कंपाउंड के एक कोने में खेलते-खेलते अचानक कुछ याद आया और जब मैं घर दौड़कर आया तो माँ घर के सामने एक खटिया पर बैठ चुकी थी। तेल वाले चमकीले कप्तान सिगरेट टिन के डिब्बे से पैसे निकाल रही माँ ने आलमारी से लोहे का एक प्लेट अचानक निकाला और चावल का पतीला खोलते हुए मुझसे कहा—
“अरे कतूरे, तू खेल में इतना मगन हो गया है। जाओ तेल के खुए में तुम्हारे लिए पकौड़े रखे हैं, मैं वापसी में ख़रीद लाई थी।”
मेरी माँ सारी सुबह दस बीसे के लगभग तेल एक खुए और सफ़ेद डिब्बों में डालकर एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में घूमते हुए बेचा करती थी। इसके चलते उसके सिर के बाल पर चाँदी का रंग आना शुरू हो गया था। माथे के ऊपर के केशों, बीच-बीच पसीने की चुहचुहाती बूँदें जल्द पूरे चेहरे को भिगोती छोटी-छोटी नालियों के रूप में बहने लगतीं।
“जाओ जाकर पकौड़े ले लो।” माँ ने कहा। वह दस, पाँच रुपए और एक रुपए के नोटों को करीने से एक-दूसरे के ऊपर रख रही हैं। मैंने तेल की ट्रे में से पकौड़े उठा लिए और भोजन की प्लेट में डालकर माँ के पास बैठ गया। लाल-लाल टमाटरों को तेल में पकाकर बत्तख़ के अंडों की सब्ज़ी तैयार की गई थी—उसमें मिली सब्ज़ी के मसालों को मैं चावलों में सान कर खा रहा था।
माँ ने जो पैसे इकट्ठे करके जोड़े थे, उनमें से पाँच रुपए के एक-दो नोट और पुराने कुछ नोट अलग कर दिए। बाक़ी दस और पाँच के कुछ नोटों को गोल कर मैंने जिस सिगरेट के टिन के डिब्बे का ज़िक्र किया था, जिसका रंग तेल जैसा....चमक रहा था—वापस उसमें डाल कर रख दिया।
“लो भाई, हमारी फुटकर बिक्री भी कोई ख़ास नहीं हुई और उधार लेने वालों ने भी बहुत ले लिया।” यह कहकर खटिया के सिरहाने से उसने पिताजी की एक पुरानी लुंगी से मुँह और गर्दन से बहते अपने पसीने की बूँदों को साफ़ किया। इस दृश्य और इस आवाज़ को हर रोज़ सुनने वाला मेरे सिवा वहाँ और कौन था? सुबह होते ही, तेल का ट्रे उठा कर बाज़ार में बेचने जाने और दोपहर के समय जब तेज़ गर्मी में सिर से लेकर पैरों तक पसीना बह रहा होता, ऐसे वक़्त लौट आने वाली माँ पर मुझे बड़ा तरस आता। सिगरेट के टिन के डिब्बे में रखी अपनी मूढ़ी को निकालने के बाद जो लाभ हुआ था—वह सिर्फ़ पाँच रुपए और दो रुपए के नोटों में ही सिमट गया था। मेरी माँ को कितना कठोर परिश्रम करना पड़ता था।
पसीने में डूबी अपनी ऊपर वाली सफ़ेद इंजी को माँ ने उतार फेंका। उसके बाद लुंगी को सीने तक उठा कर पहना और नीचे पहनी जावारी को उतारकर चारपाई के सिरहाने के खंबे में टाँग दिया। लंबे हैंडल वाला पंखा लेकर पास पड़े लकड़ी के गोल टुकड़े को खींच लिया और सिरहाने के नीचे रखकर पूरी तेज़ी से अपने आप पर हवा करने लगी। माँ ने आँखें बंद कर रखी थीं, लेकिन लगता था वह सोई नहीं। मैंने भोजन करते हुए कहा—“माँ, लाभ तो हुआ नहीं, तू बिना फ़ायदे के इतनी ज़्यादा मेहनत क्यों करती है? तू क्यों तेल बेचना बंद नहीं करती?” माँ की बंद की हुई आँखें अचानक खुल गईं।
“अरे कतूरे, जब यह तेल बिकता है, तेरी दीदी स्कूल जा सकती है। तुम लोग अच्छी तरह रह सको, इसके लिए मैं अपने सिर पर सारा बोझ उठाती हूँ, मोहल्ले-मोहल्ले घूम कर तेल बेचती हूँ। जानते हो सारा प्रताप इसी तेल के खुए का है।” माँ ने पूरी वेदना से यह बात कही।
मैंने कहा—“माँ, तू सदा यही कहती रहती है कि इसमें कोई फ़ायदा नहीं हुआ।” मैंने अपनी ओर से अपनी गुहार माँ के सामने रखी। माँ अचानक उठकर बैठ गई और दिखावे के लिए हल्की-सी चपत बनाकर धीरे-धीरे मुझे मारते हुए बोली—“अरे अब तो तुझे बहुत बोलने की आदत हो गई है। मोहल्ले में उधार रह गया है और तेल के टिन में तेल बच गया है। इनसे हमें और भी पैसे मिलेंगे।
फिर घर की सब्ज़ी को बत्तख़ के अंडे के साथ तेल में पकाया गया है। यह तेल भी तो उसी कमाई का हिस्सा है।” माँ यह कहकर मुस्कराने लगी। मैंने एक हाथ में भोजन की प्लेट को थाम कर माँ के सीने पर अपना सिर रख लिया। माँ ने सीने से चिपटा कर मुझे प्यार किया।
दीदी जो अब नौंवीं कक्षा की छात्रा थी, उसे घड़ी चाहिए थी। वह घड़ी के लिए ज़िद कर रही थी। पड़ोस वाली दीदी ने भी तीन-चार सौ रुपए वाली एक घड़ी ख़रीदी थी। उनका परिवार माँडले के नामी गिरामी बाज़ार में दूसरे मज़दूरों के साथ मज़दूर के तौर पर काम करता था। जब दीदी घड़ी के लिए ज़िद कर रही थी तो मुझे बहुत दुःख हो रहा था। जिस परिवार के सदस्यों को हर रोज़ माँ की मुसीबतें दीख रही हो, सुनाई दे रही हों, उनके लिए तीन सौ रुपए कहाँ से आएँगे—यह सोचकर मैं दुखी हो रहा था। उन्हीं दिनों में मोंखा से कोई चाचा आए। वे सुनार थे। उनसे पिता ने ज़िक्र किया कि मैं बड़ी बेटी को तीन सौ रुपए वाली एक घड़ी ख़रीद कर देना चाहता हूँ। चाचा ने उन्हें टोका और कहा—“आप कमाल करते हैं भाई साहब, आज के ज़माने में जो लोग तीन सौ रुपए की घड़ी पहनते हैं वे तो बड़े ग़रीब लोगों में गिने जाते हैं। यह दो-चार दिनों में ख़राब होने वाली घड़ी होती है। फिर दूसरी घड़ी ख़रीदनी होती है। अगर दोबारा न ख़रीद सके तो? इससे बढ़िया है कि एक ही बार में अच्छी घड़ी ख़रीद लें। वह बहुत लंबे समय तक चलेगी।”
