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प्रायश्चित

prayashchit

प्रेमचंद

प्रेमचंद

प्रायश्चित

प्रेमचंद

और अधिकप्रेमचंद

    एक

    दफ़्तर में ज़रा देर से आना अफ़सरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उत्तनी ही देर में आता है; और उतने ही सबेरे जाता भी है। चपरासी की हाज़िरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना एवज़ देना पड़ता है। ख़ैर, जब बरेली जिला-बोर्ड के हेड क्लर्क बाबू मदारीलाल ग्यारह बजे दफ़्तर आए, तब मानो दफ़्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़कर पैर-गाड़ी ली, अरदली ने दौड़कर कमरे की चिक उठा दी और जमादार ने डाक की क़िश्त मेज़ पर लाकर रख दी। मदारीलाल ने पहला ही सरकारी लिफ़ाफ़ा खोला था कि उनका रंग फ़क़ हो गया। वे कई मिनट तक आश्चर्यांवित हालत में खड़े रहे, मानो सारी ज्ञानेंद्रियाँ शिथिल हो गई हों। उन पर बड़े-बड़े आघात हो चुके थे; पर इतने बदहवास वे कभी हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड के सेक्रेटरी की जो जगह एक महीने से ख़ाली थी, सरकार ने सुबोधचंद्र को वह जगह दी थी और सुबोधचंद्र वह व्यक्ति था, जिसके नाम ही से मदारीलाल को घृणा थी। वह सुबोधचंद्र, जो उनका सहपाठी था, जिस जक देने को उन्होंने कितनी ही चेष्टा की; पर कभी सफल हुए थे। वही सुबोध आज उनका अफ़सर होकर रहा था। सुबोध की इधर कई सालों से कोई ख़बर थी। इतना मालूम था कि वह फ़ौज में भरती हो गया था। मदारीलाल ने समझा था—वहीं मर गया होगा; पर आज वह मानो जी उठा और सेक्रेटरी होकर रहा था। मदारीलाल को उसकी मातहती में काम करना पड़ेगा। इस अपमान से तो मर जाना कहीं अच्छा था। सुबोध को स्कूल और कॉलेज की सारी बातें अवश्य ही याद होंगी। मदारीलाल ने उसे कॉलेज से निकलवा देने के लिए कई बार मंत्र चलाए, झूठे आरोप किए, बदनाम किया। क्या सुबोध सब कुछ भूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही पुरानी कसर निकालेगा। मदारी बाबू को अपनी प्राण-रक्षा का कोई उपाय सूझता था।

    मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही विरोध था। दोनों एक ही दिन, एक ही शाला में भरती हुए थे, और पहले ही दिन से दिल में ईर्ष्या और द्वेष की वह चिनगारी पड़ गई, जो आज बीस वर्ष बीतने पर भी बुझी थी। सुबोध का अपराध यही था कि वह मदारीलाल से हर एक बात में बढ़ा हुआ था। डील-डौल, रंग-रूप, रीति-व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सारे मैदान उसके हाथ थे। मदारीलाल ने उसका यह अपराध कभी क्षमा नहीं किया। सुबोध बीस वर्ष तक निरंतर उनके हृदय का काँटा बना रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मदारी फेल होकर इस दफ़्तर में नौकर हो गए, तब उनका चित्त शांत हुआ। किंतु जब यह मालूम हुआ कि सुबोध बसरे जा रहा है, तब तो मदारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी फाँस निकल गई। पर हां हतभाग्य! आज वह पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी क़िस्मत सुबोध के हाथ में थी। ईश्वर इतना अन्यायी है! विधि इतना कठोर!

    जब ज़रा चित्त शांत हुआ, तब मदारी ने दफ़्तर के क्लर्कों को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा—अब आप लोग ज़रा हाथ-पाँव सँभालकर रहिएगा। सुबोधचंद्र वे आदमी नहीं हैं, जो भूलो को क्षमा कर दें।

    एक क्लर्क ने पूछा—क्या बहुत सख़्त हैं?

