उन लोगों ने निमंत्रण पत्र भेजकर पत्रकारों को न्यौता दिया था कि सप्ताहांत पर वे आएँ और स्वयं अपनी आँखों से देखें कि सरकार के प्रति जनता का समर्थन कितना ज़बर्दस्त है। शायद वे साबित करना चाहते थे कि उस अशांत प्रदेश के बारे में जो कुछ लिखा जा रहा था, वह सब झूठ था; किसी को भी वहाँ ‘टॉर्चर’ नहीं किया जा रहा था। ग़रीबी पूरी तरह हट चुकी थी और सबसे ज़रूरी, स्वतंत्रता संग्राम जैसी किसी आग का कोई नामोनिशान तक वहाँ मौजूद नहीं था। लिहाज़ा काफ़ी शालीनता के साथ उन्होंने हमें बुलाया और जब निर्धारित समय पर ऑपेरा हाउस की बिल्डिंग के पिछवाड़े में हम पहुँचे तो सम्भ्रांत वेशभूषा वाले एक मृदु-भाषी अधिकारी ने हमारी अगवानी की। फिर वह हमें अपने साथ सरकारी बस की ओर ले चला।
बस के भीतर ताज़े वार्निश और महँगे चमड़े की गंध थी। स्पीकर पर हल्का-हल्का संगीत बज रहा था। बस चली तो उस अधिकारी ने क्लिप पर टँगा माइक्रोफ़ोन निकाला और उसकी चमकदार जाली को अपने नाखूनों से खरोंचकर साफ़ करते हुए विनम्रतापूर्वक दुबारा हम सबका स्वागत किया। “मेरा नाम गारेक है!” उसके स्वर में संकोच था। फिर एक-के-बाद-एक उसने शहर के मुख्य आकर्षणों के नाम दोहराए, वहाँ के सार्वजनिक पार्कों की संख्या का ब्यौरा दिया और उँगली के इशारे से हमें यह जानकारी दी कि सामने पहाड़ी पर जहाँ धूप दिखाई देती है, वहाँ सरकार एक आदर्श आवासीय कॉलोनी का निर्माण करने वाली है।
शहर से बाहर निकलने के बाद सड़क दो शाखों में बँट गई और हम घूमकर समुद्र की विपरीत दिशा में, प्रदेश के अंदरूनी इलाके की ओर बढ़ गए, जहाँ पथरीले मैदान और मटमैली खाइयाँ थीं। घाटी के निचले, सपाट हिस्से पर कुछ दूर जाने के बाद हमने सूखी नदी पर बने एक पुल को पार किया, जहाँ एक नौजवान सिपाही अपने हाथ में एक हल्की ‘सब मशीनगन’ थामे लापरवाही से खड़ा था। हमें देखकर उसने जिन्दादिली से हाथ हिलाया। सूखी नदी की तलहटी में गोल-गोल चिकने पत्थरों के बीच दो और सिपाही खड़े थे। गारेक ने बताया कि वह इलाका निशानेबाज़ी की ट्रेनिंग के लिए काफ़ी लोकप्रिय था।
लंबे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों से ऊपर चढ़ते हुए हम एक गर्म और ख़ुश्क मैदान में निकल आए। खिड़की से भीतर आती खड़िया के चूरे जैसी महीन धूल से हमारी आँखें जलने लगीं और होंठों पर खड़िया का-सा स्वाद उभर आया। हमने अपने कोट उतार दिए। सिर्फ़ गारेक अपना कोट पहने रहा। उसने अब भी माइक्रोफ़ोन हाथ में पकड़ा हुआ था और सौम्य आवाज़ में वह इन बेजान, बंजर मैदानों में पैदावार उगाने की सरकारी योजनाओं के बारे में बता रहा था। मैंने देखा, मेरे साथ बैठे शख़्स ने अपना सिर पीछे टिकाकर आँखें बंद कर ली थीं। उसके होंठ चिकनी मिट्टी से पीले होकर सूख गए थे और सामने चमकदार रेलिंग पर कसे उसके हाथों पर नीली नसें उभर आई थीं। मैंने उसे कुहनी मारकर उठा देने की सोची, क्योंकि ‘रियर व्यू’ के शीशे में से दिखाई देती गारेक की आँखें रह-रहकर हम दोनों पर ठहर जाती थीं। लेकिन अभी मैं इस तजवीज़ के बारे में सोच ही रहा था कि गारेक उठा और मुस्कुराहट भरे चेहरे के साथ सीटों के बीच के पतले गलियारे से होता हुआ वह सबको पुआल की बनी टोपियाँ और बर्फ़ीली कोल्ड ड्रिंक्स के गिलास बाँटने लगा।
दोपहर के आसपास हम एक गाँव से गुज़रे। यहाँ सभी खिड़कियाँ लकड़ी की पेटियों से जोड़े गए तख्तों पर कीलें ठोंककर बंद कर दी गई थीं। टहनियों को गूँथकर बनाई गई मेंड़ें जगह-जगह आँधी से टूट चुकी थीं और साबुत-सलामत हिस्सों में भी अनगिनत सुराख़ नज़र आते थे। सपाट छतें वीरान थीं और कहीं भी कपड़े नहीं सूख रहे थे। कुआँ पतरे से ढँका हुआ था और ताज्जुब की बात है कि हमारे पीछे कहीं से भी न तो कुत्ते ही भौंके और न ही कोई शख़्स वहाँ नज़र आया। बिना रफ़्तार धीमी किये, अपने पीछे आत्मसमर्पण के झंडे का-सा सफ़ेद ग़ुबार छोड़ती हमारी बस झन्नाटे के साथ आगे निकल गई।
गारेक इस बीच फिर से सीटों के बीच के गलियारे में आगे बढ़ता हुआ सबको सैंडविच बाँटने लगा था। साथ ही वह हमारा हौसला भी बढ़ाता जाता कि बस अब ज़्यादा दूर नहीं है, मंज़िल आई ही समझो! खिड़की के बाहर अब यहाँ-वहाँ बड़ी-बड़ी चट्टानों और बदरंग झाड़ियों से ढँका पहाड़ी इलाक़ा दिखाई देने लगा था। सड़क नीचे की ओर उतरती गई और हम एक सुरंगनुमा खाई के बीच से गुज़रने लगे। बारूद लगाने के अर्धवृत्ताकर छंदों से चट्टान की सतह पर आड़ी-तिरछी परछाइयाँ बन रही थीं। बस के भीतर गर्मी बर्दाश्त के बाहर हो चुकी थी। तभी सड़क चौड़ी होकर फैल गई और हमने पाया कि हम नदी के कटाव से बनी एक घाटी और घाटी के सिरे पर बसे एक छोटे से गाँव के क़रीब आ पहुँचे हैं।
गारेक ने हाथ से इशारा किया कि यहीं हमें उतरना है। हमने दुबारा अपने कोट पहन लिए। बस धीमी होती हुई सफेदी पुती एक साफ़-सुथरी झोंपड़ी के सामने फैले कच्चे चौक में जा खड़ी हुई। झोंपड़ी की सफ़ेदी इस कदर चमकदार थी कि बस से उतरते हुए वह हमें अपनी आँखों में चुभती हुई-सी लगी। एक ओर सिगरेटें झाड़ते हुए हम बस की छाया में खड़े हो गए। आँखें छोटी करते हुए हमने एक नज़र झोंपड़ी पर डाली और उसके बाद गारेक के लौटने का इंतज़ार करने लगे, जो बस से उतरने के बाद झोंपड़ी के भीतर ग़ायब हो गया था। गारेक को लौटने में कुछ मिनट लगे। जब वह बाहर आया तो उसके साथ एक और शख़्स था, जिसे हमने इससे पहले कभी नहीं देखा था।
