...और उस एक क्षण के लिए प्रकाश के हृदय की धड़कन जैसे रुकी रही। कितना विचित्र था वह क्षण—आकाश से टूटकर गिरे हुए नक्षत्र जैसा! कोहरे के वक्ष में एक लकीर-सी खींचकर वह क्षण सहसा व्यतीत हो गया।
कोहरे में से गुज़रकर जाती हुई आकृतियों को उसने एक बार फिर ध्यान से देखा। क्या यह संभव था कि व्यक्ति की आँखें इस हद तक उसे धोखा दें? तो जो कुछ वह देख रहा था, वह यथार्थ ही नहीं था?
कुछ ही क्षण पहले जब वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया था, तो क्या उसने कल्पना में भी यह सोचा था कि आकाश के ओर-छोर तक फैले हुए कोहरे में, गहरे पानी की निचली सतह पर तैरती हुई मछलियों जैसी जो आकृतियाँ नज़र आ रही हैं, उनमें कहीं वे दो आकृतियाँ भी होंगी? मंदिर वाली सड़क से आते हुए दो कुहरीले रंगों पर जब उसकी नज़र पड़ी थी, तब भी क्या उसके मन में कहीं ऐसा अनुमान जागा था? फिर भी न जाने क्यों उसे लग रहा था जैसे बहुत समय से, बल्कि कई दिनों से, वह उनके वहाँ से गुज़रने की प्रतीक्षा कर रहा हो, जैसे कि उन्हें देखने के लिए ही वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया हो और उन्हीं को ढूँढ़ती हुई उसकी आँखें मंदिर वाली सड़क की तरफ़ मुड़ी हों।—यहाँ तक कि उस धानी आँचल और नीली नेकर के रंग भी जैसे उसके पहचाने हुए हों और कोहरे के विस्तार में वह उन दो रंगों को ही खोज रहा हो। वैसे उन आकृतियों के बालकनी के नीचे पहुँचने तक उसने उन्हें पहचाना नहीं था। परंतु एक क्षण में सहसा वे आकृतियाँ इस तरह उसके सामने स्पष्ट हो उठी थीं जैसे जड़ता के क्षण के अवचेतन की गहराई में डूबा हुआ कोई विचार एकाएक चेतना की सतह पर कौंध गया हो।
नीली नेकरवाली आकृति घूमकर पीछे की तरफ़ देख रही थी। क्या उसे भी कोहरे में किसी की खोज थी? और किसकी? प्रकाश का मन हुआ कि उसे आवाज़ दे, मगर उसके गले से शब्द नहीं निकले। कोहरे का समुद्र अपनी गंभीरता में ख़ामोश था, मगर उसकी अपनी ख़ामोशी एक ऐसे तूफ़ान की तरह थी जो हवा न मिलने से अपने अंदर ही घुमड़कर रह गया हो। नहीं तो क्या वह इतना ही असमर्थ था कि उसके गले से एक शब्द भी न निकल सके?
वह बालकनी से हटकर कमरे में आ गया। वहाँ अपने अस्त-व्यस्त सामान पर नज़र पड़ी, तो शरीर में निराशा की एक सिहरन दौड़ गई। क्या यही वह ज़िंदगी थी जिसके लिए उसने...? परंतु उसे लगा कि उसके पास कुछ भी सोचने के लिए समय नहीं है। उसने जल्दी-जल्दी कुछ चीज़ों को उठाया और रख दिया जैसे कि कोई चीज़ ढूँढ़ रहा हो जो उसे मिल न रही हो। अचानक खूँटी पर लटकती पतलून पर नज़र पड़ी, तो उसने पाजामा उतारकर जल्दी से उसे पहन लिया। फिर पल-भर खोया-सा खड़ा रहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या चाहता है। क्या वह उन दोनों के पीछे जाना चाहता था? या बालकनी पर खड़ा होकर पहले की तरह उन्हें देखते रहना चाहता था?
अचानक उसका हाथ मेज़ पर रखे ताले पर पड़ गया, तो उसने उसे उठा लिया। जल्दी से दरवाज़ा बंद करके वह ज़ीने से उतरने लगा। ज़ीने पर आकर ध्यान आया कि जूता नहीं पहना। वह पल-भर ठिठककर खड़ा रहा, मगर लौटकर नहीं गया। नीचे सड़क पर पहुँचते ही पाँव कीचड़ में लथपथ हो गए। दूर देखा—वे दोनों आकृतियाँ घोड़ों के अड्डे के पास पहुँच चुकी थीं। वह जल्दी-जल्दी चलने लगा। पास से गुज़रते एक घोड़ेवाले से उसने कहा कि आगे जाकर नीली नेकरवाले बच्चे को रोक ले—उससे कहे कि कोई उससे मिलने के लिए आ रहा है। घोड़ेवाला घोड़ा दौड़ाता हुआ गया, मगर उन दोनों के पास न रुककर उनसे आगे निकल गया। वहाँ जाकर न जाने किसे उसने उसका संदेश दे दिया।
जल्दी-जल्दी चलते हुए भी प्रकाश को लग रहा था जैसे वह बहुत आहिस्ता चल रहा हो, जैसे उसके घुटने जकड़ गए हों और रास्ता बहुत-बहुत लंबा हो गया हो। उसका मन इस आशंका से बेचैन था कि उसके पास पहुँचने तक वे लोग घोड़ों पर सवार होकर वहाँ से चल न दें, और जिस दूरी को वह नापना चाहता था, वह ज्यों की त्यों न बनी रहे। मगर ज्यों-ज्यों फ़ासला कम हो रहा था, उसका कम होना भी उसे अखर रहा था। क्या वह जान-बूझकर अपने को एक ऐसी स्थिति में नहीं डाल रहा था जिससे उसे अपने को बचाए रखना चाहिए था?
उन लोगों ने घोड़े नहीं लिए थे। वह जब उनसे तीन-चार गज़ दूर रह गया, तो सहसा उसके पाँव रुक गए। तो क्या सचमुच अब उसे उस स्थिति का सामना करना ही था?
“पाशी!” इससे पहले कि वह निश्चय कर पाता, अनायास उसके मुँह से निकल गया।
बच्चे की बड़ी-बड़ी आँखें उसकी तरफ़ घूम गर्इं—साथ ही उसकी माँ की आँखें भी। कोहरे में अचानक कई-कई बिजलियाँ कौंध गर्इं। प्रकाश दो-एक क़दम और आगे बढ़ गया। बच्चा हैरान आँखों से उसकी तरफ़ देखता हुआ अपनी माँ के साथ सट गया।
“पलाश, इधर आ मेरे पास,” प्रकाश ने हाथ से चुटकी बजाते हुए कहा, जैसे कि यह हर रोज़ की साधारण घटना हो और बच्चा अभी कुछ मिनट पहले ही उसके पास से अपनी माँ के पास गया हो।
बच्चे ने माँ की तरफ़ देखा। वह अपनी आँखें हटाकर दूसरी तरफ़ देख रही थी। बच्चा अब और भी उसके साथ सट गया और उसकी आँखें हैरानी के साथ-साथ एक शरारत से चमक उठीं।
प्रकाश को खड़े-खड़े उलझन हो रही थी। लग रहा था कि ख़ुद चलकर उस दूरी को नापने के सिवा अब कोई चारा नहीं है। वह लंबे-लंबे डग भरकर बच्चे के पास पहुँचा और उसे उसने अपनी बाँहों में उठा लिया। बच्चे ने एक बार किलककर उसके हाथों से छूटने की चेष्टा की, परंतु दूसरे ही क्षण अपनी छोटी-छोटी बाँहें उसके गले में डालकर वह उससे लिपट गया। प्रकाश उसे लिए हुए थोड़ा एक तरफ़ को हट आया।
“तूने पापा को पहचाना नहीं था क्या?”
“पैताना ता,” बच्चा बाँहें उसके गले में डालकर झूलने लगा।
“तो तू झट से पापा के पास आया क्यों नहीं?”
“नहीं आया,” कहकर बच्चे ने उसे चूम लिया।
“तू आज ही यहाँ आया है?”
“नहीं, तल आया ता।”
“अभी रहेगा या आज ही लौट जाएगा?”
“अबी तीन-चाल दिन लहूंदा।”
“तो पापा के पास मिलने आएगा न?”
“आऊँदा।”
प्रकाश ने एक बार उसे अच्छी तरह अपने साथ सटाकर चूम लिया, तो बच्चा किलककर उसके माथे, आँखों और गालों को जगह-जगह चूमने लगा।
“कैसा बच्चा है!” पास खड़े एक कश्मीरी मज़दूर ने सिर हिलाते हुए कहा।
“तुम तहाँ लहते हो?” बच्चा बाँहें उसी तरह उसकी गर्दन में डाले जैसे उसे अच्छी तरह देखने के लिए थोड़ा पीछे को हट गया।
“वहाँ!” प्रकाश ने दूर अपनी बालकनी की तरफ़ इशारा किया, “तू कब तक वहाँ आएगा?”
“अबी ऊपल जातल दूद पिऊँदा, उछके बाद तुमाले पाछ आऊँदा।” बच्चे ने अब अपनी माँ की तरफ़ देखा और उसकी बाँहों से निकलने के लिए मचलने लगा।
“मैं वहाँ बालकनी में कुर्सी डालकर बैठा रहूँगा और तेरा इंतिज़ार करूँगा,” बच्चा बाँहों से उतरकर अपनी माँ की तरफ़ भाग गया, तो प्रकाश ने पीछे से कहा। क्षण-भर के लिए उसकी आँखें बच्चे की माँ से मिल गर्इं, परंतु अगले ही क्षण दोनों दूसरी-दूसरी तरफ़ देखने लगे। बच्चा जाकर माँ की टाँगों से लिपट गया। वह कोहरे के पार देवदारों की धुंधली रेखाओं को देखती हुई बोली, “तुझे दूध पीकर आज खिलनमर्ग नहीं चलना है क्या?”
“नहीं,” बच्चे ने उसकी टाँगों के सहारे उछलते हुए सपाट जवाब दिया, “मैं दूद पीतल पापा ते पाछ जाऊँदा।”
तीन दिन, तीन रातों से आकाश घिरा था। कोहरा धीरे-धीरे इतना घना हो गया था कि बालकनी से आगे कोई रूप, कोई रंग नज़र नहीं आता था। आकाश की पारदर्शिता पर जैसे गाढ़ा सफ़ेदा पोत दिया गया था। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था, कोहरा और घना होता जा रहा था। कुर्सी पर बैठे हुए प्रकाश को किसी-किसी क्षण महसूस होने लगता जैसे वह बालकनी पहाड़ियों से घिरे खुले विस्तार में न होकर अंतरिक्ष के किसी रहस्यमय प्रदेश में बनी हो—नीचे और ऊपर केवल आकाश ही आकाश हो, जिसके अतल में बालकनी की सत्ता एक अपने-आप में पूर्ण और स्वतंत्र एक लोक की तरह हो...।
उसकी आँखें इस तरह एकटक सामने देख रही थीं—जैसे आकाश और कोहरे में उसे कोई अर्थ ढूँढ़ना हो—अपनी बालकनी के वहाँ होने का रहस्य जानना हो।
हवा से कोहरे के बादल कई-कई रूप लेकर इधर-उधर भटक रहे थे—अपनी गहराई में फैलते और सिमटते हुए वे अपनी थाह नहीं पा रहे थे। बीच में कहीं-कहीं देवदारों की फुनगियाँ एक हरी लकीर की तरह बाहर निकली हुई थीं—कोहरे के आकाश पर लिखी गई एक अस्त-व्यस्त लिपि जैसी। देखते-देखते वह लकीर भी गुम हो जाती थी—कोहरे का हाय उसे रहने देना नहीं चाहता था। लकीर को मिटते देखकर स्नायुओं में एक तनाव-सा आ रहा था—जैसे किसी भी तरह वह उस लकीर को मिटने से बचा लेना चाहता हो। परंतु जब लकीर एक बार मिटकर बाहर नहीं निकली, तो उसने सिर पीछे को डाल लिया और स्वयं भी कोहरे में कोहरा होकर पड़ रहा...।
अतीत के कोहरे में कहीं वह दिन भी था जो चार बरस बीत जाने पर भी आज तक बीत नहीं सका था...।
बच्चे की पहली वर्षगाँठ थी उस दिन—वही उनके जीवन की भी सबसे बड़ी गाँठ बन गई थी...।
विवाह के कुछ महीने बाद से ही पति-पत्नी अलग-अलग रहने लगे थे। विवाह के साथ जो सूत्र जुड़ना चाहिए था, वह जुड़ नहीं सका था। दोनों अलग-अलग जगह काम करते थे और अपना-अपना स्वतंत्र ताना-बाना बुनकर जी रहे थे। लोकाचार के नाते साल-छ: महीने में कभी एक बार मिल लिया करते थे। वह लोकाचार ही इस बच्चे को दुनिया में ले आया था...।
बीना समझती थी कि इस तरह जान-बूझकर उसे फँसा दिया गया है। प्रकाश सोचता था कि अनजाने में ही उससे एक अपराध हो गया है। परंतु जन्म के पाँचवें या छठे रोज़ बच्चे की हालत सहसा बहुत ख़राब हो गई, तो वह अपने कमरे में अकेला बैठा हवा में बच्चे के आकार को देखता हुआ कहता रहा था, “देख तुझे जीना है। तू इस तरह नहीं जा सकता। सुन रहा है? तुझे जीना है। हर हालत में जीना है। मैं तुझे जाने नहीं दूँगा। समझा?”
साल-भर से बच्चा माँ के ही पास रह रहा था। बीच में बच्चे की दादी छ:-सात महीने उसके पास रह आर्इ थी।
पहली वर्षगाँठ पर बीना ने लिखा था कि वह बच्चे को लेकर अपने पिता के यहाँ लखनऊ जा रही है। वहीं पर बच्चे के जन्मदिन की पार्टी करेगी।
प्रकाश ने उसे तार दिया था कि वह भी उस दिन लखनऊ आएगा। अपने एक मित्र के यहाँ हज़रतगंज में ठहरेगा। अच्छा होगा कि पार्टी वहीं पर की जाए। लखनऊ के कुछ मित्रों को भी उसने सूचित कर दिया था कि बच्चे की वर्षगाँठ के अवसर पर वे उसके साथ चाय पीने के लिए आएँ।
उसने सोचा था कि बीना उसे स्टेशन पर मिल जाएगी, परंतु वह नहीं मिली। हज़रतगंज पहुँचकर नहा-धो चुकने के बाद उसने बीना के पास संदेश भेजा कि वह वहाँ पहुँच गया है, कुछ लोग साढ़े चार-पाँच बजे चाय पर आएँगे, इसलिए वह उस समय तक बच्चे को लेकर अवश्य वहाँ पहुँच जाए। परंतु पाँच बजे, छ: बजे, सात बज गए, बीना बच्चे को लेकर नहीं आर्इ। दूसरी बार संदेश भेजने पर पता चला कि वहाँ उन लोगों की पार्टी चल रही है। बीना ने कहला भेजा कि बच्चा आठ बजे तक ख़ाली नहीं होगा, इसलिए वह उस समय उसे लेकर नहीं आ सकती। प्रकाश ने अपने मित्रों को चाय पिलाकर विदा कर दिया। बच्चे के लिए ख़रीदे हुए उपहार बीना के पिता के यहाँ भेज दिए। साथ में यह संदेश भी भेजा कि बच्चा जब भी ख़ाली हो, उसे थोड़ी देर के लिए उसके पास भेज दिया जाए।
परंतु आठ के बाद नौ बजे, दस बजे, बारह बज गए, पर बीना न तो स्वयं बच्चे को लेकर आर्इ, और न ही उसने उसे किसी और के साथ भेजा।
प्रकाश रात-भर सोया नहीं। उसके दिमाग़ को जैसे कोई छैनी से छीलता रहा।
सुबह उसने फिर बीना के पास संदेश भेजा। इस बार बीना बच्चे को लेकर आ गई। उसने बताया कि रात को पार्टी देर तक चलती रही, इसलिए उसका आना संभव नहीं था—अगर वास्तव में उसे बच्चे से प्यार था, तो उसका कर्तव्य था कि वह अपने उपहार लेकर ख़ुद उनके यहाँ पार्टी में आ जाता...।
उस दिन सुबह से आरंभ हुई बातचीत आधी रात तक चलती रही। प्रकाश बार-बार कहता रहा, “बीना, मैं इस बच्चे का पिता हूँ। पिता होने के नाते मुझे यह अधिकार तो है ही कि मैं बच्चे को अपने पास बुला सकूँ।”
परंतु बीना का उत्तर था, “आपके पास पिता का दिल होता, तो क्या आप पार्टी में न आते? आप मुझसे पूछें, तो मैं तो कहूँगी कि यह एक आकस्मिक घटना ही है कि आप इसके पिता हैं।”
“बीना!” वह फटी-फटी आँखों से उसके चेहरे की तरफ़ देखता रह गया। “तुम बताओ, तुम चाहती क्या हो!”
“कुछ भी नहीं। आपसे मैं क्या चाहूँगी?”
“तुमने सोचा है कि इस बच्चे के भविष्य का क्या होगा?”
“जब हम अपने ही भविष्य के बारे में नहीं सोच सकते, तो इस भविष्य के बारे में क्या सोचेंगे?”
“क्या तुम यह पसंद करोगी कि बच्चे को मुझे सौंप दो और स्वयं स्वतंत्र हो जाओ?”
“बच्चे को आपको सौंप दूँ?” बीना के स्वर में वितृष्णा गहरी हो गई। “इतनी मूर्ख मैं नहीं हूँ।”
“तो क्या तुम यही चाहती हो कि इसका निर्णय करने के लिए अदालत में जाया जाए?”
“आप अदालत में जाना चाहें, तो मुझे उसमें भी एतिराज़ नहीं है। ज़रूरत पड़ने पर मैं सुप्रीम कोर्ट तक लड़ूँगी। आपका बच्चे पर कोई अधिकार नहीं है।”
“बच्चे को पिता से ज़्यादा माँ की ज़रूरत होती है,” कई दिन...कई सप्ताह वह मन ही मन संघर्ष करता रहा। “जहाँ उसे दोनों न मिल सकते हो, वहाँ उसे माँ तो मिलनी चाहिए ही। अच्छा है तुम बच्चे की बात भूल जाओ और नए सिरे से अपनी ज़िंदगी बनाने की कोशिश करो।”
“मगर...।”
“फ़िज़ूल की हुज्जत में कुछ नहीं रखा है। बच्चे-अच्चे तो होते ही रहते हैं। तुम संबंध-विच्छेद करके फिर से ब्याह कर लो, तो घर में और बच्चे हो जाएँगे। समझ लेना कि इस एक बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो गई थी...।”
सोचने-सोचने में दिन, सप्ताह और महीने निकलते गए। क्या सचमुच इंसान पहले की ज़िंदगी को मिटाकर नए सिरे से ज़िंदगी आरंभ कर सकता है? क्या सचमुच ज़िंदगी के कुछ वर्षों को वह एक दु:स्वप्न की तरह भूलने का प्रयत्न किया जा सकता है? बहुत से इंसान हैं जिनकी ज़िंदगी कहीं न कहीं, किसी न किसी दोराहे से ग़लत दिशा की ओर भटक जाती है। क्या यही उचित नहीं कि इंसान उस रास्ते को बदलकर अपनी ग़लती सुधार ले? आख़िर इंसान को जीने के लिए एक ही जीवन तो मिलता है—वही प्रयोग के लिए और जीने के लिए। तो क्यों इंसान एक प्रयोग की असफलता को जीवन की असफलता मान ले?
कोर्ट में काग़ज़ पर हस्ताक्षर करते समय छत के पंखे से टकराकर एक चिड़िया का बच्चा नीचे आ गिरा।
“हाय, चिड़िया मर गई,” किसी ने कहा।
“मरी नहीं, अभी ज़िंदा है,” कोई और बोला।
“चिड़िया नहीं है, चिड़िया का बच्चा है,” किसी तीसरे ने कहा।
“नहीं चिड़िया है।”
“नहीं, चिड़िया का बच्चा है।”
“इसे उठाकर बाहर हवा में छोड़ दो।”
“नहीं, यहीं पड़ा रहने दो। बाहर इसे कोई बिल्ली खा जाएगी।”
“यहाँ यह आया किस तरह?”
“जाने किस तरह? रौशनदान के रास्ते आ गया होगा।”
“बेचारा कैसे तड़प रहा है!”
“शुक्र है, पंखे ने इसे काट ही नहीं दिया।”
“काट दिया होता, तो बल्कि अच्छा था। अब इस तरह बेचारा क्या जिएगा!”
तब तक पति-पत्नी दोनों ने काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दिए थे। बच्चा उस समय कोर्ट के अहाते में कौवों के पीछे भागता हुआ किलकारियाँ मार रहा था। वहाँ धूल उड़ रही थी और चारों ओर मटियाली-सी धूप फैली थी...।
फिर दिन, सप्ताह और महीने...!
अढ़ाई साल गुज़र जाने पर भी प्रकाश फिर से ज़िंदगी आरंभ करने का निश्चय नहीं कर पाया था। उस अरसे में बच्चा तीन बार उससे मिलने के लिए आया था। वह नौकर के साथ आता था और दिन-भर उसके पास रहकर अँधेरा होने पर लौट जाता। पहली बार वह उससे शरमाता रहा था, मगर बाद में उससे हिल-मिल गया था। वह बच्चे को लेकर घूमने चला जाता, उसे आइसक्रीम खिलाता, खिलौने ले देता था। बच्चा जाने के समय हठ करता, “अबी नहीं जाऊँदा। दूद पीतल जाऊँदा। थाना थातल जाऊँगा।”
जब बच्चा इस तरह की बात कहता था, तो उसके अंदर सहसा कोई चीज़ सुलग उठती थी। उसका मन होता था कि, नौकर को झिड़ककर वापस भेज दे और बच्चे को हमेशा-हमेशा के लिए अपने पास रख ले। जब नौकर बच्चे से कहता था, “बाबा, चलो, अब देर हो रही है,” तो प्रकाश का शरीर एक हताश आवेश से काँपने लगता और बहुत कठिनता से वह अपने को सँभाल पाता। आख़िरी बार बच्चा रात के नौ बजे तक रुका रह गया तो एक अपरिचित व्यक्ति उसे लेने के लिए चला आया।
बच्चा उस समय उसकी गोदी में बैठा खाना खा रहा था।
“देखिए, अब बच्चे को भेज दीजिए, इसे बहुत देर हो गई है,” अजनबी ने आकर कहा।
“आप देख रहे हैं, बच्चा खाना खा रहा है,” उसका मन हुआ कि मुक्का मारकर उस आदमी के दाँत तोड़ दे।
“हाँ-हाँ, आप खाना खिला दीजिए,” अजनबी ने उदारता के साथ कहा, “मैं नीचे इंतिज़ार कर रहा हूँ।”
ग़ुस्से के मारे प्रकाश के हाथ इस तरह काँपने लगे कि उसके लिए बच्चे को खाना खिलाना असंभव हो गया।
जब नौकर बच्चे को लेकर चला गया, तो उसने देखा कि बच्चे की टोपी वहीं पर रह गई है। वह टोपी लिए हुए भागकर नीचे पहुँचा, तो देखा कि नौकर और अजनबी के अलावा बच्चे के साथ कोई और भी है—उसकी माँ। वे लोग चालीस-पचास गज़ आगे गए थे। उसने नौकर को आवाज़ दी, तो चारों ने मुड़कर एकसाथ उसकी तरफ़ देखा। नौकर टोपी लेने के लिए लौट आया और शेष तीनों आगे चलते रहे।
उस रात वह एक दोस्त की छाती पर सिर रखकर देर तक रोता रहा।
नए सिरे से फिर वही सवाल उसके मन में उठने लगा। क्यों वह अपने को इस अतीत से पूरी तरह मुक्त नहीं कर लेता? यदि बसा हुआ घर-बार हो, तो अपने आसपास बच्चों की चहल-पहल में वह इस दुःख को भूल नहीं जाएगा? उसने अपने को बच्चे से इसलिए तो अलग किया था कि अपने जीवन को एक नया मोड़ दे सके—फिर इस तरह अकेली ज़िंदगी की यंत्रणा किसलिए सह रहा था?
परंतु नए सिरे से जीवन आरंभ करने की कल्पना में सदा एक आशंका मिली रहती थी। वह उस आशंका से जितना ही लड़ता था, वह उतनी ही और प्रबल हो उठती थी। जब एक प्रयोग सफल नहीं हुआ, तो कैसे कहा जा सकता था कि दूसरा प्रयोग सफल होगा ही?
वह पहले की भूल दोहराना नहीं चाहता था, इसलिए उसकी आशंका ने उसे बहुत सतर्क कर दिया था। वह जिस किसी लड़की को अपनी भावी पत्नी के रूप में देखता, उसी के चेहरे में उसे अपने पहले जीवन की छाया नज़र आने लगती। हालाँकि वह स्पष्ट रूप से इस विषय में कुछ भी सोच नहीं पाता था, फिर भी उसे लगता था कि वह एक ऐसी ही लड़की के साथ जीवन बिता सकता है जो हर दृष्टि से बीना के विपरीत हो। बीना में बहुत अहं था, वह उसके बराबर पढ़ी-लिखी थी, उससे ज़्यादा कमाती थी। उसे अपनी स्वतंत्रता का बहुत मान था और वह समझती थी कि किसी भी परिस्थिति का वह अकेली रहकर मुक़ाबिला कर सकती है। शारीरिक दृष्टि से भी बीना काफ़ी लंबी-ऊँची थी। और उस पर भारी पड़ती थी। बातचीत भी वह खुले मरदाना ढंग से करती थी। वह अब एक ऐसी लड़की चाहता था जो हर तरह से उस पर निर्भर करे, जिसकी कमज़ोरियाँ एक पुरुष के आश्रय की अपेक्षा रखती हों।
और कुछ ऐसी ही लड़की थी निर्मला—उसके एक घनिष्ठ मित्र कृष्ण जुनेजा की बहन। उसने दो-एक बार उस लड़की को देखा था। बहुत सीधी-सादी मासूम-सी लड़की थी। बात करते हुए उसकी आँखें नीचे को झुक जाती थीं। साधारण पढ़ी-लिखी थी और साधारण ढंग से ही रहती थी। उसे देखकर अनायास मन में सहानभूति उमड़ आती थी। छब्बीस-सत्ताईस बरस की होकर भी देखने में वह अठारह-उन्नीस से ज़्यादा की नहीं लगती थी। वह जुनेजा के घर की कठिनाइयों को जानता था। उन कठिनाइयों के कारण ही शायद इतनी उम्र तक उस लड़की का विवाह नहीं हो सका था। उसके साथ निर्मला के विवाह की बात चलाई गई, तो उसके मन के किसी कोने में सोया हुआ पुलक सहसा जाग उठा। उसे सचमुच लगा जैसे उसका खोया हुआ जीवन उसे वापस मिल रहा हो; जैसे अंदर की एक टूटी हुई कल्पना फिर से आकार ग्रहण कर रही हो। हवा और आकाश में उसे एक और ही आकर्षण लगने लगा, रास्ते में बिकती हुई फूलों की बेनियाँ पहले से कहीं सुगंधित प्रतीत होने लगीं। निर्मला ब्याहकर उसके घर में आर्इ भी नहीं थी कि वह शाम को लौटते हुए फूलों की बेनियाँ ख़रीदकर घर लाने लगा। अपना पहले का घर उसे छोटा लगने लगा, इसीलिए उसने एक बड़ा घर ले लिया और उसे सजाने के लिए नया-नया सामान ख़रीद लाया। पास में ज़्यादा पैसे नहीं थे, इसलिए क़र्ज़ ले-लेकर उसने निर्मला के लिए न जाने कितना कुछ बनवा डाला...।
निर्मला हँसती हुई उसके घर में आर्इ—और हँसती ही रही... ।
पहले कुछ दिन तो वह समझ नहीं सका कि वह हँसी क्या है। निर्मला जब कभी बिना बात के हँसना शुरू कर देती और देर तक हँसती रहती, वह अवाक् होकर उसे देखता रहता। तीन-तीन चार-चार साल के बच्चे भी उस तरह आकस्मिक ढंग से नहीं हँस सकते जैसे वह हँसती थी। कोई व्यक्ति उसके सामने गिर जाता या कोई चीज़ किसी के हाथ से गिरकर टूट जाती तो उसके लिए अपनी हँसी रोकना असंभव हो जाता। लगातार दस-दस मिनट तक वह हँसी से बेहाल हो रहती। वह उसे समझाने की चेष्टा करता कि ऐसी बातों पर नहीं हँसा जाता, तो निर्मला को और भी हँसी छूटती। वह उसे डाँट देता, तो वह उसी तरह आकस्मिक ढंग से बिस्तर पर लेटकर हाथ-पैर पटकती हुई रोने लगती, चिल्ला-चिल्लाकर अपनी मरी हुई माँ को पुकारने लगती, और अंत में बाल बिखेरकर और देवी का रूप धारण करके घर-भर को शाप देने लगती। कभी अपने कपड़े फाड़कर इधर-उधर छिपा देती और अपने गहने जूतों के अंदर सँभाल देती। कभी अपनी बाँह पर फोड़े की कल्पना करके दो-दो दिन उसके दर्द से कराहती रहती और फिर सहसा स्वस्थ होकर कपड़े धोने लगती और सुबह से शाम तक कपड़े धोती रहती।
जब मन शांत होता, तो मुँह गोल किए वह अँगूठा चूसने लगती।
उठते-बैठते, खाते-पीते, प्रकाश के सामने निर्मला के तरह-तरह के रूप आते रहते और उसका मन एक अंधे कुएँ में गिरने लगता। रास्ते पर चलते हुए उसके चारों तरफ़ एक शून्य-सा घिर आता और वह भौंचक्का-सा सड़क के किनारे खड़ा होकर सोचने लगता कि वह घर से क्यों आया है और कहाँ जा रहा है। उसका किसी से मिलने या कहीं भी आने-जाने को मन न होता। उसका मन जिस शून्य में भटकता रहता, उसमें कई बार उसे एक बच्चे की किलकारियाँ सुनाई देने लगतीं और वह बिलकुल जड़ होकर देर-देर तक एक ही जगह पर खड़ा या बैठा रहता। एक बार चलते-चलते हुए वह खंभे से टकराकर नाली में गिर गया। एक बार बस पर चढ़ने की कोशिश में नीचे गिर जाने से उसके कपड़े पीछे से फट गए और वह इससे बेख़बर दूसरी बस में चढ़कर आगे चल दिया। उसे तब पता चला जब किसी ने रास्ते में उससे कहा, “जेंटलमैन, तुम्हें क्या घर जाकर कपड़े बदल नहीं लेने चाहिए?”
