उन लोगों ने निमंत्रण पत्र भेजकर पत्रकारों को न्यौता दिया था कि सप्ताहांत पर वे आएँ और स्वयं अपनी आँखों से देखें कि सरकार के प्रति जनता का समर्थन कितना ज़बर्दस्त है। शायद वे साबित करना चाहते थे कि उस अशांत प्रदेश के बारे में जो कुछ लिखा जा रहा था, वह सब झूठ था; किसी को भी वहाँ ‘टॉर्चर’ नहीं किया जा रहा था। ग़रीबी पूरी तरह हट चुकी थी और सबसे ज़रूरी, स्वतंत्रता संग्राम जैसी किसी आग का कोई नामोनिशान तक वहाँ मौजूद नहीं था। लिहाज़ा काफ़ी शालीनता के साथ उन्होंने हमें बुलाया और जब निर्धारित समय पर ऑपेरा हाउस की बिल्डिंग के पिछवाड़े में हम पहुँचे तो सम्भ्रांत वेशभूषा वाले एक मृदु-भाषी अधिकारी ने हमारी अगवानी की। फिर वह हमें अपने साथ सरकारी बस की ओर ले चला।
बस के भीतर ताज़े वार्निश और महँगे चमड़े की गंध थी। स्पीकर पर हल्का-हल्का संगीत बज रहा था। बस चली तो उस अधिकारी ने क्लिप पर टँगा माइक्रोफ़ोन निकाला और उसकी चमकदार जाली को अपने नाखूनों से खरोंचकर साफ़ करते हुए विनम्रतापूर्वक दुबारा हम सबका स्वागत किया। “मेरा नाम गारेक है!” उसके स्वर में संकोच था। फिर एक-के-बाद-एक उसने शहर के मुख्य आकर्षणों के नाम दोहराए, वहाँ के सार्वजनिक पार्कों की संख्या का ब्यौरा दिया और उँगली के इशारे से हमें यह जानकारी दी कि सामने पहाड़ी पर जहाँ धूप दिखाई देती है, वहाँ सरकार एक आदर्श आवासीय कॉलोनी का निर्माण करने वाली है।
शहर से बाहर निकलने के बाद सड़क दो शाखों में बँट गई और हम घूमकर समुद्र की विपरीत दिशा में, प्रदेश के अंदरूनी इलाके की ओर बढ़ गए, जहाँ पथरीले मैदान और मटमैली खाइयाँ थीं। घाटी के निचले, सपाट हिस्से पर कुछ दूर जाने के बाद हमने सूखी नदी पर बने एक पुल को पार किया, जहाँ एक नौजवान सिपाही अपने हाथ में एक हल्की ‘सब मशीनगन’ थामे लापरवाही से खड़ा था। हमें देखकर उसने जिन्दादिली से हाथ हिलाया। सूखी नदी की तलहटी में गोल-गोल चिकने पत्थरों के बीच दो और सिपाही खड़े थे। गारेक ने बताया कि वह इलाका निशानेबाज़ी की ट्रेनिंग के लिए काफ़ी लोकप्रिय था।
लंबे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों से ऊपर चढ़ते हुए हम एक गर्म और ख़ुश्क मैदान में निकल आए। खिड़की से भीतर आती खड़िया के चूरे जैसी महीन धूल से हमारी आँखें जलने लगीं और होंठों पर खड़िया का-सा स्वाद उभर आया। हमने अपने कोट उतार दिए। सिर्फ़ गारेक अपना कोट पहने रहा। उसने अब भी माइक्रोफ़ोन हाथ में पकड़ा हुआ था और सौम्य आवाज़ में वह इन बेजान, बंजर मैदानों में पैदावार उगाने की सरकारी योजनाओं के बारे में बता रहा था। मैंने