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तेलिन का रुमाल

telin ka rumal

अनुवाद : चन्द्र प्रकाश प्रभाकर 'मौतीरि'

सू मे

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तेलिन का रुमाल

सू मे

और अधिकसू मे

    कंपाउंड के एक कोने में खेलते-खेलते अचानक कुछ याद आया और जब मैं घर दौड़कर आया तो माँ घर के सामने एक खटिया पर बैठ चुकी थी। तेल वाले चमकीले कप्तान सिगरेट टिन के डिब्बे से पैसे निकाल रही माँ ने आलमारी से लोहे का एक प्लेट अचानक निकाला और चावल का पतीला खोलते हुए मुझसे कहा—

    “अरे कतूरे, तू खेल में इतना मगन हो गया है। जाओ तेल के खुए में तुम्हारे लिए पकौड़े रखे हैं, मैं वापसी में ख़रीद लाई थी।”

    मेरी माँ सारी सुबह दस बीसे के लगभग तेल एक खुए और सफ़ेद डिब्बों में डालकर एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में घूमते हुए बेचा करती थी। इसके चलते उसके सिर के बाल पर चाँदी का रंग आना शुरू हो गया था। माथे के ऊपर के केशों, बीच-बीच पसीने की चुहचुहाती बूँदें जल्द पूरे चेहरे को भिगोती छोटी-छोटी नालियों के रूप में बहने लगतीं।

    “जाओ जाकर पकौड़े ले लो।” माँ ने कहा। वह दस, पाँच रुपए और एक रुपए के नोटों को करीने से एक-दूसरे के ऊपर रख रही हैं। मैंने तेल की ट्रे में से पकौड़े उठा लिए और भोजन की प्लेट में डालकर माँ के पास बैठ गया। लाल-लाल टमाटरों को तेल में पकाकर बत्तख़ के अंडों की सब्ज़ी तैयार की गई थी—उसमें मिली सब्ज़ी के मसालों को मैं चावलों में सान कर खा रहा था।

    माँ ने जो पैसे इकट्ठे करके जोड़े थे, उनमें से पाँच रुपए के एक-दो नोट और पुराने कुछ नोट अलग कर दिए। बाक़ी दस और पाँच के कुछ नोटों को गोल कर मैंने जिस सिगरेट के टिन के डिब्बे का ज़िक्र किया था, जिसका रंग तेल जैसा....चमक रहा था—वापस उसमें डाल कर रख दिया।

    “लो भाई, हमारी फुटकर बिक्री भी कोई ख़ास नहीं हुई और उधार लेने वालों ने भी बहुत ले लिया।” यह कहकर खटिया के सिरहाने से उसने पिताजी की एक पुरानी लुंगी से मुँह और गर्दन से बहते अपने पसीने की बूँदों को साफ़ किया। इस दृश्य और इस आवाज़ को हर रोज़ सुनने वाला मेरे सिवा वहाँ और कौन था? सुबह होते ही, तेल का ट्रे उठा कर बाज़ार में बेचने जाने और दोपहर के समय जब तेज़ गर्मी में सिर से लेकर पैरों तक पसीना बह रहा होता, ऐसे वक़्त लौट आने वाली माँ पर मुझे बड़ा तरस आता। सिगरेट के टिन के डिब्बे में रखी अपनी मूढ़ी को निकालने के बाद जो लाभ हुआ था—वह सिर्फ़ पाँच रुपए और दो रुपए के नोटों में ही सिमट गया था। मेरी माँ को कितना कठोर परिश्रम करना पड़ता था।

    पसीने में डूबी अपनी ऊपर वाली सफ़ेद इंजी को माँ ने उतार फेंका। उसके बाद लुंगी को सीने तक उठा कर पहना और नीचे पहनी जावारी को उतारकर चारपाई के सिरहाने के खंबे में टाँग दिया। लंबे हैंडल वाला पंखा लेकर पास पड़े लकड़ी के गोल टुकड़े को खींच लिया और सिरहाने के नीचे रखकर पूरी तेज़ी से अपने आप पर हवा करने लगी। माँ ने आँखें बंद कर रखी थीं, लेकिन लगता था वह सोई नहीं। मैंने भोजन करते हुए कहा—“माँ, लाभ तो हुआ नहीं, तू बिना फ़ायदे के इतनी ज़्यादा मेहनत क्यों करती है? तू क्यों तेल बेचना बंद नहीं करती?” माँ की बंद की हुई आँखें अचानक खुल गईं।