उसे लगता था जैसे वह जी न रहा हो, सिर्फ़ अंदर ही अंदर घुट रहा हो। क्या यही वह ज़िंदगी थी जिसे पाने के लिए उसने वर्षों तक अपने से संघर्ष किया था?
उसे क्रोध आता कि जुनेजा ने उसके साथ इस तरह का विश्वासघात क्यों किया? उस लड़की को किसी मानसिक चिकित्सालय में भेजने की जगह उसका ब्याह क्यों कर दिया? उसने जुनेजा को इस संबंध में पत्र लिखे, परंतु उसकी ओर से उसे कोई उत्तर नहीं मिला। उसने जुनेजा को बुला भेजा, तो वह आया भी नहीं। वह स्वयं जुनेजा से मिलने के लिए गया, तो उसे जवाब मिला कि निर्मला अब उसकी पत्नी है—निर्मला के मायके के लोगों का उस मामले में अब कोई दख़ल नहीं है।
और निर्मला घर में उसी तरह हँसती और रोती रही...!
“तुम मेरे भाई से क्या पूछने गए थे?” वह बाल बिखेरकर ‘देवी’ का रूप धारण किए हुए कहती, “तुम बीना की तरह मुझे भी तलाक़ देना चाहते हो? किसी तीसरी को घर में लाना चाहते हो? मगर मैं बीना नहीं हूँ। वह सती नारी नहीं थी। मैं सती नारी हूँ। तुम मुझे छोड़ने की बात मन में लाओगे, तो मैं इस घर को जलाकर भस्म कर दूँगी—सारे शहर में भूचाल ले आऊँगी। लाऊँ भूचाल?” और बाँहें फैलाकर वह चिल्लाने लगती, “आ भूचाल, आ...आ! मैं सती नारी हूँ, तो इस घर की ईंट से ईंट बजा दे। आ, आ, आ!”
वह उसे शांत करने की चेष्टा करता, तो वह कहती, “तुम मुझसे दूर रहो। मेरे शरीर को हाथ मत लगाओ। मैं सती हूँ। देवी हूँ। साध्वी हूँ। तुम मेरा सतीत्व नष्ट करना चाहते हो? मुझे ख़राब करना चाहते हो? मेरा तुमसे ब्याह कब हुआ है? मैं तो अभी कँवारी हूँ। छोटी-सी मासूम बच्ची हूँ। संसार का कोई भी पुरुष मुझे नहीं छू सकता। मैं आध्यात्मिक जीवन जीती हूँ। मुझे कोई छूकर देखे तो सही...।”
और बाल बिखेरे हुए इसी तरह बोलती हुई कभी वह घर की छत पर पहुँच जाती और कभी बाहर निकलकर घर के आसपास चक्कर काटने लगती। प्रकाश ने एक-दो बार होंठों पर हाथ रखकर उसका मुँह बंद कर देना चाहा, तो वह और भी ज़ोर से चिल्ला उठी, “तुम मेरा मुँह बंद करना चाहते हो? मेरा गला घोंटना चाहते हो? मुझे मारना चाहते हो? तुम्हें पता है मैं साक्षात देवी हूँ? मेरे चारों भाई मेरे चार शेर हैं! वे तुम्हें नोच-नोचकर खा जाएँगे। उन्हें पता है—उनकी बहन देवी का स्वरूप है। कोई मेरा बुरा चाहेगा, तो वे उसे उठाकर ले जाएँगे और काल-कोठरी में बंद कर देंगे। मेरे बड़े भाई ने अभी-अभी नई कार ली है। मैं उसे चिट्ठी लिख दूँ, तो वह अभी कार लेकर आ जाएगा, और हाथ-पैर बाँधकर तुम्हें कार में डालकर ले जाएगा। छ: महीने बंद रखेगा, फिर छोड़ेगा। तुम्हें पता नहीं वे चारों के चारों शेर कितने ज़ालिम हैं? वे राक्षस हैं, राक्षस। आदमी की बोटी-बोटी काट दें और किसी को पता भी न चले। मगर मैं उन्हें नहीं बुलाऊँगी। मैं सती नारी हूँ, इसलिए अपने सत्य से ही अपनी रक्षा करूँगी...!”
सब प्रयत्नों से हारकर वह थका हुआ अपने पढ़ने के कमरे में बंद होकर पड़ जाता, तो आधी रात तक वह साथ के कमरे में उसी तरह बोलती रहती। फिर बोलते-बोलते अचानक चुप कर जाती और थोड़ी देर बाद उसका दरवाज़ा खटखटाने लगती।
“क्या बात है?” वह कहता।
“इस कमरे में मेरी साँस रुक रही है,” निर्मला उत्तर देती। “दरवाज़ा खोलो, मुझे अस्पताल जाना है!”
“इस समय सो जाओ,” वह कहता, “सुबह तुम जहाँ कहोगी, वहाँ ले चलूँगा।”
“मैं कहती हूँ दरवाज़ा खोलो, मुझे अस्पताल जाना है।” और वह ज़ोर-ज़ोर से धक्के देकर दरवाज़ा तोड़ने लगती।
वह दरवाज़ा खोल देता, तो वह हँसती हुई उसके सामने आ जाती।
“तुम्हें हँसी किस बात की आ रही है?” वह कहता।
“तुम्हें लगता है मैं हँस रही हूँ?” वह और भी ज़ोर से हँसने लगती। “यह हँसी नहीं, रोना है, रोना।”
“तुम अस्पताल चलना चाहती हो?”
“क्यों?”
“अभी तुम कह रही थीं...!”
“मैं अस्पताल जाने के लिए कहाँ कह रही थी? मैं तो कह रही थी कि मुझे उस कमरे में डर लगता है, मैं यहाँ तुम्हारे पास सोऊँगी।”
“देखो निर्मला, इस समय मेरा मन ठीक नहीं है। तुम बाद में चाहे मेरे पास आ जाना, मगर इस समय थोड़ी देर के लिए...।”
“मैं कहती हूँ मैं अकेली उस कमरे में नहीं सो सकती। मेरे जैसी मासूम बच्ची क्या कभी अकेली सो सकती है?”
“तुम मासूम बच्ची नहीं हो, निर्मला!”
“तो तुम्हें मैं बड़ी नज़र आती हूँ? एक छोटी-सी बच्ची को बड़ी कहते तुम्हारे दिल को कुछ नहीं होता? इसलिए कि तुम मुझे अपने पास सुलाना नहीं चाहते? मगर मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। तुम्हें मुझे अपने साथ सुलाना पड़ेगा। मैं विधवा हूँ जो अकेली सोऊँगी? मैं सुहागिन नारी हूँ। कोई सुहागिन क्या कभी अकेली सोती है? मैं भाँवरें लेकर तुम्हारे घर में आर्इ हूँ, ऐसे ही उठाकर नहीं लार्इ गई। देखती हूँ तुम कैसे मुझे उस कमरे में भेजते हो?” और वह उसके पास लेटकर उससे लिपट जाती।
कुछ देर में जब उसके स्नायु शांत हो चुकते तो लगातार उसे चूमती हुई कहती, “मेरा सुहाग! मेरा चाँद! मेरा राजा! मैं तुम्हें कभी अपने से अलग रख सकती हूँ? तुम मेरे साथ एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जिओगे। मुझे यह वर मिला हुआ है कि मैं एक सौ छत्तीस बरस की उम्र तक सुहागिन रहूँगी। जिसकी भी मुझसे शादी होती, वह एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जीता। तुम देख लेना मेरी बात सच निकलती है या नहीं। मैं सती नारी हूँ और सती नारी के मुँह से निकली हुई बात कभी झूठ नहीं हो सकती...।”
“तुम सुबह मेरे साथ अस्पताल चलोगी?”
“क्यों, मुझे क्या हुआ है जो मैं अस्पताल जाऊँगी? मुझे तो आज तक कभी सिरदर्द भी नहीं हुआ। मैं अस्पताल क्यों जाऊँ?”
एक दिन प्रकाश उसके लिए कई किताबें ख़रीद लाया। उसने सोचा था कि शायद पढ़ने से निर्मला के मन को एक दिशा मिल जाए और वह धीरे-धीरे अपने मन के अँधेरे से बाहर निकलने लगे। मगर निर्मला ने उन किताबों को देखा, तो मुँह बिचकाकर एक तरफ़ हटा दिया।
“ये किताबें मैं तुम्हारे पढ़ने के लिए लाया हूँ,” उसने कहा।
“मेरे पढ़ने के लिए?” निर्मला हैरानी के साथ बोली, “मैं इन किताबों को पढ़कर क्या करूँगी? मैंने तो मार्क्सवाद, मनोविज्ञान और सभी कुछ चौदह साल की उम्र में ही पढ़ लिया था। अब इतनी बड़ी होकर मैं ये किताबें पढ़ने लगूँगी?”
और उसके पास से उठकर अँगूठा चूसती हुई वह दूसरे कमरे में चली गई।
“पापा!”
कोहरे के बादलों में भटका मन सहसा बालकनी पर लौट आया। खिलनमर्ग को जाने वाली सड़क पर बहुत-से लोग घोड़े दौड़ाते जा रहे थे—एक धुंधले चित्र की बुझी-बुझी आकृतियाँ जैसे। वैसी ही बुझी-बुझी आकृतियाँ क्लब से बाज़ार की तरफ़ आ रही थीं। बार्इं ओर बर्फ़ से ढकी हुई पहाड़ी की एक चोटी कोहरे से बाहर निकल आर्इ थी, और जाने किधर से आती सूर्य की किरण ने उसे दीप्त कर दिया था। कोहरे में भटके हुए कुछ पक्षी उड़ते हुए उस चोटी के सामने आ गए, तो सहसा उनके पंख सुनहरे हो उठे—मगर अगले ही क्षण वे फिर धुंधलके में खो गए।”
प्रकाश कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और झाँककर नीचे सड़क की तरफ़ देखने लगा। क्या वह आवाज़ पलाश की नहीं थी? मगर सड़क पर दूर तक वैसी कोई आकृति दिखाई नहीं दे रही थी जिसे उसकी आँखें उस बच्चे के रूप में पहचान सकें। आँखों ही आँखों टूरिस्ट होटल के गेट तक जाकर वह लौट आया और गले पर हाथ रखकर जैसे निराशा की चुभन को रोके हुए फिर कुर्सी पर बैठ गया। दस के बाद ग्यारह, बारह और फिर एक बज गया था और बच्चा नहीं आया था। क्या बच्चे के पहले जन्मदिन की घटना आज फिर दोहराई जानी थी? मुट्ठियाँ बंद किए उन पर माथा रखकर वह बालकनी पर झुक गया।
“पापा!”
उसने चौंककर सिर उठाया। वही कोहरा और वही धुंधली सुनसान सड़क। दूर घोड़ों की टापें और धीमी चाल से उस तरफ़ को आता हुआ एक कश्मीरी मज़दूर! क्या वह आवाज़ उसे अपने कानों के अंदर से ही सुनाई दे रही थी?
तभी उन पर्दों के अंदर दो नन्हे पैरों की आवाज़ भी गूँज गई और उसकी बाहों के बहुत पास ही बच्चे का स्वर किलक उठा, “पापा!” साथ ही दो नन्ही-नन्ही बाँहें उसके गले से लिपट गर्इं और बच्चे के झंडूले बाल उसके होंठों से छू गए।
प्रकाश ने एक बार बच्चे के शरीर को सिर से पैर तक छूकर देख लिया कि यह आकार भी उसकी कल्पना का स्वप्न तो नहीं है। विश्वास हो जाने पर कि बच्चा सचमुच उसकी गोदी में है, उसने माथे और आँखों को कसकर चूम लिया।
“तो मैं जाऊँ, पलाश?” एक भूली हुई मगर परिचित आवाज़ ने प्रकाश को फिर चौंका दिया। उसने घूमकर पीछे देखा। कमरे के दरवाज़े के बाहर बीना दार्इं तरफ़ न जाने किस चीज़ पर आँखें गड़ाए खड़ी थी।
“आप?...आ जाइए आप...!” कहता हुआ बच्चे को बाँहों में लिए प्रकाश अस्त-व्यस्त-सा कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
“नहीं, मैं जा रही हूँ,” बीना ने फिर भी उसकी तरफ़ नहीं देखा। “मुझे इतना बता दीजिए कि बच्चा कब तक लौटकर आएगा।”
“आप...जब कहें, तभी भेज दूँगा।” प्रकाश बालकनी की दहलीज़ लाँघकर कमरे में आ गया।
“चार बजे इसे दूध पीना होता है।”
“तो चार बजे तक मैं इसे वहाँ पहुँचा दूँगा।”
“इसने हल्का-सा स्वेटर ही पहन रखा है। दूसरे पुलोवर की ज़रूरत तो नहीं पड़ेगी?”
“आप दे दीजिए। ज़रूरत पड़ेगी, तो मैं इसे पहना दूँगा।”
बीना ने दहलीज़ के उस तरफ़ से पुलोवर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। उसने पुलोवर लेकर उसे शाल की तरह बच्चे को ओढ़ा दिया। “आप...,” उसने बीना से कहना चाहा कि अंदर आ जाए, मगर उससे कहा नहीं गया। बीना चुपचाप ज़ीने की तरफ़ चल दी। प्रकाश कमरे से निकल आया। ज़ीने से बीना ने फिर कहा, “देखिए, इसे आइसक्रीम मत खिलाइएगा। इसका गला बहुत जल्द ख़राब हो जाता है।”
“अच्छा!”
बीना पल-भर रुकी रही। शायद उसे और भी कुछ कहना था। मगर फिर बिना कुछ कहे नीचे उतर गई। बच्चा प्रकाश की बाँहों में उछलता हुआ हाथ हिलाता रहा, “ममी, टा टा! टा टा!” प्रकाश उसे लिए बालकनी पर लौट आया तो वह उसके गले में बाँहें डालकर बोला, “पापा, मैं आइछक्लीम जलूल थाऊँदा।”
“हाँ-हाँ बेटे!” प्रकाश उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा, “जो तेरे मन में आए सो खाना। हाँ?”
और कुछ देर के लिए वह अपने को, बालकनी को, और यहाँ तक कि बच्चे को भी भूला हुआ आकाश को देखता रहा।
कोहरे का पर्दा धीरे-धीरे उठने लगा, तो मीलों तक फैले हरियाली के रंगमंच की धुंधली रेखाएँ सहसा स्पष्ट हो उठीं।
वे दोनों गॉल्फ-ग्राउंड पार करके क्लब की तरफ़ जा रहे थे। चलते हुए बच्चे ने पूछा, “पापा, आदमी के दो टाँगें क्यों होती हैं? चार क्यों नहीं होतीं?”
प्रकाश ने चौंककर उसकी तरफ़ देखा और कहा, “अरे!”
“क्यों पापा,” बच्चा बोला, “तुमने अरे क्यों कहा है?”
“तू इतना साफ़ बोल सकता है, तो अब तक तुतलाकर क्यों बोल रहा था?” प्रकाश ने उसे बाँहों में उठाकर एक अभियुक्त की तरह सामने कर लिया। बच्चा खिलखिलाकर हँसा। प्रकाश को लगा कि यह वैसी ही हँसी है जैसी कभी वह स्वयं हँसा करता था। बच्चे के चेहरे की रेखाओं से भी उसे अपने बचपन के चेहरे की याद आने लगी। उसे लगा जैसे एकाएक उसका तीस बरस पहले का चेहरा उसके सामने आ गया हो और वह स्वयं उस चेहरे के सामने एक अभियुक्त की तरह खड़ा हो।
“ममी तो ऐछे ही अच्छा लदता है,” बच्चे ने कहा।
“क्यों?”
“मेले तो नहीं पता। तुम ममी छे पूछ लेना।”
“तेरी ममी तेरे को ज़ोर से हँसने से भी मना करती है?” प्रकाश को वे दिन याद आ रहे थे जब उसके खिलखिलाकर हँसने पर बीना कानों पर हाथ रख लिया करती थी।
बच्चे की बाँहें उसकी गर्दन के पास कस गर्इं। “हाँ,” वह बोला, “ममी तहती है अच्छे बच्चे जोल छे नहीं हँछते।”
प्रकाश ने उसे बाँहों से उतार दिया। बच्चा उसकी उँगली पकड़े घास पर चलने लगा। “त्यों पापा,” उसने पूछा, “अच्छे बच्चे जोल छे त्यों नहीं हँछते?”
“हँसते हैं बेटे!” प्रकाश ने उसके सिर को सहलाते हुए कहा, “सब अच्छे बच्चे ज़ोर से हँसते हैं।”
“तो ममी मेले तो त्यों लोतती है?”
“नहीं रोकती बेटे। अब वह तुझे नहीं रोकेगी। और तू तुतलाकर नहीं, ठीक से बोला कर। तेरी ममी तुझे इसके लिए भी मना नहीं करेगी। मैं उससे कह दूँगा।”
“तो तुमने पहले ममी छे त्यों नहीं तहा?”
“ऐसे नहीं, कह कि तुमने पहले ममी से क्यों नहीं कहा।”
बच्चा फिर हँस दिया, “तो तुमने पहले ममी से क्यों नहीं कहा?”
“पहले मुझे याद नहीं रहा। अब याद से कह दूँगा।”
कुछ देर दोनों चुपचाप चलते रहे। फिर बच्चे ने पूछा, “पापा, तुम मेरे जन्मदिन की पार्टी में क्यों नहीं आए? ममी कहती थी तुम विलायत गए हुए थे।”
“हाँ बेटे, मैं विलायत गया हुआ था।”
“तो पापा, अब तुम फिर विलायत नहीं जाना।”
“क्यों?”
“मेरे को अच्छा नहीं लगता। विलायत जाकर तुम्हारी शकल और ही तरह की हो गई है।”
प्रकाश एक रूखी-सी हँसी हँसा, “कैसी हो गई है शकल?”
“पता नहीं कैसी हो गई है? पहले दूसरी तरह की थी, अब दूसरी तरह की है।”
“दूसरी तरह की कैसे?”
“पता नहीं। पहले तुम्हारे बाल काले-काले थे। अब सफ़ेद-सफ़ेद हो गए हैं।”
“तू इतने दिन मेरे पास नहीं आया, इसीलिए मेरे बाल सफ़ेद हो गए हैं।”
बच्चा इतने ज़ोर से हँसा कि उसके क़दम लडख़ड़ा गए। “पापा, तुम तो विलायत गए हुए थे,” उसने कहा। “मैं तुम्हारे पास कैसे आता? मैं क्या अकेला विलायत जा सकता हूँ?”
“क्यों नहीं जा सकता? तू इतना बड़ा तो है।”
“मैं सचमुच बड़ा हूँ न पापा?” बच्चा ताली बजाता हुआ बोला, “तुम यह बात भी ममी से कह देना। वह कहती है मैं अभी बहुत छोटा हूँ। मैं छोटा नहीं हूँ न पापा!”
“नहीं, तू छोटा कहाँ है?”—कहकर प्रकाश मैदान में दौड़ने लगा। “तू भागकर मुझे पकड़।”
बच्चा अपनी छोटी-छोटी टाँगें पटकता हुआ दौड़ने लगा। प्रकाश को फिर अपने बचपन की एक बात याद हो आर्इ। तब उसे दौड़ते देखकर एक बार किसी ने कहा था, “अरे यह बच्चा कैसे टाँगें पटक-पटककर दौड़ता है! इसे ठीक से चलना नहीं आता क्या?”
बच्चे की उँगली पकड़े प्रकाश क्लब के बाररूम में दाख़िल हुआ, तो बारमैन अब्दुल्ला उसे देखकर दूर से मुस्कराया। “साहब के लिए दो बोतल बियर,” उसने पास खड़े बैरे से कहा। “साहब आज अपने साथ एक मेहमान के साथ आया है।”
“बच्चे के लिए एक गिलास पानी दे दो,” प्रकाश ने काउंटर के पास रुककर कहा। “इसे प्यास लगी है।”
“ख़ाली पानी?” अब्दुल्ला बच्चे के गालों को प्यार से सहलाने लगा। “और सब दोस्तों को तो साहब बियर पिलाता है और इस बेचारे को ख़ाली पानी?” और पानी की बोतल खोलकर वह गिलास में पानी डालने लगा। जब वह गिलास बच्चे के मुँह के पास ले गया, तो बच्चे ने यह अपने हाथ में ले लिया। “मैं अपने आप पिऊँगा,” उसने कहा। “मैं छोटा थोड़े ही हूँ? मैं तो बड़ा हूँ।”
“अच्छा तू बड़ा है?” अब्दुल्ला हँसा। “तब तो तुझे पानी देकर मैंने ग़लती की। बड़े लोगों को तो मैं बियर ही पिलाता हूँ।”
“बियर क्या होता है?” बच्चे ने मुँह से गिलास हटाकर पूछा।
“बियर होता नहीं, होती है।” अब्दुल्ला ने झुककर उसे चूम लिया। “तुझे पिलाऊँ क्या?”
“नहीं,” कहकर बच्चे ने अपनी बाँहें प्रकाश की तरफ़ फैला दीं। प्रकाश उसे लेकर ड्योढ़ी की तरफ़ चला, तो अब्दुल्ला भी उन दोनों के साथ-साथ बाहर चला आया, “किसका बच्चा है, साहब?” उसने धीमे स्वर में पूछा।
“मेरा लड़का है,” कहकर प्रकाश बच्चे को सीढ़ी से नीचे उतारने लगा।
अब्दुल्ला हँस दिया। “साहब बहुत ख़ुशदिल आदमी है,” उसने कहा।
“क्यों?”
अब्दुल्ला हँसता हुआ सिर हिलाने लगा। “आपका भी जवाब नहीं है।”
प्रकाश ग़ुस्से में कुछ कहने को हुआ मगर अपने को रोककर बच्चे को लिए हुए आगे चल दिया। अब्दुल्ला ड्योढ़ी में रुककर पीछे से सिर हिलाता रहा। बैरा शेर मुहम्मद अंदर से निकलकर आया, तो वह फिर खिलखिलाकर हँस दिया।
“क्या बात है? अकेला खड़ा कैसे हँस रहा है?” शेर मुहम्मद ने पूछा।
“साहब का भी जवाब नहीं है,” अब्दुल्ला किसी तरह हँसी पर क़ाबू पाकर बोला।
“किस साहब का जवाब नहीं है?”
“उस साहब का,” अब्दुल्ला ने प्रकाश की तरफ़ इशारा किया। “उस दिन बोलता था कि इसने इसी साल शादी की है और आज बोलता है कि यह पाँच साल का बाबा इसका लड़का है। जब आया था, तो अकेला था। और आज इसके लड़का भी हो गया!” प्रकाश ने एक बार घूमकर तीखी नज़र से उसकी तरफ़ देख लिया। अब्दुल्ला एक बार फिर खिलखिला उठा। “ऐसा ख़ुशदिल आदमी मैंने आज तक नहीं देखा।”
“पापा, घास हरी क्यों होती है? लाल क्यों नहीं होती?” क्लब से निकलकर प्रकाश ने बच्चे को एक घोड़ा किराये पर ले दिया था। लिनेनमर्ग को जाने वाली पगडंडी पर वह स्वयं उसके साथ-साथ पैदल चल रहा था। घास के रेशमी विस्तार पर कोहरे का आकाश इस तरह झुका हुआ था जैसे वासना का उन्माद उसे फिर से घिर आने के लिए प्रेरित कर रहा हो। बच्चा उत्सुक आँखों से आसपास की पहाड़ियों को और बीच से बहकर जाती हुई पानी की पतली धार को देख रहा था। कभी कुछ क्षण वह अपने को भूला रहता, फिर किसी अज्ञात भाव से प्रेरित होकर काठी पर उछलने लगता।
“हर चीज़ का अपना रंग होता है,” प्रकाश ने बच्चे की एक जाँघ को हाथ से दबाए हुए कहा और कुछ देर स्वयं भी हरियाली के विस्तार में खोया रहा।
“हर चीज़ का अपना रंग क्यों होता है?”
“क्योंकि कुदरत ने हर चीज़ का अपना रंग बना दिया है।”
“कुदरत क्या होती है?”
प्रकाश ने झुककर उसकी जाँघ को चूम लिया। “कुदरत यह होती है,” उसने हँसकर कहा। जाँघ पर गुदगुदी होने से बच्चा भी हँसने लगा।
“तुम झूठ बोलते हो,” उसने कहा।
“क्यों?”
“तुमको इसका पता ही नहीं है।”
“अच्छा, मुझे पता नहीं है, तो तू बता, घास का रंग हरा क्यों होता है?”
“घास मिट्टी के अंदर से पैदा होती है, इसलिए इसका रंग हरा होता है।”
“अच्छा? तुझे इसका कैसे पता चल गया?”
बच्चा उछलता हुआ लगाम को झटकने लगा। “मेरे को ममी ने बताया था।”
प्रकाश के होंठों पर एक विकृत-सी मुस्कराहट आ गई। उसे लगा जैसे आज भी उसके और बीना के बीच एक द्वन्द्व चल रहा हो और बीना उस द्वन्द्व में उस पर भारी पड़ने की चेष्टा कर रही हो। “तेरी ममी ने तुझे और क्या-क्या बता रखा है?” वह बच्चे को थपथपाकर बोला, “यह भी बता रखा है कि आदमी के दो टाँगें क्यों होती हैं और चार क्यों नहीं?”
“हाँ। ममी कहती थी कि आदमी के दो टाँगें इसलिए होती हैं कि वह आधा ज़मीन पर चलता है, आधा आसमान में।”
“अच्छा?” प्रकाश के होंठों पर हँसी और मन में उदासी की एक रेखा फैल गई। “मुझे इसका पता नहीं था,” उसने कहा।
“तुमको तो कुछ भी पता नहीं है, पापा!” बच्चा बोला। “इतने बड़े होकर भी पता नहीं है!”