“ये मिस्टर बेला बोंजो है!” गारेक ने उस आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, “वे अपने घर में कुछ काम कर रहे थे, लेकिन फिर भी आप इनसे जो सवाल चाहें पूछ सकते हैं।”
हम सब काफ़ी बेबाकी के साथ बोंजो की ओर देखने लगे। हमारी तलाशती हुई निगाहों को झेलते हुए उसका सिर कुछ झुक-सा गया। उसका बूढ़ा चेहरा राख हो चुका था और गर्दन पर गहरी स्याह रेखाएँ थीं। हमने गौर किया कि उसका ऊपरी होंठ कुछ सूजा हुआ था। उसे शायद घर के किसी काम के बीच अचानक हड़बड़ा दिया गया था और अब वह जल्दी-जल्दी अपने बालों के बीचोंबीच कंघी फिरा चुकने के बाद हमारे सामने प्रस्तुत था। उसकी गर्दन पर बने उस्तरे के ताजा निशान बता रहे थे कि उसने जल्दबाज़ी में किसी खुरदुरे ब्लेड के साथ मुकम्मल दाढ़ी बनाई है। ताज़ा सूती क़मीज़ के नीचे उसने किसी और के नाप वाली बेढंगी पतलून पहन रखी थी, जो बमुश्किल उसके घुटनों तक आती थी। पैरों में कच्चे बदरंग चमड़े के नए जूते थे, जैसे रंगरूटों को ट्रेनिंग के दौरान मिलते हैं।
हम सबने ‘हेलो!’ कहते हुए बारी-बारी से उसके साथ हाथ मिलाया। वह सिर हिलाता रहा और फिर उसने हमें घर के भीतर आने का न्यौता दिया। ‘पहले आप’ वाले अंदाज़ में उसने हमें आगे निकलने को कहा और हम दहलीज़ को पार करते हुए एक बड़े से कमरे में आ गए, जहाँ एक बूढ़ी औरत हमारा इंतज़ार कर रही थी। कमरे की मरियल रोशनी में हमें उसके चेहरे की जगह सिर्फ़ उसका शॉल दिखाई दिया। आगे बढ़कर उसने हमें अपनी मुट्ठियों के आकार का एक अजीब-सा फल खाने को दिया, जिसका गूदा इस कदर सुर्ख लाल था कि हमें लगा, हम किसी ताज़े ज़ख़्म में अपने दाँत गड़ा रहे हैं।
कमरे से वापस हम उसी कच्चे चौक में निकल आए, जहाँ अब बहुत से अधनंगे बच्चे हमारी बस के गिर्द इकट्ठे हो गए थे। बोंजो की ओर गौर से देखती उनकी निगाहों में पैनापन था, हालाँकि वे अपनी जगह से हिले-डुले बग़ैर ख़ामोश खड़े थे और उनमें से किसी का भी ध्यान हमारी ओर नहीं था। एक अजीब आत्मतृप्त भाव से उनकी ओर देखते हुए बोंजो मुस्कुरा दिया।
“तुम्हारे बच्चे हैं?” हमारे साथी पॉटगीजर ने कुछ रुककर पूछा।
इस पहले सवाल पर खीसें निपोरते हुए बोंजो ने उत्तर दिया, “हाँ, एक बेटा है। लेकिन उससे हमारा कोई संबंध नहीं! सरकार का विरोधी होने के साथ ही वह आलसी और निकम्मा भी था। बड़ा आदमी बनने के लालच में उसने आतंकवादियों का साथ दिया, जो इन दिनों हर जगह गड़बड़ी फैला रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे चीजों को बेहतर ढंग से चला सकते हैं और इसीलिए वे सरकार से लड़ रहे हैं।” उसकी आवाज़ में गहरा आत्मविश्वास और एक सहज विश्वसनीयता थी। जब वह बोल रहा था तो मैंने गौर किया कि उसके सामने के दाँत नहीं हैं।
“हो सकता है कि चीज़ों को बेहतर ढंग से चला सकने का उनका दावा सचमुच सही हो!” पॉटगीजर ने कहा।
इस पर गारेक विनोद-भाव से मुस्कुराया। लेकिन बोंजो ने कहा, “हर हालत में सरकार का बोझ, चाहे वह हल्का हो या भारी, हम जनता के लोगों को ही उठाना होता है। यह सरकार जैसी भी हो, हमारी पहचानी हुई है। लेकिन उधर के लोगों के पास तो सिर्फ़ वादे हैं।’
बच्चों ने अर्थपूर्ण ढंग से एक-दूसरे की ओर देखा।
“लेकिन उनका सबसे बड़ा वादा तो आज़ादी दिलाने का है।” मेरा दोस्त ब्लीगुथ बोला।
“आज़ादी को लेकर आप क्या चाटिएगा?” बोंजो ने मुस्कुराकर कहा, “ऐसी आज़ादी किस काम की, जिससे पूरा देश ग़रीबी की चपेट में आ जाए? इस सरकार के बूते पर हमारे विदेशी निर्यात क़ायम हैं। इसने सड़कें, अस्पताल और स्कूल बनाए हैं। ऊसर ज़मीन पर खेती की शुरुआत की है और आगे भी खेती पर इसका ख़ास ज़ोर रहेगा। और इसने हमें वोट डालने का अधिकार भी दिया है!”
बच्चों में एक लहर-सी दौड़ गई और वे एक-दूसरे का हाथ पकड़कर दो क़दम आगे आ गए। बोंजो ने अपनी गर्दन झुकाई और वह दुबारा उसी अजीब से आत्मतृप्त भाव से मुस्कुराया। फिर सिर उठाकर उसने गारेक की ओर देखा, जो हमारे पीछे कुछ फासले पर चुपचाप खड़ा था।
“सच कहा जाए तो...” बोंजो ख़ुद-ब-ख़ुद बोलता चला गया, “...आज़ादी के लिए एक ख़ास तरह की तैयारी और परिपक्वता की ज़रूरत होती है। आज अगर आज़ादी मिल भी जाए तो हमें समझ में नहीं आएगा कि उसका क्या करें? आम जनता के बारे में भी वही परिपक्वता वाली बात सही लगती है। हम अभी बालिग उम्र तक नहीं पहुँचे हैं। और मैं इस सरकार की दाद देता हूँ कि इसने इस वर्तमान नाबालिग हालत में हमें अपने ख़ुद के हाल पर नहीं छोड़ रखा है, बल्कि सच कहूँ तो मैं तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ इस सरकार का...”
गारेक मुड़कर बस की ओर चला गया। बोंजो बहुत सावधानी से उसकी ओर देखता रहा, जब तक कि बस का भारी दरवाज़ा बंद नहीं हो गया और हम मिट्टी से लीपे गए उस चौक में अकेले नहीं रह गए। इस अकेलेपन के प्रति आश्वस्त होते ही रेडियो रिपोर्टर फिंके जल्दी से बोंजो की ओर मुड़ा और उसने तेज़ी से सवाल किया, “अब असली माज़रा बताओ, जल्दी! अब हम अकेले हैं!”
बोंजो ने थूक निगली और फिर फिंके की ओर कुछ नाराज़गी भरे आश्चर्य से देखते हुए वह धीरे से बोला, “माफ़ कीजिएगा, मैं समझा नहीं आपका सवाल...”