    “अरे कतूरे, जब यह तेल बिकता है, तेरी दीदी स्कूल जा सकती है। तुम लोग अच्छी तरह रह सको, इसके लिए मैं अपने सिर पर सारा बोझ उठाती हूँ, मोहल्ले-मोहल्ले घूम कर तेल बेचती हूँ। जानते हो सारा प्रताप इसी तेल के खुए का है।” माँ ने पूरी वेदना से यह बात कही।

    मैंने कहा—“माँ, तू सदा यही कहती रहती है कि इसमें कोई फ़ायदा नहीं हुआ।” मैंने अपनी ओर से अपनी गुहार माँ के सामने रखी। माँ अचानक उठकर बैठ गई और दिखावे के लिए हल्की-सी चपत बनाकर धीरे-धीरे मुझे मारते हुए बोली—“अरे अब तो तुझे बहुत बोलने की आदत हो गई है। मोहल्ले में उधार रह गया है और तेल के टिन में तेल बच गया है। इनसे हमें और भी पैसे मिलेंगे।

    फिर घर की सब्ज़ी को बत्तख़ के अंडे के साथ तेल में पकाया गया है। यह तेल भी तो उसी कमाई का हिस्सा है।” माँ यह कहकर मुस्कराने लगी। मैंने एक हाथ में भोजन की प्लेट को थाम कर माँ के सीने पर अपना सिर रख लिया। माँ ने सीने से चिपटा कर मुझे प्यार किया।

    दीदी जो अब नौंवीं कक्षा की छात्रा थी, उसे घड़ी चाहिए थी। वह घड़ी के लिए ज़िद कर रही थी। पड़ोस वाली दीदी ने भी तीन-चार सौ रुपए वाली एक घड़ी ख़रीदी थी। उनका परिवार माँडले के नामी गिरामी बाज़ार में दूसरे मज़दूरों के साथ मज़दूर के तौर पर काम करता था। जब दीदी घड़ी के लिए ज़िद कर रही थी तो मुझे बहुत दुःख हो रहा था। जिस परिवार के सदस्यों को हर रोज़ माँ की मुसीबतें दीख रही हो, सुनाई दे रही हों, उनके लिए तीन सौ रुपए कहाँ से आएँगे—यह सोचकर मैं दुखी हो रहा था। उन्हीं दिनों में मोंखा से कोई चाचा आए। वे सुनार थे। उनसे पिता ने ज़िक्र किया कि मैं बड़ी बेटी को तीन सौ रुपए वाली एक घड़ी ख़रीद कर देना चाहता हूँ। चाचा ने उन्हें टोका और कहा—“आप कमाल करते हैं भाई साहब, आज के ज़माने में जो लोग तीन सौ रुपए की घड़ी पहनते हैं वे तो बड़े ग़रीब लोगों में गिने जाते हैं। यह दो-चार दिनों में ख़राब होने वाली घड़ी होती है। फिर दूसरी घड़ी ख़रीदनी होती है। अगर दोबारा ख़रीद सके तो? इससे बढ़िया है कि एक ही बार में अच्छी घड़ी ख़रीद लें। वह बहुत लंबे समय तक चलेगी।”

    उनकी बात सुनकर पिता और चाचा घर के अंदर चले गए और आपस में खुसर-पुसर करते रहे। दीदी जब स्कूल से वापस लौटी तो वह चाचा की साइकिल के पीछे बैठकर बाज़ार चली गई। वह जब लौटी तो अपनी कलाई पर नई घड़ी पहनी हुई थी। यह टिटोनी घड़ी थी। चाचा ने कहा था कि इसके सवा सात सौ रुपए लगेंगे। उसके बाद चाचा ने एक रसीद और कुछ पैसे पिताजी को दे दिए।

    “भाई साहब, पच्चीस रुपए बच भी गए हैं।” चाचा ने यह बात कही। उनकी बातों से मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मेरे लिए ऐसी बातें समझना बहुत कठिन था। मैं तो घड़ी के बारे में हैरान और अवाक् था।