उनकी बात सुनकर पिता और चाचा घर के अंदर चले गए और आपस में खुसर-पुसर करते रहे। दीदी जब स्कूल से वापस लौटी तो वह चाचा की साइकिल के पीछे बैठकर बाज़ार चली गई। वह जब लौटी तो अपनी कलाई पर नई घड़ी पहनी हुई थी। यह टिटोनी घड़ी थी। चाचा ने कहा था कि इसके सवा सात सौ रुपए लगेंगे। उसके बाद चाचा ने एक रसीद और कुछ पैसे पिताजी को दे दिए।
“भाई साहब, पच्चीस रुपए बच भी गए हैं।” चाचा ने यह बात कही। उनकी बातों से मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मेरे लिए ऐसी बातें समझना बहुत कठिन था। मैं तो घड़ी के बारे में हैरान और अवाक् था।
उस समय मैं आठवीं कक्षा में था। शायद मेरे क़दम जवानी की ओर बढ़ रहे थे। सामने पूरब दिशा में पिताजी काम किया करते थे। उस घर का मालिक तेल के मिल का मालिक था। उसका बेटा किसी कॉलेज का विद्यार्थी था।
एक दिन जब मैं स्कूल से लौट रहा था तो मेरी और उसकी आमने-सामने मुलाक़ात हो गई। वह अपनी कार से कॉलेज जाया करता था। आज उसकी कार को क्या हुआ, पता नहीं। वह बस में स्कूल गया था। शायद बस से ही लौट रहा था, तभी उसकी मुझसे भेंट हो गई थी। हम लोग टलना बाज़ार के पास मिले थे। उस समय सुबह वाली बारिश से मौसम काफ़ी ठंडा हो गया था। उसने जींस की जैकेट पहन रखी थी। शर्ट का रंग भी उससे मेल खा रहा था। सफ़ेद लुंगी के ऊपर भूरे रंग की डिज़ाइनों वाला छापा था—यह शंखमार्का लुंगी थी। उसने चौड़ी-चौड़ी सिली गई कैप, जिसे बर्मा में नानरोटी कैप कहते हैं, पहन रखी थी। उसने तीन-चार किताबें थामी थीं। हो सकता है स्कूल की ही पुस्तकें हों। दूसरे हाथ में चौड़े हैंडल वाली एक फ़ोल्डिंग छतरी थी।
मुझे उसकी नानरोटी वाली कैप और चौड़ी हैंडल वाली फ़ोल्डिंग छतरी काफ़ी पसंद आई थी। हमारे घर के पास ही एक दर्ज़ी की दुकान थी। मैंने बड़ी प्रार्थना करके कपड़े का एक टुकड़ा उससे लिया और अट्ठाइसवीं गली में टोपियों के स्टोर में नान रोटी कैप सिलने को दे दिया। फ़ोल्डिंग वाली छतरी के लिए मैंने माँ से बहुत ज़िद की कि वह ख़रीद कर दे। जब-कभी माँ बाज़ार से तेल बेचकर लौटती तो वह बहुत दुखी दीखती। उसकी बातें हमेशा मेरे कानों में पड़ती थीं।
इसके बावजूद मेरी आँखों से तेल के मालिक का जो पहनावा था—वह नहीं निकल रहा था। माँ ने यह कहा कि अगर छतरी लेनी है तो वही छतरी ख़रीदो जो मैं कई सालों से इस्तेमाल करती आई हूँ। छोटे हैंडल वाली शुतुर्मुर्ग मार्का महिला छतरी। लेकिन मैं आकर्षित था चौड़े हैंडल वाली फ़ोल्डिंग छतरी से।
एक दिन ठीक ऐसे समय बारिश हुई, जब मैं स्कूल जाने के लिए घर से निकल रहा था। धीमी-धीमी बारिश हो रही थी। मैंने सिर पर बचाव के लिए कुछ भी नहीं लिया और स्कूल जाने लगा।
“अरे छतरी ले जा, बारिश में कैसे जाएगा?” माँ ने पुकार कर कहा।
“माँ, तुम्हारी छतरी कोई फ़ोल्डिंग छतरी है?” मैंने उत्तर दिया। उस दिन न जाने क्यों, मुझे याद नहीं कि कारण क्या था। उस उत्तर के बाद माँ तेल बेचने के लिए बाहर निकल नहीं पाई। अचानक माँ ने अपनी शुतुर्मुर्ग मार्के वाली छतरी ली और मेरा हाथ पकड़कर मुझे बाज़ार ले गई।
वहाँ दक्षिण छोर की एक दुकान से एक फ़ोल्डिंग छतरी ख़रीदी गई। जब छतरी के लिए पैसे देने की बात आई तो माँ ने अपनी इंजी के अंदर वाले पॉकेट से प्लास्टिक का एक बंडल निकाला। कई बार मोड़कर बड़ी खस्ता हालत में पहुँचे हुए उस बंडल को खोलने पर उसमें से दस रुपए के नोटों की एक गड्डी निकली। उसमें से एक-एक कर माँ ने वे नोट गिने और मेरे हाथ पर रख दिए। कुल बारह नोट थे। मैंने अनुभव किया कि दस रुपए के नोट माँ के तेल वाले हाथों से बार-बार गिनने के कारण चीकट हो गए थे और उनमें से तेल की ख़ुशबू आ रही थी। मुझे याद आया कि माँ के कैप्टन सिगरेट वाला टिन का डिब्बा जब भी खुलता था, उस वक़्त जो महक होती थी, वही यहाँ भी है। अब जाकर उन दस के नोटों को दुकान के मालिक के हाथ पर रखते हुए मुझे ज़रा-सा संकोच होने लगा। बाज़ार से लौट कर पसीने पोंछती और वक्षस्थल तक लुंगी बाँधे घर के सामने एक छोटी-सी चारपाई पर लेटी, तेज़ी से पंखा झलती माँ—वह पूरा दृश्य मेरी आँखों के सामने था। लेकिन दूसरी तरफ़ मेरे हाथ में अब फ़ोल्डिंग छतरी आ चुकी थी। तभी माँ की आवाज़ आई—
“क्या है बेटे, किस सोच में पड़ गए? पैसे तो पूरे हैं न...दे दो।” जब माँ ने दोबारा पूछा तो मैंने अपने हाथ में थामे हुए नोट दुकानदार के हाथ में रख दिए।
“लो बेटे, अब यह छतरी ओढ़कर सीधा स्कूल जाओ।” यह कहकर निकल के हैंडल वाली एक पुरानी-सी छतरी अपनी बाँह के नीचे दबा कर टांटे बाज़ार की अट्ठाइसवीं गली की ओर माँ जब तक मुड़ नहीं गई—मैं नई छतरी थामे उसे ध्यान से देखता रहा।
उस दिन दीदी को सात सौ रुपए की घड़ी और मुझे सौ रुपए से अधिक की फ़ोल्डिंग छतरी ख़रीद कर देने के कारण उधार बहुत चढ़ गया और इधर बिक्री भी अच्छी नहीं थी। इस तरह हमेशा खीज प्रकट करने वाली माँ के बारे में मुझे महसूस हुआ कि उसे समझ नहीं पा रहा हूँ। उसने मुझे छतरी के लिए जो पैसे दिए थे, कैप्टन सिगरेट के डिब्बे से, शायद अब उस डिब्बे में पैसे न हों, यह बात मैं सोचने पर मज़बूर हो गया।