    मदारीलाल ने मुस्कुराकर कहा—वह तो आप लोगों को दो-चार दिन ही में मालूम हो जाएगा। मैं अपने मुँह से किसी की क्यों शिकायत करूँ? बस, चेतावनी दे दी कि ज़रा हाथ-पाँव सँभालकर रहिएगा। आदमी योग्य है, पर बड़ा ही क्रोधी, बड़ा दंभी। ग़ुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। ख़ुद हज़ारों हज़म कर जाए और डकार तक ले; पर क्या मजाल कि कोइ मातहत एक कौड़ी भी हज़म करने पाए। ऐसे आदमी से ईश्वर ही बचाए! मैं तो सोच रहा हूँ कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊँ। दोनों वक़्त घर पर हाज़िरी बजानी होगी। आप लोग आज से सरकार के नौकर नहीं, सेक्रेटरी साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ाएगा। कोई बाज़ार से सौदा-सुलुफ़ लाएगा और कोई उन्हें अख़बार सुनाएगा। और चपरासियों के तो शायद दफ़्तर में दर्शन ही हों।

    इस प्रकार सारे दफ़्तर को सुबोधचंद्र की तरफ़ से भड़काकर मदारीलाल ने अपना कलेजा ठंडा किया।

    दो

    इसके एक सप्ताह बाद सुबोधचंद्र गाड़ी से उतरे, तब स्टेशन पर दफ़्तर के सब कर्मचारियों को हाज़िर पाया। सब उनका स्वागत करने आए थे। मदारीलाल को देखते ही सुबोध लपककर उनके गले से लिपट गए और बोले—तुम ख़ूब मिले भाई। यहाँ कैसे आए? ओह! आज एक युग के बाद भेंट हुई!

    मदारीलाल बोले—यहाँ जिला-बोर्ड के दफ़्तर में हेड-क्लर्क हूँ। आप तो कुशल से हैं?

    सुबोध—अजी, मेरी पूछो। बसरा, फ़्रांस, मिस्र और न-जाने कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा। तुम दफ़्तर में हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही में आता था कि कैसे काम चलेगा। मैं तो बिल्कुल कोरा हूँ; मगर जहाँ जाता हूँ, मेरा सौभाग्य ही मेरे साथ जाता है। बसरे में सभी अफ़सर ख़ुश थे। फ़्रांस में भी ख़ूब चैन किए। दो साल में कोई पचीस हज़ार रुपए बना लाया और सब उड़ा दिया। वहाँ से आकर कुछ दिनों को आपरेशन दफ़्तर में मटरगश्त करता रहा। यहाँ आया, तब तुम मिल गए। (क्लर्को को देखकर)—ये लोग कौन हैं?

    मदारी के हृदय पर बर्छियाँ-सी चल रही थीं। दुष्ट पच्चीस हज़ार रुपए बसरे में कमा लाया! यहाँ क़लम घिसते-घिसते मर गए और पाँच सौ भी जमाकर सके। बोले—कर्मचारी हैं। सलाम करने आए हैं।

    सबोध ने उन सब लोगों से बारी-बारी से हाथ मिलाया और बोला—आप लोगों ने व्यर्थ यह कष्ट किया। बहुत आभारी हूँ। मुझे आशा है कि आप सब सज्जनों को मुझसे कोई शिकायत होगी। मुझे अपना अफ़सर नहीं, अपना भाई समझिए। आप सब लोग मिलकर इस तरह काम कीजिए कि बोर्ड की नेकनामी हो और मैं भी सुर्ख़रू रहूँ। आपके हेड क्लर्क साहब तो मेरे पुराने मित्र और लँगोटिया यार हैं।

    एक वाक्चातुर्य क्लर्क ने कहा—हम सब हुज़ूर के ताबेदार हैं। यथाशक्ति आपको असंतुष्ट करेंगे; लेकिन आदमी ही है, अगर कोई भूल हो भी जाए, तो हुज़ूर उसे क्षमा करेंगे।

    सुबोध ने नम्रता से कहा—यही मेरा सिद्धांत है और हमेशा से यही सिद्धांत रहा है। जहाँ रहा, मातहतों से मित्रों का-सा बर्ताव किया। हम और आज दोनों ही किसी तीसरे के ग़ुलाम हैं। फिर रौब कैसा और अफ़सरी कैसी? हाँ, हमें नेकनीयत के साथ अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए।

    जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले, तब आपस में बातें होनी लगीं—आदमी तो अच्छा मालूम होता है।

    “हेड क्लर्क के कहने से तो ऐसा मालूम होता था कि सबको कच्चा ही खा जाएगा।”

    “पहले सभी ऐसे ही बातें करते है।”

    “ये दिखाने के दाँत है।”

