प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा नौवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
आज तुम्हारे आगमन के चतुर्थ दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में घुमड़ रहा है—तुम कब जाओगे, अतिथि?
तुम जहाँ बैठे निस्संकोच सिगरेट का धुआँ फेंक रहे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर है। देख रहे हो ना! इसकी तारीख़ें अपनी सीमा में नम्रता से फड़फड़ाती रहती हैं। विगत दो दिनों से मैं तुम्हें दिखाकर तारीख़ें बदल रहा हूँ। तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन है, तुम्हारे सतत आतिथ्य का चौथा भारी दिन! पर तुम्हारे जाने की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती। लाखों मील लंबी यात्रा करने के बाद वे दोनों एस्ट्रॉनाट्स भी इतने समय चाँद पर नहीं रुके थे, जितने समय तुम एक छोटी-सी यात्रा कर मेरे घर आए हो। तुम अपने भारी चरण-कमलों की छाप मेरी ज़मीन पर अंकित कर चुके, तुमने एक अंतरंग निजी संबंध मुझसे स्थापित कर लिया, तुमने मेरी आर्थिक सीमाओं की बैंजनी चट्टान देख ली; तुम मेरी काफ़ी मिट्टी खोद चुके। अब तुम लौट जाओ, अतिथि! तुम्हारे जाने के लिए यह उच्च समय अर्थात हाईटाइम है। क्या तुम्हें तुम्हारी पृथ्वी नहीं पुकारती?
उस दिन जब तुम आए थे, मेरा हृदय किसी अज्ञात आशंका से धड़क उठा था। अंदर-ही-अंदर कहीं मेरा बटुआ काँप गया। उसके बावजूद एक स्नेह-भीगी मुस्कुराहट के साथ मैं तुमसे गले मिला था और मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की थी। तुम्हारे सम्मान में ओ अतिथि, हमने रात के भोजन को एकाएक उच्च-मध्यम वर्ग के डिनर में बदल दिया था। तुम्हें स्मरण होगा कि दो सब्ज़ियों और रायते के अलावा हमने मीठा भी बनाया था। इस सारे उत्साह और लगन के मूल में एक आशा थी। आशा थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार मेहमाननवाज़ी की छाप अपने हृदय में ले तुम चले जाओगे। हम तुमसे रुकने के लिए आग्रह करेंगे मगर तुम नहीं मानोगे और एक अच्छे अतिथि की तरह चले जाओगे। पर ऐसा नहीं हुआ। दूसरे दिन भी तुम अपनी अतिथि-सुलभ मुस्कान लिए घर में ही बने रहे। हमने अपनी पीड़ा पी ली और प्रसन्न बने रहे। स्वागत-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर हम तुम्हें ले जा चुक थे, वहाँ से नीचे उतर हमने फिर दुपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की और रात्रि को तुम्हें सिनेमा दिखाया। हमारे सत्कार का यह आख़िरी छोर है, जिससे आगे हम किसी के लिए नहीं बढ़े। इसके तुरंत बाद भावभीनी विदाई का वह भीगा हुआ क्षण आ जाना चाहिए था, जब तुम विदा होते और हम तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने जाते। पर तुमने ऐसा नहीं किया।
तीसरे दिन को सुबह तुमने मुझसे कहा, मैं धोबी को कपड़े देना चाहता हूँ।
यह आघात अप्रत्याशित था और इसकी चोट मार्मिक थी। तुम्हारे सामीप्य की वेला एकाएक यों रबर की तरह खिंच जाएगी इसका मुझे अनुमान न था। पहली बार मुझे लगा कि अतिथि सदैव देवता नहीं होता, वह मानव और थोड़े अंशों में राक्षस भी हो सकता है।
किसी लॉण्ड्री पर दे देते हैं, जल्दी धुल जाएँगे। मैंने कहा। मन-ही-मन एक विश्वास पल रहा था कि तुम्हें जल्दी जाना है।
कहाँ है लॉण्ड्री?
