आप क़ुर्बान भाई को नहीं जानते? क़ुर्बान भाई इस क़स्बे के सबसे शानदार शख़्स हैं। क़स्बे का दिल है आज़ाद चौक और ऐन आज़ाद चौक पर क़ुर्बान भाई की छोटी सी किराने की दुकान है। यहाँ हर समय सफ़ेद क़मीज़-पजामा पहने दो-दो, चार-चार आने का सौदा-सुलफ माँगती बच्चों-बड़ों की भीड़ में घिरे क़ुर्बान भाई आपको नज़र आ जाएँगे। भीड़ नहीं होगी तो उकड़ूँ बैठे कुछ लिखते होंगे। बार-बार मोटे फ़्रेम के चश्मे को उँगली से ऊपर चढ़ाते और माथे पर बिखरे आवारा, अधकचरे बालों को दाएँ या बाएँ हाथ की उँगलियों में फँसा पीछे सहेजते। यदि आप यहाँ से सौदा लेना चाहें तो आपका स्वागत है। सबसे वाजिब दाम और सबसे ज़्यादा सही तौल और शुद्ध चीज़। जिस चीज़ से उन्हें ख़ुद तसल्ली नहीं होगी, कभी नहीं बेचेंगे। कभी धोखे से दुकान में आ भी गई तो चाहे पड़ी-पड़ी सड़ जाए, आपको साफ़ मना कर देंगे। मिर्च? आपके लायक़ नहीं है। रंग मिली हुई आ गई है। तेल! मज़ेदार नहीं है। रेपसीड मिला है। दीया-बत्ती के लिए चाहें तो ले जाएँ।
यही वजह है कि एक बार जो यहाँ से सामान ले जाता है, दूसरी बार और कहीं नहीं जाता। यूँ चारों तरफ़ बड़ी-बड़ी दुकानें हैं—सिंधियों की, मारवाड़ियों की, पर क़ुर्बान भाई का मतलब है, ईमानदारी। क़ुर्बान भाई का मतलब है, उधार की सुविधा और भरोसा।
लेकिन एक बात का ध्यान रखिएगा जो सामान आप ले जा रहे हैं, उसका लिफ़ाफ़ा या थैली बग़ैर देखे मत फेंकिएगा। मुम्किन है उस पर कोई खुद्दार या ख़ूँखार शेर लिखा हो। न जाने कितने लोग उनसे कह-कहकर हार गए कि ग़ल्ले में एक कॉपी रख लें, शेर होते ही फ़ौरन उसमें दर्ज कर लें। क़ुर्बान भाई सुनते हैं, सहमत भी हो जाते हैं, जो चीज़ें खो गई उन पर दुखी भी होते हैं, पर करते वहीं हैं।
मेरा भी इस शानदार आदमी से इसी तरह परिचय हुआ। दफ़्तर से लौटते हुए क़ुर्बान भाई की दुकान में कोई चीज़ लेकर घर आया...लिफ़ाफ़े पर लिखा था—
“फ़क़त पास-ए-वफ़ादारी है, वरना कुछ नहीं मुश्किल।
बुझा सकता हूँ अंगारे, अभी आँखों में पानी है।”
और यह आदमी आज भी चार-चार आने के सौदे तौल रहा है! और क्यों तौल रहा है, इसकी भी एक कहानी है।
क़ुर्बान भाई के पिता का अजमेर में रंग का लंबा-चौड़ा कारोबार था। दो बड़े-बड़े मकान थे। हवेलियाँ कहना चाहिए। नया बाज़ार में ख़ूब बड़ी दुकान थी। बारह नौकर थे। घर में बग्घी तो थी ही, एक ‘बेबी ऑस्टिन’ भी थी जो ‘सैर’ पर जाने के काम आती थी। संयुक्त परिवार था। पिता मौलाना आज़ाद के शैदाइयों में से थे। बड़े-बड़े लीडर और शाइर घर आकर ठहरते थे। क़ुर्बान भाई उस वक़्त अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। न भविष्य की चिंता थी न बुढ़ापे का डर! मज़े से ज़िंदगी गुज़र रही थी। इश्क़, शाइरी, होस्टल, ख़्वाब!
तभी पार्टीशन हो गया। दंगे हो गए। दुकान जला दी गई। रिश्तेदार पाकिस्तान भाग गए, दो भाई क़त्ल कर दिए गए। पिता ने सदमे से खटिया पकड़ ली और मर गए। नौकर घर की पूँजी लेकर भाग गए। बचे-खुचों को लेकर अपनी जान लिए-लिए क़ुर्बान भाई नागौर चले गए। वहाँ से मेड़ता, मेड़ता से टौंक। कहाँ जाएँ? कहाँ सिर छिपाएँ? क्या पाकिस्तान चले जाएँ? नहीं गए। क्योंकि जोश नहीं गए, क्योंकि सुरैया नहीं गई, क्योंकि क़ुर्बान भाई को अच्छे लगने वाले बहुत से लोग नहीं गए। तो क़ुर्बान भाई क्यों जाते?
धीरे-धीरे घर की बिकने लायक़ चीज़ें सब बिक गईं और कहीं कोई काम, कोई नौकरी नहीं मिली, जो उस दौर में मुसलमानों को मिलना बेहद मुश्किल थी। तिस पर हुनर कोई जानते नहीं थे, तालीम अधूरी थी। आख़िर एक सेठ के यहाँ हिसाब लिखने का काम करने लगे, लेकिन अपनी आदर्शवादिता, ईमानदारी, दयानतदारी, शराफ़त आदि दुर्गुणों के कारण जल्द ही निकाल दिए गए...। लेकिन मालिक होने का ठसका एक बार टूटा तो टूटता चला गया। स्थिति यह थी कि हिंदुओं में निभने की कोशिश करते तो शक-ओ-शुब्हे की बर्छियों से छेद-छेद दिए जाते और मुसलमानों में खपने की कोशिश करते तो लीगियों के धार्मिक उन्माद का जवाब देते-देते टूक-टूक हो जाते।...उतरते गए...मज़दूरी तक, हम्माली तक छुटपुट कारीगरी तक...इंसानियत तक। नए-नए काम सीखे। मजबूरी सिखा ही देती है। साइकिल के पंक्चर जोड़े, पीपों-कनस्तरों की झालन लगाई, ताले-छतरियाँ, लालटेनें ठीक कहीं...चूनरी-बंधेज की रंगाई में काम किया...हाथी दाँत की चूड़िया काटी...शहर दर शहर...अब हमला सांप्रदायिक उन्माद का नहीं, मशीन का हो रहा था...जो चीज़ पकड़ते...धीरे-धीरे हाथ से फिसलने लगती। धक्के खाते-खाते पता नहीं कब कैसे यहाँ इस क़स्बे में आ गए और एक बुज़ुर्ग नमाज़ी मुसलमान से पचास रुपए उधार लेकर एक दिन यह दुकान खोल बैठे।...कुछ पुड़ियों में दाल-चावल...माचिस...बीड़ी-सिगरेट-गोभी-चाकलेट...क्या बताऊँ? किस तरह बताऊँ? एक आदमी के दर्द और संघर्ष की तवील दास्तान का सिर्फ़ अपनी सुविधा के लिए चंद अल्फ़ाज़ में निबटा देना...न सिर्फ़ ज़ियादती है, बल्कि उस संघर्ष का अपमान, ...उसका मज़ाक उड़ाने जैसा भी है। पर क्या करूँ, कहानी जो कहने जा रहा हूँ—दूसरी है।