    तीन

    सुबोध को आए एक महीना गुज़र गया। बोर्ड के क्लर्क, अरदली, चपरासी सभी उसके बर्ताव से ख़ुश हैं। वह इतना प्रसन्नचित्त है, इतना नम्र है कि जो उससे एक बार मिला है, सदैव के लिए उसका मित्र हो जाता है। कठोर शब्द तो उनकी ज़बान पर आता ही नहीं। इंकार को भी वह अप्रिय नहीं होने देता; लेकिन द्वेष की आँखों में गुण और भी भयंकर हो जाता है। सुबोध के ये सारे सदगुण मदारीलाल की आँखों में खटकते रहते हैं। उसके विरूद्ध कोई कोई गुप्त षड्यंत्र रचते ही रहते हैं। पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल हुए। बोर्ड के मेंबरों को भड़काना चाहा, मुँह की खाई। ठेकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित होना पड़ा। वे चाहते थे कि भूस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखें। सुबोध से यों हँस कर मिलते, यों चिकनी-चुपड़ी बातें करते, मानो उसके सच्चे मित्र है, पर घात में लगे रहते। सुबोध में सब गुण थे, पर आदमी पहचानना जानते थे। वे मदारीलाल को अब भी अपना दोस्त समझते हैं।

    एक दिन मदारीलाल सेक्रेटरी साहब के कमरे में गए, तब कुर्सी ख़ाली देखी। वे किसी काम से बाहर चले गए थे। उनकी मेज़ पर पाँच हज़ार के नोट पुलिदों में बँधे हुए रखे थे। बोर्ड के मदरसों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाए गए थे। उसी के दाम थे। ठेकेदार वसूली के लिए बुलाया गया था। आज ही सेक्रेटरी साहब ने चेक भेजकर खजाने से रुपए मँगवाए थे। मदारीलाल ने बरामदे में झाँककर देखा, सुबोध का कहीं पता नहीं। उनकी नीयत बदल गई। ईर्ष्या में लोभ का सम्मिश्रण हो गया। काँपते हुए हाथों से पुलिंदे उठाए; पतलून की दोनों जेबों में भर कर तुरंत कमरे से निकले और चपरासी को पुकार कर बोले—बाबू जी भीतर है? चपरासी आप ठेकेदार से कुछ वसूल करने की ख़ुशी में फूला हुआ था। सामने वाले तमोली के दुकान से आकर बोला—जी नहीं, कचहरी में किसी से बातें कर रहे हैं। अभी-अभी तो गए हैं।

    मदारीलाल ने दफ़्तर में आकर एक क्लर्क से कहा—यह मिसिल ले जाकर सेक्रेटरी साहब को दिखाओ।

    क्लर्क मिसिल लेकर चला गया। ज़रा देर में लौटकर बोला—सेक्रेटरी साहब कमरे में थे। फ़ाइल मेज़ पर रख आया हूँ।

    मदारीलाल ने मुँह सिकोड़ कर कहा—कमरा छोड़ कर कहाँ चले जाया करते हैं? किसी दिन धोखा उठाएँगे।

    क्लर्क ने कहा—उनके कमरे में दफ़्तरवालों के सिवा और जाता ही कौन है?

    मदारीलाल ने तीव्र स्वर में कहा—तो क्या दफ़्तरवाले सब-के-सब देवता हैं? कब किसकी नीयत बदल जाए, कोई नहीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छों-अच्छों की नीयतें बदलते देखी हैं। इस वक़्त हम सभी साह हैं; लेकिन अवसर पाकर शायद ही कोई चूके। मनुष्य की यही प्रकृति है। आप जाकर उनके कमरे के दोनों दरवाज़े बंद कर दीजिए।

    क्लर्क ने टाल कर कहा—चपरासी तो दरवाज़े पर बैठा हुआ है।

    मदारीलाल ने झुँझलाकर कहा—आप से मैं जो कहता हूँ, वह कीजिए। कहने लगे, चपरासी बैठा हुआ है। चपरासी कोई ऋषि है, मुनि है? चपरासी ही कुछ उड़ा दे, तो आप उसका क्या कर लेंगे? जमानत भी है तो तीन सौ की। यहाँ एक-एक काग़ज़ लाखों का है।

    यह कहकर मदारीलाल ख़ुद उठे और दफ़्तर के द्वार दोनों तरफ़ से बंदकर दिए। जब चित्त शांत हुआ, तब नोटों के पुलिंदे जेब से निकालकर एक आलमारी में काग़ज़ों के नीचे छिपाकर रख दिए। फिर आकर अपने काम में व्यस्त हो गए।

    सुबोधचंद्र कोई घंटे-भर में लौटे तब उनके कमरे का द्वार बंद था। दफ़्तर में आकर मुस्कुराते हुए बोले—मेरा कमरा किसने बंद कर दिया है, भाई? क्या मेरी बेदख़ली हो गई?

