गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफ़िर नहीं थे। मेरे सामने वाली सीट पर बैठे सरदारजी देर से मुझे लाम के क़िस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फ़ौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने हुए ऊपर वाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथ वाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मज़ाक़ चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहने वाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक़्त वे आपस में, पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाईं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठी थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है, दो-एक और मुसाफ़िर भी रहे हों। पर वे स्पष्टतः मुझे याद नहीं।
गाड़ी धीमी रफ़्तार से चली जा रही थी; और गाड़ी में बैठे मुसाफ़िर बतिया रहे थे, और बाहर गेहूँ के खेतों में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन ही मन बड़ा ख़ुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होने वाला 'स्वतंत्रता दिवस समारोह' देखने जा रहा था।
उन्हीं दिनों पाकिस्तान के बनाए जाने का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी। पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी। मेरे सामने बैठे सरदारजी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहब बंबई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जाकर बस जाएँगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता, “बंबई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बंबई छोड़ देने में क्या तुक है।” लाहौर और गुरदासपुर के बारे में अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा। मिल बैठने के ढंग में, गप-शप में, हँसी-मज़ाक़ में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़कर जा रहे थे, जबकि अन्य लोग उनका मज़ाक़ उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था कि कौन-सा क़दम ठीक होगा और कौन-सा ग़लत! एक और पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिंदुस्तान के आज़ाद हो जाने का जोश। जगह-जगह दंगे हो रहे थे और कौम-ए-आज़ादी की तैयारियाँ भी चल रही थीं। इस पृष्ठभूमि में लगता, देश आज़ाद हो जाने पर दंगे अपने-आप बंद हो जाएँगे। वातावरण के इस झुटपुटे में आज़ादी की सुनहरी धूल-सी उड़ रही थी। और साथ ही साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक़्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती थी।
शायद जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था, जब ऊपरवाली बर्थ पर बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें से उबला हुआ माँस और नान-रोटी के टुकड़े निकाल-निकालकर अपने साथियों को देने लगा। फिर वह हँसी-मज़ाक़ के बीच मेरी बग़ल में बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और माँस की बोटी बढ़ाकर खाने का आग्रह करने लगा था, खा ले बाबू, ताक़त आएगी। हम जैसा हो जाएगा। बीवी भी तेरे साथ ख़ुश रहेगी। खा ले दाल-खोर, तू दाल खाता है इसलिए दुबला है...
डिब्बे में लोग हँसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कुराता सिर हिलाता रहा।
इस पर दूसरे पठान ने हँसकर कहा, ओ ज़ालिम, अमारे आथ से नई लेता ऐ तो अपने आथ से उठा ले। ख़ुदा क़सम बर का गोश्त ऐ, और किसी चीज़ का नई ऐ।
ऊपर बैठा पठान चहक कर बोला, “ओ खंजीर के तुख़्म, इधर तुमें कोन देखता ए? हम तेरी बीवी को नई बोलेगा। ओ तू अमारे साथ बोटी तोड़। हम तेरे साथ दाल पिएँगा...
इस पर कहकहा उठा, पर दुबला-पतला बाबू हँसता सिर हिलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता।
ओ कितना बुरा बात ए, अम खाता ए और तू हमारा मुँह देखता ए... सभी पठान मगन यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं। स्थूलकाय सरदारजी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे। अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदारजी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही थी, तुम अभी सोकर उठे हो और उठते ही पोटली खोलकर खाने लग गए हो, इसीलिए बाबूजी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं। और सरदाजी ने मेरी ओर देखकर आँख मारी और फिर खी-खी करने लगे।
माँस नई खाता ए बाबू, तो जाओ जनाना डब्बे में बैठो, इधर क्या करता ए? फिर कहकहा उठा।
डब्बे में और भी मुसाफ़िर थे लेकिन पुराने मुसाफ़िर यही थे जो सफ़र शुरू होने पर गाड़ी में बैठे थे। बाक़ी मुसाफ़िर उतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मुसाफ़िर होने के नाते ही उनमें एक तरह की बेतकल्लुफ़ी आ गई थी।
ओ इधर आकर बैठो। तुम हमारे साथ बैठो। आओ ज़ालिम, क़िस्साखानी की बात करेंगे।
तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नए मुसाफ़िरों का रेला अंदर आ गया था। बहुत से मुसाफ़िर एक साथ घुसते चले आए थे।
कौन-सा स्टेशन है ? किसी ने पूछा।
वज़ीराबाद है शायद। मैंने बाहर की ओर देखकर कहा। गाड़ी वहाँ थोड़ी देर के लिए खड़ी रही। पर छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी। एक आदमी साथ वाले डिब्बे में से पानी लेने उतरा और नल पर जाकर पानी लोटे में भर रहा था, वह भागकर अपने डिब्बे की ओर लौट आया। जब छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था, लेकिन जिस ढंग से वह भागा था उसी ने बहुत कुछ बता दिया था। नल पर खड़े और लोग भी, तीन या चार आदमी रहे होंगे...इधर-उधर अपने-अपने डिब्बे की ओर भाग गए थे। इस तरह घबराकर भागते लोगों को मैं देख चुका था। देखते-देखते प्लेटफ़ार्म ख़ाली हो गया, मगर डिब्बे के अंदर अब भी हँसी-मज़ाक़ चल रहा था।
कहीं कोई गड़बड़ है। मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा।
कहीं कुछ था लेकिन कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था। मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी तबदीली को भाँप गया था। भागते व्यक्ति, खटाक से बंद होते दरवाज़े, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाटा, सभी दंगों के चिह्न थे।
तभी पिछले दरवाज़े की ओर से, जो प्लेटफ़ार्म की ओर न खुलकर दूसरी ओर खुलता था, हल्का-सा शोर हुआ। कोई मुसाफ़िर अंदर घुसना चाह रहा था।
कहाँ घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया, जगह नहीं है। किसी ने कहा।
बंद करो जी दरवाज़ा। यों ही मुँह उठाए घुसे आते हैं...आवाज़ें आ रही थीं।
जितनी देर कोई मुसाफ़िर डिब्बे के बाहर खड़ा अंदर आने की चेष्टा करता रहे, अंदर बैठे मुसाफ़िर उसका विरोध करते हैं, पर एक बार जैसे-तैसे वह अंदर आ जाए तो विरोध ख़त्म हो जाता है और मुसाफ़िर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मुसाफ़िरों पर चिल्लाने लगता है, “नहीं है जगह, अगले डिब्बे में जाओ...घुसे जाते हैं...
दरवाज़े पर शोर बढ़ता जा रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लटकती मूँछों वाला एक आदमी दरवाज़े में से अंदर घुसता हुआ दिखाई दिया। चीकट मैले कपड़े, ज़रूर कहीं हलवाई का काम करता होगा। वह लोगों की शिकायती आवाज़ों की ओर ध्यान दिए बिना दरवाज़े की ओर घूमकर बड़ा-सा काले रंग का संदूक़ अंदर की ओर घसीटने लगा।
आ जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ आओ। वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था। तभी दरवाज़े में एक पतली सूखी सी औरत नज़र आई और उससे पीछे सोलह-सत्तरह बरस की साँवली-सी एक लड़की अंदर आ गई। लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे। सरदारजी को कूल्हों के बल उठकर बैठना पड़ा।
बंद करो जी दरवाज़ा, बिना पूछे चढ़ आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है। मत घुसने दो जी, क्या करते हो; धकेल दो पीछे... और लोग भी चिल्ला रहे थे।
वह आदमी अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी, बेटी संडास के दरवाज़े के साथ लगकर खड़ी थीं।
और कोई डिब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहाँ उठा लाया है!
वह आदमी पसीने से तर था और हाँफता हुआ सामान अंदर घसीटे जा रहा था। संदूक़ के बाद रस्सियों में बँधी खाट की पाटियाँ अंदर खींचने लगा।
टिकट है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूँ। लाचारी है। शहर में दंगा हो गया है। बड़ी मुश्किल से स्टेशन तक पहुँचा हूँ। इस पर डिब्बे में बैठे बहुत लोग चुप हो गए पर बर्थ पर बैठा पठान उचककर बोला, “निकल जाओ, इदर से, देखता नई इदर जगह नई ए।
और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़कर ऊपर से ही उस मुसाफ़िर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को लगने के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वह वहीं हाय-हाय करती बैठ गई।
उस आदमी के पास मुसाफ़िरों के साथ उलझने के लिए वक़्त नहीं था। वह बराबर अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था। पर डिब्बे में मौन छा गया। खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी गठरियाँ आईं, इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन क्षमता चुक गई, निकालो इसे कौन ए ये? वह चिल्लाया। इस पर दूसरे पठान ने जो नीचे की सीट पर बैठा था, उस आदमी का संदूक़ दरवाज़े में से नीचे धकेल दिया जहाँ लाल वर्दी वाला एक कुली खड़ा सामान अंदर पहुँचा रहा था।
उसकी पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसाफ़िर चुप हो गए थे। केवल कोने में बैठी बुढ़िया कुरलाए जा रही थी, “ऐ नेकबख़्तो, बैठने दो, आ जा बेटी, तू मेरे पास आ जा। जैसे-तैसे सफ़र काट लेंगे। छोड़ो, बे ज़ालिमो, बैठने दो...
