रईस व्यापारी मि० स्मिथ ने होटल की शानदार लिफ़्ट का दरवाज़ा खोला और निहायत प्यारे-भरे अंदाज़ के साथ फर और पाउडर में लिपटी, महकती सुंदरी को एहतियात से भीतर खींच लिया। गुदगुदी और मुलायम सीट पर दोनों आपस में लिपट गए। लिफ़्ट नीचे की ओर चल पड़ी। अपना भाप और शराब से भीगा अधखुला मुँह लड़की ने आगे कर दिया और एक ने दूसरे का चुंबन लिया। खुली छत पर, तारोंभरी छाँह में, अभी-अभी दोनों ने रात का खाना साथ-साथ खाया था और अब मनोविनोद और मनोरंजन करने के लिए बाहर निकल रहे थे।
“सुनो, ऊपर कैसा अच्छा लगा था! मानो साक्षात् स्वर्ग में बैठे हों!” होंठों-ही-होंठों में फुसफुसाकर स्त्री ने कहा, “तुम्हारे साथ बैठकर आसपास का सब-कुछ ऐसा रोमानी और कवित्वपूर्ण लगता था, मानो हम लोग धरती के जीव नहीं, आसमान के तारे हों!...प्यार किसे कहते हैं, सचमुच इसका अनुभव ऐसे क्षणों में ही तो होता है। तुम मुझे प्यार करते हो…क्यों करते हो न?”
मि० स्मिथ ने उसकी इस बात का जवाब पहले से भी अधिक प्रगाढ़ और लंबे चुंबन से दिया। लिफ़्ट नीचे आ रही थी।
“डार्लिंग, तुम आ गईं, यह बहुत ही अच्छा किया,” मि० स्मिथ बोले, “वरना तुम जानती हो, मेरा मन कितना ख़राब हो जाता।”
“सो तो ठीक है। लेकिन ज़रा इस बात की भी तो कल्पना करो कि वह आदमी कितना ढीठ और ज़िद्दी है। आने के लिए मैंने जैसे ही तैयारी शुरू की कि आप पूछते हैं, कहाँ चल दीं। मैने भी कह दिया, जहाँ मन होगा, वहाँ जाऊँगी, किसी की दबैल हूँ क्या? मेरी इस बात पर, जब तक मैं कपड़े बदलती और नया ऊनी शाल पहनती रही, वह बैठा-बैठा ढिठाई से मुझे घूरता ही रहा। अच्छा तो बताओ, यह बिना रंगा-धुला ऊनी शाल मुझ पर कैसा लगता है? तुम्हें कैसे रंग का कपड़ा सबसे ज़्यादा अच्छा लगता है? गुलाबी ही लगता होगा, है न?”
“तुम्हारे ऊपर तो सब कुछ खिल उठता है, डार्लिंग!” पुरुष ने कहा, “लेकिन आज की रात तो तुम दिल पर बिजलियाँ गिरा रही हो, बिजलियाँ!”
आत्मतुष्ट मुस्कान के साथ उसने अपना फर वाला कोट खोल डाला। देर तक फिर दोनों एक-दूसरे को चूमते रहे। लिफ़्ट नीचे की ओर चलती रही।
“फिर जैसे ही मैं निकलने को तैयार हुई कि उसने बिना कुछ बोले-चाले मेरा हाथ पकड़कर ऐसे ज़ोर से ऐंठ दिया कि अभी तक दर्द हो रहा है। तुम सोच नहीं सकते, कैसे उजड्ड और जंगली आदमी से मेरा पाला पड़ा है। मैंने कहा, अच्छा चलती हूँ। लेकिन उस बंदे के मुँह से बोल नहीं फूटा। ऐसा भयानक ज़िद्दी और हठीला आदमी है कि डर लगता है। मुझसे अब नहीं सहा जाता।”
“उफ़!” हमदर्दी से मि० स्मिथ ने कहा।
“मानो ज़रा-सा बाहर निकलकर मन बहलाना भी मेरे भाग्य में नहीं है। फिर वह ऐसा घुन्ना और चुप्पा आदमी है कि तुम सोच नहीं सकते। किसी बात को सहज और स्वाभाविक रूप में लेना तो उसने सीखा ही नहीं, मानो हमेशा उसके सामने ज़िंदगी और मौत का सवाल बना रहता हो।”
“हाय, तुम्हें कितनी मुसीबतें उठानी पड़ी होंगी!”
“उफ़! मैंने भयंकर तकलीफ़ें सही हैं, भयंकर! जितना मैंने सहा है, क्या किसी ने सहा होगा! प्यार क्या होता है, यह तो तुमसे मुलाक़ात होने से पहले मैं जानती ही नहीं थी।”
“दिलरुबा!” उसे बाँहों में भरकर मि० स्मिथ बोले। लिफ़्ट नीचे चलती रही।
“मेरे उस सुख की कल्पना करो,” आलिंगन के बाद जैसे ही साँस आई, वह बोली, “तारों को ताकते हुए यों तुम्हारे साथ ऊपर बैठना और सपनों की दुनिया में खो-खो जाना...हाय! मैं इस क्षण को कभी नहीं भूलूँगी। देखो, बात यह है आर्विड के साथ मेरा निर्वाह अब नामुमकिन है। हमेशा ऐसा मनहूस और बुजुर्ग जैसा बना रहता है कि बस! कविता तो उसे छू नहीं गई है। उसे कविता-वविता से वैसे भी कोई लगाव नहीं है।”
“इस सबको सह पाना तो सचमुच असंभव है, डार्लिंग!”
“हाँ, असहनीय है!...लेकिन,” मुस्कराकर अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाकर स्त्री ने अपनी बात कही, “लेकिन यहाँ बैठकर अब उस सब पर माथापच्ची क्यों करें? हम लोग मनोरंजन के लिए निकले हैं। तुम सचमुच मुझे प्यार करते हो न?”
‘‘हाँ-हाँ, इसमें भी कोई शक है?” पुरुष बोला और उसे कमर से पकड़कर पीछे झुका दिया। स्त्री का मुँह खुल गया। लिफ़्ट नीचे चलती रही। उसके ऊपर झुककर पुरुष ने उसे प्यार से गुदगुदा दिया। स्त्री लजाकर लाल हो गई।
“आज की रात, आओ, हम लोग ऐसा प्यार करें, ऐसा प्यार करें कि आज तक कभी न किया हो! हुम्!” फुसफुसाकर वह बोला।
स्त्री ने उसे अपने शरीर से चिपका लिया और आँखें मूँद लीं। लिफ़्ट नीचे चलती रही।
“मगर आज इस लिफ़्ट को क्या हो गया है?” घबराकर वह बोले, “यह रुकती क्यों नहीं है? जाने कब से बैठे-बैठे हम लोग इसमें बातें कर रहे हैं! क्यों, है न”
“हाँ, प्रियतम, मुझे भी लगता है कि हम लोग काफ़ी देर से बैठे हैं। समय भी तो हवा की तरह उड़ता है।”
“या ख़ुदा! हमें इसमें बैठे युगों हो गए। आख़िर इसका मतलब क्या है?”
उसने सीखचों के पार देखने की कोशिश की। अँधेरे-घुप के सिवा कुछ नहीं था। और लिफ़्ट थी कि अपनी दृढ़, एकरस गति से गहरी और गहरी उतरती चली जा रही थी।
“हाय भगवान्! यह क्या हुआ? मानो किसी गड्ढे में उतरते चले जा रहे हों। ख़ुदा जाने कितनी देर से इस तरह उतरते चले जा रहे हैं। अब क्या होगा?”