एक दिन पिताजी ने मुझे आदेश दिया कि पूरबी कंपाउंड के तेल मालिक के पास जाओ और जल से उनकी पूजा करो, उनसे आशीर्वाद लो। जब मैं उनके पास आशीर्वाद लेने गया तो उनकी बेटी, जिसका नाम ममा: था, ने एक बड़ी-सी मेज़ के बग़ल रखी तिजोरी से पिताजी के लिए वेतन और मेरे लिए मिठाई खाने को पैसे निकालकर दिए। तब मैंने उस तिजोरी में रखी अनगिनत नोटों की बड़ी-बड़ी गड्डियाँ पहली बार देखीं। तभी मेरे दिमाग़ में एक बात बैठी कि तेल के मालिक को अपनी हैसियत के अनुसार बड़ी-सी तिजोरी में रुपयों के बंडल रखने पड़ते हैं। हमारे घर में भी बेशक सिर पर तेल के कुए रखने वाले एक तेली की हैसियत से पिताजी जिस लोहे के संदूक़ को ताला लगाकर रखते हैं, उसमें ज़रूर नोटों की गड्डियाँ होंगी। जिस तरह तेल के मालिक ने लाखों रुपए इकट्ठे कर रखे हैं, उसी तरह सिर पर तेल बेचने वाली माँ के पास भी कम-से-कम हज़ारों रुपए ज़रूर होंगे। मैंने जो हिसाब लगाया था, उसी हिसाब से मैं विचार करने लगा। इसलिए कुछ ही दिनों में तेल मिल के मालिक के यहाँ काम करने वाली मेज़र पर उधार का जो खाता था, उसमें पिता के नाम दो सौ पच्चीस रुपए लिखे गए थे।
मेरे जैसे सातवीं कक्षा के विद्यार्थी को चश्मा लगाना पड़ गया हो, उसका चश्मे में दिलचस्पी होना स्वाभाविक ही है। उस दिन भी एक मित्र के साथ उसके पिता की दुकान पर मस्ती में ऑर्डर देने के साथ ही पैसे चुकाने की समस्या की शुरुआत हुई। मित्र का पिता तिरासीवीं गली वाले बाज़ार में एक कमरे की दुकान में चश्मे बेचता था। वहाँ कई तरह के चश्मे के फ़्रेम प्रदर्शित थे। ऐसा चश्मा, जिसका नाम मैं पढ़ नहीं पाया, उसकी ओर काफ़ी आकर्षित हुआ था। साधारण से फ़्रेम को निहारते हुए उसे मैं हाथ से नीचे नहीं रखना चाहता था। मैंने जब शीशे में देखा तो ऐसा लगा कि यह मेरा ही पसंदीदा फ़्रेम है। मैं उसी फ़्रेम को लेना चाहता था। मेरी निगाहें उसी पर टिक गई थीं। मेरे भावों को देखकर मित्र के पिता ने कहा—
“हाँ, तुम पर बहुत जँचेगा। ये फ़्रेम अभी-अभी बाहर से आए हैं। अगर यह फ़्रेम तुम्हें पसंद है तो मैं तुम्हें ख़रीदे हुए दाम पर ही दे दूँगा।” मैंने उसका दाम पूछा।
“सवा दो सौ।” जब मैंने यह उत्तर सुना तो पिताजी वाला लोहे का संदूक़ दिखाई देने लगा, जिसमें हमेशा ताला लगाया होता है। अगर उसमें रुपए पूरे न भी हों तो पिताजी के बंटोक के नीचे नोटों की गड्डियाँ हो सकती हैं। तेल के मालिक की तिजोरी में भी नोटों के बंडल पूरे भरे हुए थे न? पिताजी के संदूक़ में भी कौन बता सकता है कि वहाँ नोटों की गड्डियाँ नहीं होंगी। संदूक़ को हमेशा ताला लगाकर रखने वाली बात ने मेरे सोच को इतमीनान में बदल दिया था। हल्के धुएँ के रंग और घने काले तथा काली कतार में रखे प्लास्टिक के चश्मे के फ़्रेम को मैं अब हाथ से जाने देना नहीं चाहता था। इसलिए मैंने कहा—“जनाब, हम यही फ़्रेम लेंगे, लेकिन आज मैं पैसे नहीं लाया। कल मैं पैसे लेकर आऊँगा, यह मिल जाएगा न?”
दोस्त के पिता ने मेरी पीठ को ठोककर कहा—“अरे भाई, ले जाओ, ले जाओ। इस माल की क़ीमत काफ़ी है। अगर आज तुम नहीं ले जाओगे तो मैं कल की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि यह बचेगा या नहीं, इसलिए ले जाओ।” उनकी आज्ञा पर मैंने चश्मे का वह फ़्रेम ले लिया।
मैं जब घर पहुँचा तो माँ तेल बेचकर वापस लौटी थी। भोजन करते हुए मैंने माँ को बताया कि मैं चश्मा उधार ले आया हूँ। मैंने सोचा, माँ अभी पिता के लोहे की संदूक़ का ताला खोलकर नोटों की गड्डी में से दो सौ पच्चीस रुपए मुझे दे देगी। यह सुनते ही अचानक माँ अपनी छाती पीटने लगी।
“यह क्या गुल खिला रहे हो बेटे? हम लोगों के पास पैसे कहाँ हैं, जो हम तुम्हारे चश्मे की क़ीमत चुका पाएँ? अरे कोई सौदा हमसे पूछ कर तो तय किया करो। अब हम ये सवा दो सौ रुपए कहाँ से लाएँगे?” माँ ज़ोर-ज़ोर से छाती पीट रही थी।
“क्या तुमने कोई पैसा जमा नहीं किया।”
मैंने जब यह सवाल किया तो माँ ने रोते हुए उत्तर दिया—“बेटे, तुमको मालूम है कि जो पैसे हमें मिलते हैं उनसे खाने का पूरा ख़र्चा निकलता भी है या नहीं, यह तुमने कभी पूछा है? रही पैसे जमा करने की बात-वह तो बहुत दूर की बात है।”
माँ अपने दुःख और वेदना से ना जाने क्या-क्या बोल रही थी? जैसे ही पिताजी काम से लौटे तो माँ ने शिकायत से उनका स्वागत किया और बोली—“आज आपको तेल की जो रक़म मालिक को देनी है, वह नहीं दी जा सकेगी। आप उधार के खाते में अपना नाम चढ़ा लीजिए और अपने मालिक से बता दीजिए। आपका बेटा एक क़ीमती चश्मा उधार लेकर आया है और सवा दो सौ रुपए क़ीमत बता रहा है।”
जैसे ही माँ ने यह बात बताई, पिताजी का मुँह उतर गया। उन्होंने क्रोध से मुझे घूर कर देखा। वह बहुत कम बात करने के आदी थे। उनके द्वारा क्रोध में लिया गया चटकारा बड़ी-बड़ी और मोटी-मोटी गालियों से ज़्यादा भारी और भयंकर था। मैं कुछ कहने जा रहा था, लेकिन बीच में रोक दिया। मैंने बीच में ही भोजन समाप्त कर दिया और प्लेट धोने के बाद हाथ धोये। जब नैपकिन खोजा तो फटे-पुराने और मैले-कुचैले कपड़े के कुछ टुकड़े ही मिले।