देखा, मेरे साथ बैठे शख़्स ने अपना सिर पीछे टिकाकर आँखें बंद कर ली थीं। उसके होंठ चिकनी मिट्टी से पीले होकर सूख गए थे और सामने चमकदार रेलिंग पर कसे उसके हाथों पर नीली नसें उभर आई थीं। मैंने उसे कुहनी मारकर उठा देने की सोची, क्योंकि ‘रियर व्यू’ के शीशे में से दिखाई देती गारेक की आँखें रह-रहकर हम दोनों पर ठहर जाती थीं। लेकिन अभी मैं इस तजवीज़ के बारे में सोच ही रहा था कि गारेक उठा और मुस्कुराहट भरे चेहरे के साथ सीटों के बीच के पतले गलियारे से होता हुआ वह सबको पुआल की बनी टोपियाँ और बर्फ़ीली कोल्ड ड्रिंक्स के गिलास बाँटने लगा।
दोपहर के आसपास हम एक गाँव से गुज़रे। यहाँ सभी खिड़कियाँ लकड़ी की पेटियों से जोड़े गए तख्तों पर कीलें ठोंककर बंद कर दी गई थीं। टहनियों को गूँथकर बनाई गई मेंड़ें जगह-जगह आँधी से टूट चुकी थीं और साबुत-सलामत हिस्सों में भी अनगिनत सुराख़ नज़र आते थे। सपाट छतें वीरान थीं और कहीं भी कपड़े नहीं सूख रहे थे। कुआँ पतरे से ढँका हुआ था और ताज्जुब की बात है कि हमारे पीछे कहीं से भी न तो कुत्ते ही भौंके और न ही कोई शख़्स वहाँ नज़र आया। बिना रफ़्तार धीमी किये, अपने पीछे आत्मसमर्पण के झंडे का-सा सफ़ेद ग़ुबार छोड़ती हमारी बस झन्नाटे के साथ आगे निकल गई।
गारेक इस बीच फिर से सीटों के बीच के गलियारे में आगे बढ़ता हुआ सबको सैंडविच बाँटने लगा था। साथ ही वह हमारा हौसला भी बढ़ाता जाता कि बस अब ज़्यादा दूर नहीं है, मंज़िल आई ही समझो! खिड़की के बाहर अब यहाँ-वहाँ बड़ी-बड़ी चट्टानों और बदरंग झाड़ियों से ढँका पहाड़ी इलाक़ा दिखाई देने लगा था। सड़क नीचे की ओर उतरती गई और हम एक सुरंगनुमा खाई के बीच से गुज़रने लगे। बारूद लगाने के अर्धवृत्ताकर छंदों से चट्टान की सतह पर आड़ी-तिरछी परछाइयाँ बन रही थीं। बस के भीतर गर्मी बर्दाश्त के बाहर हो चुकी थी। तभी सड़क चौड़ी होकर फैल गई और हमने पाया कि हम नदी के कटाव से बनी एक घाटी और घाटी के सिरे पर बसे एक छोटे से गाँव के क़रीब आ पहुँचे हैं।
गारेक ने हाथ से इशारा किया कि यहीं हमें उतरना है। हमने दुबारा अपने कोट पहन लिए। बस धीमी होती हुई सफेदी पुती एक साफ़-सुथरी झोंपड़ी के सामने फैले कच्चे चौक में जा खड़ी हुई। झोंपड़ी की सफ़ेदी इस कदर चमकदार थी कि बस से उतरते हुए वह हमें अपनी आँखों में चुभती हुई-सी लगी। एक ओर सिगरेटें झाड़ते हुए हम बस की छाया में खड़े हो गए। आँखें छोटी करते हुए हमने एक नज़र झोंपड़ी पर डाली और उसके बाद गारेक के लौटने का इंतज़ार करने लगे, जो बस से उतरने के बाद झोंपड़ी के भीतर ग़ायब हो गया था। गारेक को लौटने में कुछ मिनट लगे। जब वह बाहर आया तो उसके साथ एक और शख़्स था, जिसे हमने इससे पहले कभी नहीं देखा था।
