak gai thi, jagapti buri tarah karah utha. chanda ke munh se cheekh nikal gai. bachansinh ne satark hokar dekha to chanda mukh mein dhoti ka palla khonse apni bhayatur avaz dabane ki cheshta kar rahi thi. jagapti ekbargi machhli sa taDapkar rah gaya. bachansinh ki ungliyan thoDi si thartharai ki uski baanh par tap se chanda ka ansu chu paDa.
bachansinh sihar sa gaya aur uske hathon ki abhyast nithurai ko jaise kisi manaviy komalta ne dhire se chhu diya. ahon, karahon, dard bhari chikhon aur chatakhte sharir ke jis vatavran mein rahte hue bhi wo bilkul alag rahta tha, phoDon ko pake aam sa daba deta tha, khaal ko aalu sa chheel deta tha. . . uske man se jis dard ka ahsas uth gaya tha, wo use aaj phir hua aur wo bachche ki tarah phoonk phunkakar patti ko nam karke kholne laga. chanda ki or dhire se nigah uthakar dekhte hue phusaphusaya, “a…a. . . rogi ki himmat toot jati hai aise. ”
par jaise ye kahte kahte uska man khud apni baat se uchant gaya. ye beparvahi to cheekh aur karahon ki ekrasta se use mili thi, rogi ki himmat baDhane ki kartavynishtha se nahin. jab tak wo ghaav ki marham patti karta raha, tab tak kinhin do ankhon ki karuna use ghere rahi.
aur haath dhote samay wo chanda ki un chuDiyon se bhari kalaiyon ko bejhijhak dekhta raha, jo apni khushi usse maang rahi theen. chanda pani Dalti ja rahi thi aur bachansinh haath dhote dhote uski kalaiyon, hatheliyon aur pairon ko dekhta ja raha tha. davakhane ki or jate hue usne chanda ko haath ke ishare se bulakar kaha, “dil chhota mat karna jaangh ka ghaav to das roz mein bhar jayega, kulhe ka ghaav kuch din zarur lega. achchhi se achchhi davai dunga. davaiyan to aisi hain ki murde ko changa kar den. par hamare aspatal mein nahin atin, phir bhi. . . ”
“to kisi dusre aspatal se nahin aa saktin wo davaiyan?” chanda ne puchha.
“a to sakti hain, par mariz ko apna paisa kharachna paDta hai unmen…” bachansinh ne kaha.
chanda chup rah gai to bachansinh ke munh se anayas hi nikal paDa, “kisi cheez qi zarurat ho to mujhe batana. rahi davaiyan, so kahin na kahin se intzaam karke la dunga. mahkame se mangayenge, to aate avate mahinon lag jayenge. shahr ke Dauktar se mangva dunga. taqat ki davaiyon ki baDi zarurat hai unhen. achchha, dekha jayega…” kahte kahte wo ruk gaya.
chanda se kritagyta bhari nazron se use dekha aur use laga jaise andhi mein uDte patte ko koi atkav mil gaya ho. aakar wo jagapti ki khaat se lagkar baith gai. uski hatheli lekar wo sahlati rahi. nakhunon ko apne poron se dabati rahi.
dhire dhire bahar andhera baDh chala. bachansinh tel ki ek lalten lakar marizon ke kamre ke ek kone mein rakh gaya. chanda ne jagapti ki kalai dabate dabate dhire se kaha, “kampaunDar sahab kah rahe the…” aur itna kahkar wo jagapti ka dhyaan akrisht karne ke liye chup ho gai.
“kya kah rahe the?” jagapti ne anamne svar mein bola.
“kuchh taqat ki davaiyan tumhare liye zaruri hain!”
“main janta hoon. ”
“par. . . ”
“dekho chanda, chadar ke barabar hi pair phailaye ja sakte hain. hamari auqat in davaiyon ki nahin hai. ”
“auqat adami ki dekhi jati hai ki paise ki, tum to. . . ”
“dekha jayega. ”
“kampaunDar sahab intzaam kar denge, unse kahungi main. ”
“nahin chanda, udharkhate se mera ilaaj nahin hoga…chahe ek ke chaar din lag jayen. ”
“ismen to…”
“tum nahin jantin, qarz koDh ka rog hota hai, ek baar lagne se tan to galta hi hai, man bhi rogi ho jata hai. ”
“lekin. . . ” kahte kahte wo ruk gai.
jagapti apni baat ki tek rakhne ke liye dusri or munh ghumakar leta raha.
aur tisre roz jagapti ke sirhane kai taqat ki davaiyan rakhi theen, aur chanda ki thaharne vali kothari mein uske letne ke liye ek khaat bhi pahunch gai thi. chanda jab aai, to jagapti ke chehre par manasik piDa ki asankhya rekhayen ubhri theen, jaise wo apni bimari se laDne ke alava svayan apni aatma se bhi laD raha ho. chanda ki nadani aur sneh se bhi ulajh raha ho aur sabse uupar sahayata karne vale ki daya se joojh raha ho.
chanda ne dekha to ye sab sah na pai. uske ji mein aaya ki kah de, kya aaj tak tumne kabhi kisi se udhaar paise nahin liye? par wo to khud tumne liye the aur tumhein mere samne svikar nahin karna paDa tha. isiliye lete jhijhak nahin lagi, par aaj mere samne use svikar karte tumhara jhutha paurush tilamilakar jaag paDa hai. par jagapti ke mukh par bikhri hui piDa mein jis adarsh ki gahrai thi, wo chanda ke man mein chor ki tarah ghus gai, aur baDi svabhavikta se usne mathe par haath pherte hue kaha, ye davaiyan kisi ki mehrbani nahin hain. mainne haath ka kaDa bechne ko de diya tha, usi mein aai hain. ”
“mujhse puchha tak nahin aur. . . ” jagapti ne kaha aur jaise khud man ki kamzori ko daba gaya—kaDa bechne se to achchha tha ki bachansinh ki daya hi oDh li jati. aur use halka sa pachhtava bhi tha ki nahak wo rau mein baDi baDi baten kah jata hai, gyaniyon ki tarah seekh de deta hai.