चलो चलते हैं। मैंने कहा और अपनी सहज बनियान पर औपचारिक कुर्ता डालने लगा।
कहाँ जा रहे हैं? पत्नी ने पूछा।
इनके कपड़े लॉण्ड्री पर देने हैं। मैंने कहा।
मेरी पत्नी की आँखें एकाएक बड़ी-बड़ी हो गईं। आज से कुछ बरस पूर्व उनकी ऐसी आँखें देख मैंने अपने अकेलेपन की यात्रा समाप्त कर बिस्तर खोल दिया था। पर अब जब वे ही आँखें बड़ी होती हैं तो मन छोटा होने लगता है। वे इस आशंका और भय से बड़ी हुई थी कि अतिथि अधिक दिनों ठहरेगा।
और आशंका निर्मूल नहीं थी, अतिथि! तुम जा नहीं रहे। लॉण्ड्री पर दिए कपड़े धुलकर आ गए और तुम यहीं हो। तुम्हारे भरकम शरीर से सलवटें पड़ी चादर बदली जा चुकी और तुम यहीं हो। तुम्हें देखकर फूट पड़ने वाली मुस्कुराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब लुप्त हो गई है। ठहाकों के रंगीन ग़ुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब दिखाई नहीं पड़ते। बातचीत की उछलती हुई गेंद चर्चा के क्षेत्र के सभी कोनलों से टप्पे खाकर फिर सेंटर में आकर चुप पड़ी है। अब इसे न तुम हिला रहे हो, न मैं। कल से मैं उपन्यास पढ़ रहा हूँ और तुम फ़िल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहे हो। शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चुक गए। परिवार, बच्चे, नौकरी, फ़िल्म, राजनीति, रिश्तेदारी, तबादले, पुराने दोस्त, परिवार-नियोजन, मँहगाई, साहित्य और यहाँ तक कि आँख मार-मारकर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी ज़िक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है। सौहार्द अब शनैः शनैः बोरियत में रूपांतरित हो रहा है। भावनाएँ गालियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं, पर तुम जा नहीं रहे। किस अदृश्य गोंद से तुम्हारा व्यक्तित्व यहाँ चिपक गया है, मैं इस भेद को सपरिवार नहीं समझ पा रहा हूँ। बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है—तुम कब जाओगे, अतिथि?
कल पत्नी ने धीरे से पूछा था, कब तक टिकेंगे ये?
मैंने कंधे उचका दिए, क्या कह सकता हूँ!
मैं तो आज खिचड़ी बना रही हूँ। हलकी रहेगी।
बनाओ।
सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो रही थी। डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गए। अब भी अगर तुम अपने बिस्तर को गोलाकार रूप नहीं प्रदान करते तो हमें उपवास तक जाना होगा। तुम्हारे-मेरे संबंध एक संक्रमण के दौर से गुज़र रहे हैं। तुम्हारे जाने का यह चरम क्षण है। तुम जाओ न अतिथि!
तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है न! मैं जानता हूँ। दूसरों के यहाँ अच्छा लगता है। अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहाँ रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता। अपने घर की महत्ता के गीत इसी कारण गाए गए हैं। होम को इसी कारण स्वीट-होम कहा गया है कि लोग दूसरे के होम की स्वीटनेस को काटने न दौड़ें। तुम्हें यहाँ अच्छा लग रहा है, पर सोचो प्रिय, कि शराफ़त भी कोई चीज़ होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है।
अपने ख़र्राटों से एक और रात गुंजायमान करने के बाद कल जो किरण तुम्हारे बिस्तर पर आएगी वह तुम्हारे यहाँ आगमन के बाद पाँचवें सूर्य की परिचित किरण होगी। आशा है, वह तुम्हें चूमेगी और तुम घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लोगे। मेरी सहनशीलता की वह अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं स्टैंड नहीं कर सकूँगा और लड़खड़ा जाऊँगा। मेरे अतिथि, मैं जानता हूँ कि अतिथि देवता होता है, पर आख़िर मैं भी मनुष्य हूँ। मैं कोई तुम्हारी तरह देवता नहीं। एक देवता और एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रहते। देवता दर्शन देकर लौट जाता है। तुम लौट जाओ अतिथि! इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा। यह मनुष्य अपनी वाली पर उतरे, उसके पूर्व तुम लौट जाओ!