“अब हम साफ-साफ बात कर सकते हैं!” फिंके ने हड़बड़ाते हुए कहा।
“साफ़-साफ़ बात कर सकते हैं!” बोंजो ने काफ़ी सावधानी के साथ सवाल को दोहराया और फिर उसके चेहरे पर हँसी फैल गई। उसके सामने के दाँतों के बीच की ख़ाली जगह अब बख़ूबी देखी जा सकती थी।
“मैं आपसे साफ़-साफ़ ही कह रहा था। मैं और मेरी पत्नी—हम दोनों इस सरकार के समर्थक हैं। हमने अब तक जो कुछ भी हासिल किया है, उसमें सरकार का बहुत बड़ा हाथ रहा है और इसके लिए हम उनके आभारी हैं। और आप तो जानते ही होंगे कि आजकल किसी सरकार के प्रति आभार जताने लायक कुछ भी हासिल करना कितना मुश्किल होता है। मैं ही नहीं, मेरे पड़ोसी, और सामने खड़े वे सारे बच्चे और इस गाँव का एक-एक आदमी, हम सब इस सरकार के आभारी हैं। आप जाकर किसी भी घर का दरवाज़ा खटखटा लें, आपको पता चल जाएगा कि सब लोग इस सरकार के कितने आभारी हैं।”
इस पर दुबला-पतला नौजवान पत्रकार गम अचानक आगे बढ़ आया और उसने फुसफुसाहट भरे स्वर में बोंजो से सवाल किया, “मुझे जानकार सूत्रों से पता चला है कि तुम्हारा बेटा पकड़ लिया गया है और शहर में उसे ‘टॉर्चर’ किया जा रहा है। इस पर तुम्हें क्या कहना है?”
बोंजो ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसकी पलकों पर धूल की मटमैली सफ़ेदी थी। फिर अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए उसने जवाब दिया, “जब वह मेरा बेटा ही नहीं है, तो उसे ‘टॉर्चर’ कैसे किया जा सकता है? मैं आपसे फिर कहता हूँ कि हम इस सरकार का समर्थन करते हैं और मैं इनका दोस्त हूँ!”
उसने एक मुड़ी-तुड़ी, हाथ से बनाई बीड़ी सुलगा ली और तेज़ी से उसके कश खींचते हुए बस के दरवाज़े की ओर देखने लगा, जो अब तक खुल चुका था। गारेक बस से उतरकर हमारी ओर आया और उसने पूछा कि सब कैसा चल रहा है। बोंजो पहले अपनी एड़ियों और फिर पंजों पर ज़ोर देते हुए आगे-पीछे झूलने लगा। गारेक की वापसी के बाद से उसे काफ़ी राहत महसूस होने लगी थी और वह बेहद प्रसन्नभाव से हमारे सभी प्रश्नों के विस्तृत उत्तर देता रहा। बीच-बीच में वह अपने दाँतों की खाली जगह से बीड़ी का धुँआ छोड़कर नि:श्वास लेता।
कंधे पर एक बड़ी-सी हँसिया लिए हुए एक आदमी हमारे क़रीब से गुज़र रहा था। बोंजो ने हाथ के इशारे से उसे उधर आने को कहा। पैर पटकता हुआ वह आदमी पास आया तो बोंजो ने उससे वे सारे सवाल किये, जो हमने उससे पूछे थे। कुछ नाराज़गी से उस आदमी ने अपना सिर हिलाया। जी नहीं, वह जी जान से इस सरकार का समर्थन करता था। सरकार के प्रति उसकी वफ़ादारी के पूरे बयान को बोंजो काफ़ी विजय-भाव से सुनता रहा। फिर दोनों आदमियों ने हमारे सामने अपने हाथ मिलाए, गोया कि सरकार के साथ अपने साँझे रिश्ते पर वे विश्वसनीयता की मुहर लगा रहे हों।
अलविदा कहते हुए हम सब भी बारी-बारी से बोंजो से हाथ मिलाने लगे। मेरा नंबर आख़िरी था। जब मैंने उसके सख्त, खुरदुरे हाथ को अपनी उँगलियों से दबाया तो अचानक हथेली पर काग़ज़ की एक गोली का दबाव महसूस हुआ। फ़ुर्ती से उँगलियाँ मोड़ते हुए मैंने उसे वापस खींचा और जब हम बस की ओर मुड़े तो मैंने चुपचाप उस गोली को जेब में डाल लिया। बीड़ी के सुट्टे लगाता हुआ बेला बोंजो उसी तरह वहाँ चौक में खड़ा था। जब बस चलने को हुई तो उसने अपनी पत्नी को भी बाहर बुला लिया और वे दोनों उस हँसिया वाले आदमी और उन बच्चों के साथ खड़े, पहाड़ी की पथरीली चढ़ाई पर घूमती बस की ओर अविचलित भाव से देखते रहे।
हम उसी रास्ते से वापस लौटने की जगह और आगे चलते गए, जब तक कि हमारा रास्ता एक रेलवे लाइन के समानांतर चलती बजरी और रेत की एक सड़क से नहीं मिल गया। इस पूरी यात्रा के दौरान मेरा हाथ अपने कोट की जेब में घुसा हुआ था और मेरी उँगलियों के बीच थी काग़ज़ की वह गोली, जो इतनी सख्त थी कि उसे नाख़ून से दबाना तक असंभव था। काग़ज़ को कोट की जेब से बाहर निकालना खतरे से खाली नहीं था, क्योंकि गारेक की उदास आँखें रियर व्यू’ के शीशे से होती हुई बार-बार हम पर आकर ठहर जाती थीं। उस मुर्दा ज़मीन पर एक अजीबोग़रीब छाया हमारे सिर के ऊपर से गुज़री और इसके साथ ही पंखों के घूमने की आवाज़ के बीच हमें रेलवे लाइन के ऊपर एक हवाई जहाज़ बहुत नीचे शहर की दिशा में उड़ता हुआ दिखाई दिया। क्षितिज तक पहुँचने के बाद हवाई जहाज़ घूमा और दुबारा झन्नाटे के साथ हमारे सिर के ऊपर से गुज़रा। फिर उसके बाद देर तक वह हमारे साथ ही बना रहा।
काग़ज़ की उस गोली को अपने हाथ में दबाते हुए मुझे बेला बोंजो का ख़याल आया और मुझे अपनी हथेली पर एक नमी-सी महसूस हुई। रेलवे लाइन के दूसरे सिरे से कोई चीज़ हमारे पास आती दिखाई दे रही थी। जब वह एकदम क़रीब आ गई तो हमने देखा कि वह एक रेलवे हाथगाड़ी थी, जिस पर बहुत सारे नौजवान सिपाही बैठे थे। उन्होंने हवा में मशीनगनें हिलाते हुए हमारा स्वागत किया। मैंने सावधानी से काग़ज़ की उस गोली को कोट से निकालकर अपनी चोर जेब में डाला और ऊपर से बटन बंद कर दिया। इसके साथ ही मुझे दुबारा सरकार के दोस्त बेला बोंजो का चेहरा याद हो गया। अपनी आँखों के सामने मैंने कच्चे चमड़े से बने उसके मटमैले जूतों, उसके चेहरे की स्वप्निल मुस्कुराहट और बोलते समय नज़र आती उसके दाँतों के बीच की ख़ाली जगह को देखा। हममें से किसी को भी शक नहीं था कि बोंजो के रूप में सरकार को एक सच्चा समर्थक मिल गया था...
