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एक और ज़िंदगी

ek aur zindagi

मोहन राकेश

मोहन राकेश

एक और ज़िंदगी

मोहन राकेश

और अधिकमोहन राकेश

    ...और उस एक क्षण के लिए प्रकाश के हृदय की धड़कन जैसे रुकी रही। कितना विचित्र था वह क्षण—आकाश से टूटकर गिरे हुए नक्षत्र जैसा! कोहरे के वक्ष में एक लकीर-सी खींचकर वह क्षण सहसा व्यतीत हो गया।

    कोहरे में से गुज़रकर जाती हुई आकृतियों को उसने एक बार फिर ध्यान से देखा। क्या यह संभव था कि व्यक्ति की आँखें इस हद तक उसे धोखा दें? तो जो कुछ वह देख रहा था, वह यथार्थ ही नहीं था?

    कुछ ही क्षण पहले जब वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया था, तो क्या उसने कल्पना में भी यह सोचा था कि आकाश के ओर-छोर तक फैले हुए कोहरे में, गहरे पानी की निचली सतह पर तैरती हुई मछलियों जैसी जो आकृतियाँ नज़र रही हैं, उनमें कहीं वे दो आकृतियाँ भी होंगी? मंदिर वाली सड़क से आते हुए दो कुहरीले रंगों पर जब उसकी नज़र पड़ी थी, तब भी क्या उसके मन में कहीं ऐसा अनुमान जागा था? फिर भी जाने क्यों उसे लग रहा था जैसे बहुत समय से, बल्कि कई दिनों से, वह उनके वहाँ से गुज़रने की प्रतीक्षा कर रहा हो, जैसे कि उन्हें देखने के लिए ही वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया हो और उन्हीं को ढूँढ़ती हुई उसकी आँखें मंदिर वाली सड़क की तरफ़ मुड़ी हों।—यहाँ तक कि उस धानी आँचल और नीली नेकर के रंग भी जैसे उसके पहचाने हुए हों और कोहरे के विस्तार में वह उन दो रंगों को ही खोज रहा हो। वैसे उन आकृतियों के बालकनी के नीचे पहुँचने तक उसने उन्हें पहचाना नहीं था। परंतु एक क्षण में सहसा वे आकृतियाँ इस तरह उसके सामने स्पष्ट हो उठी थीं जैसे जड़ता के क्षण के अवचेतन की गहराई में डूबा हुआ कोई विचार एकाएक चेतना की सतह पर कौंध गया हो।

    नीली नेकरवाली आकृति घूमकर पीछे की तरफ़ देख रही थी। क्या उसे भी कोहरे में किसी की खोज थी? और किसकी? प्रकाश का मन हुआ कि उसे आवाज़ दे, मगर उसके गले से शब्द नहीं निकले। कोहरे का समुद्र अपनी गंभीरता में ख़ामोश था, मगर उसकी अपनी ख़ामोशी एक ऐसे तूफ़ान की तरह थी जो हवा मिलने से अपने अंदर ही घुमड़कर रह गया हो। नहीं तो क्या वह इतना ही असमर्थ था कि उसके गले से एक शब्द भी निकल सके?

    वह बालकनी से हटकर कमरे में गया। वहाँ अपने अस्त-व्यस्त सामान पर नज़र पड़ी, तो शरीर में निराशा की एक सिहरन दौड़ गई। क्या यही वह ज़िंदगी थी जिसके लिए उसने...? परंतु उसे लगा कि उसके पास कुछ भी सोचने के लिए समय नहीं है। उसने जल्दी-जल्दी कुछ चीज़ों को उठाया और रख दिया जैसे कि कोई चीज़ ढूँढ़ रहा हो जो उसे मिल रही हो। अचानक खूँटी पर लटकती पतलून पर नज़र पड़ी, तो उसने पाजामा उतारकर जल्दी से उसे पहन लिया। फिर पल-भर खोया-सा खड़ा रहा। उसे समझ नहीं रहा था कि वह क्या चाहता है। क्या वह उन दोनों के पीछे जाना चाहता था? या बालकनी पर खड़ा होकर पहले की तरह उन्हें देखते रहना चाहता था?

    अचानक उसका हाथ मेज़ पर रखे ताले पर पड़ गया, तो उसने उसे उठा लिया। जल्दी से दरवाज़ा बंद करके वह ज़ीने से उतरने लगा। ज़ीने पर आकर ध्यान आया कि जूता नहीं पहना। वह पल-भर ठिठककर खड़ा रहा, मगर लौटकर नहीं गया। नीचे सड़क पर पहुँचते ही पाँव कीचड़ में लथपथ हो गए। दूर देखा—वे दोनों आकृतियाँ घोड़ों के अड्डे के पास पहुँच चुकी थीं। वह जल्दी-जल्दी चलने लगा। पास से गुज़रते एक घोड़ेवाले से उसने कहा कि आगे जाकर नीली नेकरवाले बच्चे को रोक ले—उससे कहे कि कोई उससे मिलने के लिए रहा है। घोड़ेवाला घोड़ा दौड़ाता हुआ गया, मगर उन दोनों के पास रुककर उनसे आगे निकल गया। वहाँ जाकर जाने किसे उसने उसका संदेश दे दिया।

    जल्दी-जल्दी चलते हुए भी प्रकाश को लग रहा था जैसे वह बहुत आहिस्ता चल रहा हो, जैसे उसके घुटने जकड़ गए हों और रास्ता बहुत-बहुत लंबा हो गया हो। उसका मन इस आशंका से बेचैन था कि उसके पास पहुँचने तक वे लोग घोड़ों पर सवार होकर वहाँ से चल दें, और जिस दूरी को वह नापना चाहता था, वह ज्यों की त्यों बनी रहे। मगर ज्यों-ज्यों फ़ासला कम हो रहा था, उसका कम होना भी उसे अखर रहा था। क्या वह जान-बूझकर अपने को एक ऐसी स्थिति में नहीं डाल रहा था जिससे उसे अपने को बचाए रखना चाहिए था?

    उन लोगों ने घोड़े नहीं लिए थे। वह जब उनसे तीन-चार गज़ दूर रह गया, तो सहसा उसके पाँव रुक गए। तो क्या सचमुच अब उसे उस स्थिति का सामना करना ही था?

    “पाशी!” इससे पहले कि वह निश्चय कर पाता, अनायास उसके मुँह से निकल गया।

    बच्चे की बड़ी-बड़ी आँखें उसकी तरफ़ घूम गर्इं—साथ ही उसकी माँ की आँखें भी। कोहरे में अचानक कई-कई बिजलियाँ कौंध गर्इं। प्रकाश दो-एक क़दम और आगे बढ़ गया। बच्चा हैरान आँखों से उसकी तरफ़ देखता हुआ अपनी माँ के साथ सट गया।

    “पलाश, इधर मेरे पास,” प्रकाश ने हाथ से चुटकी बजाते हुए कहा, जैसे कि यह हर रोज़ की साधारण घटना हो और बच्चा अभी कुछ मिनट पहले ही उसके पास से अपनी माँ के पास गया हो।

    बच्चे ने माँ की तरफ़ देखा। वह अपनी आँखें हटाकर दूसरी तरफ़ देख रही थी। बच्चा अब और भी उसके साथ सट गया और उसकी आँखें हैरानी के साथ-साथ एक शरारत से चमक उठीं।

    प्रकाश को खड़े-खड़े उलझन हो रही थी। लग रहा था कि ख़ुद चलकर उस दूरी को नापने के सिवा अब कोई चारा नहीं है। वह लंबे-लंबे डग भरकर बच्चे के पास पहुँचा और उसे उसने अपनी बाँहों में उठा लिया। बच्चे ने एक बार किलककर उसके हाथों से छूटने की चेष्टा की, परंतु दूसरे ही क्षण अपनी छोटी-छोटी बाँहें उसके गले में डालकर वह उससे लिपट गया। प्रकाश उसे लिए हुए थोड़ा एक तरफ़ को हट आया।

    “तूने पापा को पहचाना नहीं था क्या?”

    “पैताना ता,” बच्चा बाँहें उसके गले में डालकर झूलने लगा।

    “तो तू झट से पापा के पास आया क्यों नहीं?”

    “नहीं आया,” कहकर बच्चे ने उसे चूम लिया।

    “तू आज ही यहाँ आया है?”

    “नहीं, तल आया ता।”

    “अभी रहेगा या आज ही लौट जाएगा?”

    “अबी तीन-चाल दिन लहूंदा।”

    “तो पापा के पास मिलने आएगा न?”

    “आऊँदा।”

    प्रकाश ने एक बार उसे अच्छी तरह अपने साथ सटाकर चूम लिया, तो बच्चा किलककर उसके माथे, आँखों और गालों को जगह-जगह चूमने लगा।

    “कैसा बच्चा है!” पास खड़े एक कश्मीरी मज़दूर ने सिर हिलाते हुए कहा।

    “तुम तहाँ लहते हो?” बच्चा बाँहें उसी तरह उसकी गर्दन में डाले जैसे उसे अच्छी तरह देखने के लिए थोड़ा पीछे को हट गया।

    “वहाँ!” प्रकाश ने दूर अपनी बालकनी की तरफ़ इशारा किया, “तू कब तक वहाँ आएगा?”

    “अबी ऊपल जातल दूद पिऊँदा, उछके बाद तुमाले पाछ आऊँदा।” बच्चे ने अब अपनी माँ की तरफ़ देखा और उसकी बाँहों से निकलने के लिए मचलने लगा।

    “मैं वहाँ बालकनी में कुर्सी डालकर बैठा रहूँगा और तेरा इंतिज़ार करूँगा,” बच्चा बाँहों से उतरकर अपनी माँ की तरफ़ भाग गया, तो प्रकाश ने पीछे से कहा। क्षण-भर के लिए उसकी आँखें बच्चे की माँ से मिल गर्इं, परंतु अगले ही क्षण दोनों दूसरी-दूसरी तरफ़ देखने लगे। बच्चा जाकर माँ की टाँगों से लिपट गया। वह कोहरे के पार देवदारों की धुंधली रेखाओं को देखती हुई बोली, “तुझे दूध पीकर आज खिलनमर्ग नहीं चलना है क्या?”

