लड़के पर जवानी आती देख जब्बार के बाप ने पड़ोस के गाँव में एक लड़की तजवीज़ कर ली। लेकिन जब्बार ने हस्बा की लड़की शब्बू को जो पानी भर कर लौटते देखा, तो उसकी सुध-बुध जाती रही।
जैसे कथा कहानी में कहा जाता है कि शाहज़ादा नदी में बहता हुआ सोने का एक बाल देख सोने के केशधारी सुंदरी के प्रेम से आहत महल की अटारी में उपवास कर लेट गया था; बहुत कुछ वैसा ही हाल जब्बार का भी हुआ। मुँह से तो कुछ कह न सका पर शिथिल शरीर, चेहरे का रंग उड़ा हुआ, कुछ खोया-खोया सा वह रहने लगा।
माँ-बाप ने उसकी हालत देखकर सलाह की। मुँह-दर-मुँह नहीं पर उसे सुना दिया कि ब्याह जल्दी ही उसका हो जाएगा। लड़की भी बच्चा नहीं, बिलकुल जवान है। शमसल की बड़ी बेटी जहुन्ना आस-पास के चार गावों में एक ही लड़की है। पानी का बड़ा मटका सिर पर उठाकर धमकती दो मील चली जाती है। घर भर का काम सँभालती है अभी से! यहाँ आ जाएगी तो जब्बार की माँ को भी चैन मिलेगा। बूढ़ी हो गई बेचारी। पर जब्बार को इससे कुछ तसल्ली न हुई। वह अक्सर लंबी-लंबी आहे खींचकर चुपचाप पड़ा रहता।
एक रोज़ माँ ने आँखों में आँसू भर अपनी क़सम धराकर पूछा—तो उसने सच कह दिया। जहुन्ना की बात सुनने से भी उसने इनकार करके कहा—”यातो हस्बा की बेटी शब्बू, नहीं तो बस!...कुछ नहीं।”
माँ-बाप ने बहुत समझाया। उसे सुनता देखते तो आपस में जहुन्ना की तारीफ़ और शब्बू की निंदा करने लगते। फिर जो लोग ऐसी बेशर्मी से ब्याह करते हैं उनकी कितनी निंदा होती है, यह सब वे लड़के को काकोक्ति, अलंकार और रूपक द्वारा समझाकर हार गए। पर धुन का पक्का जब्बार न माना तो न माना।
बेटे की ज़िद्द से हार मान बूढ़ा गफ़्फ़ार एक रोज़ हस्बा से बात करने गया। जब वह लौटकर आया तो क्रोध से उसकी आँखें लाल और ग्लानि से चेहरा विरूप हो रहा था। बंदूक़ कोने में रख, कंधे की चादर ज़मीन पर फेंक वह ज़मीन पर ही बैठ गया।
जब्बार की माँ ऊँटों को बेरी की पत्तियाँ खिला रही थी। तुरंत बूढ़े के समीप दौड़ी आई। जब्बार दूर से ही उत्सुक कान लगाए था। बूढ़ा मानो फट पड़ा—“ऐसे नालायक़ बेटे से बेऔलाद भला!”
जब्बार की माँ ने घबराकर बेटे की बलाएँ अपने सिर लेते हुए नाक पर हाथ रख कर पूछा—”हाय-हाय! हुआ क्या?”
बूढ़े ने कहा—“होगा क्या? ऐसे बे-शर्म बे-ग़ैरत लड़के से और होगा क्या? तमाम इज़्ज़त ख़ाक में मिल गई और घर मिट्टी में मिल जाएगा।”
माँ ने फिर बलाएँ लेकर पूछा—“हाय हुआ क्या? ऐसा क्यों कहते हो!”
बाप ने कहा—“अगर इसके ऐसे ही मिज़ाज थे तो यह क़लात के ख़ान के यहाँ पैदा क्यों नहीं हुआ? जानती है, हस्बा ने क्या कहा? सीधे मुँह से बात भी न की। कहती है, शब्बू की बात तुम मत सोचो। उसे वह ब्याहेगा जो अढ़ाई सौ रुपए की गठरी बाँधकर लाएगा।”
अढ़ाई सौ रुपए की बात सुन जब्बार की माँ की आँखें ऊपर चढ़ गई। बूढ़ा बोला—“तू भी बूढ़ी हो गई। तू ही बता-तूने कभी ऐसा तूफ़ान सुना है; उमर में?...अढ़ाई सौ रुपए!...कोई चीज़ ही नहीं होती?”
शमसल से मैंने जहुन्ना के लिए बात की थी। उसने लड़की के अस्सी माँगे थे, आख़िर साठ पर तैयार है। उसकी लड़की भी एक आदमी है। और वह बदज़ात माँगता है—अढ़ाई सौ। और फिर तू बूढ़ी हो गई; तू ही बता, रंग ज़रा मैला हुआ तो क्या, और ज़रा साफ़ हुआ तो क्या? औरत औरत सब एक। तुझे अपने काम से मतलब कि रंग से? अभी छः महीने नहीं हुए इसके लिए बंदूक़ ख़रीदी थी तो वह ऊँट बेचा था। अड़ाई सौ रुपए उमर भर में कमा तो पाएगा नहीं और शान यह है! अच्छा तू ही बता—इतनी बूढ़ी हुई, अढ़ाई सौ रुपए कभी औरत के दाम सुने हैं?...अढ़ाई सौ रुपए में तो फिरंगी की तोप ख़रीदी जाती है।”
जब्बार ने सुना और आह को सीने में दबाकर करवट बदल ली।
***
एकलौते बेटे का यूँ दिन-रात बिसूरना माँ-बाप से देखा न गया। बूढ़े ने कहा—“मेरा क्या है? पका फल हूँ! कब टपक पड़ूँ? जो कुछ है इसी के लिए है। रोज़ी का सहारा ये दो ऊँट हैं ये भी जाएँगे तो फिर ख़ुद ही फिरंगियों की सड़क पर रोड़ी कूटने की मज़दूरी करेगा। लोग यही कहेंगे कि गफ़्फ़ार का बेटा मज़दूरी करने लगा, सो इसकी क़िसमत! मैं क्या सदा बैठा रहूँगा?”