अभी आधा सामान ही अंदर आ पाया होगा, जब सहसा गाड़ी सरकने लगी।
“छूट गया! सामान छूट गया। वह आदमी बदहवास-सा होकर चिल्लाया।
“पिताजी सामान छूट गया। संडास के दरवाज़े के पास खड़ी लड़की सिर से पाँव तक काँप रही थी और चिल्लाए जा रही थी।
उतरो नीचे उतरो । वह आदमी हड़बड़ाकर चिल्लाया और आगे बढ़कर खाट की पटियाँ और गठरियाँ बाहर फेंकते हुए दरवाज़े का डंडहरा पकड़कर नीचे उतर गया। उसके पीछे उसकी भयाकुल बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गई।
बहुत बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है। बुढ़िया ऊँचा-ऊँचा बोल रही थी, तुम्हारे दिल में दर्द मर गया है। छोटी सी बच्ची उनके साथ थी, बेरहमो, तुमने बहुत बुरा किया है धक्के देकर उतार दिया है।
गाड़ी सूने प्लेटफ़ार्म को लाँघती आगे बढ़ गई। डिब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गई। बुढ़िया ने बोलना बंद कर दिया था। पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई। तभी मेरी बग़ल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रखकर कहा, आग है। देखो, आग के बीच फ़र्श पर लेट गया। उसका चेहरा अभी भी मुरदे जैसा पीला हो रहा था। इस पर बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा, “ओ बेग़ैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट पर से उठकर नीचे लेटता ए। तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए। वह बोल रहा था और बार-बार हँसे जा रहा था। फिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा। बाबू चुप बना लेटा रहा। अन्य सभी मुसाफ़िर चुप थे। डिब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था।
ऐसे आदमी को अम डिब्बे में बैठने नई देगा। ओ बाबू, तुम अगले स्टेशन पर उतर जाओ और जनाना डिब्बे में बैठो।
मगर बाबू की हाज़िरजवाबी अपने कंठ में सूख चली थी। हकलाकर चुप हो रहा। पर थोड़ी देर बाद वह अपने-आप उठकर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा। वह क्यों उठकर फ़र्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि शहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे।
कुछ भी कहना कठिन था। मुमकिन है, किसी एक मुसाफ़िर ने किसी कारण से खिड़की पल्ला चढ़ाया हो और उसकी देखा-देखी बिना सोचे समझे, धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे हों।
बोझिल अनिश्चित-से वातावरण में सफ़र कटने लगा। रात गहराने लगी थी। डिब्बे के मुसाफ़िर स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे। कभी गाड़ी की रफ़्तार सहसा टूटकर धीमी पड़ जाती थी तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते। कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डिब्बे के अंदर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता। केवल पठान निश्चिंत थे। हाँ, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत में कोई शामिल होने वाला न था।
धीरे-धीरे पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसाफ़िर फटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे। बुढ़िया मुँह सिर लपेटे, टाँगें सीट पर चढ़ाए, बैठी-बैठी सो गई थी। ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने अधलेटे ही, कुर्ते की जेब में से काले मणकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा।
खिड़की के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी। किसी-किसी वक़्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नज़र आते, कोई नगर जल रहा था। गाड़ी किसी वक़्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर किसी वक़्त उसकी रफ़्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रफ़्तार से ही चलती रहती।
सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देखकर ऊँची आवाज़ में बोला, “हरबंसपुरा निकल गया है! उसकी आवाज़ में उत्तेजना थी, वह जैसे चीख़कर बोला था। डिब्बे के सभी लोग उसकी आवाज़ सुनकर चौंक गए। उसी वक़्त डिब्बे के अधिकांश मुसाफ़िरों ने मानो उसकी आवाज़ को ही सुनकर करवट बदली।
ओ बाबू, चिल्लाता क्यों ए? तसबीह वाला पठान चौंककर बोला, “इधर उतरेगा? जंजीर खींचूँ? और खी-खी करके हँस दिया। ज़ाहिर है, वह हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था।
बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देखकर फिर खिड़की से बाहर झाँकने लगा।
डिब्बे में फिर मौन छा गया। तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रफ़्तार टूट गई। थोड़ी देर बाद खटाक का-सा शब्द हुआ, शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी। बाबू ने झाँककर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़े जा रही थी।
शहर आ गया है। वह फिर ऊँची आवाज़ में चिल्लाया, “अमृतसर आ गया है!” उसने फिर से कहा और उछलकर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को संबोधन करके चिल्लाया, “ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर ! तेरी माँ की...नीचे उतर, तेरी उस पठान बनाने वाले की मैं...
बाबू चिल्लाने लगा था और चीख़-चीख़कर गालियाँ बकने लगा था। तसबीह वाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देखकर बोला, “ओ क्या ए बाबू? अमको कुछ बोला?
बाबू को उत्तेजित देखकर अन्य मुसाफ़िर भी उठ बैठे।
नीचे उतर, तेरी माँ.... हिंदू औरत को लात मारता है, हरामज़ादे, तेरी उस...
ओ बाबू, बक-बक नहीं करो। ओ खंजीर के तुख़्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया। अम तुम्हारा ज़बान खींच लेगा।
गाली देता है, मादर...! बाबू चिल्लाया और उछलकर सीट पर चढ़ गया। वह सिर से पाँव तक काँप रहा था।
बस! बस! सरदाजी बोले, यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी देर का सफ़र बाक़ी है। आराम से बैठो।
तेरी मैं लात न तोडू तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है! बाबू चिल्लाया!
ओ अमने क्या बोला। सभी लोग उसको निकालता था; अमने भी निकाला। ये इदर हमको गाली देता ए। अम इसका ज़बान खींच लेगा।
बुढ़िया बीच में फिर बोल उठी, वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो। ये रब्ब दियो बंदयो, कुछ होश करो।
उसके होंठ किसी प्रेत के होंठों की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी।
बाबू चिल्लाए जा रहा था, अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनाने वाली की...
तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफ़ार्म पर रुकी। प्लेटफ़ार्म लोगों से खचाखच भरा था। प्लेटफ़ार्म पर खड़े लोग झाँक-झाँककर डिब्बों के अंदर देखने लगे। बार-बार एक ही सवाल पूछ रहे थे, “पीछे क्या हुआ है? कहाँ पर दंगा हुआ है?
खचाखच भरे प्लेटफ़ार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है। प्लेटफ़ार्म पर खड़े दो-तीन खोमचेवालों पर मुसाफ़िर टूट पड़ रहे थे। सभी को सहसा भूख और प्यास परेशान करने लगी थी। इसी दौरान तीन चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर प्रकट हो गए और खिड़की से झाँक झाँककर अंदर देखने लगे। अपने पठान साथियों पर नज़र पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे। मैंने घूम-घूमकर देखा, बाबू डिब्बे में नहीं था। न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था। मेरा माथा ठनका। ग़ुस्से से वह पागल हुआ जा रहा था। न जाने क्या कर बैठे। पर इस बीच डिब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठाकर बाहर निकल गए और अपने पठान साथियों के साथ गाड़ी के अगले किसी डिब्बे की ओर बढ़ गए। जो विभाजन पहले प्रत्येक डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर पर होने लगा था।
खोमचे वालों के इर्द-गिर्द भीड़ छँटने लगी थी। लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे। तभी सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया। उसका चेहरा अब भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लट झूल रही थी। नज़दीक पहुँचा तो मैंने देखा, उसने अपने दाएँ हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी। जाने उसे वह कहाँ से मिल गई थी। डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया। सीट पर बैठते ही उसकी आँख पठानों को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं। पर डिब्बे में पठानों को न पाकर वह हड़बड़ाकर चारों ओर देखने लगा।
निकल गए हरामी, मादर...सबके सब निकल गए! फिर वह सिटपिटाकर उठ खड़ा हुआ और चिल्लाकर बोला, “तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम सब नामर्द हो, बुज़दिल!
पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी। बहुत से नए मुसाफ़िर आ गए थे। किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
गाड़ी सरकने लगी तो वह फिर मेरी बग़ल वाली सीट पर आ बैठा। पर वह बड़ा उत्तेजित था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा था।
धीरे-धीरे हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी थी। डिब्बे के पुराने मुसाफ़िरों ने भर पेट पूरियाँ खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाक़े में आगे बढ़ने लगी थी, जहाँ उनके जान-माल का ख़तरा नहीं था।
नए मुसाफ़िर बतिया रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी। कुछ ही देर बाद लोग ऊँघने लगे थे। मगर बाबू अभी आँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था। बार-बार मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकलकर किस ओर को गए हैं। उसके सिर पर जुनून सवार था।
गाड़ी के हिचकोले में मैं ख़ुद ऊँघने लगा था। डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी। बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी दूसरी ओर को। किसी-किसी वक़्त झटके से मेरी नींद टूटती, और मुझे सामने की सीट पर अस्तव्यस्त-से पड़े सरदारजी के ख़र्राटे सुनाई देते। अमृतसर पहुँचने के बाद सरदारजी फिर से सामने वाली सीट पर टाँगें पसारकर लेट गए थे। डिब्बे में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफ़िर पड़े थे। उनकी वीभत्स मुद्राओं को देखकर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है। पास बैठे बाबू पर नज़र पड़ती तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुँह किए देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तनकर बैठा नज़र आता।
किसी-किसी वक़्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गड़गड़ाहट बंद होने पर निःस्तब्धता-सी छा जाती। तभी लगता जैसे प्लेटफ़ार्म पर कुछ गिरा है या जैसे कोई मुसाफ़िर गाड़ी से उतरा है और मैं झटके से उठकर बैठ जाता।
इसी तरह जब मेरी एक बार नींद टूटी तो गाड़ी की रफ़्तार धीमी पड़ गई थी और डिब्बे में अँधेरा था। मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की से बाहर देखा। दूर, पीछे की ओर किसी स्टेशन के सिग्नल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे। स्पष्टतः गाड़ी कोई स्टेशन लाँघकर आई थी। पर अभी तक उसने कोई रफ़्तार नहीं पकड़ी थी।
डिब्बे के बाहर मुझे धीमे अस्फुट स्वर सुनाई दिए दूर ही एक धूमिल सा काला पुंज नज़र आया नींद की ख़ुमारी में मेरी आँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया। डिब्बे के अंदर अँधेरा था, बत्तियाँ बुझी हुई थीं; लेकिन बाहर लगता था, पौ फटने वाली है।
मेरी पीठ पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज़ को खरोंचने की सी आवाज़ आई। मैंने दरवाज़े की ओर घूमकर देखा । डिब्बे का दरवाज़ा बंद था। मुझे फिर से दरवाज़ा खरोंचने की आवाज़ सुनाई दी, फिर मैंने साफ़-साफ़ सुना, लाठी से कोई व्यक्ति डिब्बे का दरवाज़ा पटपटा रहा था। मैंने झाँककर खिड़की के बाहर देखा। सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियाँ चढ़ आया था। उसके कंधे पर एक गठरी झूल रही थी और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग से कपड़े पहन रखे थे और उसके दाढ़ी थी। फिर मेरी नज़र बाहर की ओर गई। गाड़ी के साथ-साथ एक औरत चली आ रही थी, नंगे पाँव और उसने दो गठरियाँ उठा रखी थीं: बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। डिब्बे के पायदान पर खड़ा आदमी बार-बार उसकी ओर मुड़कर देख रहा था और हाँफता हुआ कहे जा रहा था, आ जा, आ जा, तू भी आ जा!