    “नहीं,” बच्चे ने उसकी टाँगों के सहारे उछलते हुए सपाट जवाब दिया, “मैं दूद पीतल पापा ते पाछ जाऊँदा।”

    तीन दिन, तीन रातों से आकाश घिरा था। कोहरा धीरे-धीरे इतना घना हो गया था कि बालकनी से आगे कोई रूप, कोई रंग नज़र नहीं आता था। आकाश की पारदर्शिता पर जैसे गाढ़ा सफ़ेदा पोत दिया गया था। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था, कोहरा और घना होता जा रहा था। कुर्सी पर बैठे हुए प्रकाश को किसी-किसी क्षण महसूस होने लगता जैसे वह बालकनी पहाड़ियों से घिरे खुले विस्तार में होकर अंतरिक्ष के किसी रहस्यमय प्रदेश में बनी हो—नीचे और ऊपर केवल आकाश ही आकाश हो, जिसके अतल में बालकनी की सत्ता एक अपने-आप में पूर्ण और स्वतंत्र एक लोक की तरह हो...।

    उसकी आँखें इस तरह एकटक सामने देख रही थीं—जैसे आकाश और कोहरे में उसे कोई अर्थ ढूँढ़ना हो—अपनी बालकनी के वहाँ होने का रहस्य जानना हो।

    हवा से कोहरे के बादल कई-कई रूप लेकर इधर-उधर भटक रहे थे—अपनी गहराई में फैलते और सिमटते हुए वे अपनी थाह नहीं पा रहे थे। बीच में कहीं-कहीं देवदारों की फुनगियाँ एक हरी लकीर की तरह बाहर निकली हुई थीं—कोहरे के आकाश पर लिखी गई एक अस्त-व्यस्त लिपि जैसी। देखते-देखते वह लकीर भी गुम हो जाती थी—कोहरे का हाय उसे रहने देना नहीं चाहता था। लकीर को मिटते देखकर स्नायुओं में एक तनाव-सा रहा था—जैसे किसी भी तरह वह उस लकीर को मिटने से बचा लेना चाहता हो। परंतु जब लकीर एक बार मिटकर बाहर नहीं निकली, तो उसने सिर पीछे को डाल लिया और स्वयं भी कोहरे में कोहरा होकर पड़ रहा...।

    अतीत के कोहरे में कहीं वह दिन भी था जो चार बरस बीत जाने पर भी आज तक बीत नहीं सका था...।

    बच्चे की पहली वर्षगाँठ थी उस दिन—वही उनके जीवन की भी सबसे बड़ी गाँठ बन गई थी...।

    विवाह के कुछ महीने बाद से ही पति-पत्नी अलग-अलग रहने लगे थे। विवाह के साथ जो सूत्र जुड़ना चाहिए था, वह जुड़ नहीं सका था। दोनों अलग-अलग जगह काम करते थे और अपना-अपना स्वतंत्र ताना-बाना बुनकर जी रहे थे। लोकाचार के नाते साल-छ: महीने में कभी एक बार मिल लिया करते थे। वह लोकाचार ही इस बच्चे को दुनिया में ले आया था...।

    बीना समझती थी कि इस तरह जान-बूझकर उसे फँसा दिया गया है। प्रकाश सोचता था कि अनजाने में ही उससे एक अपराध हो गया है। परंतु जन्म के पाँचवें या छठे रोज़ बच्चे की हालत सहसा बहुत ख़राब हो गई, तो वह अपने कमरे में अकेला बैठा हवा में बच्चे के आकार को देखता हुआ कहता रहा था, “देख तुझे जीना है। तू इस तरह नहीं जा सकता। सुन रहा है? तुझे जीना है। हर हालत में जीना है। मैं तुझे जाने नहीं दूँगा। समझा?”

    साल-भर से बच्चा माँ के ही पास रह रहा था। बीच में बच्चे की दादी छ:-सात महीने उसके पास रह आर्इ थी।

    पहली वर्षगाँठ पर बीना ने लिखा था कि वह बच्चे को लेकर अपने पिता के यहाँ लखनऊ जा रही है। वहीं पर बच्चे के जन्मदिन की पार्टी करेगी।

    प्रकाश ने उसे तार दिया था कि वह भी उस दिन लखनऊ आएगा। अपने एक मित्र के यहाँ हज़रतगंज में ठहरेगा। अच्छा होगा कि पार्टी वहीं पर की जाए। लखनऊ के कुछ मित्रों को भी उसने सूचित कर दिया था कि बच्चे की वर्षगाँठ के अवसर पर वे उसके साथ चाय पीने के लिए आएँ।

    उसने सोचा था कि बीना उसे स्टेशन पर मिल जाएगी, परंतु वह नहीं मिली। हज़रतगंज पहुँचकर नहा-धो चुकने के बाद उसने बीना के पास संदेश भेजा कि वह वहाँ पहुँच गया है, कुछ लोग साढ़े चार-पाँच बजे चाय पर आएँगे, इसलिए वह उस समय तक बच्चे को लेकर अवश्य वहाँ पहुँच जाए। परंतु पाँच बजे, छ: बजे, सात बज गए, बीना बच्चे को लेकर नहीं आर्इ। दूसरी बार संदेश भेजने पर पता चला कि वहाँ उन लोगों की पार्टी चल रही है। बीना ने कहला भेजा कि बच्चा आठ बजे तक ख़ाली नहीं होगा, इसलिए वह उस समय उसे लेकर नहीं सकती। प्रकाश ने अपने मित्रों को चाय पिलाकर विदा कर दिया। बच्चे के लिए ख़रीदे हुए उपहार बीना के पिता के यहाँ भेज दिए। साथ में यह संदेश भी भेजा कि बच्चा जब भी ख़ाली हो, उसे थोड़ी देर के लिए उसके पास भेज दिया जाए।

    परंतु आठ के बाद नौ बजे, दस बजे, बारह बज गए, पर बीना तो स्वयं बच्चे को लेकर आर्इ, और ही उसने उसे किसी और के साथ भेजा।

    प्रकाश रात-भर सोया नहीं। उसके दिमाग़ को जैसे कोई छैनी से छीलता रहा।

    सुबह उसने फिर बीना के पास संदेश भेजा। इस बार बीना बच्चे को लेकर गई। उसने बताया कि रात को पार्टी देर तक चलती रही, इसलिए उसका आना संभव नहीं था—अगर वास्तव में उसे बच्चे से प्यार था, तो उसका कर्तव्य था कि वह अपने उपहार लेकर ख़ुद उनके यहाँ पार्टी में जाता...।

    उस दिन सुबह से आरंभ हुई बातचीत आधी रात तक चलती रही। प्रकाश बार-बार कहता रहा, “बीना, मैं इस बच्चे का पिता हूँ। पिता होने के नाते मुझे यह अधिकार तो है ही कि मैं बच्चे को अपने पास बुला सकूँ।”

    परंतु बीना का उत्तर था, “आपके पास पिता का दिल होता, तो क्या आप पार्टी में आते? आप मुझसे पूछें, तो मैं तो कहूँगी कि यह एक आकस्मिक घटना ही है कि आप इसके पिता हैं।”

    “बीना!” वह फटी-फटी आँखों से उसके चेहरे की तरफ़ देखता रह गया। “तुम बताओ, तुम चाहती क्या हो!”

    “कुछ भी नहीं। आपसे मैं क्या चाहूँगी?”

    “तुमने सोचा है कि इस बच्चे के भविष्य का क्या होगा?”

    “जब हम अपने ही भविष्य के बारे में नहीं सोच सकते, तो इस भविष्य के बारे में क्या सोचेंगे?”

    “क्या तुम यह पसंद करोगी कि बच्चे को मुझे सौंप दो और स्वयं स्वतंत्र हो जाओ?”

    “बच्चे को आपको सौंप दूँ?” बीना के स्वर में वितृष्णा गहरी हो गई। “इतनी मूर्ख मैं नहीं हूँ।”

    “तो क्या तुम यही चाहती हो कि इसका निर्णय करने के लिए अदालत में जाया जाए?”

    “आप अदालत में जाना चाहें, तो मुझे उसमें भी एतिराज़ नहीं है। ज़रूरत पड़ने पर मैं सुप्रीम कोर्ट तक लड़ूँगी। आपका बच्चे पर कोई अधिकार नहीं है।”

    “बच्चे को पिता से ज़्यादा माँ की ज़रूरत होती है,” कई दिन...कई सप्ताह वह मन ही मन संघर्ष करता रहा। “जहाँ उसे दोनों मिल सकते हो, वहाँ उसे माँ तो मिलनी चाहिए ही। अच्छा है तुम बच्चे की बात भूल जाओ और नए सिरे से अपनी ज़िंदगी बनाने की कोशिश करो।”

    “मगर...।”

    “फ़िज़ूल की हुज्जत में कुछ नहीं रखा है। बच्चे-अच्चे तो होते ही रहते हैं। तुम संबंध-विच्छेद करके फिर से ब्याह कर लो, तो घर में और बच्चे हो जाएँगे। समझ लेना कि इस एक बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो गई थी...।”

    सोचने-सोचने में दिन, सप्ताह और महीने निकलते गए। क्या सचमुच इंसान पहले की ज़िंदगी को मिटाकर नए सिरे से ज़िंदगी आरंभ कर सकता है? क्या सचमुच ज़िंदगी के कुछ वर्षों को वह एक दु:स्वप्न की तरह भूलने का प्रयत्न किया जा सकता है? बहुत से इंसान हैं जिनकी ज़िंदगी कहीं कहीं, किसी किसी दोराहे से ग़लत दिशा की ओर भटक जाती है। क्या यही उचित नहीं कि इंसान उस रास्ते को बदलकर अपनी ग़लती सुधार ले? आख़िर इंसान को जीने के लिए एक ही जीवन तो मिलता है—वही प्रयोग के लिए और जीने के लिए। तो क्यों इंसान एक प्रयोग की असफलता को जीवन की असफलता मान ले?

    कोर्ट में काग़ज़ पर हस्ताक्षर करते समय छत के पंखे से टकराकर एक चिड़िया का बच्चा नीचे गिरा।

    “हाय, चिड़िया मर गई,” किसी ने कहा।

    “मरी नहीं, अभी ज़िंदा है,” कोई और बोला।

    “चिड़िया नहीं है, चिड़िया का बच्चा है,” किसी तीसरे ने कहा।

    “नहीं चिड़िया है।”

    “नहीं, चिड़िया का बच्चा है।”

    “इसे उठाकर बाहर हवा में छोड़ दो।”

    “नहीं, यहीं पड़ा रहने दो। बाहर इसे कोई बिल्ली खा जाएगी।”

    “यहाँ यह आया किस तरह?”

    “जाने किस तरह? रौशनदान के रास्ते गया होगा।”

    “बेचारा कैसे तड़प रहा है!”

    “शुक्र है, पंखे ने इसे काट ही नहीं दिया।”

    “काट दिया होता, तो बल्कि अच्छा था। अब इस तरह बेचारा क्या जिएगा!”

    तब तक पति-पत्नी दोनों ने काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दिए थे। बच्चा उस समय कोर्ट के अहाते में कौवों के पीछे भागता हुआ किलकारियाँ मार रहा था। वहाँ धूल उड़ रही थी और चारों ओर मटियाली-सी धूप फैली थी...।

    फिर दिन, सप्ताह और महीने...!