आख़िर दोनों ऊँट भी बन्नू के बाज़ार में बेच दिए गए और शब्बू जब्बार की बहू बन के घर आ गई।
शब्बू को इस बात का कम गर्व नहीं था कि उसकी क़ीमत गिन कर अढ़ाई सौ रुपए चुकाई गई है। पानी भरने जाती तो आधा ही घड़ा लेकर लौटती, वह भी लचकती, बलखाती। पड़ोस की मीरन ने समझाया—“ऐसा नख़रा ठीक नहीं। मर्दों को काम प्यारा होता है। किसी रोज़ ऐसी मार पड़ेगी कि कमर सदा को लचक जाएगी।”
अपनी कान तक फैली आँखें मटकाकर और हाथ का अँगूठा दिखाकर शब्बू ने कहा—“ओहो! मेरे बाप ने बारह बीसे और दस रुपए गिन कर मुझे मार खाने को ही तो यहाँ भेजा है? कोई मुझे हाथ तो लगाए? तेरा क्या है? तेरे मर्द ने तीन बीसे में तुझे लिया है।...लँगड़ी लूली हो जाएगी तो एक और सही।”
ग़ज़ब की शोख़ और शौक़ीन थी शब्बू! वह काले मख़मल की वास्कट पहरती जिसकी सिलाइयों पर सीप के तीन सौ बटन टँके थे। अपने बालों में मक्खन लगाती और बाहर जाने से पहले पानी का हाथ लगाकर उन्हें सवार लेती। महीने में दो-दो बेर अपने बाल धोती।
जब्बार की माँ यह सब देखती और नाक पर हाथ रख पढ़ोसिन से कहतीं—“देखो तो, अढ़ाई सौ रुपए देकर ब्याह किया पर मुझे क्या आराम मिला? इसे तो अपने नख़रों से ही छुट्टी नहीं।”
***
बूढ़े ने बेटे को समझाया “जवानी की तेरी उमर है। कुछ कमाई अब नहीं करेगा तो कैसे निबाह होगा। यूँ घर बैठा रहना क्या तुझे सोहाता है! रोज़ी का एक ज़रिया मेरे ऊँट थे, सो तेरे ब्याह में ख़तम हो गए। अब भी तू कुछ नहीं करेगा तो क्या मैं परदेस जाकर मज़दूरी करूँगा?
मन मार कर जब्बार को कमाई करने बन्नू जाना पड़ा, लेकिन मन उसका गाँव में ही रहता। पूरा सप्ताह जब्बार को बन्नू गए नहीं हुआ था कि वह शब्बू की याद से बेकल हो एक दिन आधी रात में उठ अपने गाँव को चल दिया।
सोलह मील चलकर जब उसे ऊषा की अस्पष्ट लाल आभा में पहाड़ी पर अपने गाँव की छतें दिखाई दीं तो वह ठिठक गया। अपने गाँव की क्रुद्ध मूर्ति और पड़ोसियों की लाँछना के विचार ने उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल दीं। वह एक चट्टान पर बैठ अपने घर के दरवाज़े की ओर देखने लगा। उसने सोचा—पानी भरने शब्बू निकलेगी तब वह उसे एक आँख देख सकेगा। बावड़ी पर चलकर बैठूँ, शब्बू पानी भरने आएगी तो उससे दो बातें करके लौट जाऊँगा।
शब्बू पानी लेने आई तो दो सहेलियों के साथ। जब्बार तीस क़दम पर एक पत्थर की ओट में बैठ धड़कते हुए दिल से देखता रहा पर एक शब्द बोल न सका। बोलता कैसे? वह दोनों पड़ोसिने बदनाम कर देतीं। दिल पर पत्थर रखे जब्बार देखता रहा, शब्बू सहेलियों से चुहल करती, मटकती लौट गई। जब्बार आहें भरता बन्नू लौट गया।
जब्बार के विरह की आग में ईर्षा का घी पड़ गया। उसने सोचा देखो, मैं यहाँ परदेश में अकेला मर रहा हूँ और वह मौज करती है। उसे मेरा ज़रा भी ग़म नहीं। औरत की ज़ात में वफ़ा नहीं होती।
आठ दस दिन बाद यह फिर रातों रात सफ़र कर शब्बू को एक पलक देख सकने और एक चुंबन पा सकने की आशा में गाँव की बावली पर आकर बैठ गया। परंतु वह अकेली नहीं आई। पड़ोस की तीन सहेलियों के साथ अठखेलियाँ करती आई। जब्बार उनकी बात को कान लगाकर सुन रहा था।
मीरन ने शब्बू की ठोड़ी छूकर कहा—“हाय रे तेरा नख़रा। गाँव के छैले तुझ पर जान दे रहे हैं, क़सम तेरे सिर की!”