aur jab chanda andhera hote uthkar apni kothari mein sone ke liye jane ko hui, to kahte kahte ye baat daba gai ki bachansinh ne uske liye ek khaat ka intzaam bhi kar diya hai. kamre se nikli, to sidhi kothari mein gai aur haath ka kaDa lekar sidhe davakhane ki or chali gai, jahan bachansinh akela Dauktar ki kursi par aram se tangen phailaye laimp ki pili raushani mein leta tha. jagapti ka vyvahar chanda ko lag gaya tha, aur ye bhi ki wo kyon bachansinh ka ahsan abhi se laad le, pati ke liye zevar ki kitni auqat hai. wo bedhaDak si davakhane mein ghus gai. din ki pahchan ke karan use kamre ki mez kursi aur davaon ki almari ki sthiti ka anuman tha, vaise kamra andhera hi paDa tha, kyonki laimp ki raushani keval apne vritt mein adhik prakashvan hokar konon ke andhere ko aur bhi ghanibhut kar rahi thi. bachansinh ne chanda ko ghuste hi pahchan liya. wo uthkar khaDa ho gaya. chanda ne bhitar qadam to rakh diya par sahsa saham gai, jaise wo kisi andhere kuen mein apne aap kood paDi ho, aisa kuan, jo nirantar patla hota gaya hai aur jismen pani ki gahrai patal ki parton tak chali gai ho, jismen paDkar wo niche dhansti chali ja rahi ho, niche. . . andhera. . . ekaant ghutan. . . paap!
bachansinh avak takta rah gaya aur chanda aise vapas laut paDi, jaise kisi kale pishach ke panjon se mukti mili ho. bachansinh ke samne kshan bhar mein sari paristhiti kaundh gai aur usne vahin se bahut sanyat avaz mein zaban ko dabate hue jaise vayu mein aspasht dhvanit kar diya—‘chanda!’ wo avaz itni be avaz thi aur nirarthak hote hue bhi itni sarthak thi ki us khamoshi mein arth bhar gaya.
chanda ruk gai.
bachansinh uske paas jakar ruk gaya.
samne ka ghana peD stabdh khaDa tha, uski kali parchhai ki paridhi jaise ek baar phailkar unhen apne vritt mein samet leti aur dusre hi kshan mukt kar deti. davakhane ka laimp sahsa bhabhakkar ruk gaya aur marizon ke kamre se ek karah ki avaz door maidan ke chho tak jakar Doob gai.
chanda ne vaise hi niche takte hue apne ko sanyat karte hue kaha, “yah kaDa tumhein dene aai thi.
to vapas kyon chali ja rahi theen?”
chanda chup. aur do kshan rukkar usne apne haath ka sone ka kaDa dhire se uski or baDha diya, jaise dene ka sahas na hote hue bhi ye kaam avashyak tha.
bachansinh ne uski sari kaya ko ek baar dekhte hue apni ankhen uske sir par jama deen, uske uupar paDe kapDe ke paar naram chiknai se bhare lambe lambe baal the, jinki bhaap si mahak phailti ja rahi thi. wo dhire dhire se bola, “lao. ”
chanda ne kaDa uski or baDha diya. kaDa haath mein lekar wo bola, “suno. ”
chanda ne parashn bhari nazren uski or utha deen.
unmen jhankte hue, apne haath se uski kalai pakaDte hue usne wo kaDa uski kalai mein pahna diya.
chanda chupchap kothari ki or chal di aur bachansinh davakhane ki or.
kalikh buri tarah baDh gai thi aur samne khaDe peD ki kali parchhai gahri paD gai thi. donon laut ge the. par jaise us kalikh mein kuch rah gaya tha, chhoot gaya tha. davakhane ka laimp jo jalte jalte ek baar bhabhka tha, usmen tel na rah jane ke karan batti ki lau beech se phat gai thi, uske uupar dhuen ki lakiren bal khati, saanp ki tarah andhere mein vilin ho jati theen.
subah jab chanda jagapti ke paas pahunchi aur bistar theek karne lagi to jagapti ko laga ki chanda bahut udaas thi. kshan kshan mein chanda ke mukh par anaginat bhaav aa ja rahe the, jinmen asmanjas tha, piDa thi aur nirihata thi. koi adrishya paap kar chukne ke baad hriday ki gahrai se kiye ge pashchatap jaisi dhumil chamak!. . .
“rani mantri ke saath jab nirash hokar lautin, to dekha, raja mahl mein upasthit the. unki khushi ka thikana na raha. ” maan sunaya karti theen, “par raja ko rani ka is tarah mantri ke saath jana achchha nahin laga. rani ne raja ko samjhaya ki wo to keval raja ke prati atut prem ke karan apne ko na rok saki. raja rani ek dusre ko bahut chahte the. donon ke dilo mein ek baat shool si gaDti rahti ki unke koi santan na thi…rajvansh ka dipak bujhne ja raha tha. santan ke abhav mein unka lok parlok bigDa ja raha tha aur kul ki maryada nasht hone ki shanka baDhti ja rahi thi. …”
dusre din bachansinh ne marizon ki marham patti karte vaqt bataya tha ki uska tabadla mainapuri ke sadar aspatal mein ho gaya hai aur wo parson yahan se chala jayega. jagapti ne suna, to use bhala hi laga. …aye din rog ghere rahte hain, bachansinh uske shahr ke aspatal mein pahuncha ja raha hai, to kuch madad milti hi rahegi. akhir wo theek to hoga hi aur phir mainapuri ke siva kahan jayega? par dusre hi kshan uska dil akath bharipan se bhar gaya. pata nahin kyon, chanda ke astitv ka dhyaan aate hi use is suchana mein kuch aise nukile kante dikhai dene lage, jo uske sharir mein kisi bhi samay chubh sakte the, zara sa bekhbar hone par beendh sakte the. aur tab uske samne adami ke adhikar ki lakshman rekhayen dhuen ki lakir ki tarah kanpakar mitne lagin aur man mein chhupe sandeh ke rakshas bana badal yogi ke roop mein ghumne lage.
aur pandrah bees roz baad jab jagapti ki haalat sudhar gai, to chanda use lekar ghar laut aai. jagapti chalne phirne layaq ho gaya tha. ghar ka tala jab khola, tab raat jhuk aai thi. aur phir unki gali mein to shaam se hi andhera jharna shuru ho jata tha. par gali mein aate hi unhen laga, jaise ki vanvas katkar rajdhani laute hon. nukkaD par hi jamuna sunar ki kothari mein surhi phink rahi thi, jiske darazdar darvazon se lalten ki raushani ki lakir jhaank rahi thi aur kachchi tambaku ka dhuan rundhi gali ke muhane par buri tarah bhar gaya tha. samne hi munshiji apni jingla khatiya ke gaDDhe mein, kuppi ke maddhim parkash mein khasra khatauni bichhaye mizan lagane mein mashghul the. jab jagapti ke ghar ka darvaza khaDka, to andhere mein uski chachi ne apne jangle se dekha aur vahin se baithe baithe apne ghar ke bhitar ailan kar diya—“raja nirbansiya aspatal se laut aaye. . . kulma bhi aai hain!”