उन्होंने नीचे, तले के गड्ढे की ओर झाँकने की भी कोशिश की। वहाँ भी घटाटोप अंधकार था, और वे लोग उसमें डूबते चले जा रहे थे।
“लगता है, अब तो यह नरक में जाकर ही दम लेगी।” स्मिथ बोले।
“हाय राम!” उसकी बाँह पकड़कर स्त्री बिसूरने लगी, “मेरे तो हाथ-पाँव फूल गए हैं। रोकने के लिए इमरजेंसी ब्रेक खींचो न!”
अपने शरीर की सारी ताक़त लगाकार स्मिथ ने ब्रेक खींचा। कोई लाभ नहीं हुआ। लिफ़्ट अनवरत रूप से नीचे उतरती रही।
“उफ़! यह क्या हुआ?” वह रो पड़ी, “अब हम क्या करें?”
“हाँ, ऐसे में कोई कमबख़्त करे भी तो क्या?” स्मिथ बोले, “अजीब आफ़त है!”
लड़की बहुत ही हताश हो उठी और फूट-फूटकर रोने लगी।
“बस-बस, मेरी जान! अब रोओ मत! हम लोगों को होश से काम लेना चाहिए। इसमें हम लोगों का बस भी आख़िर क्या है! अब बस करो, आओ बैठो। यों! ऐसे! हाँ, अब हम दोनों यहाँ चुपचाप पास-पास बैठकर देखें कि आगे क्या होता है। कभी न कभी तो यह रुकेगी ही, और न रुके तो जाए भाड़ में!”
वे लोग बैठकर प्रतीक्षा करने लगे।
“कभी किसी ने सोचा था कि ऐसा हो जाएगा?” स्त्री बोली, “हम लोग मज़े उड़ाने के लिए निकले थे!”
“हाँ, उसी कमबख़्ती के मारे तो हम निकले थे!” स्मिथ ने जवाब दिया।
“तुम मुझे बहुत-बहुत प्यार करते हो, क्यों करते हो न?”
“डार्लिंग!” स्मिथ ने उसे अपनी बाँहों में कसकर कहा। लिफ़्ट नीचे उतरती रही। आख़िर अचानक झटके से लिफ़्ट रुक गई। चारों तरफ़ ऐसी तेज़ रोशनी थी कि आँखों में चुभती थी। अब वे लोग नरक में आ गए थे। शैतान ने बाअदब लिफ़्ट का छड़ोंवाला दरवाज़ा एक तरफ़ सरका दिया।
'नमस्कार!” शैतान ने बहुत ही झुककर साभिवादन कहा। उसने अपनी पूँछ को बड़े फ़ैशनबल तरीक़े से सजा रखा था। एक जंग लगी कील के सहारे पूँछ का बालोंवाला झब्बा रीढ़ के ऊपर गर्दन के पास झूम रहा था।
मि० स्मिथ और वह स्त्री दोनों लड़खड़ाते-से चौंधे में निकल आए। उन अजीब-अजीब छायाओं से दहलकर उसके मुँह से निकल पड़ा, “या ख़ुदा, यह हम लोग कहाँ आ गए!”
परिताप के प्रतिबिंब शैतान ने उन्हें स्थिति समझाई।
“ ‘नरक’ शब्द सुनकर जैसा कुछ लगता है, उतना बुरा यह नहीं है,” शैतान बोला। साथ ही कहा, “मुझे उम्मीद है, आपका समय यहाँ आनंद में ही बीतेगा। मेरा ख़्याल है, आप एक रात ही तो रहेंगे यहाँ?”
“जी हाँ, जी हाँ!” स्मिथ ने आतुरता से हामी भरी, “जी हाँ, सिर्फ़ एक ही रात के लिए चाहिए! इससे ज़्यादा हम लोग यहाँ नहीं रुक सकेंगे। जी, नहीं।”
थरथर काँपती हुई लड़की ने उसकी बाँह भींच रखी थी। रोशनी कुछ ऐसी रक्त-शोषी और पीली-हरी थी कि पहले तो उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं दिया। उन्हें लगा कि गरम-गरम गंध आसपास भरी है। जब उनकी आँखें इस रोशनी की कुछ और अभ्यस्त हो गईं, तो उन्होंने देखा वे लोग जहाँ खड़े हैं, वह जगह चौकनुमा है। इसके चारों ओर रोशन दरवाज़ों वाले मकान अँधेरे में तने खड़े हैं। दरवाज़ों पर पर्दे पड़े हुए थे, लेकिन उन्होंने दरारों से देखा कि भीतर कुछ लोबान जैसा जल रहा है।
शैतान ने पूछा, “एक-दूसरे को बहुत प्यार करने वाले आप ही लोग हैं न?”
अपने मद-भरे नयनों के कटाक्ष के साथ स्त्री ने जवाब दिया, “जी हाँ, हम लोग बुरी तरह एक-दूसरे को प्यार करते हैं।”
“तो आप इस तरफ़ चलिए,” वह बोला, “मेहरबानी करके मेरे पीछे-पीछे चले आइए।” वे लोग झेंपे-झेंपे से बगल वाली अँधेरी गली से होकर चल दिए। यह गली इस चौक से बाहर जाती थी। एक पुरानी-धुरानी-सी लालटेन गंदे-चीकट दरवाज़े पर लटकी थी।
“इसी जगह,” शैतान ने दरवाज़ा खोला और बड़े अदब के साथ लौट गया।
उन्होंने भीतर प्रवेश किया। एक नई, मोटी और ख़ुशामदी क़िस्म की चुड़ैल ने उनका स्वागत किया। उसके स्तन बहुत बड़े-बड़े थे और उसके मुँह के चारों ओर मूँछों पर पाउडर के थक्के जमे हुए थे। वह हीं-हीं करती मुस्कुरा रही थी। उसकी मटर जैसी आँखों में मिलनसारी और परिचय का भाव था। अपने माथे के सींगों के चारों ओर उसने अपनी गुँथी हुई चोटियों की लटें लपेट रखी थीं और उन्हें नीले-नीले रेशमी फ़ीतों से बाँध रखा था।
“अरे, आप ही मि० स्मिथ और वह लड़की हैं न?” वह बोली, “अब आप आठ नंबर में जाएँ।” उसने उन्हें एक बड़ी-सी चाबी पकड़ा दी।
वे अँधेरी और चीकट सीढ़ियों से ऊपर जाने लगे। सीढ़ियाँ चिकनाई के कारण फिसलनी हो रही थीं। ऊपर दो रोशनियाँ जल रही थीं। स्मिथ ने नंबर आठ कमरा खोला। भीतर प्रवेश किया। कमरा काफ़ी बड़ा और दुर्गंध से भरा था। बीचोबीच एक गंदे कपड़े वाली मेज़ रखी थी। दीवार के सहारे पलंग पड़ा था। उसकी चादर की सलवटें सावधानी से निकाली गई थीं। उन्हें लगा, यह जगह तो बहुत ही अच्छी है। अपने-अपने कोट उन्होंने उतारे और देर तक आपस में एक-दूसरे को चूमते रहे।
तभी दूसरे दरवाज़े से एक व्यक्ति ने बड़े विनीत भाव में प्रवेश किया। कपड़े उसने वेटर जैसे पहन रखे थे, लेकिन उसकी डिनर-जाकेट बड़ी ख़ूबसूरत सिली थी। उसकी क़मीज़ का सामने वाला हिस्सा इतना साफ़ था कि उस धुँधलके में प्रेत की तरह चमक रहा था। उसका चलना बहुत निःशब्द और आहिस्ता था, क़दमों से कोई आवाज़ नहीं होती थी और उसकी हर हरकत मशीनी और ऐसी नपी-तुली थी, मानो उसे दीन-दुनिया की कोई ख़बर न हो; चेहरे के नक़्श सख़्त थे और आँखें एकटक अविचल भाव से सामने ही देखती थीं। उसके चेहरे पर मौत की सफ़ेदी छाई थी और उसकी एक कनपटी पर गोली का घाव था। उसने कमरे को क़रीने से ठीक किया, शृंगार-मेज़ को पोंछा, फिर कमरा साफ़ करने वाली झाड़ और मूत्रदान लाकर भीतर रख दिए।
इन लोगों ने उसकी तरफ़ कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया, लेकिन जैसे ही वह जाने लगा, स्मिथ बोले, “मैं समझता हूँ, हम लोगों को कुछ शराब की ज़रूरत पड़ेगी। हमें आधी बोतल मदिरा दे जाना।”
आदमी शिष्टता से झुका और बाहर ग़ायब हो गया। स्मिथ ने अपने कपड़े उतारने शुरू कर दिए। स्त्री झिझक रही थी।
“वह वापस आएगा न, अभी।” स्त्री बोली।
“उँह, ऐसी जगहों में इन बातों का ध्यान नहीं दिया जाता। बस, उतार डालो अपने कपड़े-वपड़े!”