उसके बाद जब मैं माँ की ट्रे को देखने गया तो मुझे पीले रंग वाले डिब्बे का कछुए का ढक्कन वहाँ दिखाई दिया। साथ ही रुपहली चमक वाला कैप्टन सिगरेट की टिन का ढक्कन और पास ही एक साफ़-सुथरा रुमाल मिला—जिसे अच्छी तरह तहाकर रखा गया था। मैंने वह रुमाल उठाया उससे अपने हाथ पोंछे और जैसे वह तहाकर रखा गया था, उसी तरह रख कर चुपचाप वापस चल दिया।
अभी जो लेडीज़ वाच मैंने डाल रखी है, इसकी क़ीमत नौ हज़ार रुपए हैं।” जब यह बात कही गई तो मेरे बेटे और बेटियाँ हँसने लगे।
“यह घड़ी तुम्हारे पिता को तुम्हारी आंटी से मिली थी। जब तुम्हारी आंटी ने घड़ी लेने की ज़िद की तो तुम्हारी दादी को ख़ानदानी केस में रखी सोने की कंघी बेचकर वह घड़ी ख़रीद दी थी। वह कंघी एक टिक्कल की थी। उस ज़माने में सोने की एक टिक्कल की क़ीमत साढ़े सात सौ रुपए हुआ करती थी। अब सोने की एक टिक्कल की क़ीमत दस हज़ार रुपए है। इसलिए मेरी घड़ी कम-से-कम नौ हज़ार रुपए की तो होगी।” भोजन से हाथ रोककर जब पिता ने यह समझाया तब बेटे और बेटी ने कहा—
“इसका मतलब है कि अब भी माँ ने हम लोगों के लिए अपनी माँ के सोने के काँटे बेचकर घड़ी ख़रीदी।” उन्होंने बेहिचक ऐसा कहा।
इस साल बारिश में घर की छत डालनी पड़ी थी, इसलिए माँ के सोने के काँटें पहले ही बेचने पड़े थे और यह सोचकर मुझे बड़ा दुःख हुआ।
मैंने चश्मे के मोटे-मोटे पावर वाला शीशा बदल लिया था और अभी तक वही चल रहा था। फ़्रेम बदलने की जगह मैं अपनी बेटी के लिए सोचता हूँ कि उसे सादी छतरी और बेटे के लिए शुतुर्मुर्ग मार्के वाला एक छाता लाकर दूँ। इसमें मुझे अधिक दिलचस्पी थी। यह सोचकर मैंने भोजन समाप्त कर दिया और बाहर पड़ी चिलमची में हाथ धोए।
“क्या बात है बड़े भाई साहब, सब्ज़ी पसंद नहीं आई क्या? आपने बहुत कम खाया।” यह बहन का प्रश्न था और उसके अनुकूल ही मैंने सिर हिला दिया। उससे नज़र बचाकर यहाँ-वहाँ देखने लगा।
तभी माँ भोजन करती-करती बोली—“क्या बात है? क्या नैपकिन खो गया है? आज मुझे भी ज़्यादा फ़ुर्सत नहीं मिली। नैपकिन धोने में काफ़ी साबुन घिसता है, इसलिए उसने “सूखी हुई लुंगी कहाँ है?” यह बात कही और मैं माँ के चेहरे को दोबारा पढ़ने में लग गया।
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mujhe uski nanroti vali kaip aur chauDi hainDal vali folDing chhatri kafi pasand aai thi. hamare ghar ke paas hi ek darzi ki dukan thi. mainne baDi pararthna karke kapDe ka ek tukDa usse liya aur atthaisvin gali mein topiyon ke stor mein naan roti kaip silne ko de diya. folDing vali chhatri ke liye mainne maan se bahut zid ki ki wo kharid kar de. jab kabhi maan bazar se tel bechkar lautti to wo bahut dukhi dikhti. uski baten hamesha mere kanon mein paDti theen.
iske bavjud meri ankhon se tel ke malik ka jo pahnava tha—vah nahin nikal raha tha. maan ne ye kaha ki agar chhatri leni hai to vahi chhatri kharido jo main kai salon se istemal karti aai hoon. chhote hainDal vali shuturmurg marka mahila chhatri. lekin main akarshit tha chauDe hainDal vali folDing chhatri se.
ek din theek aise samay barish hui, jab main skool jane ke liye ghar se nikal raha tha. dhimi dhimi barish ho rahi thi. mainne sir par bachav ke liye kuch bhi nahin liya aur skool jane laga.
“are chhatri le ja, barish mein kaise jayega?” maan ne pukar kar kaha.
“maan, tumhari chhatri koi folDing chhatri hai?” mainne uttar diya. us din na jane kyon, mujhe yaad nahin ki karan kya tha. us uttar ke baad maan tel bechne ke liye bahar nikal nahin pai. achanak maan ne apni shuturmurg marke vali chhatri li aur mera haath pakaDkar mujhe bazar le gai.
vahan dakshin chhor ki ek dukan se ek folDing chhatri kharidi gai. jab chhatri ke liye paise dene ki baat aai to maan ne apni inji ke andar vale pauket se plastik ka ek banDal nikala. kai baar moDkar baDi khasta haalat mein pahunche hue us banDal ko kholne par usmen se das rupe ke noton ki ek gaDDi nikli. usmen se ek ek kar maan ne ve not gine aur mere haath par rakh diye. kul barah not the. mainne anubhav kiya ki das rupe ke not maan ke tel vale hathon se baar baar ginne ke karan chikat ho ge the aur unmen se tel ki khushbu aa rahi thi. mujhe yaad aaya ki maan ke kaiptan sigret vala tin ka Dibba jab bhi khulta tha, us vaqt jo mahak hoti thi, vahi yahan bhi hai. ab jakar un das ke noton ko dukan ke malik ke haath par rakhte hue mujhe zara sa sankoch hone laga. bazar se laut kar pasine ponchhti aur vakshasthal tak lungi bandhe ghar ke samne ek chhoti si charpai par leti, tezi se pankha jhalti man—vah pura drishya meri ankhon ke samne tha. lekin dusri taraf mere haath mein ab folDing chhatri aa chuki thi. tabhi maan ki avaz ai—
“kya hai bete, kis soch mein paD ge? paise to pure hain na. . . de do. ” jab maan ne dobara puchha to mainne apne haath mein thame hue not dukandar ke haath mein rakh diye.