समुद्र के किनारे से होते हुए हम वापस शहर लौट आए। पथरीले किनारे पर सिर पटकती लहरों के लंबे नि:श्वास हवा के झोंकों पर सवार होकर लगातार हम तक पहुँचते रहे। ऑपेरा हाउस पर हम बस से उतरे तो गारेक ने शिष्टतापूर्वक हम सबसे विदा ली। मैं होटल तक अकेला लौटा, लिफ़्ट से अपने कमरे तक गया और दरवाज़ा बंद करने के बाद बाथरूम में मैंने सरकार के उस समर्थक द्वारा ख़ुफ़िया तौर पर थमायी गई काग़ज़ की उस गोली को सावधानी से खोला। लेकिन पूरा काग़ज़ ख़ाली था, उस पर न कोई शब्द लिखा था और न ही वहाँ कोई चिह्न बना था। और तब मैंने देखा कि उसी काग़ज़ में लिपटा हुआ था कत्थई रंग का एक टूटा हुआ दाँत, जिस पर बने तंबाकू के दाग़ को देखते हुए अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि यह दाँत किसका हो सकता है!
un logon ne nimantran patr bhejkar patrkaron ko nyauta diya tha ki saptahant par ve ayen aur svayan apni ankhon se dekhen ki sarkar ke prati janta ka samarthan kitna zabardast hai. shayad ve sabit karna chahte the ki us ashant pardesh ke bare mein jo kuch likha ja raha tha, wo sab jhooth tha; kisi ko bhi vahan ‘taurchar’ nahin kiya ja raha tha. gharibi puri tarah hat chuki thi aur sabse zaruri, svtantrta sangram jaisi kisi aag ka koi namonishan tak vahan maujud nahin tha. lihaza kafi shalinata ke saath unhonne hamein bulaya aur jab nirdharit samay par aupera haus ki bilDing ke pichhvaDe mein hum pahunche to sambhrant veshbhusha vale ek mridu bhashi adhikari ne hamari agvani ki. phir wo hamein apne saath sarkari bas ki or le chala.
bas ke bhitar taze varnish aur mahnge chamDe ki gandh thi. spikar par halka halka sangit baj raha tha. bas chali to us adhikari ne klip par tanga maikrofon nikala aur uski chamakdar jali ko apne nakhunon se kharonchkar saaf karte hue vinamrtapurvak dubara hum sabka svagat kiya. “mera naam garek hai!” uske svar mein sankoch tha. phir ek ke baad ek usne shahr ke mukhya akarshnon ke naam dohraye, vahan ke sarvajnik parkon ki sankhya ka byaura diya aur ungli ke ishare se hamein ye jankari di ki samne pahaDi par jahan dhoop dikhai deti hai, vahan sarkar ek adarsh avasiy kauloni ka nirman karne vali hai.
shahr se bahar nikalne ke baad saDak do shakhon mein bant gai aur hum ghumkar samudr ki viprit disha mein, pardesh ke andaruni ilake ki or baDh ge, jahan pathrile maidan aur matmaili khaiyan theen. ghati ke nichle, sapat hisse par kuch door jane ke baad hamne sukhi nadi par bane ek pul ko paar kiya, jahan ek naujavan sipahi apne haath mein ek halki ‘sab mashinagan’ thame laparvahi se khaDa tha. hamein dekhkar usne jindadili se haath hilaya. sukhi nadi ki talahti mein gol gol chikne patthron ke beech do aur sipahi khaDe the. garke ne bataya ki wo ilaka nishanebazi ki trening ke liye kafi lokapriy tha.
lambe, teDhe meDhe raston se uupar chaDhte hue hum ek garm aur khushk maidan mein nikal aaye. khiDki se bhitar aati khaDiya ke chure jaisi mahin dhool se hamari ankhen jalne lagin aur honthon par khaDiya ka sa svaad ubhar aaya. hamne apne kot utaar diye. sirf garek apna kot pahne raha. usne ab bhi maikrofon haath mein pakDa hua tha aur saumya avaz mein wo in bejan, banjar maidanon mein paidavar ugane ki sarkari yojnaon ke bare mein bata raha tha. mainne dekha, mere saath baithe shakhs ne apna sir pichhe tikakar ankhen band kar li theen. uske honth chikni mitti se pile hokar sookh ge the aur samne chamakdar reling par kase uske hathon par nili nasen ubhar aai theen. mainne use kuhni markar utha dene ki sochi, kyonki ‘riyar vyoo’ ke shishe mein se dikhai deti garek ki ankhen rah rahkar hum donon par thahar jati theen. lekin abhi main is tajviz ke bare mein soch hi raha tha ki garek utha aur muskurahat bhare chehre ke saath siton ke beech ke patle galiyare se hota hua wo sabko pual ki bani topiyan aur barfili kolD Drinks ke gilas bantne laga.
dopahar ke asapas hum ek gaanv se guzre. yahan sabhi khiDkiyan lakDi ki petiyon se joDe ge takhton par kilen thonkkar band kar di gai theen. tahaniyon ko gunthakar banai gai menDen jagah jagah andhi se toot chuki theen aur sabut salamat hisson mein bhi anaginat surakh nazar aate the. sapat chhaten viran theen aur kahin bhi kapDe nahin sookh rahe the. kuan patre se Dhanka hua tha aur tajjub ki baat hai ki hamare pichhe kahin se bhi na to kutte hi bhaunke aur na hi koi shakhs vahan nazar aaya. bina raftar dhimi kiye, apne pichhe atmasmarpan ke jhanDe ka sa safed ghubar chhoDti hamari bas jhannate ke saath aage nikal gai.
garek is beench phir se siton ke beech ke galiyare mein aage baDhta hua sabko sainDvich bantne laga tha. saath hi wo hamara hausla bhi baDhata jata ki bas ab zyada door nahin hai, manzil aai hi samjho! khiDki ke bahar ab yahan vahan baDi baDi chattanon aur badrang jhaDiyon se Dhanka pahaDi ilaqa dikhai dene laga tha. saDak niche ki or utarti gai aur hum ek suranganuma khai ke beech se guzarne lage. barud lagane ke ardhvrittakar chhandon se chattan ki satah par aaDi tirchhi parchhaiyan ban rahi theen. bas ke bhitar garmi bardasht ke bahar ho chuki thi. tabhi saDak chauDi hokar phail gai aur hamne paya ki hum nadi ke katav se bani ek ghati aur ghati ke sire par base ek chhote se gaanv ke qarib aa pahunche hain.
garek ne haath se ishara kiya ki yahin hamein utarna hai. hamne dubara apne kot pahan liye. bas dhimi hoti hui saphedi puti ek saaf suthari jhopDi ke samne phaile kachche chauk mein ja khaDi hui. jhopDi ki safedi is kadar chamakdar thi ki bas se utarte hue wo hamein apni ankhon mein chubhti hui si lagi. ek or sigreten jhaDte hue hum bas ki chhaya mein khaDe ho ge. ankhen chhoti karte hue hamne ek nazar jhopDi par Dali aur uske baad garek ke lautne ka intzaar karne lage, jo bas se utarne ke baad jhopDi ke bhitar ghayab ho gaya tha. garek ko lautne mein kuch minat lage. jab wo bahar aaya to uske saath ek aur shakhs tha, jise hamne isse pahle kabhi nahin dekha tha.