दरवाज़े पर फिर से लाठी पटपटाने की आवाज़ आई, खोलो जी दरवाज़ा, ख़ुदा के वास्ते दरवाज़ा खोलो।
वह आदमी हाँफ रहा था, ख़ुदा के लिए दरवाज़ा खोलो। मेरे साथ में औरत जात है। गाड़ी निकल जाएगी...
सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और दरवाज़े के पास जाकर दरवाज़े में लगी खिड़की में से मुँह बाहर निकालकर बोला, “कौन है? इधर जगह नहीं है। बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा, “ख़ुदा के वास्ते, गाड़ी निकल जाएगी...
और वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अंदर डालकर दरवाज़ा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने लगा।
नहीं है जगह बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से। बाबू चिल्लाया और उसी क्षण लपककर दरवाज़ा खोल दिया।
'या अल्लाह!' उस आदमी के अस्फुट से शब्द सुनाई दिए। दरवाज़ा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की साँस ली हो।
और उसी वक़्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ को चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसाफ़िर के सिर पर किया था। मैं देखते ही डर गया और मेरी टाँगें लरज गई। मुझे लगा, जैसे छड़ के चार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसके दोनों हाथ अभी भी ज़ोर से डंडे को पकड़े हुए थे। कंधे पर से लटकती गठरी खिसककर उसकी कोहनी पर आ गई थी।
तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं। झुटमुटे में मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दाँत नज़र आए। वह दो एक बार 'या अल्लाह' बुदबुदाया, फिर उसके पैर लड़खड़ा गए। उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुँदी-सी आँखें जो धीरे-धीरे सकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच अँधेरा कुछ और छँट गया था। उसके होंठ फिर से फड़फड़ाए और उनमें उसके सफ़ेद दाँत फिर से झलक उठे। मुझे लगा, जैसे वह मुस्कुराया है। पर वास्तव में त्रास के कारण उसके होंठों पर बल पड़ने लगे थे।
नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी मालूम नहीं हो पाया कि क्या हुआ है? वह अभी भी शायद यही समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर को पकड़-पकड़कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी।
तभी सहसा डंडहरे पर से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गए और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे आ गिरा। और उसके गिरते ही औरत ने भागना बंद कर दिया, मानो उन दोनों का सफ़र एक साथ ख़त्म हो गया। बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे के खुले दरवाज़े में बुत-का-बुत बना खड़ा था। लोहे की छड़ अभी उसके हाथों में थी। मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंक देना चाहता है लेकिन उसे फेंक नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था। मेरी साँस अभी भी फूली हुई थी और डिब्बे के अँधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सटकर बैठा उसकी ओर देखे जा रहा था।
फिर वह आदमी खड़े-खड़े हिला किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एकदम आगे बढ़ आया और दरवाज़े में से बाहर पीछे की ओर देखने लगा। गाड़ी आगे निकलती जा रही थी। दूर पटरी के किनारे अँधियारा पुंज-सा नज़र आ रहा था।
बाबू का शरीर हरकत में आया, एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया, फिर घूमकर डिब्बे के अंदर दाएँ-बाएँ देखने लगा। सभी मुसाफ़िर सोए पड़े थे। मेरी ओर उसकी नज़र नहीं उठी।
थोड़ी देर तक वह खड़ा रहा, फिर उसने घूमकर दरवाज़ा बंद कर दिया। उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने हाथों की ओर देखा। फिर एक-एक करके अपने हाथों को नाक के पास ले जाकर उन्हें सूँघा, मानो जानना चाहता हो कि उसके हाथों से ख़ून की बू तो नहीं आ रही है। फिर वह दबे पाँव चलता हुआ आया और मेरी बग़ल वाली सीट पर बैठ गया।
धीरे-धीरे झुटपुटा छँटने लगा, दिन खुलने लगा। साफ़-सुथरी सी रोशनी चारों ओर फैलने लगी। किसी ने ज़ंजीर खींचकर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़ खाकर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी। सामने गेहूँ के खेतों में फिर से हल्की लहरियाँ उठने लगी थीं।
सरदारजी बदन खुजलाते उठ बैठे। मेरी बग़ल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा था। रात भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आए थे। अपने सामने बैठा देखकर सरदार उसके साथ बतियाने लगा, बड़े जीवट वाले हो बाबू! दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो । बड़ी हिम्मत दिखाई है। तुमसे डरकर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गए, यहाँ बने रहते तो एक न एक की खोपड़ी तुम ज़रूर दुरुस्त कर देते... और सरदारजी हँसने लगे।
बाबू जवाब में मुस्कुराया, एक वीभत्स-सी मुसकान और देर तक सरदार के चेहरे की ओर देखता रहा।
gaDi ke Dibbe mein bahut musafir nahin the. mere samne vali seet par baithe sardarji der se mujhe laam ke qisse sunate rahe the. wo laam ke dinon mein barma ki laDai mein bhaag le chuke the aur baat baat par khi khi karke hanste aur gore faujiyon ki khilli uDate rahe the. Dibbe mein teen pathan vyapari bhi the, unmen se ek hare rang ki poshak pahne hue uupar vali barth par leta hua tha. wo adami baDa hansmukh tha aur baDi der se mere saath vali seet par baithe ek duble se babu ke saath uska mazaq chal raha tha. wo dubla babu peshavar ka rahne vala jaan paDta tha kyonki kisi kisi vaqt ve aapas mein, pashto mein baten karne lagte the. mere samne dai or kone mein, ek buDhiya munh sir Dhanpe baithi thi aur der se mala jap rahi thi. yahi kuch log rahe honge. sambhav hai, do ek aur musafir bhi rahe hon. par ve spashtatः mujhe yaad nahin.
gaDi dhimi raftar se chali ja rahi thee; aur gaDi mein baithe musafir batiya rahe the, aur bahar gehun ke kheton mein halki halki lahariyan uth rahi theen, aur main man hi man baDa khush tha kyonki main dilli mein hone vala svtantrta divas samaroh dekhne ja raha tha.
unhin dinon pakistan ke banaye jane ka ailan kiya gaya tha aur log tarah tarah ke anuman lagane lage the ki bhavishya mein jivan ki ruparekha kaisi hogi. par kisi ki bhi kalpana bahut door tak nahin ja pati thi. mere samne baithe sardarji baar baar mujhse poochh rahe the ki pakistan ban jane par jinna sahab bambii mein hi rahenge ya pakistan mein jakar bas jayenge, aur mera har baar yahi javab hota, “bambii kyon chhoDenge, pakistan mein aate jate rahenge, bambii chhoD dene mein kya tuk hai. ” lahaur aur gurdaspur ke bare mein anuman lagaye ja rahe the ki kaun sa shahr kis or jayega. mil baithne ke Dhang mein, gap shap mein, hansi mazaq mein koi vishesh antar nahin aaya tha. kuch log apne ghar chhoDkar ja rahe the, jabki anya log unka mazaq uDa rahe the. koi nahin janta tha ki kaun sa qadam theek hoga aur kaun sa ghalat! ek aur pakistan ban jane ka josh tha to dusri or hindustan ke azad ho jane ka josh. jagah jagah dange ho rahe the aur kaum e azadi ki taiyariyan bhi chal rahi theen. is prishthabhumi mein lagta, desh azad ho jane par dange apne aap band ho jayenge. vatavran ke is jhutpute mein azadi ki sunahri dhool si uD rahi thi. aur saath hi saath anishchay bhi Dol raha tha, aur isi anishchay ki sthiti mein kisi kisi vaqt bhavi rishton ki ruparekha jhalak de jati thi.
shayad jehlam ka steshan pichhe chhoot chuka tha, jab uuparvali barth par baithe pathan ne ek potli khol li aur usmen se ubla hua maans aur naan roti ke tukDe nikal nikalkar apne sathiyon ko dene laga. phir wo hansi mazaq ke beech meri baghal mein baithe babu ki or bhi naan ka tukDa aur maans ki boti baDhakar khane ka agrah karne laga tha, kha le babu, taqat ayegi. hum jaisa ho jayega. bivi bhi tere saath khush rahegi. kha le daal khor, tu daal khata hai isliye dubla hai. . .
Dibbe mein log hansne lage the. babu ne pashto mein kuch javab diya aur phir muskurata sir hilata raha.
is par dusre pathan ne hansakar kaha, o zalim, amare aath se nai leta ai to apne aath se utha le. khuda qasam bar ka gosht ai, aur kisi cheez ka nai ai.
uupar baitha pathan chahak kar bola, “o khanjir ke tukhm, idhar tumen kon dekhta e? hum teri bivi ko nai bolega. o tu amare saath boti toD. hum tere saath daal piyenga. . .
is par kahakha utha, par dubla patla babu hansta sir hilata raha aur kabhi kabhi do shabd pashto mein bhi kah deta.
o kitna bura baat e, am khata e aur tu hamara munh dekhta e. . . sabhi pathan magan yah isliye nahin leta ki tumne haath nahin dhoe hain. sthulakay sardarji bole aur bolte hi khi khi karne lage. adhleti mudra mein baithe sardarji ki aadhi tond seet ke niche latak rahi thi, tum abhi sokar uthe ho aur uthte hi potli kholkar khane lag ge ho, isiliye babuji tumhare haath se nahin lete, aur koi baat nahin. aur sardaji ne meri or dekhkar ankh mari aur phir khi khi karne lage.
maans nai khata e babu, to jao janana Dabbe mein baitho, idhar kya karta e? phir kahakha utha.