ye shabd sunkar ghar ke andhere barothe mein ghuste hi jagapti hanfakar baith gaya, jhunjhlakar chanda se bola, “andhere mein kya mere haath pair tuDvaogi? bhitar jakar lalten jala lao na. ”
“tel nahin hoga, is vaqt zara aise hi kaam. . . ”
“tumhare kabhi kuch nahin hoga…na tel na. . . ” kahte kahte jagapti ekdam chup rah gaya. chanda ko laga ki aaj pahli baar jagapti ne uske vyarth matritv par itni gahri chot kar di, jiski gahrai ki usne kabhi kalpana nahin ki thi. donon khamosh, bina ek baat kiye andar chale ge.
raat ke baDhte sannate mein donon ke samne do baten theen…
jagapti ke kanon mein jaise koi vyangya se kah raha tha—raja nirbansiya aspatal se aa ge!
aur chanda ke dil mein ye baat chubh rahi thi—tumhare kabhi kuch nahin hoga…
aur sisakti sisakti chanda na jane kab so gai. par jagapti ki ankhon mein neend na aai. khaat par paDe paDe uske charon or ek mohak, bhayavana sa jaal phail gaya. lete lete use laga, jaise uska svayan ka akar bahut ksheen hota hota bindu sa rah gaya, par bindu ke haath the, pair the aur dil ki dhaDkan bhi. kothari ka ghuta ghuta sa andhiyara, matmaili divaren aur gahan gufaon si almariyan, jinmen se baar baar jhankakar dekhta tha. . . aur wo sihe uthta tha. . . phir jaise sab kuch tabdil ho gaya ho. . . . use laga ki uska akar baDhta ja raha hai, baDhta ja raha hai. wo manushya hua, lamba tagDa tandurust purush hua, uski shiraon mein kuch phoot paDne ke liye vyakulta se khaul utha. uske haath sharir ke anupat se bahut baDe, Daravne aur bhayanak ho ge, unke lambe lambe nakhun nikal aaye. . . wo rakshas hua, daitya hua. . . aadim, barbar!
aur baDi tezi se sara kamra ekbargi chakkar kaat gaya…. phir sab dhire dhire sthir hone laga aur uski sansen theek hoti jaan paDin. phir jaise bahut koshish karne par ghigghi bandh jane ke baad uski avaz phuti, “chanda!”
chanda ki narm sanson ki halki sarsarahat kamre mein jaan Dalne lagi. jagapti apni pati ka sahara lekar jhuka. kanpte pair usne zamin par rakhe aur chanda ki khaat ke pae se sir tikakar baith gaya. use laga, jaise chanda ki in sanson ki avaz mein jivan ka sangit goonj raha hai. wo utha aur chanda ke mukh par jhuk gaya. . . . us andhere mein ankhen gaDaye gaDaye jaise bahut der baad svayan chanda ke mukh par aabha phutkar apne aap bikharne lagi…uske naqsh ujjval ho uthe aur jagapti ki ankhon ko jyoti mil gai. wo mugdh sa takta raha.
chanda ke bikhre baal, jinmen haal ke janme bachche ke gabhuare balon ki si mahak. . . doodh ki kachaindh. . . sharir ke ras ki si mithas aur sneh si chiknahat aur wo matha jis par balon ke paas tamam chhote chhote, narm narm narm se roen. . . resham se. . . aur uspar kabhi lagai gai sendur ki bindi ka halka mita hua sa abhas…nanhen nanhen nirdvanrdv soe palak! aur unki masum si kanton ki tarah barauniyan aur saans mein ghulkar aati hui wo aatma ki nishkapat avaz ki lay phool ki pankhuri se patle patle onth, un par paDi achhuti rekhayen, jinmen sirf doodh si mahak!
uski ankhon ke samne mamta si chha gai, keval mamta, aur uske mukh se asphut shabd nikal gaya, “bachchi!”
Darte Darte uske balon ki ek lat ko baDe jatan se usne hatheli par rakha aur ungli se us par jaise lakiren khinchne laga. use laga, jaise koi shishu uske ank mein aane ke liye chhataptakar, nirash hokar so gaya ho. usne donon hatheliyon ko pasarkar uske sir ko apni sima mein bhar lena chaha ki koi kathor cheez uski ungliyon se takrai.
wo jaise hosh mein aaya.
baDe sahare se usne chanda ke sir ke niche tatola. ek rumal mein bandha kuch uske haath mein aa gaya. apne ko sanyat karta wo vahin zamin par baith gaya, usi andhere mein us rumal ko khola, to jaise saanp soongh gaya, chanda ke hathon ke donon sone ke kaDe usmen lipte the!
aur tab uske samne sab srishti dhire dhire tukDe tukDe hokar bikharne lagi. ye kaDe to chanda bechkar uska ilaaj kar rahi thi. ve sab davaiyan aur taqat ke taunik. . . usne to kaha tha, ye davaiyan kisi ki mehrbani nahin hain, mainne haath ke kaDe bechne ko de diye the. . . par. . . uska gala buri tarah sookh gaya. zaban jaise talu se chipakkar rah gai. usne chaha ki chanda ko jhakajhorkar uthaye, par sharir ki shakti bah si gai thi, rakt pani ho gaya tha.
thoDa sanyat hua, usne ve kaDe usi rumal mein lapetkar uski khaat ke kone par rakh diye aur baDi mushkil se apni khaat ki pati pakaDkar luDhak gaya.
chanda jhooth boli! par kyon? kaDe aaj tak chhupaye rahi. usne itna baDa durav kyon kiya? akhir kyon? kisaliye? aur jagapti ka dil bhari ho gaya. use phir laga ki uska sharir simatta ja raha hai aur wo ek seenk ka bana Dhancha rah gaya. . . nitant halka, tinke sa, hava mein uDkar bhatakne vale tinke sa.
us raat ke baad roz jagapti sochta raha ki chanda se kaDe mangakar bech le aur koi chhota mota karobar hi shuru kar de, kyonki naukari chhoot chuki thi. itne din ki ghairhaziri ke baad vakil sahab ne dusra muharrir rakh liya tha. wo roz yahi sochta par jab chanda samne aati, to na jane kaisi ashay si uski avastha ho jati. use lagta, jaise kaDe mangakar wo chanda se patnitv ka pad bhi chheen lega. matritv to bhagvan ne chheen hi liya. . . wo sochta akhir chanda kya rah jayegi? ek stri se yadi patnitv aur matritv chheen liya gaya, to uske jivan ki sarthakta hi kyaa? chanda ke saath wo ye anyay kaise kare? usse dusri ankh ki raushani kaise maang le? phir to wo nitant andhi ho jayegi aur un kaDon ko mangne ke pichhe jis itihas ki aatma nangi ho jayegi, kaise wo us lajja ko svayan hi ugharkar Dhanpega?