“ye mistar bela bonjo hai!” garek ne us adami ki or ishara karte hue kaha, “ve apne ghar mein kuch kaam kar rahe the, lekin phir bhi aap inse jo saval chahen poochh sakte hain. ”
hum sab kafi bebaki ke saath bonjo ki or dekhne lage. hamari talashti hui nigahon ko jhelte hue uska sir kuch jhuk sa gaya. uska buDha chehra raakh ho chuka tha aur gardan par gahri syaah rekhayen theen. hamne gaur kiya ki uska uupri honth kuch suja hua tha. use shayad ghar ke kisi kaam ke beech achanak haDbaDa diya gaya tha aur ab wo jaldi jaldi apne balon ke bichombich kanghi phira chukne ke baad hamare samne prastut tha. uski gardan par bane ustre ke taja nishan bata rahe the ki usne jaldbazi mein kisi khurdure bleD ke saath mukammal daDhi banai hai. taja suti qamiz ke niche usne kisi aur ke naap vali beDhangi patlun pahan rakhi thi, jo bamushkil uske ghutnon tak aati thi. pairon mein kachche badrang chamDe ke ne jute the, jaise rangruton ko trening ke dauran milte hain.
hum sabne ‘helo!’ kahte hue bari bari se uske saath haath milaya. wo sir hilata raha aur phir usne hamein ghar ke bhitar aane ka nyauta diya. ‘pahle aap’ vale andaz mein usne hamein aage nikalne ko kaha aur hum dahliz ko paar karte hue ek baDe se kamre mein aa ge, jahan ek buDhi aurat hamara intzaar kar rahi thi. kamre ki mariyal roshni mein hamein uske chehre ki jagah sirf uska shaul dikhai diya. aage baDhkar usne hamein apni mutthiyon ke akar ka ek ajib sa phal khane ko diya, jiska guda is kadar surkh laal tha ki hamein laga, hum kisi taze zakhm mein apne daant gaDa rahe hain.
kamre se vapas hum usi kachche chauk mein nikal aaye, jahan ab bahut se adhnange bachche hamari bas ke gird ikatthe ho ge the. bonjo ki or gaur se dekhti unki nigahon mein painapan tha, halanki ve apni jagah se hile Dule baghair khamosh khaDe the aur unmen se kisi ka bhi dhyaan hamari or nahin tha. ek ajib bonjo muskura diya.
“tumhare bachche hain?” hamare sathi pautgijar ne kuch rukkar puchha.
is pahle saval par khisen niporte hue bonjo ne uttar diya, “haan, ek beta hai. lekin usse hamara koi sambandh nahin! sarkar ka virodhi hone ke saath hi wo aalsi aur nikamma bhi tha. baDa adami banne ke lalach mein usne atankvadiyon ka saath diya, jo in dinon har jagah gaDbaDi phaila rahe hain. unhen lagta hai ki ve chijon ko behtar Dhang se chala sakte hain aur isiliye ve sarkar se laD rahe hain. ” uski avaz mein gahra atmavishvas aur ek sahj vishvasniyata thi. jab wo bol raha tha to mainne gaur kiya ki uske samne ke daant nahin hain.
“ho sakta hai ki chijon ko behtar Dhang se chala sakne ka unka dava sachmuch sahi ho!” pautgijar ne kaha.
is par garek vinod bhaav se muskuraya. lekin bonjo ne kaha, “har haalat mein sarkar ka bojh, chahe wo halka ho ya bhari, hum janta ke logon ko hi uthana hota hai. ye sarkar jaisi bhi ho, hamari pahchani hui hai. lekin udhar ke logon ke paas to sirf vade hain. ’
“bachchon ne arthpurn Dhang se ek dusre ki or dekha.
“lekin unka sabse baDa vada to ajadi dilane ka hai. ” mera dost bliguth bola.
“azadi ko lekar aap kya chatiyega?” bonjo ne muskurakar kaha, “aisi ajadi kis kaam ki, jisse pura desh gharibi ki chapet mein aa jaye? is sarkar ke bute par hamare videshi niryat qayam hain. isne saDken, aspatal aur skool banaye hain. uusar zamin par kheti ki shuruat ki hai aur aage bhi kheti par iska khaas zor rahega. aur isne hamein vot Dalne ka adhikar bhi diya hai!”
bachchon mein ek lahr si dauD gai aur ve ek dusre ka haath pakaDkar do qadam aage aa ge. bonjo ne apni gardan jhukai aur wo dubara usi ajib se atmtript bhaav se muskuraya. phir sir uthakar usne garek ki or dekha, jo hamare pichhe kuch phasle par chupchap khaDa tha.
“sach kaha jaye to. . . ” bonjo khud ba khud bolta chala gaya,”. . . azadi ke liye ek khaas tarah ki taiyari aur paripakvata ki zarurat hoti hai. aaj agar ajadi mil bhi jaye to hamein samajh mein nahin ayega ki uska kya karen? aam janta ke bare mein bhi vahi paripakvata vali baat sahi lagti hai. hum abhi balig umr tak nahin pahunche hain. aur main is sarkar ki daad deta hoon ki isne is vartaman nabalig haalat mein hamein apne khud ke haal par nahin chhoD rakha hai, balki sach kahun to main tahe dil se shukraguzar hoon is sarkar ka. . . ”
garek muDkar bas ki or chala gaya. bonjo bahut savadhani se uski or dekhta raha, jab tak ki bas ka bhari darvaza band nahin ho gaya aur hum mitti se lipe ge us chauk mein akele nahin rah ge. is akelepan ke prati ashvast hote hi reDiyo riportar phinke jaldi se bonjo ki or muDa aur usne tezi se saval kiya, “ab asli mazra batao, jaldi! ab hum akele hain!”
bonjo ne thook nigli aur phir phinke ki or kuch narajgi bhare ashcharya se dekhte hue wo dhire se bola, “maaf kijiyega, main samjha nahin aapka saval. . . ab hum saaph saaph baat kar sakte hain!” phinke ne haDabDate hue kaha. saaf saaf baat kar sakte hain!” bonjo ne kafi savadhani ke saath saval ko dohraya aur phir uske chehre par hansi phail gai. uske samne ke danton ke beech ki khali jagah ab bakhubi dekhi ja sakti thi.
“main aapse saaf saaf hi kah raha tha. main aur meri patni—ham donon is sarkar ke samarthak hain. hamne ab tak jo kuch bhi hasil kiya hai, usmen sarkar ka bahut baDa haath raha hai aur iske liye hum unke abhari hain. aur aap to jante hi honge ki ajkal kisi sarkar ke prati abhar jatane layak kuch bhi hasil karna kitna mushkil hota hai. main hi nahin, mere paDosi, aur samne khaDe ve sare bachche aur is gaanv ka ek ek adami, hum sab is sarkar ka abhari hai. aap jakar kisi bhi ghar ka darvaza khatkhata len, aapko pata chal jayega ki sab log is sarkar ke kitne abhari hain. ”
is par dubla patla naujavan patrakar gam achanak aage baDh aaya aur usne phusphusahat bhare svar mein bonjo se saval kiya, “mujhe jankar sutron se pata chala hai ki tumhara beta pakaD liya gaya hai aur shahr mein use ‘taurchar’ kiya ja raha hai. is par tumhein kya kahna hai?”
bonjo ne apni ankhen band kar leen. uski palkon par dhool ki matmaili safedi thi. phir apni muskurahat ko dabate hue usne javab diya, “jab wo mera beta hi nahin hai, to use ‘taurchar’ kaise kiya ja sakta hai? main aapse phir kahta hoon ki hum is sarkar ka samarthan karte hain aur main inka dost hoon!”
usne ek muDi tuDi, haath se banai biDi sulga li aur tezi se uske kash khinchte hue bas ke darvaze ki or dekhne laga, jo ab tak khul chuka tha. garek bas se utarkar hamari or aaya aur usne puchha ki sab kaisa chal raha hai. bonjo pahle apni eDiyon aur phir panjon par zor dete hue aage pichhe jhulne laga. garek ki vapsi ke baad se use kafi rahat mahsus hone lagi thi aur wo behad prsannbhav se hamare sabhi prashnon ke vistrit uttar deta raha. beech beech mein wo apne danton ki khali jagah se biDi ka dhuna chhoDkar nihashvans leta.
kandhe par ek baDi si hansiya liye hue ek adami hamare qarib se guzar raha tha. bonjo ne haath ke ishare se use udhar aane ko kaha. pair patakta hua wo adami paas aaya to bonjo ne usse ve sare saval kiye, jo hamne usse puchhe the. kuch narazgi se us adami ne apna sir hilaya. ji nahin, wo ji jaan se is sarkar ka samarthan karta tha. sarkar ke prati uski vafadari ke pure byaan ko bonjo kafi vijay bhaav se sunta raha. phir donon adamiyon ne hamare samne apne haath milaye, goya ki sarkar ke saath apne sanjhe rishte par ve vishvasniyata ki muhr laga rahe hon.