“lo bete, ab ye chhatri oDhkar sidha skool jao. ” ye kahkar nikal ke hainDal vali ek purani si chhatri apni baanh ke niche daba kar tante bazar ki atthaisvin gali ki or maan jab tak muD nahin gai main nai chhatri thame use dhyaan se dekhta raha.
us din didi ko saat sau rupe ki ghaDi aur mujhe sau rupe se adhik ki folDing chhatri kharid kar dene ke karan udhaar bahut chaDh gaya aur idhar bikri bhi achchhi nahin thi. is tarah hamesha kheej prakat karne vali maan ke bare mein mujhe mahsus hua ki use samajh nahin pa raha hoon. usne mujhe chhatri ke liye jo paise diye the, kaiptan sigret ke Dibbe se, shayad ab us Dibbe mein paise na hon, ye baat main sochne par mazbur ho gaya.
ek din pitaji ne mujhe adesh diya ki purabi kampaunD ke tel malik ke paas jao aur jal se unki puja karo, unse ashirvad lo. jab main unke paas ashirvad lene gaya to unki beti, jiska naam mamah tha, ne ek baDi si mez ke baghal rakhi tijori se pitaji ke liye vetan aur mere liye mithai khane ko paise nikalkar diye. tab mainne us tijori mein rakhi anaginat noton ki baDi baDi gaDDiyan pahli baar dekhin. tabhi mere dimagh mein ek baat baithi ki tel ke malik ko apni haisiyat ke anusar baDi si tijori mein rupyon ke banDal rakhne paDte hain. hamare ghar mein bhi beshak sir par tel ke kue rakhne vale ek teli ki haisiyat se pitaji jis lohe ke sanduq ko tala lagakar rakhte hain, usmen zarur noton ki gaDDiyan hongi. jis tarah tel ke malik ne lakhon rupe ikatthe kar rakhe hain, usi tarah sir par tel bechne vali maan ke paas bhi kam se kam hazaron rupe zarur honge. mainne jo hisab lagaya tha, usi hisab se main vichar karne laga. isliye kuch hi dinon mein tel mil ke malik ke yahan kaam karne vali mezar par udhaar ka jo khata tha, usmen pita ke naam do sau pachchis rupe likhe ge the.
mere jaise satvin kaksha ke vidyarthi ko chashma lagana paD gaya ho, uska chashme mein dilchaspi hona svabhavik hi hai. us din bhi ek mitr ke saath uske pita ki dukan par masti mein aurDar dene ke saath hi paise chukane ki samasya ki shuruat hui. mitr ka pita tirasivin gali vale bazar mein ek kamre ki dukan mein chashme bechta tha. vahan kai tarah ke chashme ke frem pradarshit the. aisa chashma, jiska naam main paDh nahin paya, uski or kafi akarshit hua tha. sadharan se frem ko niharte hue use main haath se niche nahin rakhna chahta tha. mainne jab shishe mein dekha to aisa laga ki ye mera hi pasandida frem hai. main usi frem ko lena chahta tha. meri nigahen usi par tik gai theen. mere bhavon ko dekhkar mitr ke pita ne kaha—
“haan, tum par bahut janchega. ye frem abhi abhi bahar se aaye hain. agar ye frem tumhein pasand hai to main tumhein kharide hue daam par hi de dunga. ” mainne uska daam puchha.
“sava do sau. ” jab mainne ye uttar suna to pitaji vala lohe ka sanduq dikhai dene laga, jismen hamesha tala lagaya hota hai. agar usmen rupe pure na bhi hon to pitaji ke bantok ke niche noton ki gaDDiyan ho sakti hain. tel ke malik ki tijori mein bhi noton ke banDal pure bhare hue the na? pitaji ke sanduq mein bhi kaun bata sakta hai ki vahan noton ki gaDDiyan nahin hongi. sanduq ko hamesha tala lagakar rakhne vali baat ne mere soch ko itminan mein badal diya tha. halke ke rang aur ghane kale tatha kali katar mein rakhe plastik ke chashme ke frem ko main ab haath se jane dena nahin chahta tha. isliye mainne kaha—“janab, hum yahi frem lenge, lekin aaj main paise nahin laya. kal main paise lekar auunga, ye mil jayega na?
dost ke pita ne meri peeth ko thokkar kaha—“are bhai, le jao, le jao. is maal ki qimat kafi hai. agar aaj tum nahin le jaoge to main kal ki koi garanti nahin de sakta ki ye bachega ya nahin, isliye le jao. ” unki aagya par mainne chashme ka wo frem le liya.
main jab ghar pahuncha to maan tel bechkar vapas lauti thi. bhojan karte hue mainne maan ko bataya ki main chashma udhaar le aaya hoon. mainne socha, maan abhi pita ke lohe ki sanduq ka tala kholkar noton ki gaDDi mein se do sau pachchis rupe mujhe de degi. ye sunte hi achanak maan apni chhati pitne lagi.
“yah kya gul khila rahe ho bete? hum logon ke paas paise kahan hain, jo hum tumhare chashme ki qimat chuka payen? are koi sauda hamse poochh kar to tay kiya karo. ab hum ye sava do sau rupe kahan se layenge? maan zor zor se chhati peet rahi thi.
“kya tumne koi paisa jama nahin kiya. ”
mainne jab ye saval kiya to maan ne rote hue uttar diya—“bete, tumko malum hai ki jo paise hamein milte hain unse khane ka pura kharcha nikalta bhi hai ya nahin, ye tumne kabhi puchha hai? rahi paise jama karne ki baat wo to bahut door ki baat hai. ”
maan apne dukh aur vedna se na jane kya kya bol rahi thee? jaise hi pitaji kaam se laute to maan ne shikayat se unka svagat kiya aur boli—“aj aapko tel ki jo raqam malik ko deni hai, wo nahin di ja sakegi. aap udhaar ke khate mein apna naam chaDha lijiye aur apne malik se bata dijiye. aapka beta ek qimti chashma udhaar lekar aaya hai aur sava do sau rupe qimat bata raha hai. ”
jaise hi maan ne ye baat batai, pitaji ka munh utar gaya. unhonne krodh se mujhe ghoor kar dekha. wo bahut kam baat karne ke aadi the. unke dvara krodh mein liya gaya chatkara baDi baDi aur moti moti galiyon se zyada bhari aur bhayankar tha. main kuch kahne ja raha tha, lekin beech mein rok diya. mainne beech mein hi bhojan samapt kar diya aur plet dhone ke baad haath dhoye. jab naipkin khoja to phate purane aur maile kuchaile kapDe ke kuch tukDe hi mile.
uske baad jab main maan ki tre ko dekhne gaya to mujhe pile rang vale Dibbe ka kachhue ka Dhakkan vahan dikhai diya. saath hi rupahli chamak vala kaiptan sigret ki tin ka Dhakkan aur paas hi ek saaf suthra rumal mila—jise achchhi tarah tahakar rakha gaya tha. mainne wo rumal uthaya usse apne haath ponchhe aur jaise wo tahakar rakha gaya tha, usi tarah rakh kar chupchap vapas chal diya.
abhi jo leDiz vaach mainne Daal rakhi hai, iski qimat nau hazar rupe hain. ” jab ye baat kahi gai to mere bete aur betiyan hansne lage.