“ये मिस्टर बेला बोंजो है!” गारेक ने उस आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, “वे अपने घर में कुछ काम कर रहे थे, लेकिन फिर भी आप इनसे जो सवाल चाहें पूछ सकते हैं।”
हम सब काफ़ी बेबाकी के साथ बोंजो की ओर देखने लगे। हमारी तलाशती हुई निगाहों को झेलते हुए उसका सिर कुछ झुक-सा गया। उसका बूढ़ा चेहरा राख हो चुका था और गर्दन पर गहरी स्याह रेखाएँ थीं। हमने गौर किया कि उसका ऊपरी होंठ कुछ सूजा हुआ था। उसे शायद घर के किसी काम के बीच अचानक हड़बड़ा दिया गया था और अब वह जल्दी-जल्दी अपने बालों के बीचोंबीच कंघी फिरा चुकने के बाद हमारे सामने प्रस्तुत था। उसकी गर्दन पर बने उस्तरे के ताजा निशान बता रहे थे कि उसने जल्दबाज़ी में किसी खुरदुरे ब्लेड के साथ मुकम्मल दाढ़ी बनाई है। ताज़ा सूती क़मीज़ के नीचे उसने किसी और के नाप वाली बेढंगी पतलून पहन रखी थी, जो बमुश्किल उसके घुटनों तक आती थी। पैरों में कच्चे बदरंग चमड़े के नए जूते थे, जैसे रंगरूटों को ट्रेनिंग के दौरान मिलते हैं।
हम सबने ‘हेलो!’ कहते हुए बारी-बारी से उसके साथ हाथ मिलाया। वह सिर हिलाता रहा और फिर उसने हमें घर के भीतर आने का न्यौता दिया। ‘पहले आप’ वाले अंदाज़ में उसने हमें आगे निकलने को कहा और हम दहलीज़ को पार करते हुए एक बड़े से कमरे में आ गए, जहाँ एक बूढ़ी औरत हमारा इंतज़ार कर रही थी। कमरे की मरियल रोशनी में हमें उसके चेहरे की जगह सिर्फ़ उसका शॉल दिखाई दिया। आगे बढ़कर उसने हमें अपनी मुट्ठियों के आकार का एक अजीब-सा फल खाने को दिया, जिसका गूदा इस कदर सुर्ख लाल था कि हमें लगा, हम किसी ताज़े ज़ख़्म में अपने दाँत गड़ा रहे हैं।
कमरे से वापस हम उसी कच्चे चौक में निकल आए, जहाँ अब बहुत से अधनंगे बच्चे हमारी बस के गिर्द इकट्ठे हो गए थे। बोंजो की ओर गौर से देखती उनकी निगाहों में पैनापन था, हालाँकि वे अपनी जगह से हिले-डुले बग़ैर ख़ामोश खड़े थे और उनमें से किसी का भी ध्यान हमारी ओर नहीं था। एक अजीब आत्मतृप्त भाव से उनकी ओर देखते हुए बोंजो मुस्कुरा दिया।
“तुम्हारे बच्चे हैं?” हमारे साथी पॉटगीजर ने कुछ रुककर पूछा।
इस पहले सवाल पर खीसें निपोरते हुए बोंजो ने उत्तर दिया, “हाँ, एक बेटा है। लेकिन उससे हमारा कोई संबंध नहीं! सरकार का विरोधी होने के साथ ही वह आलसी और निकम्मा भी था। बड़ा आदमी बनने के लालच में उसने आतंकवादियों का साथ दिया, जो इन दिनों हर जगह गड़बड़ी फैला रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे चीजों को बेहतर ढंग से चला सकते हैं और इसीलिए वे सरकार से लड़ रहे हैं।” उसकी आवाज़ में गहरा आत्मविश्वास और एक सहज विश्वसनीयता थी। जब वह बोल रहा था तो मैंने गौर किया कि उसके सामने के दाँत नहीं हैं।