दुकान के ज़रा जमते ही क़ुर्बान भाई ने अख़बार मँगाना शुरू कर दिया। ठीया हो गया, पहनने को दो जोड़ी कपड़े हो गए, रोटेशन चल गया, गिराकी जम गई तो आगे ख़्वाहिश कौन सी थी? बच्चे कोई जिए नहीं थे, शौक़-मौज, सैर-सपाटा भूल ही चुके थे, मियाँ-बीवी दो जनों के लिए अल्लाह का दिया बहुत था...पत्रिकाएँ क्यों न मँगाते? और उस समय कोई पत्रिका आती तो बुकपोस्ट हो या वी.पी., उसे लेने क़ुर्बान भाई ख़ुद पोस्ट ऑफ़िस पहुँच जाते। पत्रिका को बड़े जतन से सँभालकर रखते और उसका पन्ना-पन्ना, हर्फ़-हर्फ़ चाट जाते। कई-कई बार, जैसे किसी भूखे-प्यासे को छप्पन भोग मिल गए हों। अदब से अब भी इसी तरह मोहब्बत करते हैं। पत्रिकाएँ मँगाकर, ख़रीदकर पढ़ते हैं और उनकी फ़ाइल हिफ़ाज़त से रखते हैं।
इसी सिलसिले में...उनके संस्कार बोलने लगे। लोगों ने देखा, यह शख़्स कभी झूठ नहीं बोलता...ठगी-चार सौ बीसी नहीं करता...कम नहीं तौलता...अबे-तबे नहीं करता...गंदे मज़ाक नहीं करता...अदब से बोलता है और आड़े वक़्त पर हरेक के काम आता है...हर काम में इसके एक नफ़ासत...संस्कारिता छलकती है...इसलिए धीरे-धीरे क़स्बे में प्रतिष्ठित लोग दुआ-सलाम करने लगे...व्यापारियों के यहाँ शादी-ब्याह कुछ होता...उनके कार्ड आने लगे। आकर्षित होकर खग के पास खग भी आने लगे। अब क़ुर्बान भाई उन्हें चाय पिला रहे हैं और ग्राहकी छोड़कर ग़ालिब पर बहस कर रहे हैं।
आहिस्ता-आहिस्ता क़ुर्बान भाई की दुकान पढ़े-लिखों का अड्डा बन गई। लेक्चरर, अध्यापक, पत्रकार, पढ़ने-खिलने वाले। शाम होते ही क़ुर्बान भाई की दुकान ठहाकों और बहसों से गुलज़ार हो जाती। क़ुर्बान भाई आदाब अर्ज़ करते...चाय वाले को चाय के लिए आवाज़ लगाते हैं और टाट की कोई बोरी निकालकर चबूतरे पर बिछा देते। ग्राहकी भी चलती रहती, बहसें भी, ठहाके भी, और बीच-बीच में इसमें भी संकोच नहीं करते कि किसी को छाबड़ी पकड़ाकर दूर रखे थैले से किलो-भर साबुत मिर्च भरने में पिसे नमक की थैली निकाल देने या दस चीज़ों का टोटल मिला देने जैसा काम पकड़ा दें। बड़ा मज़ेदार दृश्य होता कि अंग्रेज़ी साहित्य का व्याख्याता सड़क पर खड़ा फटक-फटककर लहसुन के छिलके उड़ा रहा है या प्रांतीय अख़बार का संवाददाता उकड़ूँ बैठकर चबूतरे के नीचे रखी बोरी से मुलतानी मिट्टी निकाल रहा है या इतिहास के वरिष्ठ अध्यापक...
हम लोगों के संपर्क से क़ुर्बान भाई बदलने लगे। उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनकी एक अदबी शख़्सियत भी है। हमने उनसे उर्दू सीखी, उनकी लाइब्रेरी (जो काफ़ी समृद्ध हो गई थी) को तरतीब दी, रिसालों की जिल्दें बनवाईं और उस लाइब्रेरी का ख़ूब लाभ उठाया। हम लोग क़ुर्बान भाई को पकड़-पकड़कर मुशाइरों-नशिस्तों में ले जाने लगे। हमने उन्हें ऐसी पत्रिकाएँ दिखाईं, जैसी उन्होंने पहले कभी देखी थीं...ऐसे लेखकों-कवियों के बारे में बताया जो सिर्फ़ उनकी कल्पना में ही थे...ऐसे शाइरों की रचनाएँ सुनाई जो साक़ी-शराब वग़ैरा को कब का अलविदा कह चुके थे और ऐसी राजनीति से उनका परिचय कराया, जिसके बारे में उन्होंने अब तक सिर्फ़ उड़ती-उड़ती बातें ही सुनी थीं। उनके दिमाग़ में भी काफ़ी मज़हबी कबाड़ भरा हुआ था, शुरू से प्रबुद्ध होने के बावजूद, हम झाड़ लेकर पिल पड़े...हमने उन्हें अख़बार और विचार का चस्का लगा दिया, जैसा पहले किसी ने करना ज़रूरी नहीं समझा था।
नतीजा यह निकला कि वे हफ़्ते में एक रोज़ छुट्टी रखने लगे, रात को खाने के बाद हमारे साथ घूमने जाने लगे...अपने अतीत के बारे में सोच-सोचकर ग़ुस्से में भरे रहने की बजाय भविष्य की तरफ़ देखकर कभी-कभी चहकने भी लगे और हमारे नज़दीक से नज़दीकतर होने लगे। एक नए क़िस्म का लौंडापन उन पर चढ़ने लगा। उन्हें हमारी लत पड़ने लगी। वे हमारा हर शाम इंतिज़ार करते और हम नहीं पहुँच पाते तो वे ख़ुद हमारे घर आ जाते।
अब हुआ यह भी कि क़स्बे के शरीफ़ और प्रतिष्ठित व्यक्ति होने की क़ुर्बान भाई की ख्याति से हमें लाभ न हुआ हो, हमारी बदनामी की लपेट में वे भी आने लगे। जिस परिमाण में क़ुर्बान भाई का जो समय हमें मिलता, उसी परिमाण में वह उनके पुराने दोस्तों-लतीफ़ साहब, हाजी साहब, इमाम साहब वग़ैरा के हिस्से से कम हो जाता। नमाज़ पढ़ने वे सिर्फ़ शुक्रवार को जाते थे, अब वह भी बंद कर दिया। वाज़ वग़ैरा में चलने को कोई पहले भी उनसे नहीं कहता था, अब भी नहीं कहता। मदरसे को पहले भी चंदा देते थे, अब भी देते। हाँ, कभी-कभी होने वाली राजनीतिक सभाओं में जाने को और क़स्बे की राजनीति में दिलचस्पी लेने को उनके लिए ख़तरनाक समझकर बिरादरी वाले उन्हें टोकने ज़रूर लगे। पॉलिटिक्स अपने लोगों के लिए नहीं है, समझे? चुपचाप सालन-रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। चैन से जीना है तो इन लफ़ड़ों में मत पड़ो। बेकार कभी धर लिए जाओगे...हमें भी फँसवाओगे। अब यहाँ रहना ही है तो...पानी में रहकर मगरमच्छों को मुँह चिढ़ाने से क्या फ़ायदा?