घास, बर्फ़ और आकाश के रंग दिन में कई-कई बार बदल जाते थे। बदलते रंगों के साथ मन भी और से और होने लगता था। सुबह उठते ही प्रकाश बच्चे के आने की प्रतीक्षा करने लगता। बार-बार वह बालकनी पर जाता और टूरिस्ट होटल की तरफ़ आँखें किए देर-देर तक खड़ा रहता। नाश्ता करने या खाना खाने जाने के लिए भी वह वहाँ से नहीं हटना चाहता था। उसे डर था कि बच्चा इस बीच वहाँ आकर लौट न जाए। तीन दिन में उसे साथ लिए वह कितनी ही बार घूमने के लिए गया था, उसके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ा था और उसके साथ घास पर लोटता रहा था। कभी एक दोस्त की तरह वह उसके साथ खिल-खिलाकर हँसता, कभी एक नौकर की तरह उसके हर आदेश का पालन करता। बच्चा जान-बूझकर रास्ते के कीचड़ में अपने पाँव लथपथ कर लेता और होंठ बिसोरकर कहता, “पापा, पाँव धो दो।” वह उसे उठाए इधर-उधर पानी ढूँढ़ता फिरता। बच्चे को वह जिस किसी कोण से भी देखता, उसी कोण से उसकी तस्वीर ले लेना चाहता। जब बच्चा थक जाता और लौटकर अपनी ममी के पास जाने का हठ करने लगता, तो वह उसे तरह-तरह के प्रलोभन देकर अपने पास रोक रखना चाहता। एक बार उसने बच्चे को अपनी माँ के साथ दूर से आते देखा और उसे साथ लाने के लिए उतरकर नीचे चला गया था। जब वह पास पहुँचा, तो बच्चा दौड़कर उसकी तरफ़ आने की जगह माँ के साथ फ़ोटोग्राफ़र की दुकान के अंदर चला गया। वह कुछ देर सड़क पर रुका रहा; फिर यह सोचकर ऊपर चला आया कि फ़ोटोग्राफ़र की दुकान से निकलकर बच्चा अपने-आप ऊपर आ जाएगा। मगर बालकनी पर खड़े-खड़े उसने देखा कि बच्चा दुकान से निकलकर उस तरफ़ आने की बजाय हठ के साथ अपनी माँ का हाथ खींचता हुआ उसे वापस टूरिस्ट होटल की तरफ़ ले चला। उसका मन हुआ कि दौड़कर जाए और बच्चे को अपने साथ ले जाए, मगर कोई चीज़ उसके पैरों को जकड़े रही और वह चुपचाप वहीं खड़ा उसे देखता रहा। शाम तक वह न जाने कितनी बार बालकनी पर आया और कितनी-कितनी देर वहाँ खड़ा रहा। आख़िर उससे नहीं रहा गया, तो उसने नीचे जाकर कुछ चेरी ख़रीदी और बच्चे को देने के बहाने टूरिस्ट होटल की तरफ़ चल दिया। अभी वह टूरिस्ट होटल से कुछ फ़ासले पर था कि बच्चा अपनी माँ के साथ बाहर आता दिखाई दिया। मगर उस पर नज़र पड़ते ही वह वापस होटल की गैलरी में भाग गया।
प्रकाश जहाँ था, वहीं खड़ा रहा। उस समय पहली बार उसकी आँखें बीना से मिलीं। उसे महसूस हुआ कि बीना का चेहरा पहले से कहीं साँवला हो गया है और उसकी आँखों के नीचे स्याह दायरे-से उभर आए हैं। वह पहले से काफ़ी दुबली भी लग रही थी। कुछ क्षण रुके रहने के बाद प्रकाश आगे चला गया और चेरीवाला लिफ़ाफ़ा बीना की तरफ़ बढ़ाकर ख़ुश्क गले से बोला, “यह मैं बच्चे के लिए लाया था।”
बीना ने लिफ़ाफ़ा ले लिया, मगर साथ ही उसकी आँखें दूसरी तरफ़ मुड़ गर्इं। “पलाश!” उसने कुछ अस्थिर आवाज़ में बच्चे को पुकारकर कहा। “यह ले, तेरे पापा तेरे लिए चेरी लाए हैं।”
“मैं नहीं लेता,” बच्चे ने गैलरी से कहा और भागकर और भी दूर चला गया।
बीना ने एक असहाय दृष्टि बच्चे पर डाली और प्रकाश की तरफ़ देखकर बोली, “कहता है, मैं पापा से नहीं बोलूँगा। वे सुबह रुके क्यों नहीं, चले क्यों गए थे?”
प्रकाश बीना को उत्तर न देकर गैलरी में चला गया और कुछ दूर बच्चे का पीछा करके उसने उसे बाँहों में उठा लाया। “मैं तुमसे नहीं बोलूँगा, कभी नहीं बोलूँगा,” बच्चा अपने को छुड़ाने की चेष्टा करता कहता रहा।
“क्यों, ऐसी क्या बात है?” प्रकाश उसे पुचकारने की चेष्टा करने लगा। “पापा से इस तरह नाराज़ होते हैं क्या?”
“तुमने मेरी तस्वीरें क्यों नहीं देखीं?”
“कहाँ थी तेरी तस्वीरें? मुझे तो पता ही नहीं था।”
“पता क्यों नहीं था? तुम दुकान के बाहर से ही क्यों चले गए थे?”
“अच्छा ला, पहले तेरी तस्वीरें देखें, फिर घूमने चलेंगे।”
“यह सुबह आपको दिखाने के लिए ही तस्वीरें लेने गया था।” बीना के साथ खड़ी एक युवा स्त्री ने कहा। प्रकाश ने ध्यान नहीं दिया था कि उसके साथ कोई और भी है।
“तस्वीरें मेरे पास थोड़े ही हैं? उसी के पास हैं।”
“सुबह फ़ोटोग्राफ़र ने निगेटिव दिखाए थे, पॉज़िटिव वह अब इस समय देगा,” उस नवयुवती ने फिर कहा।
“तो चल, पहले दुकान पर चलकर तेरी तस्वीरें ले लें। हाँ, देखें तो सही कैसी तस्वीरें हैं!” कहकर प्रकाश फ़ोटोग्राफ़र की दुकान की तरफ़ चलने लगा।
“मैं ममी को साथ लेकर जाऊँगा,” बच्चे ने उसकी बाँहों में मचलते हुए कहा।
“हाँ, हाँ, तेरी ममी भी साथ आ रही है,” कहते हुए प्रकाश ने एक बार निरुपाय-सी दृष्टि से पीछे की तरफ़ देख लिया और जैसे किसी अदृश्य व्यक्ति से कहा, “देखिए, आप भी साथ आ जाइए, नहीं तो यह रोने लगेगा।”
बीना होंठ दाँतों में दबाए हुए कुछ क्षण आँखें झपकती रहीं, फिर वह चुपचाप उसके साथ चल दी।
फ़ोटोग्राफ़र की दुकान में दाख़िल होते ही बच्चा प्रकाश की बाँहों से उतर गया और फ़ोटोग्राफ़र से बोला, “मेरे पापा को मेरी तस्वीरें दिखाओ।” फ़ोटोग्राफ़र ने तस्वीरें निकालकर मेज़ पर फैला दीं, तो बच्चा उनमें से एक-एक तस्वीर उठाकर प्रकाश को दिखाने लगा, “देखो पापा, यह वहीं की तस्वीर है न जहाँ से तुमने कहा था, सारा कश्मीर नज़र आता है? और यह तस्वीर भी देखो पापा, जो तुमने मेरी घोड़े पर उतारी थी...।”
“दो दिन से बिलकुल साफ़ बोलने लगा है,” बीना की सहेली ने धीरे से कहा। “कहता है पापा ने कहा है तू बड़ा हो गया है, इसलिए अब तुतलाकर न बोला कर।”
प्रकाश कुछ न कहकर तस्वीरें देखता रहा। फिर जैसे कुछ याद हो आने से उसने दस रुपए का एक नोट निकालकर फ़ोटोग्राफ़र को देते हुए कहा, “इसमें से आप अपने पैसे काट लीजिए!”
फ़ोटोग्राफ़र पल-भर असमंजस में उसे देखता रहा। फिर बोला, “पैसे तो अभी आप ही के मेरी तरफ़ निकलते हैं। मेम साहब ने जो बीस रुपए परसों दिए थे, उनमें से दो-एक रुपए अभी बचते होंगे। कहें तो अभी हिसाब कर दूँ।”
“नहीं, रहने दीजिए, हिसाब फिर हो जाएगा,” कहकर प्रकाश ने नोट वापस जेब में रख लिया और बच्चे की उँगली पकड़े दुकान से बाहर निकल आया। कुछ क़दम चलने पर पीछे से बीना का स्वर सुनाई दिया, “यह आपके साथ घूमने जा रहा है क्या?”
“हाँ!” प्रकाश ने थोड़ा चौंककर पीछे देख लिया। “मैं अभी थोड़ी देर में इसे वापस छोड़ जाऊँगा।”
“देखिए, आपसे एक बात कहनी थी...।”
“कहिए...।”
बीना पल-भर कुछ सोचती हुई चुप रही। फिर बोली, “इसे ऐसी कोई बात मत बताइएगा जिससे यह...।”
प्रकाश को लगा जैसे कोई चीज़ उसके स्नायुओं को चीरती चली गई। उसकी आँखें झुक गर्इं और उसने धीरे-से कहा, “नहीं, मैं ऐसी कोई बात इससे नहीं कहूँगा।” उसे खेद हुआ कि एक दिन पहले जब बच्चा हठ करके कह रहा था कि ‘पापा’ और ‘पिताजी’ एक ही व्यक्ति को नहीं कहते—‘पापा’ पापा को कहते हैं और ‘पिताजी’ ममी के पापा को—तो वह क्यों उसकी ग़लतफ़हमी दूर करने की कोशिश करता रहा था?
वह बच्चे के साथ अकेला क्लब की सड़क पर चलने लगा, तो कुछ दूर जाकर बच्चा सहसा रुक गया। “हम कहाँ जा रहे हैं, पापा?” उसने पूछा।
“पहले क्लब चल रहे हैं,” प्रकाश ने कहा। “वहाँ से घोड़ा लेकर आगे घूमने जाएँगे।”
“नहीं, मैं वहाँ उस आदमी के पास नहीं जाऊँगा”। कहकर बच्चा सहसा पीछे की तरफ़ चल दिया।
“किस आदमी के पास?”
“वह जो वहाँ पर क्लब में था। मैं उसके हाथ से पानी भी नहीं पिऊँगा।”
“क्यों?”
“मुझे वह आदमी अच्छा नहीं लगता।”
प्रकाश पल-भर बच्चे के चेहरे को देखता रहा, फिर वह भी वापस चल दिया। “हाँ, हम उस आदमी के पास नहीं चलेंगे,” उसने कहा। “मुझे भी वह आदमी अच्छा नहीं लगता।”
बहुत दिनों के बाद उस रात प्रकाश को गहरी नींद आर्इ थी। एक ऐसी विस्मृति-सी नींद, जिसमें स्वप्न-दुःस्वप्न कुछ न हो, उसके लिए लगभग भूली हुई चीज़ हो चुकी थी। फिर भी जागने पर उसे अपने में एक ताज़गी का अनुभव नहीं हुआ—अनुभव हुआ एक ख़ालीपन का ही। जैसे कोई चीज़ उसके अंदर उफनती रही हो, जो गहरी नींद सो लेने से चुक गई हो। रोज़ की तरह उठकर वह बालकनी पर गया। देखा आकाश साफ़ है। रात को सोया था, तो वर्षा हो रही थी। परंतु उस धुले-निखरे हुए आकाश को देखकर आभास तक नहीं होता था कि कभी वहाँ बादलों का अस्तित्व भी था। सामने की पहाड़ियाँ सुबह की धूप में नहाकर बहुत उजली हो उठी थीं।
प्रकाश कुछ देर वहाँ खड़ा रहा—शांतिरहित, और विचारहीन। फिर सहसा दूर के छोर में उठते हुए बादल की तरह इसे कोई चीज़ अपने में उमड़ती हुई प्रतीत हुई और उसका मन एक अज्ञात आशंका से सिहर गया। तो क्या...?
वह बालकनी से हट आया। पिछली शाम को बच्चे ने बताया था कि उसकी ममी कह रही है कि दिन साफ़ हुआ, तो सुबह वे लोग वहाँ से चले जाएँगे। रात को जिस तरह वर्षा हो रही थी, उससे सुबह तक आकाश के साफ़ होने की कोई संभावना नहीं लगती थी। इसलिए सोने के समय उसका मन इस ओर से लगभग निश्चिन्त था। परंतु रात-रात में आकाश का दृश्यपट बिलकुल बदल गया था। तो क्या सचमुच आज ही उन लोगों को वहाँ से चले जाना था?
उसने कमरे के बिखरे हुए सामान को देखा—दो-चार इनी-गिनी चीज़ें ही थीं। चाहा कि उन्हें सहेज दे, मगर किसी चीज़ को रखने-उठाने को मन नहीं हुआ। बिस्तर को देखा जिसमें रोज़ से बहुत कम सलवटें पड़ी थीं। लगा जैसे रात की गहरी नींद के लिए वह बिस्तर ही दोषी हो और गहरी नींद ही—बरसते हुए आकाश के साफ़ हो जाने के लिए! उसने बिस्तर की चादर को हिला दिया कि उसमें और सलवटें पड़ जाएँ मगर उससे चादर में जो दो-एक सलवटें थीं, वे भी निकल गई। वह फिर से एक नींद लेने के इरादे से बिस्तर पर लेट गया।
शरीर में थकान बिलकुल नहीं थी, इसलिए नींद नहीं आई। कुछ करवटें लेने के बाद वह नहाने-धोने के लिए उठ गया। लड़खड़ाते क़दमों से सुबह दोपहर की तरफ़ बढ़ने लगी, तो उसके मन को कुछ सहारा मिलने लगा। वह चाहने लगा कि इसी तरह शाम हो जाए और फिर रात—और बच्चा उससे विदा लेने के लिए न आए। परंतु इसी तरह जब दोपहर भी ढलने को आ गई और बच्चा नहीं आया, तो उसके मन में धीरे-धीरे एक और ही आशंका सिर उठाने लगी। वह सोचने लगा कि दिन साफ़ होने से उसकी ममी कहीं सुबह-सुबह ही तो उसे लेकर वहाँ से नहीं चली गई?
वह बार-बार बालकनी पर जाता—एक धड़कती हुई आशा और आशंका लिए हुए। बार-बार टूरिस्ट होटल की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर नज़र डालता और एक अनिश्चित-सी अनुभूति लिए हुए कमरे में लौट आता। उसकी धमनियों में लहू का हर कण, मस्तिष्क में चेतना का हर बिंदु उत्कंठा से व्याकुल था। उसने कुछ कुछ खाया नहीं था, इसलिए भूख भी उसे परेशान कर रही थी। कुछ देर के बाद कमरा बंद करके वह खाना खाने चला गया। मोटे-मोटे कौर निगलकर उसने किसी तरह दो रोटियाँ गले से उतारीं और तुरंत वापस चल पड़ा। कुछ क्षणों के लिए भी कमरे से बाहर और बालकनी से दूर रहना उसे एक अपराध-सा लग रहा था। लौटते हुए उसने सोचा कि उसे स्वयं टूरिस्ट होटल में जाकर पता कर लेना चाहिए कि वे लोग वहीं हैं या चले गए हैं। मगर सड़क की चढ़ाई चढ़ते हुए उसने दूर से ही देखा—बीना बच्चे के साथ उसकी बालकनी के नीचे खड़ी थी। वह हाँफता हुआ तेज़-तेज़ चलने लगा।
वह पास जा पहुँचा, तो भी बच्चे ने उसकी तरफ़ नहीं देखा। वह अपनी माँ का हाथ खींचता हुआ किसी बात के लिए हठ कर रहा था। प्रकाश ने उसकी बाँह को हाथ में ले लिया, तो उससे बाँह छुड़ाने का प्रयत्न करने लगा। “मैं तुम्हारे घर नहीं जाऊँगा,” उसने लगभग चीख़कर कहा। प्रकाश अचकचा गया और उसकी मूढ़-सा उसकी तरफ़ देखता रहा।
“क्यों, तू मुझसे नाराज़ है क्या?” उसने पूछा।
“ममी, मेरे साथ ऊपर क्यों नहीं चलती?” बच्चा फिर उसी तरह चिल्लाया।
प्रकाश और बीना की आँखें एक-दूसरे की तरफ़ उठने को हुईं, मगर पूरी तरह नहीं उठ पार्इं। प्रकाश ने बच्चे का बाँह फिर थाम ली और बीना से कहा, “आप भी साथ आ जाइए न!”
“इसे आज जाने क्या हुआ!” बीना झुँझलाहट के साथ बोली। “सुबह से ही तंग कर रहा है!”
“इस वक़्त यह आपके बिना ऊपर नहीं जाएगा,” प्रकाश ने कहा। “आप साथ आ क्यों नहीं जातीं?”
“चल, मैं तुझे ज़ीने तक पहुँचा देती हूँ,” बीना उसे उत्तर न देकर बच्चे से बोली। “ऊपर से जल्दी लौट आना। घोड़ेवाले कितनी देर से तैयार खड़े हैं।”
प्रकाश को अपने अंदर एक नश्तर-सा चुभता महसूस हुआ। मगर जल्दी ही उसने अपने को सँभाल लिया। “आप लोग आज ही जा रहे हैं क्या?” वह किसी तरह कठिनाई से पूछ सका।
“जी हाँ,” बीना दूसरी तरफ़ देखती रही। “जाना तो सुबह-सुबह ही था, मगर इसके हठ की वजह से इतनी देर हो गई है। अब भी यह...।” और वह बात बीच में ही छोड़कर उसने बच्चे से फिर कहा, “तो चल, तुझे ज़ीने तक पहुँचा दूँ।”
बच्चा प्रकाश के हाथ से बाँह छुड़ाकर कुछ दूर भाग गया। “मैं नहीं जाऊँगा,” उसने कहा।
“अच्छा आ,” बीना बोली। “मैं तुझे ज़ीने के ऊपर तक छोड़ आऊँगी—उस दिन की तरह।”
“मैं नहीं जाऊँगा,” और बच्चा कुछ क़दम और भी दूर चला गया।
“आप साथ आ क्यों नहीं जातीं? यह इस तरह अपना हठ नहीं छोड़ेगा,” प्रकाश ने कहा। बीना ने आधे क्षण के लिए उसकी तरफ़ देखा। उस दृष्टि में आक्रोश के अतिरिक्त न जाने क्या-क्या भाव था। परंतु आधे क्षण में ही वह भाव धुल गया और बीना ने अपने को सहेज लिया। उसके चेहरे पर एक तरह की दृढ़ता आ गई और उसने बच्चे के पास जाकर उसे उठा लिया। “तो चल मैं तेरे साथ चलती हूँ,” उसने कहा।
बच्चे का रुआँसा भाव एक क्षण में ही बदल गया और उसने हँसते हुए अपनी माँ के गले में बाँहें डाल दीं। प्रकाश ने धीरे से कहा, “आइए” और उन दोनों के आगे-आगे चलने लगा।
ऊपर कमरे में पहुँचकर बीना ने बच्चे को नीचे उतार दिया और कहा, “ले अब मैं जा रही हूँ।”
“नहीं,” बच्चे ने उसका हाथ पकड़ लिया। “तुम भी यहाँ बैठो।”
“बैठिए,” प्रकाश ने कुर्सी पर पड़ी दो-एक चीज़ें जल्दी से उठा दीं और कुर्सी बीना की तरफ़ बढ़ा दी। बीना कुर्सी पर न बैठकर चारपाई के कोने पर बैठ गई। तभी बच्चे का ध्यान न जाने किस चीज़ ने खींच लिया। वह उन दोनों को छोड़कर बालकनी में भाग गया और वहाँ से उचककर सड़क की तरफ़ देखने लगा।
प्रकाश कुर्सी की पीठ पर हाथ रखे जैसे खड़ा था, वैसे ही खड़ा रहा। बीना चारपाई के कोने में और भी सिमटकर दीवार की तरफ़ देखने लगी। सहसा असावधानी के एक क्षण में उनकी आँखें मिल गर्इं, तो बीना ने जैसे पूरी शक्ति संचित करके कहा, “कल इसकी जेब में कुछ रुपए मिले थे। वे आपने रखे थे?”
प्रकाश सहसा ऐसे हो गया जैसे किसी ने उसे पकड़कर झकझोर दिया हो। “हाँ,” प्रकाश ने लड़खड़ाते हुए स्वर में कहा। “सोचा था कि उनसे यह कोई चीज़...बनवा लेगा।”
बीना पल-भर चुप रही। फिर बोली, “क्या चीज़ बनवानी होगी?”
“कोई भी चीज़ बनवा दीजिएगा। कोई अच्छा-सा ओवरकोट या... ।”
कुछ देर फिर चुप्पी रही। फिर बीना बोली, “कैसा कोट बनवाना होगा?”
“कैसा भी बनवा दीजिएगा। जैसा इसे अच्छा लगे, या...जैसा आप ठीक समझें।”
“कोई ख़ास तरह का कपड़ा लेना हो, तो बता दीजिए।”
“नहीं, ख़ास कपड़ा कोई नहीं...कैसा भी ले लीजिएगा।”
“कोई ख़ास रंग...?”
“नहीं...हाँ...नीले रंग का हो, तो ज़्यादा अच्छा रहेगा।”
बच्चा उछलता हुआ बालकनी से लौट आया और बीना का हाथ पकड़कर बोला, “अब चलो।”
“पापा से तूने प्यार तो किया ही नहीं और आते ही चल भी दिया?” प्रकाश ने उसे बाँहों में ले लिया। बच्चे ने उसके होंठों से होंठ मिलाकर एक बार अच्छी तरह उसे चूम लिया और फिर झट से उसकी बाँहों से उतरकर माँ से बोला, “अब चलो।”
बीना चारपाई से उठ खड़ी हुई। बच्चा उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर की तरफ़ खींचने लगा। “तलो न ममी देल हो लही है,” वह फिर तुतलाने लगा और बीना को साथ लिए हुए दहलीज़ पार कर गया।
“तू जाकर पापा को चिट्ठी लिखेगा न?” प्रकाश ने पीछे से पूछा।
“लिथूंदा।” मगर उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पीछे मुड़कर देखा एक बार बीना ने, और जल्दी से आँखें हटा लीं। उसकी आँखों के कोरों में अटके आँसू उसके गालों पर बह आए थे। “तूने पापा को टा-टा नहीं किया,” उसने बच्चे के कंधे पर हाथ रखे हुए कहा। आँखों की तरह उसका स्वर भी भीगा हुआ था।
“टा-टा पापा!” बच्चे ने बिना पीछे की तरफ़ देखे हाथ हिला दिया और ज़ीने से उतरने लगा। आधे ज़ीने से फिर उसकी आवाज़ सुनाई दी, “पापा का घल अच्छा नहीं है ममी, हमाले वाल घल अच्छा है। पापा ते घल में तो कुछ भी छामान ही नहीं है...!”
“तू चुप करेगा कि नहीं!” बीना ने उसे झिड़क दिया। “जो मुँह में आता है बोलता जाता है।”
“नहीं तुप कलूँदा, नहीं कलूँदा तुप...,” बच्चे का स्वर फिर रुआँसा हो गया और वह तेज़-तेज़ क़दमों से नीचे उतरने लगा। “पापा का घल दन्दा! पापा का घल थू...!”
रात होते-होते आकाश फिर घिर गया। प्रकाश क्लब के बाररूम में बैठा एक के बाद एक बियर की बोतलें ख़ाली करता रहा। बारमैन अब्दुल्ला लोगों के लिए रम और विह्स्की के पेग ढालता हुआ बार-बार कनखियों से उसकी तरफ़ देख लेता था। इतने दिनों में पहली बार वह प्रकाश को इस तरह पीते देख रहा था। “आज लगता है साहब ने कहीं से बहुत माल मारा है,” उसने एक बार धीमे स्वर में शेर मुहम्मद से कहा। “आगे कभी एक बोतल से ज़्यादा नहीं पीता और आज चार-चार बोतलें पीकर भी बस करने का नाम नहीं ले रहा।”
शेर मुहम्मद ने सिर्फ़ मुँह बिचका दिया और अपने काम में लगा रहा।
प्रकाश की आँखें अब्दुल्ला से मिलीं, तो अब्दुल्ला मुस्करा दिया। प्रकाश कुछ क्षण इस तरह उसे देखता रहा जैसे वह आदमी न होकर एक धुंधला-सा साया हो, और सामने का गिलास परे सरकाकर उठ खड़ा हुआ। काउंटर के पास जाकर उसने दस-दस के दो नोट निकालकर अब्दुल्ला के सामने रख दिए। अब्दुल्ला बाक़ी पैसे गिनता हुआ ख़ुशामदी स्वर में बोला, “आज साहब बहुत ख़ुश नज़र आता है।”
“अच्छा?” प्रकाश इस तरह उसे देखता रहा जैसे उसके देखते-देखते वह साया धुंधला होकर बादलों में गुम होता जा रहा हो। जब वह चलने को हुआ, तो अब्दुल्ला ने पहले सलाम किया और फिर पूछ लिया, “क्यों साहब, वह कौन था उस दिन आपके साथ? किसका लड़का था वह?”
प्रकाश को लगा जैसे वह साया अब बिलकुल गुम हो गया हो और उसके सामने सिर्फ़ बादल ही बादल घिरा रह गया हो। उसने जैसे दूर बादल के गर्भ में देखने की चेष्टा करते हुए कहा, “कौन लड़का?”
“अब्दुल्ला पल-भर भौचक्का-सा हो रहा, फिर खिलखिलाकर हँस पड़ा। “तब तो मैंने शेर मुहम्मद से ठीक ही कहा था...” वह बोला।
“क्या कहा था?”
“कि हमारा साहब तबीअत का बादशाह है। जब चाहे किसी के लड़के को अपना लड़का बना ले, और जब चाहे...यहाँ गुलमर्ग में तो यह सब चलता है। आप जैसा हमारा एक और साहब है...।”
प्रकाश को लगा कि बादल बीच से फट गया है और चीलों की कई पंक्तियाँ उस दर्रे में से होकर दूर उड़ी जा रही हैं—वह चाह रहा है कि दर्रा किसी तरह भर जाए जिससे वे पंक्तियाँ आँखों से ओझल हो जाएँ; मगर दर्रे का मुहाना और-और बड़ा होता जा रहा है। उसके गले से एक अस्पष्ट-सी आवाज़ निकल पड़ी और वह अब्दुल्ला की तरफ़ से आँखें हटाकर चुपचाप वहाँ से चल दिया।
“बस एक बाज़ी और...!” अपनी आवाज़ की गूँज प्रकाश को स्वयं अस्वाभाविक-सी लगी। उसके साथियों ने हल्का-सा विरोध किया, मगर पत्ते एक बार फिर बँटने लगे।
कार्ड-रूम तब तक लगभग ख़ाली हो चुका था। कुछ देर पहले तक वहाँ काफ़ी चहल-पहल थी—नाज़ुक हाथों से पत्तों की नाज़ुक चालें चली जा रही थीं और शीशे के नाज़ुक गिलास रखे उठाए जा रहे थे। मगर अब आस-पास चार-चार ख़ाली कुर्सियों से घिरी चौकोर मेज़ें बहुत अकेली और उदास लग रही थीं। पॉलिश की चमक के बावजूद उनमें एक वीरानगी आ गई थी। सामने की दीवार में बुख़ारी की आग भी कब की ठंडी पड़ चुकी थी। जाली के उस तरफ़ कुछ बुझे-अधबुझे अंगारे ही रह गए थे—सर्दी से ठिठुरकर स्याह पड़ते और राख में गुम होते हुए।
उसने पत्ते उठा लिए। हर बार की तरह इस बार भी सब बेमेल पत्ते थे—ऐसी बाज़ी कि आदमी फेंककर अलग हो जाए। मगर उसी के अनुरोध से पत्ते बँटे थे, इसलिए वह उन्हें फेंक नहीं सकता था। उसने नीचे से पत्ता उठाया, तो वह और भी बेमेल था। हाथ से कोई भी पत्ता चलकर वह उन पत्तों का मेल बैठाने का प्रयत्न करने लगा।
बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही थी—पिछली रात जैसी वर्षा हुई थी, उससे भी तेज़। खिड़की के शीशों से टकराती बूँदें बार-बार एक चुनौती लिए हुए आतीं थीं, परंतु सहसा बेबस होकर नीचे को ढुलक जातीं थीं। उन बहती हुई धारों को देखकर लगता था जैसे कई एक चेहरे खिड़की के साथ सटकर अंदर झाँक रहे हों और लगातार रो रहे हों। किसी क्षण हवा से किवाड़ हिल जाते थे, तो वे चेहरे जैसे हिचकियाँ लेने लगते थे। हिचकियाँ बंद होने पर ग़ुस्से से घूरने लगते। उन चेहरों के पीछे अँधेरा छटपटाता हुआ दम तोड़ रहा था।
“डिक्लेयर!” प्रकाश चौंक गया। उसके हाथ के पत्ते अभी उसी तरह थे—इस बार भी उसे फुल हैंड ही देना था। पत्ते फेंककर उसने पीछे टेक लगा ली और फिर खिड़की से सटे चेहरों को देखने लगा।
“तुम बहुत ही ख़ुशक़िस्मत हो प्रकाश, सचमुच हममें सबसे ख़ुशक़िस्मत आदमी तुम्हीं हो...!” प्रकाश की आँखें खिड़की से हट आर्इं। पत्ते उठाकर रख दिए गए थे और मेज़ पर हार-जीत का हिसाब किया जा रहा था। हिसाब करने वाला आदमी ही उससे कह रहा था, “कहते हैं न, जो पत्तों में बदक़िस्मत हो, वह ज़िंदगी में ख़ुशक़िस्मत होता है! अब देख लो सबसे ज़्यादा तुम्हीं हारे हो, इसलिए मानना पड़ेगा कि सबसे ख़ुशक़िस्मत आदमी तुम्हीं हो।”
प्रकाश ने अपने नाम के आगे लिखे गए जोड़ को देखा। पल-भर के लिए उसकी धड़कन बढ़ गई कि जेब में उतने पैसे हैं भी या नहीं। जेब में हाथ डालकर उसने पूरी जेब ख़ाली कर ली। लगभग हारी हुई रक़म के बराबर ही पैसे जेब में थे। रक़म अदा कर देने के बाद दो-एक छोटे सिक्के ही उसके पास में बचे रहे—और उनके साथ वह मुचड़ा हुआ अंतर्देशीय पत्र जो शाम की डाक से आया था और जिसे जेब में रखकर वह क्लब चला आया था। पत्र निर्मला का था जो उसने अब तक खोलकर पढ़ा नहीं था। जेब में पड़े-पड़े वह पत्र काफ़ी मुचड़ गया था। निर्मला के अक्षरों की बनावट पर नज़र पड़ते ही उसके कई-कई उन्मादी चेहरे उसके सामने उभरने लगे—उसके हाथ का एक-एक अक्षर जैसे एक-एक चेहरा हो! घर से चलने के दिन भी वह उसके कितने-कितने चेहरे देखकर आया था! एक चेहरा था जो हँस रहा था, एक था जो रो रहा था; एक बाल खोले ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था और धमकियाँ दे रहा था और एक...एक भूखी आँखों से उसके शरीर को निगलना चाह रहा था! उसने रोज़ के इस्तेमाल का कुछ सामान साथ लाना चाहा था, तो एक चेहरा उसके साथ मल्लयुद्ध करने पर उतारू हो गया था।
“निर्मला!” उसने हतप्रभ होकर कहा था। “तुम्हें इस तरह गुत्थमगुत्था होते शरम नहीं आती?”