    अढ़ाई साल गुज़र जाने पर भी प्रकाश फिर से ज़िंदगी आरंभ करने का निश्चय नहीं कर पाया था। उस अरसे में बच्चा तीन बार उससे मिलने के लिए आया था। वह नौकर के साथ आता था और दिन-भर उसके पास रहकर अँधेरा होने पर लौट जाता। पहली बार वह उससे शरमाता रहा था, मगर बाद में उससे हिल-मिल गया था। वह बच्चे को लेकर घूमने चला जाता, उसे आइसक्रीम खिलाता, खिलौने ले देता था। बच्चा जाने के समय हठ करता, “अबी नहीं जाऊँदा। दूद पीतल जाऊँदा। थाना थातल जाऊँगा।”

    जब बच्चा इस तरह की बात कहता था, तो उसके अंदर सहसा कोई चीज़ सुलग उठती थी। उसका मन होता था कि, नौकर को झिड़ककर वापस भेज दे और बच्चे को हमेशा-हमेशा के लिए अपने पास रख ले। जब नौकर बच्चे से कहता था, “बाबा, चलो, अब देर हो रही है,” तो प्रकाश का शरीर एक हताश आवेश से काँपने लगता और बहुत कठिनता से वह अपने को सँभाल पाता। आख़िरी बार बच्चा रात के नौ बजे तक रुका रह गया तो एक अपरिचित व्यक्ति उसे लेने के लिए चला आया।

    बच्चा उस समय उसकी गोदी में बैठा खाना खा रहा था।

    “देखिए, अब बच्चे को भेज दीजिए, इसे बहुत देर हो गई है,” अजनबी ने आकर कहा।

    “आप देख रहे हैं, बच्चा खाना खा रहा है,” उसका मन हुआ कि मुक्का मारकर उस आदमी के दाँत तोड़ दे।

    “हाँ-हाँ, आप खाना खिला दीजिए,” अजनबी ने उदारता के साथ कहा, “मैं नीचे इंतिज़ार कर रहा हूँ।”

    ग़ुस्से के मारे प्रकाश के हाथ इस तरह काँपने लगे कि उसके लिए बच्चे को खाना खिलाना असंभव हो गया।

    जब नौकर बच्चे को लेकर चला गया, तो उसने देखा कि बच्चे की टोपी वहीं पर रह गई है। वह टोपी लिए हुए भागकर नीचे पहुँचा, तो देखा कि नौकर और अजनबी के अलावा बच्चे के साथ कोई और भी है—उसकी माँ। वे लोग चालीस-पचास गज़ आगे गए थे। उसने नौकर को आवाज़ दी, तो चारों ने मुड़कर एकसाथ उसकी तरफ़ देखा। नौकर टोपी लेने के लिए लौट आया और शेष तीनों आगे चलते रहे।

    उस रात वह एक दोस्त की छाती पर सिर रखकर देर तक रोता रहा।

    नए सिरे से फिर वही सवाल उसके मन में उठने लगा। क्यों वह अपने को इस अतीत से पूरी तरह मुक्त नहीं कर लेता? यदि बसा हुआ घर-बार हो, तो अपने आसपास बच्चों की चहल-पहल में वह इस दुःख को भूल नहीं जाएगा? उसने अपने को बच्चे से इसलिए तो अलग किया था कि अपने जीवन को एक नया मोड़ दे सके—फिर इस तरह अकेली ज़िंदगी की यंत्रणा किसलिए सह रहा था?

    परंतु नए सिरे से जीवन आरंभ करने की कल्पना में सदा एक आशंका मिली रहती थी। वह उस आशंका से जितना ही लड़ता था, वह उतनी ही और प्रबल हो उठती थी। जब एक प्रयोग सफल नहीं हुआ, तो कैसे कहा जा सकता था कि दूसरा प्रयोग सफल होगा ही?

    वह पहले की भूल दोहराना नहीं चाहता था, इसलिए उसकी आशंका ने उसे बहुत सतर्क कर दिया था। वह जिस किसी लड़की को अपनी भावी पत्नी के रूप में देखता, उसी के चेहरे में उसे अपने पहले जीवन की छाया नज़र आने लगती। हालाँकि वह स्पष्ट रूप से इस विषय में कुछ भी सोच नहीं पाता था, फिर भी उसे लगता था कि वह एक ऐसी ही लड़की के साथ जीवन बिता सकता है जो हर दृष्टि से बीना के विपरीत हो। बीना में बहुत अहं था, वह उसके बराबर पढ़ी-लिखी थी, उससे ज़्यादा कमाती थी। उसे अपनी स्वतंत्रता का बहुत मान था और वह समझती थी कि किसी भी परिस्थिति का वह अकेली रहकर मुक़ाबिला कर सकती है। शारीरिक दृष्टि से भी बीना काफ़ी लंबी-ऊँची थी। और उस पर भारी पड़ती थी। बातचीत भी वह खुले मरदाना ढंग से करती थी। वह अब एक ऐसी लड़की चाहता था जो हर तरह से उस पर निर्भर करे, जिसकी कमज़ोरियाँ एक पुरुष के आश्रय की अपेक्षा रखती हों।

    और कुछ ऐसी ही लड़की थी निर्मला—उसके एक घनिष्ठ मित्र कृष्ण जुनेजा की बहन। उसने दो-एक बार उस लड़की को देखा था। बहुत सीधी-सादी मासूम-सी लड़की थी। बात करते हुए उसकी आँखें नीचे को झुक जाती थीं। साधारण पढ़ी-लिखी थी और साधारण ढंग से ही रहती थी। उसे देखकर अनायास मन में सहानभूति उमड़ आती थी। छब्बीस-सत्ताईस बरस की होकर भी देखने में वह अठारह-उन्नीस से ज़्यादा की नहीं लगती थी। वह जुनेजा के घर की कठिनाइयों को जानता था। उन कठिनाइयों के कारण ही शायद इतनी उम्र तक उस लड़की का विवाह नहीं हो सका था। उसके साथ निर्मला के विवाह की बात चलाई गई, तो उसके मन के किसी कोने में सोया हुआ पुलक सहसा जाग उठा। उसे सचमुच लगा जैसे उसका खोया हुआ जीवन उसे वापस मिल रहा हो; जैसे अंदर की एक टूटी हुई कल्पना फिर से आकार ग्रहण कर रही हो। हवा और आकाश में उसे एक और ही आकर्षण लगने लगा, रास्ते में बिकती हुई फूलों की बेनियाँ पहले से कहीं सुगंधित प्रतीत होने लगीं। निर्मला ब्याहकर उसके घर में आर्इ भी नहीं थी कि वह शाम को लौटते हुए फूलों की बेनियाँ ख़रीदकर घर लाने लगा। अपना पहले का घर उसे छोटा लगने लगा, इसीलिए उसने एक बड़ा घर ले लिया और उसे सजाने के लिए नया-नया सामान ख़रीद लाया। पास में ज़्यादा पैसे नहीं थे, इसलिए क़र्ज़ ले-लेकर उसने निर्मला के लिए जाने कितना कुछ बनवा डाला...।

    निर्मला हँसती हुई उसके घर में आर्इ—और हँसती ही रही...

    पहले कुछ दिन तो वह समझ नहीं सका कि वह हँसी क्या है। निर्मला जब कभी बिना बात के हँसना शुरू कर देती और देर तक हँसती रहती, वह अवाक् होकर उसे देखता रहता। तीन-तीन चार-चार साल के बच्चे भी उस तरह आकस्मिक ढंग से नहीं हँस सकते जैसे वह हँसती थी। कोई व्यक्ति उसके सामने गिर जाता या कोई चीज़ किसी के हाथ से गिरकर टूट जाती तो उसके लिए अपनी हँसी रोकना असंभव हो जाता। लगातार दस-दस मिनट तक वह हँसी से बेहाल हो रहती। वह उसे समझाने की चेष्टा करता कि ऐसी बातों पर नहीं हँसा जाता, तो निर्मला को और भी हँसी छूटती। वह उसे डाँट देता, तो वह उसी तरह आकस्मिक ढंग से बिस्तर पर लेटकर हाथ-पैर पटकती हुई रोने लगती, चिल्ला-चिल्लाकर अपनी मरी हुई माँ को पुकारने लगती, और अंत में बाल बिखेरकर और देवी का रूप धारण करके घर-भर को शाप देने लगती। कभी अपने कपड़े फाड़कर इधर-उधर छिपा देती और अपने गहने जूतों के अंदर सँभाल देती। कभी अपनी बाँह पर फोड़े की कल्पना करके दो-दो दिन उसके दर्द से कराहती रहती और फिर सहसा स्वस्थ होकर कपड़े धोने लगती और सुबह से शाम तक कपड़े धोती रहती।

    जब मन शांत होता, तो मुँह गोल किए वह अँगूठा चूसने लगती।

    उठते-बैठते, खाते-पीते, प्रकाश के सामने निर्मला के तरह-तरह के रूप आते रहते और उसका मन एक अंधे कुएँ में गिरने लगता। रास्ते पर चलते हुए उसके चारों तरफ़ एक शून्य-सा घिर आता और वह भौंचक्का-सा सड़क के किनारे खड़ा होकर सोचने लगता कि वह घर से क्यों आया है और कहाँ जा रहा है। उसका किसी से मिलने या कहीं भी आने-जाने को मन होता। उसका मन जिस शून्य में भटकता रहता, उसमें कई बार उसे एक बच्चे की किलकारियाँ सुनाई देने लगतीं और वह बिलकुल जड़ होकर देर-देर तक एक ही जगह पर खड़ा या बैठा रहता। एक बार चलते-चलते हुए वह खंभे से टकराकर नाली में गिर गया। एक बार बस पर चढ़ने की कोशिश में नीचे गिर जाने से उसके कपड़े पीछे से फट गए और वह इससे बेख़बर दूसरी बस में चढ़कर आगे चल दिया। उसे तब पता चला जब किसी ने रास्ते में उससे कहा, “जेंटलमैन, तुम्हें क्या घर जाकर कपड़े बदल नहीं लेने चाहिए?”

    उसे लगता था जैसे वह जी रहा हो, सिर्फ़ अंदर ही अंदर घुट रहा हो। क्या यही वह ज़िंदगी थी जिसे पाने के लिए उसने वर्षों तक अपने से संघर्ष किया था?

    उसे क्रोध आता कि जुनेजा ने उसके साथ इस तरह का विश्वासघात क्यों किया? उस लड़की को किसी मानसिक चिकित्सालय में भेजने की जगह उसका ब्याह क्यों कर दिया? उसने जुनेजा को इस संबंध में पत्र लिखे, परंतु उसकी ओर से उसे कोई उत्तर नहीं मिला। उसने जुनेजा को बुला भेजा, तो वह आया भी नहीं। वह स्वयं जुनेजा से मिलने के लिए गया, तो उसे जवाब मिला कि निर्मला अब उसकी पत्नी है—निर्मला के मायके के लोगों का उस मामले में अब कोई दख़ल नहीं है।

    और निर्मला घर में उसी तरह हँसती और रोती रही...!

    “तुम मेरे भाई से क्या पूछने गए थे?” वह बाल बिखेरकर ‘देवी’ का रूप धारण किए हुए कहती, “तुम बीना की तरह मुझे भी तलाक़ देना चाहते हो? किसी तीसरी को घर में लाना चाहते हो? मगर मैं बीना नहीं हूँ। वह सती नारी नहीं थी। मैं सती नारी हूँ। तुम मुझे छोड़ने की बात मन में लाओगे, तो मैं इस घर को जलाकर भस्म कर दूँगी—सारे शहर में भूचाल ले आऊँगी। लाऊँ भूचाल?” और बाँहें फैलाकर वह चिल्लाने लगती, “आ भूचाल, आ...आ! मैं सती नारी हूँ, तो इस घर की ईंट से ईंट बजा दे। आ, आ, आ!”