स्त्री ने अपने कपड़े अलग किए, खींचकर पतलून उतारी और बड़े नख़रे के साथ पुरुष की गोद में आ बैठी। उसे बड़ा आनंद आ रहा था।
पुरुष “ज़रा कल्पना करो,” वह फुसफुसाकर बोली, “केवल हम और तुम, यह एकांत, इस विलक्षण, रूमानी जगह पर हमारा-तुम्हारा यों बैठना...सचमुच, यह सब इतना मादक और कवित्वपूर्ण है कि मैं कभी भी नहीं भूल पाऊँगी।”
पुरुष बोला, “मेरी जान!”
और देर तक उनका चुंबन चलता रहा।
बिना कोई शब्द किए उस व्यक्ति ने फिर प्रवेश किया। बड़े आहिस्ते और मशीनी ढंग से उसने गिलास रखे और उनमें शराब डाल दी। लैंप की रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। उसमें ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी हाँ, उसके चेहरे पर मौत की सफ़ेदी थी और एक कनपटी पर गोली का घाव था।
अचानक एक चीख़ मारकर स्त्री उछल पड़ी।
“हाय, मेरे राम! आर्विड, तुम हो? यह तुम्हीं हो न? हाय राम रे, यह तो मर गया! इसने अपने को गोली मार ली।”
वह व्यक्ति सिर्फ़ अपने सामने की ओर ताकता हुआ बिना हिले-डुले खड़ा रहा। उसके चेहरे पर कोई व्यथा और वेदना नहीं दिखाई देती थी, बस वह वैसा ही सख़्त और संजीदा था।
“लेकिन आर्विड, यह तुमने क्या कर डाला? क्या कर डाला यह तुमने? प्यारे आर्विड! अगर मुझे ज़रा भी इस तरह का शक होता, तो तुम्हें पता है, मैं घर पर ही रह जाती। लेकिन तुम तो मुझे कुछ बताते ही नहीं। तुम इस बारे में भी मुझसे एक शब्द नहीं बोले। जब तुम्हीं ने नहीं बताया तो मैं आख़िर समझती भी कैसे!”
उसका सारा शरीर थर-थर काँप रहा था। उस व्यक्ति ने स्त्री की तरफ़ इस तरह देखा, जैसे पहचानता ही न हो। उसकी निगाहें जड़, सर्द और उदास थीं। लगता था, जैसे हर चीज़ के आरपार सीधी चली जाती हों। उसका हल्दिया चेहरा अँधेरे में भी झलक रहा था। घाव से ख़ून की एक बूँद नहीं निकल रही थी, सिर्फ़ एक छेद-भर था।
“उफ़, भयानक! भयानक!” वह रोने लगी, “मैं यहाँ नहीं रहूँगी। चलो, हम लोग इसी क्षण चलते हैं। मुझसे नहीं सहा जा रहा।”
उसने अपना फर का कोट, हैट और कपड़े झटपट हाथों में दबोचे और बाहर लपकी। पीछे-पीछे स्मिथ थे। नीचे वही मूँछों वाली चुड़ैल खड़ी-खड़ी उसी मिलनसारी और परिचय के भाव से मुस्कुराती हुई अपने सींग ऊपर-नीचे हिला रही थी।
सड़क पर बाहर आकर उन्होंने कुछ चैन की साँस लीं। अब स्त्री ने कपड़े पहने, कमर सीधी की और चेहरा-मोहरा दुरुस्त किया। वे लोग चौक में आ गए।
प्रमुख शैतान वहीं टहल रहा था। वे लोग दौड़कर फिर उसके पास पहुँचे।
“आप लोगों ने बड़ी जल्दबाज़ी की,” वह बोला, “आशा है, सुख से कटी?”