“क्यों?” निर्मला हँस दी थी। “मरद और औरत रात-दिन गुत्थमगुत्था नहीं होते क्या?”
वह बिना एक क़मीज़ तक साथ लिए घर से निकल आया था। बनियान, तौलिया,कंघा, क़मीज़ सब कुछ उसने आते हुए रास्ते में ख़रीदा था—यह सोचने के लिए वह नहीं रुका था कि उसके पास जो चार-पाँच सौ रुपए की पूँजी है, वह इस तरह कितने दिन चलेगी! बिछाने-ओढ़ने का सारा सामान भी उसे वहाँ पहुँचकर ही किराये पर लेना पड़ा था...!
और वहाँ आने के चौथे-पाँचवें दिन से ही निर्मला के पत्र आने आरंभ हो गए थे—वह उसके किसी मित्र के यहाँ जाकर उसका पता लगा आर्इ थी। उन पत्रों में भी निर्मला के वे सब चेहरे ज्यों के त्यों विद्यमान रहते थे...वह सख़्त बीमार है और अस्पताल जा रही है...उसके भाई पुलिस में ख़बर करने जा रहे हैं कि उनका बहनोई लापता हो गया है...वह रात-दिन बेचैन रहती है और दीवारों से पूछती रहती है कि “उसका चाँद कहाँ है”...वह जोगिन का वेश धारण करके जंगलों में जा रही है...दो दिन के अंदर-अंदर पत्र का उत्तर न आया, तो उसके भाई उसे हवाई जहाज़ में वहाँ भेज देंगे...उसके छोटे भाई ने उसे बहुत पीटा है कि वह अपने ‘ख़सम’ के पास क्यों नहीं जाती...!
अन्तर्देशीय पत्र प्रकाश की उँगलियों में मसल गया था। उसे फिर से जेब में डालकर वह उठ खड़ा हुआ। बाहर ड्योढ़ी में कुछ लोग जमा थे—कि बारिश रुके, तो वहाँ से जाएँ। उनके बीच से होकर वह बाहर निकल आया।
“आप इस बारिश में जा रहे हैं?” किसी ने उससे पूछा। उसने चुपचाप सिर हिला दिया और कच्चे रास्ते पर चलने लगा। सामने केवल ‘नीडोज़ होटल’ की बत्तियाँ जगमगा रही थीं—बाक़ी सब तरफ़, दाएँ-बाएँ और ऊपर-नीचे अँधेरा ही अँधेरा था। क्लब के अहाते से निकलकर वह सड़क पर पहुँचा, तो पानी और भी तेज़ हो गया।
उसका सिर पूरा भीग गया था और पानी की धारें गले से होकर कपड़ों के अंदर जा रही थीं। हाथ-पैर सुन्न हो रहे थे, मगर आँखों में उसे एक जलन-सी महसूस हो रही थी। कीचड़ से लथपथ पैर रास्ते में आवाज़ करते थे तो शरीर में कोई चीज़ झनझना उठती थी। सहसा एक नई सिहरन उसके शरीर में भर गई। उसे लगा कि वह सड़क पर अकेला नहीं है—कोई और भी अपने नन्हे-नन्हे पाँव पटकता उसके साथ चल रहा है। रास्ते की नाली पर बना लकड़ी का पुल पार करते हुए उसने घूमकर उस तरफ़ देखा। उसके साथ-साथ चल रहा था एक भीगा कुत्ता—कान झटकता हुआ, ख़ामोश और अन्तर्मुख!
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“pashi!” isse pahle ki wo nishchay kar pata, anayas uske munh se nikal gaya
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“palash, idhar aa mere pas,” parkash ne hath se chutki bajate hue kaha, jaise ki ye har roz ki sadharan ghatna ho aur bachcha abhi kuch minat pahle hi uske pas se apni man ke pas gaya ho
bachche ne man ki taraf dekha wo apni ankhen hatakar dusri taraf dekh rahi thi bachcha ab aur bhi uske sath sat gaya aur uski ankhen hairani ke sath sath ek shararat se chamak uthin
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“tune papa ko pahchana nahin tha kya?”
“paitana ta,” bachcha banhen uske gale mein Dalkar jhulne laga
“to tu jhat se papa ke pas aaya kyon nahin?”
“nahin aaya,” kahkar bachche ne use choom liya
“tu aaj hi yahan aaya hai?”
“nahin, tal aaya ta ”
“abhi rahega ya aaj hi laut jayega?”
“abi teen chaal din lahunda ”
“to papa ke pas milne ayega n?”
“aunda ”
parkash ne ek bar use achchhi tarah apne sath satakar choom liya, to bachcha kilakkar uske mathe, ankhon aur galon ko jagah jagah chumne laga
“kaisa bachcha hai!” pas khaDe ek kashmiri mazdur ne sir hilate hue kaha
“tum tahan lahte ho?” bachcha banhen usi tarah uski gardan mein Dale jaise use achchhi tarah dekhne ke liye thoDa pichhe ko hat gaya
“wahan!” parkash ne door apni balakni ki taraf ishara kiya, “tu kab tak wahan ayega?”
“abi upal jatal dood piunda, uchhke baad tumale pachh aunda ” bachche ne ab apni man ki taraf dekha aur uski banhon se nikalne ke liye machalne laga
“main wahan balakni mein kursi Dalkar baitha rahunga aur tera intizar karunga,” bachcha banhon se utarkar apni man ki taraf bhag gaya, to parkash ne pichhe se kaha kshan bhar ke liye uski ankhen bachche ki man se mil garin, parantu agle hi kshan donon dusri dusri taraf dekhne lage bachcha jakar man ki tangon se lipat gaya wo kohre ke par dewdaron ki dhundhli rekhaon ko dekhti hui boli, “tujhe doodh pikar aaj khilanmarg nahin chalna hai kya?”
“nahin,” bachche ne uski tangon ke sahare uchhalte hue sapat jawab diya, “main dood pital papa te pachh jaunda ”
teen din, teen raton se akash ghira tha kohara dhire dhire itna ghana ho gaya tha ki balakni se aage koi roop, koi rang nazar nahin aata tha akash ki paradarshita par jaise gaDha safeda pot diya gaya tha jyon jyon samay beet raha tha, kohara aur ghana hota ja raha tha kursi par baithe hue parkash ko kisi kisi kshan mahsus hone lagta jaise wo balakni pahaDiyon se ghire khule wistar mein na hokar antriksh ke kisi rahasyamay pardesh mein bani ho—niche aur upar kewal akash hi akash ho, jiske atal mein balakni ki satta ek apne aap mein poorn aur swatantr ek lok ki tarah ho
uski ankhen is tarah ektak samne dekh rahi thin—jaise akash aur kohre mein use koi arth DhunDh़na ho—apni balakni ke wahan hone ka rahasy janna ho
hawa se kohre ke badal kai kai roop lekar idhar udhar bhatak rahe the—apni gahrai mein phailte aur simatte hue we apni thah nahin pa rahe the beech mein kahin kahin dewdaron ki phunagiyan ek hari lakir ki tarah bahar nikli hui thin—kohre ke akash par likhi gai ek ast wyast lipi jaisi dekhte dekhte wo lakir bhi gum ho jati thi—kohre ka hay use rahne dena nahin chahta tha lakir ko mitte dekhkar snayuon mein ek tanaw sa aa raha tha—jaise kisi bhi tarah wo us lakir ko mitne se bacha lena chahta ho parantu jab lakir ek bar mitkar bahar nahin nikli, to usne sir pichhe ko Dal liya aur swayan bhi kohre mein kohara hokar paD raha
atit ke kohre mein kahin wo din bhi tha jo chaar baras beet jane par bhi aaj tak beet nahin saka tha
bachche ki pahli warshaganth thi us din—wahi unke jiwan ki bhi sabse baDi ganth ban gai thi
wiwah ke kuch mahine baad se hi pati patni alag alag rahne lage the wiwah ke sath jo sootr juDna chahiye tha, wo juD nahin saka tha donon alag alag jagah kaam karte the aur apna apna swatantr tana bana bunkar ji rahe the lokachar ke nate sal chhe mahine mein kabhi ek bar mil liya karte the wo lokachar hi is bachche ko duniya mein le aaya tha
bina samajhti thi ki is tarah jaan bujhkar use phansa diya gaya hai parkash sochta tha ki anjane mein hi usse ek apradh ho gaya hai parantu janm ke panchwen ya chhathe roz bachche ki haalat sahsa bahut kharab ho gai, to wo apne kamre mein akela baitha hawa mein bachche ke akar ko dekhta hua kahta raha tha, “dekh tujhe jina hai tu is tarah nahin ja sakta sun raha hai? tujhe jina hai har haalat mein jina hai main tujhe jane nahin dunga samjha?”
sal bhar se bachcha man ke hi pas rah raha tha beech mein bachche ki dadi chhe sat mahine uske pas rah aari thi
pahli warshaganth par bina ne likha tha ki wo bachche ko lekar apne pita ke yahan lucknow ja rahi hai wahin par bachche ke janmdin ki party karegi
parkash ne use tar diya tha ki wo bhi us din lucknow ayega apne ek mitr ke yahan hazaratganj mein thahrega achchha hoga ki party wahin par ki jaye lucknow ke kuch mitron ko bhi usne suchit kar diya tha ki bachche ki warshaganth ke awsar par we uske sath chay pine ke liye ayen
usne socha tha ki bina use station par mil jayegi, parantu wo nahin mili hazaratganj pahunchakar nha dho chukne ke baad usne bina ke pas sandesh bheja ki wo wahan pahunch gaya hai, kuch log saDhe chaar panch baje chay par ayenge, isliye wo us samay tak bachche ko lekar awashy wahan pahunch jaye parantu panch baje, chhe baje, sat baj gaye, bina bachche ko lekar nahin aari dusri bar sandesh bhejne par pata chala ki wahan un logon ki party chal rahi hai bina ne kahla bheja ki bachcha aath baje tak khali nahin hoga, isliye wo us samay use lekar nahin aa sakti parkash ne apne mitron ko chay pilakar wida kar diya bachche ke liye kharide hue uphaar bina ke pita ke yahan bhej diye sath mein ye sandesh bhi bheja ki bachcha jab bhi khali ho, use thoDi der ke liye uske pas bhej diya jaye
parantu aath ke baad nau baje, das baje, barah baj gaye, par bina na to swayan bachche ko lekar aari, aur na hi usne use kisi aur ke sath bheja
parkash raat bhar soya nahin uske dimagh ko jaise koi chhaini se chhilta raha
subah usne phir bina ke pas sandesh bheja is bar bina bachche ko lekar aa gai usne bataya ki raat ko party der tak chalti rahi, isliye uska aana sambhaw nahin tha—agar wastaw mein use bachche se pyar tha, to uska kartawya tha ki wo apne uphaar lekar khu unke yahan party mein aa jata
us din subah se arambh hui batachit aadhi raat tak chalti rahi parkash bar bar kahta raha, “bina, main is bachche ka pita hoon pita hone ke nate mujhe ye adhikar to hai hi ki main bachche ko apne pas bula sakun ”
parantu bina ka uttar tha, “apke pas pita ka dil hota, to kya aap party mein na aate? aap mujhse puchhen, to main to kahungi ki ye ek akasmik ghatna hi hai ki aap iske pita hain ”
“bina!” wo phati phati ankhon se uske chehre ki taraf dekhta rah gaya “tum batao, tum chahti kya ho!”
“kuchh bhi nahin aapse main kya chahungi?”
“tumne socha hai ki is bachche ke bhawishya ka kya hoga?”
“jab hum apne hi bhawishya ke bare mein nahin soch sakte, to is bhawishya ke bare mein kya sochenge?”
“kya tum ye pasand karogi ki bachche ko mujhe saunp do aur swayan swatantr ho jao?”
“bachche ko aapko saunp doon?” bina ke swar mein witrshna gahri ho gai “itni moorkh main nahin hoon ”
“to kya tum yahi chahti ho ki iska nirnay karne ke liye adalat mein jaya jaye?”
“ap adalat mein jana chahen, to mujhe usmen bhi etiraz nahin hai zarurat paDne par main supreme court tak laDungi aapka bachche par koi adhikar nahin hai ”
“bachche ko pita se zyada man ki zarurat hoti hai,” kai din kai saptah wo man hi man sangharsh karta raha “jahan use donon na mil sakte ho, wahan use man to milani chahiye hi achchha hai tum bachche ki baat bhool jao aur nae sire se apni zindagi banane ki koshish karo ”
“magar ”
“fizul ki hujjat mein kuch nahin rakha hai bachche achche to hote hi rahte hain tum sambandh wichchhed karke phir se byah kar lo, to ghar mein aur bachche ho jayenge samajh lena ki is ek bachche ke sath koi durghatna ho gai thi ”
sochne sochne mein din, saptah aur mahine nikalte gaye kya sachmuch insan pahle ki zindagi ko mitakar nae sire se zindagi arambh kar sakta hai? kya sachmuch zindagi ke kuch warshon ko wo ek duhaswapn ki tarah bhulne ka prayatn kiya ja sakta hai? bahut se insan hain jinki zindagi kahin na kahin, kisi na kisi dorahe se ghalat disha ki or bhatak jati hai kya yahi uchit nahin ki insan us raste ko badalkar apni ghalati sudhar le? akhir insan ko jine ke liye ek hi jiwan to milta hai—wahi prayog ke liye aur jine ke liye to kyon insan ek prayog ki asphalta ko jiwan ki asphalta man le?
court mein kaghaz par hastakshar karte samay chhat ke pankhe se takrakar ek chiDiya ka bachcha niche aa gira
“hay, chiDiya mar gai,” kisi ne kaha
“mari nahin, abhi zinda hai,” koi aur bola
“chiDiya nahin hai, chiDiya ka bachcha hai,” kisi tisre ne kaha
“nahin chiDiya hai ”
“nahin, chiDiya ka bachcha hai ”
“ise uthakar bahar hawa mein chhoD do ”
“nahin, yahin paDa rahne do bahar ise koi billi kha jayegi ”
“yahan ye aaya kis tarah?”
“jane kis tarah? raushandan ke raste aa gaya hoga ”
“bechara kaise taDap raha hai!”
“shukr hai, pankhe ne ise kat hi nahin diya ”
“kat diya hota, to balki achchha tha ab is tarah bechara kya jiyega!”
tab tak pati patni donon ne kaghaz par hastakshar kar diye the bachcha us samay court ke ahate mein kauwon ke pichhe bhagta hua kilkariyan mar raha tha wahan dhool uD rahi thi aur charon or matyali si dhoop phaili thi
phir din, saptah aur mahine !
aDhai sal guज़r jane par bhi parkash phir se zindagi arambh karne ka nishchay nahin kar paya tha us arse mein bachcha teen bar usse milne ke liye aaya tha wo naukar ke sath aata tha aur din bhar uske pas rahkar andhera hone par laut jata pahli bar wo usse sharmata raha tha, magar baad mein usse hil mil gaya tha wo bachche ko lekar ghumne chala jata, use icecream khilata, khilaune le deta tha bachcha jane ke samay hath karta, “abi nahin jaunda dood pital jaunda thana thatal jaunga ”
jab bachcha is tarah ki baat kahta tha, to uske andar sahsa koi cheez sulag uthti thi uska man hota tha ki, naukar ko jhiDakkar wapas bhej de aur bachche ko hamesha hamesha ke liye apne pas rakh le jab naukar bachche se kahta tha, “baba, chalo, ab der ho rahi hai,” to parkash ka sharir ek hatash awesh se kanpne lagta aur bahut kathinta se wo apne ko sanbhal pata akhiri bar bachcha raat ke nau baje tak ruka rah gaya to ek aprichit wekti use lene ke liye chala aaya
bachcha us samay uski godi mein baitha khana kha raha tha
“dekhiye, ab bachche ko bhej dijiye, ise bahut der ho gai hai,” ajnabi ne aakar kaha
“ap dekh rahe hain, bachcha khana kha raha hai,” uska man hua ki mukka markar us adami ke dant toD de
“han han, aap khana khila dijiye,” ajnabi ne udarta ke sath kaha, “main niche intizar kar raha hoon ”
ghusse ke mare parkash ke hath is tarah kanpne lage ki uske liye bachche ko khana khilana asambhau ho gaya
jab naukar bachche ko lekar chala gaya, to usne dekha ki bachche ki topi wahin par rah gai hai wo topi liye hue bhagkar niche pahuncha, to dekha ki naukar aur ajnabi ke alawa bachche ke sath koi aur bhi hai—uski man we log chalis pachas gaz aage gaye the usne naukar ko awaz di, to charon ne muDkar eksath uski taraf dekha naukar topi lene ke liye laut aaya aur shesh tinon aage chalte rahe
us raat wo ek dost ki chhati par sir rakhkar der tak rota raha
nae sire se phir wahi sawal uske man mein uthne laga kyon wo apne ko is atit se puri tarah mukt nahin kar leta? yadi bsa hua ghar bar ho, to apne asapas bachchon ki chahl pahal mein wo is duःkh ko bhool nahin jayega? usne apne ko bachche se isliye to alag kiya tha ki apne jiwan ko ek naya moD de sake—phir is tarah akeli zindagi ki yantrana kisaliye sah raha tha?
parantu nae sire se jiwan arambh karne ki kalpana mein sada ek ashanka mili rahti thi wo us ashanka se jitna hi laDta tha, wo utni hi aur prabal ho uthti thi jab ek prayog saphal nahin hua, to kaise kaha ja sakta tha ki dusra prayog saphal hoga hee?
wo pahle ki bhool dohrana nahin chahta tha, isliye uski ashanka ne use bahut satark kar diya tha wo jis kisi laDki ko apni bhawi patni ke roop mein dekhta, usi ke chehre mein use apne pahle jiwan ki chhaya nazar aane lagti halanki wo aspasht roop se is wishay mein kuch bhi soch nahin pata tha, phir bhi use lagta tha ki wo ek aisi hi laDki ke sath jiwan bita sakta hai jo har drishti se bina ke wiprit ho bina mein bahut ahan tha, wo uske barabar paDhi likhi thi, usse zyada kamati thi use apni swatantrata ka bahut man tha aur wo samajhti thi ki kisi bhi paristhiti ka wo akeli rahkar muqabila kar sakti hai sharirik drishti se bhi bina kafi lambi unchi thi aur us par bhari paDti thi batachit bhi wo khule mardana Dhang se karti thi wo ab ek aisi laDki chahta tha jo har tarah se us par nirbhar kare, jiski kamzoriyan ek purush ke ashray ki apeksha rakhti hon
aur kuch aisi hi laDki thi nirmala—uske ek ghanishth mitr krishn juneja ki bahan usne do ek bar us laDki ko dekha tha bahut sidhi sadi masum si laDki thi baat karte hue uski ankhen niche ko jhuk jati theen sadharan paDhi likhi thi aur sadharan Dhang se hi rahti thi use dekhkar anayas man mein sahanbhuti umaD aati thi chhabbis sattais baras ki hokar bhi dekhne mein wo atharah unnis se zyada ki nahin lagti thi wo juneja ke ghar ki kathinaiyon ko janta tha un kathinaiyon ke karan hi shayad itni umr tak us laDki ka wiwah nahin ho saka tha uske sath nirmala ke wiwah ki baat chalai gai, to uske man ke kisi kone mein soya hua pulak sahsa jag utha use sachmuch laga jaise uska khoya hua jiwan use wapas mil raha ho; jaise andar ki ek tuti hui kalpana phir se akar grahn kar rahi ho hawa aur akash mein use ek aur hi akarshan lagne laga, raste mein bikti hui phulon ki beniyan pahle se kahin sugandhit pratit hone lagin nirmala byahkar uske ghar mein aari bhi nahin thi ki wo sham ko lautte hue phulon ki beniyan kharidkar ghar lane laga apna pahle ka ghar use chhota lagne laga, isiliye usne ek baDa ghar le liya aur use sajane ke liye naya naya saman kharid laya pas mein zyada paise nahin the, isliye qarz le lekar usne nirmala ke liye na jane kitna kuch banwa Dala
nirmala hansti hui uske ghar mein ari—aur hansti hi rahi
pahle kuch din to wo samajh nahin saka ki wo hansi kya hai nirmala jab kabhi bina baat ke hansna shuru kar deti aur der tak hansti rahti, wo awak hokar use dekhta rahta teen teen chaar chaar sal ke bachche bhi us tarah akasmik Dhang se nahin hans sakte jaise wo hansti thi koi wekti uske samne gir jata ya koi cheez kisi ke hath se girkar toot jati to uske liye apni hansi rokna asambhau ho jata lagatar das das minat tak wo hansi se behal ho rahti wo use samjhane ki cheshta karta ki aisi baton par nahin hansa jata, to nirmala ko aur bhi hansi chhutti wo use Dant deta, to wo usi tarah akasmik Dhang se bistar par letkar hath pair patakti hui rone lagti, chilla chillakar apni mari hui man ko pukarne lagti, aur ant mein baal bikherkar aur dewi ka roop dharan karke ghar bhar ko shap dene lagti kabhi apne kapDe phaDkar idhar udhar chhipa deti aur apne gahne juton ke andar sanbhal deti kabhi apni banh par phoDe ki kalpana karke do do din uske dard se karahti rahti aur phir sahsa swasth hokar kapDe dhone lagti aur subah se sham tak kapDe dhoti rahti
jab man shant hota, to munh gol kiye wo angutha chusne lagti
uthte baithte, khate pite, parkash ke samne nirmala ke tarah tarah ke roop aate rahte aur uska man ek andhe kuen mein girne lagta raste par chalte hue uske charon taraf ek shunya sa ghir aata aur wo bhaunchakka sa saDak ke kinare khaDa hokar sochne lagta ki wo ghar se kyon aaya hai aur kahan ja raha hai uska kisi se milne ya kahin bhi aane jane ko man na hota uska man jis shunya mein bhatakta rahta, usmen kai bar use ek bachche ki kilkariyan sunai dene lagtin aur wo bilkul jaD hokar der der tak ek hi jagah par khaDa ya baitha rahta ek bar chalte chalte hue wo khambhe se takrakar nali mein gir gaya ek bar bus par chaDhne ki koshish mein niche gir jane se uske kapड़e pichhe se phat gaye aur wo isse beख़bar dusri bus mein chaDhkar aage chal diya use tab pata chala jab kisi ne raste mein usse kaha, “jentalmain, tumhein kya ghar jakar kapDe badal nahin lene chahiye?”
use lagta tha jaise wo ji na raha ho, sirf andar hi andar ghut raha ho kya yahi wo zindagi thi jise pane ke liye usne warshon tak apne se sangharsh kiya tha?
use krodh aata ki juneja ne uske sath is tarah ka wishwasghat kyon kiya? us laDki ko kisi manasik chikitsalay mein bhejne ki jagah uska byah kyon kar diya? usne juneja ko is sambandh mein patr likhe, parantu uski or se use koi uttar nahin mila usne juneja ko bula bheja, to wo aaya bhi nahin wo swayan juneja se milne ke liye gaya, to use jawab mila ki nirmala ab uski patni hai—nirmala ke mayke ke logon ka us mamle mein ab koi daख़l nahin hai
“tum mere bhai se kya puchhne gaye the?” wo baal bikherkar ‘dewi’ ka roop dharan kiye hue kahti, “tum bina ki tarah mujhe bhi talaq dena chahte ho? kisi tisri ko ghar mein lana chahte ho? magar main bina nahin hoon wo sati nari nahin thi main sati nari hoon tum mujhe chhoDne ki baat man mein laoge, to main is ghar ko jalakar bhasm kar dungi—sare shahr mein bhuchal le aungi laun bhuchal?” aur banhen phailakar wo chillane lagti, “a bhuchal, aa aa! main sati nari hoon, to is ghar ki int se int baja de aa, aa, aa!”
wo use shant karne ki cheshta karta, to wo kahti, “tum mujhse door raho mere sharir ko hath mat lagao main sati hoon dewi hoon sadhwi hoon tum mera satitw nasht karna chahte ho? mujhe kharab karna chahte ho? mera tumse byah kab hua hai? main to abhi kanwari hoon chhoti si masum bachchi hoon sansar ka koi bhi purush mujhe nahin chhu sakta main adhyatmik jiwan jiti hoon mujhe koi chhukar dekhe to sahi ”
aur baal bikhere hue isi tarah bolti hui kabhi wo ghar ki chhat par pahunch jati aur kabhi bahar nikalkar ghar ke asapas chakkar katne lagti parkash ne ek do bar honthon par hath rakhkar uska munh band kar dena chaha, to wo aur bhi zor se chilla uthi, “tum mera munh band karna chahte ho? mera gala ghontna chahte ho? mujhe marana chahte ho? tumhein pata hai main sakshat dewi hoon? mere charon bhai mere chaar sher hain! we tumhein noch nochkar kha jayenge unhen pata hai—unki bahan dewi ka swarup hai koi mera bura chahega, to we use uthakar le jayenge aur kal kothari mein band kar denge mere baDe bhai ne abhi abhi nai kar li hai main use chitthi likh doon, to wo abhi kar lekar aa jayega, aur hath pair bandhakar tumhein kar mein Dalkar le jayega chhe mahine band rakhega, phir chhoDega tumhein pata nahin we charon ke charon sher kitne zalim hain? we rakshas hain, rakshas adami ki boti boti kat den aur kisi ko pata bhi na chale magar main unhen nahin bulaungi main sati nari hoon, isliye apne saty se hi apni rakhsha karungi !”
sab pryatnon se harkar wo thaka hua apne paDhne ke kamre mein band hokar paD jata, to aadhi raat tak wo sath ke kamre mein usi tarah bolti rahti phir bolte bolte achanak chup kar jati aur thoDi der baad uska darwaza khatkhatane lagti
“kya baat hai?” wo kahta
“is kamre mein meri sans ruk rahi hai,” nirmala uttar deti “darwaza kholo, mujhe aspatal jana hai!”
“is samay so jao,” wo kahta, “subah tum jahan kahogi, wahan le chalunga ”
“main kahti hoon darwaza kholo, mujhe aspatal jana hai ” aur wo zor zor se dhakke dekar darwaza toDne lagti
wo darwaza khol deta, to wo hansti hui uske samne aa jati
“tumhen hansi kis baat ki aa rahi hai?” wo kahta
“tumhen lagta hai main hans rahi hoon?” wo aur bhi zor se hansne lagti “yah hansi nahin, rona hai, rona ”
“tum aspatal chalna chahti ho?”
“kyon?”
“abhi tum kah rahi theen !”
“main aspatal jane ke liye kahan kah rahi thee? main to kah rahi thi ki mujhe us kamre mein Dar lagta hai, main yahan tumhare pas soungi ”
“dekho nirmala, is samay mera man theek nahin hai tum baad mein chahe mere pas aa jana, magar is samay thoDi der ke liye ”
“main kahti hoon main akeli us kamre mein nahin so sakti mere jaisi masum bachchi kya kabhi akeli so sakti hai?”
