दफ़्तर में ज़रा देर से आना अफ़सरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उत्तनी ही देर में आता है; और उतने ही सबेरे जाता भी है। चपरासी की हाज़िरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना एवज़ देना पड़ता है। ख़ैर, जब बरेली जिला-बोर्ड के हेड क्लर्क बाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दफ़्तर आए, तब मानो दफ़्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़कर पैर-गाड़ी ली, अरदली ने दौड़कर कमरे की चिक उठा दी और जमादार ने डाक की क़िश्त मेज़ पर लाकर रख दी। मदारीलाल ने पहला ही सरकारी लिफ़ाफ़ा खोला था कि उनका रंग फ़क़ हो गया। वे कई मिनट तक आश्चर्यांवित हालत में खड़े रहे, मानो सारी ज्ञानेंद्रियाँ शिथिल हो गई हों। उन पर बड़े-बड़े आघात हो चुके थे; पर इतने बदहवास वे कभी न हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से ख़ाली थी, सरकार ने सुबोधचंद्र को वह जगह दी थी और सुबोधचंद्र वह व्यक्ति था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को घृणा थी। वह सुबोधचंद्र, जो उनका सहपाठी था, जिस जक देने को उन्होंने कितनी ही चेष्टा की; पर कभी सफल न हुए थे। वही सुबोध आज उनका अफ़सर होकर आ रहा था। सुबोध की इधर कई सालों से कोई ख़बर न थी। इतना मालूम था कि वह फ़ौज में भरती हो गया था। मदारीलाल ने समझा था—वहीं मर गया होगा; पर आज वह मानो जी उठा और सेक्रेटरी होकर आ रहा था। मदारीलाल को उसकी मातहती में काम करना पड़ेगा। इस अपमान से तो मर जाना कहीं अच्छा था। सुबोध को स्कूल और कॉलेज की सारी बातें अवश्य ही याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कॉलेज से निकलवा देने के लिए कई बार मंत्र चलाए, झूठे आरोप किए, बदनाम किया। क्या सुबोध सब कुछ भूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही पुरानी कसर निकालेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राण-रक्षा का कोई उपाय न सूझता था।
मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही विरोध था। दोनों एक ही दिन, एक ही शाला में भरती हुए थे, और पहले ही दिन से दिल में ईर्ष्या और द्वेष की वह चिनगारी पड़ गई, जो आज बीस वर्ष बीतने पर भी न बुझी थी। सुबोध का अपराध यही था कि वह मदारीलाल से हर एक बात में बढ़ा हुआ था। डील-डौल, रंग-रूप, रीति-व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सारे मैदान उसके हाथ थे। मदारीलाल ने उसका यह अपराध कभी क्षमा नहीं किया। सुबोध बीस वर्ष तक निरंतर उनके हृदय का काँटा बना रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी फेल होकर इस दफ़्तर में नौकर हो गए, तब उनका चित्त शांत हुआ। किंतु जब यह मालूम हुआ कि सुबोध बसरे जा रहा है, तब तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी फाँस निकल गई। पर हां हतभाग्य! आज वह पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी क़िस्मत सुबोध के हाथ में थी। ईश्वर इतना अन्यायी है! विधि इतना कठोर!
जब ज़रा चित्त शांत हुआ, तब मदारी ने दफ़्तर के क्लर्कों को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा—अब आप लोग ज़रा हाथ-पाँव सँभालकर रहिएगा। सुबोधचंद्र वे आदमी नहीं हैं, जो भूलो को क्षमा कर दें।
एक क्लर्क ने पूछा—क्या बहुत सख़्त हैं?
मदारीलाल ने मुस्कुराकर कहा—वह तो आप लोगों को दो-चार दिन ही में मालूम हो जाएगा। मैं अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूँ? बस, चेतावनी दे दी कि ज़रा हाथ-पाँव सँभालकर रहिएगा। आदमी योग्य है, पर बड़ा ही क्रोधी, बड़ा दंभी। ग़ुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। ख़ुद हज़ारों हज़म कर जाए और डकार तक न ले; पर क्या मजाल कि कोइ मातहत एक कौड़ी भी हज़म करने पाए। ऐसे आदमी से ईश्वर ही बचाए! मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊँ। दोनों वक़्त घर पर हाज़िरी बजानी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रेटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ाएगा। कोई बाज़ार से सौदा-सुलुफ़ लाएगा और कोई उन्हें अख़बार सुनाएगा। और चपरासियों के तो शायद दफ़्तर में दर्शन ही न हों।
इस प्रकार सारे दफ़्तर को सुबोधचंद्र की तरफ़ से भड़काकर मदारीलाल ने अपना कलेजा ठंडा किया।
दो
इसके एक सप्ताह बाद सुबोधचंद्र गाड़ी से उतरे, तब स्टेशन पर दफ़्तर के सब कर्मचारियों को हाज़िर पाया। सब उनका स्वागत करने आए थे। मदारीलाल को देखते ही सुबोध लपककर उनके गले से लिपट गए और बोले—तुम ख़ूब मिले भाई। यहाँ कैसे आए? ओह! आज एक युग के बाद भेंट हुई!
मदारीलाल बोले—यहाँ जिला-बोर्ड के दफ़्तर में हेड-क्लर्क हूँ। आप तो कुशल से हैं?
सुबोध—अजी, मेरी न पूछो। बसरा, फ़्रांस, मिस्र और न-जाने कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा। तुम दफ़्तर में हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही में न आता था कि कैसे काम चलेगा। मैं तो बिल्कुल कोरा हूँ; मगर जहाँ जाता हूँ, मेरा सौभाग्य ही मेरे साथ जाता है। बसरे में सभी अफ़सर ख़ुश थे। फ़्रांस में भी ख़ूब चैन किए। दो साल में कोई पचीस हज़ार रुपए बना लाया और सब उड़ा दिया। वहाँ से आकर कुछ दिनों को आपरेशन दफ़्तर में मटरगश्त करता रहा। यहाँ आया, तब तुम मिल गए। (क्लर्को को देखकर)—ये लोग कौन हैं?
मदारी के हृदय पर बर्छियाँ-सी चल रही थीं। दुष्ट पच्चीस हज़ार रुपए बसरे में कमा लाया! यहाँ क़लम घिसते-घिसते मर गए और पाँच सौ भी न जमाकर सके। बोले—कर्मचारी हैं। सलाम करने आए हैं।
सबोध ने उन सब लोगों से बारी-बारी से हाथ मिलाया और बोला—आप लोगों ने व्यर्थ यह कष्ट किया। बहुत आभारी हूँ। मुझे आशा है कि आप सब सज्जनों को मुझसे कोई शिकायत न होगी। मुझे अपना अफ़सर नहीं, अपना भाई समझिए। आप सब लोग मिलकर इस तरह काम कीजिए कि बोर्ड की नेकनामी हो और मैं भी सुर्ख़रू रहूँ। आपके हेड क्लर्क साहब तो मेरे पुराने मित्र और लँगोटिया यार हैं।
एक वाक्चातुर्य क्लर्क ने कहा—हम सब हुज़ूर के ताबेदार हैं। यथाशक्ति आपको असंतुष्ट न करेंगे; लेकिन आदमी ही है, अगर कोई भूल हो भी जाए, तो हुज़ूर उसे क्षमा करेंगे।
सुबोध ने नम्रता से कहा—यही मेरा सिद्धांत है और हमेशा से यही सिद्धांत रहा है। जहाँ रहा, मातहतों से मित्रों का-सा बर्ताव किया। हम और आज दोनों ही किसी तीसरे के ग़ुलाम हैं। फिर रौब कैसा और अफ़सरी कैसी? हाँ, हमें नेकनीयत के साथ अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए।
जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले, तब आपस में बातें होनी लगीं—आदमी तो अच्छा मालूम होता है।
“हेड क्लर्क के कहने से तो ऐसा मालूम होता था कि सबको कच्चा ही खा जाएगा।”
“पहले सभी ऐसे ही बातें करते है।”
“ये दिखाने के दाँत है।”
तीन
सुबोध को आए एक महीना गुज़र गया। बोर्ड के क्लर्क, अरदली, चपरासी सभी उसके बर्ताव से ख़ुश हैं। वह इतना प्रसन्नचित्त है, इतना नम्र है कि जो उससे एक बार मिला है, सदैव के लिए उसका मित्र हो जाता है। कठोर शब्द तो उनकी ज़बान पर आता ही नहीं। इंकार को भी वह अप्रिय नहीं होने देता; लेकिन द्वेष की आँखों में गुण और भी भयंकर हो जाता है। सुबोध के ये सारे सदगुण मदारीलाल की आँखों में खटकते रहते हैं। उसके विरूद्ध कोई न कोई गुप्त षड्यंत्र रचते ही रहते हैं। पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल न हुए। बोर्ड के मेंबरों को भड़काना चाहा, मुँह की खाई। ठेकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित होना पड़ा। वे चाहते थे कि भूस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखें। सुबोध से यों हँस कर मिलते, यों चिकनी-चुपड़ी बातें करते, मानो उसके सच्चे मित्र है, पर घात में लगे रहते। सुबोध में सब गुण थे, पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त समझते हैं।
एक दिन मदारीलाल सेक्रेटरी साहब के कमरे में गए, तब कुर्सी ख़ाली देखी। वे किसी काम से बाहर चले गए थे। उनकी मेज़ पर पाँच हज़ार के नोट पुलिदों में बँधे हुए रखे थे। बोर्ड के मदरसों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाए गए थे। उसी के दाम थे। ठेकेदार वसूली के लिए बुलाया गया था। आज ही सेक्रेटरी साहब ने चेक भेजकर खजाने से रुपए मँगवाए थे। मदारीलाल ने बरामदे में झाँककर देखा, सुबोध का कहीं पता नहीं। उनकी नीयत बदल गई। ईर्ष्या में लोभ का सम्मिश्रण हो गया। काँपते हुए हाथों से पुलिंदे उठाए; पतलून की दोनों जेबों में भर कर तुरंत कमरे से निकले और चपरासी को पुकार कर बोले—बाबू जी भीतर है? चपरासी आप ठेकेदार से कुछ वसूल करने की ख़ुशी में फूला हुआ था। सामने वाले तमोली के दुकान से आकर बोला—जी नहीं, कचहरी में किसी से बातें कर रहे हैं। अभी-अभी तो गए हैं।
मदारीलाल ने दफ़्तर में आकर एक क्लर्क से कहा—यह मिसिल ले जाकर सेक्रेटरी साहब को दिखाओ।
क्लर्क मिसिल लेकर चला गया। ज़रा देर में लौटकर बोला—सेक्रेटरी साहब कमरे में न थे। फ़ाइल मेज़ पर रख आया हूँ।
मदारीलाल ने मुँह सिकोड़ कर कहा—कमरा छोड़ कर कहाँ चले जाया करते हैं? किसी दिन धोखा उठाएँगे।
क्लर्क ने कहा—उनके कमरे में दफ़्तरवालों के सिवा और जाता ही कौन है?