aur wo unhin khayalon mein Duba subah se shaam tak idhar udhar kaam ki toh mein ghumta rahta. kisi se udhaar le le? par kis sampatti par? kya hai uske paas, jiske adhar par koi use kuch dega? aur muhalle ke log. . . jo ek ek pai par jaan dete hain, koi cheez kharidte vaqt bhaav mein ek paisa kam milne par milon paidal jakar ek paisa bachate hain, ek ek paise ki masale ki puDiya bandhvakar gyarah martaba paison ka hisab joDkar ekaadh paisa udharkar, minnten karte sauda ghar late hain. gali mein koi khonchevala phans gaya, to do paise ki cheez ko laD jhagaDkar—char dane zyada pane ki niyat se—do jagah bandhvate hain. bhaav ke zara se farq par ghanton bahs karte hain, shaam ko saDi gali tarkariyon ko kifayat ke karan late hain, aise logon se kis munh se mangakar wo unki gharibi ke ahsas par thokar lagaye!
par us din shaam ko jab wo ghar pahuncha, to barothe mein hi ek saikil rakhi nazar aai. dimagh par bahut zor Dalne ke baad bhi wo agantuk ki kalpana na kar paya. bhitarvale darvaze par jab pahuncha, to sahsa hansi ki avaz sunkar thithak gaya. us hansi mein ek ajib sa unmaad tha. aur uske baad chanda ka svar—
“ab aate hi honge, baithiye na do minat aur!. . . apni ankh se dekh lijiye aur unhen samjhate jaiye ki abhi tandrusti is layaq nahin, jo din din bhar ghumna bardasht kar saken. ”
“han…bhai, kamzori itni jaldi nahin mit sakti, khayal nahin karenge to nuqsan uthayenge!” koi purush svar tha ye.
jagapti asmanjas mein paD gaya. wo ekdam bhitar ghus jaye? ismen kya harj hai? par jab usne pair uthaye, to ve bahar ja rahe the. bahar barothe mein saikil ko pakaDte hi use soojh aai, vahin se jaise anjan banta baDe prayatn se avaz qo kholta chillaya, “are chanda! ye saikil kiski hai? kaun mehrban. . . ”
“kaun bachansinh?. . . achchha, achchha…vahi to main kahun, bhala kaun. . . ” kahta jagapti paas pahuncha, aur baton mein is tarah ulajh gaya, jaise sari paristhiti usne svikar kar li ho.
bachansinh jab phir aane ki baat kahkar chala gaya, to chanda ne bahut apnepan se jagapti ke samne baat shuru ki, “jane kaise kaise adami hote hain. . . ”
“kyon, kya hua? kaise hote hain adami?” jagapti ne puchha.
“itni chhoti jaan pahchan mein tum mardon ke ghar mein na rahte ghuskar baith sakte ho? tum to ulte pairon laut aoge. ” chanda kahkar jagapti ke mukh par kuch ichchhit pratikriya dekh sakne ke liye gahri nigahon se takne lagi.
jagapti ne chanda ki or aise dekha, jaise ye baat bhi kahne ki ya puchhne ki hai! phir bola, “bachansinh apni tarah ka adami hai, apni tarah ka akela. . . ”
“hoga. . . par. . . ” kahte kahte chanda ruk gai.
“aDe vaqt kaam aane vala adami hai, lekin usse fayda utha sakna jitna asan hai. . . utna. . . mera matlab hai ki jisse kuch liya jayega, use diya bhi jayega. ” jagapti ne ankhen divar par gaDate hue kaha.
aur chanda uthkar chali gai.
us din ke baad bachansinh lagbhag roz hi aane jane laga. jagapti uske saath idhar udhar ghumta bhi rahta. bachansinh ke saath wo jab tak rahta, ajib si ghutan uske dil ko baandh leti, aur tabhi jivan ki tamam vishamtayen bhi uski nigahon ke samne ubharne lagtin, akhir wo svayan ek adami hai, bekar. . . ye mana ki uske samne pet palne ki koi itni vikral samasya nahin, wo bhukhon nahin mar raha hai, jaDe mein kaanp nahin raha hai, par uske do haath pair hain…sharir ka pinjra hai, jo kuch mangta hai, kuchh! aur wo sochta, ye kuch kya hai? sukh? shayad haan, shayad nahin. wo to duःkha mein bhi ji sakne ka aadi hai, abhavon mein jivit rah sakne vala ashcharyajnak kiDa hai. to phir vasana? shayad haan, shayad nahin. chanda ka sharir lekar usne us kshanikta ko bhi dekha hai. to phir dhan. . . shayad haan, shayad nahin. usne dhan ke liye apne ko khapaya hai.
par wo bhi to us adrishya pyaas ko bujha nahin paya. to phir?. . . to phir kyaa?. . . wo kuch kya hai, jo uski aatma mein nasur sa rista rahta hai, apna upchaar mangta hai? shayad kaam! haan, yahi, bilkul yahi, jo uske jivan ki ghaDiyon ko nipat suna na chhoDe, jismen wo apni shakti laga sake, apna man Dubo sake, apne ko sarthak anubhav kar sake, chahe usmen sukh ho ya duःkha, araksha ho ya suraksha, shoshan ho ya poshan. . . use sirf kaam chahiye! karne ke liye kuch chahiye. yahi to uski prkrit avashyakta hai, pahli aur akhiri maang hai, kyonki wo us ghar mein nahin paida hua, jahan sirf zaban hilakar shasan karne vale hote hain. wo us ghar mein bhi nahin paida hua, jahan sirf mangakar jine vale hote hain. wo us ghar ka hai, jo sirf kaam karna janta hai, kaam hi jiski aas hai. sirf wo kaam chahta hai, kaam.
aur ek din uski kaam dhaam ki samasya bhi hal ho gai. talab vale uunche maidan ke dakshin or jagapti ki lakDi ki taal khul gai. borD tak tang gaya. taal ki zamin par lakshmi pujan bhi ho gaya aur havan bhi hua. lakDi ki koi kami nahin thi. gaanv se aane vali gaDiyon ko, is karobar mein paire hue adamiyon ki madad se mol tol karva ke vahan girva diya gaya. ganthen ek or rakhi gain, chailon ka chatta qarine se lag gaya aur gudde chirne ke liye Daal diye ge. do teen gaDiyon ka sauda karke taal chalu kar di gai. bhavishya mein svayan peD kharidkar katane ka tay kiya gaya. baDi baDi skimen banin ki kis tarah jalane ki lakDi se baDhate baDhate ek din imarti lakDi ki kothi banegi. chirne ki nai mashin lagegi. karobar baDh jane par bachansinh bhi naukari chhoDkar usi mein lag jayega, aur usne mahsus kiya ki wo kaam mein lag gaya hai, ab chaubison ghante uske samne kaam hai. . . uske samay ka upyog hai. din bhar mein wo ek ghante ke liye kisi ka mitr ho sakta hai, kuch der ke liye wo pati ho sakta hai, par baqi samay? din aur raat ke baqi ghante. . . un ghanton ke abhav ko sirf uska apna kaam hi bhar sakta hai. . . aur ab wo kamadar tha. . .