शब्बू के चेहरे पर गर्व से सुरूर छा गया। वे पानी लेकर लौट गई। जब्बार की छाती पर मानो सौ मन का पत्थर आ गिरा, पर बेबस था।
अब उसके मन में संदेह का अंकुर और जमा। संदेह मनुष्य के हृदय में आकाश बेल की तरह बढ़ता है। उसके लिए जड़ या बुनियाद की भी ज़रूरत नहीं। वह कल्पना के आकाश में ही पुष्ट होता है। संदेह को निश्चय का रूप लेते भी देर नहीं लगती।
गाँव में ऐसे कई लौंडे लुँगाड़े थे, जिन्हें फ़ितूर के अलावा कुछ काम न था। रहमान और अब्बास से हर एक बात की आशा रखी जा सकती थी। और फिर यदि कुछ दाल में काला नहीं है तो मीरन ऐसी चर्चा क्यों कर रहीं थी? और शब्बू की यह चटक-मटक किसके लिए है? देखो, उसे मेरा ज़रा भी ग़म नहीं! और मैं मरा जा रहा हूँ! जब्बार लहू के घूँट पी-पी कर रह जाता।
उसने सोचा, रुपया कमाने के लिए ही तो वह घर से दूर यहाँ पड़ा है। यूँ आठ आने-दस आने रोज़ में रुपया नहीं कमाया जा सकता। घर लौटने की आग ने उसे बावला कर दिया। एक दिन मौक़ा देख उसने एक हाथ मार ही दिया। क़िसमत अच्छी थी। वह पकड़ा भी नहीं गया और डेढ़ सौ रुपया कमाकर डेढ़ महीने में घर लौट आया। जब्बार के बाप को हौसला हो गया, बेटा भूखा नहीं मरेगा।
***
जैसे नील का दाग़ कपड़े को नहीं छोड़ता वैसे ही जिस मन में संदेह एक बार प्रवेश कर जाता है, उसे छोड़ता नहीं। जब्बार ने शब्बू से पूछा—“क्यों? जब मैं बन्नू में था तो ख़ूब मज़े उड़ते थे?।”
शब्बू भी निरी मज़दूरिन न थी। चमक कर उसने पूछा—“कैसे मज़े? किससे मज़े उड़ते थे”
जब्बार ने कहा—“क्यों गाँव में क्या कम आदमी हैं! रहमान है, अब्बास है। ख़ूब बनाव-सिंगार से पानी लेने जाना होता था, क्यों?”
शब्बू ने कहा—“मैंने कभी किसी मरे की तरफ़ आँख उठाकर देखा हो तो मैं मर जाऊँ, नहीं मुझ पर झूठा इल्ज़ाम लगाने वाला मर जाए!”
जब्बार ने तड़प कर पूछा—“तू बन ठनकर अपना हुस्न दिखाने नहीं जाती थी?”
शब्बू ने उत्तर दिया—“मैं क्यों जाऊँगी दिखाने किसी को?...कोई मरा घूरा करे तो मेरा क्या क़सूर?”
जब्बार ने चुटिया कर पूछा—“तो तू यूँ बन ठनकर दिखाने को निकलती क्यों है?”
अपने सौंदर्य के अभिमान में सिर ऊँचा कर शब्बू ने कहा—“मैं क्या करती हूँ?... क्या मुँह काला कर लूँ?...मैं जैसी हूँ वैसी हूँ।”
जब्बार बड़े यत्न से शब्बू की चौकसी करने लगा। वह शब्बू से सौ क़दम दूर पर भी आदमी देख पाता तो उसे यही संदेह होता कि वह उससे आँख लड़ा रहा है। कुछ दिन में उसका खाना-पीना हराम हो गया। किसी मुसाफ़िर को गाँव से गुज़रते देखकर भी उसे यह शंका होती कि संभव है शब्बू के रूप की ख्याति सुनकर ही यह आदमी बहाने से इधर आया है। सारा गाँव उसे शब्बू के पीछे पागल दिखाई पड़ने लगा।
एक रात जब्बार ने शब्बू से पूछा—“आज तू बाहर से लौट रही थी तब राह में मुस्कुरा क्यों रही थी?”
उत्तर में शब्बू ने पूछा—“मैं कहाँ मुस्कुरा रही थी?”
जब्बार ने कहा—“और वे सब आदमी खड़े हुए क्यों देख रहे थे?”
अपने रूप की महिमा के संकेत से पुलकित होकर शब्बू ने उपेक्षा से उत्तर दिया—“मैं क्या जानूँ?”
शब्बू का मन गुदगुदा उठा। उसने कह दिया—“बारह बीसे और दस रुपए की नाक है!” और मन-मन मुस्कुराने लगी।
शब्बू सो गई। परंतु जब्बार की आँखों में नींद कहाँ। उसने पुकारा—“सुन तो!” उत्तर नदारद।
जब्बार ने सोचा—देखो तो घमंड इसका!...“मैं बेचैन पड़ा हूँ और यह मज़े में सो रही है। यह सब घमंड हुस्न का है। इसी हुस्न के पीछे गाँव के बदमाश पागल हैं। मेरी क्या आबरू है? अगर यह हुस्न न होता तो क्या मेरी आबरू यूँ मिट्टी में मिलती?...ऐसे हुस्न से क्या फ़ायदा?
गंभीर होकर इस समस्या पर विचार कर उसने सोचा—आबरू नहीं तो कुछ नहीं। और यह हुस्न तो सब लोग देखते हैं। मेरा इस पर क्या क़ब्ज़ा? जब तक यह हुसन रहेगा तब तक मुझे आबरू और चैन कहाँ मिल सकता है?