    वह उसे शांत करने की चेष्टा करता, तो वह कहती, “तुम मुझसे दूर रहो। मेरे शरीर को हाथ मत लगाओ। मैं सती हूँ। देवी हूँ। साध्वी हूँ। तुम मेरा सतीत्व नष्ट करना चाहते हो? मुझे ख़राब करना चाहते हो? मेरा तुमसे ब्याह कब हुआ है? मैं तो अभी कँवारी हूँ। छोटी-सी मासूम बच्ची हूँ। संसार का कोई भी पुरुष मुझे नहीं छू सकता। मैं आध्यात्मिक जीवन जीती हूँ। मुझे कोई छूकर देखे तो सही...।”

    और बाल बिखेरे हुए इसी तरह बोलती हुई कभी वह घर की छत पर पहुँच जाती और कभी बाहर निकलकर घर के आसपास चक्कर काटने लगती। प्रकाश ने एक-दो बार होंठों पर हाथ रखकर उसका मुँह बंद कर देना चाहा, तो वह और भी ज़ोर से चिल्ला उठी, “तुम मेरा मुँह बंद करना चाहते हो? मेरा गला घोंटना चाहते हो? मुझे मारना चाहते हो? तुम्हें पता है मैं साक्षात देवी हूँ? मेरे चारों भाई मेरे चार शेर हैं! वे तुम्हें नोच-नोचकर खा जाएँगे। उन्हें पता है—उनकी बहन देवी का स्वरूप है। कोई मेरा बुरा चाहेगा, तो वे उसे उठाकर ले जाएँगे और काल-कोठरी में बंद कर देंगे। मेरे बड़े भाई ने अभी-अभी नई कार ली है। मैं उसे चिट्‌ठी लिख दूँ, तो वह अभी कार लेकर जाएगा, और हाथ-पैर बाँधकर तुम्हें कार में डालकर ले जाएगा। छ: महीने बंद रखेगा, फिर छोड़ेगा। तुम्हें पता नहीं वे चारों के चारों शेर कितने ज़ालिम हैं? वे राक्षस हैं, राक्षस। आदमी की बोटी-बोटी काट दें और किसी को पता भी चले। मगर मैं उन्हें नहीं बुलाऊँगी। मैं सती नारी हूँ, इसलिए अपने सत्य से ही अपनी रक्षा करूँगी...!”

    सब प्रयत्नों से हारकर वह थका हुआ अपने पढ़ने के कमरे में बंद होकर पड़ जाता, तो आधी रात तक वह साथ के कमरे में उसी तरह बोलती रहती। फिर बोलते-बोलते अचानक चुप कर जाती और थोड़ी देर बाद उसका दरवाज़ा खटखटाने लगती।

    “क्या बात है?” वह कहता।

    “इस कमरे में मेरी साँस रुक रही है,” निर्मला उत्तर देती। “दरवाज़ा खोलो, मुझे अस्पताल जाना है!”

    “इस समय सो जाओ,” वह कहता, “सुबह तुम जहाँ कहोगी, वहाँ ले चलूँगा।”

    “मैं कहती हूँ दरवाज़ा खोलो, मुझे अस्पताल जाना है।” और वह ज़ोर-ज़ोर से धक्के देकर दरवाज़ा तोड़ने लगती।

    वह दरवाज़ा खोल देता, तो वह हँसती हुई उसके सामने जाती।

    “तुम्हें हँसी किस बात की रही है?” वह कहता।

    “तुम्हें लगता है मैं हँस रही हूँ?” वह और भी ज़ोर से हँसने लगती। “यह हँसी नहीं, रोना है, रोना।”

    “तुम अस्पताल चलना चाहती हो?”

    “क्यों?”

    “अभी तुम कह रही थीं...!”

    “मैं अस्पताल जाने के लिए कहाँ कह रही थी? मैं तो कह रही थी कि मुझे उस कमरे में डर लगता है, मैं यहाँ तुम्हारे पास सोऊँगी।”

    “देखो निर्मला, इस समय मेरा मन ठीक नहीं है। तुम बाद में चाहे मेरे पास जाना, मगर इस समय थोड़ी देर के लिए...।”

    “मैं कहती हूँ मैं अकेली उस कमरे में नहीं सो सकती। मेरे जैसी मासूम बच्ची क्या कभी अकेली सो सकती है?”

    “तुम मासूम बच्ची नहीं हो, निर्मला!”

    “तो तुम्हें मैं बड़ी नज़र आती हूँ? एक छोटी-सी बच्ची को बड़ी कहते तुम्हारे दिल को कुछ नहीं होता? इसलिए कि तुम मुझे अपने पास सुलाना नहीं चाहते? मगर मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। तुम्हें मुझे अपने साथ सुलाना पड़ेगा। मैं विधवा हूँ जो अकेली सोऊँगी? मैं सुहागिन नारी हूँ। कोई सुहागिन क्या कभी अकेली सोती है? मैं भाँवरें लेकर तुम्हारे घर में आर्इ हूँ, ऐसे ही उठाकर नहीं लार्इ गई। देखती हूँ तुम कैसे मुझे उस कमरे में भेजते हो?” और वह उसके पास लेटकर उससे लिपट जाती।

    कुछ देर में जब उसके स्नायु शांत हो चुकते तो लगातार उसे चूमती हुई कहती, “मेरा सुहाग! मेरा चाँद! मेरा राजा! मैं तुम्हें कभी अपने से अलग रख सकती हूँ? तुम मेरे साथ एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जिओगे। मुझे यह वर मिला हुआ है कि मैं एक सौ छत्तीस बरस की उम्र तक सुहागिन रहूँगी। जिसकी भी मुझसे शादी होती, वह एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जीता। तुम देख लेना मेरी बात सच निकलती है या नहीं। मैं सती नारी हूँ और सती नारी के मुँह से निकली हुई बात कभी झूठ नहीं हो सकती...।”

    “तुम सुबह मेरे साथ अस्पताल चलोगी?”

    “क्यों, मुझे क्या हुआ है जो मैं अस्पताल जाऊँगी? मुझे तो आज तक कभी सिरदर्द भी नहीं हुआ। मैं अस्पताल क्यों जाऊँ?”

    एक दिन प्रकाश उसके लिए कई किताबें ख़रीद लाया। उसने सोचा था कि शायद पढ़ने से निर्मला के मन को एक दिशा मिल जाए और वह धीरे-धीरे अपने मन के अँधेरे से बाहर निकलने लगे। मगर निर्मला ने उन किताबों को देखा, तो मुँह बिचकाकर एक तरफ़ हटा दिया।

    “ये किताबें मैं तुम्हारे पढ़ने के लिए लाया हूँ,” उसने कहा।

    “मेरे पढ़ने के लिए?” निर्मला हैरानी के साथ बोली, “मैं इन किताबों को पढ़कर क्या करूँगी? मैंने तो मार्क्सवाद, मनोविज्ञान और सभी कुछ चौदह साल की उम्र में ही पढ़ लिया था। अब इतनी बड़ी होकर मैं ये किताबें पढ़ने लगूँगी?”

    और उसके पास से उठकर अँगूठा चूसती हुई वह दूसरे कमरे में चली गई।

    “पापा!”

    कोहरे के बादलों में भटका मन सहसा बालकनी पर लौट आया। खिलनमर्ग को जाने वाली सड़क पर बहुत-से लोग घोड़े दौड़ाते जा रहे थे—एक धुंधले चित्र की बुझी-बुझी आकृतियाँ जैसे। वैसी ही बुझी-बुझी आकृतियाँ क्लब से बाज़ार की तरफ़ रही थीं। बार्इं ओर बर्फ़ से ढकी हुई पहाड़ी की एक चोटी कोहरे से बाहर निकल आर्इ थी, और जाने किधर से आती सूर्य की किरण ने उसे दीप्त कर दिया था। कोहरे में भटके हुए कुछ पक्षी उड़ते हुए उस चोटी के सामने गए, तो सहसा उनके पंख सुनहरे हो उठे—मगर अगले ही क्षण वे फिर धुंधलके में खो गए।”

    प्रकाश कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और झाँककर नीचे सड़क की तरफ़ देखने लगा। क्या वह आवाज़ पलाश की नहीं थी? मगर सड़क पर दूर तक वैसी कोई आकृति दिखाई नहीं दे रही थी जिसे उसकी आँखें उस बच्चे के रूप में पहचान सकें। आँखों ही आँखों टूरिस्ट होटल के गेट तक जाकर वह लौट आया और गले पर हाथ रखकर जैसे निराशा की चुभन को रोके हुए फिर कुर्सी पर बैठ गया। दस के बाद ग्यारह, बारह और फिर एक बज गया था और बच्चा नहीं आया था। क्या बच्चे के पहले जन्मदिन की घटना आज फिर दोहराई जानी थी? मुट्ठियाँ बंद किए उन पर माथा रखकर वह बालकनी पर झुक गया।

    “पापा!”

    उसने चौंककर सिर उठाया। वही कोहरा और वही धुंधली सुनसान सड़क। दूर घोड़ों की टापें और धीमी चाल से उस तरफ़ को आता हुआ एक कश्मीरी मज़दूर! क्या वह आवाज़ उसे अपने कानों के अंदर से ही सुनाई दे रही थी?

    तभी उन पर्दों के अंदर दो नन्हे पैरों की आवाज़ भी गूँज गई और उसकी बाहों के बहुत पास ही बच्चे का स्वर किलक उठा, “पापा!” साथ ही दो नन्ही-नन्ही बाँहें उसके गले से लिपट गर्इं और बच्चे के झंडूले बाल उसके होंठों से छू गए।

    प्रकाश ने एक बार बच्चे के शरीर को सिर से पैर तक छूकर देख लिया कि यह आकार भी उसकी कल्पना का स्वप्न तो नहीं है। विश्वास हो जाने पर कि बच्चा सचमुच उसकी गोदी में है, उसने माथे और आँखों को कसकर चूम लिया।

    “तो मैं जाऊँ, पलाश?” एक भूली हुई मगर परिचित आवाज़ ने प्रकाश को फिर चौंका दिया। उसने घूमकर पीछे देखा। कमरे के दरवाज़े के बाहर बीना दार्इं तरफ़ जाने किस चीज़ पर आँखें गड़ाए खड़ी थी।

    “आप?...आ जाइए आप...!” कहता हुआ बच्चे को बाँहों में लिए प्रकाश अस्त-व्यस्त-सा कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।

    “नहीं, मैं जा रही हूँ,” बीना ने फिर भी उसकी तरफ़ नहीं देखा। “मुझे इतना बता दीजिए कि बच्चा कब तक लौटकर आएगा।”

    “आप...जब कहें, तभी भेज दूँगा।” प्रकाश बालकनी की दहलीज़ लाँघकर कमरे में गया।

    “चार बजे इसे दूध पीना होता है।”

    “तो चार बजे तक मैं इसे वहाँ पहुँचा दूँगा।”

    “इसने हल्का-सा स्वेटर ही पहन रखा है। दूसरे पुलोवर की ज़रूरत तो नहीं पड़ेगी?”