wo kamadar to tha, lekin jab taal ki us uunchi zamin par paDe chhappar ke niche takht par wo galla rakhkar baithta, samne lage lakaDiyon ke Dher, kate hue peD ke tane, jaDon ko luDhka hua dekhta, to ek nirihata barbas uske dil ko bandhne lagti. use lagta, ek vyarth pishach ka sharir tukDe tukDe karke uske samne Daal diya gaya hai. . . . phir in par kulhaDi chalegi aur inke reshe reshe alag ho jayenge aur tab inki thathariyon ko sukhakar kisi paisevale ke haath tak par taulkar bech diya jayega.
aur tab uski nigahen samne khaDe taaD par atak jatin, jiske baDe baDe patton par surkh gardanvale giddh par phaDaphDakar der tak khamosh baithe rahte. taaD ka kala gaDredar tana. . . aur uske samne thahri hui vayu mein nissahay kanpti, bharahin neem ki pattiyan chakrati jhaDti rahtin. . . dhool bhari dharti par lakDi ki gaDiyon ke pahiyon ki paDi hui leek dhundhli si chamak uthti aur baghalvale mungphalli ke pench ki ekras kharakhrati avaz kanon mein bharne lagti. baghalvali kachchi pagDanDi se koi guzarkar, tile ke Dhalan se talab ki nichai mein utar jata, jiske gandle pani mein kuDa tairta rahta aur suar kichaD mein munh Dalkar us kuDe ko raundte rahte. . .
duphar simatti aur shaam ki dhundh chhane lagti, to wo lalten jalakar chhappar ke khambhe ki keel mein taang deta aur uske thoDi hi der baad aspatal vali saDak se bachansinh ek kale dhabbe ki tarah aata dikhai paDta.
gahre paDte andhere mein uska akar dhire dhire baDhta jata aur jagapti ke samne jab wo aakar khaDa hota, to wo use bahut vishal sa lagne lagta, jiske samne use apna astitv Dubta mahsus hota.
ek aadh bikri ki baten hotin aur tab donon ghar ki or chal dete. ghar pahunchakar bachansinh kuch der zarur rukta, baithta, idhar udhar ki baten karta. kabhi mauqa paD jata, to jagapti aur bachansinh ki thali bhi saath lag jati. chanda samne baithkar donon ko khilati.
bachansinh bolta jata, “kya tarkari bani hai. masala aisa paDa hai ki uski bhi bahar hai aur tarkari ka svaad bhi na mara. hotlon mein ya to masala hi masala rahega ya sirf tarkari hi tarkari. vaah! vaah! kya baat hai andaz kee”
aur chanda beech beech mein tokkar bolti jati, “inhen to jab tak daal mein pyaaz ka bhuna ghi na mile, tab tak pet hi nahin bharta. ”
ya—“sirka agar inhen mil jaye, to samjho, sab kuch mil gaya. pahle mujhe sirka na jane kaisa lagta tha, par ab aisa zaban par chaDha hai ki…”
ya—“inhen kaghaz si patli roti pasand hi nahin aati. ab mujhse koi patli roti banane ko kahe, to banti hi nahin, aadat paD gai hai, aur phir man hi nahin karta…”
par chanda ki ankhen bachansinh ki thali par hi jamin rahtin. roti nibti, to roti paros di, daal khatm nahin hui, to bhi ek chamcha aur paros di.
aur jagapti sir jhukaye khata rahta. sirf ek gilas pani mangta aur chanda chaunkkar pani dene se pahle kahti, “are tumne to kuch liya bhi nahin!” kahte kahte wo pani de deti aur tab uske dil par gahri si chot lagti, na jane kyon wo khamoshi ki chot use baDi piDa de jati…par wo apne ko samjha leti, koi mehman to nahin hain…mang sakte the. bhookh nahin hogi.
jagapti khana khakar taal par letne chala jata, kyonki abhi tak koi chaukidar nahin mila tha. chhappar ke niche takht par jab wo letta, to anayas hi uska dil bhar bhar aata. pata nahin kaun kaun se dard ek dusre se milkar tarah tarah ki tees, chatkhan aur ainthan paida karne lagte. koi ek rag dukhti to wo sahlata bhi, jab sabhi nasen chatakhti hon to kahan kahan rahat ka akela haath sahlaye!
lete lete uski nigah taaD ke us or bani pukhta qabr par jam jati, jiske sirahne kantila babul ka ekaki peD sunn sa khaDa rahta. jis qabr par ek pardanashin aurat baDe lihaz se aakar savere savere bela aur chameli ke phool chaDha jati…ghum ghumkar uske phere leti aur matha tekkar kuch qadam udaas udaas si chalkar ekdam tezi se muDkar bisatiyon ke muhalle mein kho jati. shaam hote phir aati. ek diya barti aur agar ki battiyan jalati. phir muDte hue oDhni ka palla kandhon par Dalti, to diye ki lau kanpti, kabhi kanpakar bujh jati, par uske qadam baDh chuke hote, pahle dhime, thake, udaas se aur phir tez sadhe samanya se. aur wo phir usi muhalle mein kho jati aur tab raat ki tanhaiyon mein. . . babul ke kanton ke beech, us sanya sanya karte uunche niche maidan mein jaise us qabr se koi rooh nikalkar nipat akeli bhatakti rahti. . . .
tabhi taaD par baithe surkh gardanvale giddh manhus si avaz mein kilabila uthte aur taaD ke patte bhayanakta se khaDbaDa uthte. jagapti ka badan kaanp jata aur wo bhatakti rooh zinda rah sakne ke liye jaise qabr ki iinton mein, babul ke saya tale dubak jati. jagapti apni tangon ko pet se bhinchkar, kambal se munh chhupa aundha let jata.