“हो सकता है कि चीज़ों को बेहतर ढंग से चला सकने का उनका दावा सचमुच सही हो!” पॉटगीजर ने कहा।
इस पर गारेक विनोद-भाव से मुस्कुराया। लेकिन बोंजो ने कहा, “हर हालत में सरकार का बोझ, चाहे वह हल्का हो या भारी, हम जनता के लोगों को ही उठाना होता है। यह सरकार जैसी भी हो, हमारी पहचानी हुई है। लेकिन उधर के लोगों के पास तो सिर्फ़ वादे हैं।’
बच्चों ने अर्थपूर्ण ढंग से एक-दूसरे की ओर देखा।
“लेकिन उनका सबसे बड़ा वादा तो आज़ादी दिलाने का है।” मेरा दोस्त ब्लीगुथ बोला।
“आज़ादी को लेकर आप क्या चाटिएगा?” बोंजो ने मुस्कुराकर कहा, “ऐसी आज़ादी किस काम की, जिससे पूरा देश ग़रीबी की चपेट में आ जाए? इस सरकार के बूते पर हमारे विदेशी निर्यात क़ायम हैं। इसने सड़कें, अस्पताल और स्कूल बनाए हैं। ऊसर ज़मीन पर खेती की शुरुआत की है और आगे भी खेती पर इसका ख़ास ज़ोर रहेगा। और इसने हमें वोट डालने का अधिकार भी दिया है!”
बच्चों में एक लहर-सी दौड़ गई और वे एक-दूसरे का हाथ पकड़कर दो क़दम आगे आ गए। बोंजो ने अपनी गर्दन झुकाई और वह दुबारा उसी अजीब से आत्मतृप्त भाव से मुस्कुराया। फिर सिर उठाकर उसने गारेक की ओर देखा, जो हमारे पीछे कुछ फासले पर चुपचाप खड़ा था।
“सच कहा जाए तो...” बोंजो ख़ुद-ब-ख़ुद बोलता चला गया, “...आज़ादी के लिए एक ख़ास तरह की तैयारी और परिपक्वता की ज़रूरत होती है। आज अगर आज़ादी मिल भी जाए तो हमें समझ में नहीं आएगा कि उसका क्या करें? आम जनता के बारे में भी वही परिपक्वता वाली बात सही लगती है। हम अभी बालिग उम्र तक नहीं पहुँचे हैं। और मैं इस सरकार की दाद देता हूँ कि इसने इस वर्तमान नाबालिग हालत में हमें अपने ख़ुद के हाल पर नहीं छोड़ रखा है, बल्कि सच कहूँ तो मैं तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ इस सरकार का...”
गारेक मुड़कर बस की ओर चला गया। बोंजो बहुत सावधानी से उसकी ओर देखता रहा, जब तक कि बस का भारी दरवाज़ा बंद नहीं हो गया और हम मिट्टी से लीपे गए उस चौक में अकेले नहीं रह गए। इस अकेलेपन के प्रति आश्वस्त होते ही रेडियो रिपोर्टर फिंके जल्दी से बोंजो की ओर मुड़ा और उसने तेज़ी से सवाल किया, “अब असली माज़रा बताओ, जल्दी! अब हम अकेले हैं!”
बोंजो ने थूक निगली और फिर फिंके की ओर कुछ नाराज़गी भरे आश्चर्य से देखते हुए वह धीरे से बोला, “माफ़ कीजिएगा, मैं समझा नहीं आपका सवाल...”