    “आप दे दीजिए। ज़रूरत पड़ेगी, तो मैं इसे पहना दूँगा।”

    बीना ने दहलीज़ के उस तरफ़ से पुलोवर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। उसने पुलोवर लेकर उसे शाल की तरह बच्चे को ओढ़ा दिया। “आप...,” उसने बीना से कहना चाहा कि अंदर जाए, मगर उससे कहा नहीं गया। बीना चुपचाप ज़ीने की तरफ़ चल दी। प्रकाश कमरे से निकल आया। ज़ीने से बीना ने फिर कहा, “देखिए, इसे आइसक्रीम मत खिलाइएगा। इसका गला बहुत जल्द ख़राब हो जाता है।”

    “अच्छा!”

    बीना पल-भर रुकी रही। शायद उसे और भी कुछ कहना था। मगर फिर बिना कुछ कहे नीचे उतर गई। बच्चा प्रकाश की बाँहों में उछलता हुआ हाथ हिलाता रहा, “ममी, टा टा! टा टा!” प्रकाश उसे लिए बालकनी पर लौट आया तो वह उसके गले में बाँहें डालकर बोला, “पापा, मैं आइछक्लीम जलूल थाऊँदा।”

    “हाँ-हाँ बेटे!” प्रकाश उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा, “जो तेरे मन में आए सो खाना। हाँ?”

    और कुछ देर के लिए वह अपने को, बालकनी को, और यहाँ तक कि बच्चे को भी भूला हुआ आकाश को देखता रहा।

    कोहरे का पर्दा धीरे-धीरे उठने लगा, तो मीलों तक फैले हरियाली के रंगमंच की धुंधली रेखाएँ सहसा स्पष्ट हो उठीं।

    वे दोनों गॉल्फ-ग्राउंड पार करके क्लब की तरफ़ जा रहे थे। चलते हुए बच्चे ने पूछा, “पापा, आदमी के दो टाँगें क्यों होती हैं? चार क्यों नहीं होतीं?”

    प्रकाश ने चौंककर उसकी तरफ़ देखा और कहा, “अरे!”

    “क्यों पापा,” बच्चा बोला, “तुमने अरे क्यों कहा है?”

    “तू इतना साफ़ बोल सकता है, तो अब तक तुतलाकर क्यों बोल रहा था?” प्रकाश ने उसे बाँहों में उठाकर एक अभियुक्त की तरह सामने कर लिया। बच्चा खिलखिलाकर हँसा। प्रकाश को लगा कि यह वैसी ही हँसी है जैसी कभी वह स्वयं हँसा करता था। बच्चे के चेहरे की रेखाओं से भी उसे अपने बचपन के चेहरे की याद आने लगी। उसे लगा जैसे एकाएक उसका तीस बरस पहले का चेहरा उसके सामने गया हो और वह स्वयं उस चेहरे के सामने एक अभियुक्त की तरह खड़ा हो।

    “ममी तो ऐछे ही अच्छा लदता है,” बच्चे ने कहा।

    “क्यों?”

    “मेले तो नहीं पता। तुम ममी छे पूछ लेना।”

    “तेरी ममी तेरे को ज़ोर से हँसने से भी मना करती है?” प्रकाश को वे दिन याद रहे थे जब उसके खिलखिलाकर हँसने पर बीना कानों पर हाथ रख लिया करती थी।

    बच्चे की बाँहें उसकी गर्दन के पास कस गर्इं। “हाँ,” वह बोला, “ममी तहती है अच्छे बच्चे जोल छे नहीं हँछते।”

    प्रकाश ने उसे बाँहों से उतार दिया। बच्चा उसकी उँगली पकड़े घास पर चलने लगा। “त्यों पापा,” उसने पूछा, “अच्छे बच्चे जोल छे त्यों नहीं हँछते?”

    “हँसते हैं बेटे!” प्रकाश ने उसके सिर को सहलाते हुए कहा, “सब अच्छे बच्चे ज़ोर से हँसते हैं।”

    “तो ममी मेले तो त्यों लोतती है?”

    “नहीं रोकती बेटे। अब वह तुझे नहीं रोकेगी। और तू तुतलाकर नहीं, ठीक से बोला कर। तेरी ममी तुझे इसके लिए भी मना नहीं करेगी। मैं उससे कह दूँगा।”

    “तो तुमने पहले ममी छे त्यों नहीं तहा?”

    “ऐसे नहीं, कह कि तुमने पहले ममी से क्यों नहीं कहा।”

    बच्चा फिर हँस दिया, “तो तुमने पहले ममी से क्यों नहीं कहा?”

    “पहले मुझे याद नहीं रहा। अब याद से कह दूँगा।”

    कुछ देर दोनों चुपचाप चलते रहे। फिर बच्चे ने पूछा, “पापा, तुम मेरे जन्मदिन की पार्टी में क्यों नहीं आए? ममी कहती थी तुम विलायत गए हुए थे।”

    “हाँ बेटे, मैं विलायत गया हुआ था।”

    “तो पापा, अब तुम फिर विलायत नहीं जाना।”

    “क्यों?”

    “मेरे को अच्छा नहीं लगता। विलायत जाकर तुम्हारी शकल और ही तरह की हो गई है।”

    प्रकाश एक रूखी-सी हँसी हँसा, “कैसी हो गई है शकल?”

    “पता नहीं कैसी हो गई है? पहले दूसरी तरह की थी, अब दूसरी तरह की है।”

    “दूसरी तरह की कैसे?”

    “पता नहीं। पहले तुम्हारे बाल काले-काले थे। अब सफ़ेद-सफ़ेद हो गए हैं।”

    “तू इतने दिन मेरे पास नहीं आया, इसीलिए मेरे बाल सफ़ेद हो गए हैं।”

    बच्चा इतने ज़ोर से हँसा कि उसके क़दम लडख़ड़ा गए। “पापा, तुम तो विलायत गए हुए थे,” उसने कहा। “मैं तुम्हारे पास कैसे आता? मैं क्या अकेला विलायत जा सकता हूँ?”

    “क्यों नहीं जा सकता? तू इतना बड़ा तो है।”

    “मैं सचमुच बड़ा हूँ पापा?” बच्चा ताली बजाता हुआ बोला, “तुम यह बात भी ममी से कह देना। वह कहती है मैं अभी बहुत छोटा हूँ। मैं छोटा नहीं हूँ पापा!”

    “नहीं, तू छोटा कहाँ है?”—कहकर प्रकाश मैदान में दौड़ने लगा। “तू भागकर मुझे पकड़।”

    बच्चा अपनी छोटी-छोटी टाँगें पटकता हुआ दौड़ने लगा। प्रकाश को फिर अपने बचपन की एक बात याद हो आर्इ। तब उसे दौड़ते देखकर एक बार किसी ने कहा था, “अरे यह बच्चा कैसे टाँगें पटक-पटककर दौड़ता है! इसे ठीक से चलना नहीं आता क्या?”

    बच्चे की उँगली पकड़े प्रकाश क्लब के बाररूम में दाख़िल हुआ, तो बारमैन अब्दुल्ला उसे देखकर दूर से मुस्कराया। “साहब के लिए दो बोतल बियर,” उसने पास खड़े बैरे से कहा। “साहब आज अपने साथ एक मेहमान के साथ आया है।”

    “बच्चे के लिए एक गिलास पानी दे दो,” प्रकाश ने काउंटर के पास रुककर कहा। “इसे प्यास लगी है।”

    “ख़ाली पानी?” अब्दुल्ला बच्चे के गालों को प्यार से सहलाने लगा। “और सब दोस्तों को तो साहब बियर पिलाता है और इस बेचारे को ख़ाली पानी?” और पानी की बोतल खोलकर वह गिलास में पानी डालने लगा। जब वह गिलास बच्चे के मुँह के पास ले गया, तो बच्चे ने यह अपने हाथ में ले लिया। “मैं अपने आप पिऊँगा,” उसने कहा। “मैं छोटा थोड़े ही हूँ? मैं तो बड़ा हूँ।”

    “अच्छा तू बड़ा है?” अब्दुल्ला हँसा। “तब तो तुझे पानी देकर मैंने ग़लती की। बड़े लोगों को तो मैं बियर ही पिलाता हूँ।”

    “बियर क्या होता है?” बच्चे ने मुँह से गिलास हटाकर पूछा।

    “बियर होता नहीं, होती है।” अब्दुल्ला ने झुककर उसे चूम लिया। “तुझे पिलाऊँ क्या?”

    “नहीं,” कहकर बच्चे ने अपनी बाँहें प्रकाश की तरफ़ फैला दीं। प्रकाश उसे लेकर ड्योढ़ी की तरफ़ चला, तो अब्दुल्ला भी उन दोनों के साथ-साथ बाहर चला आया, “किसका बच्चा है, साहब?” उसने धीमे स्वर में पूछा।

    “मेरा लड़का है,” कहकर प्रकाश बच्चे को सीढ़ी से नीचे उतारने लगा।

    अब्दुल्ला हँस दिया। “साहब बहुत ख़ुशदिल आदमी है,” उसने कहा।

    “क्यों?”

    अब्दुल्ला हँसता हुआ सिर हिलाने लगा। “आपका भी जवाब नहीं है।”

    प्रकाश ग़ुस्से में कुछ कहने को हुआ मगर अपने को रोककर बच्चे को लिए हुए आगे चल दिया। अब्दुल्ला ड्योढ़ी में रुककर पीछे से सिर हिलाता रहा। बैरा शेर मुहम्मद अंदर से निकलकर आया, तो वह फिर खिलखिलाकर हँस दिया।

    “क्या बात है? अकेला खड़ा कैसे हँस रहा है?” शेर मुहम्मद ने पूछा।

    “साहब का भी जवाब नहीं है,” अब्दुल्ला किसी तरह हँसी पर क़ाबू पाकर बोला।

    “किस साहब का जवाब नहीं है?”