taDke hi theke par lage lakaDhare lakDi chirne aa jate. tab jagapti kambal lapet, ghar ki or chala jata…
“raja roz sabere tahalne jate the,” maan sunaya karti theen, “ek din jaise hi mahl ke bahar nikalkar aaye ki saDak par jhaDu lagane vali mehtarani unhen dekhte hi apna jhaDupanja patakkar matha pitne lagi aur kahne lagi, “haay raam! aaj raja nirbansiya ka munh dekha hai, na jane roti bhi nasib hogi ki nahin…na jane kaun si bipat toot paDe!” raja ko itna duःkha hua ki ulte pairon mahl ko laut ge. mantri ko hukm diya ki us mehtarani ka ghar naaz se bhar den. aur sab rajasi vastra utaar, raja usi kshan jangal ki or chale ge. usi raat rani ko sapna hua ki kal ki raat teri manokamana puri hone vali hai. rani bahut pachhta rahi thi. par fauran hi rani raja ko khojti khojti us saray mein pahunch gai, jahan wo tike hue the. rani bhes badalkar seva karne vali bhatiyarin bankar raja ke paas raat mein pahunchi. ratbhar unke saath rahi aur subah raja ke jagne se pahle saray chhoD mahl mein laut gai. raja subah uthkar dusre desh ki or chale ge. do hi dinon mein raja ke nikal jane ki khabar raaj bhar mein phail gai, raja nikal ge, charon taraf yahi khabar thi. . . ”
aur us din tole muhalle ke har angan mein barsat ke meh ki tarah ye khabar baraskar phail gai ki chanda ke baal bachcha hone vala hai.
nukkaD par jamuna sunar ki kothari mein phinkti surhi ruk gai. munshiji ne apna mizan lagana chhoD vispharit netron se takkar khabar suni. bansi kiranevale ne kuen mein se aadhi gain rassi kheench, Dol man par patakkar suna. sudarshan darji ne mashin ke pahiye ko hatheli se ragaDkar rokkar suna. aur hansraj panjabi ne apni neel lagi malaguji qamiz ki astinen chaDhate hue suna. aur jagapti ki beva chachi ne aurton ke jamghat mein baDe vishvas, par bhed bhare svar mein sunaya—“aj chhः saal ho ge shadi ko na baal, na bachcha, na jane kiska paap hai uske pet mein. …aur kiska hoga siva us mustanDe kampotar ke! na jane kahan se kulachchhani is muhalle mein aa gai!. . . is gali ki to pushton se aisi marjad rahi hai ki ghair, marad aurat ki parchhain tab nahin dekh pae. yahan ke marad to bas apne ghar ki aurton ko jante hain, unhen to paDosi ke ghar ki zananiyon ki ginti tak nahin malum. ” ye kahte kahte unka chehra tamtama aaya aur sab aurten devlok ki deviyan ki tarah gambhir banin, apni pavitarta ki mahanta ke bojh se dabi dhire dhire khisak gain.
subah ye khabar phailne se pahle jagapti taal par chala gaya tha. par suni usne bhi aaj hi thi. din bhar wo takht par kone ki or munh kiye paDa raha. na theke ki lakDiyan chirvain, na bikri ki or dhyaan diya, na duphar ka khana khane hi ghar gaya. jab raat achchhi tarah phail gai, wo hinsak pashu ki bhanti utha. usne apni anguliyan chatkain, muththi bandhakar baanh ka zor dekha, to nasen tanin aur baah mein kathor kampan sa hua. usne teen chaar puri sansen khinchin aur mazbut qadmon se ghar ki or chal paDa. maidan khatm hua, kankaD ki saDak aai. . . saDak khatm hui, gali aai. par gali ke andhere mein ghuste wo saham gaya, jaise kisi ne adrishya hathon se use pakaDkar sara rakt nichoD liya, uski phati hui shakti ki nas par him shital honth rakhkar sara ras choos liya. aur gali ke andhere ki hikarat bhari kalikh aur bhi bhari ho gai, jismen ghusne se uski saans ruk jayegi. . . ghut jayegi.
wo pichhe muDa, par ruk gaya. phir kuch sanyat hokar wo choron ki tarah niःshabd qadmon se kisi tarah ghar ki bhitari dehri tak pahunch gaya.
dain or ki rasoivali dahliz mein kuppi timtima rahi theen aur chanda ast vyast si divar se sir teke shayad asman niharte niharte so gai thi. kuppi ka parkash uske aadhe chehre ko ujagar kiye tha aur aadha chehra gahan kalima mein Duba adrishya tha.
wo khamoshi se khaDa takta raha. chanda ke chehre par naritv ki prauDhta aaj use dikhai di. chehre ki sari kamniyta na jane kahan kho gai thi, uska achhutapan na jane kahan lupt ho gaya tha. phula phula mukh. jaise tahni se toDe phool ko pani mein Dalkar taza kiya gaya ho, jiski pankhuriyon mein tutan ki suramii rekhayen paD gai hon, par bhigne se bharipan aa gaya ho.
uske khule pair par uski nigah paDi, to suja sa laga. eDiyan bhari, suji si aur nakhunon ke paas ajab sa sukhapan. jagapti ka dil ek baar masos utha. usne chaha ki baDhkar use utha le. apne hathon se uska pura sharir chhu chhukar sara kalush ponchh de, use apni sanson ki agni mein tapakar ek baar phir pavitra kar le, aur uski ankhon ki gahrai mein jhankakar kahe—devlok se kis shapvash nirvasit ho tum idhar aa gain, chanda? ye shaap to amit tha.
tabhi chanda ne haDabDakar ankhen kholin. jagapti ko samne dekh use laga ki wo ekdam nangi ho gai ho. atishay lajjit ho usne apne pair samet liye. ghutnon se dhoti niche sarkai aur bahut sanyat si uthkar rasoi ke andhere mein kho gai.
jagapti ekdam hatash ho, vahin kamre ki dehri par chaukhat se sir tika baith gaya. nazar kamre mein gai to laga ki paraye svar yahan goonj rahe hain, jinmen chanda ka bhi ek hai. ek taraf ghar ke har kone se, andhera sailab ki tarah baDhta aa raha tha. . . ek ajib nistabdhata. . . asmanjas! gati, par pathabhrasht! shaklen, par akarhin.