उफ़, तुम कब जाओगे, अतिथि?
aaj tumhare agaman ke chaturth divas par ye parashn baar baar man mein ghumaD raha hai—tum kab jaoge, atithi?
tum jahan baithe nissankoch sigret ka dhuan phenk rahe ho, uske theek samne ek kailenDar hai. dekh rahe ho na! iski tarikhen apni sima mein namrata se phaDaphDati rahti hain. vigat do dinon se main tumhein dikhakar tarikhen badal raha hoon. tum jante ho, agar tumhein hisab lagana aata hai ki ye chautha din hai, tumhare satat atithya ka chautha bhari din! par tumhare jane ki koi sambhavna pratit nahin hoti. lakhon meel lambi yatra karne ke baad ve donon estraunats bhi itne samay chaand par nahin ruke the, jitne samay tum ek chhoti si yatra kar mere ghar aaye ho. tum apne bhari charan kamlon ki chhaap meri zamin par ankit kar chuke, tumne ek antrang niji sambandh mujhse sthapit kar liya, tumne meri arthik simaon ki bainjni chattan dekh lee; tum meri kafi mitti khod chuke. ab tum laut jao, atithi! tumhare jane ke liye ye uchch samay arthat haitaim hai. kya tumhein tumhari prithvi nahin pukarti?
us din jab tum aaye the, mera hriday kisi agyat ashanka se dhaDak utha tha. andar hi andar kahin mera batua kaanp gaya. uske bavjud ek sneh bhigi musakrahat ke saath main tumse gale mila tha aur meri patni ne tumhein sadar namaste ki thi. tumhare samman mein o atithi, hamne raat ke bhojan ko ekayek uchch madhyam varg ke Dinar mein badal diya tha. tumhein smran hoga ki do sabjiyon aur rayte ke alava hamne mitha bhi banaya tha. is sare utsaah aur lagan ke mool mein ek aasha thi. aasha thi ki dusre din kisi rel se ek shanadar mehmananvazi ki chhaap apne hriday mein le tum chale jaoge. hum tumse rukne ke liye agrah karenge magar tum nahin manoge aur ek achchhe atithi ki tarah chale jaoge. par aisa nahin hua. dusre din bhi tum apni atithi sulabh muskan liye ghar mein hi bane rahe. hamne apni piDa pi li aur prasann bane rahe. svagat satkar ke jis uchch bindu par hum tumhein le ja chuk the, vahan se niche utar hamne phir duphar ke bhojan ko lanch ki garima pradan ki aur ratri ko tumhein sinema dikhaya. hamare satkar ka ye akhiri chhor hai, jisse aage hum kisi ke liye nahin baDhe. iske turant baad bhavbhini vidai ka wo bhiga hua kshan aa jana chahiye tha, jab tum vida hote aur hum tumhein steshan tak chhoDne jate. par tumne aisa nahin kiya.
tisre din ko subah tumne mujhse kaha, main dhobi ko kapDe dena chahta hoon.
ye aghat apratyashit tha aur iski chot marmik thi. tumhare samipya ki vela ekayek yon rabar ki tarah khinch jayegi iska mujhe anuman na tha. pahli baar mujhe laga ki atithi sadaiv devta nahin hota, wo manav aur thoDe anshon mein rakshas bhi ho sakta hai.
kisi launDri par de dete hain, jaldi dhul jayenge. mainne kaha. man hi man ek vishvas pal raha tha ki tumhein jaldi jana hai.