Dabbe mein aur bhi musafir the lekin purane musafir yahi the jo safar shuru hone par gaDi mein baithe the. baqi musafir utarte chaDhte rahe the. purane musafir hone ke nate hi unmen ek tarah ki betakallufi aa gai thi.
o idhar aakar baitho. tum hamare saath baitho. aao zalim, qissakhani ki baat karenge.
tabhi kisi steshan par gaDi ruki thi aur ne musafiron ka rela andar aa gaya tha. bahut se musafir ek saath ghuste chale aaye the.
kaun sa steshan hai ? kisi ne puchha.
vazirabad hai shayad. mainne bahar ki or dekhkar kaha. gaDi vahan thoDi der ke liye khaDi rahi. par chhutne se pahle ek chhoti si ghatna ghati. ek adami saath vale Dibbe mein se pani lene utra aur nal par jakar pani lote mein bhar raha tha, wo bhagkar apne Dibbe ki or laut aaya. jab chhalachhlate lote mein se pani gir raha tha, lekin jis Dhang se wo bhaga tha usi ne bahut kuch bata diya tha. nal par khaDe aur log bhi, teen ya chaar adami rahe honge. . . idhar udhar apne apne Dibbe ki or bhaag ge the. is tarah ghabrakar bhagte logon ko main dekh chuka tha. dekhte dekhte pletfarm khali ho gaya, magar Dibbe ke andar ab bhi hansi mazaq chal raha tha.
kahin koi gaDbaD hai. mere paas baithe duble babu ne kaha.
kahin kuch tha lekin koi bhi aspasht nahin janta tha. main anek dange dekh chuka tha isliye vatavran mein hone vali chhoti tabdili ko bhaanp gaya tha. bhagte vyakti, khatak se band hote darvaze, gharon ki chhaton par khaDe log, chuppi aur sannata, sabhi dangon ke chihn the.
tabhi pichhle darvaze ki or se, jo pletfarm ki or na khulkar dusri or khulta tha, halka sa shor hua. koi musafir andar ghusna chaah raha tha.
kahan ghusa aa raha hai, nahin hai jagah! bol diya, jagah nahin hai. kisi ne kaha.
band karo ji darvaza. yon hi munh uthaye ghuse aate hain. . . avazen aa rahi theen.
jitni der koi musafir Dibbe ke bahar khaDa andar aane ki cheshta karta rahe, andar baithe musafir uska virodh karte hain, par ek baar jaise taise wo andar aa jaye to virodh khatm ho jata hai aur musafir jaldi hi Dibbe ki duniya ka nivasi ban jata hai, aur agle steshan par vahi sabse pahle bahar khaDe musafiron par chillane lagta hai, “nahin hai jagah, agle Dibbe mein jao. . . ghuse jate hain. . .
darvaze par shor baDhta ja raha tha. tabhi maile kuchaile kapDon aur latakti munchhon vala ek adami darvaze mein se andar ghusta hua dikhai diya. chikat maile kapDe, zarur kahin halvai ka kaam karta hoga. wo logon ki shikayati avazon ki or dhyaan diye bina darvaze ki or ghumkar baDa sa kale rang ka sanduq andar ki or ghasitne laga.
a jao, aa jao, tum bhi chaDh aao. wo apne pichhe kisi se kahe ja raha tha. tabhi darvaze mein ek patli sukhi si aurat nazar aai aur usse pichhe solah sattarah baras ki sanvli si ek laDki andar aa gai. log abhi bhi chillaye ja rahe the. sardarji ko kulhon ke bal uthkar baithna paDa.
band karo ji darvaza, bina puchhe chaDh aate hain, apne baap ka ghar samajh rakha hai. mat ghusne do ji, kya karte ho; dhakel do pichhe. . . aur log bhi chilla rahe the.
wo adami apna saman andar ghasite ja raha tha aur uski patni, beti sanDas ke darvaze ke saath lagkar khaDi theen.
wo adami pasine se tar tha aur hanfata hua saman andar ghasite ja raha tha. sanduq ke baad rassiyon mein bandhi khaat ki patiyan andar khinchne laga.
tikat hai ji mere paas, main betikat nahin hoon. lachari hai. shahr mein danga ho gaya hai. baDi mushkil se steshan tak pahuncha hoon. is par Dibbe mein baithe bahut log chup ho ge par barth par baitha pathan uchakkar bola, “nikal jao, idar se, dekhta nai idar jagah nai e.
aur pathan ne aav dekha na taav, aage baDhkar uupar se hi us musafir ke laat jama di, par laat us adami ko lagne ke bajaye uski patni ke kaleje mein lagi aur wo vahin haay haay karti baith gai.
us adami ke paas musafiron ke saath ulajhne ke liye vaqt nahin tha. wo barabar apna saman andar ghasite ja raha tha. par Dibbe mein maun chha gaya. khaat ki patiyon ke baad baDi baDi gathriyan ain, is par uupar baithe pathan ki sahn kshamata chuk gai, nikalo ise kaun e ye? wo chillaya. is par dusre pathan ne jo niche ki seet par baitha tha, us adami ka sanduq darvaze mein se niche dhakel diya jahan laal vardi vala ek kuli khaDa saman andar pahuncha raha tha.
uski patni ke chot lagne par kuch musafir chup ho ge the. keval kone mein baithi buDhiya kurlaye ja rahi thi, “ai nekbakhto, baithne do, aa ja beti, tu mere paas aa ja. jaise taise safar kaat lenge. chhoDo, be zalimo, baithne do. . .
abhi aadha saman hi andar aa paya hoga, jab sahsa gaDi sarakne lagi.
“chhoot gaya! saman chhoot gaya. wo adami badahvas sa hokar chillaya.
“pitaji saman chhoot gaya. sanDas ke darvaze ke paas khaDi laDki sir se paanv tak kaanp rahi thi aur chillaye ja rahi thi.
utro niche utro. wo adami haDabDakar chillaya aur aage baDhkar khaat ki patiyan aur gathriyan bahar phenkte hue darvaze ka DanDahra pakaDkar niche utar gaya. uske pichhe uski bhayakul beti aur phir uski patni, kaleje ko donon hathon se dabaye haay haay karti niche utar gai.
bahut bura kiya hai tum logon ne, bahut bura kiya hai. buDhiya uncha uncha bol rahi thi, tumhare dil mein dard mar gaya hai. chhoti si bachchi unke saath thi, berahmo, tumne bahut bura kiya hai dhakke dekar utaar diya hai.
gaDi sune pletfarm ko langhati aage baDh gai. Dibbe mein vyakul si chuppi chha gai. buDhiya ne bolna band kar diya tha. pathanon ka virodh kar pane ki himmat nahin hui. tabhi meri baghal mein baithe duble babu ne mere baju par haath rakhkar kaha, aag hai. dekho, aag ke beech farsh par let gaya. uska chehra abhi bhi murde jaisa pila ho raha tha. is par barth par baitha pathan uski thitholi karne laga, “o beghairat, tum mard e ki aurat e? seet par se uthkar niche letta e. tum mard ke naam ko badnam karta e. wo bol raha tha aur baar baar hanse ja raha tha. phir wo usse pashto mein kuch kahne laga. babu chup bana leta raha. anya sabhi musafir chup the. Dibbe ka vatavran bojhil bana hua tha.
aise adami ko am Dibbe mein baithne nai dega. o babu, tum agle steshan par utar jao aur janana Dibbe mein baitho.
magar babu ki hazirajvabi apne kanth mein sookh chali thi. haklakar chup ho raha. par thoDi der baad wo apne aap uthkar seet par ja baitha aur der tak apne kapDon ki dhool jhaDta raha. wo kyon uthkar farsh par let gaya tha? shayad use Dar tha ki shahr se gaDi par pathrav hoga ya goli chalegi, shayad isi karan khiDakiyon ke palle chaDhaye ja rahe the.
kuch bhi kahna kathin tha. mumkin hai, kisi ek musafir ne kisi karan se khiDki palla chaDhaya ho aur uski dekha dekhi bina soche samjhe, dhaDadhaD khiDakiyon ke palle chaDhaye jane lage hon.
bojhil anishchit se vatavran mein safar katne laga. raat gahrane lagi thi. Dibbe ke musafir stabdh aur shankit jyon ke tyon baithe the. kabhi gaDi ki raftar sahsa tutkar dhimi paD jati thi to log ek dusre ki or dekhne lagte. kabhi raste mein hi ruk jati to Dibbe ke andar ka sannata aur bhi gahra ho uthta. keval pathan nishchint the. haan, unhonne bhi batiyana chhoD diya tha, kyonki unki batachit mein koi shamil hone vala na tha.
dhire dhire pathan uunghane lage jabki anya musafir phati phati ankhon se shunya mein dekhe ja rahe the. buDhiya munh sir lapete, tangen seet par chaDhaye, baithi baithi so gai thi. uuparvali barth par ek pathan ne adhlete hi, kurte ki jeb mein se kale mankon ki tasbih nikal li aur use dhire dhire haath mein chalane laga.
khiDki ke bahar akash mein chaand nikal aaya aur chandni mein bahar ki duniya aur bhi anishchit, aur bhi adhik rahasyamyi ho uthi. kisi kisi vaqt door kisi or aag ke shole uthte nazar aate, koi nagar jal raha tha. gaDi kisi vaqt chinghaDti hui aage baDhne lagti, phir kisi vaqt uski raftar dhimi paD jati aur milon tak dhimi raftar se hi chalti rahti.
sahsa dubla babu khiDki mein se bahar dekhkar uunchi avaz mein bola, “harbansapura nikal gaya hai! uski avaz mein uttejna thi, wo jaise chikhkar bola tha. Dibbe ke sabhi log uski avaz sunkar chaunk ge. usi vaqt Dibbe ke adhikansh musafiron ne mano uski avaz ko hi sunkar karvat badli.
o babu, chillata kyon e? tasbih vala pathan chaunkkar bola, “idhar utrega? janjir khinchun? aur khi khi karke hans diya. zahir hai, wo harbansapura ki sthiti se athva uske naam se anbhigya tha.
babu ne koi uttar nahin diya, keval sir hila diya aur ek aadh baar pathan ki or dekhkar phir khiDki se bahar jhankne laga.