“tum masum bachchi nahin ho, nirmala!”
“to tumhein main baDi nazar aati hoon? ek chhoti si bachchi ko baDi kahte tumhare dil ko kuch nahin hota? isliye ki tum mujhe apne pas sulana nahin chahte? magar main yahan se nahin jaungi tumhein mujhe apne sath sulana paDega main widhwa hoon jo akeli soungi? main suhagin nari hoon koi suhagin kya kabhi akeli soti hai? main bhanwaren lekar tumhare ghar mein aari hoon, aise hi uthakar nahin lari gai dekhti hoon tum kaise mujhe us kamre mein bhejte ho?” aur wo uske pas letkar usse lipat jati
kuch der mein jab uske snayu shant ho chukte to lagatar use chumti hui kahti, “mera suhag! mera chand! mera raja! main tumhein kabhi apne se alag rakh sakti hoon? tum mere sath ek sau chhattis sal ki umr tak jiyoge mujhe ye war mila hua hai ki main ek sau chhattis baras ki umr tak suhagin rahungi jiski bhi mujhse shadi hoti, wo ek sau chhattis sal ki umr tak jita tum dekh lena meri baat sach nikalti hai ya nahin main sati nari hoon aur sati nari ke munh se nikli hui baat kabhi jhooth nahin ho sakti ”
“tum subah mere sath aspatal chalogi?”
“kyon, mujhe kya hua hai jo main aspatal jaungi? mujhe to aaj tak kabhi sirdard bhi nahin hua main aspatal kyon jaun?”
ek din parkash uske liye kai kitaben kharid laya usne socha tha ki shayad paDhne se nirmala ke man ko ek disha mil jaye aur wo dhire dhire apne man ke andhere se bahar nikalne lage magar nirmala ne un kitabon ko dekha, to munh bichkakar ek taraf hata diya
“ye kitaben main tumhare paDhne ke liye laya hoon,” usne kaha
“mere paDhne ke liye?” nirmala hairani ke sath boli, “main in kitabon ko paDhkar kya karungi? mainne to marksawad, manowij~nan aur sabhi kuch chaudah sal ki umr mein hi paDh liya tha ab itni baDi hokar main ye kitaben paDhne lagungi?”
aur uske pas se uthkar angutha chusti hui wo dusre kamre mein chali gai
“papa!”
kohre ke badalon mein bhatka man sahsa balakni par laut aaya khilanmarg ko jane wali saDak par bahut se log ghoDe dauDate ja rahe the—ek dhundhle chitr ki bujhi bujhi akritiyan jaise waisi hi bujhi bujhi akritiyan club se bazar ki taraf aa rahi theen barin or barf se Dhaki hui pahaDi ki ek choti kohre se bahar nikal aari thi, aur jane kidhar se aati surya ki kiran ne use deept kar diya tha kohre mein bhatke hue kuch pakshi uDte hue us choti ke samne aa gaye, to sahsa unke pankh sunahre ho uthe—magar agle hi kshan we phir dhundhalke mein kho gaye ”
parkash kursi se uth khaDa hua aur jhankakar niche saDak ki taraf dekhne laga kya wo awaz palash ki nahin thee? magar saDak par door tak waisi koi akriti dikhai nahin de rahi thi jise uski ankhen us bachche ke roop mein pahchan saken ankhon hi ankhon tourist hotel ke gate tak jakar wo laut aaya aur gale par hath rakhkar jaise nirasha ki chubhan ko roke hue phir kursi par baith gaya das ke baad gyarah, barah aur phir ek baj gaya tha aur bachcha nahin aaya tha kya bachche ke pahle janmdin ki ghatna aaj phir dohrai jani thee? mutthiyan band kiye un par matha rakhkar wo balakni par jhuk gaya
“papa!”
usne chaunkkar sir uthaya wahi kohara aur wahi dhundhli sunsan saDak door ghoDon ki tapen aur dhimi chaal se us taraf ko aata hua ek kashmiri mazdur! kya wo awaz use apne kanon ke andar se hi sunai de rahi thee?
tabhi un pardon ke andar do nannhe pairon ki awaz bhi goonj gai aur uski bahon ke bahut pas hi bachche ka swar kilak utha, “papa!” sath hi do nannhi nannhi banhen uske gale se lipat garin aur bachche ke jhanDule baal uske honthon se chhu gaye
parkash ne ek bar bachche ke sharir ko sir se pair tak chhukar dekh liya ki ye akar bhi uski kalpana ka swapn to nahin hai wishwas ho jane par ki bachcha sachmuch uski godi mein hai, usne mathe aur ankhon ko kaskar choom liya
“to main jaun, palash?” ek bhuli hui magar parichit awaz ne parkash ko phir chaunka diya usne ghumkar pichhe dekha kamre ke darwaze ke bahar bina darin taraf na jane kis cheez par ankhen gaDaye khaDi thi
“ap? aa jaiye aap !” kahta hua bachche ko banhon mein liye parkash ast wyast sa kursi se uth khaDa hua
“nahin, main ja rahi hoon,” bina ne phir bhi uski taraf nahin dekha “mujhe itna bata dijiye ki bachcha kab tak lautkar ayega ”
“ap jab kahen, tabhi bhej dunga ” parkash balakni ki dahliz langhakar kamre mein aa gaya
“chaar baje ise doodh pina hota hai ”
“to chaar baje tak main ise wahan pahuncha dunga ”
“isne halka sa sweater hi pahan rakha hai dusre pulowar ki zarurat to nahin paDegi?”
“ap de dijiye zarurat paDegi, to main ise pahna dunga ”
bina ne dahliz ke us taraf se pulowar uski taraf baDha diya usne pulowar lekar use shaal ki tarah bachche ko oDha diya “ap ,” usne bina se kahna chaha ki andar aa jaye, magar usse kaha nahin gaya bina chupchap zine ki taraf chal di parkash kamre se nikal aaya zine se bina ne phir kaha, “dekhiye, ise icecream mat khilaiyega iska gala bahut jald kharab ho jata hai ”
“achchha!”
bina pal bhar ruki rahi shayad use aur bhi kuch kahna tha magar phir bina kuch kahe niche utar gai bachcha parkash ki banhon mein uchhalta hua hath hilata raha, “mummy, ta ta! ta ta!” parkash use liye balakni par laut aaya to wo uske gale mein banhen Dalkar bola, “papa, main aichhaklim jalul thaunda ”
“han han bete!” parkash uski peeth par hath pherne laga, “jo tere man mein aaye so khana han?”
aur kuch der ke liye wo apne ko, balakni ko, aur yahan tak ki bachche ko bhi bhula hua akash ko dekhta raha
kohre ka parda dhire dhire uthne laga, to milon tak phaile hariyali ke rangmanch ki dhundhli rekhayen sahsa aspasht ho uthin
we donon gaulph graunD par karke club ki taraf ja rahe the chalte hue bachche ne puchha, “papa, adami ke do tangen kyon hoti hain? chaar kyon nahin hotin?”
parkash ne chaunkkar uski taraf dekha aur kaha, “are!”
“kyon papa,” bachcha bola, “tumne are kyon kaha hai?”
“tu itna saf bol sakta hai, to ab tak tutlakar kyon bol raha tha?” parkash ne use banhon mein uthakar ek abhiyukt ki tarah samne kar liya bachcha khilakhilakar hansa parkash ko laga ki ye waisi hi hansi hai jaisi kabhi wo swayan hansa karta tha bachche ke chehre ki rekhaon se bhi use apne bachpan ke chehre ki yaad aane lagi use laga jaise ekayek uska tees baras pahle ka chehra uske samne aa gaya ho aur wo swayan us chehre ke samne ek abhiyukt ki tarah khaDa ho
“mummy to aichhe hi achchha ladta hai,” bachche ne kaha
“kyon?”
“mele to nahin pata tum mummy chhe poochh lena ”
“teri mummy tere ko zor se hansne se bhi mana karti hai?” parkash ko we din yaad aa rahe the jab uske khilakhilakar hansne par bina kanon par hath rakh liya karti thi
bachche ki banhen uski gardan ke pas kas garin “han,” wo bola, “mummy tahti hai achchhe bachche jol chhe nahin hanchhate ”
parkash ne use banhon se utar diya bachcha uski ungli pakDe ghas par chalne laga “tyon papa,” usne puchha, “achchhe bachche jol chhe tyon nahin hanchhate?”
“hanste hain bete!” parkash ne uske sir ko sahlate hue kaha, “sab achchhe bachche zor se hanste hain ”
“to mummy mele to tyon lotti hai?”
“nahin rokti bete ab wo tujhe nahin rokegi aur tu tutlakar nahin, theek se bola kar teri mummy tujhe iske liye bhi mana nahin karegi main usse kah dunga ”
“to tumne pahle mummy chhe tyon nahin taha?”
“aise nahin, kah ki tumne pahle mummy se kyon nahin kaha ”
bachcha phir hans diya, “to tumne pahle mummy se kyon nahin kaha?”
“pahle mujhe yaad nahin raha ab yaad se kah dunga ”
kuch der donon chupchap chalte rahe phir bachche ne puchha, “papa, tum mere janmdin ki party mein kyon nahin aaye? mummy kahti thi tum wilayat gaye hue the ”
“han bete, main wilayat gaya hua tha ”
“to papa, ab tum phir wilayat nahin jana ”
“kyon?”
“mere ko achchha nahin lagta wilayat jakar tumhari shakal aur hi tarah ki ho gai hai ”
parkash ek rukhi si hansi hansa, “kaisi ho gai hai shakal?”
“pata nahin kaisi ho gai hai? pahle dusri tarah ki thi, ab dusri tarah ki hai ”
“dusri tarah ki kaise?”
“pata nahin pahle tumhare baal kale kale the ab safed safed ho gaye hain ”
“tu itne din mere pas nahin aaya, isiliye mere baal safed ho gaye hain ”
bachcha itne zor se hansa ki uske qadam laDakhDa gaye “papa, tum to wilayat gaye hue the,” usne kaha “main tumhare pas kaise ata? main kya akela wilayat ja sakta hoon?”
“kyon nahin ja sakta? tu itna baDa to hai ”
“main sachmuch baDa hoon na papa?” bachcha tali bajata hua bola, “tum ye baat bhi mummy se kah dena wo kahti hai main abhi bahut chhota hoon main chhota nahin hoon na papa!”
“nahin, tu chhota kahan hai?”—kahkar parkash maidan mein dauDne laga “tu bhagkar mujhe pakaD ”
bachcha apni chhoti chhoti tangen patakta hua dauDne laga parkash ko phir apne bachpan ki ek baat yaad ho aari tab use dauDte dekhkar ek bar kisi ne kaha tha, “are ye bachcha kaise tangen patak patakkar dauDta hai! ise theek se chalna nahin aata kya?”
bachche ki ungli pakDe parkash club ke barrum mein dakhil hua, to barmain abdulla use dekhkar door se muskraya “sahab ke liye do botal biyar,” usne pas khaDe baire se kaha “sahab aaj apne sath ek mehman ke sath aaya hai ”
“bachche ke liye ek gilas pani de do,” parkash ne counter ke pas rukkar kaha “ise pyas lagi hai ”
“khali pani?” abdulla bachche ke galon ko pyar se sahlane laga “aur sab doston ko to sahab biyar pilata hai aur is bechare ko khali pani?” aur pani ki botal kholkar wo gilas mein pani Dalne laga jab wo gilas bachche ke munh ke pas le gaya, to bachche ne ye apne hath mein le liya “main apne aap piunga,” usne kaha “main chhota thoDe hi hoon? main to baDa hoon ”
“achchha tu baDa hai?” abdulla hansa “tab to tujhe pani dekar mainne ghalati ki baDe logon ko to main biyar hi pilata hoon ”
“biyar kya hota hai?” bachche ne munh se gilas hatakar puchha
“biyar hota nahin, hoti hai ” abdulla ne jhukkar use choom liya “tujhe pilaun kya?”
“nahin,” kahkar bachche ne apni banhen parkash ki taraf phaila deen parkash use lekar DyoDhi ki taraf chala, to abdulla bhi un donon ke sath sath bahar chala aaya, “kiska bachcha hai, sahab?” usne dhime swar mein puchha
“mera laDka hai,” kahkar parkash bachche ko siDhi se niche utarne laga
abdulla hans diya “sahab bahut khushdil adami hai,” usne kaha
“kyon?”
abdulla hansta hua sir hilane laga “apka bhi jawab nahin hai ”
parkash ghusse mein kuch kahne ko hua magar apne ko rokkar bachche ko liye hue aage chal diya abdulla DyoDhi mein rukkar pichhe se sir hilata raha baira sher muhammad andar se nikalkar aaya, to wo phir khilakhilakar hans diya
“kya baat hai? akela khaDa kaise hans raha hai?” sher muhammad ne puchha
“sahab ka bhi jawab nahin hai,” abdulla kisi tarah hansi par qabu pakar bola
“kis sahab ka jawab nahin hai?”
“us sahab ka,” abdulla ne parkash ki taraf ishara kiya “us din bolta tha ki isne isi sal shadi ki hai aur aaj bolta hai ki ye panch sal ka baba iska laDka hai jab aaya tha, to akela tha aur aaj iske laDka bhi ho gaya!” parkash ne ek bar ghumkar tikhi nazar se uski taraf dekh liya abdulla ek bar phir khilkhila utha “aisa khushdil adami mainne aaj tak nahin dekha ”
“papa, ghas hari kyon hoti hai? lal kyon nahin hoti?” club se nikalkar parkash ne bachche ko ek ghoDa kiraye par le diya tha linenmarg ko jane wali pagDanDi par wo swayan uske sath sath paidal chal raha tha ghas ke reshmi wistar par kohre ka akash is tarah jhuka hua tha jaise wasana ka unmad use phir se ghir aane ke liye prerit kar raha ho bachcha utsuk ankhon se asapas ki pahaDiyon ko aur beech se bahkar jati hui pani ki patli dhaar ko dekh raha tha kabhi kuch kshan wo apne ko bhula rahta, phir kisi agyat bhaw se prerit hokar kathi par uchhalne lagta
“har cheez ka apna rang hota hai,” parkash ne bachche ki ek jaangh ko hath se dabaye hue kaha aur kuch der swayan bhi hariyali ke wistar mein khoya raha
“har cheez ka apna rang kyon hota hai?”
“kyonki kudrat ne har cheez ka apna rang bana diya hai ”
“kudrat kya hoti hai?”
parkash ne jhukkar uski jaangh ko choom liya “kudrat ye hoti hai,” usne hansakar kaha jaangh par gudgudi hone se bachcha bhi hansne laga
“tum jhooth bolte ho,” usne kaha
“kyon?”
“tumko iska pata hi nahin hai ”
“achchha, mujhe pata nahin hai, to tu bata, ghas ka rang hara kyon hota hai?”
“ghas mitti ke andar se paida hoti hai, isliye iska rang hara hota hai ”
“achchha? tujhe iska kaise pata chal gaya?”
bachcha uchhalta hua lagam ko jhatakne laga “mere ko mummy ne bataya tha ”
parkash ke honthon par ek wikrt si muskrahat aa gai use laga jaise aaj bhi uske aur bina ke beech ek dwandw chal raha ho aur bina us dwandw mein us par bhari paDne ki cheshta kar rahi ho “teri mummy ne tujhe aur kya kya bata rakha hai?” wo bachche ko thapathpakar bola, “yah bhi bata rakha hai ki adami ke do tangen kyon hoti hain aur chaar kyon nahin?”
“han mummy kahti thi ki adami ke do tangen isliye hoti hain ki wo aadha zamin par chalta hai, aadha asman mein ”
“achchha?” parkash ke honthon par hansi aur man mein udasi ki ek rekha phail gai “mujhe iska pata nahin tha,” usne kaha
“tumko to kuch bhi pata nahin hai, papa!” bachcha bola “itne baDe hokar bhi pata nahin hai!”
ghas, barf aur akash ke rang din mein kai kai bar badal jate the badalte rangon ke sath man bhi aur se aur hone lagta tha subah uthte hi parkash bachche ke aane ki pratiksha karne lagta bar bar wo balakni par jata aur tourist hotel ki taraf ankhen kiye der der tak khaDa rahta nashta karne ya khana khane jane ke liye bhi wo wahan se nahin hatna chahta tha use Dar tha ki bachcha is beech wahan aakar laut na jaye teen din mein use sath liye wo kitni hi bar ghumne ke liye gaya tha, uske ghoDe ke pichhe pichhe dauDa tha aur uske sath ghas par lotta raha tha kabhi ek dost ki tarah wo uske sath khil khilakar hansta, kabhi ek naukar ki tarah uske har adesh ka palan karta bachcha jaan bujhkar raste ke kichaD mein apne panw lathpath kar leta aur honth bisorkar kahta, “papa, panw dho do ” wo use uthaye idhar udhar pani DhunDhata phirta bachche ko wo jis kisi kon se bhi dekhta, usi kon se uski taswir le lena chahta jab bachcha thak jata aur lautkar apni mummy ke pas jane ka hath karne lagta, to wo use tarah tarah ke pralobhan dekar apne pas rok rakhna chahta ek bar usne bachche ko apni man ke sath door se aate dekha aur use sath lane ke liye utarkar niche chala gaya tha jab wo pas pahuncha, to bachcha dauDkar uski taraf aane ki jagah man ke sath photographer ki dukan ke andar chala gaya wo kuch der saDak par ruka raha; phir ye sochkar upar chala aaya ki photographer ki dukan se nikalkar bachcha apne aap upar aa jayega magar balakni par khaDe khaDe usne dekha ki bachcha dukan se nikalkar us taraf aane ki bajay hath ke sath apni man ka hath khinchta hua use wapas tourist hotel ki taraf le chala uska man hua ki dauDkar jaye aur bachche ko apne sath le jaye, magar koi cheez uske pairon ko jakDe rahi aur wo chupchap wahin khaDa use dekhta raha sham tak wo na jane kitni bar balakni par aaya aur kitni kitni der wahan khaDa raha akhir usse nahin raha gaya, to usne niche jakar kuch cheri kharidi aur bachche ko dene ke bahane tourist hotel ki taraf chal diya abhi wo tourist hotel se kuch fasle par tha ki bachcha apni man ke sath bahar aata dikhai diya magar us par nazar paDte hi wo wapas hotel ki gallery mein bhag gaya
parkash jahan tha, wahin khaDa raha us samay pahli bar uski ankhen bina se milin use mahsus hua ki bina ka chehra pahle se kahin sanwla ho gaya hai aur uski ankhon ke niche syah dayre se ubhar aaye hain wo pahle se kafi dubli bhi lag rahi thi kuch kshan ruke rahne ke baad parkash aage chala gaya aur cheriwala lifafa bina ki taraf baDhakar khushk gale se bola, “yah main bachche ke liye laya tha ”
bina ne lifafa le liya, magar sath hi uski ankhen dusri taraf muD garin “palash!” usne kuch asthir awaz mein bachche ko pukarkar kaha “yah le, tere papa tere liye cheri laye hain ”
“main nahin leta,” bachche ne gallery se kaha aur bhagkar aur bhi door chala gaya
bina ne ek asahaye drishti bachche par Dali aur parkash ki taraf dekhkar boli, “kahta hai, main papa se nahin bolunga we subah ruke kyon nahin, chale kyon gaye the?”
parkash bina ko uttar na dekar gallery mein chala gaya aur kuch door bachche ka pichha karke usne use banhon mein utha laya “main tumse nahin bolunga, kabhi nahin bolunga,” bachcha apne ko chhuDane ki cheshta karta kahta raha
“kyon, aisi kya baat hai?” parkash use puchkarne ki cheshta karne laga “papa se is tarah naraz hote hain kya?”
“tumne meri taswiren kyon nahin dekhin?”
“kahan thi teri taswiren? mujhe to pata hi nahin tha ”
“pata kyon nahin tha? tum dukan ke bahar se hi kyon chale gaye the?”
“achchha la, pahle teri taswiren dekhen, phir ghumne chalenge ”
“yah subah aapko dikhane ke liye hi taswiren lene gaya tha ” bina ke sath khaDi ek yuwa istri ne kaha parkash ne dhyan nahin diya tha ki uske sath koi aur bhi hai
“taswiren mere pas thoDe hi hain? usi ke pas hain ”
“subah photographer ne negatiwe dikhaye the, pauzitiw wo ab is samay dega,” us nawyuwti ne phir kaha
“to chal, pahle dukan par chalkar teri taswiren le len han, dekhen to sahi kaisi taswiren hain!” kahkar parkash photographer ki dukan ki taraf chalne laga
“main mummy ko sath lekar jaunga,” bachche ne uski banhon mein machalte hue kaha
“han, han, teri mummy bhi sath aa rahi hai,” kahte hue parkash ne ek bar nirupay si drishti se pichhe ki taraf dekh liya aur jaise kisi adrshy wekti se kaha, “dekhiye, aap bhi sath aa jaiye, nahin to ye rone lagega ”
bina honth danton mein dabaye hue kuch kshan ankhen jhapakti rahin, phir wo chupchap uske sath chal di
photographer ki dukan mein dakhil hote hi bachcha parkash ki banhon se utar gaya aur photographer se bola, “mere papa ko meri taswiren dikhao ” photographer ne taswiren nikalkar mez par phaila deen, to bachcha unmen se ek ek taswir uthakar parkash ko dikhane laga, “dekho papa, ye wahin ki taswir hai na jahan se tumne kaha tha, sara kashmir nazar aata hai? aur ye taswir bhi dekho papa, jo tumne meri ghoDe par utari thi ”
“do din se bilkul saf bolne laga hai,” bina ki saheli ne dhire se kaha “kahta hai papa ne kaha hai tu baDa ho gaya hai, isliye ab tutlakar na bola kar ”
parkash kuch na kahkar taswiren dekhta raha phir jaise kuch yaad ho aane se usne das rupae ka ek not nikalkar photographer ko dete hue kaha, “ismen se aap apne paise kat lijiye!”
photographer pal bhar asmanjas mein use dekhta raha phir bola, “paise to abhi aap hi ke meri taraf nikalte hain mem sahab ne jo bees rupae parson diye the, unmen se do ek rupae abhi bachte honge kahen to abhi hisab kar doon ”
“nahin, rahne dijiye, hisab phir ho jayega,” kahkar parkash ne not wapas jeb mein rakh liya aur bachche ki ungli pakDe dukan se bahar nikal aaya kuch qadam chalne par pichhe se bina ka swar sunai diya, “yah aapke sath ghumne ja raha hai kya?”
“han!” parkash ne thoDa chaunkkar pichhe dekh liya “main abhi thoDi der mein ise wapas chhoD jaunga ”
“dekhiye, aapse ek baat kahni thi ”
“kahiye ”
bina pal bhar kuch sochti hui chup rahi phir boli, “ise aisi koi baat mat bataiyega jisse ye ”
parkash ko laga jaise koi cheez uske snayuon ko chirti chali gai uski ankhen jhuk garin aur usne dhire se kaha, “nahin, main aisi koi baat isse nahin kahunga ” use khed hua ki ek din pahle jab bachcha hath karke kah raha tha ki ‘papa’ aur ‘pitaji’ ek hi wekti ko nahin kahte—‘papa’ papa ko kahte hain aur ‘pitaji’ mummy ke papa ko—to wo kyon uski ghaltafahmi door karne ki koshish karta raha tha?
wo bachche ke sath akela club ki saDak par chalne laga, to kuch door jakar bachcha sahsa ruk gaya “ham kahan ja rahe hain, papa?” usne puchha
“pahle club chal rahe hain,” parkash ne kaha “wahan se ghoDa lekar aage ghumne jayenge ”
“nahin, main wahan us adami ke pas nahin jaunga” kahkar bachcha sahsa pichhe ki taraf chal diya
“kis adami ke pas?”
“wah jo wahan par club mein tha main uske hath se pani bhi nahin piunga ”
“kyon?”
“mujhe wo adami achchha nahin lagta ”
parkash pal bhar bachche ke chehre ko dekhta raha, phir wo bhi wapas chal diya “han, hum us adami ke pas nahin chalenge,” usne kaha “mujhe bhi wo adami achchha nahin lagta ”
bahut dinon ke baad us raat parkash ko gahri neend aari thi ek aisi wismriti si neend, jismen swapn duaswapn kuch na ho, uske liye lagbhag bhuli hui cheez ho chuki thi phir bhi jagne par use apne mein ek tazgi ka anubhaw nahin hua—anubhaw hua ek khalipan ka hi jaise koi cheez uske andar uphanti rahi ho, jo gahri neend so lene se chuk gai ho roz ki tarah uthkar wo balakni par gaya dekha akash saf hai raat ko soya tha, to warsha ho rahi thi parantu us dhule nikhre hue akash ko dekhkar abhas tak nahin hota tha ki kabhi wahan badalon ka astitw bhi tha samne ki pahaDiyan subah ki dhoop mein nahakar bahut ujli ho uthi theen
parkash kuch der wahan khaDa raha—shantirhit, aur wicharahin phir sahsa door ke chhor mein uthte hue badal ki tarah ise koi cheez apne mein umaDti hui pratit hui aur uska man ek agyat ashanka se sihar gaya to kya ?
wo balakni se hat aaya pichhli sham ko bachche ne bataya tha ki uski mummy kah rahi hai ki din saf hua, to subah we log wahan se chale jayenge raat ko jis tarah warsha ho rahi thi, usse subah tak akash ke saf hone ki koi sambhawana nahin lagti thi isliye sone ke samay uska man is or se lagbhag nishchint tha parantu raat raat mein akash ka drishypat bilkul badal gaya tha to kya sachmuch aaj hi un logon ko wahan se chale jana tha?
usne kamre ke bikhre hue saman ko dekha—do chaar ini gini chizen hi theen chaha ki unhen sahej de, magar kisi cheez ko rakhne uthane ko man nahin hua bistar ko dekha jismen roz se bahut kam salawten paDi theen laga jaise raat ki gahri neend ke liye wo bistar hi doshi ho aur gahri neend hi—baraste hue akash ke saf ho jane ke liye! usne bistar ki chadar ko hila diya ki usmen aur salawten paD jayen magar usse chadar mein jo do ek salawten theen, we bhi nikal gai wo phir se ek neend lene ke irade se bistar par let gaya
sharir mein thakan bilkul nahin thi, isliye neend nahin i kuch karwaten lene ke baad wo nahane dhone ke liye uth gaya laDkhaDate qadmon se subah dopahar ki taraf baDhne lagi, to uske man ko kuch sahara milne laga wo chahne laga ki isi tarah sham ho jaye aur phir rat—aur bachcha usse wida lene ke liye na aaye parantu isi tarah jab dopahar bhi Dhalne ko aa gai aur bachcha nahin aaya, to uske man mein dhire dhire ek aur hi ashanka sir uthane lagi wo sochne laga ki din saf hone se uski mummy kahin subah subah hi to use lekar wahan se nahin chali gai?
wo bar bar balakni par jata—ek dhaDakti hui aasha aur ashanka liye hue bar bar tourist hotel ki taraf jane wale raste par nazar Dalta aur ek anishchit si anubhuti liye hue kamre mein laut aata uski dhamniyon mein lahu ka har kan, mastishk mein chetna ka har bindu utkantha se wyakul tha usne kuch kuch khaya nahin tha, isliye bhookh bhi use pareshan kar rahi thi kuch der ke baad kamra band karke wo khana khane chala gaya mote mote kaur nigalkar usne kisi tarah do rotiyan gale se utarin aur turant wapas chal paDa kuch kshnon ke liye bhi kamre se bahar aur balakni se door rahna use ek apradh sa lag raha tha lautte hue usne socha ki use swayan tourist hotel mein jakar pata kar lena chahiye ki we log wahin hain ya chale gaye hain magar saDak ki chaDhai chaDhte hue usne door se hi dekha—bina bachche ke sath uski balakni ke niche khaDi thi wo hanpta hua tez tez chalne laga
wo pas ja pahuncha, to bhi bachche ne uski taraf nahin dekha wo apni man ka hath khinchta hua kisi baat ke liye hath kar raha tha parkash ne uski banh ko hath mein le liya, to usse banh chhuDane ka prayatn karne laga “main tumhare ghar nahin jaunga,” usne lagbhag chikhkar kaha parkash achakcha gaya aur uski mooDh sa uski taraf dekhta raha
parkash aur bina ki ankhen ek dusre ki taraf uthne ko huin, magar puri tarah nahin uth parin parkash ne bachche ka banh phir tham li aur bina se kaha, “ap bhi sath aa jaiye n!”
“ise aaj jane kya hua!” bina jhunjhlahat ke sath boli “subah se hi tang kar raha hai!”