रात के सन्नाटे में जो विचार उठते हैं वे बहुत उग्र होते हैं। दिन की तरह उस समय विचारों को बाधित करने वाली सैंकड़ों उलझनें नहीं रहती। इसीलिए भक्त समाधि रात में लगाते हैं, क़ातिल क़त्ल रात में करते हैं और चोर चोरी रात में करते हैं और विरही भी रात में ही पागल हो उठते हैं।
जब्बार अँधेरे में आँख खोले शब्बू के रूप के कारण होने वाले सब अनर्थ पर विचार कर रहा था। वह अनर्थ उसे अपरिमेय जान पड़ा। उसे सहन करना बिलकुल संभव न था।
उसने सिरहाने से पैना छुरा उठाया और अँधेरे में टटोल कर शब्बू की नाक पकड़ ली। एक ही झटके में नाक काटकर उसने फेंक दी।
शब्बू चीख़ उठी। जब्बार की माँ उठकर दौड़ी। रोशनी जलाई गई। पड़ोस के लोग दौड़ आए। जब्बार का बाप ग़ुस्से में गालियाँ दे रहा था और दूसरे लोग इलाज बता रहे थे। एक बुढ़िया ने चिल्ला कर कहा—“अरे जल्दी से कोई भेड़ बकरी का ताज़ा, गर्म-गर्म, ज़िंदा गोश्त का टुकड़ा काटकर नाक पर रखो नहीं तो लड़की मर जाएगी!”
जब्बार की माँ ने घबराकर कहा—“इस वक़्त भेड़-बकरी कहाँ?” बुढ़िया ने उत्तर दिया—“तो तुम जानो।”
जब्बार खड़ा सुन रहा था। शब्बू की नाक उसने इसलिए काटी थी कि वह केवल उसी की होकर रहे। दूसरों की आँख उस पर पड़ना भी उसे सह्य न था। वह शब्बू को केवल अपने ही लिए रखना चाहता था। दूसरे की आँख उस पर पड़ने से उसके दिल पर घाव लगता था। उसके मर जाने की संभावना सुन उसका दिल दहल गया।
ज़िंदा गरम गोश्त नहीं मिलेगा तो क्या...! उसने वही पैना छुरा उठाया और अपनी जाँघ से ज़िंदा गरम गोश्त का टुकड़ा काट कर शब्बू की नाक पर धर दिया। जब्बार के माँ और बाप बिलकुल पागल हो बैठे और दूसरे लोग हैरान रह गए।
***
शब्बू चेहरे पर घाव के दर्द के मारे खाट पर पड़ी कराहती रहती और जब्बार जाँघ में पट्टी बाँधे खाट की पटिया पर बैठा शब्बू के चेहरे पर से मक्खियाँ हाँका करता। ज़ख़्म के कारण शब्बू का तमाम चेहरा सूझ गया। पानी का घूँट तक निगलना उसके लिए दूभर हो गया, तिस पर बुख़ार! यह हालत देखी तो जब्बार ने उसका इलाज बन्नू के फिरंगी डाक्टर वाले अस्पताल में कराने का निश्चय किया। स्वयं बड़ी कठिनाई से वह चल पाता था परंतु एक रात जब सब लोग सो रहे थे, उसने शब्बू को कंधे पर उठा लिया और बग़ल में लाठी ले वह बन्नू के लिए चल पड़ा।
वह कुछ दूर चलता और सुस्ता लेता। कपड़ा भिगोकर पानी की बूंदें शब्बू के मुँह में टपकाता जाता। पाँचवें दिन वे लोग बन्नू के अस्पताल में पहुँच गए। बीस रोज़ में शब्बू का ज़ख़्म भर पाया और उसकी तबीअत ठिकाने पाई।
***
नाक न रहने पर हवा होटों की अपेक्षा नाक के छेद से अधिक निकल जाती है और स्वर बिलकुल नक्की (प्लुत अनुस्वार) हो जाता है। उसी स्वर में मिनमिना कर शब्बू ने कहा—“मेम साहब कहती हैं विलायत से रबड़ की नाक मँगवाई जा सकती है।”
जब्बार ने घबराकर उत्तर दिया—“बस रहने दे। हमें नाक नहीं चाहिए। मुझे तू बिना नाक के ही भली मालूम होती है। मुझे क्या नाक औरों को दिखानी है?”
शब्बू उदास हो गई। उसने खाना खाने से इनकार कर दिया। जब्बार के लिए बड़ी भयंकर समस्या आ पड़ी। उसने सोचा बुरा हो इस मेम का। मैंने एक नाक काटी थी, वह दूसरी बनाने को तैयार है।
जब दो दिन शब्बू ने खाना नहीं खाया तो जब्बार ने रबड़ की नाक की क़ीमत चालीस रुपए डाक्टर के यहाँ जमा करादी। पर शर्त एक रही कि शब्बू नाक लगाएगी ज़रूर लेकिन ग़ैर मर्द अगर उसे घूरने लगे तो झट नाक उतार कर जेब में डाल ले।
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shabbu bhi niri mazdurin na thi chamak kar usne puchha—kaise maze? kisse maze uDte the
jabbar ne kaha—kyon ganw mein kya kam adami hain! rahman hai, abbas hai khoob banaw singar se pani lene jana hota tha, kyon?
shabbu ne kaha—mainne kabhi kisi sare ki taraf ankh uthakar dekha ho to main mar jaun, nahin mujh par jhutha ilazam lagane wala mar jaye!
jabbar ne taDap kar puchha—tu ban thankar apna husn dikhane nahin jati thee?
shabbu ne uttar diya—main kyon jaungi dikhane kisi ko? koi mara ghura kare to mera kya qasu?
jabbar ne chutiya kar puchha—to tu yoon ban thankar dikhane ko nikalti kyon hai?