Dibbe mein phir maun chha gaya. tabhi injan ne siti di aur uski ekras raftar toot gai. thoDi der baad khatak ka sa shabd hua, shayad gaDi ne lain badli thi. babu ne jhankakar us disha mein dekha jis or gaDi baDhe ja rahi thi.
shahr aa gaya hai. wo phir uunchi avaz mein chillaya, “amaritsar aa gaya hai!” usne phir se kaha aur uchhalkar khaDa ho gaya, aur uupar vali barth par lete pathan ko sambodhan karke chillaya, “o be pathan ke bachche! niche utar ! teri maan ki. . . niche utar, teri us pathan banane vale ki main. . .
babu chillane laga tha aur cheekh chikhkar galiyan bakne laga tha. tasbih vale pathan ne karvat badli aur babu ki or dekhkar bola, “o kya e babu? amko kuch bola?
babu ko uttejit dekhkar anya musafir bhi uth baithe.
niche utar, teri maan. . . . hindu aurat ko laat marta hai, haramzade, teri us. . .
o babu, bak bak nahin karo. o khanjir ke tukhm, gali mat bako, amne bol diya. am tumhara zaban kheench lega.
gali deta hai, madar. . . ! babu chillaya aur uchhalkar seet par chaDh gaya. wo sir se paanv tak kaanp raha tha.
bas! bas! sardaji bole, yah laDne ki jagah nahin hai. thoDi der ka safar baqi hai. aram se baitho.
teri main laat na toDu to kahna, gaDi tere baap ki hai! babu chillaya!
o amne kya bola. sabhi log usko nikalta tha; amne bhi nikala. ye idar hamko gali deta e. am iska zaban kheench lega.
buDhiya beech mein phir bol uthi, ve jeen jogyo, aram naal baitho. ye rabb diyo bandyo, kuch hosh karo.
uske honth kisi pret ke honthon ki tarah phaDphaDaye ja rahe the aur unmen se ksheen si phusphusahat sunai de rahi thi.
babu chillaye ja raha tha, apne ghar mein sher banta tha. ab bol, teri main us pathan banane vali ki. . .
tabhi gaDi amaritsar ke pletfarm par ruki. pletfarm logon se khachakhach bhara tha. pletfarm par khaDe log jhaank jhankakar Dibbon ke andar dekhne lage. baar baar ek hi saval poochh rahe the, “pichhe kya hua hai? kahan par danga hua hai?
khachakhach bhare pletfarm par shayad isi baat ki charcha chal rahi thi ki pichhe kya hua hai. pletfarm par khaDe do teen khomchevalon par musafir toot paD rahe the. sabhi ko sahsa bhookh aur pyaas pareshan karne lagi thi. isi dauran teen chaar pathan hamare Dibbe ke bahar prakat ho ge aur khiDki se jhaank jhankakar andar dekhne lage. apne pathan sathiyon par nazar paDte hi ve unse pashto mein kuch bolne lage. mainne ghoom ghumkar dekha, babu Dibbe mein nahin tha. na jane kab wo Dibbe mein se nikal gaya tha. mera matha thanka. ghusse se wo pagal hua ja raha tha. na jane kya kar baithe. par is beech Dibbe ke tinon pathan, apni apni gathri uthakar bahar nikal ge aur apne pathan sathiyon ke saath gaDi ke agle kisi Dibbe ki or baDh ge. jo vibhajan pahle pratyek Dibbe ke bhitar hota raha tha, ab sari gaDi ke star par hone laga tha.
khomche valon ke ird gird bheeD chhantne lagi thi. log apne apne Dibbon mein lautne lage. tabhi sahsa ek or se mujhe wo babu aata dikhai diya. uska chehra ab bhi bahut pila tha aur mathe par balon ki lat jhool rahi thi. nazdik pahuncha to mainne dekha, usne apne dayen haath mein lohe ki ek chhaD utha rakhi thi. jane use wo kahan se mil gai thi. Dibbe mein ghuste samay usne chhaD ko apni peeth pichhe kar liya aur mere saath vali seet par baithne se pahle usne haule se chhaD ko seet ke niche sarka diya. seet par baithte hi uski ankh pathanon ko dekh pane ke liye uupar ko uthin. par Dibbe mein pathanon ko na pakar wo haDabDakar charon or dekhne laga.
nikal ge harami, madar. . . sabke sab nikal ge! phir wo sitapitakar uth khaDa hua aur chillakar bola, “tumne unhen jane kyon diya? tum sab namard ho, buzdil!
par gaDi mein bheeD bahut thi. bahut se ne musafir aa ge the. kisi ne uski or vishesh dhyaan nahin diya.
gaDi sarakne lagi to wo phir meri baghal vali seet par aa baitha. par wo baDa uttejit tha aur barabar baDabDaye ja raha tha.
dhire dhire hichkole khati gaDi aage baDhne lagi thi. Dibbe ke purane musafiron ne bhar pet puriyan kha li theen aur pani pi liya tha aur gaDi us ilaqe mein aage baDhne lagi thi, jahan unke jaan maal ka khatra nahin tha.
ne musafir batiya rahe the. dhire dhire gaDi phir samtal gati se chalne lagi thi. kuch hi der baad log uunghane lage the. magar babu abhi ankhon se samne ki or dekhe ja raha tha. baar baar mujhse puchhta ki pathan Dibbe mein se nikalkar kis or ko ge hain. uske sir par junun savar tha.
gaDi ke hichkole mein main khud uunghane laga tha. Dibbe mein let pane ke liye jagah nahin thi. baithe baithe hi neend mein mera sir kabhi ek or ko luDhak jata, kabhi dusri or ko. kisi kisi vaqt jhatke se meri neend tutti, aur mujhe samne ki seet par astavyast se paDe sardarji ke kharrate sunai dete. amaritsar pahunchne ke baad sardarji phir se samne vali seet par tangen pasarkar let ge the. Dibbe mein tarah tarah ki aaDi tirchhi mudraon mein musafir paDe the. unki vibhats mudraon ko dekhkar lagta, Dibba lashon se bhara hai. paas baithe babu par nazar paDti to kabhi to wo khiDki ke bahar munh kiye dekh raha hota, kabhi divar se peeth lagaye tankar baitha nazar aata.
kisi kisi vaqt gaDi kisi steshan par rukti to pahiyon ki gaDgaDahat band hone par niःstabdhata si chha jati. tabhi lagta jaise pletfarm par kuch gira hai ya jaise koi musafir gaDi se utra hai aur main jhatke se uthkar baith jata.
isi tarah jab meri ek baar neend tuti to gaDi ki raftar dhimi paD gai thi aur Dibbe mein andhera tha. mainne usi tarah adhlete khiDki se bahar dekha. door, pichhe ki or kisi steshan ke signal ke laal kumakume chamak rahe the. spashtatः gaDi koi steshan langhakar aai thi. par abhi tak usne koi raftar nahin pakDi thi.
Dibbe ke bahar mujhe dhime asphut svar sunai diye door hi ek dhumil sa kala punj nazar aaya neend ki khumari mein meri ankhen kuch der tak us par lagi rahin, phir mainne use samajh pane ka vichar chhoD diya. Dibbe ke andar andhera tha, battiyan bujhi hui theen; lekin bahar lagta tha, pau phatne vali hai.
meri peeth pichhe, Dibbe ke bahar kisi cheez ko kharonchne ki si avaz aai. mainne darvaze ki or ghumkar dekha. Dibbe ka darvaza band tha. mujhe phir se darvaza kharonchne ki avaz sunai di, phir mainne saaf saaf suna, lathi se koi vyakti Dibbe ka darvaza patapta raha tha. mainne jhankakar khiDki ke bahar dekha. sachmuch ek adami Dibbe ki do siDhiyan chaDh aaya tha. uske kandhe par ek gathri jhool rahi thi aur haath mein lathi thi aur usne badrang se kapDe pahan rakhe the aur uske daDhi thi. phir meri nazar bahar ki or gai. gaDi ke saath saath ek aurat chali aa rahi thi, nange paanv aur usne do gathriyan utha rakhi theenh bojh ke karan usse dauDa nahin ja raha tha. Dibbe ke payadan par khaDa adami baar baar uski or muDkar dekh raha tha aur hanfata hua kahe ja raha tha, a ja, aa ja, tu bhi aa ja!
darvaze par phir se lathi pataptane ki avaz aai, kholo ji darvaza, khuda ke vaste darvaza kholo.
wo adami haanf raha tha, khuda ke liye darvaza kholo. mere saath mein aurat jaat hai. gaDi nikal jayegi. . .
sahsa mainne dekha, babu haDabDakar uth khaDa hua aur darvaze ke paas jakar darvaze mein lagi khiDki mein se munh bahar nikalkar bola, “kaun hai? idhar jagah nahin hai. bahar khaDa adami phir giDgiDane laga, “khuda ke vaste, gaDi nikal jayegi. . .
aur wo adami khiDki mein se apna haath andar Dalkar darvaza khol pane ke liye sitakni tatolne laga.
nahin hai jagah bol diya, utar jao gaDi par se. babu chillaya aur usi kshan lapakkar darvaza khol diya.
ya allah! us adami ke asphut se shabd sunai diye. darvaza khulne par jaise usne itminan ki saans li ho.
aur usi vaqt mainne babu ke haath mein chhaD ko chamakte dekha. ek hi bharpur vaar babu ne us musafir ke sir par kiya tha. main dekhte hi Dar gaya aur meri tangen laraj gai. mujhe laga, jaise chhaD ke chaar ka us adami par koi asar nahin hua. uske donon haath abhi bhi zor se DanDe ko pakDe hue the. kandhe par se latakti gathri khisakkar uski kohni par aa gai thi.
tabhi sahsa uske chehre par lahu ki do teen dharen ek saath phoot paDin. jhutamute mein mujhe uske khule honth aur chamakte daant nazar aaye. wo do ek baar ya allah budabudaya, phir uske pair laDkhaDa ge. uski ankhon ne babu ki or dekha, adhmundi si ankhen jo dhire dhire sakuDti ja rahi theen, mano use pahchanne ki koshish kar rahi hon ki wo kaun hai aur usse kis adavat ka badla le raha hai. is beech andhera kuch aur chhant gaya tha. uske honth phir se phaDphaDaye aur unmen uske safed daant phir se jhalak uthe. mujhe laga, jaise wo muskuraya hai. par vastav mein traas ke karan uske honthon par bal paDne lage the.
niche patri ke saath saath bhagti aurat baDabDaye aur kose ja rahi thi. use abhi malum nahin ho paya ki kya hua hai? wo abhi bhi shayad yahi samajh rahi thi ki gathri ke karan uska pati gaDi par theek tarah se chaDh nahin pa raha hai, ki uska pair jam nahin pa raha hai. wo gaDi ke saath saath bhagti hui, apni do gathariyon ke bavjud apne pati ke pair ko pakaD pakaDkar siDhi par tikane ki koshish kar rahi thi.