    उस समय मैं आठवीं कक्षा में था। शायद मेरे क़दम जवानी की ओर बढ़ रहे थे। सामने पूरब दिशा में पिताजी काम किया करते थे। उस घर का मालिक तेल के मिल का मालिक था। उसका बेटा किसी कॉलेज का विद्यार्थी था।

    एक दिन जब मैं स्कूल से लौट रहा था तो मेरी और उसकी आमने-सामने मुलाक़ात हो गई। वह अपनी कार से कॉलेज जाया करता था। आज उसकी कार को क्या हुआ, पता नहीं। वह बस में स्कूल गया था। शायद बस से ही लौट रहा था, तभी उसकी मुझसे भेंट हो गई थी। हम लोग टलना बाज़ार के पास मिले थे। उस समय सुबह वाली बारिश से मौसम काफ़ी ठंडा हो गया था। उसने जींस की जैकेट पहन रखी थी। शर्ट का रंग भी उससे मेल खा रहा था। सफ़ेद लुंगी के ऊपर भूरे रंग की डिज़ाइनों वाला छापा था—यह शंखमार्का लुंगी थी। उसने चौड़ी-चौड़ी सिली गई कैप, जिसे बर्मा में नानरोटी कैप कहते हैं, पहन रखी थी। उसने तीन-चार किताबें थामी थीं। हो सकता है स्कूल की ही पुस्तकें हों। दूसरे हाथ में चौड़े हैंडल वाली एक फ़ोल्डिंग छतरी थी।

    मुझे उसकी नानरोटी वाली कैप और चौड़ी हैंडल वाली फ़ोल्डिंग छतरी काफ़ी पसंद आई थी। हमारे घर के पास ही एक दर्ज़ी की दुकान थी। मैंने बड़ी प्रार्थना करके कपड़े का एक टुकड़ा उससे लिया और अट्ठाइसवीं गली में टोपियों के स्टोर में नान रोटी कैप सिलने को दे दिया। फ़ोल्डिंग वाली छतरी के लिए मैंने माँ से बहुत ज़िद की कि वह ख़रीद कर दे। जब-कभी माँ बाज़ार से तेल बेचकर लौटती तो वह बहुत दुखी दीखती। उसकी बातें हमेशा मेरे कानों में पड़ती थीं।

    इसके बावजूद मेरी आँखों से तेल के मालिक का जो पहनावा था—वह नहीं निकल रहा था। माँ ने यह कहा कि अगर छतरी लेनी है तो वही छतरी ख़रीदो जो मैं कई सालों से इस्तेमाल करती आई हूँ। छोटे हैंडल वाली शुतुर्मुर्ग मार्का महिला छतरी। लेकिन मैं आकर्षित था चौड़े हैंडल वाली फ़ोल्डिंग छतरी से।

    एक दिन ठीक ऐसे समय बारिश हुई, जब मैं स्कूल जाने के लिए घर से निकल रहा था। धीमी-धीमी बारिश हो रही थी। मैंने सिर पर बचाव के लिए कुछ भी नहीं लिया और स्कूल जाने लगा।

    “अरे छतरी ले जा, बारिश में कैसे जाएगा?” माँ ने पुकार कर कहा।

    “माँ, तुम्हारी छतरी कोई फ़ोल्डिंग छतरी है?” मैंने उत्तर दिया। उस दिन जाने क्यों, मुझे याद नहीं कि कारण क्या था। उस उत्तर के बाद माँ तेल बेचने के लिए बाहर निकल नहीं पाई। अचानक माँ ने अपनी शुतुर्मुर्ग मार्के वाली छतरी ली और मेरा हाथ पकड़कर मुझे बाज़ार ले गई।