मदारीलाल ने तीव्र स्वर में कहा—तो क्या दफ़्तरवाले सब-के-सब देवता हैं? कब किसकी नीयत बदल जाए, कोई नहीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छों-अच्छों की नीयतें बदलते देखी हैं। इस वक़्त हम सभी साह हैं; लेकिन अवसर पाकर शायद ही कोई चूके। मनुष्य की यही प्रकृति है। आप जाकर उनके कमरे के दोनों दरवाज़े बंद कर दीजिए।
क्लर्क ने टाल कर कहा—चपरासी तो दरवाज़े पर बैठा हुआ है।
मदारीलाल ने झुँझलाकर कहा—आप से मैं जो कहता हूँ, वह कीजिए। कहने लगे, चपरासी बैठा हुआ है। चपरासी कोई ऋषि है, मुनि है? चपरासी ही कुछ उड़ा दे, तो आप उसका क्या कर लेंगे? जमानत भी है तो तीन सौ की। यहाँ एक-एक काग़ज़ लाखों का है।
यह कहकर मदारीलाल ख़ुद उठे और दफ़्तर के द्वार दोनों तरफ़ से बंदकर दिए। जब चित्त शांत हुआ, तब नोटों के पुलिंदे जेब से निकालकर एक आलमारी में काग़ज़ों के नीचे छिपाकर रख दिए। फिर आकर अपने काम में व्यस्त हो गए।
सुबोधचंद्र कोई घंटे-भर में लौटे तब उनके कमरे का द्वार बंद था। दफ़्तर में आकर मुस्कुराते हुए बोले—मेरा कमरा किसने बंद कर दिया है, भाई? क्या मेरी बेदख़ली हो गई?
मदारीलाल ने खड़े होकर मृदु तिरस्कार दिखाते हुए कहा—साहब, गुस्ताख़ी माफ़ हो, आप जब कभी बाहर जाएँ, चाहे एक ही मिनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाज़ा बंद कर दिया करें। आपकी मेज़ पर रुपए-पैसे और सरकारी काग़ज़-पत्र बिखरे पड़े रहते हैं, न जाने किस वक़्त किसकी नीयत बदल जाए। मैंने अभी सुना कि आप कहीं गए हैं, जब दरवाज़े बंद कर दिए।
सुबोधचंद्र द्वार खोलकर कमरे में गए और सिगार पीने लगे। मेज़ पर नोट रखे हुए है, इसकी ख़बर ही न थी।
सहसा ठेकेदार ने आकर सलाम किया। सुबोध कुर्सी से उठ बैठे और बोले—तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था। दस ही बजे रुपए मँगवा लिए थे। रसीद लिखवा लाए हो न?
ठेकेदार—हुज़ूर रसीद लिखवा लाया हूँ।
सुबोध—तो अपने रुपए ले जाओ। तुम्हारे काम से मैं बहुत ख़ुश नहीं हूँ। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगाई और काम में सफ़ाई भी नहीं हैं। अगर ऐसा काम फिर करोंगे, तो ठेकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जाएगा।
यह कहकर सुबोध ने मेज़ पर निगाह डाली, तब नोटों के पुलिंदे न थे। सोचा, शायद किसी फ़ाइल के नीचे दब गए हों। कुरसी के समीप के सब काग़ज़ उलट-पुलट डाले; मगर नोटों का कहीं पता नहीं। ये नोट कहाँ गए! अभी तो यही मैंने रख दिए थे। जा कहाँ सकते हैं। फिर फ़ाइलों को उलटने-पुलटने लगे। दिल में ज़रा-ज़रा धड़कन होने लगी। सारी मेज़ के काग़ज़ छान डाले, पुलिंदों का पता नहीं। तब वे कुरसी पर बैठकर इस आधे घंटे में होने वाली घटनाओं की मन में आलोचना करने लगे—चपरासी ने नोटों के पुलिंदे लाकर मुझे दिए, ख़ूब याद है। भला, यह भी भूलने की बात है और इतनी जल्द! मैने नोटों को लेकर यहीं मेज़ पर रख दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब आ गए, पुराने मुलाक़ाती हैं। उनसे बातें करता ज़रा उस पेड़ तक चला गया। उन्होंने पान मँगवाए, बस इतनी ही देर हुई। जब गया हूँ, तब पुलिंदे रखे हुए थे। ख़ूब अच्छी तरह याद है। तब ये नोट कहाँ ग़ायब हो गए? मैंने किसी संदूक़, दराज़ या आलमारी में नहीं रखे। फिर गए तो कहाँ? शायद दफ़्तर में किसी ने सावधानी के लिए उठाकर रख दिए हों, यही बात है। मैं व्यर्थ ही इतना घबरा गया। छि:!
तुरंत दफ़्तर में आकर मदारीलाल से बोले—आपने मेरी मेज़ पर से नोट तो उठाकर नहीं रख दिए?
मदारीलाल ने भौंचक्के होकर कहा—क्या आपकी मेज़ पर नोट रखे हुए थे? मुझे तो ख़बर ही नहीं। अभी पंडित सोहनलाल एक फ़ाइल लेकर गए थे, तब आपको कमरे में न देखा। जब मुझे मालूम हुआ कि आप किसी से बातें करने चले गए हैं, तब दरवाज़े बंद करा दिए। क्या कुछ नोट नहीं मिल रहे हैं?
सुबोध आँखें फैलाकर बोले—अरे साहब, पूरे पाँच हज़ार के हैं। अभी-अभी चेक भुनाया है।
मदारीलाल ने सिर पीटकर कहा—पूरे पाँच हज़ार! या भगवान! आपने मेज़ पर ख़ूब देख लिया हैं?
“अजी पंद्रह मिनट से तलाश कर रहा हूँ।”
“चपरासी से पूछ लिया कि कौन-कौन आया था?”
“आइए, ज़रा आप लोग भी तलाश कीजिए। मेरे तो होश उड़े हुए हैं।”
सारा दफ़्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज़, आलमारियाँ, संदूक़ सब देखे गए। रजिस्टरों के वर्क उलट-पुलट कर देखे गए; मगर नोटों का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अब इसमें कोई शुबहा न था। सुबोध ने एक लंबी साँस ली और कुर्सी पर बैठ गए। चेहरे का रंग फ़क़ हो गया। ज़रा-सा मुँह निकल आया। इस समय कोई उन्हें देखता, तो समझता कि महीनों से बीमार हैं।
मदारीलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा—ग़ज़ब हो गया और क्या! आज तक कभी ऐसा अँधेर न हुआ था। मुझे यहाँ काम करते दस साल हो गए, कभी धेले की चीज़ भी ग़ायब न हुई। मैं आपको पहले दिन सावधान कर देना चाहता था कि रुपए-पैसे के विषय में होशियार रहिएगा; मगर शुदनी थी, ख़याल न रहा। ज़रूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ाकर ग़ायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कि उसने किसी को कमरे में जोने ही क्यों दिया? वह लाख क़सम खाए कि बाहर से कोई नहीं आया; लेकिन मैं इसे मान नहीं सकता। यहाँ से तो केवल पंडित सोहनलाल एक फ़ाइल लेकर गए थे; मगर दरवाज़े ही से झाँककर चले आए।
सोहनलाल ने सफ़ाई दी—मैंने तो अंदर क़दम ही नहीं रखा, साहब! अपने जवान बेटे की क़सम खाता हूँ, जो अंदर क़दम रखा भी हो।
मदारीलाल ने माथा सिकोड़कर कहा—आप व्यर्थ में क़सम क्यों खाते हैं। कोई आपसे कुछ कहता? (सुबोध के कान में) बैंक में कुछ रुपए हों, तो निकालकर ठेकेदार को दे लिए जाए, वरना बड़ी बदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो।
सुबोध ने करूण-स्वर में कहा—बैंक में मुश्किल से दो-चार सौ रुपए होंगे, भाईजान! रुपए होते तो क्या चिंता थी। समझ लेता, जैसे पच्चीस हज़ार उड़ गए, वैसे ही तीस हज़ार भी उड़ गए। यहाँ तो कफ़न को भी कौड़ी नहीं।
उसी रात को सुबोधचंद्र ने आत्महत्या कर ली। इतने रुपयों का प्रबंध करना उनके लिए कठिन था। मृत्यु के पर्दे के सिवा उन्हें अपनी वेदना, अपनी विवशता को छिपाने की और कोई आड़ न थी।
चार
दूसरे दिन प्रात: चपरासी ने मदारीलाल के घर पहुँचकर आवाज़ दी। मदारी को रात-भर नींद न आई थी। घबरा कर बाहर आए। चपरासी उन्हें देखते ही बोला—हुज़ूर! बड़ा ग़ज़ब हो गया, सेक्रेटरी साहब ने रात को गर्दन पर छुरी फेर ली।
मदारीलाल की आँखें ऊपर चढ़ गईं, मुँह फैल गया ओर सारी देह सिहर उठी, मानो उनका हाथ बिजली के तार पर पड़ गया हो।
“छुरी फेर ली?”
“जी हाँ, आज सबेरे मालूम हुआ। पुलिसवाले जमा हैं। आपको बुलाया है।”
“लाश अभी पड़ी हुई हैं?”
“जी हाँ, अभी डाक्टरी होने वाली है।”
“बहुत से लोग जमा हैं?”
“सब बड़े-बड़े अफ़सर जमा हैं। हुज़ूर, लाश की ओर ताकते नहीं बनता। कैसा भलामानुस हीरा आदमी था! सब लोग रो रहे हैं। छोटे-छोटे दो बच्चे हैं, एक सयानी लड़की है ब्याहने लायक। बहूजी को लोग कितना रोक रहे हैं, पर बार-बार दौड़ कर लाश के पास आ जाती हैं। कोई ऐसा नहीं हे, जो रूमाल से आँखें न पोछ रहा हो। अभी इतने ही दिन आए हुए, पर सबसे कितना मेल-जोल हो गया था। रुपए की तो कभी परवाह ही नहीं थी। दिल दरियाव था!”
मदारीलाल के सिर में चक्कर आने लगा। द्वारा की चौखट पकड़कर अपने को सँभाल न लेते, तो शायद गिर पड़ते। पूछा—“बहूजी बहुत रो रही थीं?
“कुछ न पूछिए, हुज़ूर। पेड़ की पत्तियाँ झड़ी जाती हैं। आँख फूलकर गूलर हो गई हैं।”
“कितने लड़के बतलाए तुमने?”
“हुज़ूर, दो लड़के हैं और एक लड़की।”
“‘नोटों के बारे में भी बातचीत हो रही होगी?”
“जी हाँ, सब लोग यही कहते हैं कि दफ़्तर के किसी आदमी का काम है। दारोगा जी तो सोहनलाल को गिरफ़्तार करना चाहते थे; पर शायद आपसे सलाह लेकर करेंगे। सेक्रेटरी साहब तो लिख गए हैं कि मेरा किसी पर शक नहीं है। नहीं तो अब तक तहलका मच जाता। सारा दफ़्तर फँस जाता।”
“क्या सेक्रेटरी साहब कोई ख़त लिखकर छोड़ गए है?”
“हाँ, मालूम होता है, छुरी चलाते बखत याद आई कि सुबहे में दफ़्तर के सब लोग पकड़ लिए जाएँगे। बस, कलक्टर साहब के नाम चिट्ठी लिख दी।”
“चिट्ठी में मेरे बारे में भी कुछ लिखा है? तुम्हें कुछ क्या मालूम होगा?”
“हुज़ूर, अब मैं क्या जानूँ, मगर इतना सब लोग कहते थे कि आपकी बड़ी तारीफ़ लिखी है।”
मदारीलाल की साँस और तेज़ हो गई। आँखों से आँसू की दो बड़ी-बड़ी बूँदे गिर पड़ी। आँखें पोंछते हुए बोले—वे और मैं एक साथ के पढ़े थे, नंदू! आठ-दस साल साथ रहा। साथ उठते-बैठते, साथ खाते, साथ खेलते। बस, इसी तरह रहते थे, जैसे दो सगे भाई रहते हों। ख़त में मेरी क्या तरीफ़ लिखी है? मगर तुम्हें क्या मालूम होगा?”
“आप तो चल ही रहे है, देख लीजिएगा।”
“कफ़न का इंतज़ाम हो गया है?”
“नहीं हुज़ूर, कहा न कि अभी लाश की डाक्टरी होगी। मुदा अब जल्दी चलिए। ऐसा न हो, कोई दूसरा आदमी बुलाने आता हो।”
“हमारे दफ़्तर के सब लोग आ गए होंगे?”