apne saundarya ke abhiman mein sir uncha kar shabbu ne kaha—main kya karti hoon? kya munh kala kar loon? main jaisi hoon waisi hoon
jabbar baDe yatn se shabbu ki chaukasi karne laga wo shabbu se sau qadam door par bhi adami dekh pata to use yahi sandeh hota ki wo usse ankh laDa raha hai kuch din mein uska khana pina haram ho gaya kisi musafi ko ganw se guzarte dekhkar bhi use ye shanka hoti ki sambhaw hai shabbu ke roop ki khyati sunkar hi ye adami bahane se idhar aaya hai sara ganw use shabbu ke pichhe pagal dikhai paDne laga
ek raat jabbar ne shabbu se puchha—aj tu bahar se laut rahi thi tab rah mein muskura kyon rahi thee?
uttar mein shabbu ne puchha—main kahan muskura rahi thee?
jabbar ne kaha—aur we sab adami khaDe hue kyon dekh rahe the?
apne roop ki mahima ke sanket se pulkit hokar shabbu ne upeksha se uttar diya—main kaya janu?
honth katkar jabbar ne kaha—bahut ghamanD hoga husan ka! nak kat lunga?
shabbu ka man gudguda utha usne kah diya—barah bise aur das rupae ki mak hai! aur man man muskurane lagi
shabbu so gai parantu jabbar ki ankhon mein neend kahan usne pukara—“sun to! uttar nadarad
jabbar ne socha—dekho to ghamanD iska! main bechain paDa hoon aur ye maze mein so rahi hai ye sab ghamanD husn ka hai isi husn ke pichhe ganw ke badmash pagal hain meri kya aabru hai? agar ye husn na hota to kya meri aabru yoon mitti mein milti? aise husn se kya fayda?
gambhir hokar is samasya par wichar kar usne socha—abru nahin to kuch nahin aur ye husn to sab log dekhte hain mera is par kya qabza? jab tak ye husan rahega tab tak mujhe aabru aur chain kahan mil sakta hai?
raat ke sannate mein jo wichar uthte hain we bahut ugr hote hain din ki tarah us samay wicharon ko badhit karne wali sainkDon ulajhnen nahin rahti isiliye bhakt samadhi raat mein lagate hain, qatil qatl raat mein karte hain aur chor chori raat mein karte hain aur wirhi bhi raat mein hi pagal ho uthte hain
jabbar andhere mein ankh khole shabbu ke roop ke karan hone wale sab anarth par wichar kar raha tha wo anarth use aprimey jaan paDa use sahn karna bilkul sambhaw na tha
usne sirhane se paina chhura uthaya aur andhere mein tatol kar shabbu ki nak pakaD li ek hi jhatke mein nak katkar usne phenk di
shabbu cheekh uthi jabbar ki man uthkar dauDi raushani jalai gai paDos ke log dauD aaye jabbar ka bap ghusse mein galiyan de raha tha aur dusre log ilaj bata rahe the ek buDhiya ne chilla kar kaha—are jaldi se koi bheD bakri ka taza, garm garm, zinda gosht ka tukDa katkar nak par rakho nahin to laDki mar jayegi!
jabbar ki man ne ghabrakar kaha—is waqt bheD bakri kahan? buDhiya ne uttar diya—to tum jano
jabbar khaDa sun raha tha shabbu ki nak usne isliye kati thi ki wo kewal usi ki hokar rahe dusron ki ankh us par paDna bhi use saha na tha wo shabbu ko kewal apne hi liye rakhna chahta tha dusre ki ankh us par paDne se uske dil par ghaw lagta tha uske mar jane ki sambhawna sun uska dil dahal gaya
zinda garam gosht nahin milega to kya ! usne wahi paina chhura uthaya aur apni jaangh se zinda garam gosht ka tukDa kat kar shabbu ki nak par dhar diya jabbar ke man aur bap bilkul pagal ho baithe aur dusre log hairan rah gaye
***
shabbu chehre par ghaw ke dard ke mare khat par paDi karahti rahti aur jabbar jaangh mein patti bandhe khat ki patiya par baitha shabbu ke chehre par se makkhiyan hanka karta zakhm ke karan shabbu ka tamam chehra soojh gaya pani ka ghoont tak nigalna uske liye dubhar ho gaya, tis par bukhar! ye haalat dekhi to jabbar ne uska ilaj bannu ke phirangi Daktar wale aspatal mein karane ka nishchay kiya swayan baDi kathinai se wo chal pata tha parantu ek raat jab sab log so rahe the, usne shabbu ko kandhe par utha liya aur baghal mein lathi le wo bannu ke liye chal paDa
wo kuch door chalta aur susta leta kapDa bhigokar pani ki bunden shabbu ke munh mein tapkata jata panchawen din we log bannu ke aspatal mein pahunch gaye bees roz mein shabbu ka zakhm bhar paya aur uski tabiat thikane pai
***
nak na rahne par hawa hoton ki apeksha nak ke chhed se adhik nikal jati hai aur swar bilkul nakki (plut anuswar) ho jata hai usi swar mein minmina kar shabbu ne kaha—mem sahab kahti hain wilayat se rabaD ki nak mangwai ja sakti hai
jabbar ne ghabrakar uttar diya—bus rahne de hamein nak nahin chahiye mujhe tu bina nak ke hi bhali malum hoti hai mujhe kya nak auron ko dikhani hai?