लेकिन अपनी मस्ती में मस्त थे हम लोग। न हमें पता चला न ख़ुद क़ुर्बान भाई को कि उन्हें झमामबाड़े वाले ही नहीं, शाख़ा वाले भी घूरते हुए निकलने लगे हैं। शाम को उनकी दुकान पर आने वाले कुछ देशप्रेमी क़िस्म के लोगों की सतत अनुपस्थिति का गूढ़ार्थ भी हमने नहीं समझा। इसलिए आख़िर वह घटना हो गई जिसने इस कहानी को एक ऐसे अप्रिय मुक़ाम तक पहुँचा दिया जो मन को कड़वाहट से भर देता है।
एक दिन दोपहर की बात है। एक बैलगाड़ी वाले ने ठीक उनकी दुकान के सामने गाड़ी रोकी। बैल खोले और गाड़ी का अगला हिस्सा क़ुर्बान भाई के चबूतरे पर टिका दिया। गाँव से आने वाले इसी चौक में गाड़ियाँ खड़ी करते हैं, बैल खोलते हैं और उन्हें चारा डालकर अपना काम-काज निपटाने चले जाते हैं। शाम को लौटते हैं और जोतकर चले जाते हैं। लेकिन वे गाड़ी किसी की दुकान के ऐन सामने खड़ी नहीं करते और किसी के चबूतरे पर रखने का तो सवाल ही नहीं उठता। इस शख़्स ने तो इस तरह गाड़ी खड़ी की थी कि अब कोई ग्राहक क़ुर्बान भाई की दुकान तक पहुँच ही नहीं सकता था, बल्कि वे ख़ुद भी पड़ोसी के चबूतरे पर से हुए बिना नीचे नहीं उतर सकते थे। गाड़ी वाला वकील ऊखचंद का हाली था और क़ुर्बान भाई को मालूम था कि अभी वह गाड़ी खड़ी करके गया और शाम को ही लौटेगा। क़ुर्बान भाई ने उससे गाड़ी ज़रा बाज़ू में खड़ी करने और बैलों को किनारे बाँध देने को कहा। उसने अनसुनी कर दी। क़ुर्बान भाई ने फिर कहा तो एक नज़र उन्हें देखकर अपने रास्ते चल पड़ा। क़ुर्बान भाई ने ख़ुद उठकर चबूतरे पर टिके उसकी गाड़ी के अगले छोर को उठाया और गाड़ी को धकाकर...लेकिन तभी उस आदमी ने क़ुर्बान भाई का गरेबान पकड़ लिया और गालियाँ बकने लगा। और क़ुर्बान भाई का चश्मा नोच लिया और धक्का-मुक्की करने लगा। ठीक इसी समय कोर्ट से लौटते वकील ऊखचंद उधर से गुज़रे और उन्होंने आवाज़ मारकर पूछा, ‘क्या हुआ रे गोम्या?’ गोम्या बोला, ‘म्हनै कूटै!’ यानी मुझे मार रहा है। वकील ऊखचंद ने पूछा, ‘कौन?’ गोम्या बोला, ‘ये मीयों!’
क़ुर्बान भाई सन्न रह गए। बात समझ में आते-आते भीतर हचमचा गए। आँखों के आगे तारे नाचने लगे। वहीं ज़मीन पर उकड़ूँ बैठ गए और सिर पकड़ लिया। अँधेरे का एक ठोस गोला कलेजे से उठा और हलक़ में आकर फँस गया। बरसों से जमी रुलाई एक साथ फूट पड़ने को ज़ोर मारने लगी।
यह क्या हुआ?...कैसे हुआ? क्या गोम्या उन्हें जानता नहीं? एक ही मिनट में वह ‘क़ुर्बान भाई’ से ‘मियाँ’ कैसे बन गए? एक मिनट भी नहीं लगा! बरसों से तिल-तिल मरकर जो प्रतिष्ठा उन्होंने बनाई...हर दिन हर पल जैसे एक अग्नि-परीक्षा से गुज़रकर, जो सम्मान, जो प्यार अर्जित किया...हर दिन ख़ुद को समझाकर...कि पाकिस्तान जाकर भी कोई नवाबी नहीं मिल जाती...जैसे हैं यहीं मस्त हैं...अल्लाह सब देखता है...जाने दो जोश को, डूबने दो सुरैया का सितारा...भुला देने दो दोस्तों को...लुट जाने दो कारोबार को...झूठे बदमाशें के क़ब्ज़े में चली जाने दो हवेलियाँ...गुमनाम पड़ी रहने दो भाइयों की क़ब्रें...दफ़ना दो भरे-पूरे घर का सपना...शायद कभी फिर अपना भी दिन आए...तब तक सब्र कर लो...क्या-क्या क़ीमत रोज़ चुकाकर क़स्बे में थोड़ा सा अपनापन...थोड़ी सी सामाजिक सुरक्षा...थोड़ा सा आत्मविश्वास....थोड़ी सी सहजता उन्होंने अर्जित की थी...और कितनी बड़ी दौलत समझ रहे थे इसको...और लो! तिल-तिल करके बना पहाड़ एक फूँक में उड़ गया! एक जाहिल आदमी...लेकिन जाहिल वो है या मैं? मैं एक मिनिट-भर में ‘क़ुर्बान भाई’ से ‘मियाँ’ हो जाऊँगा, यह कभी सोचा क्यों नहीं? अपनी मेहनत का खाते हैं। फिर भी ये लोग हमें अपनी छाती का बोझ ही समझते हैं। यह बात कभी नज़र क्यों नहीं आई? पाकिस्तान चले जाते...तो लाख ग़ुर्बत बर्दाश्त कर लेते...कम से कम ऐसी ओछी बात तो नहीं सुननी पड़ती। हैफ़ है! धिक्कार है! लानत है ऐसी ज़िंदगी पर!
अल्लाह! या अल्लाह!!
वकील ऊखाचंद गोम्या हाली को समझाते-बुझाते साथ ले गए। गाड़ी-बैल वहीं छोड़ गए। अड़ोसियों-पड़ोसियों ने क़ुर्बान भाई को सँभाला। उनकी बत्तीसी भिंच गई थी और होंठों के कोनों से झाग निकल रहे थे। लोगों ने गाड़ी-बैल हटाए। क़ुर्बान भाई को चबूतरे पर लिटाया! हवा की! मुँह पर ठंडे पानी के छींटे दिए। वकील ऊखाचंद को गालियाँ दीं। क़ुर्बान भाई को आश्वस्त करने का प्रयत्न किया। उन्हें क्या मालूम था, क़ुर्बान भाई के भीतर क्या टूट गया? अभी-अभी। जिसे उन्होंने इतने बरस नहीं टूटने दिया था। अंदर की चोट दिखाई कहाँ देती है?
लोग इकट्ठे हो गए। सारे क़स्बे में ख़बर फैल गई। जिस-जिस को पता चलता गया, आता गया। हम लोग भी पहुँच गए। अब बीसियों लोग थे और बीसियों बातें। काफ़ी देर फन्नाने-फुफकारने के बाद तय हुआ कि यह बदतमीज़ी चुपचाप बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए। थाने में रपट लिखानी चाहिए।
लिहाज़ा चला जुलूस थाने।...पर रास्ते में किसी को पेशाब लग गया, किसी को हगास। थाने पहुँचते-पहुँचते सिर्फ़ हम लोग रह गए क़ुर्बान भाई के साथ!
थानेदार नहीं थे। अभी-अभी मोटर साइकिल लेकर कहीं निकल गए। मुंशी था। मुंशी ने रपट लिखने से साफ़ इंकार कर दिया। क्यों न करता? थानेदार के पास पहले ही वकील ऊखचंद का टेलीफ़ोन आ चुका था। वकील ऊखचंद सत्ता पार्टी के ज़िला मंत्री थे। क़ुर्बान भाई कौन थे? हम लोग कौन थे?