‘जी हाँ, इस मुहल्लेवाले तो सभी थे।”
“पुलिस ने मेरे बारे में तो उनसे कुछ पूछ-ताछ नहीं की?”
“जी नहीं, किसी से भी नहीं!”
मदारीलाल जब सुबोधचंद्र के घर पहुँचे, तब उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि सब लोग उनकी तरफ़ संदेह की आँखों से देख रहे हैं। पुलिस इंस्पेक्टर ने तुरंत उन्हें बुलाकर कहा—आप भी अपना बयान लिखा दें और सबके बयान तो लिख चुका हूँ।
मदारीलाल ने ऐसी सावधानी से अपना बयान लिखाया कि पुलिस के अफ़सर भी दंग रह गए। उन्हें मदारीलाल पर शुबहा होता था, पर इस बयान ने उसका अंकुर भी निकाल डाला।
इसी वक़्त सुबोध के दोनों बालक रोते हुए मदारीलाल के पास आए और कहा—चलिए, आपको अम्मा बुलाती हैं। दोनों मदारीलाल से परिचित थे। मदारीलाल यहाँ तो रोज़ ही आते थे; पर घर में कभी नहीं गए थे। सुबोध की स्त्री उनसे पर्दा करती थी। यह बुलावा सुनकर उनका दिल धड़क उठा—कही इसका मुझ पर शुबहा न हो। कहीं सुबोध ने मेरे विषय में कोई संदेह न प्रकट किया हो। कुछ झिझकते और कुछ डरते हुए भीतर गए, तब विधवा का करुण-विलाप सुनकर कलेजा काँप उठा। इन्हें देखते ही उस अबला के आँसुओं का कोई दूसरा सोता खुल गया और लड़की तो दौड़कर इनके पैरों से लिपट गई। दोनों लड़को ने भी घेर लिया। मदारीलाल को उन तीनों की आँखों में ऐसी अथाह वेदना, ऐसी विदारक याचना भरी हुई मालूम हुई कि वे उनकी ओर देख न सके। उनकी आत्मा उन्हें धिक्कारने लगी। जिन बेचारों को उन पर इतना विश्वास, इतना भरोसा, इतनी अत्मीयता, इतना स्नेह था, उन्हीं की गर्दन पर उन्होंने छुरी फेरी! उन्हीं के हाथों यह भरा-पूरा परिवार धूल में मिल गया! इन असहायों का अब क्या हाल होगा? लड़की का विवाह करना है; कौन करेगा? बच्चों के लालन-पालन का भार कौन उठाएगा?मदारीलाल को इतनी आत्मग्लानि हुई कि उनके मुँह से तसल्ली का एक शब्द भी न निकला। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मेरे मुख में कालिख पुती है, मेरा कद कुछ छोटा हो गया है। उन्होंने जिस वक़्त नोट उड़ाए थे, उन्हें गुमान भी न था कि उसका यह फल होगा। वे केवल सुबोध की जाँच करना चाहते थे, उनका सर्वनाश करने की इच्छा न थी।
शोकातुर विधवा ने सिसकते हुए कहा–भैया जी, हम लोगों को वे मँझधार में छोड़ गए। अगर मुझे मालूम होता कि मन में यह बात ठान चुके हैं, तो अपने पास जो कुछ था, वह सब उनके चरणों पर रख देती। मुझसे तो वे यही कहते रहे कि कोई न कोई उपाय हो जाएगा। आप ही के मार्फ़त वे कोई महाजन ठीक करना चाहते थे। आपके ऊपर उन्हें कितना भरोसा था कि कह नहीं सकती।
मदारीलाल को ऐसा मालूम हुआ कि कोई उनके हृदय पर नश्तर चला रहा है। उन्हें अपने कंठ में कोई चीज़ फँसी हुई जान पड़ती थी।
रामेश्वरी ने फिर कहा—रात सोये, तब ख़ूब हँस रहे थे। रोज़ की तरह दूध पिया, बच्चों को प्यार किया, थोड़ी देर हारमोनियम बजाया और तब कुल्ला करके लेटे। कोई ऐसी बात न थी, जिससे लेशमात्र भी संदेह होता। मुझे चिंतित देखकर बोले—तुम व्यर्थ घबराती हो। बाबू मदारीलाल से मेरी पुरानी दोस्ती है। आख़िर वह किस दिन काम आएगी? मेरे साथ के खेले हुए हैं। इन नगर में उनका सबसे परिचय है। रुपयों का प्रबंध आसानी से हो जाएगा। फिर न जाने कब मन में यह बात समाई। मैं नसीबों-जली ऐसी सोई कि रात को मिनकी तक नहीं। क्या जानती थी कि वे अपनी जान पर खेल जाएँगे?
मदारीलाल को सारा विश्व आँखों में तैरता हुआ मालूम हुआ। उन्होंने बहुत ज़ब्त किया; मगर आँसुओं के प्रभाव को न रोक सके।
रामेश्वरी ने आँखें पोंछकर फिर कहा—भैया जी, जो कुछ होना था, वह तो हो चुका; लेकिन आप उस दुष्ट का पता ज़रूर लगाइए, जिसने हमारा सर्वनाश कर दिया है। यह दफ़्तर ही के किसी आदमी का काम है। वे तो देवता थे। मुझसे यही कहते रहे कि मेरा किसी पर संदेह नहीं है; पर है यह किसी दफ़्तरवाले का ही काम। आप से केवल इतनी विनती करती हूँ कि उस पापी को बचकर न जाने दीजिएगा। पुलिसवाले शायद कुछ रिश्वत लेकर उसे छोड़ दें। आपको देखकर उनका यह हौसला न होगा। अब हमारे सिर पर आपके सिवा कौन है। किससे अपना दुख कहें? लाश की यह दुर्गति होनी भी लिखी थी।
मदारीलाल के मन में एक बार ऐसा उबाल उठा कि सब कुछ खोल दें। साफ़ कह दें, मैं ही वह दुष्ट, वह अधम, वह पापी हूँ। विधवा के पैरों पर गिर पड़ें और कहें, वही छुरी इस हत्यारे की गर्दन पर फेर दो। पर ज़बान न खुली; इसी दशा में बैठे-बैठे उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि वे ज़मीन पर गिर पड़े।
पाँच
तीसरे पहर लाश की परीक्षा समाप्त हुई। अर्थी जलाशय की ओर चली। सारा दफ़्तर, सारे हुक्काम और हज़ारों आदमी साथ थे। दाह संस्कार लड़कों को करना चाहिए था, पर लड़के नाबालिग थे। इसलिए विधवा चलने को तैयार हो रही थी कि मदारीलाल ने जाकर कहा—बहूजी, यह संस्कार मुझे करने दो। तुम क्रिया पर बैठ जाओगी, तो बच्चों को कौन सँभालेगा। सुबोध मेरे भाई थे। ज़िंदगी में उनके साथ कुछ सलूक न कर सका, अब ज़िंदगी के बाद मुझे दोस्ती का कुछ हक़ अदा कर लेने दो। आख़िर मेरा भी तो उन पर कुछ हक़ था। रामेश्वरी ने रोकर कहा—आपको भगवान ने बड़ा उदार हृदय दिया है भैया जी, नहीं तो मरने पर कौन किसको पूछता है। दफ़्तर के और लोग जो आधी-आधी रात तक हाथ बाँधे खड़े रहते थे, झूठों बात पूछने न आए कि ज़रा ढाढ़स होता।
मदारीलाल ने दाह संस्कार किया। तेरह दिन तक क्रिया पर बैठे रहे। तेरहवें दिन पिंडदान हुआ, ब्रहामणों ने भोजन किया, भिखरियों को अन्नदान दिया गया, मित्रों की दावत हुई, और यह सब कुछ मदारीलाल ने अपने ख़र्च से किया। रामेश्वरी ने बहुत कहा कि आपने जितना किया उतना ही बहुत है। अब मैं आपको और ज़ेरबार नहीं करना चाहती। दोस्ती का हक़ इससे ज़्यादा और कोई क्या अदा करेगा; मगर मदारीलाल ने एक न सुनी। सारे शहर में उनके यश की धूम मच गईं, मित्र हो तो ऐसा हो!
सोलहवें दिन विधवा ने मदारीलाल से कहा—भैया जी, आपने हमारे साथ जो उपकार और अनुग्रह किए हैं, उनसे हम मरते दम तक उऋण नहीं हो सकते। आपने हमारी पीठ पर हाथ न रखा होता, तो न-जाने हमारी क्या गति होती। कहीं रुख़ की भी छाँह तो नहीं थी। अब हमें घर जाने दीजिए। वहाँ देहात में ख़र्च भी कम होगा और कुछ खेती बारी का सिलसिला भी कर लूँगी। किसी न किसी तरह विपत्ति के दिन कट ही जाएँगे। इसी तरह हमारे ऊपर दया रखिएगा।
मदारीलाल ने पूछा—घर पर कितनी जायदाद है?
रामेश्वरी—जायदाद क्या है, एक कच्चा मकान है और दस-बारह बीघे की काश्तकारी है। पक्का मकान बनवाना शुरू किया था; मगर रुपए पूरे न पड़े। अभी अधूरा पड़ा हुआ है। दस-बारह हज़ार ख़र्च हो गए और अभी छत पड़ने की नौबत नहीं आई।
मदारी—कुछ रुपए बैंक में जमा हैं, या बस खेती ही का सहारा है?
विधवा—जमा तो एक पाई भी नहीं हैं, भैया जी! उनके हाथ में रुपए रहने ही नहीं पाते थे। बस, वही खेती का सहारा है।
मदारी—तो उन खेतों में इतनी पैदावार हो जाएगी कि लगान भी अदा हो जाए और तुम लोगो की गुज़र-बसर भी हो?
रामेश्वरी—और कर ही क्या सकते हैं, भैया जी! किसी न किसी तरह ज़िंदगी तो काटनी ही है। बच्चे न होते तो मैं ज़हर खा लेती।
मदारीलाल—और अभी बेटी का विवाह भी तो करना है।
विधवा—उसके विवाह की अब कोई चिंता नहीं। किसानों में ऐसे बहुत से मिल जाएँगे, जो बिना कुछ लिए-दिए विवाह कर लेंगे।
मदारीलाल ने एक क्षण सोचकर कहा—अगर में कुछ सलाह दूँ, तो उसे मानेंगी आप?
रामेश्वरी—भैया जी, आपकी सलाह न मानूँगी, तो किसकी सलाह मानूँगी और दूसरा है ही कौन?