    वहाँ दक्षिण छोर की एक दुकान से एक फ़ोल्डिंग छतरी ख़रीदी गई। जब छतरी के लिए पैसे देने की बात आई तो माँ ने अपनी इंजी के अंदर वाले पॉकेट से प्लास्टिक का एक बंडल निकाला। कई बार मोड़कर बड़ी खस्ता हालत में पहुँचे हुए उस बंडल को खोलने पर उसमें से दस रुपए के नोटों की एक गड्डी निकली। उसमें से एक-एक कर माँ ने वे नोट गिने और मेरे हाथ पर रख दिए। कुल बारह नोट थे। मैंने अनुभव किया कि दस रुपए के नोट माँ के तेल वाले हाथों से बार-बार गिनने के कारण चीकट हो गए थे और उनमें से तेल की ख़ुशबू रही थी। मुझे याद आया कि माँ के कैप्टन सिगरेट वाला टिन का डिब्बा जब भी खुलता था, उस वक़्त जो महक होती थी, वही यहाँ भी है। अब जाकर उन दस के नोटों को दुकान के मालिक के हाथ पर रखते हुए मुझे ज़रा-सा संकोच होने लगा। बाज़ार से लौट कर पसीने पोंछती और वक्षस्थल तक लुंगी बाँधे घर के सामने एक छोटी-सी चारपाई पर लेटी, तेज़ी से पंखा झलती माँ—वह पूरा दृश्य मेरी आँखों के सामने था। लेकिन दूसरी तरफ़ मेरे हाथ में अब फ़ोल्डिंग छतरी चुकी थी। तभी माँ की आवाज़ आई—

    “क्या है बेटे, किस सोच में पड़ गए? पैसे तो पूरे हैं न...दे दो।” जब माँ ने दोबारा पूछा तो मैंने अपने हाथ में थामे हुए नोट दुकानदार के हाथ में रख दिए।

    “लो बेटे, अब यह छतरी ओढ़कर सीधा स्कूल जाओ।” यह कहकर निकल के हैंडल वाली एक पुरानी-सी छतरी अपनी बाँह के नीचे दबा कर टांटे बाज़ार की अट्ठाइसवीं गली की ओर माँ जब तक मुड़ नहीं गई—मैं नई छतरी थामे उसे ध्यान से देखता रहा।

    उस दिन दीदी को सात सौ रुपए की घड़ी और मुझे सौ रुपए से अधिक की फ़ोल्डिंग छतरी ख़रीद कर देने के कारण उधार बहुत चढ़ गया और इधर बिक्री भी अच्छी नहीं थी। इस तरह हमेशा खीज प्रकट करने वाली माँ के बारे में मुझे महसूस हुआ कि उसे समझ नहीं पा रहा हूँ। उसने मुझे छतरी के लिए जो पैसे दिए थे, कैप्टन सिगरेट के डिब्बे से, शायद अब उस डिब्बे में पैसे हों, यह बात मैं सोचने पर मज़बूर हो गया।

    एक दिन पिताजी ने मुझे आदेश दिया कि पूरबी कंपाउंड के तेल मालिक के पास जाओ और जल से उनकी पूजा करो, उनसे आशीर्वाद लो। जब मैं उनके पास आशीर्वाद लेने गया तो उनकी बेटी, जिसका नाम ममा: था, ने एक बड़ी-सी मेज़ के बग़ल रखी तिजोरी से पिताजी के लिए वेतन और मेरे लिए मिठाई खाने को पैसे निकालकर दिए। तब मैंने उस तिजोरी में रखी अनगिनत नोटों की बड़ी-बड़ी गड्डियाँ पहली बार देखीं। तभी मेरे दिमाग़ में एक बात बैठी कि तेल के मालिक को अपनी हैसियत के अनुसार बड़ी-सी तिजोरी में रुपयों के बंडल रखने पड़ते हैं। हमारे घर में भी बेशक सिर पर तेल के कुए रखने वाले एक तेली की हैसियत से पिताजी जिस लोहे के संदूक़ को ताला लगाकर रखते हैं, उसमें ज़रूर नोटों की गड्डियाँ होंगी। जिस तरह तेल के मालिक ने लाखों रुपए इकट्ठे कर रखे हैं, उसी तरह सिर पर तेल बेचने वाली माँ के पास भी कम-से-कम हज़ारों रुपए ज़रूर होंगे। मैंने जो हिसाब लगाया था, उसी हिसाब से मैं विचार करने लगा। इसलिए कुछ ही दिनों में तेल मिल के मालिक के यहाँ काम करने वाली मेज़र पर उधार का जो खाता था, उसमें पिता के नाम दो सौ पच्चीस रुपए लिखे गए थे।