“yah ghaDi tumhare pita ko tumhari aanti se mili thi. jab tumhari aanti ne ghaDi lene ki zid ki to tumhari dadi ko khandani kes mein rakhi sone ki kanghi bechkar wo ghaDi kharid di thi. wo kanghi ek tikkal ki thi. us zamane mein sone ki ek tikkal ki qimat saDhe saat sau rupe hua karti thi. ab sone ki ek tikkal ki qimat das hazar rupe hai. isliye meri ghaDi kam se kam nau hazar rupe ki to hogi. ” bhojan se haath rokkar jab pita ne ye samjhaya tab bete aur beti ne kaha—
“iska matlab hai ki ab bhi maan ne hum logon ke liye apni maan ke sone ke kante bechkar ghaDi kharidi. ” unhonne behichak aisa kaha.
is saal barish mein ghar ki chhat Dalni paDi thi, isliye maan ke sone ke kanten pahle hi bechne paDe the aur ye sochkar mujhe baDa dukh hua.
mainne chashme ke mote mote pavar vala shisha badal liya tha aur abhi tak vahi chal raha tha. frem badalne ki jagah main apni beti ke liye sochta hoon ki use sadi chhatri aur bete ke liye shuturmurg marke vala ek chhata lakar doon. ismen mujhe adhik dilchaspi thi. ye sochkar mainne bhojan samapt kar diya aur bahar paDi chilamchi mein haath dhoe.
“kya baat hai baDe bhai sahab, sabzi pasand nahin aai kyaa? aapne bahut kam khaya. ” ye bahan ka parashn tha aur uske anukul hi mainne sir hila diya. usse nazar bachakar yahan vahan dekhne laga.
tabhi maan bhojan karti karti boli—”kya baat hai? kya naipkin kho gaya hai? aaj mujhe bhi zyada fursat nahin mili. naipkin dhone mein kafi sabun ghista hai, isliye usne “sukhi hui lungi kahan hai?” ye baat kahi aur main maan ke chehre ko dobara paDhne mein lag gaya.
kampaunD ke ek kone mein khelte khelte achanak kuch yaad aaya aur jab main ghar dauDkar aaya to maan ghar ke samne ek khatiya par baith chuki thi. tel vale chamkile kaptan sigret tin ke Dibbe se paise nikal rahi maan ne almari se lohe ka ek plet achanak nikala aur chaval ka patila khol rahe mujhse kaha—
“are kature, tu khel mein itna magan ho gaya hai. jao tel ke khue mein tumhare liye pakauDe rakhe hain, main vapsi mein kharid lai thi. ”
meri maan sari subah das bise ke lagbhag tel ek khue aur safed Dibbon mein Dalkar ek mohalle se dusre mohalle mein ghumte hue becha karti thi. iske chalte uske sir ke baal par chandi ka rang aana shuru ho gaya tha. mathe ke uupar ke keshon, beech beech pasine ki chuhachuhati bunden jald pure chehre ko bhigoti chhoti chhoti naliyon ke roop mein bahne lagtin.
“jao jakar pakauDe le lo. ” maan ne kaha. wo das, paanch rupe aur ek rupe ke noton ko karine se ek dusre ke uupar rakh rahi hain. mainne tel ki tre mein se pakauDe utha liye aur bhojan ki plet mein Dalkar maan ke paas baith gaya. laal laal tamatron ko tel mein pakakar battakh ke anDon ki sabzi taiyar ki gai thi—usmen mili sabzi ke masalon ko main chavlon mein saan kar kha raha tha.
maan ne jo paise ikatthe karke joDe the, unmen se paanch rupe ke ek do not aur purane kuch not alag kar diye. baqi das aur paanch ke kuch noton ko gol kar mainne jis sigret ke tin ke Dibbe ka zikr kiya tha, jiska rang tel jaisa. . . . chamak raha tha vapas usmen Daal kar rakh diya.
“lo bhai, hamari phutkar bikri bhi koi khaas nahin hui aur udhaar lene valon ne bhi bahut le liya. ” ye kahkar khatiya ke sirhane se usne pitaji ki ek purani lungi se munh aur gardan se bahte apne pasine ki bundon ko saaf kiya. is drishya aur is avaz ko har roz sunne vala mere siva vahan aur kaun tha? subah hote hi, tre ka tre utha kar bazar mein bechne jane aur dopahar ke samay jab tez garmi mein sir se lekar pairon tak pasina bah raha hota, aise vaqt laut aane vali maan par mujhe baDa taras aata. sigret ke tin ke Dibbe mein rakhi apni muDhi ko nikalne ke baad jo laabh hua tha—vah sirf paanch rupe aur do rupe ke noton mein hi simat gaya tha. meri maan ko kitna kathor parishram karna paDta tha.
pasine mein Dubi apni uupar vali safed inji ko maan ne utaar phenka. uske baad lungi ko sine tak utha kar pahna aur niche pahni javari ko utarkar charpai ke sirhane ke khambe mein taang diya. lambe hainDal vala pankha lekar paas paDe lakDi ke gol tukDe ko kheench liya aur sirhane ke niche rakhkar puri tezi se apne aap par hava karne lagi. maan ne ankhen band kar rakhi theen, lekin lagta tha wo soi nahin. mainne bhojan karte hue kaha—“man, laabh to hua nahin, tu bina fayde ke itni zyada mehnat kyon karti hai? tu kyon tel bechna band nahin
karti?” maan ki band ki hui ankhen achanak khul gain.
“are kature, jab ye tel bikta hai, teri didi skool ja sakti hai. tum log achchhi tarah rah sako, iske liye main apne sir par sara bojh uthati hoon, mohalle mohalle ghoom kar tel bechti hoon. jante ho sara pratap isi tel ke khue ka hai. “maan ne puri vedna se ye baat kahi.
mainne kaha—”man, tu sada yahi kahti rahti hai ki ismen koi fayda nahin hua. ” mainne apni or se apni guhar maan ke samne rakhi. maan achanak uthkar baith gai aur dikhave ke liye halki si chapat banakar dhire dhire mujhe marte hue boli—“are ab to tujhe bahut bolne ki aadat ho gai hai. mohalle mein udhaar rah gaya hai aur tel ke teen mein tel bach gaya hai. inse hamein aur bhi paise milenge.
phir ghar ki sabzi ko battakh ke anDe ke saath tel mein pakaya gaya hai. ye tel bhi to usi kamai ka hissa hai. ” maan ye kahkar muskrane lagi. mainne ek haath mein bhojan ki plet ko thaam kar maan ke sine par apna sir rakh liya. maan ne sine se chipta kar mujhe pyaar kiya.
didi jo ab naunvin kaksha ki chhatra thi, use ghaDi chahiye thi. wo ghaDi ke liye zid kar rahi thi. paDos vali didi ne bhi teen chaar sau rupe vali ek ghaDi kharidi thi. unka parivar manDale ke nami girami bazar mein dusre mazduron ke saath mazdur ke taur par kaam karte the. jab didi ghaDi ke liye zid kar rahi thi to mujhe bahut duःkha ho raha tha. jis parivar ke sadasyon ko har roz maan ki musibten deekh rahi ho, sunai de rahi hon, unke liye teen sau rupe kahan se ayenge—yah sochkar main dukhi ho raha tha. unhin dinon mein monkha se koi chacha
aaye. ve sunar the. unse pita ne zikr kiya ki main baDi beti ko teen sau rupe vali ek ghaDi kharid kar dena chahta hoon. chacha ne unhen toka aur kaha—“ap kamal karte hain bhai sahab, aaj ke zamane mein jo log teen sau rupe ki ghaDi pahante hain ve to baDe gharib logon mein gine jate hain. ye do chaar dinon mein kharab hone vali ghaDi hoti hai. phir dusri ghaDi kharidni hoti hai. agar dobara na kharid sake to? isse baDhiya hai ki ek hi baar mein achchhi ghaDi kharid len. wo bahut lambe samay tak chalegi. ”
unki baat sunkar pita aur chacha ghar ke andar chale ge aur aapas mein khusar pusar karte rahe. didi jab skool se vapas lauti to wo chacha ki saikil ke pichhe baithkar bazar chali gai. wo jab lauti to apni kalai par nai ghaDi pahni hui thi. ye titoni ghaDi thi. chacha ne kaha tha ki iske sava saat sau rupe lagenge. uske baad chacha ne ek rasid aur kuch paise pitaji ko de diye.