meri patni ki ankhen ekayek baDi baDi ho gain. aaj se kuch baras poorv unki aisi ankhen dekh mainne apne akelepan ki yatra samapt kar bistar khol diya tha. par ab jab ve hi ankhen baDi hoti hain to man chhota hone lagta hai. ve is ashanka aur bhay se baDi hui thi ki atithi adhik dinon thahrega.
aur ashanka nirmul nahin thi, atithi! tum ja nahin rahe. launDri par diye kapDe dhulkar aa ge aur tum yahin ho. tumhare bharkam sharir se salavten paDi chadar badli ja chuki aur tum yahin ho. tumhein dekhkar phoot paDne vali musakrahat dhire dhire phiki paDkar ab lupt ho gai hai. thahakon ke rangin ghubbare, jo kal tak is kamre ke akash mein uDte the, ab dikhai nahin paDte. batachit ki uchhalti hui gend charcha ke kshetr ke sabhi konlon se tappe khakar phir sentar mein aakar chup paDi hai. ab ise na tum hila rahe ho, na main. kal se main upanyas paDh raha hoon aur tum filmi patrika ke panne palat rahe ho. shabdon ka len den mit gaya aur charcha ke vishay chuk ge. parivar, bachche, naukari, film, rajaniti, rishtedari, tabadale, purane dost, parivar niyojan, manhgai, sahitya aur yahan tak ki ankh maar markar hamne purani premikaon ka bhi zikr kar liya aur ab ek chuppi hai. sauhard ab shanaiः shanaiः boriyat mein rupantrit ho raha hai. bhavnayen galiyon ka svarup grhan kar rahi hain, par tum ja nahin rahe. kis adrishya gond se tumhara vyaktitv yahan chipak gaya hai, main is bhed ko saprivar nahin samajh pa raha hoon. baar baar ye parashn uth raha hai—tum kab jaoge, atithi?
kal patni ne dhire se puchha tha, kab tak tikenge ye?
mainne kandhe uchka diye, kya kah sakta hoon!
main to aaj khichDi bana rahi hoon. halki rahegi.
banao.
satkar ki uushma samapt ho rahi thi. Dinar se chale the, khichDi par aa ge. ab bhi agar tum apne bistar ko golakar roop nahin pradan karte to hamein upvaas tak jana hoga. tumhare mere sambandh ek sankrman ke daur se guzar rahe hain. tumhare jane ka ye charam kshan hai. tum jao na atithi!
tumhein yahan achchha lag raha hai na! main janta hoon. dusron ke yahan achchha lagta hai. agar bas chalta to sabhi log dusron ke yahan rahte, par aisa nahin ho sakta. apne ghar ki mahatta ke geet isi karan gaye ge hain. hom ko isi karan sveet hom kaha gaya hai ki log dusre ke hom ki svitnes ko katne na dauDen. tumhein yahan achchha lag raha hai, par socho priy, ki sharafat bhi koi cheez hoti hai aur get aaut bhi ek vakya hai, jo bola ja sakta hai.
apne kharraton se ek aur raat gunjayman karne ke baad kal jo kiran tumhare bistar par ayegi wo tumhare yahan agaman ke baad panchaven surya ki parichit kiran hogi. aasha hai, wo tumhein chumegi aur tum ghar lautne ka sammanpurn nirnay le loge. meri sahanshilata ki wo antim subah hogi. uske baad main stainD nahin kar sakunga aur laDkhaDa jaunga. mere atithi, main janta hoon ki atithi devta hota hai, par akhir main bhi manushya hoon. main koi tumhari tarah devta nahin. ek devta aur ek manushya adhik der saath nahin rahte. devta darshan dekar laut jata hai. tum laut jao atithi! isi mein tumhara devatv surakshit rahega. ye manushya apni vali par utre, uske poorv tum laut jao!
uf, tum kab jaoge, atithi?
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।