    “उस साहब का,” अब्दुल्ला ने प्रकाश की तरफ़ इशारा किया। “उस दिन बोलता था कि इसने इसी साल शादी की है और आज बोलता है कि यह पाँच साल का बाबा इसका लड़का है। जब आया था, तो अकेला था। और आज इसके लड़का भी हो गया!” प्रकाश ने एक बार घूमकर तीखी नज़र से उसकी तरफ़ देख लिया। अब्दुल्ला एक बार फिर खिलखिला उठा। “ऐसा ख़ुशदिल आदमी मैंने आज तक नहीं देखा।”

    “पापा, घास हरी क्यों होती है? लाल क्यों नहीं होती?” क्लब से निकलकर प्रकाश ने बच्चे को एक घोड़ा किराये पर ले दिया था। लिनेनमर्ग को जाने वाली पगडंडी पर वह स्वयं उसके साथ-साथ पैदल चल रहा था। घास के रेशमी विस्तार पर कोहरे का आकाश इस तरह झुका हुआ था जैसे वासना का उन्माद उसे फिर से घिर आने के लिए प्रेरित कर रहा हो। बच्चा उत्सुक आँखों से आसपास की पहाड़ियों को और बीच से बहकर जाती हुई पानी की पतली धार को देख रहा था। कभी कुछ क्षण वह अपने को भूला रहता, फिर किसी अज्ञात भाव से प्रेरित होकर काठी पर उछलने लगता।

    “हर चीज़ का अपना रंग होता है,” प्रकाश ने बच्चे की एक जाँघ को हाथ से दबाए हुए कहा और कुछ देर स्वयं भी हरियाली के विस्तार में खोया रहा।

    “हर चीज़ का अपना रंग क्यों होता है?”

    “क्योंकि कुदरत ने हर चीज़ का अपना रंग बना दिया है।”

    “कुदरत क्या होती है?”

    प्रकाश ने झुककर उसकी जाँघ को चूम लिया। “कुदरत यह होती है,” उसने हँसकर कहा। जाँघ पर गुदगुदी होने से बच्चा भी हँसने लगा।

    “तुम झूठ बोलते हो,” उसने कहा।

    “क्यों?”

    “तुमको इसका पता ही नहीं है।”

    “अच्छा, मुझे पता नहीं है, तो तू बता, घास का रंग हरा क्यों होता है?”

    “घास मिट्टी के अंदर से पैदा होती है, इसलिए इसका रंग हरा होता है।”

    “अच्छा? तुझे इसका कैसे पता चल गया?”

    बच्चा उछलता हुआ लगाम को झटकने लगा। “मेरे को ममी ने बताया था।”

    प्रकाश के होंठों पर एक विकृत-सी मुस्कराहट गई। उसे लगा जैसे आज भी उसके और बीना के बीच एक द्वन्द्व चल रहा हो और बीना उस द्वन्द्व में उस पर भारी पड़ने की चेष्टा कर रही हो। “तेरी ममी ने तुझे और क्या-क्या बता रखा है?” वह बच्चे को थपथपाकर बोला, “यह भी बता रखा है कि आदमी के दो टाँगें क्यों होती हैं और चार क्यों नहीं?”

    “हाँ। ममी कहती थी कि आदमी के दो टाँगें इसलिए होती हैं कि वह आधा ज़मीन पर चलता है, आधा आसमान में।”

    “अच्छा?” प्रकाश के होंठों पर हँसी और मन में उदासी की एक रेखा फैल गई। “मुझे इसका पता नहीं था,” उसने कहा।

    “तुमको तो कुछ भी पता नहीं है, पापा!” बच्चा बोला। “इतने बड़े होकर भी पता नहीं है!”

    घास, बर्फ़ और आकाश के रंग दिन में कई-कई बार बदल जाते थे। बदलते रंगों के साथ मन भी और से और होने लगता था। सुबह उठते ही प्रकाश बच्चे के आने की प्रतीक्षा करने लगता। बार-बार वह बालकनी पर जाता और टूरिस्ट होटल की तरफ़ आँखें किए देर-देर तक खड़ा रहता। नाश्ता करने या खाना खाने जाने के लिए भी वह वहाँ से नहीं हटना चाहता था। उसे डर था कि बच्चा इस बीच वहाँ आकर लौट जाए। तीन दिन में उसे साथ लिए वह कितनी ही बार घूमने के लिए गया था, उसके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ा था और उसके साथ घास पर लोटता रहा था। कभी एक दोस्त की तरह वह उसके साथ खिल-खिलाकर हँसता, कभी एक नौकर की तरह उसके हर आदेश का पालन करता। बच्चा जान-बूझकर रास्ते के कीचड़ में अपने पाँव लथपथ कर लेता और होंठ बिसोरकर कहता, “पापा, पाँव धो दो।” वह उसे उठाए इधर-उधर पानी ढूँढ़ता फिरता। बच्चे को वह जिस किसी कोण से भी देखता, उसी कोण से उसकी तस्वीर ले लेना चाहता। जब बच्चा थक जाता और लौटकर अपनी ममी के पास जाने का हठ करने लगता, तो वह उसे तरह-तरह के प्रलोभन देकर अपने पास रोक रखना चाहता। एक बार उसने बच्चे को अपनी माँ के साथ दूर से आते देखा और उसे साथ लाने के लिए उतरकर नीचे चला गया था। जब वह पास पहुँचा, तो बच्चा दौड़कर उसकी तरफ़ आने की जगह माँ के साथ फ़ोटोग्राफ़र की दुकान के अंदर चला गया। वह कुछ देर सड़क पर रुका रहा; फिर यह सोचकर ऊपर चला आया कि फ़ोटोग्राफ़र की दुकान से निकलकर बच्चा अपने-आप ऊपर जाएगा। मगर बालकनी पर खड़े-खड़े उसने देखा कि बच्चा दुकान से निकलकर उस तरफ़ आने की बजाय हठ के साथ अपनी माँ का हाथ खींचता हुआ उसे वापस टूरिस्ट होटल की तरफ़ ले चला। उसका मन हुआ कि दौड़कर जाए और बच्चे को अपने साथ ले जाए, मगर कोई चीज़ उसके पैरों को जकड़े रही और वह चुपचाप वहीं खड़ा उसे देखता रहा। शाम तक वह जाने कितनी बार बालकनी पर आया और कितनी-कितनी देर वहाँ खड़ा रहा। आख़िर उससे नहीं रहा गया, तो उसने नीचे जाकर कुछ चेरी ख़रीदी और बच्चे को देने के बहाने टूरिस्ट होटल की तरफ़ चल दिया। अभी वह टूरिस्ट होटल से कुछ फ़ासले पर था कि बच्चा अपनी माँ के साथ बाहर आता दिखाई दिया। मगर उस पर नज़र पड़ते ही वह वापस होटल की गैलरी में भाग गया।

    प्रकाश जहाँ था, वहीं खड़ा रहा। उस समय पहली बार उसकी आँखें बीना से मिलीं। उसे महसूस हुआ कि बीना का चेहरा पहले से कहीं साँवला हो गया है और उसकी आँखों के नीचे स्याह दायरे-से उभर आए हैं। वह पहले से काफ़ी दुबली भी लग रही थी। कुछ क्षण रुके रहने के बाद प्रकाश आगे चला गया और चेरीवाला लिफ़ाफ़ा बीना की तरफ़ बढ़ाकर ख़ुश्क गले से बोला, “यह मैं बच्चे के लिए लाया था।”

    बीना ने लिफ़ाफ़ा ले लिया, मगर साथ ही उसकी आँखें दूसरी तरफ़ मुड़ गर्इं। “पलाश!” उसने कुछ अस्थिर आवाज़ में बच्चे को पुकारकर कहा। “यह ले, तेरे पापा तेरे लिए चेरी लाए हैं।”

    “मैं नहीं लेता,” बच्चे ने गैलरी से कहा और भागकर और भी दूर चला गया।

    बीना ने एक असहाय दृष्टि बच्चे पर डाली और प्रकाश की तरफ़ देखकर बोली, “कहता है, मैं पापा से नहीं बोलूँगा। वे सुबह रुके क्यों नहीं, चले क्यों गए थे?”

    प्रकाश बीना को उत्तर देकर गैलरी में चला गया और कुछ दूर बच्चे का पीछा करके उसने उसे बाँहों में उठा लाया। “मैं तुमसे नहीं बोलूँगा, कभी नहीं बोलूँगा,” बच्चा अपने को छुड़ाने की चेष्टा करता कहता रहा।

    “क्यों, ऐसी क्या बात है?” प्रकाश उसे पुचकारने की चेष्टा करने लगा। “पापा से इस तरह नाराज़ होते हैं क्या?”

    “तुमने मेरी तस्वीरें क्यों नहीं देखीं?”

    “कहाँ थी तेरी तस्वीरें? मुझे तो पता ही नहीं था।”

    “पता क्यों नहीं था? तुम दुकान के बाहर से ही क्यों चले गए थे?”

    “अच्छा ला, पहले तेरी तस्वीरें देखें, फिर घूमने चलेंगे।”

    “यह सुबह आपको दिखाने के लिए ही तस्वीरें लेने गया था।” बीना के साथ खड़ी एक युवा स्त्री ने कहा। प्रकाश ने ध्यान नहीं दिया था कि उसके साथ कोई और भी है।

    “तस्वीरें मेरे पास थोड़े ही हैं? उसी के पास हैं।”

    “सुबह फ़ोटोग्राफ़र ने निगेटिव दिखाए थे, पॉज़िटिव वह अब इस समय देगा,” उस नवयुवती ने फिर कहा।

    “तो चल, पहले दुकान पर चलकर तेरी तस्वीरें ले लें। हाँ, देखें तो सही कैसी तस्वीरें हैं!” कहकर प्रकाश फ़ोटोग्राफ़र की दुकान की तरफ़ चलने लगा।

    “मैं ममी को साथ लेकर जाऊँगा,” बच्चे ने उसकी बाँहों में मचलते हुए कहा।

    “हाँ, हाँ, तेरी ममी भी साथ रही है,” कहते हुए प्रकाश ने एक बार निरुपाय-सी दृष्टि से पीछे की तरफ़ देख लिया और जैसे किसी अदृश्य व्यक्ति से कहा, “देखिए, आप भी साथ जाइए, नहीं तो यह रोने लगेगा।”

    बीना होंठ दाँतों में दबाए हुए कुछ क्षण आँखें झपकती रहीं, फिर वह चुपचाप उसके साथ चल दी।

    फ़ोटोग्राफ़र की दुकान में दाख़िल होते ही बच्चा प्रकाश की बाँहों से उतर गया और फ़ोटोग्राफ़र से बोला, “मेरे पापा को मेरी तस्वीरें दिखाओ।” फ़ोटोग्राफ़र ने तस्वीरें निकालकर मेज़ पर फैला दीं, तो बच्चा उनमें से एक-एक तस्वीर उठाकर प्रकाश को दिखाने लगा, “देखो पापा, यह वहीं की तस्वीर है जहाँ से तुमने कहा था, सारा कश्मीर नज़र आता है? और यह तस्वीर भी देखो पापा, जो तुमने मेरी घोड़े पर उतारी थी...।”

    “दो दिन से बिलकुल साफ़ बोलने लगा है,” बीना की सहेली ने धीरे से कहा। “कहता है पापा ने कहा है तू बड़ा हो गया है, इसलिए अब तुतलाकर बोला कर।”

    प्रकाश कुछ कहकर तस्वीरें देखता रहा। फिर जैसे कुछ याद हो आने से उसने दस रुपए का एक नोट निकालकर फ़ोटोग्राफ़र को देते हुए कहा, “इसमें से आप अपने पैसे काट लीजिए!”