मदारीलाल—तो आप अपने घर जाने के बदले मेरे घर चलिए। जैसे मेरे बाल-बच्चे रहैंगें, वैसे ही आप के भी रहेंगे। आपको कष्ट न होगा। ईश्वर ने चाहा तो कन्या का विवाह भी किसी अच्छे कुल में हो जाएगा।
विधवा की आँखें सजल हो गईं। बोली—मगर भैया जी, सोचिए…मदारीलाल ने बात काटकर कहा—मैं कुछ न सोचूँगा और न कोई उज्र सुनूँगा। क्या दो भाइयों के परिवार एक साथ नहीं रहते? सुबोध को मैं अपना भाई समझता था और हमेशा समझूँगा।
विधवा का कोई उज्र न सुना गया। मदारीलाल सबको अपने साथ ले गए और आज दस साल से उनका पालन कर रहे हैं। दोनों बच्चे कॉलेज में पढ़ते हैं और कन्या का एक प्रतिष्ठित कुल में विवाह हो गया है। मदारीलाल और उनकी स्त्री तन-मन से रामेश्वरी की सेवा करते हैं और उसके इशारों पर चलते हैं। मदारीलाल सेवा से अपने पाप का प्रायश्चित कर रहे हैं।
ek
daftar mein zara der se aana afasron ki shaan hai. jitna hi baDa adhikari hota hai, uttni hi der mein aata hai; aur utne hi sabere jata bhi hai. chaprasi ki haziri chaubison ghante ki. wo chhutti par bhi nahin ja sakta. apna evaz dena paDta hai. khair, jab bareli jila borD ke heD klark babu madarilal gyarah baje daftar aaye, tab mano daftar neend se jaag utha. chaprasi ne dauDkar pair gaDi li, aradli ne dauDkar kamre ki chik utha di aur jamadar ne Daak ki qisht mez par lakar rakh di. madarilal ne pahla hi sarkari lifafa khola tha ki unka rang faq ho gaya. ve kai minat tak ashcharyanvit haalat mein khaDe rahe, mano sari gyanendriyan shithil ho gai hon. un par baDe baDe aghat ho chuke the; par itne badahvas ve kabhi na hue the. baat ye thi ki borD ke sekretari ki jo jagah ek mahine se khali thi, sarkar ne subodhchandr ko wo jagah di thi aur subodhchandr wo vyakti tha, jiske naam hi se madarilal ko ghrina thi. wo subodhchandr, jo unka sahpathi tha, jis jak dene ko unhonne kitni hi cheshta kee; par kabhi saphal na hue the. vahi subodh aaj unka afsar hokar aa raha tha. subodh ki idhar kai salon se koi khabar na thi. itna malum tha ki wo fauj mein bharti ho gaya tha. madarilal ne samjha tha—vahin mar gaya hoga; par aaj wo mano ji utha aur sekretari hokar aa raha tha. madarilal ko uski matahti mein kaam karna paDega. is apman se to mar jana kahin achchha tha. subodh ko skool aur kaulej ki sari baten avashya hi yaad hongi. madarilal ne use kaulej se nikalva dene ke liye kai baar mantr chalaye, jhuthe aarop kiye, badnam kiya. kya subodh sab kuch bhool gaya hoga? nahin, kabhi nahin. wo aate hi purani kasar nikalega. madari babu ko apni praan raksha ka koi upaay na sujhta tha.
madari aur subodh ke grhon mein hi virodh tha. donon ek hi din, ek hi shala mein bharti hue the, aur pahle hi din se dil mein iirshya aur dvesh ki wo chingari paD gai, jo aaj bees varsh bitne par bhi na bujhi thi. subodh ka apradh yahi tha ki wo madarilal se har ek baat mein baDha hua tha. Deel Daul, rang roop, riti vyvahar, vidya buddhi ye sare maidan uske haath the. madarilal ne uska ye apradh kabhi kshama nahin kiya. subodh bees varsh tak nirantar unke hriday ka kanta bana raha. jab subodh Digri lekar apne ghar chala gaya aur madari phel hokar is daftar mein naukar ho ge, tab unka chitt shaant hua. kintu jab ye malum hua ki subodh basre ja raha hai, tab to madarilal ka chehra khil utha. unke dil se wo purani phaans nikal gai. par haan hatbhagya! aaj wo purana nasur shatgun tees aur jalan ke saath khul gaya. aaj unki qismat subodh ke haath mein thi. iishvar itna anyayi hai! vidhi itna kathor!
jab zara chitt shaant hua, tab madari ne daftar ke klarkon ko sarkari hukm sunate hue kaha—ab aap log zara haath paanv sanbhalakar rahiyega. subodhchandr ve adami nahin hain, jo bhulo ko kshama kar den.
ek klark ne puchha—kya bahut sakht hain?
madarilal ne muskurakar kaha—vah to aap logon ko do chaar din hi mein malum ho jayega. main apne munh se kisi ki kyon shikayat karun? bas, chetavni de di ki zara haath paanv sanbhalakar rahiyega. adami yogya hai, par baDa hi krodhi, baDa dambhi. ghussa to uski naak par rahta hai. khud hazaron hazam kar jaye aur Dakar tak na le; par kya majal ki koi matahat ek kauDi bhi hazam karne pae. aise adami se iishvar hi bachaye! main to soch raha hoon ki chhutti lekar ghar chala jaun. donon vaqt ghar par haziri bajani hogi. aap log aaj se sarkar ke naukar nahin, sekretari sahab ke naukar hain. koi unke laDke ko paDhayega. koi bazar se sauda suluf layega aur koi unhen akhbar sunayega. aur chaprasiyon ke to shayad daftar mein darshan hi na hon.
is prakar sare daftar ko subodhchandr ki taraf se bhaDkakar madarilal ne apna kaleja thanDa kiya.
do
iske ek saptah baad subodhchandr gaDi se utre, tab steshan par daftar ke sab karmchariyon ko hazir paya. sab unka svagat karne aaye the. madarilal ko dekhte hi subodh lapakkar unke gale se lipat ge aur bole—tum khoob mile bhai. yahan kaise aaye? oh! aaj ek yug ke baad bhent hui!
madarilal bole—yahan jila borD ke daftar mein heD klark hoon. aap to kushal se hain?
subodh—aji, meri na puchho. basra, fraans, misr aur na jane kahan kahan mara mara phira. tum daftar mein ho, ye bahut hi achchha hua. meri to samajh hi mein na aata tha ki kaise kaam chalega. main to bilkul kora hoon; magar jahan jata hoon, mera saubhagya hi mere saath jata hai. basre mein sabhi afsar khush the. fraans mein bhi khoob chain kiye. do saal mein koi pachis hazar rupe bana laya aur sab uDa diya. vahan se aakar kuch dinon ko apreshan daftar mein matargasht karta raha. yahan aaya, tab tum mil ge. (klarko ko dekhkar)—ye log kaun hain?
madari ke hriday par barchhiyan si chal rahi theen. dusht pachchis hazar rupe basre mein kama laya! yahan qalam ghiste ghiste mar ge aur paanch sau bhi na jamakar sake. bole—karmachari hain. salam karne aaye hain.
sabodh ne un sab logon se bari bari se haath milaya aur bola—ap logon ne vyarth ye kasht kiya. bahut abhari hoon. mujhe aasha hai ki aap sab sajjnon ko mujhse koi shikayat na hogi. mujhe apna afsar nahin, apna bhai samajhiye. aap sab log milkar is tarah kaam kijiye ki borD ki nekanami ho aur main bhi surkhru rahun. aapke heD klark sahab to mere purane mitr aur langotiya yaar hain.
ek vakchaturya klark ne kaha—ham sab huzur ke tabedar hain. yathashakti aapko asantusht na karenge; lekin adami hi hai, agar koi bhool ho bhi jaye, to huzur use kshama karenge.
subodh ne namrata se kaha—yahi mera siddhant hai aur hamesha se yahi siddhant raha hai. jahan raha, matahton se mitron ka sa bartav kiya. hum aur aaj donon hi kisi tisre ke ghulam hain. phir raub kaisa aur afsari kaisi? haan, hamein nekaniyat ke saath apna kartavya palan karna chahiye.
jab subodh se vida hokar karmachari log chale, tab aapas mein baten honi lagin—adami to achchha malum hota hai.
“heD klark ke kahne se to aisa malum hota tha ki sabko kachcha hi kha jayega. ”
“pahle sabhi aise hi baten karte hai. ”
“ye dikhane ke daant hai. ”
teen
subodh ko aaye ek mahina guzar gaya. borD ke klark, aradli, chaprasi sabhi uske bartav se khush hain. wo itna prasannachitt hai, itna namr hai ki jo usse ek baar mila hai, sadaiv ke liye uska mitr ho jata hai. kathor shabd to unki zaban par aata hi nahin. inkaar ko bhi wo apriy nahin hone deta; lekin dvesh ki ankhon mein gun aur bhi bhayankar ho jata hai. subodh ke ye sare sadgun madarilal ki ankhon mein khatakte rahte hain. uske viruddh koi na koi gupt shaDyantr rachte hi rahte hain. pahle karmchariyon ko bhaDkana chaha, saphal na hue. borD ke membron ko bhaDkana chaha, munh ki khai. thekedaron ko ubharne ka biDa uthaya, lajjit hona paDa. ve chahte the ki bhoos mein aag lagakar door se tamasha dekhen. subodh se yon hans kar milte, yon chikni chupDi baten karte, mano uske sachche mitr hai, par ghaat mein lage rahte. subodh mein sab gun the, par adami pahchanna na jante the. ve madarilal ko ab bhi apna dost samajhte hain.
ek din madarilal sekretari sahab ke kamre mein ge, tab kursi khali dekhi. ve kisi kaam se bahar chale ge the. unki mez par paanch hazar ke not pulidon mein bandhe hue rakhe the. borD ke madarson ke liye kuch lakDi ke saman banvaye ge the. usi ke daam the. thekedar vasuli ke liye bulaya gaya tha. aaj hi sekretari sahab ne chek bhejkar khajane se rupe mangvaye the. madarilal ne baramde mein jhankakar dekha, subodh ka kahin pata nahin. unki niyat badal gai. iirshya mein lobh ka sammishran ho gaya. kanpte hue hathon se pulinde uthaye; patlun ki donon jebon mein bhar kar turant kamre se nikle aur chaprasi ko pukar kar bole—babu ji bhitar hai? chaprasi aap thekedar se kuch vasul karne ki khushi mein phula hua tha. samne vale tamoli ke dukan se aakar bola—ji nahin, kachahri mein kisi se baten kar rahe hain. abhi abhi to ge hain.
madarilal ne daftar mein aakar ek klark se kaha—yah misil le jakar sekretari sahab ko dikhao.
klark misil lekar chala gaya. zara der mein lautkar bola—sekretari sahab kamre mein na the. fail mez par rakh aaya hoon.
madarilal ne munh sikoD kar kaha—kamra chhoD kar kahan chale jaya karte hain? kisi din dhokha uthayenge.
klark ne kaha—unke kamre mein daftarvalon ke siva aur jata hi kaun hai?
madarilal ne teevr svar mein kaha—to kya daftarvale sab ke sab devta hain? kab kiski niyat badal jaye, koi nahin kah sakta. mainne chhoti chhoti rakmon par achchhon achchhon ki niyten badalte dekhi hain. is vaqt hum sabhi saah hain; lekin avsar pakar shayad hi koi chuke. manushya ki yahi prkriti hai. aap jakar unke kamre ke donon darvaze band kar dijiye.
klark ne taal kar kaha—chaprasi to darvaze par baitha hua hai.
madarilal ne jhunjhlakar kaha—ap se main jo kahta hoon, wo kijiye. kahne lage, chaprasi baitha hua hai. chaprasi koi rishi hai, muni hai? chaprasi hi kuch uDa de, to aap uska kya kar lenge? jamanat bhi hai to teen sau ki. yahan ek ek kaghaz lakhon ka hai.
ye kahkar madarilal khud uthe aur daftar ke dvaar donon taraf se bandkar diye. jab chitt shaant hua, tab noton ke pulinde jeb se nikalkar ek almari mein kaghzon ke niche chhipakar rakh diye. phir aakar apne kaam mein vyast ho ge.
subodhchandr koi ghante bhar mein laute tab unke kamre ka dvaar band tha. daftar mein aakar muskurate hue bole—mera kamra kisne band kar diya hai, bhai? kya meri bedakhli ho gai?
madarilal ne khaDe hokar mridu tiraskar dikhate hue kaha—sahab, gustakhi maaf ho, aap jab kabhi bahar jayen, chahe ek hi minat ke liye kyon na ho, tab darvaza band kar diya karen. apaki mez par rupe paise aur sarkari kaghaz patr bikhre paDe rahte hain, na jane kis vaqt kiski niyat badal jaye. mainne abhi suna ki aap kahin ge hain, jab darvaze band kar diye.
subodhchandr dvaar kholkar kamre mein ge aur sigar pine lage. mez par not rakhe hue hai, iski khabar hi na thi.