आधे घंटे तक हुज्जत और डेढ़ घंटे तक थानेदार की प्रतीक्षा करने के बाद अपना सा मुँह लेकर लौट आए। शाम को फिर आएँगे। शाम को हम लोगों के सिवा दुकान पर कोई नहीं पहुँचा। और हम लोगों के साथ थाने चलने का ज़रा भी उत्साह क़ुर्बान भाई ने नहीं दिखाया। दुकानदारी ने उन्हें जैसे एकदम व्यस्त कर लिया, जैसे हमसे बात करने का भी समय नहीं।
एक अपराध-बोध के तहत हम भी क़ुर्बान भाई से कटे-कटे रहने लगे। हालाँकि घटना इतनी बड़ी नहीं थी, जिसे तूल दिया जाए। थानेदार तो क्या...कोई भी होता...ख़ुद पुलिस-उलिस के चक्कर में पड़ने के बजाय जो हो गया, उसे एक जाहिल आदमी की मूर्खता मानकर भूल जाने को तैयार हो जाता। पर हम...हमें लग रहा था...हमारे दोस्त पर हमला हुआ और हम कुछ नहीं कर सके, किसी काम नहीं आ सके। यह भी लग रहा था कि ज़्यादा उत्साह दिखाया तो क़ुर्बान भाई के लिए और मुसीबतें खड़ी हो जाएँगी, हम कुछ नहीं कर पाएँगे। यह भी लग रहा था कि जो हुआ, उसमें पुलिस से हस्तक्षेप और सहायता की उम्मीद बेकार है। इसका मुक़ाबला राजनीतिक स्तर पर ही किया जा सकता है, जिसके लिए जल्दी से जल्दी अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए, पाँच से पचास हो जाना चाहिए।
लेकिन यह सब बहानेबाज़ी थी। सच यह है कि क़ुर्बान भाई को एकदम अकेला छोड़ दिया था। शायद हम उनकी तकलीफ़ को शेयर कर ही नहीं सकते थे, पर हमें कोशिश ज़रूर करनी चाहिए थी।
क़ुर्बान भाई की दुकान पर कई दिन पहले का सा रंगतदार जमावड़ा नहीं हुआ। वह बुझे-बुझे से रहते थे, बहुत कम बोलते थे और हमें देखते ही दुकानदारी में व्यस्त हो जाते थे। वे घुट रहे थे और घुल रहे थे...पर खुल नहीं रहे थे। हम उन्हें नहीं खोल पाए। एक दिन जब मैं पहुँचा, मेरी तरफ़ उनकी पीठ थी, किसी से कह रहे थे—आप क्या खाक हिस्ट्री पढ़ाते हैं? कह रहे हैं पार्टीशन हुआ था! हुआ था नहीं, हो रहा है, जारी है...और मुझे देखते ही चुप होकर काम में लग गए।
इस कहानी का अंत अच्छा नहीं है। मैं चाहता हूँ कि आप उसे नहीं पढ़ें। और पढ़ें तो यह ज़रूर सोंचें कि क्या इसका कोई और अंत हो सकता था? अच्छा अंत? अगर हो, तो कैसे?
बात बस यह बची है कि कई दिन बाद जब एक दोपहर मैं आज़ाद चौक से गुज़र रहा था जिसका नाम अब संजय चौक कर दिया गया था और वह शुक्रवार का दिन था—मैंने देखा कि क़ुर्बान भाई की दुकान के सामने लतीफ़ भाई खड़े हैं...। और क़ुर्बान भाई दुकान में ताला लगा रहे हैं।...और उन्होंने टोपी पहन रखी है... और फिर दोनों मस्जिद की तरफ़ चल दिए हैं।
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dukan ke zara jamte hi qurban bhai ne akhbar mangana shuru kar diya thiya ho gaya, pahanne ko do joDi kapDe ho gaye, roteshan chal gaya, giraki jam gai to aage khwahish kaun si thee? bachche koi jiye nahin the, shauq mauj, sair sapata bhool hi chuke the, miyan biwi do janon ke liye allah ka diya bahut tha patrikayen kyon na mangate? aur us samay koi patrika aati to bukpost ho ya wi pi, use lene qurban bhai khu post office pahunch jate patrika ko baDe jatan se sanbhalakar rakhte aur uska panna panna, harf harf chat jate kai kai bar, jaise kisi bhukhe pyase ko chhappan bhog mil gaye hon adab se ab bhi isi tarah mohabbat karte hain patrikayen mangakar, kharidkar paDhte hain aur unki file hifazat se rakhte hain
isi silsile mein unke sanskar bolne lage logon ne dekha, ye shakhs kabhi jhooth nahin bolta thagi chaar sau bisi nahin karta kam nahin taulta abe tabe nahin karta gande mazak nahin karta adab se bolta hai aur aaDe waqt par harek ke kaam aata hai har kaam mein iske ek nafasat sanskarita chhalakti hai isliye dhire dhire qasbe mein pratishthit log dua salam karne lage wyapariyon ke yahan shadi byah kuch hota unke card aane lage akarshait hokar khag ke pas khag bhi aane lage ab qurban bhai unhen chay pila rahe hain aur grahaki chhoDkar ghalib par bahs kar rahe hain
ahista ahista qurban bhai ki dukan paDhe likhon ka aDDa ban gai lecturer, adhyapak, patrakar, paDhne khilne wale sham hote hi qurban bhai ki dukan thahakon aur bahson se gulzar ho jati qurban bhai adab arz karte chay wale ko chay ke liye awaz lagate hain aur tat ki koi bori nikalkar chabutre par bichha dete grahaki bhi chalti rahti, bahsen bhi, thahake bhi, aur beech beech mein ismen bhi sankoch nahin karte ki kisi ko chhabaDi pakDakar door rakhe thaile se kilo bhar sabut mirch bharne mein pise namak ki thaili nikal dene ya das chizon ka total mila dene jaisa kaam pakDa den baDa majedar drishya hota ki angrezi sahity ka wyakhyata saDak par khaDa phatak phatakkar lahsun ke chhilke uDa raha hai ya prantiy akhbar ka sanwaddata ukDun baithkar chabutre ke niche rakhi bori se multani mitti nikal raha hai ya itihas ke warishth adhyapak
hum logon ke sampark se qurban bhai badalne lage unhen pahli bar mahsus hua ki unki ek adabi shakhsiyat bhi hai hamne unse urdu sikhi, unki library (jo kafi samrddh ho gai thee) ko tartib di, risalon ki jilden banwain aur us library ka khoob labh uthaya hum log qurban bhai ko pakaD pakaDkar mushairon nashiston mein le jane lage hamne unhen aisi patrikayen dikhain, jaisi unhonne pahle kabhi dekhi theen aise lekhkon kawiyon ke bare mein bataya jo sirf unki kalpana mein hi the aise shairon ki rachnayen sunai jo saqi sharab waghaira ko kab ka alawida kah chuke the aur aisi rajaniti se unka parichai karaya, jiske bare mein unhonne ab tak sirf uDti uDti baten hi suni theen unke dimagh mein bhi kafi mazahbi kabaD bhara hua tha, shuru se prabuddh hone ke bawjud, hum jhaD lekar pil paDe hamne unhen akhbar aur wichar ka chaska laga diya, jaisa pahle kisi ne karna zaruri nahin samjha tha
natija ye nikla ki we hafte mein ek roz chhutti rakhne lage, raat ko khane ke baad hamare sath ghumne jane lage apne atit ke bare mein soch sochkar ghusse mein bhare rahne ki bajay bhawishya ki taraf dekhkar kabhi kabhi chahakne bhi lage aur hamare nazdik se nazdiktar hone lage ek nae qim ka launDapan un par chaDhne laga unhen hamari lat paDne lagi we hamara har sham intizar karte aur hum nahin pahunch pate to we khu hamare ghar aa jate
ab hua ye bhi ki qasbe ke sharif aur pratishthit wekti hone ki qurban bhai ki khyati se hamein labh na hua ho, hamari badnami ki lapet mein we bhi aane lage jis pariman mein qurban bhai ka jo samay hamein milta, usi pariman mein wo unke purane doston latif sahab, haji sahab, imam sahab waghaira ke hisse se kam ho jata namaz paDhne we sirf shukrawar ko jate the, ab wo bhi band kar diya waz waghaira mein chalne ko koi pahle bhi unse nahin kahta tha, ab bhi nahin kahta madrase ko pahle bhi chanda dete the, ab bhi dete han, kabhi kabhi hone wali rajnitik sabhaon mein jane ko aur qasbe ki rajaniti mein dilchaspi lene ko unke liye khatarnak samajhkar biradri wale unhen tokne zarur lage politics apne logon ke liye nahin hai, samjhe? chupchap salan roti khao aur allah ka nam lo chain se jina hai to in lafDon mein mat paDo bekar kabhi dhar liye jaoge hamein bhi phansawaoge ab yahan rahna hi hai to pani mein rahkar magarmachchhon ko munh chiDhane se kya fayda?