    मदारीलाल ने खड़े होकर मृदु तिरस्कार दिखाते हुए कहा—साहब, गुस्ताख़ी माफ़ हो, आप जब कभी बाहर जाएँ, चाहे एक ही मिनट के लिए क्यों हो, तब दरवाज़ा बंद कर दिया करें। आपकी मेज़ पर रुपए-पैसे और सरकारी काग़ज़-पत्र बिखरे पड़े रहते हैं, जाने किस वक़्त किसकी नीयत बदल जाए। मैंने अभी सुना कि आप कहीं गए हैं, जब दरवाज़े बंद कर दिए।

    सुबोधचंद्र द्वार खोलकर कमरे में गए और सिगार पीने लगे। मेज़ पर नोट रखे हुए है, इसकी ख़बर ही थी।

    सहसा ठेकेदार ने आकर सलाम किया। सुबोध कुर्सी से उठ बैठे और बोले—तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था। दस ही बजे रुपए मँगवा लिए थे। रसीद लिखवा लाए हो न?

    ठेकेदार—हुज़ूर रसीद लिखवा लाया हूँ।

    सुबोध—तो अपने रुपए ले जाओ। तुम्हारे काम से मैं बहुत ख़ुश नहीं हूँ। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगाई और काम में सफ़ाई भी नहीं हैं। अगर ऐसा काम फिर करोंगे, तो ठेकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जाएगा।

    यह कहकर सुबोध ने मेज़ पर निगाह डाली, तब नोटों के पुलिंदे थे। सोचा, शायद किसी फ़ाइल के नीचे दब गए हों। कुरसी के समीप के सब काग़ज़ उलट-पुलट डाले; मगर नोटों का कहीं पता नहीं। ये नोट कहाँ गए! अभी तो यही मैंने रख दिए थे। जा कहाँ सकते हैं। फिर फ़ाइलों को उलटने-पुलटने लगे। दिल में ज़रा-ज़रा धड़कन होने लगी। सारी मेज़ के काग़ज़ छान डाले, पुलिंदों का पता नहीं। तब वे कुरसी पर बैठकर इस आधे घंटे में होने वाली घटनाओं की मन में आलोचना करने लगे—चपरासी ने नोटों के पुलिंदे लाकर मुझे दिए, ख़ूब याद है। भला, यह भी भूलने की बात है और इतनी जल्द! मैने नोटों को लेकर यहीं मेज़ पर रख दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब गए, पुराने मुलाक़ाती हैं। उनसे बातें करता ज़रा उस पेड़ तक चला गया। उन्होंने पान मँगवाए, बस इतनी ही देर हुई। जब गया हूँ, तब पुलिंदे रखे हुए थे। ख़ूब अच्छी तरह याद है। तब ये नोट कहाँ ग़ायब हो गए? मैंने किसी संदूक़, दराज़ या आलमारी में नहीं रखे। फिर गए तो कहाँ? शायद दफ़्तर में किसी ने सावधानी के लिए उठाकर रख दिए हों, यही बात है। मैं व्यर्थ ही इतना घबरा गया। छि:!

    तुरंत दफ़्तर में आकर मदारीलाल से बोले—आपने मेरी मेज़ पर से नोट तो उठाकर नहीं रख दिए?

    मदारीलाल ने भौंचक्के होकर कहा—क्या आपकी मेज़ पर नोट रखे हुए थे? मुझे तो ख़बर ही नहीं। अभी पंडित सोहनलाल एक फ़ाइल लेकर गए थे, तब आपको कमरे में देखा। जब मुझे मालूम हुआ कि आप किसी से बातें करने चले गए हैं, तब दरवाज़े बंद करा दिए। क्या कुछ नोट नहीं मिल रहे हैं?

    सुबोध आँखें फैलाकर बोले—अरे साहब, पूरे पाँच हज़ार के हैं। अभी-अभी चेक भुनाया है।

    मदारीलाल ने सिर पीटकर कहा—पूरे पाँच हज़ार! या भगवान! आपने मेज़ पर ख़ूब देख लिया हैं?