sahsa thekedar ne aakar salam kiya. subodh kursi se uth baithe aur bole—tumne bahut der kar di, tumhara hi intzaar kar raha tha. das hi baje rupe mangva liye the. rasid likhva laye ho na?
thekedar—huzur rasid likhva laya hoon.
subodh—to apne rupe le jao. tumhare kaam se main bahut khush nahin hoon. lakDi tumne achchhi nahin lagai aur kaam mein safai bhi nahin hain. agar aisa kaam phir karonge, to thekedaron ke rajistar se tumhara naam nikal diya jayega.
ye kahkar subodh ne mez par nigah Dali, tab noton ke pulinde na the. socha, shayad kisi fail ke niche dab ge hon. kursi ke samip ke sab kaghaz ulat pulat Dale; magar noton ka kahin pata nahin. ye not kahan ge! abhi to yahi mainne rakh diye the. ja kahan sakte hain. phir failon ko ulatne pulatne lage. dil mein zara zara dhaDkan hone lagi. sari mez ke kaghaz chhaan Dale, pulindon ka pata nahin. tab ve kursi par baithkar is aadhe ghante mein hone vali ghatnaon ki man mein alochana karne lage—chaprasi ne noton ke pulinde lakar mujhe diye, khoob yaad hai. bhala, ye bhi bhulne ki baat hai aur itni jald! maine noton ko lekar yahin mez par rakh diya, gina tak nahin. phir vakil sahab aa ge, purane mulaqati hain. unse baten karta zara us peD tak chala gaya. unhonne paan mangvaye, bas itni hi der hui. jab gaya hoon, tab pulinde rakhe hue the. khoob achchhi tarah yaad hai. tab ye not kahan ghayab ho ge? mainne kisi sanduq, daraz ya almari mein nahin rakhe. phir ge to kahan? shayad daftar mein kisi ne savadhani ke liye uthakar rakh diye hon, yahi baat hai. main vyarth hi itna ghabra gaya. chhih!
turant daftar mein aakar madarilal se bole—apne meri mez par se not to uthakar nahin rakh diye?
madarilal ne bhaunchakke hokar kaha—kya apaki mez par not rakhe hue the? mujhe to khabar hi nahin. abhi panDit sohanlal ek fail lekar ge the, tab aapko kamre mein na dekha. jab mujhe malum hua ki aap kisi se baten karne chale ge hain, tab darvaze band kara diye. kya kuch not nahin mil rahe hain?
subodh ankhen phailakar bole—are sahab, pure paanch hazar ke hain. abhi abhi chek bhunaya hai.
madarilal ne sir pitkar kaha—pure paanch hazar! ya bhagvan! aapne mez par khoob dekh liya hain?
“aji pandrah minat se talash kar raha hoon. ”
“chaprasi se poochh liya ki kaun kaun aaya tha?”
“aie, zara aap log bhi talash kijiye. mere to hosh uDe hue hain. ”
sara daftar sekretari sahab ke kamre ki talashi lene laga. mez, almariyan, sanduq sab dekhe ge. rajistron ke vark ulat pulat kar dekhe ge; magar noton ka kahin pata nahin. koi uDa le gaya, ab ismen koi shubha na tha. subodh ne ek lambi saans li aur kursi par baith ge. chehre ka rang faq ho gaya. zara sa munh nikal aaya. is samay koi unhen dekhta, to samajhta ki mahinon se bimar hain.
madarilal ne sahanubhuti dikhate hue kaha—ghazab ho gaya aur kyaa! aaj tak kabhi aisa andher na hua tha. mujhe yahan kaam karte das saal ho ge, kabhi dhele ki cheez bhi ghayab na hui. main aapko pahle din savdhan kar dena chahta tha ki rupe paise ke vishay mein hoshiyar rahiyega; magar shudni thi, khayal na raha. zarur bahar se koi adami aaya aur not uDakar ghayab ho gaya. chaprasi ka yahi apradh hai ki usne kisi ko kamre mein jone hi kyon diya? wo laakh qasam khaye ki bahar se koi nahin aaya; lekin main ise maan nahin sakta. yahan se to keval panDit sohanlal ek fail lekar ge the; magar darvaze hi se jhankakar chale aaye.
sohanlal ne safai di—mainne to andar qadam hi nahin rakha, sahab! apne javan bete ki qasam khata hoon, jo andar qadam rakha bhi ho.
madarilal ne matha sikoDkar kaha—ap vyarth mein qasam kyon khate hain. koi aapse kuch kahta? (subodh ke kaan men) baink mein kuch rupe hon, to nikalkar thekedar ko de liye jaye, varna baDi badnami hogi. nuksan to ho hi gaya, ab uske saath apman kyon ho.
subodh ne karun svar mein kaha—baink mein mushkil se do chaar sau rupe honge, bhaijan! rupe hote to kya chinta thi. samajh leta, jaise pachchis hazar uD ge, vaise hi tees hazar bhi uD ge. yahan to kafan ko bhi kauDi nahin.
usi raat ko subodhchandr ne atmahatya kar li. itne rupyon ka prbandh karna unke liye kathin tha. mrityu ke parde ke siva unhen apni vedna, apni vivashta ko chhipane ki aur koi aaD na thi.
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dusre din pratah chaprasi ne madarilal ke ghar pahunchakar avaz di. madari ko raat bhar neend na aai thi. ghabra kar bahar aaye. chaprasi unhen dekhte hi bola—huzur! baDa ghazab ho gaya, sekretari sahab ne raat ko gardan par chhuri pher li.
madarilal ki ankhen uupar chaDh gain, munh phail gaya or sari deh sihar uthi, mano unka haath bijli ke taar par paD gaya ho.
“sab baDe baDe afsar jama hain. huzur, laash ki or takte nahin banta. kaisa bhalamanus hira adami tha! sab log ro rahe hain. chhote chhote do bachche hain, ek sayani laDki hai byahane layak. bahuji ko log kitna rok rahe hain, par baar baar dauD kar laash ke paas aa jati hain. koi aisa nahin he, jo rumal se ankhen na pochh raha ho. abhi itne hi din aaye hue, par sabse kitna mel jol ho gaya tha. rupe ki to kabhi parvah hi nahin thi. dil dariyav tha!”
madarilal ke sir mein chakkar aane laga. dvara ki chaukhat pakaDkar apne ko sanbhal na lete, to shayad gir paDte. puchha—“bahuji bahut ro rahi theen?
“kuchh na puchhiye, huzur. peD ki pattiyan jhaDi jati hain. ankh phulkar gular ho gai hain. ”
“kitne laDke batlaye tumne?”
“huzur, do laDke hain aur ek laDki. ”
“‘noton ke bare mein bhi batachit ho rahi hogi?”
“ji haan, sab log yahi kahte hain ki daftar ke kisi adami ka kaam hai. daroga ji to sohanlal ko giraftar karna chahte the; par shayad aapse salah lekar karenge. sekretari sahab to likh ge hain ki mera kisi par shak nahin hai. nahin to ab tak tahalka mach jata. sara daftar phans jata. ”
“kya sekretari sahab koi khat likhkar chhoD ge hai?”
“haan, malum hota hai, chhuri chalate bakhat yaad aai ki subhe mein daftar ke sab log pakaD liye jayenge. bas, kalaktar sahab ke naam chitthi likh di. ”
“chitthi mein mere bare mein bhi kuch likha hai? tumhein kuch kya malum hoga?”
“huzur, ab main kya janun, magar itna sab log kahte the ki apaki baDi tarif likhi hai. ”
madarilal ki saans aur tez ho gai. ankhon se ansu ki do baDi baDi bunde gir paDi. ankhen ponchhte hue bole—ve aur main ek saath ke paDhe the, nandu! aath das saal saath raha. saath uthte baithte, saath khate, saath khelte. bas, isi tarah rahte the, jaise do sage bhai rahte hon. khat mein meri kya tarif likhi hai? magar tumhein kya malum hoga?”
“aap to chal hi rahe hai, dekh lijiyega. ”
“kafan ka intzaam ho gaya hai?”
“nahin huzur, kaha na ki abhi laash ki Daktari hogi. muda ab jaldi chaliye. aisa na ho, koi dusra adami bulane aata ho. ”
“hamare daftar ke sab log aa ge honge?”
‘ji haan, is muhallevale to sabhi the. ”
“pulis ne mere bare mein to unse kuch poochh taachh nahin kee?”
“ji nahin, kisi se bhi nahin!”
madarilal jab subodhchandr ke ghar pahunche, tab unhen aisa malum hua ki sab log unki taraf sandeh ki ankhon se dekh rahe hain. pulis inspektar ne turant unhen bulakar kaha—ap bhi apna byaan likha den aur sabke byaan to likh chuka hoon.
madarilal ne aisi savadhani se apna byaan likhaya ki pulis ke afsar bhi dang rah ge. unhen madarilal par shubha hota tha, par is byaan ne uska ankur bhi nikal Dala.
isi vaqt subodh ke donon balak rote hue madarilal ke paas aaye aur kaha—chaliye, aapko amma bulati hain. donon madarilal se parichit the. madarilal yahan to roz hi aate the; par ghar mein kabhi nahin ge the. subodh ki stri unse parda karti thi. ye bulava sunkar unka dil dhaDak utha—kahi iska mujh par shubha na ho. kahin subodh ne mere vishay mein koi sandeh na prakat kiya ho. kuch jhijhakte aur kuch Darte hue bhitar ge, tab vidhva ka karun vilap sunkar kaleja kaanp utha. inhen dekhte hi us abla ke ansuon ka koi dusra sota khul gaya aur laDki to dauDkar inke pairon se lipat gai. donon laDko ne bhi gher liya. madarilal ko un tinon ki ankhon mein aisi athah vedna, aisi vidarak yachana bhari hui malum hui ki ve unki or dekh na sake. unki aatma unhen dhikkarne lagi. jin becharon ko un par itna vishvas, itna bharosa, itni atmiyta, itna sneh tha, unhin ki gardan par unhonne chhuri pheri! unhin ke hathon ye bhara pura parivar dhool mein mil gaya! in ashayon ka ab kya haal hoga? laDki ka vivah karna hai; kaun karega? bachchon ke lalan palan ka bhaar kaun uthayega?madarilal ko itni atmaglani hui ki unke munh se tasalli ka ek shabd bhi na nikla. unhen aisa jaan paDa ki mere mukh mein kalikh puti hai, mera kad kuch chhota ho gaya hai. unhonne jis vaqt not uDaye the, unhen guman bhi na tha ki uska ye phal hoga. ve keval subodh ki jaanch karna chahte the, unka sarvanash karne ki ichchha na thi.
shokatur vidhva ne sisakte hue kaha–bhaiya ji, hum logon ko ve manjhdhar mein chhoD ge. agar mujhe malum hota ki man mein ye baat thaan chuke hain, to apne paas jo kuch tha, wo sab unke charnon par rakh deti. mujhse to ve yahi kahte rahe ki koi na koi upaay ho jayega. aap hi ke marfat ve koi mahajan theek karna chahte the. aapke uupar unhen kitna bharosa tha ki kah nahin sakti.
madarilal ko aisa malum hua ki koi unke hriday par nashtar chala raha hai. unhen apne kanth mein koi cheez phansi hui jaan paDti thi.
rameshvri ne phir kaha—rat soye, tab khoob hans rahe the. roz ki tarah doodh piya, bachchon ko pyaar kiya, thoDi der harmoniyam bajaya aur tab kulla karke lete. koi aisi baat na thi, jisse leshamatr bhi sandeh hota. mujhe chintit dekhkar bole—tum vyarth ghabrati ho. babu madarilal se meri purani dosti hai. akhir wo kis din kaam ayegi? mere saath ke khele hue hain. in nagar mein unka sabse parichay hai. rupyon ka prbandh asani se ho jayega. phir na jane kab man mein ye baat samai. main nasibon jali aisi soi ki raat ko minki tak nahin. kya janti thi ki ve apni jaan par khel jayenge?