lekin apni masti mein mast the hum log na hamein pata chala na khu qurban bhai ko ki unhen jhamambaDe wale hi nahin, shakha wale bhi ghurte hue nikalne lage hain sham ko unki dukan par aane wale kuch deshapremi qim ke logon ki satat anupasthiti ka guDharth bhi hamne nahin samjha isliye akhir wo ghatna ho gai jisne is kahani ko ek aise apriy muqam tak pahuncha diya jo man ko kaDwahat se bhar deta hai
ek din dopahar ki baat hai ek bailagaड़i wale ne theek unki dukan ke samne gaDi roki bail khole aur gaDi ka agla hissa qurban bhai ke chabutre par tika diya ganw se aane wale isi chauk mein gaDiyan khaDi karte hain, bail kholte hain aur unhen chara Dalkar apna kaam kaj niptane chale jate hain sham ko lautte hain aur jotkar chale jate hain lekin we gaDi kisi ki dukan ke ain samne khaDi nahin karte aur kisi ke chabutre par rakhne ka to sawal hi nahin uthta is shakhs ne to is tarah gaDi khaDi ki thi ki ab koi gerahak qurban bhai ki dukan tak pahunch hi nahin sakta tha, balki we khu bhi paDosi ke chabutre par se hue bina niche nahin utar sakte the gaDi wala wakil ukhchand ka hali tha aur qurban bhai ko malum tha ki abhi wo gaDi khaDi karke gaya aur sham ko hi lautega qurban bhai ne usse gaDi zara bazu mein khaDi karne aur bailon ko kinare bandh dene ko kaha usne anasuni kar di qurban bhai ne phir kaha to ek nazar unhen dekhkar apne raste chal paDa qurban bhai ne khu uthkar chabutre par tike uski gaDi ke agle chhor ko uthaya aur gaDi ko dhakakar lekin tabhi us adami ne qurban bhai ka gareban pakaD liya aur galiyan bakne laga aur qurban bhai ka chashma noch liya aur dhakka mukki karne laga theek isi samay court se lautte wakil ukhchand udhar se guzre aur unhonne awaz markar puchha, kya hua re gomya? gomya bola, mhanai kutai! yani mujhe mar raha hai wakil ukhchand ne puchha, kaun? gomya bola, ye miyon!
qurban bhai sann rah gaye baat samajh mein aate aate bhitar hachamcha gaye ankhon ke aage tare nachne lage wahin zamin par ukDun baith gaye aur sir pakaD liya andhere ka ek thos gola kaleje se utha aur halaq mein aakar phans gaya barson se jami rulai ek sath phoot paDne ko zor marne lagi
ye kya hua? kaise hua? kya gomya unhen janta nahin? ek hi minat mein wo qurban bhai se miyan kaise ban gaye? ek minat bhi nahin laga! barson se til til markar jo pratishtha unhonne banai har din har pal jaise ek agni pariksha se guzarkar, jo samman, jo pyar arjit kiya har din khu ko samjhakar ki pakistan jakar bhi koi nawabi nahin mil jati jaise hain yahin mast hain allah sab dekhta hai jane do josh ko, Dubne do suraiya ka sitara bhula dene do doston ko lut jane do karobar ko jhuthe badmashen ke qabze mein chali jane do haweliyan gumnam paDi rahne do bhaiyon ki qabren dafna do bhare pure ghar ka sapna shayad kabhi phir apna bhi din aaye tab tak sabr kar lo kya kya qimat roz chukakar qasbe mein thoDa sa apnapan thoDi si samajik suraksha thoDa sa atmawishwas thoDi si sahajta unhonne arjit ki thi aur kitni baDi daulat samajh rahe the isko aur lo! til til karke bana pahaD ek phoonk mein uD gaya! ek jahil adami lekin jahil wo hai ya main? main ek minit bhar mein qurban bhai se miyan ho jaunga, ye kabhi socha kyon nahin? apni mehnat ka khate hain phir bhi ye log hamein apni chhati ka bojh hi samajhte hain ye baat kabhi nazar kyon nahin i? pakistan chale jate to lakh ghurbat bardasht kar lete kam se kam aisi ochhi baat to nahin sunni paDti haif hai! dhikkar hai! lanat hai aisi zindagi par!
allah! ya allah!!
wakil ukhachand gomya hali ko samjhate bujhate sath le gaye gaDi bail wahin chhoD gaye aDosiyon paDosiyon ne qurban bhai ko sambhala unki battisi bhinch gai thi aur honthon ke konon se jhag nikal rahe the logon ne gaDi bail hataye qurban bhai ko chabutre par litaya! hawa kee! munh par thanDe pani ke chhinte diye wakil ukhachand ko galiyan deen qurban bhai ko ashwast karne ka prayatn kiya unhen kya malum tha, qurban bhai ke bhitar kya toot gaya? abhi abhi jise unhonne itne baras nahin tutne diya tha andar ki chot dikhai kahan deti hai?
log ikatthe ho gaye sare qasbe mein khabar phail gai jis jis ko pata chalta gaya, aata gaya hum log bhi pahunch gaye ab bisiyon log the aur bisiyon baten kafi der phannane phuphkarne ke baad tay hua ki ye badatmizi chupchap bardasht nahin karni chahiye thane mein rapat likhani chahiye
lihaza chala julus thane par raste mein kisi ko peshab lag gaya, kisi ko hagas thane pahunchte pahunchte sirf hum log rah gaye qurban bhai ke sath!
thanedar nahin the abhi abhi motor cycle lekar kahin nikal gaye munshi tha munshi ne rapat likhne se saf inkar kar diya kyon na karta? thanedar ke pas pahle hi wakil ukhchand ka telephone aa chuka tha wakil ukhchand satta party ke jila mantri the qurban bhai kaun the? hum log kaun the?