“bhai sahab, pachchis rupe bach bhi ge hain. ” chacha ne ye baat kahi. unki baton se meri samajh mein kuch nahin aaya. mere liye aisi baten samajhna bahut kathin tha. main to ghaDi ke bare mein hairan aur avak tha.
us samay main athvin kaksha mein tha. shayad mere qadam javani ki or baDh rahe the. samne purab disha mein pitaji kaam kiya karte the. us ghar ka malik tel ke mil ka malik tha. uska beta kisi kaulej ka vidyarthi tha.
ek din jab main skool se laut raha tha to meri aur uski aamne samne mulaqat ho gai. wo apni kaar se kaulej jaya karta tha. aaj uski kaar ko kya hua, pata nahin. wo bas mein skool gaya tha. shayad bas se hi laut raha tha, tabhi uski mujhse bhent ho gai thi. hum log talna bazar ke paas mile the. us samay subah vali barish se mausam kafi thanDa ho gaya tha. usne jeens ki jaiket pahan rakhi thi. shart ka rang bhi usse mel kha raha tha. safed lungi ke uupar bhure rang ki Dizainon vala chhapa tha—yah shankhmarka lungi thi. usne chauDi chauDi sili gai kaip, jise barma mein nanroti kaip kahte hain, pahan rakhi thi. usne teen chaar kitaben thami theen. ho sakta hai skool ki hi pustken hon. dusre haath mein chauDe hainDal vali ek folDing chhatri thi.
mujhe uski nanroti vali kaip aur chauDi hainDal vali folDing chhatri kafi pasand aai thi. hamare ghar ke paas hi ek darzi ki dukan thi. mainne baDi pararthna karke kapDe ka ek tukDa usse liya aur atthaisvin gali mein topiyon ke stor mein naan roti kaip silne ko de diya. folDing vali chhatri ke liye mainne maan se bahut zid ki ki wo kharid kar de. jab kabhi maan bazar se tel bechkar lautti to wo bahut dukhi dikhti. uski baten hamesha mere kanon mein paDti theen.
iske bavjud meri ankhon se tel ke malik ka jo pahnava tha—vah nahin nikal raha tha. maan ne ye kaha ki agar chhatri leni hai to vahi chhatri kharido jo main kai salon se istemal karti aai hoon. chhote hainDal vali shuturmurg marka mahila chhatri. lekin main akarshit tha chauDe hainDal vali folDing chhatri se.
ek din theek aise samay barish hui, jab main skool jane ke liye ghar se nikal raha tha. dhimi dhimi barish ho rahi thi. mainne sir par bachav ke liye kuch bhi nahin liya aur skool jane laga.
“are chhatri le ja, barish mein kaise jayega?” maan ne pukar kar kaha.
“maan, tumhari chhatri koi folDing chhatri hai?” mainne uttar diya. us din na jane kyon, mujhe yaad nahin ki karan kya tha. us uttar ke baad maan tel bechne ke liye bahar nikal nahin pai. achanak maan ne apni shuturmurg marke vali chhatri li aur mera haath pakaDkar mujhe bazar le gai.
vahan dakshin chhor ki ek dukan se ek folDing chhatri kharidi gai. jab chhatri ke liye paise dene ki baat aai to maan ne apni inji ke andar vale pauket se plastik ka ek banDal nikala. kai baar moDkar baDi khasta haalat mein pahunche hue us banDal ko kholne par usmen se das rupe ke noton ki ek gaDDi nikli. usmen se ek ek kar maan ne ve not gine aur mere haath par rakh diye. kul barah not the. mainne anubhav kiya ki das rupe ke not maan ke tel vale hathon se baar baar ginne ke karan chikat ho ge the aur unmen se tel ki khushbu aa rahi thi. mujhe yaad aaya ki maan ke kaiptan sigret vala tin ka Dibba jab bhi khulta tha, us vaqt jo mahak hoti thi, vahi yahan bhi hai. ab jakar un das ke noton ko dukan ke malik ke haath par rakhte hue mujhe zara sa sankoch hone laga. bazar se laut kar pasine ponchhti aur vakshasthal tak lungi bandhe ghar ke samne ek chhoti si charpai par leti, tezi se pankha jhalti man—vah pura drishya meri ankhon ke samne tha. lekin dusri taraf mere haath mein ab folDing chhatri aa chuki thi. tabhi maan ki avaz ai—
“kya hai bete, kis soch mein paD ge? paise to pure hain na. . . de do. ” jab maan ne dobara puchha to mainne apne haath mein thame hue not dukandar ke haath mein rakh diye.
“lo bete, ab ye chhatri oDhkar sidha skool jao. ” ye kahkar nikal ke hainDal vali ek purani si chhatri apni baanh ke niche daba kar tante bazar ki atthaisvin gali ki or maan jab tak muD nahin gai main nai chhatri thame use dhyaan se dekhta raha.
us din didi ko saat sau rupe ki ghaDi aur mujhe sau rupe se adhik ki folDing chhatri kharid kar dene ke karan udhaar bahut chaDh gaya aur idhar bikri bhi achchhi nahin thi. is tarah hamesha kheej prakat karne vali maan ke bare mein mujhe mahsus hua ki use samajh nahin pa raha hoon. usne mujhe chhatri ke liye jo paise diye the, kaiptan sigret ke Dibbe se, shayad ab us Dibbe mein paise na hon, ye baat main sochne par mazbur ho gaya.
ek din pitaji ne mujhe adesh diya ki purabi kampaunD ke tel malik ke paas jao aur jal se unki puja karo, unse ashirvad lo. jab main unke paas ashirvad lene gaya to unki beti, jiska naam mamah tha, ne ek baDi si mez ke baghal rakhi tijori se pitaji ke liye vetan aur mere liye mithai khane ko paise nikalkar diye. tab mainne us tijori mein rakhi anaginat noton ki baDi baDi gaDDiyan pahli baar dekhin. tabhi mere dimagh mein ek baat baithi ki tel ke malik ko apni haisiyat ke anusar baDi si tijori mein rupyon ke banDal rakhne paDte hain. hamare ghar mein bhi beshak sir par tel ke kue rakhne vale ek teli ki haisiyat se pitaji jis lohe ke sanduq ko tala lagakar rakhte hain, usmen zarur noton ki gaDDiyan hongi. jis tarah tel ke malik ne lakhon rupe ikatthe kar rakhe hain, usi tarah sir par tel bechne vali maan ke paas bhi kam se kam hazaron rupe zarur honge. mainne jo hisab lagaya tha, usi hisab se main vichar karne laga. isliye kuch hi dinon mein tel mil ke malik ke yahan kaam karne vali mezar par udhaar ka jo khata tha, usmen pita ke naam do sau pachchis rupe likhe ge the.