madarilal ko sara vishv ankhon mein tairta hua malum hua. unhonne bahut zabt kiya; magar ansuon ke prabhav ko na rok sake.
rameshvri ne ankhen ponchhkar phir kaha—bhaiya ji, jo kuch hona tha, wo to ho chuka; lekin aap us dusht ka pata zarur lagaiye, jisne hamara sarvanash kar diya hai. ye daftar hi ke kisi adami ka kaam hai. ve to devta the. mujhse yahi kahte rahe ki mera kisi par sandeh nahin hai; par hai ye kisi daftarvale ka hi kaam. aap se keval itni vinti karti hoon ki us papi ko bachkar na jane dijiyega. pulisvale shayad kuch rishvat lekar use chhoD den. aapko dekhkar unka ye hausla na hoga. ab hamare sir par aapke siva kaun hai. kisse apna dukh kahen? laash ki ye durgati honi bhi likhi thi.
madarilal ke man mein ek baar aisa ubaal utha ki sab kuch khol den. saaf kah den, main hi wo dusht, wo adham, wo papi hoon. vidhva ke pairon par gir paDen aur kahen, vahi chhuri is hatyare ki gardan par pher do. par zaban na khuli; isi dasha mein baithe baithe unke sir mein aisa chakkar aaya ki ve zamin par gir paDe.
paanch
tisre pahar laash ki pariksha samapt hui. arthi jalashay ki or chali. sara daftar, sare hukkam aur hazaron adami saath the. daah sanskar laDkon ko karna chahiye tha, par laDke nabalig the. isliye vidhva chalne ko taiyar ho rahi thi ki madarilal ne jakar kaha—bahuji, ye sanskar mujhe karne do. tum kriya par baith jaogi, to bachchon ko kaun sanbhalega. subodh mere bhai the. zindagi mein unke saath kuch saluk na kar saka, ab zindagi ke baad mujhe dosti ka kuch haq ada kar lene do. akhir mera bhi to un par kuch haq tha. rameshvri ne rokar kaha—apko bhagvan ne baDa udaar hriday diya hai bhaiya ji, nahin to marne par kaun kisko puchhta hai. daftar ke aur log jo aadhi aadhi raat tak haath bandhe khaDe rahte the, jhuthon baat puchhne na aaye ki zara DhaDhas hota.
madarilal ne daah sanskar kiya. terah din tak kriya par baithe rahe. terahven din pinDdan hua, brhamnon ne bhojan kiya, bhikhariyon ko anndan diya gaya, mitron ki davat hui, aur ye sab kuch madarilal ne apne kharch se kiya. rameshvri ne bahut kaha ki aapne jitna kiya utna hi bahut hai. ab main aapko aur zerabar nahin karna chahti. dosti ka haq isse zyada aur koi kya ada karega; magar madarilal ne ek na suni. sare shahr mein unke yash ki dhoom mach gain, mitr ho to aisa ho!
solahven din vidhva ne madarilal se kaha—bhaiya ji, aapne hamare saath jo upkaar aur anugrah kiye hain, unse hum marte dam tak urin nahin ho sakte. aapne hamari peeth par haath na rakha hota, to na jane hamari kya gati hoti. kahin rukh ki bhi chhaanh to nahin thi. ab hamein ghar jane dijiye. vahan dehat mein kharch bhi kam hoga aur kuch kheti bari ka silsila bhi kar lungi. kisi na kisi tarah vipatti ke din kat hi jayenge. isi tarah hamare uupar daya rakhiyega.
madarilal ne puchha—ghar par kitni jayadad hai?
rameshvri—jayadad kya hai, ek kachcha makan hai aur das barah bighe ki kashtakari hai. pakka makan banvana shuru kiya tha; magar rupe pure na paDe. abhi adhura paDa hua hai. das barah hazar kharch ho ge aur abhi chhat paDne ki naubat nahin aai.
madari—kuchh rupe baink mein jama hain, ya bas kheti hi ka sahara hai?
vidhva—jama to ek pai bhi nahin hain, bhaiya jee! unke haath mein rupe rahne hi nahin pate the. bas, vahi kheti ka sahara hai.
madari—to un kheton mein itni paidavar ho jayegi ki lagan bhi ada ho jaye aur tum logo ki guzar basar bhi ho?
rameshvri—aur kar hi kya sakte hain, bhaiya jee! kisi na kisi tarah zindagi to katni hi hai. bachche na hote to main zahr kha leti.
madarilal—aur abhi beti ka vivah bhi to karna hai.
vidhva—uske vivah ki ab koi chinta nahin. kisanon mein aise bahut se mil jayenge, jo bina kuch liye diye vivah kar lenge.
madarilal ne ek kshan sochkar kaha—agar mein kuch salah doon, to use manengi aap?
rameshvri—bhaiya ji, apaki salah na manungi, to kiski salah manungi aur dusra hai hi kaun?
madarilal—to aap apne ghar jane ke badle mere ghar chaliye. jaise mere baal bachche rahaingen, vaise hi aap ke bhi rahenge. aapko kasht na hoga. iishvar ne chaha to kanya ka vivah bhi kisi achchhe kul mein ho jayega.
vidhva ki ankhen sajal ho gain. boli—magar bhaiya ji, sochiye…madarilal ne baat katkar kaha—main kuch na sochunga aur na koi ujr sununga. kya do bhaiyon ke parivar ek saath nahin rahte? subodh ko main apna bhai samajhta tha aur hamesha samjhunga.
vidhva ka koi ujr na suna gaya. madarilal sabko apne saath le ge aur aaj das saal se unka palan kar rahe hain. donon bachche kaulej mein paDhte hain aur kanya ka ek pratishthit kul mein vivah ho gaya hai. madarilal aur unki stri tan man se rameshvri ki seva karte hain aur uske isharon par chalte hain. madarilal seva se apne paap ka prayashchit kar rahe hain.
ek
daftar mein zara der se aana afasron ki shaan hai. jitna hi baDa adhikari hota hai, uttni hi der mein aata hai; aur utne hi sabere jata bhi hai. chaprasi ki haziri chaubison ghante ki. wo chhutti par bhi nahin ja sakta. apna evaz dena paDta hai. khair, jab bareli jila borD ke heD klark babu madarilal gyarah baje daftar aaye, tab mano daftar neend se jaag utha. chaprasi ne dauDkar pair gaDi li, aradli ne dauDkar kamre ki chik utha di aur jamadar ne Daak ki qisht mez par lakar rakh di. madarilal ne pahla hi sarkari lifafa khola tha ki unka rang faq ho gaya. ve kai minat tak ashcharyanvit haalat mein khaDe rahe, mano sari gyanendriyan shithil ho gai hon. un par baDe baDe aghat ho chuke the; par itne badahvas ve kabhi na hue the. baat ye thi ki borD ke sekretari ki jo jagah ek mahine se khali thi, sarkar ne subodhchandr ko wo jagah di thi aur subodhchandr wo vyakti tha, jiske naam hi se madarilal ko ghrina thi. wo subodhchandr, jo unka sahpathi tha, jis jak dene ko unhonne kitni hi cheshta kee; par kabhi saphal na hue the. vahi subodh aaj unka afsar hokar aa raha tha. subodh ki idhar kai salon se koi khabar na thi. itna malum tha ki wo fauj mein bharti ho gaya tha. madarilal ne samjha tha—vahin mar gaya hoga; par aaj wo mano ji utha aur sekretari hokar aa raha tha. madarilal ko uski matahti mein kaam karna paDega. is apman se to mar jana kahin achchha tha. subodh ko skool aur kaulej ki sari baten avashya hi yaad hongi. madarilal ne use kaulej se nikalva dene ke liye kai baar mantr chalaye, jhuthe aarop kiye, badnam kiya. kya subodh sab kuch bhool gaya hoga? nahin, kabhi nahin. wo aate hi purani kasar nikalega. madari babu ko apni praan raksha ka koi upaay na sujhta tha.
madari aur subodh ke grhon mein hi virodh tha. donon ek hi din, ek hi shala mein bharti hue the, aur pahle hi din se dil mein iirshya aur dvesh ki wo chingari paD gai, jo aaj bees varsh bitne par bhi na bujhi thi. subodh ka apradh yahi tha ki wo madarilal se har ek baat mein baDha hua tha. Deel Daul, rang roop, riti vyvahar, vidya buddhi ye sare maidan uske haath the. madarilal ne uska ye apradh kabhi kshama nahin kiya. subodh bees varsh tak nirantar unke hriday ka kanta bana raha. jab subodh Digri lekar apne ghar chala gaya aur madari phel hokar is daftar mein naukar ho ge, tab unka chitt shaant hua. kintu jab ye malum hua ki subodh basre ja raha hai, tab to madarilal ka chehra khil utha. unke dil se wo purani phaans nikal gai. par haan hatbhagya! aaj wo purana nasur shatgun tees aur jalan ke saath khul gaya. aaj unki qismat subodh ke haath mein thi. iishvar itna anyayi hai! vidhi itna kathor!
jab zara chitt shaant hua, tab madari ne daftar ke klarkon ko sarkari hukm sunate hue kaha—ab aap log zara haath paanv sanbhalakar rahiyega. subodhchandr ve adami nahin hain, jo bhulo ko kshama kar den.
ek klark ne puchha—kya bahut sakht hain?
madarilal ne muskurakar kaha—vah to aap logon ko do chaar din hi mein malum ho jayega. main apne munh se kisi ki kyon shikayat karun? bas, chetavni de di ki zara haath paanv sanbhalakar rahiyega. adami yogya hai, par baDa hi krodhi, baDa dambhi. ghussa to uski naak par rahta hai. khud hazaron hazam kar jaye aur Dakar tak na le; par kya majal ki koi matahat ek kauDi bhi hazam karne pae. aise adami se iishvar hi bachaye! main to soch raha hoon ki chhutti lekar ghar chala jaun. donon vaqt ghar par haziri bajani hogi. aap log aaj se sarkar ke naukar nahin, sekretari sahab ke naukar hain. koi unke laDke ko paDhayega. koi bazar se sauda suluf layega aur koi unhen akhbar sunayega. aur chaprasiyon ke to shayad daftar mein darshan hi na hon.
is prakar sare daftar ko subodhchandr ki taraf se bhaDkakar madarilal ne apna kaleja thanDa kiya.
do
iske ek saptah baad subodhchandr gaDi se utre, tab steshan par daftar ke sab karmchariyon ko hazir paya. sab unka svagat karne aaye the. madarilal ko dekhte hi subodh lapakkar unke gale se lipat ge aur bole—tum khoob mile bhai. yahan kaise aaye? oh! aaj ek yug ke baad bhent hui!
madarilal bole—yahan jila borD ke daftar mein heD klark hoon. aap to kushal se hain?
subodh—aji, meri na puchho. basra, fraans, misr aur na jane kahan kahan mara mara phira. tum daftar mein ho, ye bahut hi achchha hua. meri to samajh hi mein na aata tha ki kaise kaam chalega. main to bilkul kora hoon; magar jahan jata hoon, mera saubhagya hi mere saath jata hai. basre mein sabhi afsar khush the. fraans mein bhi khoob chain kiye. do saal mein koi pachis hazar rupe bana laya aur sab uDa diya. vahan se aakar kuch dinon ko apreshan daftar mein matargasht karta raha. yahan aaya, tab tum mil ge. (klarko ko dekhkar)—ye log kaun hain?
madari ke hriday par barchhiyan si chal rahi theen. dusht pachchis hazar rupe basre mein kama laya! yahan qalam ghiste ghiste mar ge aur paanch sau bhi na jamakar sake. bole—karmachari hain. salam karne aaye hain.
sabodh ne un sab logon se bari bari se haath milaya aur bola—ap logon ne vyarth ye kasht kiya. bahut abhari hoon. mujhe aasha hai ki aap sab sajjnon ko mujhse koi shikayat na hogi. mujhe apna afsar nahin, apna bhai samajhiye. aap sab log milkar is tarah kaam kijiye ki borD ki nekanami ho aur main bhi surkhru rahun. aapke heD klark sahab to mere purane mitr aur langotiya yaar hain.
ek vakchaturya klark ne kaha—ham sab huzur ke tabedar hain. yathashakti aapko asantusht na karenge; lekin adami hi hai, agar koi bhool ho bhi jaye, to huzur use kshama karenge.
subodh ne namrata se kaha—yahi mera siddhant hai aur hamesha se yahi siddhant raha hai. jahan raha, matahton se mitron ka sa bartav kiya. hum aur aaj donon hi kisi tisre ke ghulam hain. phir raub kaisa aur afsari kaisi? haan, hamein nekaniyat ke saath apna kartavya palan karna chahiye.
jab subodh se vida hokar karmachari log chale, tab aapas mein baten honi lagin—adami to achchha malum hota hai.