tabhi sahsa DanDahre par se us adami ke donon haath chhoot ge aur wo kate peD ki bhanti niche aa gira. aur uske girte hi aurat ne bhagna band kar diya, mano un donon ka safar ek saath khatm ho gaya. babu abhi bhi mere nikat, Dibbe ke khule darvaze mein but ka but bana khaDa tha. lohe ki chhaD abhi uske hathon mein thi. mujhe laga, jaise wo chhaD ko phenk dena chahta hai lekin use phenk nahin pa raha, uska haath jaise uth nahin raha tha. meri saans abhi bhi phuli hui thi aur Dibbe ke andhiyare kone mein main khiDki ke saath satkar baitha uski or dekhe ja raha tha.
phir wo adami khaDe khaDe hila kisi agyat prernavash wo ekdam aage baDh aaya aur darvaze mein se bahar pichhe ki or dekhne laga. gaDi aage nikalti ja rahi thi. door patri ke kinare andhiyara punj sa nazar aa raha tha.
babu ka sharir harkat mein aaya, ek jhatke mein usne chhaD ko Dibbe ke bahar phenk diya, phir ghumkar Dibbe ke andar dayen bayen dekhne laga. sabhi musafir soe paDe the. meri or uski nazar nahin uthi.
thoDi der tak wo khaDa raha, phir usne ghumkar darvaza band kar diya. usne dhyaan se apne kapDon ki or dekha, apne hathon ki or dekha. phir ek ek karke apne hathon ko naak ke paas le jakar unhen sungha, mano janna chahta ho ki uske hathon se khoon ki bu to nahin aa rahi hai. phir wo dabe paanv chalta hua aaya aur meri baghal vali seet par baith gaya.
dhire dhire jhutputa chhantne laga, din khulne laga. saaf suthari si roshni charon or phailne lagi. kisi ne zanjir khinchkar gaDi ko khaDa nahin kiya tha, chhaD khakar giri uski deh milon pichhe chhoot chuki thi. samne gehun ke kheton mein phir se halki lahariyan uthne lagi theen.
sardarji badan khujlate uth baithe. meri baghal mein baitha babu donon haath sir ke pichhe rakhe samne ki or dekhe ja raha tha. raat bhar mein uske chehre par daDhi ke chhote chhote baal ug aaye the. apne samne baitha dekhkar sardar uske saath batiyane laga, baDe jivat vale ho babu! duble patle ho, par baDe gurde vale ho. baDi himmat dikhai hai. tumse Darkar hi ve pathan Dibbe mein se nikal ge, yahan bane rahte to ek na ek ki khopaDi tum zarur durust kar dete. . . aur sardarji hansne lage.
babu javab mein muskuraya, ek vibhats si muskan aur der tak sardar ke chehre ki or dekhta raha.
gaDi ke Dibbe mein bahut musafir nahin the. mere samne vali seet par baithe sardarji der se mujhe laam ke qisse sunate rahe the. wo laam ke dinon mein barma ki laDai mein bhaag le chuke the aur baat baat par khi khi karke hanste aur gore faujiyon ki khilli uDate rahe the. Dibbe mein teen pathan vyapari bhi the, unmen se ek hare rang ki poshak pahne hue uupar vali barth par leta hua tha. wo adami baDa hansmukh tha aur baDi der se mere saath vali seet par baithe ek duble se babu ke saath uska mazaq chal raha tha. wo dubla babu peshavar ka rahne vala jaan paDta tha kyonki kisi kisi vaqt ve aapas mein, pashto mein baten karne lagte the. mere samne dai or kone mein, ek buDhiya munh sir Dhanpe baithi thi aur der se mala jap rahi thi. yahi kuch log rahe honge. sambhav hai, do ek aur musafir bhi rahe hon. par ve spashtatः mujhe yaad nahin.
gaDi dhimi raftar se chali ja rahi thee; aur gaDi mein baithe musafir batiya rahe the, aur bahar gehun ke kheton mein halki halki lahariyan uth rahi theen, aur main man hi man baDa khush tha kyonki main dilli mein hone vala svtantrta divas samaroh dekhne ja raha tha.
unhin dinon pakistan ke banaye jane ka ailan kiya gaya tha aur log tarah tarah ke anuman lagane lage the ki bhavishya mein jivan ki ruparekha kaisi hogi. par kisi ki bhi kalpana bahut door tak nahin ja pati thi. mere samne baithe sardarji baar baar mujhse poochh rahe the ki pakistan ban jane par jinna sahab bambii mein hi rahenge ya pakistan mein jakar bas jayenge, aur mera har baar yahi javab hota, “bambii kyon chhoDenge, pakistan mein aate jate rahenge, bambii chhoD dene mein kya tuk hai. ” lahaur aur gurdaspur ke bare mein anuman lagaye ja rahe the ki kaun sa shahr kis or jayega. mil baithne ke Dhang mein, gap shap mein, hansi mazaq mein koi vishesh antar nahin aaya tha. kuch log apne ghar chhoDkar ja rahe the, jabki anya log unka mazaq uDa rahe the. koi nahin janta tha ki kaun sa qadam theek hoga aur kaun sa ghalat! ek aur pakistan ban jane ka josh tha to dusri or hindustan ke azad ho jane ka josh. jagah jagah dange ho rahe the aur kaum e azadi ki taiyariyan bhi chal rahi theen. is prishthabhumi mein lagta, desh azad ho jane par dange apne aap band ho jayenge. vatavran ke is jhutpute mein azadi ki sunahri dhool si uD rahi thi. aur saath hi saath anishchay bhi Dol raha tha, aur isi anishchay ki sthiti mein kisi kisi vaqt bhavi rishton ki ruparekha jhalak de jati thi.
shayad jehlam ka steshan pichhe chhoot chuka tha, jab uuparvali barth par baithe pathan ne ek potli khol li aur usmen se ubla hua maans aur naan roti ke tukDe nikal nikalkar apne sathiyon ko dene laga. phir wo hansi mazaq ke beech meri baghal mein baithe babu ki or bhi naan ka tukDa aur maans ki boti baDhakar khane ka agrah karne laga tha, kha le babu, taqat ayegi. hum jaisa ho jayega. bivi bhi tere saath khush rahegi. kha le daal khor, tu daal khata hai isliye dubla hai. . .
Dibbe mein log hansne lage the. babu ne pashto mein kuch javab diya aur phir muskurata sir hilata raha.
is par dusre pathan ne hansakar kaha, o zalim, amare aath se nai leta ai to apne aath se utha le. khuda qasam bar ka gosht ai, aur kisi cheez ka nai ai.
uupar baitha pathan chahak kar bola, “o khanjir ke tukhm, idhar tumen kon dekhta e? hum teri bivi ko nai bolega. o tu amare saath boti toD. hum tere saath daal piyenga. . .
is par kahakha utha, par dubla patla babu hansta sir hilata raha aur kabhi kabhi do shabd pashto mein bhi kah deta.
o kitna bura baat e, am khata e aur tu hamara munh dekhta e. . . sabhi pathan magan yah isliye nahin leta ki tumne haath nahin dhoe hain. sthulakay sardarji bole aur bolte hi khi khi karne lage. adhleti mudra mein baithe sardarji ki aadhi tond seet ke niche latak rahi thi, tum abhi sokar uthe ho aur uthte hi potli kholkar khane lag ge ho, isiliye babuji tumhare haath se nahin lete, aur koi baat nahin. aur sardaji ne meri or dekhkar ankh mari aur phir khi khi karne lage.
maans nai khata e babu, to jao janana Dabbe mein baitho, idhar kya karta e? phir kahakha utha.
Dabbe mein aur bhi musafir the lekin purane musafir yahi the jo safar shuru hone par gaDi mein baithe the. baqi musafir utarte chaDhte rahe the. purane musafir hone ke nate hi unmen ek tarah ki betakallufi aa gai thi.
o idhar aakar baitho. tum hamare saath baitho. aao zalim, qissakhani ki baat karenge.
tabhi kisi steshan par gaDi ruki thi aur ne musafiron ka rela andar aa gaya tha. bahut se musafir ek saath ghuste chale aaye the.
kaun sa steshan hai ? kisi ne puchha.
vazirabad hai shayad. mainne bahar ki or dekhkar kaha. gaDi vahan thoDi der ke liye khaDi rahi. par chhutne se pahle ek chhoti si ghatna ghati. ek adami saath vale Dibbe mein se pani lene utra aur nal par jakar pani lote mein bhar raha tha, wo bhagkar apne Dibbe ki or laut aaya. jab chhalachhlate lote mein se pani gir raha tha, lekin jis Dhang se wo bhaga tha usi ne bahut kuch bata diya tha. nal par khaDe aur log bhi, teen ya chaar adami rahe honge. . . idhar udhar apne apne Dibbe ki or bhaag ge the. is tarah ghabrakar bhagte logon ko main dekh chuka tha. dekhte dekhte pletfarm khali ho gaya, magar Dibbe ke andar ab bhi hansi mazaq chal raha tha.
kahin koi gaDbaD hai. mere paas baithe duble babu ne kaha.
kahin kuch tha lekin koi bhi aspasht nahin janta tha. main anek dange dekh chuka tha isliye vatavran mein hone vali chhoti tabdili ko bhaanp gaya tha. bhagte vyakti, khatak se band hote darvaze, gharon ki chhaton par khaDe log, chuppi aur sannata, sabhi dangon ke chihn the.
tabhi pichhle darvaze ki or se, jo pletfarm ki or na khulkar dusri or khulta tha, halka sa shor hua. koi musafir andar ghusna chaah raha tha.
kahan ghusa aa raha hai, nahin hai jagah! bol diya, jagah nahin hai. kisi ne kaha.
band karo ji darvaza. yon hi munh uthaye ghuse aate hain. . . avazen aa rahi theen.
jitni der koi musafir Dibbe ke bahar khaDa andar aane ki cheshta karta rahe, andar baithe musafir uska virodh karte hain, par ek baar jaise taise wo andar aa jaye to virodh khatm ho jata hai aur musafir jaldi hi Dibbe ki duniya ka nivasi ban jata hai, aur agle steshan par vahi sabse pahle bahar khaDe musafiron par chillane lagta hai, “nahin hai jagah, agle Dibbe mein jao. . . ghuse jate hain. . .
darvaze par shor baDhta ja raha tha. tabhi maile kuchaile kapDon aur latakti munchhon vala ek adami darvaze mein se andar ghusta hua dikhai diya. chikat maile kapDe, zarur kahin halvai ka kaam karta hoga. wo logon ki shikayati avazon ki or dhyaan diye bina darvaze ki or ghumkar baDa sa kale rang ka sanduq andar ki or ghasitne laga.