“उफ़, भयानक जगह थी।” स्त्री ने कहा।
“नहीं-नहीं, ऐसा मत बोलिए। आप ऐसा नहीं मान सकते। अगर पुराने ज़माने में आप लोग यहाँ आए होते तब तो बात ज़रूर जरा अलग थी। अब तो नरक में शिकायत करने लायक़ कोई बात ही नहीं रह गई है। ज़्यादा क्या कहूँ, लेकिन जो कुछ हमसे बन पड़ता है, इसे आरामदेह और आमोदप्रद बनाने में हम लोग कुछ कसर नहीं उठा रखते। पहले बात एकदम उलटी थी।”
“जी हाँ,” मि० स्मिथ बोले, “आपकी यह बात तो ठीक है। जैसा भी कुछ है, इस सबमें पहले से ज़्यादा इंसानियत है।”
“जी हाँ,” शैतान बोला, “हमने तो अब सब चीज़ों को नए सिरे से आधुनिक बना डाला है। जो चीज़ जैसी होनी चाहिए, उसको भरसक ठीक कर दिया है।”
“बिलकुल सही। आदमी को समय के साथ तो चलना ही पड़ता है।”
“जी हाँ, आजकल तो जो भी थोड़ी-बहुत यंत्रणा मिलती है वह सिर्फ़ आत्मा को ही मिलती है।”
“इसे भी भगवान् की कृपा ही समझो।” स्त्री बोली।
शैतान उन्हें विनीत भाव से लिफ़्ट तक ले आया।
“नमस्कार!” उसने बहुत नीचे झुककर कहा, “फिर पधारिएगा।” और उनके पीछे-पीछे उसने छड़ोंवाला दरवाज़ा खींच दिया। लिफ़्ट ऊपर चल पड़ी।
“ख़ुदा का शुक्र! पीछा छूटा उस सबसे।” कहकर लिफ़्ट पर आपस में लिपटकर दोनों ने सुख और संतोष की साँस छोड़ी।
“अगर तुम न होते तो इस जगह से मैं ज़िंदा बचकर नहीं निकल पाती।” स्त्री ने बुदबुदाकर कहा। पुरुष ने उसे खींचकर अपने से सटा लिया। देर तक उनका चुंबन चलता रहा। आलिंगन के बाद जब उसकी साँस वापस आई तो बोली, “ख़याल तो करो, उस कमबख़्त ने यह कर क्या डाला! लेकिन उसके दिमाग़ में हमेशा से ही ऐसी ख़ुराफ़ातें भरी थीं। कभी किसी बात को उसके सही रूप में, सहज और स्वाभाविक ढंग से लेना, उसने सीखा ही नहीं; हर वक़्त जैसे उसके सामने ज़िंदगी और मौत का सवाल बना रहता हो।”
“सब बकवास है।” स्मिथ बोले।
“कम से कम वह मुझे तो बता ही देता। तब तो मैं रुक भी जाती। आज के बजाय हम लोग किसी और रात को चले चलते।”
“हाँ-हाँ, और क्या?” स्मिथ ने कहा, “और क्या, हम लोग कभी और चले चलते।”
“ख़ैर, छोड़ो भी। अब बैठे-बैठे उस पर सिर भी क्या खपाना?” पुरुष के गले में बाँह डालकर उसने फुसफुसाकर कहा, “अब तो जो होना था, सब हो ही गया।”
“हाँ डार्लिंग, अब तो सब हो ही चुका।” पुरुष ने उसे अपनी बाँहों में जकड़ लिया। लिफ़्ट ऊपर चढ़ती रही।
rais vyapari mi० smith ne hotel ki shanadar lift ka darvaza khola aur nihayat pyare bhare andaz ke saath faar aur pauDar mein lipti, mahakti sundari ko ehtiyat se bhitar kheench liya. gudgudi aur mulayam seat par donon aapas mein lipat gaye. lift niche ki or chal paDi. apna bhaap aur sharab se bhiga adhakhula munh laDki ne aage kar diya aur ek ne dusre ka chumban liya. khuli chhat par, tarombhri chhaanh mein, abhi abhi donon ne raat ka khana saath saath khaya tha aur ab manovinod aur manoranjan karne ke liye bahar nikal rahe the.
“suno, upar kaisa achchha laga tha! mano sakshat svarg mein baithe hon!” honthon hi honthon mein phusaphusakar istri ne kaha, “tumhare saath baithkar asapas ka sab kuch aisa romani aur kavitvpurn lagta tha, mano hum log dharti ke jeev nahin, asman ke tare hon!. . . pyaar kise kahte hain, sachmuch iska anubhav aise kshnon mein hi to hota hai. tum mujhe pyaar karte ho…kyon karte ho n?”
mi० smith ne uski is baat ka javab pahle se bhi adhik pragaDh aur lambe chumban se diya. lift niche aa rahi thi.
“Darling, tum aa gain, ye bahut hi achchha kiya,” mi० smith bole, “varna tum janti ho, mera man kitna kharab ho jata. ”
“so to theek hai. lekin zara is baat ki bhi to kalpana karo ki wo adami kitna Dheeth aur ziddi hai. aane ke liye mainne jaise hi taiyari shuru ki ki aap puchhte hain, kahan chal deen. maine bhi kah diya, jahan man hoga, vahan jaungi, kisi ki dabail hoon kyaa? meri is baat par, jab tak main kapDe badalti aur naya uni shaal pahanti rahi, wo baitha baitha Dhithai se mujhe ghurta hi raha. achchha to batao, ye bina ranga dhula uni shaal mujh par kaisa lagta hai? tumhein kaise rang ka kapDa sabse zyada achchha lagta hai? gulabi hi lagta hoga, hai n?”
“tumhare upar to sab kuch khil uthta hai, Darling!” purush ne kaha, “lekin aaj ki raat to tum dil par bijliyan gira rahi ho, bijliyan!”
atmtusht muskan ke saath usne apna faar vala coat khol Dala. der tak phir donon ek dusre ko chumte rahe. lift niche ki or chalti rahi.
“phir jaise hi main nikalne ko taiyar hui ki usne bina kuch bole chale mera haath pakaDkar aise zor se ainth diya ki abhi tak dard ho raha hai. tum soch nahin sakte, kaise ujaDD aur jangali adami se mera pala paDa hai. mainne kaha, achchha chalti hoon. lekin us bande ke munh se bol nahin phuta. aisa bhayanak ziddi aur hathila adami hai ki Dar lagta hai. mujhse ab nahin saha jata. ”
“uf!” hamdardi se mi० smith ne kaha.
“mano zara sa bahar nikalkar man bahlana bhi mere bhagya mein nahin hai. phir wo aisa ghunna aur chuppa adami hai ki tum soch nahin sakte. kisi baat ko sahj aur svabhavik roop mein lena to usne sikha hi nahin, mano hamesha uske samne zindagi aur maut ka saval bana rahta ho. ”
“uf! mainne bhayankar taklifen sahi hain, bhayankar! jitna mainne saha hai, kya kisi ne saha hoga! pyaar kya hota hai, ye to tumse mulaqat hone se pahle main janti hi nahin thi. ”
“dilruba!” use banhon mein bharkar mi० smith bole. lift niche chalti rahi.
“mere us sukh ki kalpana karo,” alingan ke baad jaise hi saans i, wo boli, “taron ko takte hue yon tumhare saath upar baithna aur sapnon ki duniya mein kho kho jana. . . haay! main is kshan ko kabhi nahin bhulungi. dekho, baat ye hai arviD ke saath mera nirvah ab namumkin hai. hamesha aisa manhus aur bujurg jaisa bana rahta hai ki bus! kavita to use chhu nahin gai hai. use kavita vavita se vaise bhi koi lagav nahin hai. ”
“is sabko sah pana to sachmuch asambhau hai, Darling!”
“haan, asahniy hai!. . . lekin,” muskrakar apna haath uski or baDhakar istri ne apni baat kahi, “lekin yahan baithkar ab us sab par mathapachchi kyon karen? hum log manoranjan ke liye nikle hain. tum sachmuch mujhe pyaar karte ho n?”
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istri ne use apne sharir se chipka liya aur ankhen moond leen. lift niche chalti rahi.
lift niche aur niche utarti chali ja rahi thi.
akhir mi० smith uth khaDe hue; chehre par havaiyan uDne lagin.
“magar aaj is lift ko kya ho gaya hai?” ghabrakar wo bole, “yah rukti kyon nahin hai? jane kab se baithe baithe hum log ismen baten kar rahe hain! kyon, hai n”
“haan, priytam, mujhe bhi lagta hai ki hum log kafi der se baithe hain. samay bhi to hava ki tarah uDta hai. ”
“ya khuda! hamein ismen baithe yugon ho gaye. akhir iska matlab kya hai?”
usne sikhchon ke paar dekhne ki koshish ki. andhere ghup ke siva kuch nahin tha. aur lift thi ki apni driDh, ekras gati se gahri aur gahri utarti chali ja rahi thi.
“haay bhagvan! ye kya hua? mano kisi gaDDhe mein utarte chale ja rahe hon. khuda jane kitni der se is tarah utarte chale ja rahe hain. ab kya hoga?”
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“uf! ye kya hua?” wo ro paDi, “ab hum kya karen?”