adhe ghante tak hujjat aur DeDh ghante tak thanedar ki pratiksha karne ke baad apna sa munh lekar laut aaye sham ko phir ayenge sham ko hum logon ke siwa dukan par koi nahin pahuncha aur hum logon ke sath thane chalne ka zara bhi utsah qurban bhai ne nahin dikhaya dukanadari ne unhen jaise ekdam wyast kar liya, jaise hamse baat karne ka bhi samay nahin
ek apradh bodh ke tahat hum bhi qurban bhai se kate kate rahne lage halanki ghatna itni baDi nahin thi, jise tool diya jaye thanedar to kya koi bhi hota khu police ulis ke chakkar mein paDne ke bajay jo ho gaya, use ek jahil adami ki murkhata mankar bhool jane ko taiyar ho jata par hum hamein lag raha tha hamare dost par hamla hua aur hum kuch nahin kar sake, kisi kaam nahin aa sake ye bhi lag raha tha ki ziyada utsah dikhaya to qurban bhai ke liye aur musibten khaDi ho jayengi, hum kuch nahin kar payenge ye bhi lag raha tha ki jo hua, usmen police se hastakshaep aur sahayata ki ummid bekar hai iska muqabala rajnitik star par hi kiya ja sakta hai, jiske liye jaldi se jaldi apni shakti baDhani chahiye, panch se pachas ho jana chahiye
lekin ye sab bahanebaji thi sach ye hai ki qurban bhai ko ekdam akela chhoD diya tha shayad hum unki taklif ko sheyar kar hi nahin sakte the, par hamein koshish zarur karni chahiye thi
qurban bhai ki dukan par kai din pahle ka sa rangatdar jamawDa nahin hua wo bujhe bujhe se rahte the, bahut kam bolte the aur hamein dekhte hi dukanadari mein wyast ho jate the we ghut rahe the aur ghul rahe the par khul nahin rahe the hum unhen nahin khol pae ek din jab main pahuncha, meri taraf unki peeth thi, kisi se kah rahe the—ap kya khak history paDhate hain? kah rahe hain partition hua tha! hua tha nahin, ho raha hai, jari hai aur mujhe dekhte hi chup hokar kaam mein lag gaye
is kahani ka ant achchha nahin hai main chahta hoon ki aap use nahin paDhen aur paDhen to ye zarur sonchen ki kya iska koi aur ant ho sakta tha? achchha ant? agar ho, to kaise?
baat bus ye bachi hai ki kai din baad jab ek dopahar main azad chauk se guzar raha tha jiska nam ab sanjay chauk kar diya gaya tha aur wo shukrawar ka din tha—mainne dekha ki qurban bhai ki dukan ke samne latif bhai khaDe hain aur qurban bhai dukan mein tala laga rahe hain aur unhonne topi pahan rakhi hai aur phir donon masjid ki taraf chal diye hain
aap qurban bhai ko nahin jante? qurban bhai is qasbe ke sabse shanadar shakhs hain qasbe ka dil hai azad chauk aur ain azad chauk par qurban bhai ki chhoti si kirane ki dukan hai yahan har samay safed qamiz pajama pahne do do, chaar chaar aane ka sauda sulaph mangti bachchon baDon ki bheeD mein ghire qurban bhai aapko nazar aa jayenge bheeD nahin hogi to ukDun baithe kuch likhte honge bar bar mote frame ke chashme ko ungli se upar chaDhate aur mathe par bikhre awara, adhakachre balon ko dayen ya bayen hath ki ungliyon mein phansa pichhe sahejte yadi aap yahan se sauda lena chahen to aapka swagat hai sabse wajib dam aur sabse ziyada sahi taul aur shuddh cheez jis cheez se unhen khu tasalli nahin hogi, kabhi nahin bechenge kabhi dhokhe se dukan mein aa bhi gai to chahe paDi paDi saD jaye, aapko saf mana kar denge mirch? aapke layaq nahin hai rang mili hui aa gai hai tel! mazedar nahin hai repsiD mila hai diya batti ke liye chahen to le jayen
yahi wajah hai ki ek bar jo yahan se saman le jata hai, dusri bar aur kahin nahin jata yoon charon taraf baDi baDi dukanen hain—sindhiyon ki, marwaDiyon ki, par qurban bhai ka matlab hai, imandari qurban bhai ka matlab hai, udhaar ki suwidha aur bharosa
lekin ek baat ka dhyan rakhiyega jo saman aap le ja rahe hain, uska lifafa ya thaili baghair dekhe mat phenkiyega mumkin hai us par koi khuddar ya khunkhar sher likha ho na jane kitne log unse kah kahkar haar gaye ki ghalle mein ek copy rakh len, sher hote hi fauran usmen darj kar len qurban bhai sunte hain, sahmat bhi ho jate hain, jo chizen kho gai un par dukhi bhi hote hain, par karte wahin hain
mera bhi is shanadar adami se isi tarah parichai hua daftar se lautte hue qurban bhai ki dukan mein koi cheez lekar ghar aaya lifafe par likha tha—
fak pas e waphadari hai, warna kuch nahin mushkil
bujha sakta hoon angare, abhi ankhon mein pani hai aur ye adami aaj bhi chaar chaar aane ke saude taul raha hai! aur kyon taul raha hai, iski bhi ek kahani hai
qurban bhai ke pita ka ajmer mein rang ka lamba chauDa karobar tha do baDe baDe makan the haweliyan kahna chahiye naya bazar mein khoob baDi dukan thi barah naukar the ghar mein bagghi to thi hi, ek baby austin bhi thi jo sair par jane ke kaam aati thi sanyukt pariwar tha pita maulana azad ke shaidaiyon mein se the baDe baDe leader aur shair ghar aakar thahrte the qurban bhai us waqt aligaDh uniwersity mein paDh rahe the na bhawishya ki chinta thi na buDhape ka Dar! maze se zindagi guzar rahi thi ishq, shairi, hostel, khwab!
tabhi partition ho gaya dange ho gaye dukan jala di gai rishtedar pakistan bhag gaye, do bhai qatl kar diye gaye pita ne sadme se khatiya pakaD li aur mar gaye naukar ghar ki punji lekar bhag gaye bache khuchon ko lekar apni jaan liye liye qurban bhai nagaur chale gaye wahan se meDta, meDta se taunk kahan jayen? kahan sir chhipayen? kya pakistan chale jayen? nahin gaye kyonki josh nahin gaye, kyonki suraiya nahin gai, kyonki qurban bhai ko achchhe lagne wale bahut se log nahin gaye to qurban bhai kyon jate?