    फ़ोटोग्राफ़र पल-भर असमंजस में उसे देखता रहा। फिर बोला, “पैसे तो अभी आप ही के मेरी तरफ़ निकलते हैं। मेम साहब ने जो बीस रुपए परसों दिए थे, उनमें से दो-एक रुपए अभी बचते होंगे। कहें तो अभी हिसाब कर दूँ।”

    “नहीं, रहने दीजिए, हिसाब फिर हो जाएगा,” कहकर प्रकाश ने नोट वापस जेब में रख लिया और बच्चे की उँगली पकड़े दुकान से बाहर निकल आया। कुछ क़दम चलने पर पीछे से बीना का स्वर सुनाई दिया, “यह आपके साथ घूमने जा रहा है क्या?”

    “हाँ!” प्रकाश ने थोड़ा चौंककर पीछे देख लिया। “मैं अभी थोड़ी देर में इसे वापस छोड़ जाऊँगा।”

    “देखिए, आपसे एक बात कहनी थी...।”

    “कहिए...।”

    बीना पल-भर कुछ सोचती हुई चुप रही। फिर बोली, “इसे ऐसी कोई बात मत बताइएगा जिससे यह...।”

    प्रकाश को लगा जैसे कोई चीज़ उसके स्नायुओं को चीरती चली गई। उसकी आँखें झुक गर्इं और उसने धीरे-से कहा, “नहीं, मैं ऐसी कोई बात इससे नहीं कहूँगा।” उसे खेद हुआ कि एक दिन पहले जब बच्चा हठ करके कह रहा था कि ‘पापा’ और ‘पिताजी’ एक ही व्यक्ति को नहीं कहते—‘पापा’ पापा को कहते हैं और ‘पिताजी’ ममी के पापा को—तो वह क्यों उसकी ग़लतफ़हमी दूर करने की कोशिश करता रहा था?

    वह बच्चे के साथ अकेला क्लब की सड़क पर चलने लगा, तो कुछ दूर जाकर बच्चा सहसा रुक गया। “हम कहाँ जा रहे हैं, पापा?” उसने पूछा।

    “पहले क्लब चल रहे हैं,” प्रकाश ने कहा। “वहाँ से घोड़ा लेकर आगे घूमने जाएँगे।”

    “नहीं, मैं वहाँ उस आदमी के पास नहीं जाऊँगा”। कहकर बच्चा सहसा पीछे की तरफ़ चल दिया।

    “किस आदमी के पास?”

    “वह जो वहाँ पर क्लब में था। मैं उसके हाथ से पानी भी नहीं पिऊँगा।”

    “क्यों?”

    “मुझे वह आदमी अच्छा नहीं लगता।”

    प्रकाश पल-भर बच्चे के चेहरे को देखता रहा, फिर वह भी वापस चल दिया। “हाँ, हम उस आदमी के पास नहीं चलेंगे,” उसने कहा। “मुझे भी वह आदमी अच्छा नहीं लगता।”

    बहुत दिनों के बाद उस रात प्रकाश को गहरी नींद आर्इ थी। एक ऐसी विस्मृति-सी नींद, जिसमें स्वप्न-दुःस्वप्न कुछ हो, उसके लिए लगभग भूली हुई चीज़ हो चुकी थी। फिर भी जागने पर उसे अपने में एक ताज़गी का अनुभव नहीं हुआ—अनुभव हुआ एक ख़ालीपन का ही। जैसे कोई चीज़ उसके अंदर उफनती रही हो, जो गहरी नींद सो लेने से चुक गई हो। रोज़ की तरह उठकर वह बालकनी पर गया। देखा आकाश साफ़ है। रात को सोया था, तो वर्षा हो रही थी। परंतु उस धुले-निखरे हुए आकाश को देखकर आभास तक नहीं होता था कि कभी वहाँ बादलों का अस्तित्व भी था। सामने की पहाड़ियाँ सुबह की धूप में नहाकर बहुत उजली हो उठी थीं।

    प्रकाश कुछ देर वहाँ खड़ा रहा—शांतिरहित, और विचारहीन। फिर सहसा दूर के छोर में उठते हुए बादल की तरह इसे कोई चीज़ अपने में उमड़ती हुई प्रतीत हुई और उसका मन एक अज्ञात आशंका से सिहर गया। तो क्या...?

    वह बालकनी से हट आया। पिछली शाम को बच्चे ने बताया था कि उसकी ममी कह रही है कि दिन साफ़ हुआ, तो सुबह वे लोग वहाँ से चले जाएँगे। रात को जिस तरह वर्षा हो रही थी, उससे सुबह तक आकाश के साफ़ होने की कोई संभावना नहीं लगती थी। इसलिए सोने के समय उसका मन इस ओर से लगभग निश्चिन्त था। परंतु रात-रात में आकाश का दृश्यपट बिलकुल बदल गया था। तो क्या सचमुच आज ही उन लोगों को वहाँ से चले जाना था?

    उसने कमरे के बिखरे हुए सामान को देखा—दो-चार इनी-गिनी चीज़ें ही थीं। चाहा कि उन्हें सहेज दे, मगर किसी चीज़ को रखने-उठाने को मन नहीं हुआ। बिस्तर को देखा जिसमें रोज़ से बहुत कम सलवटें पड़ी थीं। लगा जैसे रात की गहरी नींद के लिए वह बिस्तर ही दोषी हो और गहरी नींद ही—बरसते हुए आकाश के साफ़ हो जाने के लिए! उसने बिस्तर की चादर को हिला दिया कि उसमें और सलवटें पड़ जाएँ मगर उससे चादर में जो दो-एक सलवटें थीं, वे भी निकल गई। वह फिर से एक नींद लेने के इरादे से बिस्तर पर लेट गया।

    शरीर में थकान बिलकुल नहीं थी, इसलिए नींद नहीं आई। कुछ करवटें लेने के बाद वह नहाने-धोने के लिए उठ गया। लड़खड़ाते क़दमों से सुबह दोपहर की तरफ़ बढ़ने लगी, तो उसके मन को कुछ सहारा मिलने लगा। वह चाहने लगा कि इसी तरह शाम हो जाए और फिर रात—और बच्चा उससे विदा लेने के लिए आए। परंतु इसी तरह जब दोपहर भी ढलने को गई और बच्चा नहीं आया, तो उसके मन में धीरे-धीरे एक और ही आशंका सिर उठाने लगी। वह सोचने लगा कि दिन साफ़ होने से उसकी ममी कहीं सुबह-सुबह ही तो उसे लेकर वहाँ से नहीं चली गई?

    वह बार-बार बालकनी पर जाता—एक धड़कती हुई आशा और आशंका लिए हुए। बार-बार टूरिस्ट होटल की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर नज़र डालता और एक अनिश्चित-सी अनुभूति लिए हुए कमरे में लौट आता। उसकी धमनियों में लहू का हर कण, मस्तिष्क में चेतना का हर बिंदु उत्कंठा से व्याकुल था। उसने कुछ कुछ खाया नहीं था, इसलिए भूख भी उसे परेशान कर रही थी। कुछ देर के बाद कमरा बंद करके वह खाना खाने चला गया। मोटे-मोटे कौर निगलकर उसने किसी तरह दो रोटियाँ गले से उतारीं और तुरंत वापस चल पड़ा। कुछ क्षणों के लिए भी कमरे से बाहर और बालकनी से दूर रहना उसे एक अपराध-सा लग रहा था। लौटते हुए उसने सोचा कि उसे स्वयं टूरिस्ट होटल में जाकर पता कर लेना चाहिए कि वे लोग वहीं हैं या चले गए हैं। मगर सड़क की चढ़ाई चढ़ते हुए उसने दूर से ही देखा—बीना बच्चे के साथ उसकी बालकनी के नीचे खड़ी थी। वह हाँफता हुआ तेज़-तेज़ चलने लगा।

    वह पास जा पहुँचा, तो भी बच्चे ने उसकी तरफ़ नहीं देखा। वह अपनी माँ का हाथ खींचता हुआ किसी बात के लिए हठ कर रहा था। प्रकाश ने उसकी बाँह को हाथ में ले लिया, तो उससे बाँह छुड़ाने का प्रयत्न करने लगा। “मैं तुम्हारे घर नहीं जाऊँगा,” उसने लगभग चीख़कर कहा। प्रकाश अचकचा गया और उसकी मूढ़-सा उसकी तरफ़ देखता रहा।

    “क्यों, तू मुझसे नाराज़ है क्या?” उसने पूछा।

    “ममी, मेरे साथ ऊपर क्यों नहीं चलती?” बच्चा फिर उसी तरह चिल्लाया।

    प्रकाश और बीना की आँखें एक-दूसरे की तरफ़ उठने को हुईं, मगर पूरी तरह नहीं उठ पार्इं। प्रकाश ने बच्चे का बाँह फिर थाम ली और बीना से कहा, “आप भी साथ जाइए न!”

    “इसे आज जाने क्या हुआ!” बीना झुँझलाहट के साथ बोली। “सुबह से ही तंग कर रहा है!”

    “इस वक़्त यह आपके बिना ऊपर नहीं जाएगा,” प्रकाश ने कहा। “आप साथ क्यों नहीं जातीं?”

    “चल, मैं तुझे ज़ीने तक पहुँचा देती हूँ,” बीना उसे उत्तर देकर बच्चे से बोली। “ऊपर से जल्दी लौट आना। घोड़ेवाले कितनी देर से तैयार खड़े हैं।”

    प्रकाश को अपने अंदर एक नश्तर-सा चुभता महसूस हुआ। मगर जल्दी ही उसने अपने को सँभाल लिया। “आप लोग आज ही जा रहे हैं क्या?” वह किसी तरह कठिनाई से पूछ सका।

    “जी हाँ,” बीना दूसरी तरफ़ देखती रही। “जाना तो सुबह-सुबह ही था, मगर इसके हठ की वजह से इतनी देर हो गई है। अब भी यह...।” और वह बात बीच में ही छोड़कर उसने बच्चे से फिर कहा, “तो चल, तुझे ज़ीने तक पहुँचा दूँ।”

    बच्चा प्रकाश के हाथ से बाँह छुड़ाकर कुछ दूर भाग गया। “मैं नहीं जाऊँगा,” उसने कहा।

    “अच्छा आ,” बीना बोली। “मैं तुझे ज़ीने के ऊपर तक छोड़ आऊँगी—उस दिन की तरह।”

    “मैं नहीं जाऊँगा,” और बच्चा कुछ क़दम और भी दूर चला गया।

    “आप साथ क्यों नहीं जातीं? यह इस तरह अपना हठ नहीं छोड़ेगा,” प्रकाश ने कहा। बीना ने आधे क्षण के लिए उसकी तरफ़ देखा। उस दृष्टि में आक्रोश के अतिरिक्त जाने क्या-क्या भाव था। परंतु आधे क्षण में ही वह भाव धुल गया और बीना ने अपने को सहेज लिया। उसके चेहरे पर एक तरह की दृढ़ता गई और उसने बच्चे के पास जाकर उसे उठा लिया। “तो चल मैं तेरे साथ चलती हूँ,” उसने कहा।

    बच्चे का रुआँसा भाव एक क्षण में ही बदल गया और उसने हँसते हुए अपनी माँ के गले में बाँहें डाल दीं। प्रकाश ने धीरे से कहा, “आइए” और उन दोनों के आगे-आगे चलने लगा।

    ऊपर कमरे में पहुँचकर बीना ने बच्चे को नीचे उतार दिया और कहा, “ले अब मैं जा रही हूँ।”

    “नहीं,” बच्चे ने उसका हाथ पकड़ लिया। “तुम भी यहाँ बैठो।”

    “बैठिए,” प्रकाश ने कुर्सी पर पड़ी दो-एक चीज़ें जल्दी से उठा दीं और कुर्सी बीना की तरफ़ बढ़ा दी। बीना कुर्सी पर बैठकर चारपाई के कोने पर बैठ गई। तभी बच्चे का ध्यान जाने किस चीज़ ने खींच लिया। वह उन दोनों को छोड़कर बालकनी में भाग गया और वहाँ से उचककर सड़क की तरफ़ देखने लगा।

    प्रकाश कुर्सी की पीठ पर हाथ रखे जैसे खड़ा था, वैसे ही खड़ा रहा। बीना चारपाई के कोने में और भी सिमटकर दीवार की तरफ़ देखने लगी। सहसा असावधानी के एक क्षण में उनकी आँखें मिल गर्इं, तो बीना ने जैसे पूरी शक्ति संचित करके कहा, “कल इसकी जेब में कुछ रुपए मिले थे। वे आपने रखे थे?”