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“bus bus, meri jaan! ab rovo mat! hum logon ko hosh se kaam lena chahiye. ismen hum logon ka bus bhi akhir kya hai! ab bus karo, aao baitho. yon! aise! haan, ab hum donon yahan chupchap paas paas baithkar dekhen ki aage kya hota hai. kabhi na kabhi to ye rukegi hi, aur na ruke to jaye bhaaD men!”
ve log baithkar pratiksha karne lage.
“kabhi kisi ne socha tha ki aisa ho jayega?” istri boli, “ham log maze uDane ke liye nikle the!”
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namaskar!” shaitan ne bahut hi jhukkar sabhivadan kaha. usne apni poonchh ko baDe faishanbal tariqe se saja rakha tha. ek jang lagi keel ke sahare poonchh ka balonvala jhabba reeDh ke upar gardan ke paas jhoom raha tha.
mi० smith aur wo istri donon laDkhaDate se chaundhe mein nikal aaye. un ajib ajib chhayaon se dahalkar uske munh se nikal paDa, “ya khuda, ye hum log kahan aa gaye!”
paritap ke pratibimb shaitan ne unhen sthiti samjhai.
“ ‘narak’ shabd sunkar jaisa kuch lagta hai, utna bura ye nahin hai,” shaitan bola. saath hi kaha, “mujhe ummid hai, aapka samay yahan anand mein hi bitega. mera khyaal hai, aap ek raat hi to rahenge yahan?”
“ji haan, ji haan!” smith ne aturta se hami bhari, “ji haan, sirf ek hi raat ke liye chahiye! isse zyada hum log yahan nahin ruk sakenge. ji, nahin. ”
tharthar kanpti hui laDki ne uski baanh bheench rakhi thi. roshni kuch aisi rakt shoshai aur pili hari thi ki pahle to unhen kuch dikhai hi nahin diya. unhen laga ki garam garam gandh asapas bhari hai. jab unki ankhen is roshni ki kuch aur abhyast ho gain, to unhonne dekha ve log jahan khaDe hain, wo jagah chaukanuma hai. iske charon or roshan darvazon vale makan andhere mein tane khaDe hain. darvazon par parde paDe hue the, lekin unhonne dararon se dekha ki bhitar kuch loban jaisa jal raha hai.
shaitan ne puchha, “ek dusre ko bahut pyaar karne vale aap hi log hain n?”
apne mad bhare naynon ke kataksh ke saath istri ne javab diya, “ji haan, hum log buri tarah ek dusre ko pyaar karte hain. ”
“to aap is taraf chaliye,” wo bola, “mehrbani karke mere pichhe pichhe chale aiye. ” ve log jhempe jhempe se bagal vali andheri gali se hokar chal diye. ye gali is chauk se bahar jati thi. ek purani dhurani si lalten gande chikat darvaze par latki thi.
“isi jagah,” shaitan ne darvaza khola aur baDe adab ke saath laut gaya.
unhonne bhitar pravesh kiya. ek nai, moti aur khushamadi qim ki chuDail ne unka svagat kiya. uske stan bahut baDe baDe the aur uske munh ke charon or munchhon par pauDar ke thakke jame hue the. wo heen heen karti muskura rahi thi. uski matar jaisi ankhon mein milansari aur parichai ka bhaav tha. apne mathe ke singon ke charon or usne apni gunthi hui chotiyon ki laten lapet rakhi theen aur unhen nile nile reshmi fiton se baandh rakha tha.
“are, aap hi mi० smith aur wo laDki hain n?” wo boli, “ab aap aath number mein jayen. ” usne unhen ek baDi si chabi pakDa di.
ve andheri aur chikat siDhiyon se upar jane lage. siDhiyan chiknai ke karan phisalni ho rahi theen. upar do roshaniyan jal rahi theen. smith ne number aath kamra khola. bhitar pravesh kiya. kamra kafi baDa aur durgandh se bhara tha. bichobich ek gande kapDe vali mez rakhi thi. divar ke sahare palang paDa tha. uski chadar ki salavten savadhani se nikali gai theen. unhen laga, ye jagah to bahut hi achchhi hai. apne apne coat unhonne utare aur der tak aapas mein ek dusre ko chumte rahe.
tabhi dusre darvaze se ek vekti ne baDe vinit bhaav mein pravesh kiya. kapDe usne waiter jaise pahan rakhe the, lekin uski dinner jaket baDi khubsurat sili thi. uski qamiz ka samne vala hissa itna saaf tha ki us dhundhalake mein pret ki tarah chamak raha tha. uska chalna bahut niashabd aur ahista tha, qadmon se koi avaz nahin hoti thi aur uski har harkat mashini aur aisi napi tuli thi, mano use deen duniya ki koi khabar na ho; chehre ke naqsh sakht the aur ankhen ektak avichal bhaav se samne hi dekhti theen. uske chehre par maut ki safedi chhai thi aur uski ek kanpati par goli ka ghaav tha. usne kamre ko qarine se theek kiya, shringar mez ko ponchha, phir kamra saaf karne vali jhaaD aur mutrdan lakar bhitar rakh diye.
in logon ne uski taraf koi khaas dhyaan nahin diya, lekin jaise hi wo jane laga, smith bole, “main samajhta hoon, hum logon ko kuch sharab ki zarurat paDegi. hamein aadhi botal madira de jana. ”
adami shishtata se jhuka aur bahar ghayab ho gaya. smith ne apne kapDe utarne shuru kar diye. istri jhijhak rahi thi.
“vah vapas ayega na, abhi. ” istri boli.
“unh, aisi jaghon mein in baton ka dhyaan nahin diya jata. bus, utaar Dalo apne kapDe vapDe!”
istri ne apne kapDe alag kiye, khinchkar patlun utari aur baDe nakhre ke saath purush ki god mein aa baithi. use baDa anand aa raha tha.
purush “zara kalpana karo,” wo phusaphusakar boli, “keval hum aur tum, ye ekaant, is vilakshan, rumani jagah par hamara tumhara yon baithna. . . sachmuch, ye sab itna madak aur kavitvpurn hai ki main kabhi bhi nahin bhool paungi. ”
purush bola, “meri jaan!”
aur der tak unka chumban chalta raha.
bina koi shabd kiye us vekti ne phir pravesh kiya. baDe ahiste aur mashini Dhang se usne gilas rakhe aur unmen sharab Daal di. lainp ki roshni uske chehre par paD rahi thi. usmen aisi koi khaas baat nahin thi haan, uske chehre par maut ki safedi thi aur ek kanpati par goli ka ghaav tha.
achanak ek cheekh markar istri uchhal paDi.
“haay, mere raam! arviD, tum ho? ye tumhin ho n? haay raam re, ye to mar gaya! isne apne ko goli maar li. ”
wo vekti sirf apne samne ki or takta hua bina hile Dule khaDa raha. uske chehre par koi vyatha aur vedna nahin dikhai deti thi, bus wo vaisa hi sakht aur sanjida tha.
“lekin arviD, ye tumne kya kar Dala? kya kar Dala ye tumne? pyare arviD! agar mujhe zara bhi is tarah ka shak hota, to tumhein pata hai, main ghar par hi rah jati. lekin tum to mujhe kuch batate hi nahin. tum is bare mein bhi mujhse ek shabd nahin bole. jab tumhin ne nahin bataya to main akhir samajhti bhi kaise!”
uska sara sharir thar thar kaanp raha tha. us vekti ne istri ki taraf is tarah dekha, jaise pahchanta hi na ho. uski nigahen jaD, sard aur udaas theen. lagta tha, jaise har cheez ke arpar sidhi chali jati hon. uska haldiya chehra andhere mein bhi jhalak raha tha. ghaav se khoon ki ek boond nahin nikal rahi thi, sirf ek chhed bhar tha.