alavida kahte hue hum sab bhi bari bari se bonjo se haath milane lage. mera nambar akhiri tha. jab mainne uske sakht, khurdure haath ko apni ungliyon se dabaya to achanak hatheli par kaghaz ki ek goli ka dabav mahsus hua. furti se ungliyan moDte hue mainne use vapas khincha aur jab hum bas ki or muDe to mainne chupchap us goli ko jeb mein Daal liya. biDi ke sutte lagata hua bela bonjo usi tarah vahan chauk mein khaDa tha. jab bas chalne ko hui to usne apni patni ko bhi bahar bula liya aur ve donon us hansiya vale adami aur un bachchon ke saath khaDe, pahaDi ki pathrili chaDhai par ghumti bas ki or avichlit bhaav se dekhte rahe.
hum usi raste se vapas lautne ki jagah aur aage chalte ge, jab tak ki hamara rasta ek relve lain ke samanantar chalti bajri aur ret ki ek saDak se nahin mil gaya. is puri yatra ke dauran mera haath apne kot ki jeb mein ghusa hua tha aur meri ungliyon ke beech thi kaghaz ki wo goli, jo itni sakht thi ki use nakhun se dabana tak asambhav tha. kaghaz ko kot ki jeb se bahar nikalna khatre se khali nahin tha, kyonki garek ki udaas ankhen riyar vyoo’ ke shishe se hoti hui baar baar hum par aakar thahar jati theen. us murda
zamin par ek ajiboghrib chhaya hamare sir ke uupar se guzri aur iske saath hi pankhon ke ghumne ki avaz ke beech hamein relve lain ke uupar ek havai jahaj bahut niche shahr ki disha mein uDta hua dikhai diya. kshitij tak pahunchne ke baad havai jahaz ghuma aur dubara jhannate ke saath hamare sir ke uupar se guzra. phir uske baad der tak wo hamare saath hi bana raha.
kaghaz ki us goli ko apne haath mein dabate hue mujhe bela bonjo ka khayal aaya aur mujhe apni hatheli par ek nami si mahsus hui. relve lain ke dusre sire se koi cheez hamare paas aati dikhai de rahi thi. jab wo ekdam qarib aa gai to hamne dekha ki wo ek relve hathgaDi thi, jis par bahut sare naujavan sipahi baithe the. unhonne hava mein mashinagnen hilate hue hamara svagat kiya. mainne savadhani se kaghaz ki us goli ko kot se nikalkar apni chor jeb mein Dala aur uupar se batan band kar diya. iske saath hi mujhe dubara sarkar ke dost bela bonjo ka chehra yaad ho gaya. apni ankhon ke samne mainne kachche chamDe se bane uske matamaile juton, uske chehre ki svapnil muskurahat aur bolte samay nazar aati uske danton ke beech ki khali jagah ko dekha. hammen se kisi ko bhi shak nahin tha ki bojon ke roop mein sarkar ko ek sachcha samarthak mil gaya tha. . .
samudr ke kinare se hote hue hum vapas shahr laut aaye. pathrile kinare par sir patakti lahron ke lambe nihashvas hava ke jhonkon par savar hokar lagatar hum tak pahunchte rahe. aupera haus par hum bas se utre to garek ne shishttapurvak hum sabse vida li. main hotal tak akela lauta, lift se apne kamre tak gaya aur darvaza band karne ke baad bathrum mein mainne sarkar ke us samarthak dvara khufiya taur par thamayi gai kaghaz ki us goli ko savadhani se khola. lekin pura kaghaz khali tha, us par na koi shabd likha tha aur na hi
vahan koi chihn bana tha. aur tab mainne dekha ki usi kaghaz mein lipta hua tha katthii rang ka ek tuta hua daant, jis par bane tambaku ke daagh ko dekhte hue andaz lagana mushkil nahin tha ki ye daant kiska ho sakta hai!
un logon ne nimantran patr bhejkar patrkaron ko nyauta diya tha ki saptahant par ve ayen aur svayan apni ankhon se dekhen ki sarkar ke prati janta ka samarthan kitna zabardast hai. shayad ve sabit karna chahte the ki us ashant pardesh ke bare mein jo kuch likha ja raha tha, wo sab jhooth tha; kisi ko bhi vahan ‘taurchar’ nahin kiya ja raha tha. gharibi puri tarah hat chuki thi aur sabse zaruri, svtantrta sangram jaisi kisi aag ka koi namonishan tak vahan maujud nahin tha. lihaza kafi shalinata ke saath unhonne hamein bulaya aur jab nirdharit samay par aupera haus ki bilDing ke pichhvaDe mein hum pahunche to sambhrant veshbhusha vale ek mridu bhashi adhikari ne hamari agvani ki. phir wo hamein apne saath sarkari bas ki or le chala.
bas ke bhitar taze varnish aur mahnge chamDe ki gandh thi. spikar par halka halka sangit baj raha tha. bas chali to us adhikari ne klip par tanga maikrofon nikala aur uski chamakdar jali ko apne nakhunon se kharonchkar saaf karte hue vinamrtapurvak dubara hum sabka svagat kiya. “mera naam garek hai!” uske svar mein sankoch tha. phir ek ke baad ek usne shahr ke mukhya akarshnon ke naam dohraye, vahan ke sarvajnik parkon ki sankhya ka byaura diya aur ungli ke ishare se hamein ye jankari di ki samne pahaDi par jahan dhoop dikhai deti hai, vahan sarkar ek adarsh avasiy kauloni ka nirman karne vali hai.
shahr se bahar nikalne ke baad saDak do shakhon mein bant gai aur hum ghumkar samudr ki viprit disha mein, pardesh ke andaruni ilake ki or baDh ge, jahan pathrile maidan aur matmaili khaiyan theen. ghati ke nichle, sapat hisse par kuch door jane ke baad hamne sukhi nadi par bane ek pul ko paar kiya, jahan ek naujavan sipahi apne haath mein ek halki ‘sab mashinagan’ thame laparvahi se khaDa tha. hamein dekhkar usne jindadili se haath hilaya. sukhi nadi ki talahti mein gol gol chikne patthron ke beech do aur sipahi khaDe the. garke ne bataya ki wo ilaka nishanebazi ki trening ke liye kafi lokapriy tha.
lambe, teDhe meDhe raston se uupar chaDhte hue hum ek garm aur khushk maidan mein nikal aaye. khiDki se bhitar aati khaDiya ke chure jaisi mahin dhool se hamari ankhen jalne lagin aur honthon par khaDiya ka sa svaad ubhar aaya. hamne apne kot utaar diye. sirf garek apna kot pahne raha. usne ab bhi maikrofon haath mein pakDa hua tha aur saumya avaz mein wo in bejan, banjar maidanon mein paidavar ugane ki sarkari yojnaon ke bare mein bata raha tha. mainne dekha, mere saath baithe shakhs ne apna sir pichhe tikakar ankhen band kar li theen. uske honth chikni mitti se pile hokar sookh ge the aur samne chamakdar reling par kase uske hathon par nili nasen ubhar aai theen. mainne use kuhni markar utha dene ki sochi, kyonki ‘riyar vyoo’ ke shishe mein se dikhai deti garek ki ankhen rah rahkar hum donon par thahar jati theen. lekin abhi main is tajviz ke bare mein soch hi raha tha ki garek utha aur muskurahat bhare chehre ke saath siton ke beech ke patle galiyare se hota hua wo sabko pual ki bani topiyan aur barfili kolD Drinks ke gilas bantne laga.