mere jaise satvin kaksha ke vidyarthi ko chashma lagana paD gaya ho, uska chashme mein dilchaspi hona svabhavik hi hai. us din bhi ek mitr ke saath uske pita ki dukan par masti mein aurDar dene ke saath hi paise chukane ki samasya ki shuruat hui. mitr ka pita tirasivin gali vale bazar mein ek kamre ki dukan mein chashme bechta tha. vahan kai tarah ke chashme ke frem pradarshit the. aisa chashma, jiska naam main paDh nahin paya, uski or kafi akarshit hua tha. sadharan se frem ko niharte hue use main haath se niche nahin rakhna chahta tha. mainne jab shishe mein dekha to aisa laga ki ye mera hi pasandida frem hai. main usi frem ko lena chahta tha. meri nigahen usi par tik gai theen. mere bhavon ko dekhkar mitr ke pita ne kaha—
“haan, tum par bahut janchega. ye frem abhi abhi bahar se aaye hain. agar ye frem tumhein pasand hai to main tumhein kharide hue daam par hi de dunga. ” mainne uska daam puchha.
“sava do sau. ” jab mainne ye uttar suna to pitaji vala lohe ka sanduq dikhai dene laga, jismen hamesha tala lagaya hota hai. agar usmen rupe pure na bhi hon to pitaji ke bantok ke niche noton ki gaDDiyan ho sakti hain. tel ke malik ki tijori mein bhi noton ke banDal pure bhare hue the na? pitaji ke sanduq mein bhi kaun bata sakta hai ki vahan noton ki gaDDiyan nahin hongi. sanduq ko hamesha tala lagakar rakhne vali baat ne mere soch ko itminan mein badal diya tha. halke ke rang aur ghane kale tatha kali katar mein rakhe plastik ke chashme ke frem ko main ab haath se jane dena nahin chahta tha. isliye mainne kaha—“janab, hum yahi frem lenge, lekin aaj main paise nahin laya. kal main paise lekar auunga, ye mil jayega na?
dost ke pita ne meri peeth ko thokkar kaha—“are bhai, le jao, le jao. is maal ki qimat kafi hai. agar aaj tum nahin le jaoge to main kal ki koi garanti nahin de sakta ki ye bachega ya nahin, isliye le jao. ” unki aagya par mainne chashme ka wo frem le liya.
main jab ghar pahuncha to maan tel bechkar vapas lauti thi. bhojan karte hue mainne maan ko bataya ki main chashma udhaar le aaya hoon. mainne socha, maan abhi pita ke lohe ki sanduq ka tala kholkar noton ki gaDDi mein se do sau pachchis rupe mujhe de degi. ye sunte hi achanak maan apni chhati pitne lagi.
“yah kya gul khila rahe ho bete? hum logon ke paas paise kahan hain, jo hum tumhare chashme ki qimat chuka payen? are koi sauda hamse poochh kar to tay kiya karo. ab hum ye sava do sau rupe kahan se layenge? maan zor zor se chhati peet rahi thi.
“kya tumne koi paisa jama nahin kiya. ”
mainne jab ye saval kiya to maan ne rote hue uttar diya—“bete, tumko malum hai ki jo paise hamein milte hain unse khane ka pura kharcha nikalta bhi hai ya nahin, ye tumne kabhi puchha hai? rahi paise jama karne ki baat wo to bahut door ki baat hai. ”
maan apne dukh aur vedna se na jane kya kya bol rahi thee? jaise hi pitaji kaam se laute to maan ne shikayat se unka svagat kiya aur boli—“aj aapko tel ki jo raqam malik ko deni hai, wo nahin di ja sakegi. aap udhaar ke khate mein apna naam chaDha lijiye aur apne malik se bata dijiye. aapka beta ek qimti chashma udhaar lekar aaya hai aur sava do sau rupe qimat bata raha hai. ”
jaise hi maan ne ye baat batai, pitaji ka munh utar gaya. unhonne krodh se mujhe ghoor kar dekha. wo bahut kam baat karne ke aadi the. unke dvara krodh mein liya gaya chatkara baDi baDi aur moti moti galiyon se zyada bhari aur bhayankar tha. main kuch kahne ja raha tha, lekin beech mein rok diya. mainne beech mein hi bhojan samapt kar diya aur plet dhone ke baad haath dhoye. jab naipkin khoja to phate purane aur maile kuchaile kapDe ke kuch tukDe hi mile.
uske baad jab main maan ki tre ko dekhne gaya to mujhe pile rang vale Dibbe ka kachhue ka Dhakkan vahan dikhai diya. saath hi rupahli chamak vala kaiptan sigret ki tin ka Dhakkan aur paas hi ek saaf suthra rumal mila—jise achchhi tarah tahakar rakha gaya tha. mainne wo rumal uthaya usse apne haath ponchhe aur jaise wo tahakar rakha gaya tha, usi tarah rakh kar chupchap vapas chal diya.
abhi jo leDiz vaach mainne Daal rakhi hai, iski qimat nau hazar rupe hain. ” jab ye baat kahi gai to mere bete aur betiyan hansne lage.
“yah ghaDi tumhare pita ko tumhari aanti se mili thi. jab tumhari aanti ne ghaDi lene ki zid ki to tumhari dadi ko khandani kes mein rakhi sone ki kanghi bechkar wo ghaDi kharid di thi. wo kanghi ek tikkal ki thi. us zamane mein sone ki ek tikkal ki qimat saDhe saat sau rupe hua karti thi. ab sone ki ek tikkal ki qimat das hazar rupe hai. isliye meri ghaDi kam se kam nau hazar rupe ki to hogi. ” bhojan se haath rokkar jab pita ne ye samjhaya tab bete aur beti ne kaha—
“iska matlab hai ki ab bhi maan ne hum logon ke liye apni maan ke sone ke kante bechkar ghaDi kharidi. ” unhonne behichak aisa kaha.
is saal barish mein ghar ki chhat Dalni paDi thi, isliye maan ke sone ke kanten pahle hi bechne paDe the aur ye sochkar mujhe baDa dukh hua.
mainne chashme ke mote mote pavar vala shisha badal liya tha aur abhi tak vahi chal raha tha. frem badalne ki jagah main apni beti ke liye sochta hoon ki use sadi chhatri aur bete ke liye shuturmurg marke vala ek chhata lakar doon. ismen mujhe adhik dilchaspi thi. ye sochkar mainne bhojan samapt kar diya aur bahar paDi chilamchi mein haath dhoe.
“kya baat hai baDe bhai sahab, sabzi pasand nahin aai kyaa? aapne bahut kam khaya. ” ye bahan ka parashn tha aur uske anukul hi mainne sir hila diya. usse nazar bachakar yahan vahan dekhne laga.
tabhi maan bhojan karti karti boli—”kya baat hai? kya naipkin kho gaya hai? aaj mujhe bhi zyada fursat nahin mili. naipkin dhone mein kafi sabun ghista hai, isliye usne “sukhi hui lungi kahan hai?” ye baat kahi aur main maan ke chehre ko dobara paDhne mein lag gaya.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 321)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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