“uf, bhayanak! bhayanak!” wo rone lagi, “main yahan nahin rahungi. chalo, hum log isi kshan chalte hain. mujhse nahin saha ja raha. ”
usne apna faar ka coat, hat aur kapDe jhatpat hathon mein daboche aur bahar lapki. pichhe pichhe smith the. niche vahi munchhon vali chuDail khaDi khaDi usi milansari aur parichai ke bhaav se muskurati hui apne seeng upar niche hila rahi thi.
saDak par bahar aakar unhonne kuch chain ki saans leen. ab istri ne kapDe pahne, kamar sidhi ki aur chehra mohra durust kiya. ve log chauk mein aa gaye.
pramukh shaitan vahin tahal raha tha. ve log dauDkar phir uske paas pahunche.
“aap logon ne baDi jaldabaज़i ki,” wo bola, “asha hai, sukh se kati?”
“uf, bhayanak jagah thi. ” istri ne kaha.
“nahin nahin, aisa mat boliye. aap aisa nahin maan sakte. agar purane zamane mein aap log yahan aaye hote tab to baat zarur jara alag thi. ab to narak mein shikayat karne layaq koi baat hi nahin rah gai hai. zyada kya kahun, lekin jo kuch hamse ban paDta hai, ise aramdeh aur amodaprad banane mein hum log kuch kasar nahin utha rakhte. pahle baat ekdam ulti thi. ”
“ji haan,” mi० smith bole, “apaki ye baat to theek hai. jaisa bhi kuch hai, is sabmen pahle se zyada insaniyat hai. ”
“ji haan,” shaitan bola, “hamne to ab sab chizon ko nae sire se adhunik bana Dala hai. jo cheez jaisi honi chahiye, usko bharsak theek kar diya hai. ”
“bilkul sahi. adami ko samay ke saath to chalna hi paDta hai. ”
“ji haan, ajkal to jo bhi thoDi bahut yantranaa milti hai wo sirf aatma ko hi milti hai. ”
“ise bhi bhagvan ki kripa hi samjho. ” istri boli.
“khuda ka shukr! pichha chhuta us sabse. ” kahkar lift par aapas mein lipatkar donon ne sukh aur santosh ki saans chhoDi.
“agar tum na hote to is jagah se main zinda bachkar nahin nikal pati. ” istri ne budabudakar kaha. purush ne use khinchkar apne se sata liya. der tak unka chumban chalta raha. alingan ke baad jab uski saans vapas i to boli, “khayal to karo, us kambakht ne ye kar kya Dala! lekin uske dimagh mein hamesha se hi aisi khurafaten bhari theen. kabhi kisi baat ko uske sahi roop mein, sahj aur svabhavik Dhang se lena, usne sikha hi nahin; har vaक़t jaise uske samne zindagi aur maut ka saval bana rahta ho. ”
“sab bakvas hai. ” smith bole.
“kam se kam wo mujhe to bata hi deta. tab to main ruk bhi jati. aaj ke bajay hum log kisi aur raat ko chale chalte. ”
“haan haan, aur kyaa?” smith ne kaha, “aur kya, hum log kabhi aur chale chalte. ”
“khair, chhoDo bhi. ab baithe baithe us par sir bhi kya khapana?” purush ke gale mein baanh Dalkar usne phusaphusakar kaha, “ab to jo hona tha, sab ho hi gaya. ”
“haan darling, ab to sab ho hi chuka. ” purush ne use apni banhon mein jakaD liya. lift upar chaDhti rahi.
rais vyapari mi० smith ne hotel ki shanadar lift ka darvaza khola aur nihayat pyare bhare andaz ke saath faar aur pauDar mein lipti, mahakti sundari ko ehtiyat se bhitar kheench liya. gudgudi aur mulayam seat par donon aapas mein lipat gaye. lift niche ki or chal paDi. apna bhaap aur sharab se bhiga adhakhula munh laDki ne aage kar diya aur ek ne dusre ka chumban liya. khuli chhat par, tarombhri chhaanh mein, abhi abhi donon ne raat ka khana saath saath khaya tha aur ab manovinod aur manoranjan karne ke liye bahar nikal rahe the.
“suno, upar kaisa achchha laga tha! mano sakshat svarg mein baithe hon!” honthon hi honthon mein phusaphusakar istri ne kaha, “tumhare saath baithkar asapas ka sab kuch aisa romani aur kavitvpurn lagta tha, mano hum log dharti ke jeev nahin, asman ke tare hon!. . . pyaar kise kahte hain, sachmuch iska anubhav aise kshnon mein hi to hota hai. tum mujhe pyaar karte ho…kyon karte ho n?”
mi० smith ne uski is baat ka javab pahle se bhi adhik pragaDh aur lambe chumban se diya. lift niche aa rahi thi.
“Darling, tum aa gain, ye bahut hi achchha kiya,” mi० smith bole, “varna tum janti ho, mera man kitna kharab ho jata. ”
“so to theek hai. lekin zara is baat ki bhi to kalpana karo ki wo adami kitna Dheeth aur ziddi hai. aane ke liye mainne jaise hi taiyari shuru ki ki aap puchhte hain, kahan chal deen. maine bhi kah diya, jahan man hoga, vahan jaungi, kisi ki dabail hoon kyaa? meri is baat par, jab tak main kapDe badalti aur naya uni shaal pahanti rahi, wo baitha baitha Dhithai se mujhe ghurta hi raha. achchha to batao, ye bina ranga dhula uni shaal mujh par kaisa lagta hai? tumhein kaise rang ka kapDa sabse zyada achchha lagta hai? gulabi hi lagta hoga, hai n?”
“tumhare upar to sab kuch khil uthta hai, Darling!” purush ne kaha, “lekin aaj ki raat to tum dil par bijliyan gira rahi ho, bijliyan!”
atmtusht muskan ke saath usne apna faar vala coat khol Dala. der tak phir donon ek dusre ko chumte rahe. lift niche ki or chalti rahi.
“phir jaise hi main nikalne ko taiyar hui ki usne bina kuch bole chale mera haath pakaDkar aise zor se ainth diya ki abhi tak dard ho raha hai. tum soch nahin sakte, kaise ujaDD aur jangali adami se mera pala paDa hai. mainne kaha, achchha chalti hoon. lekin us bande ke munh se bol nahin phuta. aisa bhayanak ziddi aur hathila adami hai ki Dar lagta hai. mujhse ab nahin saha jata. ”
“uf!” hamdardi se mi० smith ne kaha.
“mano zara sa bahar nikalkar man bahlana bhi mere bhagya mein nahin hai. phir wo aisa ghunna aur chuppa adami hai ki tum soch nahin sakte. kisi baat ko sahj aur svabhavik roop mein lena to usne sikha hi nahin, mano hamesha uske samne zindagi aur maut ka saval bana rahta ho. ”
“uf! mainne bhayankar taklifen sahi hain, bhayankar! jitna mainne saha hai, kya kisi ne saha hoga! pyaar kya hota hai, ye to tumse mulaqat hone se pahle main janti hi nahin thi. ”
“dilruba!” use banhon mein bharkar mi० smith bole. lift niche chalti rahi.