dhire dhire ghar ki bikne layaq chizen sab bik gain aur kahin koi kaam, koi naukari nahin mili, jo us daur mein musalmanon ko milna behad mushkil thi tis par hunar koi jante nahin the, talim adhuri thi akhir ek seth ke yahan hisab likhne ka kaam karne lage, lekin apni adarshwadita, imandari, dayanatdari, sharafat aadi durgunon ke karan jald hi nikal diye gaye lekin malik hone ka thaska ek bar tuta to tutta chala gaya sthiti ye thi ki hinduon mein nibhne ki koshish karte to shak shubhe ki barchhiyon se chhed chhed diye jate aur musalmanon mein khapne ki koshish karte to ligiyon ke dharmik unmad ka jawab dete dete took took ho jate utarte gaye mazduri tak, hammali tak chhutput karigari tak insaniyat tak nae nae kaam sikhe majburi sikha hi deti hai cycle ke pankchar joDe, pipon kanastron ki jhalan lagai, tale chhatriyan, laltenen theek kahin chunari bandhej ki rangai mein kaam kiya hathi dant ki chuDiya kati shahr dar shahr ab hamla samprdayik unmad ka nahin, machine ka ho raha tha jo cheez pakaDte dhire dhire hath se phisalne lagti dhakke khate khate pata nahin kab kaise yahan is qasbe mein aa gaye aur ek buzurg namazi musalman se pachas rupae udhaar lekar ek din ye dukan khol baithe kuch puDiyon mein dal chawal machis biDi cigarette gobhi chaklet kya bataun? kis tarah bataun? ek adami ke dard aur sangharsh ki tawil dastan ka sirf apni suwidha ke liye chand alfaz mein nibta dena na sirf ziyadati hai, balki us sangharsh ka apman, uska mazak uDane jaisa bhi hai par kya karun, kahani jo kahne ja raha hun—dusri hai
dukan ke zara jamte hi qurban bhai ne akhbar mangana shuru kar diya thiya ho gaya, pahanne ko do joDi kapDe ho gaye, roteshan chal gaya, giraki jam gai to aage khwahish kaun si thee? bachche koi jiye nahin the, shauq mauj, sair sapata bhool hi chuke the, miyan biwi do janon ke liye allah ka diya bahut tha patrikayen kyon na mangate? aur us samay koi patrika aati to bukpost ho ya wi pi, use lene qurban bhai khu post office pahunch jate patrika ko baDe jatan se sanbhalakar rakhte aur uska panna panna, harf harf chat jate kai kai bar, jaise kisi bhukhe pyase ko chhappan bhog mil gaye hon adab se ab bhi isi tarah mohabbat karte hain patrikayen mangakar, kharidkar paDhte hain aur unki file hifazat se rakhte hain
isi silsile mein unke sanskar bolne lage logon ne dekha, ye shakhs kabhi jhooth nahin bolta thagi chaar sau bisi nahin karta kam nahin taulta abe tabe nahin karta gande mazak nahin karta adab se bolta hai aur aaDe waqt par harek ke kaam aata hai har kaam mein iske ek nafasat sanskarita chhalakti hai isliye dhire dhire qasbe mein pratishthit log dua salam karne lage wyapariyon ke yahan shadi byah kuch hota unke card aane lage akarshait hokar khag ke pas khag bhi aane lage ab qurban bhai unhen chay pila rahe hain aur grahaki chhoDkar ghalib par bahs kar rahe hain
ahista ahista qurban bhai ki dukan paDhe likhon ka aDDa ban gai lecturer, adhyapak, patrakar, paDhne khilne wale sham hote hi qurban bhai ki dukan thahakon aur bahson se gulzar ho jati qurban bhai adab arz karte chay wale ko chay ke liye awaz lagate hain aur tat ki koi bori nikalkar chabutre par bichha dete grahaki bhi chalti rahti, bahsen bhi, thahake bhi, aur beech beech mein ismen bhi sankoch nahin karte ki kisi ko chhabaDi pakDakar door rakhe thaile se kilo bhar sabut mirch bharne mein pise namak ki thaili nikal dene ya das chizon ka total mila dene jaisa kaam pakDa den baDa majedar drishya hota ki angrezi sahity ka wyakhyata saDak par khaDa phatak phatakkar lahsun ke chhilke uDa raha hai ya prantiy akhbar ka sanwaddata ukDun baithkar chabutre ke niche rakhi bori se multani mitti nikal raha hai ya itihas ke warishth adhyapak
hum logon ke sampark se qurban bhai badalne lage unhen pahli bar mahsus hua ki unki ek adabi shakhsiyat bhi hai hamne unse urdu sikhi, unki library (jo kafi samrddh ho gai thee) ko tartib di, risalon ki jilden banwain aur us library ka khoob labh uthaya hum log qurban bhai ko pakaD pakaDkar mushairon nashiston mein le jane lage hamne unhen aisi patrikayen dikhain, jaisi unhonne pahle kabhi dekhi theen aise lekhkon kawiyon ke bare mein bataya jo sirf unki kalpana mein hi the aise shairon ki rachnayen sunai jo saqi sharab waghaira ko kab ka alawida kah chuke the aur aisi rajaniti se unka parichai karaya, jiske bare mein unhonne ab tak sirf uDti uDti baten hi suni theen unke dimagh mein bhi kafi mazahbi kabaD bhara hua tha, shuru se prabuddh hone ke bawjud, hum jhaD lekar pil paDe hamne unhen akhbar aur wichar ka chaska laga diya, jaisa pahle kisi ne karna zaruri nahin samjha tha
natija ye nikla ki we hafte mein ek roz chhutti rakhne lage, raat ko khane ke baad hamare sath ghumne jane lage apne atit ke bare mein soch sochkar ghusse mein bhare rahne ki bajay bhawishya ki taraf dekhkar kabhi kabhi chahakne bhi lage aur hamare nazdik se nazdiktar hone lage ek nae qim ka launDapan un par chaDhne laga unhen hamari lat paDne lagi we hamara har sham intizar karte aur hum nahin pahunch pate to we khu hamare ghar aa jate
ab hua ye bhi ki qasbe ke sharif aur pratishthit wekti hone ki qurban bhai ki khyati se hamein labh na hua ho, hamari badnami ki lapet mein we bhi aane lage jis pariman mein qurban bhai ka jo samay hamein milta, usi pariman mein wo unke purane doston latif sahab, haji sahab, imam sahab waghaira ke hisse se kam ho jata namaz paDhne we sirf shukrawar ko jate the, ab wo bhi band kar diya waz waghaira mein chalne ko koi pahle bhi unse nahin kahta tha, ab bhi nahin kahta madrase ko pahle bhi chanda dete the, ab bhi dete han, kabhi kabhi hone wali rajnitik sabhaon mein jane ko aur qasbe ki rajaniti mein dilchaspi lene ko unke liye khatarnak samajhkar biradri wale unhen tokne zarur lage politics apne logon ke liye nahin hai, samjhe? chupchap salan roti khao aur allah ka nam lo chain se jina hai to in lafDon mein mat paDo bekar kabhi dhar liye jaoge hamein bhi phansawaoge ab yahan rahna hi hai to pani mein rahkar magarmachchhon ko munh chiDhane se kya fayda?
lekin apni masti mein mast the hum log na hamein pata chala na khu qurban bhai ko ki unhen jhamambaDe wale hi nahin, shakha wale bhi ghurte hue nikalne lage hain sham ko unki dukan par aane wale kuch deshapremi qim ke logon ki satat anupasthiti ka guDharth bhi hamne nahin samjha isliye akhir wo ghatna ho gai jisne is kahani ko ek aise apriy muqam tak pahuncha diya jo man ko kaDwahat se bhar deta hai
ek din dopahar ki baat hai ek bailagaड़i wale ne theek unki dukan ke samne gaDi roki bail khole aur gaDi ka agla hissa qurban bhai ke chabutre par tika diya ganw se aane wale isi chauk mein gaDiyan khaDi karte hain, bail kholte hain aur unhen chara Dalkar apna kaam kaj niptane chale jate hain sham ko lautte hain aur jotkar chale jate hain lekin we gaDi kisi ki dukan ke ain samne khaDi nahin karte aur kisi ke chabutre par rakhne ka to sawal hi nahin uthta is shakhs ne to is tarah gaDi khaDi ki thi ki ab koi gerahak qurban bhai ki dukan tak pahunch hi nahin sakta tha, balki we khu bhi paDosi ke chabutre par se hue bina niche nahin utar sakte the gaDi wala wakil ukhchand ka hali tha aur qurban bhai ko malum tha ki abhi wo gaDi khaDi karke gaya aur sham ko hi lautega qurban bhai ne usse gaDi zara bazu mein khaDi karne aur bailon ko kinare bandh dene ko kaha usne anasuni kar di qurban bhai ne phir kaha to ek nazar unhen dekhkar apne raste chal paDa qurban bhai ne khu uthkar chabutre par tike uski gaDi ke agle chhor ko uthaya aur gaDi ko dhakakar lekin tabhi us adami ne qurban bhai ka gareban pakaD liya aur galiyan bakne laga aur qurban bhai ka chashma noch liya aur dhakka mukki karne laga theek isi samay court se lautte wakil ukhchand udhar se guzre aur unhonne awaz markar puchha, kya hua re gomya? gomya bola, mhanai kutai! yani mujhe mar raha hai wakil ukhchand ne puchha, kaun? gomya bola, ye miyon!