shabbu udas ho gai usne khana khane se inkar kar diya jabbar ke liye baDi bhayankar samasya aa paDi usne socha bura ho is mem ka mainne ek nak kati thi, wo dusri banane ko taiyar hai
jab do din shabbu ne khana nahin khaya to jabbar ne rabaD ki nak ki qimat chalis rupae Daktar ke yahan jama karadi par shart ek rahi ki shabbu nak lagayegi zarur lekin ghair mard agar use ghurne lage to jhat nak utar kar jeb mein Dal le
laDke par jawani aati dekh jabbar ke bap ne paDos ke ganw mein ek laDki tajwiz kar li lekin jabbar ne hasba ki laDki shabbu ko jo pani bhar kar lautte dekha, to uski sudh budh jati rahi
jaise katha kahani mein kaha jata hai ki shahzada nadi mein bahta hua sone ka ek baal dekh sone ke keshdhari sundri ke prem se aahat mahl ki atari mein upwas kar let gaya tha; bahut kuch waisa hi haal jabbar ka bhi hua munh se to kuch kah na saka par shithil sharir, chehre ka rang uDa hua, kuch khoya khoya sa wo rahne laga
man bap ne uski haalat dekhkar salah ki munh dar munh nahin par use suna diya ki byah jaldi hi uska ho jayega laDki bhi bachcha nahin, bilkul jawan hai shamsal ki baDi beti jahunna aas pas ke chaar gawon mein ek hi laDki hai pani ka baDa matka sir par uthakar dhamakti do meel chali jati hai ghar bhar ka kaam sambhalti hai abhi se! yahan aa jayegi to jabbar ki man ko bhi chain milega buDhi ho gai bechari par jabbar ko isse kuch tasalli na hui wo aksar lambi lambi aahe khinchkar chupchap paDa rahta
ek roz man ne ankhon mein ansu bhar apni qas gharakar puchha—to usne sach kah diya jahunna ki baat sunne se bhi usne inkar karke kaha—yato hasba ki beti shabbu, nahin to bus! kuchh nahin
man bap ne bahut samjhaya use sunta dekhte to aapas mein jahunna ki tarif aur shabbu ki ninda karne lagte phir jo log aisi besharmi se byah karte hain unki kitni ninda hoti hai, ye sab we laDke ko kakokti, alankar aur rupak dwara samjhakar haar gaye par dhun ka pakka jabbar na mana to na mana
bete ki zidd se haar man buDha gaffar ek roz hasba se baat karne gaya jab bah lautkar aaya to krodh se uski ankhen lal aur glani se chehra wirup ho raha tha banduq kone mein rakh, kandhe ki chadar zamin par phenk wo zamin par hi baith gaya
jabbar ki man unton ko beri ki pattiyan khila rahi thi turant buDhe ke samip dauDi i jabbar door se hi utsuk kan lagaye tha buDha mano phat paDa—aise nalayaq bete se beaulad bhala!
jabbar ki man ne ghabrakar bete ki balayen apne sir lete hue nak par hath rakh kar puchha—hay hay! hua kya?
buDhe ne kaha—hoga kya? aise be sharm be ghairat laDke se aur hoga kya? tamam izzat khak mein mil gai aur ghar mitti mein mil jayega
man ne phir balayen lekar puchha—hay hua kya? aisa kyon kahte ho!
bap ne kaha—agar iske aise hi mizaj the to ye qalat ke khan ke yahan paida kyon nahin hua? janti hai, hasba ne kya kaha? sidhe munh se baat bhi na ki kahti hai, shabbu ki baat tum mat socho use wo byahega jo aDhai sau rupae ki gathri bandhakar layega
aDhai sau rupae ki baat sun jabbar ki man ki ankhen upar chaDh gai buDha bola—tu bhi buDhi ho gai tu hi bata tune kabhi aisa tufan suna hai; umar mein? aDhai sau rupae! koi cheez hi nahin hoti?
shamsal se mainne jahunna ke liye baat ki thi usne laDki ke assi mange the, akhir sath par taiyar hai uski laDki bhi ek adami hai aur wo badazat mangta hai—aDhai sau aur phir tu buDhi ho gai; tu hi batta, rang zara maila hua to kya, aur zara sajh hua to kya? aurat aurat sab ek tujhe apne kaam se matlab ki rang se? abhi chhः mahine nahin hue iske liye banduq kharidi thi to wo unt baincha tha aDai sau rupae umar bhar mein kama to payega nahin aur shan ye hai! achchha tu hi bata—itni buDhi hui, aDhai sau rupae kabhi aurat ke dam sune hain? aDhai sau rupae mein to phirangi ki top kharidi jati hai
jabbar ne suna aur aah ko sine mein dabakar karwat badal li
***
eklaute bete ka yoon din raat bisurna man bap se dekha na gaya buDhe ne kaha—mera kya hai? paka phal hoon! kab tapak paDun? jo kuch hai isi ke liye hai rozi ka sahara ye do unt hain ye bhi jayenge to phir khu hi phirangiyon ki saDak par roDi kutne ki mazduri karega log yahi kahenge ki gaffar ka beta mazduri karne laga, so iski qismat! main kya sada baitha rahunga?