“अब हम साफ-साफ बात कर सकते हैं!” फिंके ने हड़बड़ाते हुए कहा।
“साफ़-साफ़ बात कर सकते हैं!” बोंजो ने काफ़ी सावधानी के साथ सवाल को दोहराया और फिर उसके चेहरे पर हँसी फैल गई। उसके सामने के दाँतों के बीच की ख़ाली जगह अब बख़ूबी देखी जा सकती थी।
“मैं आपसे साफ़-साफ़ ही कह रहा था। मैं और मेरी पत्नी—हम दोनों इस सरकार के समर्थक हैं। हमने अब तक जो कुछ भी हासिल किया है, उसमें सरकार का बहुत बड़ा हाथ रहा है और इसके लिए हम उनके आभारी हैं। और आप तो जानते ही होंगे कि आजकल किसी सरकार के प्रति आभार जताने लायक कुछ भी हासिल करना कितना मुश्किल होता है। मैं ही नहीं, मेरे पड़ोसी, और सामने खड़े वे सारे बच्चे और इस गाँव का एक-एक आदमी, हम सब इस सरकार के आभारी हैं। आप जाकर किसी भी घर का दरवाज़ा खटखटा लें, आपको पता चल जाएगा कि सब लोग इस सरकार के कितने आभारी हैं।”
इस पर दुबला-पतला नौजवान पत्रकार गम अचानक आगे बढ़ आया और उसने फुसफुसाहट भरे स्वर में बोंजो से सवाल किया, “मुझे जानकार सूत्रों से पता चला है कि तुम्हारा बेटा पकड़ लिया गया है और शहर में उसे ‘टॉर्चर’ किया जा रहा है। इस पर तुम्हें क्या कहना है?”
बोंजो ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसकी पलकों पर धूल की मटमैली सफ़ेदी थी। फिर अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए उसने जवाब दिया, “जब वह मेरा बेटा ही नहीं है, तो उसे ‘टॉर्चर’ कैसे किया जा सकता है? मैं आपसे फिर कहता हूँ कि हम इस सरकार का समर्थन करते हैं और मैं इनका दोस्त हूँ!”
उसने एक मुड़ी-तुड़ी, हाथ से बनाई बीड़ी सुलगा ली और तेज़ी से उसके कश खींचते हुए बस के दरवाज़े की ओर देखने लगा, जो अब तक खुल चुका था। गारेक बस से उतरकर हमारी ओर आया और उसने पूछा कि सब कैसा चल रहा है। बोंजो पहले अपनी एड़ियों और फिर पंजों पर ज़ोर देते हुए आगे-पीछे झूलने लगा। गारेक की वापसी के बाद से उसे काफ़ी राहत महसूस होने लगी थी और वह बेहद प्रसन्नभाव से हमारे सभी प्रश्नों के विस्तृत उत्तर देता रहा। बीच-बीच में वह अपने दाँतों की खाली जगह से बीड़ी का धुँआ छोड़कर नि:श्वास लेता।
कंधे पर एक बड़ी-सी हँसिया लिए हुए एक आदमी हमारे क़रीब से गुज़र रहा था। बोंजो ने हाथ के इशारे से उसे उधर आने को कहा। पैर पटकता हुआ वह आदमी पास आया तो बोंजो ने उससे वे सारे सवाल किये, जो हमने उससे पूछे थे। कुछ नाराज़गी से उस आदमी ने अपना सिर हिलाया। जी नहीं, वह जी जान से इस सरकार का समर्थन करता था। सरकार के प्रति उसकी वफ़ादारी के पूरे बयान को बोंजो काफ़ी विजय-भाव से सुनता रहा। फिर दोनों आदमियों ने हमारे सामने अपने हाथ मिलाए, गोया कि सरकार के साथ अपने साँझे रिश्ते पर वे विश्वसनीयता की मुहर लगा रहे हों।