“khana kha lete,” chanda ka svar kanon mein paDa. wo anjane aise uth baitha, jaise taiyar baitha ho. uski baat ki aaj tak usne avagya na ki thi. khane to baith gaya, par kaur niche nahin sarak raha tha. tabhi chanda ne baDe sadhe shabdon mein kaha, “kal main gaanv jana chahti hoon. ”
jaise wo is suchana se parichit tha, bola, “achchha. ”
chanda phir boli, “mainne bahut pahle ghar chiththi Daal di thi, bhaiya kal lene aa rahe hain. ”
“to theek hai. ” jagapti vaise hi Duba Duba bola.
chanda ka baandh toot gaya aur wo vahin ghutnon mein munh dabakar katar si phaphak phaphakkar ro paDi. na uth saki, na hil saki.
jagapti kshan bhar ko vichlit hua, par jaise jam jane ke liye. uske honth phaDke aur krodh ke jvalamukhi ko jabran dabate hue bhi wo phoot paDa, “yah sab mujhe kya dikha rahi hai? besharm! beghairat!. . . us vaqt nahin socha tha, jab…jab…meri laash tale…”
“tab…tab ki baat jhooth hai. ”, sisakiyon ke beech chanda ka svar phuta, “lekin jab tumne mujhe bech diya. . . ”
ek bharpur haath chanda ki kanpati par aag sulgata paDa. aur jagapti apni hatheli dusri se dabata, khana chhoDkar kothari mein ghus gaya aur raat bhar kunDi chaDhaye usi kalikh mein ghutta raha.
dusre din chanda ghar chhoDkar apne gaanv chali gai.
jagapti pura din aur raat taal par hi kaat deta, usi birane mein, talab ke baghal, qabr, babul aur taaD ke paDos mein. par man murda ho gaya tha. zabardasti wo apne ko vahin roke rahta. . . . uska dil hota, kahin nikal jaye. par aisi kamzori uske tan aur man ko khokhla kar gai thi ki chahne par bhi wo ja na pata. hikarat bhari nazren sahta, par vahin paDa rahta. kafi dinon baad jab nahin rah gaya, to ek din jagapti ghar par tala laga, nazdik ke gaanv mein lakDi katane chala gaya. use lag raha tha ki ab wo pangu ho gaya hai, bilkul langDa, ek rengta kiDa, jiske na ankh hai, na kaan, na man, na ichchha.
wo us baagh mein pahunch gaya, jahan kharide peD katne the. do arevalon ne patle peD ke tane par aara rakha aur karr karr ka abadh shor shuru ho gaya. dusre peD par banne aur shakure ki kulhaDi baj uthi. aur gaanv se door us baagh mein ek laypurn shor shuru ho gaya. jaD par kulhaDi paDti to pura peD tharra jata.
qarib ke khet ki meDh par baithe jagapti ka sharir bhi jaise kaanp kaanp uthta. chanda ne kaha tha, “lekin jab tumne mujhe bech diya…” kya wo theek kahti thee! kya bachansinh ne taal ke liye jo rupe diye the, uska byaaz idhar chukta hua? kya sirf vahi rupe aag ban ge, jiski anch mein uski sahanshilata, vishvas aur adarsh mom se pighal ge?
“shakure!” baagh se lage daDe par se kisi ne avaz lagai. shakure ne kulhaDi rokkar vahin se haank lagai, “kone ke khet se leek bani hai, zara meD markar nangha la gaDi. ”
jagapti ka dhyaan bhang hua. usne muDkar daDe par ankhen gaDain. do bhainsa gaDiyan lakDi bharne ke liye aa pahunchi theen. shakure ne jagapti ke paas aakar kaha, “ek gaDi ka bhurt to ho gaya, balki DeDh ka…ab is patariya peD ko na chhaant den?”
jagapti ne us peD ki or dekha, jise katne ke liye shakure ne ishara kiya tha. peD ki shaakh hari pattiyon se bhari thi. wo bola, “are, ye to hara hai abhi ise chhoD do. ”
“hara hone se kya, ukhat to gaya hai. na phool ka, na phal ka. ab kaun ismen phal phool ayenge, chaar din mein patti jhura jayengi. ” shakure ne peD ki or dekhte hue ustadi andaz se kaha.
“jaisa theek samjho tum,” jagapti ne kaha, aur uthkar meD meD pakke kuen par pani pine chala gaya.
duphar Dhalte gaDiyan bharkar taiyar huin aur shahr ki or ravana ho gain. jagapti ko unke saath aana paDa. gaDiyan lakDi se ladin shahr ki or chali ja rahi theen aur jagapti gardan jhukaye kachchi saDak ki dhool mein Duba, bhari qadmon se dhire dhire unhin ki bajti ghantiyon ke saath nirjiv sa baDhta ja raha tha. . .
“kai baras baad raja pardes se bahut sa dhan kamakar gaDi mein ladkar apne desh ki or laute,” maan sunaya karti theen, “raja ki gaDi ka pahiya mahl se kuch door patel ki jhaDi mein ulajh gaya. har tarah koshish ki, par pahiya na nikla. tab ek panDit ne bataya ki sakat ke din ka janma balak agar apne ghar ki supari lakar ismen chhua de, to pahiya nikal jayega. vahin do balak khel rahe the. unhonne ye suna to kudkar pahunche aur kahne lage ki hamari paidaish sakat ki hai, par supari tab layenge, jab tum aadha dhan dene ka vada karo. raja ne baat maan li. balak dauDe dauDe ghar ge. supari lakar chhua di, phir ghar ka rasta batate aage aage chale. akhir gaDi mahl ke samne unhonne rok li.
“raja ko baDa achraj hua ki hamare hi mahl mein ye balak kahan se aa ge? bhitar pahunche, to rani khushi se behal ho gai.
“par raja ne pahle un balkon ke bare mein puchha, to rani ne kaha ki ye donon balak unhin ke rajakumar hain. raja ko vishvas nahin hua. rani bahut dukhi hui. ”
gaDiyan jab taal par aakar lagin aur jagapti takht par haath pair Dhile karke baith gaya, to pagDanDi se guzarte munshiji ne uske paas aakar bataya, “abhi us din vasuli mein tumhari sasural ke nazdik ek gaanv mein jana hua, to pata laga ki pandrah bees din hue, chanda ke laDka hua hai. ” aur phir jaise muhalle mein suni sunai baton par parda Dalte hue bole, “bhagvan ke raaj mein der hai, andher nahin, jagapti bhaiya!”
jagapti ne suna to pahle usne gahri nazron se munshiji ko taka, par wo unke teer ka nishana theek theek nahin khoj paya. par sab kuch sahn karte hue bola, “der aur andher donon hain!”
“andher to sarasar hai…tiriya charittar hai sab! baDe baDe haar ge…” kahte kahte munshiji ruk ge, par kuch is tarah, jaise koi baDi bhed bhari baat hai, jise unki gol hoti hui ankhen samjha dengi.
jagapti munshiji ki taraf takta rah gaya. minat bhar manhus sa maun chhaya raha, use toDte hue munshiji baDi dard bhari avaz mein bole, “sun to liya hoga, tumne?”