“mere us sukh ki kalpana karo,” alingan ke baad jaise hi saans i, wo boli, “taron ko takte hue yon tumhare saath upar baithna aur sapnon ki duniya mein kho kho jana. . . haay! main is kshan ko kabhi nahin bhulungi. dekho, baat ye hai arviD ke saath mera nirvah ab namumkin hai. hamesha aisa manhus aur bujurg jaisa bana rahta hai ki bus! kavita to use chhu nahin gai hai. use kavita vavita se vaise bhi koi lagav nahin hai. ”
“is sabko sah pana to sachmuch asambhau hai, Darling!”
“haan, asahniy hai!. . . lekin,” muskrakar apna haath uski or baDhakar istri ne apni baat kahi, “lekin yahan baithkar ab us sab par mathapachchi kyon karen? hum log manoranjan ke liye nikle hain. tum sachmuch mujhe pyaar karte ho n?”
‘‘haan haan, ismen bhi koi shak hai?” purush bola aur use kamar se pakaDkar pichhe jhuka diya. istri ka munh khul gaya. lift niche chalti rahi. uske upar jhukkar purush ne use pyaar se gudguda diya. istri lajakar laal ho gai.
“aaj ki raat, aao, hum log aisa pyaar karen, aisa pyaar karen ki aaj tak kabhi na kiya ho! hum!” phusaphusakar wo bola.
istri ne use apne sharir se chipka liya aur ankhen moond leen. lift niche chalti rahi.
lift niche aur niche utarti chali ja rahi thi.
akhir mi० smith uth khaDe hue; chehre par havaiyan uDne lagin.
“magar aaj is lift ko kya ho gaya hai?” ghabrakar wo bole, “yah rukti kyon nahin hai? jane kab se baithe baithe hum log ismen baten kar rahe hain! kyon, hai n”
“haan, priytam, mujhe bhi lagta hai ki hum log kafi der se baithe hain. samay bhi to hava ki tarah uDta hai. ”
“ya khuda! hamein ismen baithe yugon ho gaye. akhir iska matlab kya hai?”
usne sikhchon ke paar dekhne ki koshish ki. andhere ghup ke siva kuch nahin tha. aur lift thi ki apni driDh, ekras gati se gahri aur gahri utarti chali ja rahi thi.
“haay bhagvan! ye kya hua? mano kisi gaDDhe mein utarte chale ja rahe hon. khuda jane kitni der se is tarah utarte chale ja rahe hain. ab kya hoga?”
unhonne niche, tale ke gaDDhe ki or jhankne ki bhi koshish ki. vahan bhi ghatatop andhkar tha, aur ve log usmen Dubte chale ja rahe the.
“lagta hai, ab to ye narak mein jakar hi dam legi. ” smith bole.
apne sharir ki sari taqat lagakar smith ne break khincha. koi laabh nahin hua. lift anavrat roop se niche utarti rahi.
“uf! ye kya hua?” wo ro paDi, “ab hum kya karen?”
“haan, aise mein koi kambakht kare bhi to kyaa?” smith bole, “ajib aafat hai!”
laDki bahut hi hatash ho uthi aur phoot phutkar rone lagi.
“bus bus, meri jaan! ab rovo mat! hum logon ko hosh se kaam lena chahiye. ismen hum logon ka bus bhi akhir kya hai! ab bus karo, aao baitho. yon! aise! haan, ab hum donon yahan chupchap paas paas baithkar dekhen ki aage kya hota hai. kabhi na kabhi to ye rukegi hi, aur na ruke to jaye bhaaD men!”
ve log baithkar pratiksha karne lage.
“kabhi kisi ne socha tha ki aisa ho jayega?” istri boli, “ham log maze uDane ke liye nikle the!”
“haan, usi kambakhti ke mare to hum nikle the!” smith ne javab diya.
“Darling!” smith ne use apni banhon mein kaskar kaha. lift niche utarti rahi. akhir achanak jhatke se lift ruk gai. charon taraf aisi tez roshni thi ki ankhon mein chubhti thi. ab ve log narak mein aa gaye the. shaitan ne baadab lift ka chhaDon vala darvaza ek taraf sarka diya.
namaskar!” shaitan ne bahut hi jhukkar sabhivadan kaha. usne apni poonchh ko baDe faishanbal tariqe se saja rakha tha. ek jang lagi keel ke sahare poonchh ka balonvala jhabba reeDh ke upar gardan ke paas jhoom raha tha.
mi० smith aur wo istri donon laDkhaDate se chaundhe mein nikal aaye. un ajib ajib chhayaon se dahalkar uske munh se nikal paDa, “ya khuda, ye hum log kahan aa gaye!”
paritap ke pratibimb shaitan ne unhen sthiti samjhai.
“ ‘narak’ shabd sunkar jaisa kuch lagta hai, utna bura ye nahin hai,” shaitan bola. saath hi kaha, “mujhe ummid hai, aapka samay yahan anand mein hi bitega. mera khyaal hai, aap ek raat hi to rahenge yahan?”
“ji haan, ji haan!” smith ne aturta se hami bhari, “ji haan, sirf ek hi raat ke liye chahiye! isse zyada hum log yahan nahin ruk sakenge. ji, nahin. ”
tharthar kanpti hui laDki ne uski baanh bheench rakhi thi. roshni kuch aisi rakt shoshai aur pili hari thi ki pahle to unhen kuch dikhai hi nahin diya. unhen laga ki garam garam gandh asapas bhari hai. jab unki ankhen is roshni ki kuch aur abhyast ho gain, to unhonne dekha ve log jahan khaDe hain, wo jagah chaukanuma hai. iske charon or roshan darvazon vale makan andhere mein tane khaDe hain. darvazon par parde paDe hue the, lekin unhonne dararon se dekha ki bhitar kuch loban jaisa jal raha hai.
shaitan ne puchha, “ek dusre ko bahut pyaar karne vale aap hi log hain n?”
apne mad bhare naynon ke kataksh ke saath istri ne javab diya, “ji haan, hum log buri tarah ek dusre ko pyaar karte hain. ”
“to aap is taraf chaliye,” wo bola, “mehrbani karke mere pichhe pichhe chale aiye. ” ve log jhempe jhempe se bagal vali andheri gali se hokar chal diye. ye gali is chauk se bahar jati thi. ek purani dhurani si lalten gande chikat darvaze par latki thi.
“isi jagah,” shaitan ne darvaza khola aur baDe adab ke saath laut gaya.
unhonne bhitar pravesh kiya. ek nai, moti aur khushamadi qim ki chuDail ne unka svagat kiya. uske stan bahut baDe baDe the aur uske munh ke charon or munchhon par pauDar ke thakke jame hue the. wo heen heen karti muskura rahi thi. uski matar jaisi ankhon mein milansari aur parichai ka bhaav tha. apne mathe ke singon ke charon or usne apni gunthi hui chotiyon ki laten lapet rakhi theen aur unhen nile nile reshmi fiton se baandh rakha tha.