a jao, aa jao, tum bhi chaDh aao. wo apne pichhe kisi se kahe ja raha tha. tabhi darvaze mein ek patli sukhi si aurat nazar aai aur usse pichhe solah sattarah baras ki sanvli si ek laDki andar aa gai. log abhi bhi chillaye ja rahe the. sardarji ko kulhon ke bal uthkar baithna paDa.
band karo ji darvaza, bina puchhe chaDh aate hain, apne baap ka ghar samajh rakha hai. mat ghusne do ji, kya karte ho; dhakel do pichhe. . . aur log bhi chilla rahe the.
wo adami apna saman andar ghasite ja raha tha aur uski patni, beti sanDas ke darvaze ke saath lagkar khaDi theen.
wo adami pasine se tar tha aur hanfata hua saman andar ghasite ja raha tha. sanduq ke baad rassiyon mein bandhi khaat ki patiyan andar khinchne laga.
tikat hai ji mere paas, main betikat nahin hoon. lachari hai. shahr mein danga ho gaya hai. baDi mushkil se steshan tak pahuncha hoon. is par Dibbe mein baithe bahut log chup ho ge par barth par baitha pathan uchakkar bola, “nikal jao, idar se, dekhta nai idar jagah nai e.
aur pathan ne aav dekha na taav, aage baDhkar uupar se hi us musafir ke laat jama di, par laat us adami ko lagne ke bajaye uski patni ke kaleje mein lagi aur wo vahin haay haay karti baith gai.
us adami ke paas musafiron ke saath ulajhne ke liye vaqt nahin tha. wo barabar apna saman andar ghasite ja raha tha. par Dibbe mein maun chha gaya. khaat ki patiyon ke baad baDi baDi gathriyan ain, is par uupar baithe pathan ki sahn kshamata chuk gai, nikalo ise kaun e ye? wo chillaya. is par dusre pathan ne jo niche ki seet par baitha tha, us adami ka sanduq darvaze mein se niche dhakel diya jahan laal vardi vala ek kuli khaDa saman andar pahuncha raha tha.
uski patni ke chot lagne par kuch musafir chup ho ge the. keval kone mein baithi buDhiya kurlaye ja rahi thi, “ai nekbakhto, baithne do, aa ja beti, tu mere paas aa ja. jaise taise safar kaat lenge. chhoDo, be zalimo, baithne do. . .
abhi aadha saman hi andar aa paya hoga, jab sahsa gaDi sarakne lagi.
“chhoot gaya! saman chhoot gaya. wo adami badahvas sa hokar chillaya.
“pitaji saman chhoot gaya. sanDas ke darvaze ke paas khaDi laDki sir se paanv tak kaanp rahi thi aur chillaye ja rahi thi.
utro niche utro. wo adami haDabDakar chillaya aur aage baDhkar khaat ki patiyan aur gathriyan bahar phenkte hue darvaze ka DanDahra pakaDkar niche utar gaya. uske pichhe uski bhayakul beti aur phir uski patni, kaleje ko donon hathon se dabaye haay haay karti niche utar gai.
bahut bura kiya hai tum logon ne, bahut bura kiya hai. buDhiya uncha uncha bol rahi thi, tumhare dil mein dard mar gaya hai. chhoti si bachchi unke saath thi, berahmo, tumne bahut bura kiya hai dhakke dekar utaar diya hai.
gaDi sune pletfarm ko langhati aage baDh gai. Dibbe mein vyakul si chuppi chha gai. buDhiya ne bolna band kar diya tha. pathanon ka virodh kar pane ki himmat nahin hui. tabhi meri baghal mein baithe duble babu ne mere baju par haath rakhkar kaha, aag hai. dekho, aag ke beech farsh par let gaya. uska chehra abhi bhi murde jaisa pila ho raha tha. is par barth par baitha pathan uski thitholi karne laga, “o beghairat, tum mard e ki aurat e? seet par se uthkar niche letta e. tum mard ke naam ko badnam karta e. wo bol raha tha aur baar baar hanse ja raha tha. phir wo usse pashto mein kuch kahne laga. babu chup bana leta raha. anya sabhi musafir chup the. Dibbe ka vatavran bojhil bana hua tha.
aise adami ko am Dibbe mein baithne nai dega. o babu, tum agle steshan par utar jao aur janana Dibbe mein baitho.
magar babu ki hazirajvabi apne kanth mein sookh chali thi. haklakar chup ho raha. par thoDi der baad wo apne aap uthkar seet par ja baitha aur der tak apne kapDon ki dhool jhaDta raha. wo kyon uthkar farsh par let gaya tha? shayad use Dar tha ki shahr se gaDi par pathrav hoga ya goli chalegi, shayad isi karan khiDakiyon ke palle chaDhaye ja rahe the.
kuch bhi kahna kathin tha. mumkin hai, kisi ek musafir ne kisi karan se khiDki palla chaDhaya ho aur uski dekha dekhi bina soche samjhe, dhaDadhaD khiDakiyon ke palle chaDhaye jane lage hon.
bojhil anishchit se vatavran mein safar katne laga. raat gahrane lagi thi. Dibbe ke musafir stabdh aur shankit jyon ke tyon baithe the. kabhi gaDi ki raftar sahsa tutkar dhimi paD jati thi to log ek dusre ki or dekhne lagte. kabhi raste mein hi ruk jati to Dibbe ke andar ka sannata aur bhi gahra ho uthta. keval pathan nishchint the. haan, unhonne bhi batiyana chhoD diya tha, kyonki unki batachit mein koi shamil hone vala na tha.
dhire dhire pathan uunghane lage jabki anya musafir phati phati ankhon se shunya mein dekhe ja rahe the. buDhiya munh sir lapete, tangen seet par chaDhaye, baithi baithi so gai thi. uuparvali barth par ek pathan ne adhlete hi, kurte ki jeb mein se kale mankon ki tasbih nikal li aur use dhire dhire haath mein chalane laga.
khiDki ke bahar akash mein chaand nikal aaya aur chandni mein bahar ki duniya aur bhi anishchit, aur bhi adhik rahasyamyi ho uthi. kisi kisi vaqt door kisi or aag ke shole uthte nazar aate, koi nagar jal raha tha. gaDi kisi vaqt chinghaDti hui aage baDhne lagti, phir kisi vaqt uski raftar dhimi paD jati aur milon tak dhimi raftar se hi chalti rahti.
sahsa dubla babu khiDki mein se bahar dekhkar uunchi avaz mein bola, “harbansapura nikal gaya hai! uski avaz mein uttejna thi, wo jaise chikhkar bola tha. Dibbe ke sabhi log uski avaz sunkar chaunk ge. usi vaqt Dibbe ke adhikansh musafiron ne mano uski avaz ko hi sunkar karvat badli.
o babu, chillata kyon e? tasbih vala pathan chaunkkar bola, “idhar utrega? janjir khinchun? aur khi khi karke hans diya. zahir hai, wo harbansapura ki sthiti se athva uske naam se anbhigya tha.
babu ne koi uttar nahin diya, keval sir hila diya aur ek aadh baar pathan ki or dekhkar phir khiDki se bahar jhankne laga.
Dibbe mein phir maun chha gaya. tabhi injan ne siti di aur uski ekras raftar toot gai. thoDi der baad khatak ka sa shabd hua, shayad gaDi ne lain badli thi. babu ne jhankakar us disha mein dekha jis or gaDi baDhe ja rahi thi.
shahr aa gaya hai. wo phir uunchi avaz mein chillaya, “amaritsar aa gaya hai!” usne phir se kaha aur uchhalkar khaDa ho gaya, aur uupar vali barth par lete pathan ko sambodhan karke chillaya, “o be pathan ke bachche! niche utar ! teri maan ki. . . niche utar, teri us pathan banane vale ki main. . .
babu chillane laga tha aur cheekh chikhkar galiyan bakne laga tha. tasbih vale pathan ne karvat badli aur babu ki or dekhkar bola, “o kya e babu? amko kuch bola?
babu ko uttejit dekhkar anya musafir bhi uth baithe.
niche utar, teri maan. . . . hindu aurat ko laat marta hai, haramzade, teri us. . .
o babu, bak bak nahin karo. o khanjir ke tukhm, gali mat bako, amne bol diya. am tumhara zaban kheench lega.
gali deta hai, madar. . . ! babu chillaya aur uchhalkar seet par chaDh gaya. wo sir se paanv tak kaanp raha tha.
bas! bas! sardaji bole, yah laDne ki jagah nahin hai. thoDi der ka safar baqi hai. aram se baitho.
teri main laat na toDu to kahna, gaDi tere baap ki hai! babu chillaya!
o amne kya bola. sabhi log usko nikalta tha; amne bhi nikala. ye idar hamko gali deta e. am iska zaban kheench lega.
buDhiya beech mein phir bol uthi, ve jeen jogyo, aram naal baitho. ye rabb diyo bandyo, kuch hosh karo.
uske honth kisi pret ke honthon ki tarah phaDphaDaye ja rahe the aur unmen se ksheen si phusphusahat sunai de rahi thi.
babu chillaye ja raha tha, apne ghar mein sher banta tha. ab bol, teri main us pathan banane vali ki. . .
tabhi gaDi amaritsar ke pletfarm par ruki. pletfarm logon se khachakhach bhara tha. pletfarm par khaDe log jhaank jhankakar Dibbon ke andar dekhne lage. baar baar ek hi saval poochh rahe the, “pichhe kya hua hai? kahan par danga hua hai?
khachakhach bhare pletfarm par shayad isi baat ki charcha chal rahi thi ki pichhe kya hua hai. pletfarm par khaDe do teen khomchevalon par musafir toot paD rahe the. sabhi ko sahsa bhookh aur pyaas pareshan karne lagi thi. isi dauran teen chaar pathan hamare Dibbe ke bahar prakat ho ge aur khiDki se jhaank jhankakar andar dekhne lage. apne pathan sathiyon par nazar paDte hi ve unse pashto mein kuch bolne lage. mainne ghoom ghumkar dekha, babu Dibbe mein nahin tha. na jane kab wo Dibbe mein se nikal gaya tha. mera matha thanka. ghusse se wo pagal hua ja raha tha. na jane kya kar baithe. par is beech Dibbe ke tinon pathan, apni apni gathri uthakar bahar nikal ge aur apne pathan sathiyon ke saath gaDi ke agle kisi Dibbe ki or baDh ge. jo vibhajan pahle pratyek Dibbe ke bhitar hota raha tha, ab sari gaDi ke star par hone laga tha.