    मेरे जैसे सातवीं कक्षा के विद्यार्थी को चश्मा लगाना पड़ गया हो, उसका चश्मे में दिलचस्पी होना स्वाभाविक ही है। उस दिन भी एक मित्र के साथ उसके पिता की दुकान पर मस्ती में ऑर्डर देने के साथ ही पैसे चुकाने की समस्या की शुरुआत हुई। मित्र का पिता तिरासीवीं गली वाले बाज़ार में एक कमरे की दुकान में चश्मे बेचता था। वहाँ कई तरह के चश्मे के फ़्रेम प्रदर्शित थे। ऐसा चश्मा, जिसका नाम मैं पढ़ नहीं पाया, उसकी ओर काफ़ी आकर्षित हुआ था। साधारण से फ़्रेम को निहारते हुए उसे मैं हाथ से नीचे नहीं रखना चाहता था। मैंने जब शीशे में देखा तो ऐसा लगा कि यह मेरा ही पसंदीदा फ़्रेम है। मैं उसी फ़्रेम को लेना चाहता था। मेरी निगाहें उसी पर टिक गई थीं। मेरे भावों को देखकर मित्र के पिता ने कहा—

    “हाँ, तुम पर बहुत जँचेगा। ये फ़्रेम अभी-अभी बाहर से आए हैं। अगर यह फ़्रेम तुम्हें पसंद है तो मैं तुम्हें ख़रीदे हुए दाम पर ही दे दूँगा।” मैंने उसका दाम पूछा।

    “सवा दो सौ।” जब मैंने यह उत्तर सुना तो पिताजी वाला लोहे का संदूक़ दिखाई देने लगा, जिसमें हमेशा ताला लगाया होता है। अगर उसमें रुपए पूरे भी हों तो पिताजी के बंटोक के नीचे नोटों की गड्डियाँ हो सकती हैं। तेल के मालिक की तिजोरी में भी नोटों के बंडल पूरे भरे हुए थे न? पिताजी के संदूक़ में भी कौन बता सकता है कि वहाँ नोटों की गड्डियाँ नहीं होंगी। संदूक़ को हमेशा ताला लगाकर रखने वाली बात ने मेरे सोच को इतमीनान में बदल दिया था। हल्के धुएँ के रंग और घने काले तथा काली कतार में रखे प्लास्टिक के चश्मे के फ़्रेम को मैं अब हाथ से जाने देना नहीं चाहता था। इसलिए मैंने कहा—“जनाब, हम यही फ़्रेम लेंगे, लेकिन आज मैं पैसे नहीं लाया। कल मैं पैसे लेकर आऊँगा, यह मिल जाएगा न?”

    दोस्त के पिता ने मेरी पीठ को ठोककर कहा—“अरे भाई, ले जाओ, ले जाओ। इस माल की क़ीमत काफ़ी है। अगर आज तुम नहीं ले जाओगे तो मैं कल की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि यह बचेगा या नहीं, इसलिए ले जाओ।” उनकी आज्ञा पर मैंने चश्मे का वह फ़्रेम ले लिया।

    मैं जब घर पहुँचा तो माँ तेल बेचकर वापस लौटी थी। भोजन करते हुए मैंने माँ को बताया कि मैं चश्मा उधार ले आया हूँ। मैंने सोचा, माँ अभी पिता के लोहे की संदूक़ का ताला खोलकर नोटों की गड्डी में से दो सौ पच्चीस रुपए मुझे दे देगी। यह सुनते ही अचानक माँ अपनी छाती पीटने लगी।

    “यह क्या गुल खिला रहे हो बेटे? हम लोगों के पास पैसे कहाँ हैं, जो हम तुम्हारे चश्मे की क़ीमत चुका पाएँ? अरे कोई सौदा हमसे पूछ कर तो तय किया करो। अब हम ये सवा दो सौ रुपए कहाँ से लाएँगे?” माँ ज़ोर-ज़ोर से छाती पीट रही थी।

    “क्या तुमने कोई पैसा जमा नहीं किया।”

    मैंने जब यह सवाल किया तो माँ ने रोते हुए उत्तर दिया—“बेटे, तुमको मालूम है कि जो पैसे हमें मिलते हैं उनसे खाने का पूरा ख़र्चा निकलता भी है या नहीं, यह तुमने कभी पूछा है? रही पैसे जमा करने की बात-वह तो बहुत दूर की बात है।”

    माँ अपने दुःख और वेदना से ना जाने क्या-क्या बोल रही थी? जैसे ही पिताजी काम से लौटे तो माँ ने शिकायत से उनका स्वागत किया और बोली—“आज आपको तेल की जो रक़म मालिक को देनी है, वह नहीं दी जा सकेगी। आप उधार के खाते में अपना नाम चढ़ा लीजिए और अपने मालिक से बता दीजिए। आपका बेटा एक क़ीमती चश्मा उधार लेकर आया है और सवा दो सौ रुपए क़ीमत बता रहा है।”