“is waक़t ye aapke bina upar nahin jayega,” parkash ne kaha “ap sath aa kyon nahin jatin?”
“chal, main tujhe zine tak pahuncha deti hoon,” bina use uttar na dekar bachche se boli “upar se jaldi laut aana ghoDewale kitni der se taiyar khaDe hain ”
parkash ko apne andar ek nashtar sa chubhta mahsus hua magar jaldi hi usne apne ko sanbhal liya “ap log aaj hi ja rahe hain kya?” wo kisi tarah kathinai se poochh saka
“ji han,” bina dusri taraf dekhti rahi “jana to subah subah hi tha, magar iske hath ki wajah se itni der ho gai hai ab bhi ye ” aur wo baat beech mein hi chhoDkar usne bachche se phir kaha, “to chal, tujhe zine tak pahuncha doon ”
bachcha parkash ke hath se banh chhuDakar kuch door bhag gaya “main nahin jaunga,” usne kaha
“achchha aa,” bina boli “main tujhe zine ke upar tak chhoD aungi—us din ki tarah ”
“main nahin jaunga,” aur bachcha kuch qadam aur bhi door chala gaya
“ap sath aa kyon nahin jatin? ye is tarah apna hath nahin chhoDega,” parkash ne kaha bina ne aadhe kshan ke liye uski taraf dekha us drishti mein akrosh ke atirikt na jane kya kya bhaw tha parantu aadhe kshan mein hi wo bhaw dhul gaya aur bina ne apne ko sahej liya uske chehre par ek tarah ki driDhta aa gai aur usne bachche ke pas jakar use utha liya “to chal main tere sath chalti hoon,” usne kaha
bachche ka ruansa bhaw ek kshan mein hi badal gaya aur usne hanste hue apni man ke gale mein banhen Dal deen parkash ne dhire se kaha, “aiye” aur un donon ke aage aage chalne laga
upar kamre mein pahunchakar bina ne bachche ko niche utar diya aur kaha, “le ab main ja rahi hoon ”
“nahin,” bachche ne uska hath pakaD liya “tum bhi yahan baitho ”
“baithiye,” parkash ne kursi par paDi do ek chizen jaldi se utha deen aur kursi bina ki taraf baDha di bina kursi par na baithkar charpai ke kone par baith gai tabhi bachche ka dhyan na jane kis cheez ne kheench liya wo un donon ko chhoDkar balakni mein bhag gaya aur wahan se uchakkar saDak ki taraf dekhne laga
parkash kursi ki peeth par hath rakhe jaise khaDa tha, waise hi khaDa raha bina charpai ke kone mein aur bhi simatkar diwar ki taraf dekhne lagi sahsa asawadhani ke ek kshan mein unki ankhen mil garin, to bina ne jaise puri shakti sanchit karke kaha, “kal iski jeb mein kuch rupae mile the we aapne rakhe the?”
parkash sahsa aise ho gaya jaise kisi ne use pakaDkar jhakjhor diya ho “han,” parkash ne laDkhaDate hue swar mein kaha “socha tha ki unse ye koi cheez banwa lega ”
bina pal bhar chup rahi phir boli, “kya cheez banwani hogi?”
“koi bhi cheez banwa dijiyega koi achchha sa owercoat ya ”
kuch der phir chuppi rahi phir bina boli, “kaisa coat banwana hoga?”
“kaisa bhi banwa dijiyega jaisa ise achchha lage, ya jaisa aap theek samjhen ”
“koi khas tarah ka kapDa lena ho, to bata dijiye ”
“nahin, khas kapDa koi nahin kaisa bhi le lijiyega ”
“koi khas rang ?”
“nahin han nile rang ka ho, to zyada achchha rahega ”
bachcha uchhalta hua balakni se laut aaya aur bina ka hath pakaDkar bola, “ab chalo ”
“papa se tune pyar to kiya hi nahin aur aate hi chal bhi diya?” parkash ne use banhon mein le liya bachche ne uske honthon se honth milakar ek bar achchhi tarah use choom liya aur phir jhat se uski banhon se utarkar man se bola, “ab chalo ”
bina charpai se uth khaDi hui bachcha uska hath pakaDkar use bahar ki taraf khinchne laga “talo na mummy del ho lahi hai,” wo phir tutlane laga aur bina ko sath liye hue dahliz par kar gaya
“tu jakar papa ko chitthi likhega n?” parkash ne pichhe se puchha
“lithunda ” magar usne pichhe muDkar nahin dekha pichhe muDkar dekha ek bar bina ne, aur jaldi se ankhen hata leen uski ankhon ke koron mein atke ansu uske galon par bah aaye the “tune papa ko ta ta nahin kiya,” usne bachche ke kandhe par hath rakhe hue kaha ankhon ki tarah uska swar bhi bhiga hua tha
“ta ta papa!” bachche ne bina pichhe ki taraf dekhe hath hila diya aur zine se utarne laga aadhe zine se phir uski awaz sunai di, “papa ka ghal achchha nahin hai mummy, hamale wal ghal achchha hai papa te ghal mein to kuch bhi chhaman hi nahin hai !”
“tu chup karega ki nahin!” bina ne use jhiDak diya “jo munh mein aata hai bolta jata hai ”
“nahin tup kalunda, nahin kalunda tup ,” bachche ka swar phir ruansa ho gaya aur wo tez tez qadmon se niche utarne laga “papa ka ghal danda! papa ka ghal thu !”
raat hote hote akash phir ghir gaya parkash club ke barrum mein baitha ek ke baad ek biyar ki botalen khali karta raha barmain abdulla logon ke liye rum aur wihski ke peg Dhalta hua bar bar kanakhiyon se uski taraf dekh leta tha itne dinon mein pahli bar wo parkash ko is tarah pite dekh raha tha “aj lagta hai sahab ne kahin se bahut mal mara hai,” usne ek bar dhime swar mein sher muhammad se kaha “age kabhi ek botal se zyada nahin pita aur aaj chaar chaar botalen pikar bhi bus karne ka nam nahin le raha ”
sher muhammad ne sirf munh bichka diya aur apne kaam mein laga raha
parkash ki ankhen abdulla se milin, to abdulla muskra diya parkash kuch kshan is tarah use dekhta raha jaise wo adami na hokar ek dhundhla sa saya ho, aur samne ka gilas pare sarkakar uth khaDa hua counter ke pas jakar usne das das ke do not nikalkar abdulla ke samne rakh diye abdulla baqi paise ginta hua khushamdi swar mein bola, “aj sahab bahut khush nazar aata hai ”
“achchha?” parkash is tarah use dekhta raha jaise uske dekhte dekhte wo saya dhundhla hokar badalon mein gum hota ja raha ho jab wo chalne ko hua, to abdulla ne pahle salam kiya aur phir poochh liya, “kyon sahab, wo kaun tha us din aapke sath? kiska laDka tha wah?”
parkash ko laga jaise wo saya ab bilkul gum ho gaya ho aur uske samne sirf badal hi badal ghira rah gaya ho usne jaise door badal ke garbh mein dekhne ki cheshta karte hue kaha, “kaun laDka?”
“abdulla pal bhar bhauchakka sa ho raha, phir khilakhilakar hans paDa “tab to mainne sher muhammad se theek hi kaha tha ” wo bola
“kya kaha tha?”
“ki hamara sahab tabiat ka badashah hai jab chahe kisi ke laDke ko apna laDka bana le, aur jab chahe yahan gulmarg mein to ye sab chalta hai aap jaisa hamara ek aur sahab hai ”
parkash ko laga ki badal beech se phat gaya hai aur chilon ki kai panktiyan us darre mein se hokar door uDi ja rahi hain—wah chah raha hai ki darra kisi tarah bhar jaye jisse we panktiyan ankhon se ojhal ho jayen; magar darre ka muhana aur aur baDa hota ja raha hai uske gale se ek aspasht si awaz nikal paDi aur wo abdulla ki taraf se ankhen hatakar chupchap wahan se chal diya
“bus ek bazi aur !” apni awaz ki goonj parkash ko swayan aswabhawik si lagi uske sathiyon ne halka sa wirodh kiya, magar patte ek bar phir bantane lage
card room tab tak lagbhag khali ho chuka tha kuch der pahle tak wahan kafi chahl pahal thi—nazuk hathon se patton ki nazuk chalen chali ja rahi theen aur shishe ke nazuk gilas rakhe uthaye ja rahe the magar ab aas pas chaar chaar khali kursiyon se ghiri chaukor mezen bahut akeli aur udas lag rahi theen polish ki chamak ke bawjud unmen ek wiranagi aa gai thi samne ki diwar mein bukhari ki aag bhi kab ki thanDi paD chuki thi jali ke us taraf kuch bujhe adhabujhe angare hi rah gaye the—sardi se thithurkar syah paDte aur rakh mein gum hote hue
usne patte utha liye har bar ki tarah is bar bhi sab bemel patte the—aisi bazi ki adami phenkkar alag ho jaye magar usi ke anurodh se patte bante the, isliye wo unhen phenk nahin sakta tha usne niche se patta uthaya, to wo aur bhi bemel tha hath se koi bhi patta chalkar wo un patton ka mel baithane ka prayatn karne laga
bahar musladhar warsha ho rahi thi—pichhli raat jaisi warsha hui thi, usse bhi tez khiDki ke shishon se takrati bunden bar bar ek chunauti liye hue atin theen, parantu sahsa bebas hokar niche ko Dhulak jatin theen un bahti hui dharon ko dekhkar lagta tha jaise kai ek chehre khiDki ke sath satkar andar jhank rahe hon aur lagatar ro rahe hon kisi kshan hawa se kiwaD hil jate the, to we chehre jaise hichkiyan lene lagte the hichkiyan band hone par ghusse se ghurne lagte un chehron ke pichhe andhera chhatpatata hua dam toD raha tha
“Dikleyar!” parkash chaunk gaya uske hath ke patte abhi usi tarah the—is bar bhi use phul hand hi dena tha patte phenkkar usne pichhe tek laga li aur phir khiDki se sate chehron ko dekhne laga
“tum bahut hi khushqismat ho parkash, sachmuch hammen sabse khushqismat adami tumhin ho !” parkash ki ankhen khiDki se hat arin patte uthakar rakh diye gaye the aur mez par haar jeet ka hisab kiya ja raha tha hisab karne wala adami hi usse kah raha tha, “kahte hain na, jo patton mein badaqimat ho, wo zindagi mein khushqismat hota hai! ab dekh lo sabse zyada tumhin hare ho, isliye manna paDega ki sabse khushqismat adami tumhin ho ”
parkash ne apne nam ke aage likhe gaye joD ko dekha pal bhar ke liye uski dhaDkan baDh gai ki jeb mein utne paise hain bhi ya nahin jeb mein hath Dalkar usne puri jeb khali kar li lagbhag hari hui raqam ke barabar hi paise jeb mein the raqam ada kar dene ke baad do ek chhote sikke hi uske pas mein bache rahe—aur unke sath wo muchDa hua antardeshiy patr jo sham ki Dak se aaya tha aur jise jeb mein rakhkar wo club chala aaya tha patr nirmala ka tha jo usne ab tak kholkar paDha nahin tha jeb mein paDe paDe wo patr kafi muchaD gaya tha nirmala ke akshron ki banawat par nazar paDte hi uske kai kai unmadi chehre uske samne ubharne lage—uske hath ka ek ek akshar jaise ek ek chehra ho! ghar se chalne ke din bhi wo uske kitne kitne chehre dekhkar aaya tha! ek chehra tha jo hans raha tha, ek tha jo ro raha tha; ek baal khole zor zor se chilla raha tha aur dhamkiyan de raha tha aur ek ek bhukhi ankhon se uske sharir ko nigalna chah raha tha! usne roz ke istemal ka kuch saman sath lana chaha tha, to ek chehra uske sath mallayuddh karne par utaru ho gaya tha
“kyon?” nirmala hans di thi “marad aur aurat raat din gutthamguttha nahin hote kya?”
wo bina ek qamiz tak sath liye ghar se nikal aaya tha baniyan, tauliya,kangha, qamiz sab kuch usne aate hue raste mein kharida tha—yah sochne ke liye wo nahin ruka tha ki uske pas jo chaar panch sau rupae ki punji hai, wo is tarah kitne din chalegi! bichhane oDhne ka sara saman bhi use wahan pahunchakar hi kiraye par lena paDa tha !
aur wahan aane ke chauthe panchawen din se hi nirmala ke patr aane arambh ho gaye the—wah uske kisi mitr ke yahan jakar uska pata laga aari thi un patron mein bhi nirmala ke we sab chehre jyon ke tyon widyaman rahte the wo sakht bimar hai aur aspatal ja rahi hai uske bhai police mein khabar karne ja rahe hain ki unka bahnoi lapata ho gaya hai wo raat din bechain rahti hai aur diwaron se puchhti rahti hai ki “uska chand kahan hai” wo jogin ka wesh dharan karke jangalon mein ja rahi hai do din ke andar andar patr ka uttar na aaya, to uske bhai use hawai jahaz mein wahan bhej denge uske chhote bhai ne use bahut pita hai ki wo apne ‘khasam’ ke pas kyon nahin jati !
antardeshiy patr parkash ki ungliyon mein masal gaya tha use phir se jeb mein Dalkar wo uth khaDa hua bahar DyoDhi mein kuch log jama the—ki barish ruke, to wahan se jayen unke beech se hokar wo bahar nikal aaya
“ap is barish mein ja rahe hain?” kisi ne usse puchha usne chupchap sir hila diya aur kachche raste par chalne laga samne kewal ‘niDoz hotel’ ki battiyan jagmaga rahi thin—baqi sab taraf, dayen bayen aur upar niche andhera hi andhera tha club ke ahate se nikalkar wo saDak par pahuncha, to pani aur bhi tez ho gaya
uska sir pura bheeg gaya tha aur pani ki dharen gale se hokar kapDon ke andar ja rahi theen hath pair sunn ho rahe the, magar ankhon mein use ek jalan si mahsus ho rahi thi kichaD se lathpath pair raste mein awaz karte the to sharir mein koi cheez jhanjhana uthti thi sahsa ek nai siharan uske sharir mein bhar gai use laga ki wo saDak par akela nahin hai—koi aur bhi apne nannhe nannhe panw patakta uske sath chal raha hai raste ki nali par bana lakDi ka pul par karte hue usne ghumkar us taraf dekha uske sath sath chal raha tha ek bhiga kutta—kan jhatakta hua, khamosh aur antarmukh!
aur us ek kshan ke liye parkash ke hirdai ki dhaDkan jaise ruki rahi kitna wichitr tha wo kshan—akash se tutkar gire hue nakshatr jaisa! kohre ke waksh mein ek lakir si khinchkar wo kshan sahsa wyatit ho gaya
kohre mein se guzarkar jati hui akritiyon ko usne ek bar phir dhyan se dekha kya ye sambhaw tha ki wekti ki ankhen is had tak use dhokha den? to jo kuch wo dekh raha tha, wo yatharth hi nahin tha?
kuch hi kshan pahle jab wo kamre se nikalkar balakni par aaya tha, to kya usne kalpana mein bhi ye socha tha ki akash ke or chhor tak phaile hue kohre mein, gahre pani ki nichli satah par tairti hui machhliyon jaisi jo akritiyan nazar aa rahi hain, unmen kahin we do akritiyan bhi hongi? mandir wali saDak se aate hue do kuhrile rangon par jab uski nazar paDi thi, tab bhi kya uske man mein kahin aisa anuman jaga tha? phir bhi na jane kyon use lag raha tha jaise bahut samay se, balki kai dinon se, wo unke wahan se guzarne ki pratiksha kar raha ho, jaise ki unhen dekhne ke liye hi wo kamre se nikalkar balakni par aaya ho aur unhin ko DhunDhati hui uski ankhen mandir wali saDak ki taraf muDi hon —yahan tak ki us dhani anchal aur nili nekar ke rang bhi jaise uske pahchane hue hon aur kohre ke wistar mein wo un do rangon ko hi khoj raha ho waise un akritiyon ke balakni ke niche pahunchne tak usne unhen pahchana nahin tha parantu ek kshan mein sahsa we akritiyan is tarah uske samne aspasht ho uthi theen jaise jaDta ke kshan ke awchetan ki gahrai mein Duba hua koi wichar ekayek chetna ki satah par kaundh gaya ho
nili nekarwali akriti ghumkar pichhe ki taraf dekh rahi thi kya use bhi kohre mein kisi ki khoj thee? aur kiski? parkash ka man hua ki use awaz de, magar uske gale se shabd nahin nikle kohre ka samudr apni gambhirta mein khamosh tha, magar uski apni khamoshi ek aise tufan ki tarah thi jo hawa na milne se apne andar hi ghumaDkar rah gaya ho nahin to kya wo itna hi asmarth tha ki uske gale se ek shabd bhi na nikal sake?
wo balakni se hatkar kamre mein aa gaya wahan apne ast wyast saman par nazar paDi, to sharir mein nirasha ki ek siharan dauD gai kya yahi wo zindagi thi jiske liye usne ? parantu use laga ki uske pas kuch bhi sochne ke liye samay nahin hai usne jaldi jaldi kuch chizon ko uthaya aur rakh diya jaise ki koi cheez DhoonDh raha ho jo use mil na rahi ho achanak khunti par latakti patlun par nazar paDi, to usne pajama utarkar jaldi se use pahan liya phir pal bhar khoya sa khaDa raha use samajh nahin aa raha tha ki wo kya chahta hai kya wo un donon ke pichhe jana chahta tha? ya balakni par khaDa hokar pahle ki tarah unhen dekhte rahna chahta tha?
achanak uska hath mez par rakhe tale par paD gaya, to usne use utha liya jaldi se darwaza band karke wo zine se utarne laga zine par aakar dhyan aaya ki juta nahin pahna wo pal bhar thithakkar khaDa raha, magar lautkar nahin gaya niche saDak par pahunchte hi panw kichaD mein lathpath ho gaye door dekha—we donon akritiyan ghoDon ke aDDe ke pas pahunch chuki theen wo jaldi jaldi chalne laga pas se guzarte ek ghoDewale se usne kaha ki aage jakar nili nekarwale bachche ko rok le—usse kahe ki koi usse milne ke liye aa raha hai ghoDewala ghoDa dauData hua gaya, magar un donon ke pas na rukkar unse aage nikal gaya wahan jakar na jane kise usne uska sandesh de diya
jaldi jaldi chalte hue bhi parkash ko lag raha tha jaise wo bahut ahista chal raha ho, jaise uske ghutne jakaD gaye hon aur rasta bahut bahut lamba ho gaya ho uska man is ashanka se bechain tha ki uske pas pahunchne tak we log ghoDon par sawar hokar wahan se chal na den, aur jis duri ko wo napna chahta tha, wo jyon ki tyon na bani rahe magar jyon jyon fasla kam ho raha tha, uska kam hona bhi use akhar raha tha kya wo jaan bujhkar apne ko ek aisi sthiti mein nahin Dal raha tha jisse use apne ko bachaye rakhna chahiye tha?
un logon ne ghoDe nahin liye the wo jab unse teen chaar gaz door rah gaya, to sahsa uske panw ruk gaye to kya sachmuch ab use us sthiti ka samna karna hi tha?
“pashi!” isse pahle ki wo nishchay kar pata, anayas uske munh se nikal gaya
bachche ki baDi baDi ankhen uski taraf ghoom garin—sath hi uski man ki ankhen bhi kohre mein achanak kai kai bijliyan kaundh garin parkash do ek qadam aur aage baDh gaya bachcha hairan ankhon se uski taraf dekhta hua apni man ke sath sat gaya
“palash, idhar aa mere pas,” parkash ne hath se chutki bajate hue kaha, jaise ki ye har roz ki sadharan ghatna ho aur bachcha abhi kuch minat pahle hi uske pas se apni man ke pas gaya ho
bachche ne man ki taraf dekha wo apni ankhen hatakar dusri taraf dekh rahi thi bachcha ab aur bhi uske sath sat gaya aur uski ankhen hairani ke sath sath ek shararat se chamak uthin
parkash ko khaDe khaDe uljhan ho rahi thi lag raha tha ki khu chalkar us duri ko napne ke siwa ab koi chara nahin hai wo lambe lambe Dag bharkar bachche ke pas pahuncha aur use usne apni banhon mein utha liya bachche ne ek bar kilakkar uske hathon se chhutne ki cheshta ki, parantu dusre hi kshan apni chhoti chhoti banhen uske gale mein Dalkar wo usse lipat gaya parkash use liye hue thoDa ek taraf ko hat aaya
“tune papa ko pahchana nahin tha kya?”
“paitana ta,” bachcha banhen uske gale mein Dalkar jhulne laga
“to tu jhat se papa ke pas aaya kyon nahin?”
“nahin aaya,” kahkar bachche ne use choom liya
“tu aaj hi yahan aaya hai?”
“nahin, tal aaya ta ”
“abhi rahega ya aaj hi laut jayega?”
“abi teen chaal din lahunda ”
“to papa ke pas milne ayega n?”
“aunda ”
parkash ne ek bar use achchhi tarah apne sath satakar choom liya, to bachcha kilakkar uske mathe, ankhon aur galon ko jagah jagah chumne laga
“kaisa bachcha hai!” pas khaDe ek kashmiri mazdur ne sir hilate hue kaha
“tum tahan lahte ho?” bachcha banhen usi tarah uski gardan mein Dale jaise use achchhi tarah dekhne ke liye thoDa pichhe ko hat gaya
“wahan!” parkash ne door apni balakni ki taraf ishara kiya, “tu kab tak wahan ayega?”
“abi upal jatal dood piunda, uchhke baad tumale pachh aunda ” bachche ne ab apni man ki taraf dekha aur uski banhon se nikalne ke liye machalne laga
“main wahan balakni mein kursi Dalkar baitha rahunga aur tera intizar karunga,” bachcha banhon se utarkar apni man ki taraf bhag gaya, to parkash ne pichhe se kaha kshan bhar ke liye uski ankhen bachche ki man se mil garin, parantu agle hi kshan donon dusri dusri taraf dekhne lage bachcha jakar man ki tangon se lipat gaya wo kohre ke par dewdaron ki dhundhli rekhaon ko dekhti hui boli, “tujhe doodh pikar aaj khilanmarg nahin chalna hai kya?”
“nahin,” bachche ne uski tangon ke sahare uchhalte hue sapat jawab diya, “main dood pital papa te pachh jaunda ”
teen din, teen raton se akash ghira tha kohara dhire dhire itna ghana ho gaya tha ki balakni se aage koi roop, koi rang nazar nahin aata tha akash ki paradarshita par jaise gaDha safeda pot diya gaya tha jyon jyon samay beet raha tha, kohara aur ghana hota ja raha tha kursi par baithe hue parkash ko kisi kisi kshan mahsus hone lagta jaise wo balakni pahaDiyon se ghire khule wistar mein na hokar antriksh ke kisi rahasyamay pardesh mein bani ho—niche aur upar kewal akash hi akash ho, jiske atal mein balakni ki satta ek apne aap mein poorn aur swatantr ek lok ki tarah ho
uski ankhen is tarah ektak samne dekh rahi thin—jaise akash aur kohre mein use koi arth DhunDh़na ho—apni balakni ke wahan hone ka rahasy janna ho
hawa se kohre ke badal kai kai roop lekar idhar udhar bhatak rahe the—apni gahrai mein phailte aur simatte hue we apni thah nahin pa rahe the beech mein kahin kahin dewdaron ki phunagiyan ek hari lakir ki tarah bahar nikli hui thin—kohre ke akash par likhi gai ek ast wyast lipi jaisi dekhte dekhte wo lakir bhi gum ho jati thi—kohre ka hay use rahne dena nahin chahta tha lakir ko mitte dekhkar snayuon mein ek tanaw sa aa raha tha—jaise kisi bhi tarah wo us lakir ko mitne se bacha lena chahta ho parantu jab lakir ek bar mitkar bahar nahin nikli, to usne sir pichhe ko Dal liya aur swayan bhi kohre mein kohara hokar paD raha
atit ke kohre mein kahin wo din bhi tha jo chaar baras beet jane par bhi aaj tak beet nahin saka tha
bachche ki pahli warshaganth thi us din—wahi unke jiwan ki bhi sabse baDi ganth ban gai thi
wiwah ke kuch mahine baad se hi pati patni alag alag rahne lage the wiwah ke sath jo sootr juDna chahiye tha, wo juD nahin saka tha donon alag alag jagah kaam karte the aur apna apna swatantr tana bana bunkar ji rahe the lokachar ke nate sal chhe mahine mein kabhi ek bar mil liya karte the wo lokachar hi is bachche ko duniya mein le aaya tha
bina samajhti thi ki is tarah jaan bujhkar use phansa diya gaya hai parkash sochta tha ki anjane mein hi usse ek apradh ho gaya hai parantu janm ke panchwen ya chhathe roz bachche ki haalat sahsa bahut kharab ho gai, to wo apne kamre mein akela baitha hawa mein bachche ke akar ko dekhta hua kahta raha tha, “dekh tujhe jina hai tu is tarah nahin ja sakta sun raha hai? tujhe jina hai har haalat mein jina hai main tujhe jane nahin dunga samjha?”
sal bhar se bachcha man ke hi pas rah raha tha beech mein bachche ki dadi chhe sat mahine uske pas rah aari thi
pahli warshaganth par bina ne likha tha ki wo bachche ko lekar apne pita ke yahan lucknow ja rahi hai wahin par bachche ke janmdin ki party karegi
parkash ne use tar diya tha ki wo bhi us din lucknow ayega apne ek mitr ke yahan hazaratganj mein thahrega achchha hoga ki party wahin par ki jaye lucknow ke kuch mitron ko bhi usne suchit kar diya tha ki bachche ki warshaganth ke awsar par we uske sath chay pine ke liye ayen
usne socha tha ki bina use station par mil jayegi, parantu wo nahin mili hazaratganj pahunchakar nha dho chukne ke baad usne bina ke pas sandesh bheja ki wo wahan pahunch gaya hai, kuch log saDhe chaar panch baje chay par ayenge, isliye wo us samay tak bachche ko lekar awashy wahan pahunch jaye parantu panch baje, chhe baje, sat baj gaye, bina bachche ko lekar nahin aari dusri bar sandesh bhejne par pata chala ki wahan un logon ki party chal rahi hai bina ne kahla bheja ki bachcha aath baje tak khali nahin hoga, isliye wo us samay use lekar nahin aa sakti parkash ne apne mitron ko chay pilakar wida kar diya bachche ke liye kharide hue uphaar bina ke pita ke yahan bhej diye sath mein ye sandesh bhi bheja ki bachcha jab bhi khali ho, use thoDi der ke liye uske pas bhej diya jaye
parantu aath ke baad nau baje, das baje, barah baj gaye, par bina na to swayan bachche ko lekar aari, aur na hi usne use kisi aur ke sath bheja
parkash raat bhar soya nahin uske dimagh ko jaise koi chhaini se chhilta raha
subah usne phir bina ke pas sandesh bheja is bar bina bachche ko lekar aa gai usne bataya ki raat ko party der tak chalti rahi, isliye uska aana sambhaw nahin tha—agar wastaw mein use bachche se pyar tha, to uska kartawya tha ki wo apne uphaar lekar khu unke yahan party mein aa jata
us din subah se arambh hui batachit aadhi raat tak chalti rahi parkash bar bar kahta raha, “bina, main is bachche ka pita hoon pita hone ke nate mujhe ye adhikar to hai hi ki main bachche ko apne pas bula sakun ”
parantu bina ka uttar tha, “apke pas pita ka dil hota, to kya aap party mein na aate? aap mujhse puchhen, to main to kahungi ki ye ek akasmik ghatna hi hai ki aap iske pita hain ”
“bina!” wo phati phati ankhon se uske chehre ki taraf dekhta rah gaya “tum batao, tum chahti kya ho!”
“kuchh bhi nahin aapse main kya chahungi?”
“tumne socha hai ki is bachche ke bhawishya ka kya hoga?”
“jab hum apne hi bhawishya ke bare mein nahin soch sakte, to is bhawishya ke bare mein kya sochenge?”
“kya tum ye pasand karogi ki bachche ko mujhe saunp do aur swayan swatantr ho jao?”
“bachche ko aapko saunp doon?” bina ke swar mein witrshna gahri ho gai “itni moorkh main nahin hoon ”
“to kya tum yahi chahti ho ki iska nirnay karne ke liye adalat mein jaya jaye?”