dopahar ke asapas hum ek gaanv se guzre. yahan sabhi khiDkiyan lakDi ki petiyon se joDe ge takhton par kilen thonkkar band kar di gai theen. tahaniyon ko gunthakar banai gai menDen jagah jagah andhi se toot chuki theen aur sabut salamat hisson mein bhi anaginat surakh nazar aate the. sapat chhaten viran theen aur kahin bhi kapDe nahin sookh rahe the. kuan patre se Dhanka hua tha aur tajjub ki baat hai ki hamare pichhe kahin se bhi na to kutte hi bhaunke aur na hi koi shakhs vahan nazar aaya. bina raftar dhimi kiye, apne pichhe atmasmarpan ke jhanDe ka sa safed ghubar chhoDti hamari bas jhannate ke saath aage nikal gai.
garek is beench phir se siton ke beech ke galiyare mein aage baDhta hua sabko sainDvich bantne laga tha. saath hi wo hamara hausla bhi baDhata jata ki bas ab zyada door nahin hai, manzil aai hi samjho! khiDki ke bahar ab yahan vahan baDi baDi chattanon aur badrang jhaDiyon se Dhanka pahaDi ilaqa dikhai dene laga tha. saDak niche ki or utarti gai aur hum ek suranganuma khai ke beech se guzarne lage. barud lagane ke ardhvrittakar chhandon se chattan ki satah par aaDi tirchhi parchhaiyan ban rahi theen. bas ke bhitar garmi bardasht ke bahar ho chuki thi. tabhi saDak chauDi hokar phail gai aur hamne paya ki hum nadi ke katav se bani ek ghati aur ghati ke sire par base ek chhote se gaanv ke qarib aa pahunche hain.
garek ne haath se ishara kiya ki yahin hamein utarna hai. hamne dubara apne kot pahan liye. bas dhimi hoti hui saphedi puti ek saaf suthari jhopDi ke samne phaile kachche chauk mein ja khaDi hui. jhopDi ki safedi is kadar chamakdar thi ki bas se utarte hue wo hamein apni ankhon mein chubhti hui si lagi. ek or sigreten jhaDte hue hum bas ki chhaya mein khaDe ho ge. ankhen chhoti karte hue hamne ek nazar jhopDi par Dali aur uske baad garek ke lautne ka intzaar karne lage, jo bas se utarne ke baad jhopDi ke bhitar ghayab ho gaya tha. garek ko lautne mein kuch minat lage. jab wo bahar aaya to uske saath ek aur shakhs tha, jise hamne isse pahle kabhi nahin dekha tha.
“ye mistar bela bonjo hai!” garek ne us adami ki or ishara karte hue kaha, “ve apne ghar mein kuch kaam kar rahe the, lekin phir bhi aap inse jo saval chahen poochh sakte hain. ”
hum sab kafi bebaki ke saath bonjo ki or dekhne lage. hamari talashti hui nigahon ko jhelte hue uska sir kuch jhuk sa gaya. uska buDha chehra raakh ho chuka tha aur gardan par gahri syaah rekhayen theen. hamne gaur kiya ki uska uupri honth kuch suja hua tha. use shayad ghar ke kisi kaam ke beech achanak haDbaDa diya gaya tha aur ab wo jaldi jaldi apne balon ke bichombich kanghi phira chukne ke baad hamare samne prastut tha. uski gardan par bane ustre ke taja nishan bata rahe the ki usne jaldbazi mein kisi khurdure bleD ke saath mukammal daDhi banai hai. taja suti qamiz ke niche usne kisi aur ke naap vali beDhangi patlun pahan rakhi thi, jo bamushkil uske ghutnon tak aati thi. pairon mein kachche badrang chamDe ke ne jute the, jaise rangruton ko trening ke dauran milte hain.
hum sabne ‘helo!’ kahte hue bari bari se uske saath haath milaya. wo sir hilata raha aur phir usne hamein ghar ke bhitar aane ka nyauta diya. ‘pahle aap’ vale andaz mein usne hamein aage nikalne ko kaha aur hum dahliz ko paar karte hue ek baDe se kamre mein aa ge, jahan ek buDhi aurat hamara intzaar kar rahi thi. kamre ki mariyal roshni mein hamein uske chehre ki jagah sirf uska shaul dikhai diya. aage baDhkar usne hamein apni mutthiyon ke akar ka ek ajib sa phal khane ko diya, jiska guda is kadar surkh laal tha ki hamein laga, hum kisi taze zakhm mein apne daant gaDa rahe hain.
kamre se vapas hum usi kachche chauk mein nikal aaye, jahan ab bahut se adhnange bachche hamari bas ke gird ikatthe ho ge the. bonjo ki or gaur se dekhti unki nigahon mein painapan tha, halanki ve apni jagah se hile Dule baghair khamosh khaDe the aur unmen se kisi ka bhi dhyaan hamari or nahin tha. ek ajib bonjo muskura diya.
“tumhare bachche hain?” hamare sathi pautgijar ne kuch rukkar puchha.
is pahle saval par khisen niporte hue bonjo ne uttar diya, “haan, ek beta hai. lekin usse hamara koi sambandh nahin! sarkar ka virodhi hone ke saath hi wo aalsi aur nikamma bhi tha. baDa adami banne ke lalach mein usne atankvadiyon ka saath diya, jo in dinon har jagah gaDbaDi phaila rahe hain. unhen lagta hai ki ve chijon ko behtar Dhang se chala sakte hain aur isiliye ve sarkar se laD rahe hain. ” uski avaz mein gahra atmavishvas aur ek sahj vishvasniyata thi. jab wo bol raha tha to mainne gaur kiya ki uske samne ke daant nahin hain.
“ho sakta hai ki chijon ko behtar Dhang se chala sakne ka unka dava sachmuch sahi ho!” pautgijar ne kaha.
is par garek vinod bhaav se muskuraya. lekin bonjo ne kaha, “har haalat mein sarkar ka bojh, chahe wo halka ho ya bhari, hum janta ke logon ko hi uthana hota hai. ye sarkar jaisi bhi ho, hamari pahchani hui hai. lekin udhar ke logon ke paas to sirf vade hain. ’
“bachchon ne arthpurn Dhang se ek dusre ki or dekha.
“lekin unka sabse baDa vada to ajadi dilane ka hai. ” mera dost bliguth bola.
“azadi ko lekar aap kya chatiyega?” bonjo ne muskurakar kaha, “aisi ajadi kis kaam ki, jisse pura desh gharibi ki chapet mein aa jaye? is sarkar ke bute par hamare videshi niryat qayam hain. isne saDken, aspatal aur skool banaye hain. uusar zamin par kheti ki shuruat ki hai aur aage bhi kheti par iska khaas zor rahega. aur isne hamein vot Dalne ka adhikar bhi diya hai!”
bachchon mein ek lahr si dauD gai aur ve ek dusre ka haath pakaDkar do qadam aage aa ge. bonjo ne apni gardan jhukai aur wo dubara usi ajib se atmtript bhaav se muskuraya. phir sir uthakar usne garek ki or dekha, jo hamare pichhe kuch phasle par chupchap khaDa tha.