qurban bhai sann rah gaye baat samajh mein aate aate bhitar hachamcha gaye ankhon ke aage tare nachne lage wahin zamin par ukDun baith gaye aur sir pakaD liya andhere ka ek thos gola kaleje se utha aur halaq mein aakar phans gaya barson se jami rulai ek sath phoot paDne ko zor marne lagi
ye kya hua? kaise hua? kya gomya unhen janta nahin? ek hi minat mein wo qurban bhai se miyan kaise ban gaye? ek minat bhi nahin laga! barson se til til markar jo pratishtha unhonne banai har din har pal jaise ek agni pariksha se guzarkar, jo samman, jo pyar arjit kiya har din khu ko samjhakar ki pakistan jakar bhi koi nawabi nahin mil jati jaise hain yahin mast hain allah sab dekhta hai jane do josh ko, Dubne do suraiya ka sitara bhula dene do doston ko lut jane do karobar ko jhuthe badmashen ke qabze mein chali jane do haweliyan gumnam paDi rahne do bhaiyon ki qabren dafna do bhare pure ghar ka sapna shayad kabhi phir apna bhi din aaye tab tak sabr kar lo kya kya qimat roz chukakar qasbe mein thoDa sa apnapan thoDi si samajik suraksha thoDa sa atmawishwas thoDi si sahajta unhonne arjit ki thi aur kitni baDi daulat samajh rahe the isko aur lo! til til karke bana pahaD ek phoonk mein uD gaya! ek jahil adami lekin jahil wo hai ya main? main ek minit bhar mein qurban bhai se miyan ho jaunga, ye kabhi socha kyon nahin? apni mehnat ka khate hain phir bhi ye log hamein apni chhati ka bojh hi samajhte hain ye baat kabhi nazar kyon nahin i? pakistan chale jate to lakh ghurbat bardasht kar lete kam se kam aisi ochhi baat to nahin sunni paDti haif hai! dhikkar hai! lanat hai aisi zindagi par!
allah! ya allah!!
wakil ukhachand gomya hali ko samjhate bujhate sath le gaye gaDi bail wahin chhoD gaye aDosiyon paDosiyon ne qurban bhai ko sambhala unki battisi bhinch gai thi aur honthon ke konon se jhag nikal rahe the logon ne gaDi bail hataye qurban bhai ko chabutre par litaya! hawa kee! munh par thanDe pani ke chhinte diye wakil ukhachand ko galiyan deen qurban bhai ko ashwast karne ka prayatn kiya unhen kya malum tha, qurban bhai ke bhitar kya toot gaya? abhi abhi jise unhonne itne baras nahin tutne diya tha andar ki chot dikhai kahan deti hai?
log ikatthe ho gaye sare qasbe mein khabar phail gai jis jis ko pata chalta gaya, aata gaya hum log bhi pahunch gaye ab bisiyon log the aur bisiyon baten kafi der phannane phuphkarne ke baad tay hua ki ye badatmizi chupchap bardasht nahin karni chahiye thane mein rapat likhani chahiye
lihaza chala julus thane par raste mein kisi ko peshab lag gaya, kisi ko hagas thane pahunchte pahunchte sirf hum log rah gaye qurban bhai ke sath!
thanedar nahin the abhi abhi motor cycle lekar kahin nikal gaye munshi tha munshi ne rapat likhne se saf inkar kar diya kyon na karta? thanedar ke pas pahle hi wakil ukhchand ka telephone aa chuka tha wakil ukhchand satta party ke jila mantri the qurban bhai kaun the? hum log kaun the?
adhe ghante tak hujjat aur DeDh ghante tak thanedar ki pratiksha karne ke baad apna sa munh lekar laut aaye sham ko phir ayenge sham ko hum logon ke siwa dukan par koi nahin pahuncha aur hum logon ke sath thane chalne ka zara bhi utsah qurban bhai ne nahin dikhaya dukanadari ne unhen jaise ekdam wyast kar liya, jaise hamse baat karne ka bhi samay nahin
ek apradh bodh ke tahat hum bhi qurban bhai se kate kate rahne lage halanki ghatna itni baDi nahin thi, jise tool diya jaye thanedar to kya koi bhi hota khu police ulis ke chakkar mein paDne ke bajay jo ho gaya, use ek jahil adami ki murkhata mankar bhool jane ko taiyar ho jata par hum hamein lag raha tha hamare dost par hamla hua aur hum kuch nahin kar sake, kisi kaam nahin aa sake ye bhi lag raha tha ki ziyada utsah dikhaya to qurban bhai ke liye aur musibten khaDi ho jayengi, hum kuch nahin kar payenge ye bhi lag raha tha ki jo hua, usmen police se hastakshaep aur sahayata ki ummid bekar hai iska muqabala rajnitik star par hi kiya ja sakta hai, jiske liye jaldi se jaldi apni shakti baDhani chahiye, panch se pachas ho jana chahiye
lekin ye sab bahanebaji thi sach ye hai ki qurban bhai ko ekdam akela chhoD diya tha shayad hum unki taklif ko sheyar kar hi nahin sakte the, par hamein koshish zarur karni chahiye thi
qurban bhai ki dukan par kai din pahle ka sa rangatdar jamawDa nahin hua wo bujhe bujhe se rahte the, bahut kam bolte the aur hamein dekhte hi dukanadari mein wyast ho jate the we ghut rahe the aur ghul rahe the par khul nahin rahe the hum unhen nahin khol pae ek din jab main pahuncha, meri taraf unki peeth thi, kisi se kah rahe the—ap kya khak history paDhate hain? kah rahe hain partition hua tha! hua tha nahin, ho raha hai, jari hai aur mujhe dekhte hi chup hokar kaam mein lag gaye
is kahani ka ant achchha nahin hai main chahta hoon ki aap use nahin paDhen aur paDhen to ye zarur sonchen ki kya iska koi aur ant ho sakta tha? achchha ant? agar ho, to kaise?
baat bus ye bachi hai ki kai din baad jab ek dopahar main azad chauk se guzar raha tha jiska nam ab sanjay chauk kar diya gaya tha aur wo shukrawar ka din tha—mainne dekha ki qurban bhai ki dukan ke samne latif bhai khaDe hain aur qurban bhai dukan mein tala laga rahe hain aur unhonne topi pahan rakhi hai aur phir donon masjid ki taraf chal diye hain
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) (पृष्ठ 57)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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