“ap adalat mein jana chahen, to mujhe usmen bhi etiraz nahin hai zarurat paDne par main supreme court tak laDungi aapka bachche par koi adhikar nahin hai ”
“bachche ko pita se zyada man ki zarurat hoti hai,” kai din kai saptah wo man hi man sangharsh karta raha “jahan use donon na mil sakte ho, wahan use man to milani chahiye hi achchha hai tum bachche ki baat bhool jao aur nae sire se apni zindagi banane ki koshish karo ”
“magar ”
“fizul ki hujjat mein kuch nahin rakha hai bachche achche to hote hi rahte hain tum sambandh wichchhed karke phir se byah kar lo, to ghar mein aur bachche ho jayenge samajh lena ki is ek bachche ke sath koi durghatna ho gai thi ”
sochne sochne mein din, saptah aur mahine nikalte gaye kya sachmuch insan pahle ki zindagi ko mitakar nae sire se zindagi arambh kar sakta hai? kya sachmuch zindagi ke kuch warshon ko wo ek duhaswapn ki tarah bhulne ka prayatn kiya ja sakta hai? bahut se insan hain jinki zindagi kahin na kahin, kisi na kisi dorahe se ghalat disha ki or bhatak jati hai kya yahi uchit nahin ki insan us raste ko badalkar apni ghalati sudhar le? akhir insan ko jine ke liye ek hi jiwan to milta hai—wahi prayog ke liye aur jine ke liye to kyon insan ek prayog ki asphalta ko jiwan ki asphalta man le?
court mein kaghaz par hastakshar karte samay chhat ke pankhe se takrakar ek chiDiya ka bachcha niche aa gira
“hay, chiDiya mar gai,” kisi ne kaha
“mari nahin, abhi zinda hai,” koi aur bola
“chiDiya nahin hai, chiDiya ka bachcha hai,” kisi tisre ne kaha
“nahin chiDiya hai ”
“nahin, chiDiya ka bachcha hai ”
“ise uthakar bahar hawa mein chhoD do ”
“nahin, yahin paDa rahne do bahar ise koi billi kha jayegi ”
“yahan ye aaya kis tarah?”
“jane kis tarah? raushandan ke raste aa gaya hoga ”
“bechara kaise taDap raha hai!”
“shukr hai, pankhe ne ise kat hi nahin diya ”
“kat diya hota, to balki achchha tha ab is tarah bechara kya jiyega!”
tab tak pati patni donon ne kaghaz par hastakshar kar diye the bachcha us samay court ke ahate mein kauwon ke pichhe bhagta hua kilkariyan mar raha tha wahan dhool uD rahi thi aur charon or matyali si dhoop phaili thi
phir din, saptah aur mahine !
aDhai sal guज़r jane par bhi parkash phir se zindagi arambh karne ka nishchay nahin kar paya tha us arse mein bachcha teen bar usse milne ke liye aaya tha wo naukar ke sath aata tha aur din bhar uske pas rahkar andhera hone par laut jata pahli bar wo usse sharmata raha tha, magar baad mein usse hil mil gaya tha wo bachche ko lekar ghumne chala jata, use icecream khilata, khilaune le deta tha bachcha jane ke samay hath karta, “abi nahin jaunda dood pital jaunda thana thatal jaunga ”
jab bachcha is tarah ki baat kahta tha, to uske andar sahsa koi cheez sulag uthti thi uska man hota tha ki, naukar ko jhiDakkar wapas bhej de aur bachche ko hamesha hamesha ke liye apne pas rakh le jab naukar bachche se kahta tha, “baba, chalo, ab der ho rahi hai,” to parkash ka sharir ek hatash awesh se kanpne lagta aur bahut kathinta se wo apne ko sanbhal pata akhiri bar bachcha raat ke nau baje tak ruka rah gaya to ek aprichit wekti use lene ke liye chala aaya
bachcha us samay uski godi mein baitha khana kha raha tha
“dekhiye, ab bachche ko bhej dijiye, ise bahut der ho gai hai,” ajnabi ne aakar kaha
“ap dekh rahe hain, bachcha khana kha raha hai,” uska man hua ki mukka markar us adami ke dant toD de
“han han, aap khana khila dijiye,” ajnabi ne udarta ke sath kaha, “main niche intizar kar raha hoon ”
ghusse ke mare parkash ke hath is tarah kanpne lage ki uske liye bachche ko khana khilana asambhau ho gaya
jab naukar bachche ko lekar chala gaya, to usne dekha ki bachche ki topi wahin par rah gai hai wo topi liye hue bhagkar niche pahuncha, to dekha ki naukar aur ajnabi ke alawa bachche ke sath koi aur bhi hai—uski man we log chalis pachas gaz aage gaye the usne naukar ko awaz di, to charon ne muDkar eksath uski taraf dekha naukar topi lene ke liye laut aaya aur shesh tinon aage chalte rahe
us raat wo ek dost ki chhati par sir rakhkar der tak rota raha
nae sire se phir wahi sawal uske man mein uthne laga kyon wo apne ko is atit se puri tarah mukt nahin kar leta? yadi bsa hua ghar bar ho, to apne asapas bachchon ki chahl pahal mein wo is duःkh ko bhool nahin jayega? usne apne ko bachche se isliye to alag kiya tha ki apne jiwan ko ek naya moD de sake—phir is tarah akeli zindagi ki yantrana kisaliye sah raha tha?
parantu nae sire se jiwan arambh karne ki kalpana mein sada ek ashanka mili rahti thi wo us ashanka se jitna hi laDta tha, wo utni hi aur prabal ho uthti thi jab ek prayog saphal nahin hua, to kaise kaha ja sakta tha ki dusra prayog saphal hoga hee?
wo pahle ki bhool dohrana nahin chahta tha, isliye uski ashanka ne use bahut satark kar diya tha wo jis kisi laDki ko apni bhawi patni ke roop mein dekhta, usi ke chehre mein use apne pahle jiwan ki chhaya nazar aane lagti halanki wo aspasht roop se is wishay mein kuch bhi soch nahin pata tha, phir bhi use lagta tha ki wo ek aisi hi laDki ke sath jiwan bita sakta hai jo har drishti se bina ke wiprit ho bina mein bahut ahan tha, wo uske barabar paDhi likhi thi, usse zyada kamati thi use apni swatantrata ka bahut man tha aur wo samajhti thi ki kisi bhi paristhiti ka wo akeli rahkar muqabila kar sakti hai sharirik drishti se bhi bina kafi lambi unchi thi aur us par bhari paDti thi batachit bhi wo khule mardana Dhang se karti thi wo ab ek aisi laDki chahta tha jo har tarah se us par nirbhar kare, jiski kamzoriyan ek purush ke ashray ki apeksha rakhti hon
aur kuch aisi hi laDki thi nirmala—uske ek ghanishth mitr krishn juneja ki bahan usne do ek bar us laDki ko dekha tha bahut sidhi sadi masum si laDki thi baat karte hue uski ankhen niche ko jhuk jati theen sadharan paDhi likhi thi aur sadharan Dhang se hi rahti thi use dekhkar anayas man mein sahanbhuti umaD aati thi chhabbis sattais baras ki hokar bhi dekhne mein wo atharah unnis se zyada ki nahin lagti thi wo juneja ke ghar ki kathinaiyon ko janta tha un kathinaiyon ke karan hi shayad itni umr tak us laDki ka wiwah nahin ho saka tha uske sath nirmala ke wiwah ki baat chalai gai, to uske man ke kisi kone mein soya hua pulak sahsa jag utha use sachmuch laga jaise uska khoya hua jiwan use wapas mil raha ho; jaise andar ki ek tuti hui kalpana phir se akar grahn kar rahi ho hawa aur akash mein use ek aur hi akarshan lagne laga, raste mein bikti hui phulon ki beniyan pahle se kahin sugandhit pratit hone lagin nirmala byahkar uske ghar mein aari bhi nahin thi ki wo sham ko lautte hue phulon ki beniyan kharidkar ghar lane laga apna pahle ka ghar use chhota lagne laga, isiliye usne ek baDa ghar le liya aur use sajane ke liye naya naya saman kharid laya pas mein zyada paise nahin the, isliye qarz le lekar usne nirmala ke liye na jane kitna kuch banwa Dala
nirmala hansti hui uske ghar mein ari—aur hansti hi rahi
pahle kuch din to wo samajh nahin saka ki wo hansi kya hai nirmala jab kabhi bina baat ke hansna shuru kar deti aur der tak hansti rahti, wo awak hokar use dekhta rahta teen teen chaar chaar sal ke bachche bhi us tarah akasmik Dhang se nahin hans sakte jaise wo hansti thi koi wekti uske samne gir jata ya koi cheez kisi ke hath se girkar toot jati to uske liye apni hansi rokna asambhau ho jata lagatar das das minat tak wo hansi se behal ho rahti wo use samjhane ki cheshta karta ki aisi baton par nahin hansa jata, to nirmala ko aur bhi hansi chhutti wo use Dant deta, to wo usi tarah akasmik Dhang se bistar par letkar hath pair patakti hui rone lagti, chilla chillakar apni mari hui man ko pukarne lagti, aur ant mein baal bikherkar aur dewi ka roop dharan karke ghar bhar ko shap dene lagti kabhi apne kapDe phaDkar idhar udhar chhipa deti aur apne gahne juton ke andar sanbhal deti kabhi apni banh par phoDe ki kalpana karke do do din uske dard se karahti rahti aur phir sahsa swasth hokar kapDe dhone lagti aur subah se sham tak kapDe dhoti rahti
jab man shant hota, to munh gol kiye wo angutha chusne lagti
uthte baithte, khate pite, parkash ke samne nirmala ke tarah tarah ke roop aate rahte aur uska man ek andhe kuen mein girne lagta raste par chalte hue uske charon taraf ek shunya sa ghir aata aur wo bhaunchakka sa saDak ke kinare khaDa hokar sochne lagta ki wo ghar se kyon aaya hai aur kahan ja raha hai uska kisi se milne ya kahin bhi aane jane ko man na hota uska man jis shunya mein bhatakta rahta, usmen kai bar use ek bachche ki kilkariyan sunai dene lagtin aur wo bilkul jaD hokar der der tak ek hi jagah par khaDa ya baitha rahta ek bar chalte chalte hue wo khambhe se takrakar nali mein gir gaya ek bar bus par chaDhne ki koshish mein niche gir jane se uske kapड़e pichhe se phat gaye aur wo isse beख़bar dusri bus mein chaDhkar aage chal diya use tab pata chala jab kisi ne raste mein usse kaha, “jentalmain, tumhein kya ghar jakar kapDe badal nahin lene chahiye?”
use lagta tha jaise wo ji na raha ho, sirf andar hi andar ghut raha ho kya yahi wo zindagi thi jise pane ke liye usne warshon tak apne se sangharsh kiya tha?
use krodh aata ki juneja ne uske sath is tarah ka wishwasghat kyon kiya? us laDki ko kisi manasik chikitsalay mein bhejne ki jagah uska byah kyon kar diya? usne juneja ko is sambandh mein patr likhe, parantu uski or se use koi uttar nahin mila usne juneja ko bula bheja, to wo aaya bhi nahin wo swayan juneja se milne ke liye gaya, to use jawab mila ki nirmala ab uski patni hai—nirmala ke mayke ke logon ka us mamle mein ab koi daख़l nahin hai
“tum mere bhai se kya puchhne gaye the?” wo baal bikherkar ‘dewi’ ka roop dharan kiye hue kahti, “tum bina ki tarah mujhe bhi talaq dena chahte ho? kisi tisri ko ghar mein lana chahte ho? magar main bina nahin hoon wo sati nari nahin thi main sati nari hoon tum mujhe chhoDne ki baat man mein laoge, to main is ghar ko jalakar bhasm kar dungi—sare shahr mein bhuchal le aungi laun bhuchal?” aur banhen phailakar wo chillane lagti, “a bhuchal, aa aa! main sati nari hoon, to is ghar ki int se int baja de aa, aa, aa!”
wo use shant karne ki cheshta karta, to wo kahti, “tum mujhse door raho mere sharir ko hath mat lagao main sati hoon dewi hoon sadhwi hoon tum mera satitw nasht karna chahte ho? mujhe kharab karna chahte ho? mera tumse byah kab hua hai? main to abhi kanwari hoon chhoti si masum bachchi hoon sansar ka koi bhi purush mujhe nahin chhu sakta main adhyatmik jiwan jiti hoon mujhe koi chhukar dekhe to sahi ”
aur baal bikhere hue isi tarah bolti hui kabhi wo ghar ki chhat par pahunch jati aur kabhi bahar nikalkar ghar ke asapas chakkar katne lagti parkash ne ek do bar honthon par hath rakhkar uska munh band kar dena chaha, to wo aur bhi zor se chilla uthi, “tum mera munh band karna chahte ho? mera gala ghontna chahte ho? mujhe marana chahte ho? tumhein pata hai main sakshat dewi hoon? mere charon bhai mere chaar sher hain! we tumhein noch nochkar kha jayenge unhen pata hai—unki bahan dewi ka swarup hai koi mera bura chahega, to we use uthakar le jayenge aur kal kothari mein band kar denge mere baDe bhai ne abhi abhi nai kar li hai main use chitthi likh doon, to wo abhi kar lekar aa jayega, aur hath pair bandhakar tumhein kar mein Dalkar le jayega chhe mahine band rakhega, phir chhoDega tumhein pata nahin we charon ke charon sher kitne zalim hain? we rakshas hain, rakshas adami ki boti boti kat den aur kisi ko pata bhi na chale magar main unhen nahin bulaungi main sati nari hoon, isliye apne saty se hi apni rakhsha karungi !”
sab pryatnon se harkar wo thaka hua apne paDhne ke kamre mein band hokar paD jata, to aadhi raat tak wo sath ke kamre mein usi tarah bolti rahti phir bolte bolte achanak chup kar jati aur thoDi der baad uska darwaza khatkhatane lagti
“kya baat hai?” wo kahta
“is kamre mein meri sans ruk rahi hai,” nirmala uttar deti “darwaza kholo, mujhe aspatal jana hai!”
“is samay so jao,” wo kahta, “subah tum jahan kahogi, wahan le chalunga ”
“main kahti hoon darwaza kholo, mujhe aspatal jana hai ” aur wo zor zor se dhakke dekar darwaza toDne lagti
wo darwaza khol deta, to wo hansti hui uske samne aa jati
“tumhen hansi kis baat ki aa rahi hai?” wo kahta
“tumhen lagta hai main hans rahi hoon?” wo aur bhi zor se hansne lagti “yah hansi nahin, rona hai, rona ”
“tum aspatal chalna chahti ho?”
“kyon?”
“abhi tum kah rahi theen !”
“main aspatal jane ke liye kahan kah rahi thee? main to kah rahi thi ki mujhe us kamre mein Dar lagta hai, main yahan tumhare pas soungi ”
“dekho nirmala, is samay mera man theek nahin hai tum baad mein chahe mere pas aa jana, magar is samay thoDi der ke liye ”
“main kahti hoon main akeli us kamre mein nahin so sakti mere jaisi masum bachchi kya kabhi akeli so sakti hai?”
“tum masum bachchi nahin ho, nirmala!”
“to tumhein main baDi nazar aati hoon? ek chhoti si bachchi ko baDi kahte tumhare dil ko kuch nahin hota? isliye ki tum mujhe apne pas sulana nahin chahte? magar main yahan se nahin jaungi tumhein mujhe apne sath sulana paDega main widhwa hoon jo akeli soungi? main suhagin nari hoon koi suhagin kya kabhi akeli soti hai? main bhanwaren lekar tumhare ghar mein aari hoon, aise hi uthakar nahin lari gai dekhti hoon tum kaise mujhe us kamre mein bhejte ho?” aur wo uske pas letkar usse lipat jati
kuch der mein jab uske snayu shant ho chukte to lagatar use chumti hui kahti, “mera suhag! mera chand! mera raja! main tumhein kabhi apne se alag rakh sakti hoon? tum mere sath ek sau chhattis sal ki umr tak jiyoge mujhe ye war mila hua hai ki main ek sau chhattis baras ki umr tak suhagin rahungi jiski bhi mujhse shadi hoti, wo ek sau chhattis sal ki umr tak jita tum dekh lena meri baat sach nikalti hai ya nahin main sati nari hoon aur sati nari ke munh se nikli hui baat kabhi jhooth nahin ho sakti ”
“tum subah mere sath aspatal chalogi?”
“kyon, mujhe kya hua hai jo main aspatal jaungi? mujhe to aaj tak kabhi sirdard bhi nahin hua main aspatal kyon jaun?”
ek din parkash uske liye kai kitaben kharid laya usne socha tha ki shayad paDhne se nirmala ke man ko ek disha mil jaye aur wo dhire dhire apne man ke andhere se bahar nikalne lage magar nirmala ne un kitabon ko dekha, to munh bichkakar ek taraf hata diya
“ye kitaben main tumhare paDhne ke liye laya hoon,” usne kaha
“mere paDhne ke liye?” nirmala hairani ke sath boli, “main in kitabon ko paDhkar kya karungi? mainne to marksawad, manowij~nan aur sabhi kuch chaudah sal ki umr mein hi paDh liya tha ab itni baDi hokar main ye kitaben paDhne lagungi?”
aur uske pas se uthkar angutha chusti hui wo dusre kamre mein chali gai
“papa!”
kohre ke badalon mein bhatka man sahsa balakni par laut aaya khilanmarg ko jane wali saDak par bahut se log ghoDe dauDate ja rahe the—ek dhundhle chitr ki bujhi bujhi akritiyan jaise waisi hi bujhi bujhi akritiyan club se bazar ki taraf aa rahi theen barin or barf se Dhaki hui pahaDi ki ek choti kohre se bahar nikal aari thi, aur jane kidhar se aati surya ki kiran ne use deept kar diya tha kohre mein bhatke hue kuch pakshi uDte hue us choti ke samne aa gaye, to sahsa unke pankh sunahre ho uthe—magar agle hi kshan we phir dhundhalke mein kho gaye ”
parkash kursi se uth khaDa hua aur jhankakar niche saDak ki taraf dekhne laga kya wo awaz palash ki nahin thee? magar saDak par door tak waisi koi akriti dikhai nahin de rahi thi jise uski ankhen us bachche ke roop mein pahchan saken ankhon hi ankhon tourist hotel ke gate tak jakar wo laut aaya aur gale par hath rakhkar jaise nirasha ki chubhan ko roke hue phir kursi par baith gaya das ke baad gyarah, barah aur phir ek baj gaya tha aur bachcha nahin aaya tha kya bachche ke pahle janmdin ki ghatna aaj phir dohrai jani thee? mutthiyan band kiye un par matha rakhkar wo balakni par jhuk gaya
“papa!”
usne chaunkkar sir uthaya wahi kohara aur wahi dhundhli sunsan saDak door ghoDon ki tapen aur dhimi chaal se us taraf ko aata hua ek kashmiri mazdur! kya wo awaz use apne kanon ke andar se hi sunai de rahi thee?
tabhi un pardon ke andar do nannhe pairon ki awaz bhi goonj gai aur uski bahon ke bahut pas hi bachche ka swar kilak utha, “papa!” sath hi do nannhi nannhi banhen uske gale se lipat garin aur bachche ke jhanDule baal uske honthon se chhu gaye
parkash ne ek bar bachche ke sharir ko sir se pair tak chhukar dekh liya ki ye akar bhi uski kalpana ka swapn to nahin hai wishwas ho jane par ki bachcha sachmuch uski godi mein hai, usne mathe aur ankhon ko kaskar choom liya
“to main jaun, palash?” ek bhuli hui magar parichit awaz ne parkash ko phir chaunka diya usne ghumkar pichhe dekha kamre ke darwaze ke bahar bina darin taraf na jane kis cheez par ankhen gaDaye khaDi thi
“ap? aa jaiye aap !” kahta hua bachche ko banhon mein liye parkash ast wyast sa kursi se uth khaDa hua
“nahin, main ja rahi hoon,” bina ne phir bhi uski taraf nahin dekha “mujhe itna bata dijiye ki bachcha kab tak lautkar ayega ”
“ap jab kahen, tabhi bhej dunga ” parkash balakni ki dahliz langhakar kamre mein aa gaya
“chaar baje ise doodh pina hota hai ”
“to chaar baje tak main ise wahan pahuncha dunga ”
“isne halka sa sweater hi pahan rakha hai dusre pulowar ki zarurat to nahin paDegi?”
“ap de dijiye zarurat paDegi, to main ise pahna dunga ”
bina ne dahliz ke us taraf se pulowar uski taraf baDha diya usne pulowar lekar use shaal ki tarah bachche ko oDha diya “ap ,” usne bina se kahna chaha ki andar aa jaye, magar usse kaha nahin gaya bina chupchap zine ki taraf chal di parkash kamre se nikal aaya zine se bina ne phir kaha, “dekhiye, ise icecream mat khilaiyega iska gala bahut jald kharab ho jata hai ”
“achchha!”
bina pal bhar ruki rahi shayad use aur bhi kuch kahna tha magar phir bina kuch kahe niche utar gai bachcha parkash ki banhon mein uchhalta hua hath hilata raha, “mummy, ta ta! ta ta!” parkash use liye balakni par laut aaya to wo uske gale mein banhen Dalkar bola, “papa, main aichhaklim jalul thaunda ”
“han han bete!” parkash uski peeth par hath pherne laga, “jo tere man mein aaye so khana han?”
aur kuch der ke liye wo apne ko, balakni ko, aur yahan tak ki bachche ko bhi bhula hua akash ko dekhta raha
kohre ka parda dhire dhire uthne laga, to milon tak phaile hariyali ke rangmanch ki dhundhli rekhayen sahsa aspasht ho uthin
we donon gaulph graunD par karke club ki taraf ja rahe the chalte hue bachche ne puchha, “papa, adami ke do tangen kyon hoti hain? chaar kyon nahin hotin?”
parkash ne chaunkkar uski taraf dekha aur kaha, “are!”
“kyon papa,” bachcha bola, “tumne are kyon kaha hai?”
“tu itna saf bol sakta hai, to ab tak tutlakar kyon bol raha tha?” parkash ne use banhon mein uthakar ek abhiyukt ki tarah samne kar liya bachcha khilakhilakar hansa parkash ko laga ki ye waisi hi hansi hai jaisi kabhi wo swayan hansa karta tha bachche ke chehre ki rekhaon se bhi use apne bachpan ke chehre ki yaad aane lagi use laga jaise ekayek uska tees baras pahle ka chehra uske samne aa gaya ho aur wo swayan us chehre ke samne ek abhiyukt ki tarah khaDa ho
“mummy to aichhe hi achchha ladta hai,” bachche ne kaha
“kyon?”
“mele to nahin pata tum mummy chhe poochh lena ”
“teri mummy tere ko zor se hansne se bhi mana karti hai?” parkash ko we din yaad aa rahe the jab uske khilakhilakar hansne par bina kanon par hath rakh liya karti thi
bachche ki banhen uski gardan ke pas kas garin “han,” wo bola, “mummy tahti hai achchhe bachche jol chhe nahin hanchhate ”
parkash ne use banhon se utar diya bachcha uski ungli pakDe ghas par chalne laga “tyon papa,” usne puchha, “achchhe bachche jol chhe tyon nahin hanchhate?”
“hanste hain bete!” parkash ne uske sir ko sahlate hue kaha, “sab achchhe bachche zor se hanste hain ”
“to mummy mele to tyon lotti hai?”
“nahin rokti bete ab wo tujhe nahin rokegi aur tu tutlakar nahin, theek se bola kar teri mummy tujhe iske liye bhi mana nahin karegi main usse kah dunga ”
“to tumne pahle mummy chhe tyon nahin taha?”
“aise nahin, kah ki tumne pahle mummy se kyon nahin kaha ”
bachcha phir hans diya, “to tumne pahle mummy se kyon nahin kaha?”
“pahle mujhe yaad nahin raha ab yaad se kah dunga ”
kuch der donon chupchap chalte rahe phir bachche ne puchha, “papa, tum mere janmdin ki party mein kyon nahin aaye? mummy kahti thi tum wilayat gaye hue the ”
“han bete, main wilayat gaya hua tha ”
“to papa, ab tum phir wilayat nahin jana ”
“kyon?”
“mere ko achchha nahin lagta wilayat jakar tumhari shakal aur hi tarah ki ho gai hai ”
parkash ek rukhi si hansi hansa, “kaisi ho gai hai shakal?”
“pata nahin kaisi ho gai hai? pahle dusri tarah ki thi, ab dusri tarah ki hai ”
“dusri tarah ki kaise?”
“pata nahin pahle tumhare baal kale kale the ab safed safed ho gaye hain ”
“tu itne din mere pas nahin aaya, isiliye mere baal safed ho gaye hain ”
bachcha itne zor se hansa ki uske qadam laDakhDa gaye “papa, tum to wilayat gaye hue the,” usne kaha “main tumhare pas kaise ata? main kya akela wilayat ja sakta hoon?”
“kyon nahin ja sakta? tu itna baDa to hai ”
“main sachmuch baDa hoon na papa?” bachcha tali bajata hua bola, “tum ye baat bhi mummy se kah dena wo kahti hai main abhi bahut chhota hoon main chhota nahin hoon na papa!”
“nahin, tu chhota kahan hai?”—kahkar parkash maidan mein dauDne laga “tu bhagkar mujhe pakaD ”
bachcha apni chhoti chhoti tangen patakta hua dauDne laga parkash ko phir apne bachpan ki ek baat yaad ho aari tab use dauDte dekhkar ek bar kisi ne kaha tha, “are ye bachcha kaise tangen patak patakkar dauDta hai! ise theek se chalna nahin aata kya?”
bachche ki ungli pakDe parkash club ke barrum mein dakhil hua, to barmain abdulla use dekhkar door se muskraya “sahab ke liye do botal biyar,” usne pas khaDe baire se kaha “sahab aaj apne sath ek mehman ke sath aaya hai ”
“bachche ke liye ek gilas pani de do,” parkash ne counter ke pas rukkar kaha “ise pyas lagi hai ”
“khali pani?” abdulla bachche ke galon ko pyar se sahlane laga “aur sab doston ko to sahab biyar pilata hai aur is bechare ko khali pani?” aur pani ki botal kholkar wo gilas mein pani Dalne laga jab wo gilas bachche ke munh ke pas le gaya, to bachche ne ye apne hath mein le liya “main apne aap piunga,” usne kaha “main chhota thoDe hi hoon? main to baDa hoon ”
“achchha tu baDa hai?” abdulla hansa “tab to tujhe pani dekar mainne ghalati ki baDe logon ko to main biyar hi pilata hoon ”
“biyar kya hota hai?” bachche ne munh se gilas hatakar puchha
“biyar hota nahin, hoti hai ” abdulla ne jhukkar use choom liya “tujhe pilaun kya?”
“nahin,” kahkar bachche ne apni banhen parkash ki taraf phaila deen parkash use lekar DyoDhi ki taraf chala, to abdulla bhi un donon ke sath sath bahar chala aaya, “kiska bachcha hai, sahab?” usne dhime swar mein puchha
“mera laDka hai,” kahkar parkash bachche ko siDhi se niche utarne laga
abdulla hans diya “sahab bahut khushdil adami hai,” usne kaha
“kyon?”
abdulla hansta hua sir hilane laga “apka bhi jawab nahin hai ”
parkash ghusse mein kuch kahne ko hua magar apne ko rokkar bachche ko liye hue aage chal diya abdulla DyoDhi mein rukkar pichhe se sir hilata raha baira sher muhammad andar se nikalkar aaya, to wo phir khilakhilakar hans diya
“kya baat hai? akela khaDa kaise hans raha hai?” sher muhammad ne puchha
“sahab ka bhi jawab nahin hai,” abdulla kisi tarah hansi par qabu pakar bola
“kis sahab ka jawab nahin hai?”
“us sahab ka,” abdulla ne parkash ki taraf ishara kiya “us din bolta tha ki isne isi sal shadi ki hai aur aaj bolta hai ki ye panch sal ka baba iska laDka hai jab aaya tha, to akela tha aur aaj iske laDka bhi ho gaya!” parkash ne ek bar ghumkar tikhi nazar se uski taraf dekh liya abdulla ek bar phir khilkhila utha “aisa khushdil adami mainne aaj tak nahin dekha ”
“papa, ghas hari kyon hoti hai? lal kyon nahin hoti?” club se nikalkar parkash ne bachche ko ek ghoDa kiraye par le diya tha linenmarg ko jane wali pagDanDi par wo swayan uske sath sath paidal chal raha tha ghas ke reshmi wistar par kohre ka akash is tarah jhuka hua tha jaise wasana ka unmad use phir se ghir aane ke liye prerit kar raha ho bachcha utsuk ankhon se asapas ki pahaDiyon ko aur beech se bahkar jati hui pani ki patli dhaar ko dekh raha tha kabhi kuch kshan wo apne ko bhula rahta, phir kisi agyat bhaw se prerit hokar kathi par uchhalne lagta
“har cheez ka apna rang hota hai,” parkash ne bachche ki ek jaangh ko hath se dabaye hue kaha aur kuch der swayan bhi hariyali ke wistar mein khoya raha
“har cheez ka apna rang kyon hota hai?”