“sach kaha jaye to. . . ” bonjo khud ba khud bolta chala gaya,”. . . azadi ke liye ek khaas tarah ki taiyari aur paripakvata ki zarurat hoti hai. aaj agar ajadi mil bhi jaye to hamein samajh mein nahin ayega ki uska kya karen? aam janta ke bare mein bhi vahi paripakvata vali baat sahi lagti hai. hum abhi balig umr tak nahin pahunche hain. aur main is sarkar ki daad deta hoon ki isne is vartaman nabalig haalat mein hamein apne khud ke haal par nahin chhoD rakha hai, balki sach kahun to main tahe dil se shukraguzar hoon is sarkar ka. . . ”
garek muDkar bas ki or chala gaya. bonjo bahut savadhani se uski or dekhta raha, jab tak ki bas ka bhari darvaza band nahin ho gaya aur hum mitti se lipe ge us chauk mein akele nahin rah ge. is akelepan ke prati ashvast hote hi reDiyo riportar phinke jaldi se bonjo ki or muDa aur usne tezi se saval kiya, “ab asli mazra batao, jaldi! ab hum akele hain!”
bonjo ne thook nigli aur phir phinke ki or kuch narajgi bhare ashcharya se dekhte hue wo dhire se bola, “maaf kijiyega, main samjha nahin aapka saval. . . ab hum saaph saaph baat kar sakte hain!” phinke ne haDabDate hue kaha. saaf saaf baat kar sakte hain!” bonjo ne kafi savadhani ke saath saval ko dohraya aur phir uske chehre par hansi phail gai. uske samne ke danton ke beech ki khali jagah ab bakhubi dekhi ja sakti thi.
“main aapse saaf saaf hi kah raha tha. main aur meri patni—ham donon is sarkar ke samarthak hain. hamne ab tak jo kuch bhi hasil kiya hai, usmen sarkar ka bahut baDa haath raha hai aur iske liye hum unke abhari hain. aur aap to jante hi honge ki ajkal kisi sarkar ke prati abhar jatane layak kuch bhi hasil karna kitna mushkil hota hai. main hi nahin, mere paDosi, aur samne khaDe ve sare bachche aur is gaanv ka ek ek adami, hum sab is sarkar ka abhari hai. aap jakar kisi bhi ghar ka darvaza khatkhata len, aapko pata chal jayega ki sab log is sarkar ke kitne abhari hain. ”
is par dubla patla naujavan patrakar gam achanak aage baDh aaya aur usne phusphusahat bhare svar mein bonjo se saval kiya, “mujhe jankar sutron se pata chala hai ki tumhara beta pakaD liya gaya hai aur shahr mein use ‘taurchar’ kiya ja raha hai. is par tumhein kya kahna hai?”
bonjo ne apni ankhen band kar leen. uski palkon par dhool ki matmaili safedi thi. phir apni muskurahat ko dabate hue usne javab diya, “jab wo mera beta hi nahin hai, to use ‘taurchar’ kaise kiya ja sakta hai? main aapse phir kahta hoon ki hum is sarkar ka samarthan karte hain aur main inka dost hoon!”
usne ek muDi tuDi, haath se banai biDi sulga li aur tezi se uske kash khinchte hue bas ke darvaze ki or dekhne laga, jo ab tak khul chuka tha. garek bas se utarkar hamari or aaya aur usne puchha ki sab kaisa chal raha hai. bonjo pahle apni eDiyon aur phir panjon par zor dete hue aage pichhe jhulne laga. garek ki vapsi ke baad se use kafi rahat mahsus hone lagi thi aur wo behad prsannbhav se hamare sabhi prashnon ke vistrit uttar deta raha. beech beech mein wo apne danton ki khali jagah se biDi ka dhuna chhoDkar nihashvans leta.
kandhe par ek baDi si hansiya liye hue ek adami hamare qarib se guzar raha tha. bonjo ne haath ke ishare se use udhar aane ko kaha. pair patakta hua wo adami paas aaya to bonjo ne usse ve sare saval kiye, jo hamne usse puchhe the. kuch narazgi se us adami ne apna sir hilaya. ji nahin, wo ji jaan se is sarkar ka samarthan karta tha. sarkar ke prati uski vafadari ke pure byaan ko bonjo kafi vijay bhaav se sunta raha. phir donon adamiyon ne hamare samne apne haath milaye, goya ki sarkar ke saath apne sanjhe rishte par ve vishvasniyata ki muhr laga rahe hon.
alavida kahte hue hum sab bhi bari bari se bonjo se haath milane lage. mera nambar akhiri tha. jab mainne uske sakht, khurdure haath ko apni ungliyon se dabaya to achanak hatheli par kaghaz ki ek goli ka dabav mahsus hua. furti se ungliyan moDte hue mainne use vapas khincha aur jab hum bas ki or muDe to mainne chupchap us goli ko jeb mein Daal liya. biDi ke sutte lagata hua bela bonjo usi tarah vahan chauk mein khaDa tha. jab bas chalne ko hui to usne apni patni ko bhi bahar bula liya aur ve donon us hansiya vale adami aur un bachchon ke saath khaDe, pahaDi ki pathrili chaDhai par ghumti bas ki or avichlit bhaav se dekhte rahe.
hum usi raste se vapas lautne ki jagah aur aage chalte ge, jab tak ki hamara rasta ek relve lain ke samanantar chalti bajri aur ret ki ek saDak se nahin mil gaya. is puri yatra ke dauran mera haath apne kot ki jeb mein ghusa hua tha aur meri ungliyon ke beech thi kaghaz ki wo goli, jo itni sakht thi ki use nakhun se dabana tak asambhav tha. kaghaz ko kot ki jeb se bahar nikalna khatre se khali nahin tha, kyonki garek ki udaas ankhen riyar vyoo’ ke shishe se hoti hui baar baar hum par aakar thahar jati theen. us murda
zamin par ek ajiboghrib chhaya hamare sir ke uupar se guzri aur iske saath hi pankhon ke ghumne ki avaz ke beech hamein relve lain ke uupar ek havai jahaj bahut niche shahr ki disha mein uDta hua dikhai diya. kshitij tak pahunchne ke baad havai jahaz ghuma aur dubara jhannate ke saath hamare sir ke uupar se guzra. phir uske baad der tak wo hamare saath hi bana raha.
kaghaz ki us goli ko apne haath mein dabate hue mujhe bela bonjo ka khayal aaya aur mujhe apni hatheli par ek nami si mahsus hui. relve lain ke dusre sire se koi cheez hamare paas aati dikhai de rahi thi. jab wo ekdam qarib aa gai to hamne dekha ki wo ek relve hathgaDi thi, jis par bahut sare naujavan sipahi baithe the. unhonne hava mein mashinagnen hilate hue hamara svagat kiya. mainne savadhani se kaghaz ki us goli ko kot se nikalkar apni chor jeb mein Dala aur uupar se batan band kar diya. iske saath hi mujhe dubara sarkar ke dost bela bonjo ka chehra yaad ho gaya. apni ankhon ke samne mainne kachche chamDe se bane uske matamaile juton, uske chehre ki svapnil muskurahat aur bolte samay nazar aati uske danton ke beech ki khali jagah ko dekha. hammen se kisi ko bhi shak nahin tha ki bojon ke roop mein sarkar ko ek sachcha samarthak mil gaya tha. . .
samudr ke kinare se hote hue hum vapas shahr laut aaye. pathrile kinare par sir patakti lahron ke lambe nihashvas hava ke jhonkon par savar hokar lagatar hum tak pahunchte rahe. aupera haus par hum bas se utre to garek ne shishttapurvak hum sabse vida li. main hotal tak akela lauta, lift se apne kamre tak gaya aur darvaza band karne ke baad bathrum mein mainne sarkar ke us samarthak dvara khufiya taur par thamayi gai kaghaz ki us goli ko savadhani se khola. lekin pura kaghaz khali tha, us par na koi shabd likha tha aur na hi
vahan koi chihn bana tha. aur tab mainne dekha ki usi kaghaz mein lipta hua tha katthii rang ka ek tuta hua daant, jis par bane tambaku ke daagh ko dekhte hue andaz lagana mushkil nahin tha ki ye daant kiska ho sakta hai!
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 155)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।