“kyaa?” kahne ko jagapti kah gaya, par use laga ki abhi munshiji us gaanv mein phaili baton ko hi baDi bedardi se kah Dalenge, usne nahaq puchha.
tabhi munshiji ne uski naak ke paas munh le jate hue kaha, “chanda dusre ke ghar baith rahi hai…koi madsudan hai vahin ka. par bachcha divar ban gaya hai, chahte to wo yahi hain ki mar jaye, to rasta khule, par ramji ki marji. . . suna hai, bachcha rahte bhi wo chanda ko baithane ko taiyar hai. ”
jagapti ki saans gale mein atakkar rah gai. bas, ankhen munshiji ke chehre par pathrai si jaDi theen.
munshiji bole, “adalat se bachcha tumhein mil sakta hai. …ab kahe ka sharam lihaj!”
“apna kahkar kis munh se mangun, baba? har taraf to karj se daba hoon, tan se, man se, paise se, izzat se, kiske bal par duniya sanjone ki koshish karun?” kahte kahte wo apne mein kho gaya.
munshiji vahin baith ge. jab raat jhuk aai to jagapti ke saath hi munshiji bhi uthe. uske kandhe par haath rakhe ve use gali tak laye. apni kothari aane par peeth sahlakar unhonne use chhoD diya. wo gardan jhukaye gali ke andhere mein unhin khayalon mein Duba aise chalta chala aaya, jaise kuch hua hi na ho. par kuch aisa bojh tha, jo na sochne deta tha aur na samajhne. jab chachi ki baithak ke paas se guzarne laga, to sahsa uske kanon mein bhanak paDi—“a ge satyanasi! kulboran!”
usne zara nazar uthakar dekha, to gali ki chachi bhaujaiyan baithak mein jama theen aur chanda ki charcha chhiDi thi. par wo chupchap nikal gaya.
itne dinon baad tala khola aur barothe ke andhere mein kuch soojh na paDa, to ekayek wo raat uski ankhon ke samne ghoom gai, jab wo aspatal se chanda ke saath lauta tha. beva chachi ka wo zaharabujha teer, ‘raja nirbansiya aspatal se laut aaye. ’ aur aaj satyanasi! kulboran! aur svayan uska wo vakya, jo chanda ko chhed gaya tha, ‘tumhare kabhi kuch na hoga…!’ aur us raat ki shishu chanda!
chanda ka laDka hua hai. …vah kuch aur janti, adami ka bachcha na janti!. . . wo aur kuch bhi janti, kankaD patthar! wo nari na banti, bachchi hi bani rahti, us raat ki shishu chanda. par chanda ye sab kya karne ja rahi hai? uske jite ji wo dusre ke ghar baithne ja rahi hai? kitne baDe paap mein dhakel diya chanda ko…par use bhi to kuch sochna chahiye! akhir kyaa? par mere jite ji to ye sab achchha nahin. wo itni ghrina bardasht karke bhi jine ko taiyar hai! ya mujhe jalane ko? wo mujhe neech samajhti hai, kayar…nahin to ek baar khabar to leti. bachcha hua, to pata lagta. par nahin, wo uska kaun hai? koi bhi nahin! aulad hi to wo sneh ki dhuri hai, jo adami aurat ke pahiyon ko sadhkar tan ke daldal se paar le jati hai…nahin to har aurat veshya hai aur har adami vasana ka kiDa. to kya chanda aurat nahin rahi? wo zarur aurat thi, par svayan mainne use narak mein Daal diya. wo bachcha mera koi nahin, par chanda to meri hai. ek baar use le aata phir yahan…rat ke mohak andhere mein uske phool se adhron ko dekhta…nirdvandv soi palkon ko niharta. . . sanson ki doodh si achhuti mahak ko samet leta. . .
aaj ka andhera! ghar mein tel bhi nahin jo diya jala le. aur phir kiske liye kaun jalaye? chanda ke liye. . . par use to bech diya tha. siva chanda ke kaun si sampatti uske paas thi, jiske adhar par koi qarz deta? qarz na milta to ye sab kaise chalta? kaam. . . peD kahan se katte? aur tab shakure ke ve shabd uske kanon mein goonj ge, ‘hara hone se kya, ukhat to gaya hai…’ wo svayan bhi to ek ukhta hua peD hai, na phal ka, na phool ka, sab vyarth hi to hai. jo kuch socha, us par kabhi vishvas na kar paya. chanda ko chahta raha, par uske dil mein chahat na jaga paya. use kahin se ek paisa mangne par Dantta raha, par khud leta raha aur aj…vah dusre ke ghar baith rahi hai…use chhoDkar…vah akela hai…har taraf bojh hai, jismen uski nas nas kuchli ja rahi hain, rag rag phat gai hai. …aur wo kisi tarah tatol tatolkar bhitar ghar mein pahuncha…
“rani apne kul devta ke mandir mein pahunchin,” maan sunaya karti theen, “apne satitv ko siddh karne ke liye unhonne ghor tapasya ki. raja dekhte rahe! kul devta prasann hue aur unhonne apni daivi shakti se donon balkon ko tatkal janme shishuon mein badal diya. rani ki chhatiyon mein doodh bhar aaya aur unmen se dhaar phoot paDi, jo shishuon ke munh mein girne lagi. raja ko rani ke satitv ka sabut mil gaya. unhonne rani ke charan pakaD liye aur kaha ki tum devi ho! ye mere putr hain! aur us din se raja ne phir se raaj kaaj sambhal liya. ”
par usi raat jagapti apna sara karobar tyaag, afim aur tel pikar mar gaya kyonki chanda ke paas koi daivi shakti nahin thi aur jagapti raja nahin, bachansinh kampaunDar ka qarzdar tha. …
“raja ne do baten keen,” maan sunati theen, “ek to rani ke naam se unhonne bahut baDa mandir banvaya aur dusre, raaj ke ne sikkon par baDe rajakumar ka naam khudvakar chalu kiya, jisse raaj bhar mein apne uttaradhikari ki khabar ho jaye…”
jagapti ne marte vaqt do parche chhoDe, ek chanda ke naam, dusra qanun ke naam.
chanda ko usne likha tha—“chanda, meri antim chaah yahi hai ki tum bachche ko lekar chali ana…abhi ek do din meri laash ki durgati hogi, tab tak tum aa sakogi. chanda adami ko paap nahin, pashchatap marta hai, main bahut pahle mar chuka tha. bachche ko lekar zarur chali aana. ”
qanun ko usne likha tha—“kisi ne mujhe mara nahin hai, kisi adami ne nahin. main janta hoon ki mere zahr ki pahchan karne ke liye mera sina chira jayega. usmen zahr hai. mainne afim nahin, rupe khaye hain. un rupyon mein qarz ka zahr tha, usi ne mujhe mara hai. meri laash tab tak na jalai jaye, jab tak chanda bachche ko lekar na aa jaye. aag bachche se dilvai jaye. bas. ”
maan jab kahani samapt karti theen, to asapas baithe bachche phool chaDhate the. meri kahani bhi khatm ho gai, par. . .
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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