    “अजी पंद्रह मिनट से तलाश कर रहा हूँ।”

    “चपरासी से पूछ लिया कि कौन-कौन आया था?”

    “आइए, ज़रा आप लोग भी तलाश कीजिए। मेरे तो होश उड़े हुए हैं।”

    सारा दफ़्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज़, आलमारियाँ, संदूक़ सब देखे गए। रजिस्टरों के वर्क उलट-पुलट कर देखे गए; मगर नोटों का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अब इसमें कोई शुबहा था। सुबोध ने एक लंबी साँस ली और कुर्सी पर बैठ गए। चेहरे का रंग फ़क़ हो गया। ज़रा-सा मुँह निकल आया। इस समय कोई उन्हें देखता, तो समझता कि महीनों से बीमार हैं।

    मदारीलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा—ग़ज़ब हो गया और क्या! आज तक कभी ऐसा अँधेर हुआ था। मुझे यहाँ काम करते दस साल हो गए, कभी धेले की चीज़ भी ग़ायब हुई। मैं आपको पहले दिन सावधान कर देना चाहता था कि रुपए-पैसे के विषय में होशियार रहिएगा; मगर शुदनी थी, ख़याल रहा। ज़रूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ाकर ग़ायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कि उसने किसी को कमरे में जोने ही क्यों दिया? वह लाख क़सम खाए कि बाहर से कोई नहीं आया; लेकिन मैं इसे मान नहीं सकता। यहाँ से तो केवल पंडित सोहनलाल एक फ़ाइल लेकर गए थे; मगर दरवाज़े ही से झाँककर चले आए।

    सोहनलाल ने सफ़ाई दी—मैंने तो अंदर क़दम ही नहीं रखा, साहब! अपने जवान बेटे की क़सम खाता हूँ, जो अंदर क़दम रखा भी हो।

    मदारीलाल ने माथा सिकोड़कर कहा—आप व्यर्थ में क़सम क्यों खाते हैं। कोई आपसे कुछ कहता? (सुबोध के कान में) बैंक में कुछ रुपए हों, तो निकालकर ठेकेदार को दे लिए जाए, वरना बड़ी बदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो।

    सुबोध ने करूण-स्वर में कहा—बैंक में मुश्किल से दो-चार सौ रुपए होंगे, भाईजान! रुपए होते तो क्या चिंता थी। समझ लेता, जैसे पच्चीस हज़ार उड़ गए, वैसे ही तीस हज़ार भी उड़ गए। यहाँ तो कफ़न को भी कौड़ी नहीं।

    उसी रात को सुबोधचंद्र ने आत्महत्या कर ली। इतने रुपयों का प्रबंध करना उनके लिए कठिन था। मृत्यु के पर्दे के सिवा उन्हें अपनी वेदना, अपनी विवशता को छिपाने की और कोई आड़ थी।

    चार

    दूसरे दिन प्रात: चपरासी ने मदारीलाल के घर पहुँचकर आवाज़ दी। मदारी को रात-भर नींद आई थी। घबरा कर बाहर आए। चपरासी उन्हें देखते ही बोला—हुज़ूर! बड़ा ग़ज़ब हो गया, सेक्रेटरी साहब ने रात को गर्दन पर छुरी फेर ली।

    मदारीलाल की आँखें ऊपर चढ़ गईं, मुँह फैल गया ओर सारी देह सिहर उठी, मानो उनका हाथ बिजली के तार पर पड़ गया हो।

    “छुरी फेर ली?”

    “जी हाँ, आज सबेरे मालूम हुआ। पुलिसवाले जमा हैं। आपको बुलाया है।”

    “लाश अभी पड़ी हुई हैं?”

    “जी हाँ, अभी डाक्टरी होने वाली है।”

    “बहुत से लोग जमा हैं?”

    “सब बड़े-बड़े अफ़सर जमा हैं। हुज़ूर, लाश की ओर ताकते नहीं बनता। कैसा भलामानुस हीरा आदमी था! सब लोग रो रहे हैं। छोटे-छोटे दो बच्चे हैं, एक सयानी लड़की है ब्याहने लायक। बहूजी को लोग कितना रोक रहे हैं, पर बार-बार दौड़ कर लाश के पास जाती हैं।