“heD klark ke kahne se to aisa malum hota tha ki sabko kachcha hi kha jayega. ”
“pahle sabhi aise hi baten karte hai. ”
“ye dikhane ke daant hai. ”
teen
subodh ko aaye ek mahina guzar gaya. borD ke klark, aradli, chaprasi sabhi uske bartav se khush hain. wo itna prasannachitt hai, itna namr hai ki jo usse ek baar mila hai, sadaiv ke liye uska mitr ho jata hai. kathor shabd to unki zaban par aata hi nahin. inkaar ko bhi wo apriy nahin hone deta; lekin dvesh ki ankhon mein gun aur bhi bhayankar ho jata hai. subodh ke ye sare sadgun madarilal ki ankhon mein khatakte rahte hain. uske viruddh koi na koi gupt shaDyantr rachte hi rahte hain. pahle karmchariyon ko bhaDkana chaha, saphal na hue. borD ke membron ko bhaDkana chaha, munh ki khai. thekedaron ko ubharne ka biDa uthaya, lajjit hona paDa. ve chahte the ki bhoos mein aag lagakar door se tamasha dekhen. subodh se yon hans kar milte, yon chikni chupDi baten karte, mano uske sachche mitr hai, par ghaat mein lage rahte. subodh mein sab gun the, par adami pahchanna na jante the. ve madarilal ko ab bhi apna dost samajhte hain.
ek din madarilal sekretari sahab ke kamre mein ge, tab kursi khali dekhi. ve kisi kaam se bahar chale ge the. unki mez par paanch hazar ke not pulidon mein bandhe hue rakhe the. borD ke madarson ke liye kuch lakDi ke saman banvaye ge the. usi ke daam the. thekedar vasuli ke liye bulaya gaya tha. aaj hi sekretari sahab ne chek bhejkar khajane se rupe mangvaye the. madarilal ne baramde mein jhankakar dekha, subodh ka kahin pata nahin. unki niyat badal gai. iirshya mein lobh ka sammishran ho gaya. kanpte hue hathon se pulinde uthaye; patlun ki donon jebon mein bhar kar turant kamre se nikle aur chaprasi ko pukar kar bole—babu ji bhitar hai? chaprasi aap thekedar se kuch vasul karne ki khushi mein phula hua tha. samne vale tamoli ke dukan se aakar bola—ji nahin, kachahri mein kisi se baten kar rahe hain. abhi abhi to ge hain.
madarilal ne daftar mein aakar ek klark se kaha—yah misil le jakar sekretari sahab ko dikhao.
klark misil lekar chala gaya. zara der mein lautkar bola—sekretari sahab kamre mein na the. fail mez par rakh aaya hoon.
madarilal ne munh sikoD kar kaha—kamra chhoD kar kahan chale jaya karte hain? kisi din dhokha uthayenge.
klark ne kaha—unke kamre mein daftarvalon ke siva aur jata hi kaun hai?
madarilal ne teevr svar mein kaha—to kya daftarvale sab ke sab devta hain? kab kiski niyat badal jaye, koi nahin kah sakta. mainne chhoti chhoti rakmon par achchhon achchhon ki niyten badalte dekhi hain. is vaqt hum sabhi saah hain; lekin avsar pakar shayad hi koi chuke. manushya ki yahi prkriti hai. aap jakar unke kamre ke donon darvaze band kar dijiye.
klark ne taal kar kaha—chaprasi to darvaze par baitha hua hai.
madarilal ne jhunjhlakar kaha—ap se main jo kahta hoon, wo kijiye. kahne lage, chaprasi baitha hua hai. chaprasi koi rishi hai, muni hai? chaprasi hi kuch uDa de, to aap uska kya kar lenge? jamanat bhi hai to teen sau ki. yahan ek ek kaghaz lakhon ka hai.
ye kahkar madarilal khud uthe aur daftar ke dvaar donon taraf se bandkar diye. jab chitt shaant hua, tab noton ke pulinde jeb se nikalkar ek almari mein kaghzon ke niche chhipakar rakh diye. phir aakar apne kaam mein vyast ho ge.
subodhchandr koi ghante bhar mein laute tab unke kamre ka dvaar band tha. daftar mein aakar muskurate hue bole—mera kamra kisne band kar diya hai, bhai? kya meri bedakhli ho gai?
madarilal ne khaDe hokar mridu tiraskar dikhate hue kaha—sahab, gustakhi maaf ho, aap jab kabhi bahar jayen, chahe ek hi minat ke liye kyon na ho, tab darvaza band kar diya karen. apaki mez par rupe paise aur sarkari kaghaz patr bikhre paDe rahte hain, na jane kis vaqt kiski niyat badal jaye. mainne abhi suna ki aap kahin ge hain, jab darvaze band kar diye.
subodhchandr dvaar kholkar kamre mein ge aur sigar pine lage. mez par not rakhe hue hai, iski khabar hi na thi.
sahsa thekedar ne aakar salam kiya. subodh kursi se uth baithe aur bole—tumne bahut der kar di, tumhara hi intzaar kar raha tha. das hi baje rupe mangva liye the. rasid likhva laye ho na?
thekedar—huzur rasid likhva laya hoon.
subodh—to apne rupe le jao. tumhare kaam se main bahut khush nahin hoon. lakDi tumne achchhi nahin lagai aur kaam mein safai bhi nahin hain. agar aisa kaam phir karonge, to thekedaron ke rajistar se tumhara naam nikal diya jayega.
ye kahkar subodh ne mez par nigah Dali, tab noton ke pulinde na the. socha, shayad kisi fail ke niche dab ge hon. kursi ke samip ke sab kaghaz ulat pulat Dale; magar noton ka kahin pata nahin. ye not kahan ge! abhi to yahi mainne rakh diye the. ja kahan sakte hain. phir failon ko ulatne pulatne lage. dil mein zara zara dhaDkan hone lagi. sari mez ke kaghaz chhaan Dale, pulindon ka pata nahin. tab ve kursi par baithkar is aadhe ghante mein hone vali ghatnaon ki man mein alochana karne lage—chaprasi ne noton ke pulinde lakar mujhe diye, khoob yaad hai. bhala, ye bhi bhulne ki baat hai aur itni jald! maine noton ko lekar yahin mez par rakh diya, gina tak nahin. phir vakil sahab aa ge, purane mulaqati hain. unse baten karta zara us peD tak chala gaya. unhonne paan mangvaye, bas itni hi der hui. jab gaya hoon, tab pulinde rakhe hue the. khoob achchhi tarah yaad hai. tab ye not kahan ghayab ho ge? mainne kisi sanduq, daraz ya almari mein nahin rakhe. phir ge to kahan? shayad daftar mein kisi ne savadhani ke liye uthakar rakh diye hon, yahi baat hai. main vyarth hi itna ghabra gaya. chhih!
turant daftar mein aakar madarilal se bole—apne meri mez par se not to uthakar nahin rakh diye?
madarilal ne bhaunchakke hokar kaha—kya apaki mez par not rakhe hue the? mujhe to khabar hi nahin. abhi panDit sohanlal ek fail lekar ge the, tab aapko kamre mein na dekha. jab mujhe malum hua ki aap kisi se baten karne chale ge hain, tab darvaze band kara diye. kya kuch not nahin mil rahe hain?
subodh ankhen phailakar bole—are sahab, pure paanch hazar ke hain. abhi abhi chek bhunaya hai.
madarilal ne sir pitkar kaha—pure paanch hazar! ya bhagvan! aapne mez par khoob dekh liya hain?
“aji pandrah minat se talash kar raha hoon. ”
“chaprasi se poochh liya ki kaun kaun aaya tha?”
“aie, zara aap log bhi talash kijiye. mere to hosh uDe hue hain. ”
sara daftar sekretari sahab ke kamre ki talashi lene laga. mez, almariyan, sanduq sab dekhe ge. rajistron ke vark ulat pulat kar dekhe ge; magar noton ka kahin pata nahin. koi uDa le gaya, ab ismen koi shubha na tha. subodh ne ek lambi saans li aur kursi par baith ge. chehre ka rang faq ho gaya. zara sa munh nikal aaya. is samay koi unhen dekhta, to samajhta ki mahinon se bimar hain.
madarilal ne sahanubhuti dikhate hue kaha—ghazab ho gaya aur kyaa! aaj tak kabhi aisa andher na hua tha. mujhe yahan kaam karte das saal ho ge, kabhi dhele ki cheez bhi ghayab na hui. main aapko pahle din savdhan kar dena chahta tha ki rupe paise ke vishay mein hoshiyar rahiyega; magar shudni thi, khayal na raha. zarur bahar se koi adami aaya aur not uDakar ghayab ho gaya. chaprasi ka yahi apradh hai ki usne kisi ko kamre mein jone hi kyon diya? wo laakh qasam khaye ki bahar se koi nahin aaya; lekin main ise maan nahin sakta. yahan se to keval panDit sohanlal ek fail lekar ge the; magar darvaze hi se jhankakar chale aaye.
sohanlal ne safai di—mainne to andar qadam hi nahin rakha, sahab! apne javan bete ki qasam khata hoon, jo andar qadam rakha bhi ho.
madarilal ne matha sikoDkar kaha—ap vyarth mein qasam kyon khate hain. koi aapse kuch kahta? (subodh ke kaan men) baink mein kuch rupe hon, to nikalkar thekedar ko de liye jaye, varna baDi badnami hogi. nuksan to ho hi gaya, ab uske saath apman kyon ho.
subodh ne karun svar mein kaha—baink mein mushkil se do chaar sau rupe honge, bhaijan! rupe hote to kya chinta thi. samajh leta, jaise pachchis hazar uD ge, vaise hi tees hazar bhi uD ge. yahan to kafan ko bhi kauDi nahin.
usi raat ko subodhchandr ne atmahatya kar li. itne rupyon ka prbandh karna unke liye kathin tha. mrityu ke parde ke siva unhen apni vedna, apni vivashta ko chhipane ki aur koi aaD na thi.
chaar
dusre din pratah chaprasi ne madarilal ke ghar pahunchakar avaz di. madari ko raat bhar neend na aai thi. ghabra kar bahar aaye. chaprasi unhen dekhte hi bola—huzur! baDa ghazab ho gaya, sekretari sahab ne raat ko gardan par chhuri pher li.
madarilal ki ankhen uupar chaDh gain, munh phail gaya or sari deh sihar uthi, mano unka haath bijli ke taar par paD gaya ho.