अलविदा कहते हुए हम सब भी बारी-बारी से बोंजो से हाथ मिलाने लगे। मेरा नंबर आख़िरी था। जब मैंने उसके सख्त, खुरदुरे हाथ को अपनी उँगलियों से दबाया तो अचानक हथेली पर काग़ज़ की एक गोली का दबाव महसूस हुआ। फ़ुर्ती से उँगलियाँ मोड़ते हुए मैंने उसे वापस खींचा और जब हम बस की ओर मुड़े तो मैंने चुपचाप उस गोली को जेब में डाल लिया। बीड़ी के सुट्टे लगाता हुआ बेला बोंजो उसी तरह वहाँ चौक में खड़ा था। जब बस चलने को हुई तो उसने अपनी पत्नी को भी बाहर बुला लिया और वे दोनों उस हँसिया वाले आदमी और उन बच्चों के साथ खड़े, पहाड़ी की पथरीली चढ़ाई पर घूमती बस की ओर अविचलित भाव से देखते रहे।
हम उसी रास्ते से वापस लौटने की जगह और आगे चलते गए, जब तक कि हमारा रास्ता एक रेलवे लाइन के समानांतर चलती बजरी और रेत की एक सड़क से नहीं मिल गया। इस पूरी यात्रा के दौरान मेरा हाथ अपने कोट की जेब में घुसा हुआ था और मेरी उँगलियों के बीच थी काग़ज़ की वह गोली, जो इतनी सख्त थी कि उसे नाख़ून से दबाना तक असंभव था। काग़ज़ को कोट की जेब से बाहर निकालना खतरे से खाली नहीं था, क्योंकि गारेक की उदास आँखें रियर व्यू’ के शीशे से होती हुई बार-बार हम पर आकर ठहर जाती थीं। उस मुर्दा ज़मीन पर एक अजीबोग़रीब छाया हमारे सिर के ऊपर से गुज़री और इसके साथ ही पंखों के घूमने की आवाज़ के बीच हमें रेलवे लाइन के ऊपर एक हवाई जहाज़ बहुत नीचे शहर की दिशा में उड़ता हुआ दिखाई दिया। क्षितिज तक पहुँचने के बाद हवाई जहाज़ घूमा और दुबारा झन्नाटे के साथ हमारे सिर के ऊपर से गुज़रा। फिर उसके बाद देर तक वह हमारे साथ ही बना रहा।
काग़ज़ की उस गोली को अपने हाथ में दबाते हुए मुझे बेला बोंजो का ख़याल आया और मुझे अपनी हथेली पर एक नमी-सी महसूस हुई। रेलवे लाइन के दूसरे सिरे से कोई चीज़ हमारे पास आती दिखाई दे रही थी। जब वह एकदम क़रीब आ गई तो हमने देखा कि वह एक रेलवे हाथगाड़ी थी, जिस पर बहुत सारे नौजवान सिपाही बैठे थे। उन्होंने हवा में मशीनगनें हिलाते हुए हमारा स्वागत किया। मैंने सावधानी से काग़ज़ की उस गोली को कोट से निकालकर अपनी चोर जेब में डाला और ऊपर से बटन बंद कर दिया। इसके साथ ही मुझे दुबारा सरकार के दोस्त बेला बोंजो का चेहरा याद हो गया। अपनी आँखों के सामने मैंने कच्चे चमड़े से बने उसके मटमैले जूतों, उसके चेहरे की स्वप्निल मुस्कुराहट और बोलते समय नज़र आती उसके दाँतों के बीच की ख़ाली जगह को देखा। हममें से किसी को भी शक नहीं था कि बोंजो के रूप में सरकार को एक सच्चा समर्थक मिल गया था...
समुद्र के किनारे से होते हुए हम वापस शहर लौट आए। पथरीले किनारे पर सिर पटकती लहरों के लंबे नि:श्वास हवा के झोंकों पर सवार होकर लगातार हम तक पहुँचते रहे। ऑपेरा हाउस पर हम बस से उतरे तो गारेक ने शिष्टतापूर्वक हम सबसे विदा ली। मैं होटल तक अकेला लौटा, लिफ़्ट से अपने कमरे तक गया और दरवाज़ा बंद करने के बाद बाथरूम में मैंने सरकार के उस समर्थक द्वारा ख़ुफ़िया तौर पर थमायी गई काग़ज़ की उस गोली को सावधानी से खोला। लेकिन पूरा काग़ज़ ख़ाली था, उस पर न कोई शब्द लिखा था और न ही वहाँ कोई चिह्न बना था। और तब मैंने देखा कि उसी काग़ज़ में लिपटा हुआ था कत्थई रंग का एक टूटा हुआ दाँत, जिस पर बने तंबाकू के दाग़ को देखते हुए अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि यह दाँत किसका हो सकता है!