    जैसे ही माँ ने यह बात बताई, पिताजी का मुँह उतर गया। उन्होंने क्रोध से मुझे घूर कर देखा। वह बहुत कम बात करने के आदी थे। उनके द्वारा क्रोध में लिया गया चटकारा बड़ी-बड़ी और मोटी-मोटी गालियों से ज़्यादा भारी और भयंकर था। मैं कुछ कहने जा रहा था, लेकिन बीच में रोक दिया। मैंने बीच में ही भोजन समाप्त कर दिया और प्लेट धोने के बाद हाथ धोये। जब नैपकिन खोजा तो फटे-पुराने और मैले-कुचैले कपड़े के कुछ टुकड़े ही मिले।

    उसके बाद जब मैं माँ की ट्रे को देखने गया तो मुझे पीले रंग वाले डिब्बे का कछुए का ढक्कन वहाँ दिखाई दिया। साथ ही रुपहली चमक वाला कैप्टन सिगरेट की टिन का ढक्कन और पास ही एक साफ़-सुथरा रुमाल मिला—जिसे अच्छी तरह तहाकर रखा गया था। मैंने वह रुमाल उठाया उससे अपने हाथ पोंछे और जैसे वह तहाकर रखा गया था, उसी तरह रख कर चुपचाप वापस चल दिया।

    अभी जो लेडीज़ वाच मैंने डाल रखी है, इसकी क़ीमत नौ हज़ार रुपए हैं।” जब यह बात कही गई तो मेरे बेटे और बेटियाँ हँसने लगे।

    “यह घड़ी तुम्हारे पिता को तुम्हारी आंटी से मिली थी। जब तुम्हारी आंटी ने घड़ी लेने की ज़िद की तो तुम्हारी दादी को ख़ानदानी केस में रखी सोने की कंघी बेचकर वह घड़ी ख़रीद दी थी। वह कंघी एक टिक्कल की थी। उस ज़माने में सोने की एक टिक्कल की क़ीमत साढ़े सात सौ रुपए हुआ करती थी। अब सोने की एक टिक्कल की क़ीमत दस हज़ार रुपए है। इसलिए मेरी घड़ी कम-से-कम नौ हज़ार रुपए की तो होगी।” भोजन से हाथ रोककर जब पिता ने यह समझाया तब बेटे और बेटी ने कहा—

    “इसका मतलब है कि अब भी माँ ने हम लोगों के लिए अपनी माँ के सोने के काँटे बेचकर घड़ी ख़रीदी।” उन्होंने बेहिचक ऐसा कहा।

    इस साल बारिश में घर की छत डालनी पड़ी थी, इसलिए माँ के सोने के काँटें पहले ही बेचने पड़े थे और यह सोचकर मुझे बड़ा दुःख हुआ।

    मैंने चश्मे के मोटे-मोटे पावर वाला शीशा बदल लिया था और अभी तक वही चल रहा था। फ़्रेम बदलने की जगह मैं अपनी बेटी के लिए सोचता हूँ कि उसे सादी छतरी और बेटे के लिए शुतुर्मुर्ग मार्के वाला एक छाता लाकर दूँ। इसमें मुझे अधिक दिलचस्पी थी। यह सोचकर मैंने भोजन समाप्त कर दिया और बाहर पड़ी चिलमची में हाथ धोए।

    “क्या बात है बड़े भाई साहब, सब्ज़ी पसंद नहीं आई क्या? आपने बहुत कम खाया।” यह बहन का प्रश्न था और उसके अनुकूल ही मैंने सिर हिला दिया। उससे नज़र बचाकर यहाँ-वहाँ देखने लगा।

    तभी माँ भोजन करती-करती बोली—“क्या बात है? क्या नैपकिन खो गया है? आज मुझे भी ज़्यादा फ़ुर्सत नहीं मिली। नैपकिन धोने में काफ़ी साबुन घिसता है, इसलिए उसने “सूखी हुई लुंगी कहाँ है?” यह बात कही और मैं माँ के चेहरे को दोबारा पढ़ने में लग गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 321)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : सू में
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
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