akhir donon unt bhi bannu ke bazar mein bech diye gaye aur shabbu jabbar ki bahu ban ke ghar aa gai
shabbu ko is baat ka kam garw nahin tha ki uski qimat gin kar aDhai sau rupae chukai gai hai pani bharne jati to aadha hi ghaDa lekar lautti, wo bhi lachakti, bal khati paDos ki miran ne samjhaya—aisa nakhra theek nahin mardon ko kaam pyara hota hai kisi roz aisi mar paDegi ki kamar sada ko lachak jayegi
apni kan tak phaili ankhen matka kar aur hath ka angutha dikhakar shabbu ne kaha—oho! mere bap ne barah bise aur das rupae gin kar mujhe mar khane ko hi to yahan bheja hai? koi mujhe hath to lagaye? tera kya hai? tere mard ne teen bise mein tujhe liya hai langDi luli ho jayegi to ek aur sahi
ghazab ki shokh aur shauqin thi shabbu! wo kale makhmal ki waskat paharti jiski silaiyon par seep ke teen sau button tanke the apne balon mein makkhan lagati aur bahar jane se pahle pani ka hath lagakar unhen sawar leti mahine mein do do ber apne baal dhoti
jabbar ki man ye sab dekhti aur nak par hath rakh paDhosim se kahtin—dekho to, aDhai sau rupae dekar byah kiya par mujhe kya aram mila? ise to apne nakhron se hi chhutti nahin
***
buDhe ne bete ko samjhaya “jawani ki teri umar hai kuch kamai ab nahin karega to kaise nibah hoga yoon ghar baitha rahna kya tujhe sohata hai! rozi ka ek zariya mere unt the, so tere byah mein khat ho gaye ab bhi tu kuch nahin karega to kya main pardes jakar mazduri karunga?
man mar kar jabbar ko kamai karne bannu jana paDa, lekin man uska ganw mein hi rahta pura saptah jabbar ko bannu gaye nahin hua tha ki wo shabbu ki yaad se bekal ho ek din aadhi raat mein uth apne ganw ko chal diya
solah meel chalkar jab use usha ki aspasht lal aabha mein pahaDi par apne ganw ki chhaten dikhai deen to wo thithak gaya apne ganw ki kruddh murti aur paDosiyon ki lanchhana ke wichar ne uske pairon mein beDiyan Dal deen wo ek chattan par baith apne ghar ke darwaze ki or dekhne laga usne socha—pani bharne shabbu niklegi tab wo use ek ankh dekh sakega bawDi par chalkar baithu, shabbu pani bharne ayegi to usse do baten karke laut jaunga
shabbu pani lene i to do saheliyon ke sath jabbar tees qadam par ek patthar ki prot mein baith dhaDakte hue dil se dekhta raha par ek shabd bol na saka bolta kaise? wo donon paDosine badnam kar detin dil par patthar rakhe jabbar dekhta raha, shabbu saheliyon se chuhal karti, matakti laut gai jabbar ahen bharta bann laut gaya
jabbar ke wirah ki aag mein irsha ka ghi paD gaya usne socha dekho, main yahan pardesh mein akela mar raha hoon aur wo mauj karti hai use mera zara bhi gham nahin aurat ki zat mein wafa nahin hoti
ath das din baad ye phir raton raat safar kar shabbu ko ek palak dekh sakne aur ek chumban pa sakne ki aasha mein ganw ki bawli par aakar baith gaya parantu wo akeli nahin i paDos ki teen saheliyon ke sath athkheliyan karti i jabbar unki baat ko kan lagakar sun raha tha
miran ne shabbu ki thoDi chhukar kaha—hay re tera nakhra ganw ke chhaile tujh par jaan de rahe hain, qas tere sir kee!”
shabbu ke chehre par garw se surur chha gaya we pani lekar laut gai jabbar ki chhati par mano sau man ka patthar aa gira, par bebas tha
ab uske man mein sandeh ka ankur aur jama sandeh manushya ke hirdai mein akash bel ki tarah baDhta hai uske liye jaD ya buniyad ki bhi zarurat nahin wo kalpana ke akash mein hi pusht hota hai sandeh ko nishchay ka roop lete bhi der nahin lagti
ganw mein aise kai launDe lugaDe the, jinhen fitur ke alawa kuch kaam na tha rahman aur abbas se har ek baat ki aasha rakhi ja sakti thi aur phir yadi kuch dal mein kala nahin hai to miran aisi charcha kyon kar rahin thee? aur shabbu ki ye chatak matak kiske liye hai? dekho, use mera zara bhi gham nahin! aur main bhara ja raha hoon! jabbar lahu ke ghoont pi pi kar rah jata
usne socha, rupaya kamane ke liye hi to wo ghar se door yahan paDa hai yoon aath aane das aane roz mein rupaya nahin kamaya ja sakta ghar lautne ki aag ne use bawala kar diya ek din mauqa dekh usne ek hath mar hi diya qismat achchhi thi wo pakDa bhi nahin gaya aur DeDh sau rupaya kamakar DeDh mahine mein ghar laut aaya jabbar ke bap ko hausla ho gaya, beta bhukha nahin marega
***
jaise neel ka dagh kapDe ko nahin chhoDta waise hi jis man mein sandeh ek bar prawesh kar jata hai, use chhoDta nahin jabbar ne shabbu se puchha—kyon? jab main bannu mein tha to khoob maze uDte the?
shabbu bhi niri mazdurin na thi chamak kar usne puchha—kaise maze? kisse maze uDte the
jabbar ne kaha—kyon ganw mein kya kam adami hain! rahman hai, abbas hai khoob banaw singar se pani lene jana hota tha, kyon?
shabbu ne kaha—mainne kabhi kisi sare ki taraf ankh uthakar dekha ho to main mar jaun, nahin mujh par jhutha ilazam lagane wala mar jaye!
jabbar ne taDap kar puchha—tu ban thankar apna husn dikhane nahin jati thee?
shabbu ne uttar diya—main kyon jaungi dikhane kisi ko? koi mara ghura kare to mera kya qasu?
jabbar ne chutiya kar puchha—to tu yoon ban thankar dikhane ko nikalti kyon hai?