“are, aap hi mi० smith aur wo laDki hain n?” wo boli, “ab aap aath number mein jayen. ” usne unhen ek baDi si chabi pakDa di.
ve andheri aur chikat siDhiyon se upar jane lage. siDhiyan chiknai ke karan phisalni ho rahi theen. upar do roshaniyan jal rahi theen. smith ne number aath kamra khola. bhitar pravesh kiya. kamra kafi baDa aur durgandh se bhara tha. bichobich ek gande kapDe vali mez rakhi thi. divar ke sahare palang paDa tha. uski chadar ki salavten savadhani se nikali gai theen. unhen laga, ye jagah to bahut hi achchhi hai. apne apne coat unhonne utare aur der tak aapas mein ek dusre ko chumte rahe.
tabhi dusre darvaze se ek vekti ne baDe vinit bhaav mein pravesh kiya. kapDe usne waiter jaise pahan rakhe the, lekin uski dinner jaket baDi khubsurat sili thi. uski qamiz ka samne vala hissa itna saaf tha ki us dhundhalake mein pret ki tarah chamak raha tha. uska chalna bahut niashabd aur ahista tha, qadmon se koi avaz nahin hoti thi aur uski har harkat mashini aur aisi napi tuli thi, mano use deen duniya ki koi khabar na ho; chehre ke naqsh sakht the aur ankhen ektak avichal bhaav se samne hi dekhti theen. uske chehre par maut ki safedi chhai thi aur uski ek kanpati par goli ka ghaav tha. usne kamre ko qarine se theek kiya, shringar mez ko ponchha, phir kamra saaf karne vali jhaaD aur mutrdan lakar bhitar rakh diye.
in logon ne uski taraf koi khaas dhyaan nahin diya, lekin jaise hi wo jane laga, smith bole, “main samajhta hoon, hum logon ko kuch sharab ki zarurat paDegi. hamein aadhi botal madira de jana. ”
adami shishtata se jhuka aur bahar ghayab ho gaya. smith ne apne kapDe utarne shuru kar diye. istri jhijhak rahi thi.
“vah vapas ayega na, abhi. ” istri boli.
“unh, aisi jaghon mein in baton ka dhyaan nahin diya jata. bus, utaar Dalo apne kapDe vapDe!”
istri ne apne kapDe alag kiye, khinchkar patlun utari aur baDe nakhre ke saath purush ki god mein aa baithi. use baDa anand aa raha tha.
purush “zara kalpana karo,” wo phusaphusakar boli, “keval hum aur tum, ye ekaant, is vilakshan, rumani jagah par hamara tumhara yon baithna. . . sachmuch, ye sab itna madak aur kavitvpurn hai ki main kabhi bhi nahin bhool paungi. ”
purush bola, “meri jaan!”
aur der tak unka chumban chalta raha.
bina koi shabd kiye us vekti ne phir pravesh kiya. baDe ahiste aur mashini Dhang se usne gilas rakhe aur unmen sharab Daal di. lainp ki roshni uske chehre par paD rahi thi. usmen aisi koi khaas baat nahin thi haan, uske chehre par maut ki safedi thi aur ek kanpati par goli ka ghaav tha.
achanak ek cheekh markar istri uchhal paDi.
“haay, mere raam! arviD, tum ho? ye tumhin ho n? haay raam re, ye to mar gaya! isne apne ko goli maar li. ”
wo vekti sirf apne samne ki or takta hua bina hile Dule khaDa raha. uske chehre par koi vyatha aur vedna nahin dikhai deti thi, bus wo vaisa hi sakht aur sanjida tha.
“lekin arviD, ye tumne kya kar Dala? kya kar Dala ye tumne? pyare arviD! agar mujhe zara bhi is tarah ka shak hota, to tumhein pata hai, main ghar par hi rah jati. lekin tum to mujhe kuch batate hi nahin. tum is bare mein bhi mujhse ek shabd nahin bole. jab tumhin ne nahin bataya to main akhir samajhti bhi kaise!”
uska sara sharir thar thar kaanp raha tha. us vekti ne istri ki taraf is tarah dekha, jaise pahchanta hi na ho. uski nigahen jaD, sard aur udaas theen. lagta tha, jaise har cheez ke arpar sidhi chali jati hon. uska haldiya chehra andhere mein bhi jhalak raha tha. ghaav se khoon ki ek boond nahin nikal rahi thi, sirf ek chhed bhar tha.
“uf, bhayanak! bhayanak!” wo rone lagi, “main yahan nahin rahungi. chalo, hum log isi kshan chalte hain. mujhse nahin saha ja raha. ”
usne apna faar ka coat, hat aur kapDe jhatpat hathon mein daboche aur bahar lapki. pichhe pichhe smith the. niche vahi munchhon vali chuDail khaDi khaDi usi milansari aur parichai ke bhaav se muskurati hui apne seeng upar niche hila rahi thi.
saDak par bahar aakar unhonne kuch chain ki saans leen. ab istri ne kapDe pahne, kamar sidhi ki aur chehra mohra durust kiya. ve log chauk mein aa gaye.
pramukh shaitan vahin tahal raha tha. ve log dauDkar phir uske paas pahunche.
“aap logon ne baDi jaldabaज़i ki,” wo bola, “asha hai, sukh se kati?”
“uf, bhayanak jagah thi. ” istri ne kaha.
“nahin nahin, aisa mat boliye. aap aisa nahin maan sakte. agar purane zamane mein aap log yahan aaye hote tab to baat zarur jara alag thi. ab to narak mein shikayat karne layaq koi baat hi nahin rah gai hai. zyada kya kahun, lekin jo kuch hamse ban paDta hai, ise aramdeh aur amodaprad banane mein hum log kuch kasar nahin utha rakhte. pahle baat ekdam ulti thi. ”
“ji haan,” mi० smith bole, “apaki ye baat to theek hai. jaisa bhi kuch hai, is sabmen pahle se zyada insaniyat hai. ”
“ji haan,” shaitan bola, “hamne to ab sab chizon ko nae sire se adhunik bana Dala hai. jo cheez jaisi honi chahiye, usko bharsak theek kar diya hai. ”
“bilkul sahi. adami ko samay ke saath to chalna hi paDta hai. ”
“ji haan, ajkal to jo bhi thoDi bahut yantranaa milti hai wo sirf aatma ko hi milti hai. ”
“ise bhi bhagvan ki kripa hi samjho. ” istri boli.
“khuda ka shukr! pichha chhuta us sabse. ” kahkar lift par aapas mein lipatkar donon ne sukh aur santosh ki saans chhoDi.
“agar tum na hote to is jagah se main zinda bachkar nahin nikal pati. ” istri ne budabudakar kaha. purush ne use khinchkar apne se sata liya. der tak unka chumban chalta raha. alingan ke baad jab uski saans vapas i to boli, “khayal to karo, us kambakht ne ye kar kya Dala! lekin uske dimagh mein hamesha se hi aisi khurafaten bhari theen. kabhi kisi baat ko uske sahi roop mein, sahj aur svabhavik Dhang se lena, usne sikha hi nahin; har vaक़t jaise uske samne zindagi aur maut ka saval bana rahta ho. ”
“sab bakvas hai. ” smith bole.
“kam se kam wo mujhe to bata hi deta. tab to main ruk bhi jati. aaj ke bajay hum log kisi aur raat ko chale chalte. ”
“haan haan, aur kyaa?” smith ne kaha, “aur kya, hum log kabhi aur chale chalte. ”
“khair, chhoDo bhi. ab baithe baithe us par sir bhi kya khapana?” purush ke gale mein baanh Dalkar usne phusaphusakar kaha, “ab to jo hona tha, sab ho hi gaya. ”
“haan darling, ab to sab ho hi chuka. ” purush ne use apni banhon mein jakaD liya. lift upar chaDhti rahi.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 170-177)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : पार फ़ेबियन लागेरक्विस्ट
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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