“sab baDe baDe afsar jama hain. huzur, laash ki or takte nahin banta. kaisa bhalamanus hira adami tha! sab log ro rahe hain. chhote chhote do bachche hain, ek sayani laDki hai byahane layak. bahuji ko log kitna rok rahe hain, par baar baar dauD kar laash ke paas aa jati hain. koi aisa nahin he, jo rumal se ankhen na pochh raha ho. abhi itne hi din aaye hue, par sabse kitna mel jol ho gaya tha. rupe ki to kabhi parvah hi nahin thi. dil dariyav tha!”
madarilal ke sir mein chakkar aane laga. dvara ki chaukhat pakaDkar apne ko sanbhal na lete, to shayad gir paDte. puchha—“bahuji bahut ro rahi theen?
“kuchh na puchhiye, huzur. peD ki pattiyan jhaDi jati hain. ankh phulkar gular ho gai hain. ”
“kitne laDke batlaye tumne?”
“huzur, do laDke hain aur ek laDki. ”
“‘noton ke bare mein bhi batachit ho rahi hogi?”
“ji haan, sab log yahi kahte hain ki daftar ke kisi adami ka kaam hai. daroga ji to sohanlal ko giraftar karna chahte the; par shayad aapse salah lekar karenge. sekretari sahab to likh ge hain ki mera kisi par shak nahin hai. nahin to ab tak tahalka mach jata. sara daftar phans jata. ”
“kya sekretari sahab koi khat likhkar chhoD ge hai?”
“haan, malum hota hai, chhuri chalate bakhat yaad aai ki subhe mein daftar ke sab log pakaD liye jayenge. bas, kalaktar sahab ke naam chitthi likh di. ”
“chitthi mein mere bare mein bhi kuch likha hai? tumhein kuch kya malum hoga?”
“huzur, ab main kya janun, magar itna sab log kahte the ki apaki baDi tarif likhi hai. ”
madarilal ki saans aur tez ho gai. ankhon se ansu ki do baDi baDi bunde gir paDi. ankhen ponchhte hue bole—ve aur main ek saath ke paDhe the, nandu! aath das saal saath raha. saath uthte baithte, saath khate, saath khelte. bas, isi tarah rahte the, jaise do sage bhai rahte hon. khat mein meri kya tarif likhi hai? magar tumhein kya malum hoga?”
“aap to chal hi rahe hai, dekh lijiyega. ”
“kafan ka intzaam ho gaya hai?”
“nahin huzur, kaha na ki abhi laash ki Daktari hogi. muda ab jaldi chaliye. aisa na ho, koi dusra adami bulane aata ho. ”
“hamare daftar ke sab log aa ge honge?”
‘ji haan, is muhallevale to sabhi the. ”
“pulis ne mere bare mein to unse kuch poochh taachh nahin kee?”
“ji nahin, kisi se bhi nahin!”
madarilal jab subodhchandr ke ghar pahunche, tab unhen aisa malum hua ki sab log unki taraf sandeh ki ankhon se dekh rahe hain. pulis inspektar ne turant unhen bulakar kaha—ap bhi apna byaan likha den aur sabke byaan to likh chuka hoon.
madarilal ne aisi savadhani se apna byaan likhaya ki pulis ke afsar bhi dang rah ge. unhen madarilal par shubha hota tha, par is byaan ne uska ankur bhi nikal Dala.
isi vaqt subodh ke donon balak rote hue madarilal ke paas aaye aur kaha—chaliye, aapko amma bulati hain. donon madarilal se parichit the. madarilal yahan to roz hi aate the; par ghar mein kabhi nahin ge the. subodh ki stri unse parda karti thi. ye bulava sunkar unka dil dhaDak utha—kahi iska mujh par shubha na ho. kahin subodh ne mere vishay mein koi sandeh na prakat kiya ho. kuch jhijhakte aur kuch Darte hue bhitar ge, tab vidhva ka karun vilap sunkar kaleja kaanp utha. inhen dekhte hi us abla ke ansuon ka koi dusra sota khul gaya aur laDki to dauDkar inke pairon se lipat gai. donon laDko ne bhi gher liya. madarilal ko un tinon ki ankhon mein aisi athah vedna, aisi vidarak yachana bhari hui malum hui ki ve unki or dekh na sake. unki aatma unhen dhikkarne lagi. jin becharon ko un par itna vishvas, itna bharosa, itni atmiyta, itna sneh tha, unhin ki gardan par unhonne chhuri pheri! unhin ke hathon ye bhara pura parivar dhool mein mil gaya! in ashayon ka ab kya haal hoga? laDki ka vivah karna hai; kaun karega? bachchon ke lalan palan ka bhaar kaun uthayega?madarilal ko itni atmaglani hui ki unke munh se tasalli ka ek shabd bhi na nikla. unhen aisa jaan paDa ki mere mukh mein kalikh puti hai, mera kad kuch chhota ho gaya hai. unhonne jis vaqt not uDaye the, unhen guman bhi na tha ki uska ye phal hoga. ve keval subodh ki jaanch karna chahte the, unka sarvanash karne ki ichchha na thi.
shokatur vidhva ne sisakte hue kaha–bhaiya ji, hum logon ko ve manjhdhar mein chhoD ge. agar mujhe malum hota ki man mein ye baat thaan chuke hain, to apne paas jo kuch tha, wo sab unke charnon par rakh deti. mujhse to ve yahi kahte rahe ki koi na koi upaay ho jayega. aap hi ke marfat ve koi mahajan theek karna chahte the. aapke uupar unhen kitna bharosa tha ki kah nahin sakti.
madarilal ko aisa malum hua ki koi unke hriday par nashtar chala raha hai. unhen apne kanth mein koi cheez phansi hui jaan paDti thi.
rameshvri ne phir kaha—rat soye, tab khoob hans rahe the. roz ki tarah doodh piya, bachchon ko pyaar kiya, thoDi der harmoniyam bajaya aur tab kulla karke lete. koi aisi baat na thi, jisse leshamatr bhi sandeh hota. mujhe chintit dekhkar bole—tum vyarth ghabrati ho. babu madarilal se meri purani dosti hai. akhir wo kis din kaam ayegi? mere saath ke khele hue hain. in nagar mein unka sabse parichay hai. rupyon ka prbandh asani se ho jayega. phir na jane kab man mein ye baat samai. main nasibon jali aisi soi ki raat ko minki tak nahin. kya janti thi ki ve apni jaan par khel jayenge?
madarilal ko sara vishv ankhon mein tairta hua malum hua. unhonne bahut zabt kiya; magar ansuon ke prabhav ko na rok sake.
rameshvri ne ankhen ponchhkar phir kaha—bhaiya ji, jo kuch hona tha, wo to ho chuka; lekin aap us dusht ka pata zarur lagaiye, jisne hamara sarvanash kar diya hai. ye daftar hi ke kisi adami ka kaam hai. ve to devta the. mujhse yahi kahte rahe ki mera kisi par sandeh nahin hai; par hai ye kisi daftarvale ka hi kaam. aap se keval itni vinti karti hoon ki us papi ko bachkar na jane dijiyega. pulisvale shayad kuch rishvat lekar use chhoD den. aapko dekhkar unka ye hausla na hoga. ab hamare sir par aapke siva kaun hai. kisse apna dukh kahen? laash ki ye durgati honi bhi likhi thi.
madarilal ke man mein ek baar aisa ubaal utha ki sab kuch khol den. saaf kah den, main hi wo dusht, wo adham, wo papi hoon. vidhva ke pairon par gir paDen aur kahen, vahi chhuri is hatyare ki gardan par pher do. par zaban na khuli; isi dasha mein baithe baithe unke sir mein aisa chakkar aaya ki ve zamin par gir paDe.
paanch
tisre pahar laash ki pariksha samapt hui. arthi jalashay ki or chali. sara daftar, sare hukkam aur hazaron adami saath the. daah sanskar laDkon ko karna chahiye tha, par laDke nabalig the. isliye vidhva chalne ko taiyar ho rahi thi ki madarilal ne jakar kaha—bahuji, ye sanskar mujhe karne do. tum kriya par baith jaogi, to bachchon ko kaun sanbhalega. subodh mere bhai the. zindagi mein unke saath kuch saluk na kar saka, ab zindagi ke baad mujhe dosti ka kuch haq ada kar lene do. akhir mera bhi to un par kuch haq tha. rameshvri ne rokar kaha—apko bhagvan ne baDa udaar hriday diya hai bhaiya ji, nahin to marne par kaun kisko puchhta hai. daftar ke aur log jo aadhi aadhi raat tak haath bandhe khaDe rahte the, jhuthon baat puchhne na aaye ki zara DhaDhas hota.
madarilal ne daah sanskar kiya. terah din tak kriya par baithe rahe. terahven din pinDdan hua, brhamnon ne bhojan kiya, bhikhariyon ko anndan diya gaya, mitron ki davat hui, aur ye sab kuch madarilal ne apne kharch se kiya. rameshvri ne bahut kaha ki aapne jitna kiya utna hi bahut hai. ab main aapko aur zerabar nahin karna chahti. dosti ka haq isse zyada aur koi kya ada karega; magar madarilal ne ek na suni. sare shahr mein unke yash ki dhoom mach gain, mitr ho to aisa ho!
solahven din vidhva ne madarilal se kaha—bhaiya ji, aapne hamare saath jo upkaar aur anugrah kiye hain, unse hum marte dam tak urin nahin ho sakte. aapne hamari peeth par haath na rakha hota, to na jane hamari kya gati hoti. kahin rukh ki bhi chhaanh to nahin thi. ab hamein ghar jane dijiye. vahan dehat mein kharch bhi kam hoga aur kuch kheti bari ka silsila bhi kar lungi. kisi na kisi tarah vipatti ke din kat hi jayenge. isi tarah hamare uupar daya rakhiyega.
madarilal ne puchha—ghar par kitni jayadad hai?
rameshvri—jayadad kya hai, ek kachcha makan hai aur das barah bighe ki kashtakari hai. pakka makan banvana shuru kiya tha; magar rupe pure na paDe. abhi adhura paDa hua hai. das barah hazar kharch ho ge aur abhi chhat paDne ki naubat nahin aai.
madari—kuchh rupe baink mein jama hain, ya bas kheti hi ka sahara hai?
vidhva—jama to ek pai bhi nahin hain, bhaiya jee! unke haath mein rupe rahne hi nahin pate the. bas, vahi kheti ka sahara hai.
madari—to un kheton mein itni paidavar ho jayegi ki lagan bhi ada ho jaye aur tum logo ki guzar basar bhi ho?
rameshvri—aur kar hi kya sakte hain, bhaiya jee! kisi na kisi tarah zindagi to katni hi hai. bachche na hote to main zahr kha leti.
madarilal—aur abhi beti ka vivah bhi to karna hai.
vidhva—uske vivah ki ab koi chinta nahin. kisanon mein aise bahut se mil jayenge, jo bina kuch liye diye vivah kar lenge.
madarilal ne ek kshan sochkar kaha—agar mein kuch salah doon, to use manengi aap?
rameshvri—bhaiya ji, apaki salah na manungi, to kiski salah manungi aur dusra hai hi kaun?
madarilal—to aap apne ghar jane ke badle mere ghar chaliye. jaise mere baal bachche rahaingen, vaise hi aap ke bhi rahenge. aapko kasht na hoga. iishvar ne chaha to kanya ka vivah bhi kisi achchhe kul mein ho jayega.
vidhva ki ankhen sajal ho gain. boli—magar bhaiya ji, sochiye…madarilal ne baat katkar kaha—main kuch na sochunga aur na koi ujr sununga. kya do bhaiyon ke parivar ek saath nahin rahte? subodh ko main apna bhai samajhta tha aur hamesha samjhunga.
vidhva ka koi ujr na suna gaya. madarilal sabko apne saath le ge aur aaj das saal se unka palan kar rahe hain. donon bachche kaulej mein paDhte hain aur kanya ka ek pratishthit kul mein vivah ho gaya hai. madarilal aur unki stri tan man se rameshvri ki seva karte hain aur uske isharon par chalte hain. madarilal seva se apne paap ka prayashchit kar rahe hain.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।