“kyonki kudrat ne har cheez ka apna rang bana diya hai ”
“kudrat kya hoti hai?”
parkash ne jhukkar uski jaangh ko choom liya “kudrat ye hoti hai,” usne hansakar kaha jaangh par gudgudi hone se bachcha bhi hansne laga
“tum jhooth bolte ho,” usne kaha
“kyon?”
“tumko iska pata hi nahin hai ”
“achchha, mujhe pata nahin hai, to tu bata, ghas ka rang hara kyon hota hai?”
“ghas mitti ke andar se paida hoti hai, isliye iska rang hara hota hai ”
“achchha? tujhe iska kaise pata chal gaya?”
bachcha uchhalta hua lagam ko jhatakne laga “mere ko mummy ne bataya tha ”
parkash ke honthon par ek wikrt si muskrahat aa gai use laga jaise aaj bhi uske aur bina ke beech ek dwandw chal raha ho aur bina us dwandw mein us par bhari paDne ki cheshta kar rahi ho “teri mummy ne tujhe aur kya kya bata rakha hai?” wo bachche ko thapathpakar bola, “yah bhi bata rakha hai ki adami ke do tangen kyon hoti hain aur chaar kyon nahin?”
“han mummy kahti thi ki adami ke do tangen isliye hoti hain ki wo aadha zamin par chalta hai, aadha asman mein ”
“achchha?” parkash ke honthon par hansi aur man mein udasi ki ek rekha phail gai “mujhe iska pata nahin tha,” usne kaha
“tumko to kuch bhi pata nahin hai, papa!” bachcha bola “itne baDe hokar bhi pata nahin hai!”
ghas, barf aur akash ke rang din mein kai kai bar badal jate the badalte rangon ke sath man bhi aur se aur hone lagta tha subah uthte hi parkash bachche ke aane ki pratiksha karne lagta bar bar wo balakni par jata aur tourist hotel ki taraf ankhen kiye der der tak khaDa rahta nashta karne ya khana khane jane ke liye bhi wo wahan se nahin hatna chahta tha use Dar tha ki bachcha is beech wahan aakar laut na jaye teen din mein use sath liye wo kitni hi bar ghumne ke liye gaya tha, uske ghoDe ke pichhe pichhe dauDa tha aur uske sath ghas par lotta raha tha kabhi ek dost ki tarah wo uske sath khil khilakar hansta, kabhi ek naukar ki tarah uske har adesh ka palan karta bachcha jaan bujhkar raste ke kichaD mein apne panw lathpath kar leta aur honth bisorkar kahta, “papa, panw dho do ” wo use uthaye idhar udhar pani DhunDhata phirta bachche ko wo jis kisi kon se bhi dekhta, usi kon se uski taswir le lena chahta jab bachcha thak jata aur lautkar apni mummy ke pas jane ka hath karne lagta, to wo use tarah tarah ke pralobhan dekar apne pas rok rakhna chahta ek bar usne bachche ko apni man ke sath door se aate dekha aur use sath lane ke liye utarkar niche chala gaya tha jab wo pas pahuncha, to bachcha dauDkar uski taraf aane ki jagah man ke sath photographer ki dukan ke andar chala gaya wo kuch der saDak par ruka raha; phir ye sochkar upar chala aaya ki photographer ki dukan se nikalkar bachcha apne aap upar aa jayega magar balakni par khaDe khaDe usne dekha ki bachcha dukan se nikalkar us taraf aane ki bajay hath ke sath apni man ka hath khinchta hua use wapas tourist hotel ki taraf le chala uska man hua ki dauDkar jaye aur bachche ko apne sath le jaye, magar koi cheez uske pairon ko jakDe rahi aur wo chupchap wahin khaDa use dekhta raha sham tak wo na jane kitni bar balakni par aaya aur kitni kitni der wahan khaDa raha akhir usse nahin raha gaya, to usne niche jakar kuch cheri kharidi aur bachche ko dene ke bahane tourist hotel ki taraf chal diya abhi wo tourist hotel se kuch fasle par tha ki bachcha apni man ke sath bahar aata dikhai diya magar us par nazar paDte hi wo wapas hotel ki gallery mein bhag gaya
parkash jahan tha, wahin khaDa raha us samay pahli bar uski ankhen bina se milin use mahsus hua ki bina ka chehra pahle se kahin sanwla ho gaya hai aur uski ankhon ke niche syah dayre se ubhar aaye hain wo pahle se kafi dubli bhi lag rahi thi kuch kshan ruke rahne ke baad parkash aage chala gaya aur cheriwala lifafa bina ki taraf baDhakar khushk gale se bola, “yah main bachche ke liye laya tha ”
bina ne lifafa le liya, magar sath hi uski ankhen dusri taraf muD garin “palash!” usne kuch asthir awaz mein bachche ko pukarkar kaha “yah le, tere papa tere liye cheri laye hain ”
“main nahin leta,” bachche ne gallery se kaha aur bhagkar aur bhi door chala gaya
bina ne ek asahaye drishti bachche par Dali aur parkash ki taraf dekhkar boli, “kahta hai, main papa se nahin bolunga we subah ruke kyon nahin, chale kyon gaye the?”
parkash bina ko uttar na dekar gallery mein chala gaya aur kuch door bachche ka pichha karke usne use banhon mein utha laya “main tumse nahin bolunga, kabhi nahin bolunga,” bachcha apne ko chhuDane ki cheshta karta kahta raha
“kyon, aisi kya baat hai?” parkash use puchkarne ki cheshta karne laga “papa se is tarah naraz hote hain kya?”
“tumne meri taswiren kyon nahin dekhin?”
“kahan thi teri taswiren? mujhe to pata hi nahin tha ”
“pata kyon nahin tha? tum dukan ke bahar se hi kyon chale gaye the?”
“achchha la, pahle teri taswiren dekhen, phir ghumne chalenge ”
“yah subah aapko dikhane ke liye hi taswiren lene gaya tha ” bina ke sath khaDi ek yuwa istri ne kaha parkash ne dhyan nahin diya tha ki uske sath koi aur bhi hai
“taswiren mere pas thoDe hi hain? usi ke pas hain ”
“subah photographer ne negatiwe dikhaye the, pauzitiw wo ab is samay dega,” us nawyuwti ne phir kaha
“to chal, pahle dukan par chalkar teri taswiren le len han, dekhen to sahi kaisi taswiren hain!” kahkar parkash photographer ki dukan ki taraf chalne laga
“main mummy ko sath lekar jaunga,” bachche ne uski banhon mein machalte hue kaha
“han, han, teri mummy bhi sath aa rahi hai,” kahte hue parkash ne ek bar nirupay si drishti se pichhe ki taraf dekh liya aur jaise kisi adrshy wekti se kaha, “dekhiye, aap bhi sath aa jaiye, nahin to ye rone lagega ”
bina honth danton mein dabaye hue kuch kshan ankhen jhapakti rahin, phir wo chupchap uske sath chal di
photographer ki dukan mein dakhil hote hi bachcha parkash ki banhon se utar gaya aur photographer se bola, “mere papa ko meri taswiren dikhao ” photographer ne taswiren nikalkar mez par phaila deen, to bachcha unmen se ek ek taswir uthakar parkash ko dikhane laga, “dekho papa, ye wahin ki taswir hai na jahan se tumne kaha tha, sara kashmir nazar aata hai? aur ye taswir bhi dekho papa, jo tumne meri ghoDe par utari thi ”
“do din se bilkul saf bolne laga hai,” bina ki saheli ne dhire se kaha “kahta hai papa ne kaha hai tu baDa ho gaya hai, isliye ab tutlakar na bola kar ”
parkash kuch na kahkar taswiren dekhta raha phir jaise kuch yaad ho aane se usne das rupae ka ek not nikalkar photographer ko dete hue kaha, “ismen se aap apne paise kat lijiye!”
photographer pal bhar asmanjas mein use dekhta raha phir bola, “paise to abhi aap hi ke meri taraf nikalte hain mem sahab ne jo bees rupae parson diye the, unmen se do ek rupae abhi bachte honge kahen to abhi hisab kar doon ”
“nahin, rahne dijiye, hisab phir ho jayega,” kahkar parkash ne not wapas jeb mein rakh liya aur bachche ki ungli pakDe dukan se bahar nikal aaya kuch qadam chalne par pichhe se bina ka swar sunai diya, “yah aapke sath ghumne ja raha hai kya?”
“han!” parkash ne thoDa chaunkkar pichhe dekh liya “main abhi thoDi der mein ise wapas chhoD jaunga ”
“dekhiye, aapse ek baat kahni thi ”
“kahiye ”
bina pal bhar kuch sochti hui chup rahi phir boli, “ise aisi koi baat mat bataiyega jisse ye ”
parkash ko laga jaise koi cheez uske snayuon ko chirti chali gai uski ankhen jhuk garin aur usne dhire se kaha, “nahin, main aisi koi baat isse nahin kahunga ” use khed hua ki ek din pahle jab bachcha hath karke kah raha tha ki ‘papa’ aur ‘pitaji’ ek hi wekti ko nahin kahte—‘papa’ papa ko kahte hain aur ‘pitaji’ mummy ke papa ko—to wo kyon uski ghaltafahmi door karne ki koshish karta raha tha?
wo bachche ke sath akela club ki saDak par chalne laga, to kuch door jakar bachcha sahsa ruk gaya “ham kahan ja rahe hain, papa?” usne puchha
“pahle club chal rahe hain,” parkash ne kaha “wahan se ghoDa lekar aage ghumne jayenge ”
“nahin, main wahan us adami ke pas nahin jaunga” kahkar bachcha sahsa pichhe ki taraf chal diya
“kis adami ke pas?”
“wah jo wahan par club mein tha main uske hath se pani bhi nahin piunga ”
“kyon?”
“mujhe wo adami achchha nahin lagta ”
parkash pal bhar bachche ke chehre ko dekhta raha, phir wo bhi wapas chal diya “han, hum us adami ke pas nahin chalenge,” usne kaha “mujhe bhi wo adami achchha nahin lagta ”
bahut dinon ke baad us raat parkash ko gahri neend aari thi ek aisi wismriti si neend, jismen swapn duaswapn kuch na ho, uske liye lagbhag bhuli hui cheez ho chuki thi phir bhi jagne par use apne mein ek tazgi ka anubhaw nahin hua—anubhaw hua ek khalipan ka hi jaise koi cheez uske andar uphanti rahi ho, jo gahri neend so lene se chuk gai ho roz ki tarah uthkar wo balakni par gaya dekha akash saf hai raat ko soya tha, to warsha ho rahi thi parantu us dhule nikhre hue akash ko dekhkar abhas tak nahin hota tha ki kabhi wahan badalon ka astitw bhi tha samne ki pahaDiyan subah ki dhoop mein nahakar bahut ujli ho uthi theen
parkash kuch der wahan khaDa raha—shantirhit, aur wicharahin phir sahsa door ke chhor mein uthte hue badal ki tarah ise koi cheez apne mein umaDti hui pratit hui aur uska man ek agyat ashanka se sihar gaya to kya ?
wo balakni se hat aaya pichhli sham ko bachche ne bataya tha ki uski mummy kah rahi hai ki din saf hua, to subah we log wahan se chale jayenge raat ko jis tarah warsha ho rahi thi, usse subah tak akash ke saf hone ki koi sambhawana nahin lagti thi isliye sone ke samay uska man is or se lagbhag nishchint tha parantu raat raat mein akash ka drishypat bilkul badal gaya tha to kya sachmuch aaj hi un logon ko wahan se chale jana tha?
usne kamre ke bikhre hue saman ko dekha—do chaar ini gini chizen hi theen chaha ki unhen sahej de, magar kisi cheez ko rakhne uthane ko man nahin hua bistar ko dekha jismen roz se bahut kam salawten paDi theen laga jaise raat ki gahri neend ke liye wo bistar hi doshi ho aur gahri neend hi—baraste hue akash ke saf ho jane ke liye! usne bistar ki chadar ko hila diya ki usmen aur salawten paD jayen magar usse chadar mein jo do ek salawten theen, we bhi nikal gai wo phir se ek neend lene ke irade se bistar par let gaya
sharir mein thakan bilkul nahin thi, isliye neend nahin i kuch karwaten lene ke baad wo nahane dhone ke liye uth gaya laDkhaDate qadmon se subah dopahar ki taraf baDhne lagi, to uske man ko kuch sahara milne laga wo chahne laga ki isi tarah sham ho jaye aur phir rat—aur bachcha usse wida lene ke liye na aaye parantu isi tarah jab dopahar bhi Dhalne ko aa gai aur bachcha nahin aaya, to uske man mein dhire dhire ek aur hi ashanka sir uthane lagi wo sochne laga ki din saf hone se uski mummy kahin subah subah hi to use lekar wahan se nahin chali gai?
wo bar bar balakni par jata—ek dhaDakti hui aasha aur ashanka liye hue bar bar tourist hotel ki taraf jane wale raste par nazar Dalta aur ek anishchit si anubhuti liye hue kamre mein laut aata uski dhamniyon mein lahu ka har kan, mastishk mein chetna ka har bindu utkantha se wyakul tha usne kuch kuch khaya nahin tha, isliye bhookh bhi use pareshan kar rahi thi kuch der ke baad kamra band karke wo khana khane chala gaya mote mote kaur nigalkar usne kisi tarah do rotiyan gale se utarin aur turant wapas chal paDa kuch kshnon ke liye bhi kamre se bahar aur balakni se door rahna use ek apradh sa lag raha tha lautte hue usne socha ki use swayan tourist hotel mein jakar pata kar lena chahiye ki we log wahin hain ya chale gaye hain magar saDak ki chaDhai chaDhte hue usne door se hi dekha—bina bachche ke sath uski balakni ke niche khaDi thi wo hanpta hua tez tez chalne laga
wo pas ja pahuncha, to bhi bachche ne uski taraf nahin dekha wo apni man ka hath khinchta hua kisi baat ke liye hath kar raha tha parkash ne uski banh ko hath mein le liya, to usse banh chhuDane ka prayatn karne laga “main tumhare ghar nahin jaunga,” usne lagbhag chikhkar kaha parkash achakcha gaya aur uski mooDh sa uski taraf dekhta raha
parkash aur bina ki ankhen ek dusre ki taraf uthne ko huin, magar puri tarah nahin uth parin parkash ne bachche ka banh phir tham li aur bina se kaha, “ap bhi sath aa jaiye n!”
“ise aaj jane kya hua!” bina jhunjhlahat ke sath boli “subah se hi tang kar raha hai!”
“is waक़t ye aapke bina upar nahin jayega,” parkash ne kaha “ap sath aa kyon nahin jatin?”
“chal, main tujhe zine tak pahuncha deti hoon,” bina use uttar na dekar bachche se boli “upar se jaldi laut aana ghoDewale kitni der se taiyar khaDe hain ”
parkash ko apne andar ek nashtar sa chubhta mahsus hua magar jaldi hi usne apne ko sanbhal liya “ap log aaj hi ja rahe hain kya?” wo kisi tarah kathinai se poochh saka
“ji han,” bina dusri taraf dekhti rahi “jana to subah subah hi tha, magar iske hath ki wajah se itni der ho gai hai ab bhi ye ” aur wo baat beech mein hi chhoDkar usne bachche se phir kaha, “to chal, tujhe zine tak pahuncha doon ”
bachcha parkash ke hath se banh chhuDakar kuch door bhag gaya “main nahin jaunga,” usne kaha
“achchha aa,” bina boli “main tujhe zine ke upar tak chhoD aungi—us din ki tarah ”
“main nahin jaunga,” aur bachcha kuch qadam aur bhi door chala gaya
“ap sath aa kyon nahin jatin? ye is tarah apna hath nahin chhoDega,” parkash ne kaha bina ne aadhe kshan ke liye uski taraf dekha us drishti mein akrosh ke atirikt na jane kya kya bhaw tha parantu aadhe kshan mein hi wo bhaw dhul gaya aur bina ne apne ko sahej liya uske chehre par ek tarah ki driDhta aa gai aur usne bachche ke pas jakar use utha liya “to chal main tere sath chalti hoon,” usne kaha
bachche ka ruansa bhaw ek kshan mein hi badal gaya aur usne hanste hue apni man ke gale mein banhen Dal deen parkash ne dhire se kaha, “aiye” aur un donon ke aage aage chalne laga
upar kamre mein pahunchakar bina ne bachche ko niche utar diya aur kaha, “le ab main ja rahi hoon ”
“nahin,” bachche ne uska hath pakaD liya “tum bhi yahan baitho ”
“baithiye,” parkash ne kursi par paDi do ek chizen jaldi se utha deen aur kursi bina ki taraf baDha di bina kursi par na baithkar charpai ke kone par baith gai tabhi bachche ka dhyan na jane kis cheez ne kheench liya wo un donon ko chhoDkar balakni mein bhag gaya aur wahan se uchakkar saDak ki taraf dekhne laga
parkash kursi ki peeth par hath rakhe jaise khaDa tha, waise hi khaDa raha bina charpai ke kone mein aur bhi simatkar diwar ki taraf dekhne lagi sahsa asawadhani ke ek kshan mein unki ankhen mil garin, to bina ne jaise puri shakti sanchit karke kaha, “kal iski jeb mein kuch rupae mile the we aapne rakhe the?”
parkash sahsa aise ho gaya jaise kisi ne use pakaDkar jhakjhor diya ho “han,” parkash ne laDkhaDate hue swar mein kaha “socha tha ki unse ye koi cheez banwa lega ”
bina pal bhar chup rahi phir boli, “kya cheez banwani hogi?”
“koi bhi cheez banwa dijiyega koi achchha sa owercoat ya ”
kuch der phir chuppi rahi phir bina boli, “kaisa coat banwana hoga?”
“kaisa bhi banwa dijiyega jaisa ise achchha lage, ya jaisa aap theek samjhen ”
“koi khas tarah ka kapDa lena ho, to bata dijiye ”
“nahin, khas kapDa koi nahin kaisa bhi le lijiyega ”
“koi khas rang ?”
“nahin han nile rang ka ho, to zyada achchha rahega ”
bachcha uchhalta hua balakni se laut aaya aur bina ka hath pakaDkar bola, “ab chalo ”
“papa se tune pyar to kiya hi nahin aur aate hi chal bhi diya?” parkash ne use banhon mein le liya bachche ne uske honthon se honth milakar ek bar achchhi tarah use choom liya aur phir jhat se uski banhon se utarkar man se bola, “ab chalo ”
bina charpai se uth khaDi hui bachcha uska hath pakaDkar use bahar ki taraf khinchne laga “talo na mummy del ho lahi hai,” wo phir tutlane laga aur bina ko sath liye hue dahliz par kar gaya
“tu jakar papa ko chitthi likhega n?” parkash ne pichhe se puchha
“lithunda ” magar usne pichhe muDkar nahin dekha pichhe muDkar dekha ek bar bina ne, aur jaldi se ankhen hata leen uski ankhon ke koron mein atke ansu uske galon par bah aaye the “tune papa ko ta ta nahin kiya,” usne bachche ke kandhe par hath rakhe hue kaha ankhon ki tarah uska swar bhi bhiga hua tha
“ta ta papa!” bachche ne bina pichhe ki taraf dekhe hath hila diya aur zine se utarne laga aadhe zine se phir uski awaz sunai di, “papa ka ghal achchha nahin hai mummy, hamale wal ghal achchha hai papa te ghal mein to kuch bhi chhaman hi nahin hai !”
“tu chup karega ki nahin!” bina ne use jhiDak diya “jo munh mein aata hai bolta jata hai ”
“nahin tup kalunda, nahin kalunda tup ,” bachche ka swar phir ruansa ho gaya aur wo tez tez qadmon se niche utarne laga “papa ka ghal danda! papa ka ghal thu !”
raat hote hote akash phir ghir gaya parkash club ke barrum mein baitha ek ke baad ek biyar ki botalen khali karta raha barmain abdulla logon ke liye rum aur wihski ke peg Dhalta hua bar bar kanakhiyon se uski taraf dekh leta tha itne dinon mein pahli bar wo parkash ko is tarah pite dekh raha tha “aj lagta hai sahab ne kahin se bahut mal mara hai,” usne ek bar dhime swar mein sher muhammad se kaha “age kabhi ek botal se zyada nahin pita aur aaj chaar chaar botalen pikar bhi bus karne ka nam nahin le raha ”
sher muhammad ne sirf munh bichka diya aur apne kaam mein laga raha
parkash ki ankhen abdulla se milin, to abdulla muskra diya parkash kuch kshan is tarah use dekhta raha jaise wo adami na hokar ek dhundhla sa saya ho, aur samne ka gilas pare sarkakar uth khaDa hua counter ke pas jakar usne das das ke do not nikalkar abdulla ke samne rakh diye abdulla baqi paise ginta hua khushamdi swar mein bola, “aj sahab bahut khush nazar aata hai ”
“achchha?” parkash is tarah use dekhta raha jaise uske dekhte dekhte wo saya dhundhla hokar badalon mein gum hota ja raha ho jab wo chalne ko hua, to abdulla ne pahle salam kiya aur phir poochh liya, “kyon sahab, wo kaun tha us din aapke sath? kiska laDka tha wah?”
parkash ko laga jaise wo saya ab bilkul gum ho gaya ho aur uske samne sirf badal hi badal ghira rah gaya ho usne jaise door badal ke garbh mein dekhne ki cheshta karte hue kaha, “kaun laDka?”
“abdulla pal bhar bhauchakka sa ho raha, phir khilakhilakar hans paDa “tab to mainne sher muhammad se theek hi kaha tha ” wo bola
“kya kaha tha?”
“ki hamara sahab tabiat ka badashah hai jab chahe kisi ke laDke ko apna laDka bana le, aur jab chahe yahan gulmarg mein to ye sab chalta hai aap jaisa hamara ek aur sahab hai ”
parkash ko laga ki badal beech se phat gaya hai aur chilon ki kai panktiyan us darre mein se hokar door uDi ja rahi hain—wah chah raha hai ki darra kisi tarah bhar jaye jisse we panktiyan ankhon se ojhal ho jayen; magar darre ka muhana aur aur baDa hota ja raha hai uske gale se ek aspasht si awaz nikal paDi aur wo abdulla ki taraf se ankhen hatakar chupchap wahan se chal diya
“bus ek bazi aur !” apni awaz ki goonj parkash ko swayan aswabhawik si lagi uske sathiyon ne halka sa wirodh kiya, magar patte ek bar phir bantane lage
card room tab tak lagbhag khali ho chuka tha kuch der pahle tak wahan kafi chahl pahal thi—nazuk hathon se patton ki nazuk chalen chali ja rahi theen aur shishe ke nazuk gilas rakhe uthaye ja rahe the magar ab aas pas chaar chaar khali kursiyon se ghiri chaukor mezen bahut akeli aur udas lag rahi theen polish ki chamak ke bawjud unmen ek wiranagi aa gai thi samne ki diwar mein bukhari ki aag bhi kab ki thanDi paD chuki thi jali ke us taraf kuch bujhe adhabujhe angare hi rah gaye the—sardi se thithurkar syah paDte aur rakh mein gum hote hue
usne patte utha liye har bar ki tarah is bar bhi sab bemel patte the—aisi bazi ki adami phenkkar alag ho jaye magar usi ke anurodh se patte bante the, isliye wo unhen phenk nahin sakta tha usne niche se patta uthaya, to wo aur bhi bemel tha hath se koi bhi patta chalkar wo un patton ka mel baithane ka prayatn karne laga
bahar musladhar warsha ho rahi thi—pichhli raat jaisi warsha hui thi, usse bhi tez khiDki ke shishon se takrati bunden bar bar ek chunauti liye hue atin theen, parantu sahsa bebas hokar niche ko Dhulak jatin theen un bahti hui dharon ko dekhkar lagta tha jaise kai ek chehre khiDki ke sath satkar andar jhank rahe hon aur lagatar ro rahe hon kisi kshan hawa se kiwaD hil jate the, to we chehre jaise hichkiyan lene lagte the hichkiyan band hone par ghusse se ghurne lagte un chehron ke pichhe andhera chhatpatata hua dam toD raha tha
“Dikleyar!” parkash chaunk gaya uske hath ke patte abhi usi tarah the—is bar bhi use phul hand hi dena tha patte phenkkar usne pichhe tek laga li aur phir khiDki se sate chehron ko dekhne laga
“tum bahut hi khushqismat ho parkash, sachmuch hammen sabse khushqismat adami tumhin ho !” parkash ki ankhen khiDki se hat arin patte uthakar rakh diye gaye the aur mez par haar jeet ka hisab kiya ja raha tha hisab karne wala adami hi usse kah raha tha, “kahte hain na, jo patton mein badaqimat ho, wo zindagi mein khushqismat hota hai! ab dekh lo sabse zyada tumhin hare ho, isliye manna paDega ki sabse khushqismat adami tumhin ho ”
parkash ne apne nam ke aage likhe gaye joD ko dekha pal bhar ke liye uski dhaDkan baDh gai ki jeb mein utne paise hain bhi ya nahin jeb mein hath Dalkar usne puri jeb khali kar li lagbhag hari hui raqam ke barabar hi paise jeb mein the raqam ada kar dene ke baad do ek chhote sikke hi uske pas mein bache rahe—aur unke sath wo muchDa hua antardeshiy patr jo sham ki Dak se aaya tha aur jise jeb mein rakhkar wo club chala aaya tha patr nirmala ka tha jo usne ab tak kholkar paDha nahin tha jeb mein paDe paDe wo patr kafi muchaD gaya tha nirmala ke akshron ki banawat par nazar paDte hi uske kai kai unmadi chehre uske samne ubharne lage—uske hath ka ek ek akshar jaise ek ek chehra ho! ghar se chalne ke din bhi wo uske kitne kitne chehre dekhkar aaya tha! ek chehra tha jo hans raha tha, ek tha jo ro raha tha; ek baal khole zor zor se chilla raha tha aur dhamkiyan de raha tha aur ek ek bhukhi ankhon se uske sharir ko nigalna chah raha tha! usne roz ke istemal ka kuch saman sath lana chaha tha, to ek chehra uske sath mallayuddh karne par utaru ho gaya tha
“kyon?” nirmala hans di thi “marad aur aurat raat din gutthamguttha nahin hote kya?”
wo bina ek qamiz tak sath liye ghar se nikal aaya tha baniyan, tauliya,kangha, qamiz sab kuch usne aate hue raste mein kharida tha—yah sochne ke liye wo nahin ruka tha ki uske pas jo chaar panch sau rupae ki punji hai, wo is tarah kitne din chalegi! bichhane oDhne ka sara saman bhi use wahan pahunchakar hi kiraye par lena paDa tha !
aur wahan aane ke chauthe panchawen din se hi nirmala ke patr aane arambh ho gaye the—wah uske kisi mitr ke yahan jakar uska pata laga aari thi un patron mein bhi nirmala ke we sab chehre jyon ke tyon widyaman rahte the wo sakht bimar hai aur aspatal ja rahi hai uske bhai police mein khabar karne ja rahe hain ki unka bahnoi lapata ho gaya hai wo raat din bechain rahti hai aur diwaron se puchhti rahti hai ki “uska chand kahan hai” wo jogin ka wesh dharan karke jangalon mein ja rahi hai do din ke andar andar patr ka uttar na aaya, to uske bhai use hawai jahaz mein wahan bhej denge uske chhote bhai ne use bahut pita hai ki wo apne ‘khasam’ ke pas kyon nahin jati !
antardeshiy patr parkash ki ungliyon mein masal gaya tha use phir se jeb mein Dalkar wo uth khaDa hua bahar DyoDhi mein kuch log jama the—ki barish ruke, to wahan se jayen unke beech se hokar wo bahar nikal aaya
“ap is barish mein ja rahe hain?” kisi ne usse puchha usne chupchap sir hila diya aur kachche raste par chalne laga samne kewal ‘niDoz hotel’ ki battiyan jagmaga rahi thin—baqi sab taraf, dayen bayen aur upar niche andhera hi andhera tha club ke ahate se nikalkar wo saDak par pahuncha, to pani aur bhi tez ho gaya
uska sir pura bheeg gaya tha aur pani ki dharen gale se hokar kapDon ke andar ja rahi theen hath pair sunn ho rahe the, magar ankhon mein use ek jalan si mahsus ho rahi thi kichaD se lathpath pair raste mein awaz karte the to sharir mein koi cheez jhanjhana uthti thi sahsa ek nai siharan uske sharir mein bhar gai use laga ki wo saDak par akela nahin hai—koi aur bhi apne nannhe nannhe panw patakta uske sath chal raha hai raste ki nali par bana lakDi ka pul par karte hue usne ghumkar us taraf dekha uske sath sath chal raha tha ek bhiga kutta—kan jhatakta hua, khamosh aur antarmukh!
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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