khomche valon ke ird gird bheeD chhantne lagi thi. log apne apne Dibbon mein lautne lage. tabhi sahsa ek or se mujhe wo babu aata dikhai diya. uska chehra ab bhi bahut pila tha aur mathe par balon ki lat jhool rahi thi. nazdik pahuncha to mainne dekha, usne apne dayen haath mein lohe ki ek chhaD utha rakhi thi. jane use wo kahan se mil gai thi. Dibbe mein ghuste samay usne chhaD ko apni peeth pichhe kar liya aur mere saath vali seet par baithne se pahle usne haule se chhaD ko seet ke niche sarka diya. seet par baithte hi uski ankh pathanon ko dekh pane ke liye uupar ko uthin. par Dibbe mein pathanon ko na pakar wo haDabDakar charon or dekhne laga.
nikal ge harami, madar. . . sabke sab nikal ge! phir wo sitapitakar uth khaDa hua aur chillakar bola, “tumne unhen jane kyon diya? tum sab namard ho, buzdil!
par gaDi mein bheeD bahut thi. bahut se ne musafir aa ge the. kisi ne uski or vishesh dhyaan nahin diya.
gaDi sarakne lagi to wo phir meri baghal vali seet par aa baitha. par wo baDa uttejit tha aur barabar baDabDaye ja raha tha.
dhire dhire hichkole khati gaDi aage baDhne lagi thi. Dibbe ke purane musafiron ne bhar pet puriyan kha li theen aur pani pi liya tha aur gaDi us ilaqe mein aage baDhne lagi thi, jahan unke jaan maal ka khatra nahin tha.
ne musafir batiya rahe the. dhire dhire gaDi phir samtal gati se chalne lagi thi. kuch hi der baad log uunghane lage the. magar babu abhi ankhon se samne ki or dekhe ja raha tha. baar baar mujhse puchhta ki pathan Dibbe mein se nikalkar kis or ko ge hain. uske sir par junun savar tha.
gaDi ke hichkole mein main khud uunghane laga tha. Dibbe mein let pane ke liye jagah nahin thi. baithe baithe hi neend mein mera sir kabhi ek or ko luDhak jata, kabhi dusri or ko. kisi kisi vaqt jhatke se meri neend tutti, aur mujhe samne ki seet par astavyast se paDe sardarji ke kharrate sunai dete. amaritsar pahunchne ke baad sardarji phir se samne vali seet par tangen pasarkar let ge the. Dibbe mein tarah tarah ki aaDi tirchhi mudraon mein musafir paDe the. unki vibhats mudraon ko dekhkar lagta, Dibba lashon se bhara hai. paas baithe babu par nazar paDti to kabhi to wo khiDki ke bahar munh kiye dekh raha hota, kabhi divar se peeth lagaye tankar baitha nazar aata.
kisi kisi vaqt gaDi kisi steshan par rukti to pahiyon ki gaDgaDahat band hone par niःstabdhata si chha jati. tabhi lagta jaise pletfarm par kuch gira hai ya jaise koi musafir gaDi se utra hai aur main jhatke se uthkar baith jata.
isi tarah jab meri ek baar neend tuti to gaDi ki raftar dhimi paD gai thi aur Dibbe mein andhera tha. mainne usi tarah adhlete khiDki se bahar dekha. door, pichhe ki or kisi steshan ke signal ke laal kumakume chamak rahe the. spashtatः gaDi koi steshan langhakar aai thi. par abhi tak usne koi raftar nahin pakDi thi.
Dibbe ke bahar mujhe dhime asphut svar sunai diye door hi ek dhumil sa kala punj nazar aaya neend ki khumari mein meri ankhen kuch der tak us par lagi rahin, phir mainne use samajh pane ka vichar chhoD diya. Dibbe ke andar andhera tha, battiyan bujhi hui theen; lekin bahar lagta tha, pau phatne vali hai.
meri peeth pichhe, Dibbe ke bahar kisi cheez ko kharonchne ki si avaz aai. mainne darvaze ki or ghumkar dekha. Dibbe ka darvaza band tha. mujhe phir se darvaza kharonchne ki avaz sunai di, phir mainne saaf saaf suna, lathi se koi vyakti Dibbe ka darvaza patapta raha tha. mainne jhankakar khiDki ke bahar dekha. sachmuch ek adami Dibbe ki do siDhiyan chaDh aaya tha. uske kandhe par ek gathri jhool rahi thi aur haath mein lathi thi aur usne badrang se kapDe pahan rakhe the aur uske daDhi thi. phir meri nazar bahar ki or gai. gaDi ke saath saath ek aurat chali aa rahi thi, nange paanv aur usne do gathriyan utha rakhi theenh bojh ke karan usse dauDa nahin ja raha tha. Dibbe ke payadan par khaDa adami baar baar uski or muDkar dekh raha tha aur hanfata hua kahe ja raha tha, a ja, aa ja, tu bhi aa ja!
darvaze par phir se lathi pataptane ki avaz aai, kholo ji darvaza, khuda ke vaste darvaza kholo.
wo adami haanf raha tha, khuda ke liye darvaza kholo. mere saath mein aurat jaat hai. gaDi nikal jayegi. . .
sahsa mainne dekha, babu haDabDakar uth khaDa hua aur darvaze ke paas jakar darvaze mein lagi khiDki mein se munh bahar nikalkar bola, “kaun hai? idhar jagah nahin hai. bahar khaDa adami phir giDgiDane laga, “khuda ke vaste, gaDi nikal jayegi. . .
aur wo adami khiDki mein se apna haath andar Dalkar darvaza khol pane ke liye sitakni tatolne laga.
nahin hai jagah bol diya, utar jao gaDi par se. babu chillaya aur usi kshan lapakkar darvaza khol diya.
ya allah! us adami ke asphut se shabd sunai diye. darvaza khulne par jaise usne itminan ki saans li ho.
aur usi vaqt mainne babu ke haath mein chhaD ko chamakte dekha. ek hi bharpur vaar babu ne us musafir ke sir par kiya tha. main dekhte hi Dar gaya aur meri tangen laraj gai. mujhe laga, jaise chhaD ke chaar ka us adami par koi asar nahin hua. uske donon haath abhi bhi zor se DanDe ko pakDe hue the. kandhe par se latakti gathri khisakkar uski kohni par aa gai thi.
tabhi sahsa uske chehre par lahu ki do teen dharen ek saath phoot paDin. jhutamute mein mujhe uske khule honth aur chamakte daant nazar aaye. wo do ek baar ya allah budabudaya, phir uske pair laDkhaDa ge. uski ankhon ne babu ki or dekha, adhmundi si ankhen jo dhire dhire sakuDti ja rahi theen, mano use pahchanne ki koshish kar rahi hon ki wo kaun hai aur usse kis adavat ka badla le raha hai. is beech andhera kuch aur chhant gaya tha. uske honth phir se phaDphaDaye aur unmen uske safed daant phir se jhalak uthe. mujhe laga, jaise wo muskuraya hai. par vastav mein traas ke karan uske honthon par bal paDne lage the.
niche patri ke saath saath bhagti aurat baDabDaye aur kose ja rahi thi. use abhi malum nahin ho paya ki kya hua hai? wo abhi bhi shayad yahi samajh rahi thi ki gathri ke karan uska pati gaDi par theek tarah se chaDh nahin pa raha hai, ki uska pair jam nahin pa raha hai. wo gaDi ke saath saath bhagti hui, apni do gathariyon ke bavjud apne pati ke pair ko pakaD pakaDkar siDhi par tikane ki koshish kar rahi thi.
tabhi sahsa DanDahre par se us adami ke donon haath chhoot ge aur wo kate peD ki bhanti niche aa gira. aur uske girte hi aurat ne bhagna band kar diya, mano un donon ka safar ek saath khatm ho gaya. babu abhi bhi mere nikat, Dibbe ke khule darvaze mein but ka but bana khaDa tha. lohe ki chhaD abhi uske hathon mein thi. mujhe laga, jaise wo chhaD ko phenk dena chahta hai lekin use phenk nahin pa raha, uska haath jaise uth nahin raha tha. meri saans abhi bhi phuli hui thi aur Dibbe ke andhiyare kone mein main khiDki ke saath satkar baitha uski or dekhe ja raha tha.
phir wo adami khaDe khaDe hila kisi agyat prernavash wo ekdam aage baDh aaya aur darvaze mein se bahar pichhe ki or dekhne laga. gaDi aage nikalti ja rahi thi. door patri ke kinare andhiyara punj sa nazar aa raha tha.
babu ka sharir harkat mein aaya, ek jhatke mein usne chhaD ko Dibbe ke bahar phenk diya, phir ghumkar Dibbe ke andar dayen bayen dekhne laga. sabhi musafir soe paDe the. meri or uski nazar nahin uthi.
thoDi der tak wo khaDa raha, phir usne ghumkar darvaza band kar diya. usne dhyaan se apne kapDon ki or dekha, apne hathon ki or dekha. phir ek ek karke apne hathon ko naak ke paas le jakar unhen sungha, mano janna chahta ho ki uske hathon se khoon ki bu to nahin aa rahi hai. phir wo dabe paanv chalta hua aaya aur meri baghal vali seet par baith gaya.
dhire dhire jhutputa chhantne laga, din khulne laga. saaf suthari si roshni charon or phailne lagi. kisi ne zanjir khinchkar gaDi ko khaDa nahin kiya tha, chhaD khakar giri uski deh milon pichhe chhoot chuki thi. samne gehun ke kheton mein phir se halki lahariyan uthne lagi theen.
sardarji badan khujlate uth baithe. meri baghal mein baitha babu donon haath sir ke pichhe rakhe samne ki or dekhe ja raha tha. raat bhar mein uske chehre par daDhi ke chhote chhote baal ug aaye the. apne samne baitha dekhkar sardar uske saath batiyane laga, baDe jivat vale ho babu! duble patle ho, par baDe gurde vale ho. baDi himmat dikhai hai. tumse Darkar hi ve pathan Dibbe mein se nikal ge, yahan bane rahte to ek na ek ki khopaDi tum zarur durust kar dete. . . aur sardarji hansne lage.
babu javab mein muskuraya, ek vibhats si muskan aur der tak sardar ke chehre ki or dekhta raha.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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