apne saundarya ke abhiman mein sir uncha kar shabbu ne kaha—main kya karti hoon? kya munh kala kar loon? main jaisi hoon waisi hoon
jabbar baDe yatn se shabbu ki chaukasi karne laga wo shabbu se sau qadam door par bhi adami dekh pata to use yahi sandeh hota ki wo usse ankh laDa raha hai kuch din mein uska khana pina haram ho gaya kisi musafi ko ganw se guzarte dekhkar bhi use ye shanka hoti ki sambhaw hai shabbu ke roop ki khyati sunkar hi ye adami bahane se idhar aaya hai sara ganw use shabbu ke pichhe pagal dikhai paDne laga
ek raat jabbar ne shabbu se puchha—aj tu bahar se laut rahi thi tab rah mein muskura kyon rahi thee?
uttar mein shabbu ne puchha—main kahan muskura rahi thee?
jabbar ne kaha—aur we sab adami khaDe hue kyon dekh rahe the?
apne roop ki mahima ke sanket se pulkit hokar shabbu ne upeksha se uttar diya—main kaya janu?
honth katkar jabbar ne kaha—bahut ghamanD hoga husan ka! nak kat lunga?
shabbu ka man gudguda utha usne kah diya—barah bise aur das rupae ki mak hai! aur man man muskurane lagi
shabbu so gai parantu jabbar ki ankhon mein neend kahan usne pukara—“sun to! uttar nadarad
jabbar ne socha—dekho to ghamanD iska! main bechain paDa hoon aur ye maze mein so rahi hai ye sab ghamanD husn ka hai isi husn ke pichhe ganw ke badmash pagal hain meri kya aabru hai? agar ye husn na hota to kya meri aabru yoon mitti mein milti? aise husn se kya fayda?
gambhir hokar is samasya par wichar kar usne socha—abru nahin to kuch nahin aur ye husn to sab log dekhte hain mera is par kya qabza? jab tak ye husan rahega tab tak mujhe aabru aur chain kahan mil sakta hai?
raat ke sannate mein jo wichar uthte hain we bahut ugr hote hain din ki tarah us samay wicharon ko badhit karne wali sainkDon ulajhnen nahin rahti isiliye bhakt samadhi raat mein lagate hain, qatil qatl raat mein karte hain aur chor chori raat mein karte hain aur wirhi bhi raat mein hi pagal ho uthte hain
jabbar andhere mein ankh khole shabbu ke roop ke karan hone wale sab anarth par wichar kar raha tha wo anarth use aprimey jaan paDa use sahn karna bilkul sambhaw na tha
usne sirhane se paina chhura uthaya aur andhere mein tatol kar shabbu ki nak pakaD li ek hi jhatke mein nak katkar usne phenk di
shabbu cheekh uthi jabbar ki man uthkar dauDi raushani jalai gai paDos ke log dauD aaye jabbar ka bap ghusse mein galiyan de raha tha aur dusre log ilaj bata rahe the ek buDhiya ne chilla kar kaha—are jaldi se koi bheD bakri ka taza, garm garm, zinda gosht ka tukDa katkar nak par rakho nahin to laDki mar jayegi!
jabbar ki man ne ghabrakar kaha—is waqt bheD bakri kahan? buDhiya ne uttar diya—to tum jano
jabbar khaDa sun raha tha shabbu ki nak usne isliye kati thi ki wo kewal usi ki hokar rahe dusron ki ankh us par paDna bhi use saha na tha wo shabbu ko kewal apne hi liye rakhna chahta tha dusre ki ankh us par paDne se uske dil par ghaw lagta tha uske mar jane ki sambhawna sun uska dil dahal gaya
zinda garam gosht nahin milega to kya ! usne wahi paina chhura uthaya aur apni jaangh se zinda garam gosht ka tukDa kat kar shabbu ki nak par dhar diya jabbar ke man aur bap bilkul pagal ho baithe aur dusre log hairan rah gaye
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shabbu chehre par ghaw ke dard ke mare khat par paDi karahti rahti aur jabbar jaangh mein patti bandhe khat ki patiya par baitha shabbu ke chehre par se makkhiyan hanka karta zakhm ke karan shabbu ka tamam chehra soojh gaya pani ka ghoont tak nigalna uske liye dubhar ho gaya, tis par bukhar! ye haalat dekhi to jabbar ne uska ilaj bannu ke phirangi Daktar wale aspatal mein karane ka nishchay kiya swayan baDi kathinai se wo chal pata tha parantu ek raat jab sab log so rahe the, usne shabbu ko kandhe par utha liya aur baghal mein lathi le wo bannu ke liye chal paDa
wo kuch door chalta aur susta leta kapDa bhigokar pani ki bunden shabbu ke munh mein tapkata jata panchawen din we log bannu ke aspatal mein pahunch gaye bees roz mein shabbu ka zakhm bhar paya aur uski tabiat thikane pai
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nak na rahne par hawa hoton ki apeksha nak ke chhed se adhik nikal jati hai aur swar bilkul nakki (plut anuswar) ho jata hai usi swar mein minmina kar shabbu ne kaha—mem sahab kahti hain wilayat se rabaD ki nak mangwai ja sakti hai
jabbar ne ghabrakar uttar diya—bus rahne de hamein nak nahin chahiye mujhe tu bina nak ke hi bhali malum hoti hai mujhe kya nak auron ko dikhani hai?
shabbu udas ho gai usne khana khane se inkar kar diya jabbar ke liye baDi bhayankar samasya aa paDi usne socha bura ho is mem ka mainne ek nak kati thi, wo dusri banane ko taiyar hai
jab do din shabbu ne khana nahin khaya to jabbar ne rabaD ki nak ki qimat chalis rupae Daktar ke yahan jama karadi par shart ek rahi ki shabbu nak lagayegi zarur lekin ghair mard agar use ghurne lage to jhat nak utar kar jeb mein Dal le
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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