    प्रकाश सहसा ऐसे हो गया जैसे किसी ने उसे पकड़कर झकझोर दिया हो। “हाँ,” प्रकाश ने लड़खड़ाते हुए स्वर में कहा। “सोचा था कि उनसे यह कोई चीज़...बनवा लेगा।”

    बीना पल-भर चुप रही। फिर बोली, “क्या चीज़ बनवानी होगी?”

    “कोई भी चीज़ बनवा दीजिएगा। कोई अच्छा-सा ओवरकोट या... ।”

    कुछ देर फिर चुप्पी रही। फिर बीना बोली, “कैसा कोट बनवाना होगा?”

    “कैसा भी बनवा दीजिएगा। जैसा इसे अच्छा लगे, या...जैसा आप ठीक समझें।”

    “कोई ख़ास तरह का कपड़ा लेना हो, तो बता दीजिए।”

    “नहीं, ख़ास कपड़ा कोई नहीं...कैसा भी ले लीजिएगा।”

    “कोई ख़ास रंग...?”

    “नहीं...हाँ...नीले रंग का हो, तो ज़्यादा अच्छा रहेगा।”

    बच्चा उछलता हुआ बालकनी से लौट आया और बीना का हाथ पकड़कर बोला, “अब चलो।”

    “पापा से तूने प्यार तो किया ही नहीं और आते ही चल भी दिया?” प्रकाश ने उसे बाँहों में ले लिया। बच्चे ने उसके होंठों से होंठ मिलाकर एक बार अच्छी तरह उसे चूम लिया और फिर झट से उसकी बाँहों से उतरकर माँ से बोला, “अब चलो।”

    बीना चारपाई से उठ खड़ी हुई। बच्चा उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर की तरफ़ खींचने लगा। “तलो ममी देल हो लही है,” वह फिर तुतलाने लगा और बीना को साथ लिए हुए दहलीज़ पार कर गया।

    “तू जाकर पापा को चिट्‌ठी लिखेगा न?” प्रकाश ने पीछे से पूछा।

    “लिथूंदा।” मगर उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पीछे मुड़कर देखा एक बार बीना ने, और जल्दी से आँखें हटा लीं। उसकी आँखों के कोरों में अटके आँसू उसके गालों पर बह आए थे। “तूने पापा को टा-टा नहीं किया,” उसने बच्चे के कंधे पर हाथ रखे हुए कहा। आँखों की तरह उसका स्वर भी भीगा हुआ था।

    “टा-टा पापा!” बच्चे ने बिना पीछे की तरफ़ देखे हाथ हिला दिया और ज़ीने से उतरने लगा। आधे ज़ीने से फिर उसकी आवाज़ सुनाई दी, “पापा का घल अच्छा नहीं है ममी, हमाले वाल घल अच्छा है। पापा ते घल में तो कुछ भी छामान ही नहीं है...!”

    “तू चुप करेगा कि नहीं!” बीना ने उसे झिड़क दिया। “जो मुँह में आता है बोलता जाता है।”

    “नहीं तुप कलूँदा, नहीं कलूँदा तुप...,” बच्चे का स्वर फिर रुआँसा हो गया और वह तेज़-तेज़ क़दमों से नीचे उतरने लगा। “पापा का घल दन्दा! पापा का घल थू...!”

    रात होते-होते आकाश फिर घिर गया। प्रकाश क्लब के बाररूम में बैठा एक के बाद एक बियर की बोतलें ख़ाली करता रहा। बारमैन अब्दुल्ला लोगों के लिए रम और विह्स्की के पेग ढालता हुआ बार-बार कनखियों से उसकी तरफ़ देख लेता था। इतने दिनों में पहली बार वह प्रकाश को इस तरह पीते देख रहा था। “आज लगता है साहब ने कहीं से बहुत माल मारा है,” उसने एक बार धीमे स्वर में शेर मुहम्मद से कहा। “आगे कभी एक बोतल से ज़्यादा नहीं पीता और आज चार-चार बोतलें पीकर भी बस करने का नाम नहीं ले रहा।”

    शेर मुहम्मद ने सिर्फ़ मुँह बिचका दिया और अपने काम में लगा रहा।

    प्रकाश की आँखें अब्दुल्ला से मिलीं, तो अब्दुल्ला मुस्करा दिया। प्रकाश कुछ क्षण इस तरह उसे देखता रहा जैसे वह आदमी होकर एक धुंधला-सा साया हो, और सामने का गिलास परे सरकाकर उठ खड़ा हुआ। काउंटर के पास जाकर उसने दस-दस के दो नोट निकालकर अब्दुल्ला के सामने रख दिए। अब्दुल्ला बाक़ी पैसे गिनता हुआ ख़ुशामदी स्वर में बोला, “आज साहब बहुत ख़ुश नज़र आता है।”

    “अच्छा?” प्रकाश इस तरह उसे देखता रहा जैसे उसके देखते-देखते वह साया धुंधला होकर बादलों में गुम होता जा रहा हो। जब वह चलने को हुआ, तो अब्दुल्ला ने पहले सलाम किया और फिर पूछ लिया, “क्यों साहब, वह कौन था उस दिन आपके साथ? किसका लड़का था वह?”

    प्रकाश को लगा जैसे वह साया अब बिलकुल गुम हो गया हो और उसके सामने सिर्फ़ बादल ही बादल घिरा रह गया हो। उसने जैसे दूर बादल के गर्भ में देखने की चेष्टा करते हुए कहा, “कौन लड़का?”

    “अब्दुल्ला पल-भर भौचक्का-सा हो रहा, फिर खिलखिलाकर हँस पड़ा। “तब तो मैंने शेर मुहम्मद से ठीक ही कहा था...” वह बोला।

    “क्या कहा था?”

    “कि हमारा साहब तबीअत का बादशाह है। जब चाहे किसी के लड़के को अपना लड़का बना ले, और जब चाहे...यहाँ गुलमर्ग में तो यह सब चलता है। आप जैसा हमारा एक और साहब है...।”

    प्रकाश को लगा कि बादल बीच से फट गया है और चीलों की कई पंक्तियाँ उस दर्रे में से होकर दूर उड़ी जा रही हैं—वह चाह रहा है कि दर्रा किसी तरह भर जाए जिससे वे पंक्तियाँ आँखों से ओझल हो जाएँ; मगर दर्रे का मुहाना और-और बड़ा होता जा रहा है। उसके गले से एक अस्पष्ट-सी आवाज़ निकल पड़ी और वह अब्दुल्ला की तरफ़ से आँखें हटाकर चुपचाप वहाँ से चल दिया।

    “बस एक बाज़ी और...!” अपनी आवाज़ की गूँज प्रकाश को स्वयं अस्वाभाविक-सी लगी। उसके साथियों ने हल्का-सा विरोध किया, मगर पत्ते एक बार फिर बँटने लगे।

    कार्ड-रूम तब तक लगभग ख़ाली हो चुका था। कुछ देर पहले तक वहाँ काफ़ी चहल-पहल थी—नाज़ुक हाथों से पत्तों की नाज़ुक चालें चली जा रही थीं और शीशे के नाज़ुक गिलास रखे उठाए जा रहे थे। मगर अब आस-पास चार-चार ख़ाली कुर्सियों से घिरी चौकोर मेज़ें बहुत अकेली और उदास लग रही थीं। पॉलिश की चमक के बावजूद उनमें एक वीरानगी गई थी। सामने की दीवार में बुख़ारी की आग भी कब की ठंडी पड़ चुकी थी। जाली के उस तरफ़ कुछ बुझे-अधबुझे अंगारे ही रह गए थे—सर्दी से ठिठुरकर स्याह पड़ते और राख में गुम होते हुए।

    उसने पत्ते उठा लिए। हर बार की तरह इस बार भी सब बेमेल पत्ते थे—ऐसी बाज़ी कि आदमी फेंककर अलग हो जाए। मगर उसी के अनुरोध से पत्ते बँटे थे, इसलिए वह उन्हें फेंक नहीं सकता था। उसने नीचे से पत्ता उठाया, तो वह और भी बेमेल था। हाथ से कोई भी पत्ता चलकर वह उन पत्तों का मेल बैठाने का प्रयत्न करने लगा।

    बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही थी—पिछली रात जैसी वर्षा हुई थी, उससे भी तेज़। खिड़की के शीशों से टकराती बूँदें बार-बार एक चुनौती लिए हुए आतीं थीं, परंतु सहसा बेबस होकर नीचे को ढुलक जातीं थीं। उन बहती हुई धारों को देखकर लगता था जैसे कई एक चेहरे खिड़की के साथ सटकर अंदर झाँक रहे हों और लगातार रो रहे हों। किसी क्षण हवा से किवाड़ हिल जाते थे, तो वे चेहरे जैसे हिचकियाँ लेने लगते थे। हिचकियाँ बंद होने पर ग़ुस्से से घूरने लगते। उन चेहरों के पीछे अँधेरा छटपटाता हुआ दम तोड़ रहा था।

    “डिक्लेयर!” प्रकाश चौंक गया। उसके हाथ के पत्ते अभी उसी तरह थे—इस बार भी उसे फुल हैंड ही देना था। पत्ते फेंककर उसने पीछे टेक लगा ली और फिर खिड़की से सटे चेहरों को देखने लगा।

    “तुम बहुत ही ख़ुशक़िस्मत हो प्रकाश, सचमुच हममें सबसे ख़ुशक़िस्मत आदमी तुम्हीं हो...!” प्रकाश की आँखें खिड़की से हट आर्इं। पत्ते उठाकर रख दिए गए थे और मेज़ पर हार-जीत का हिसाब किया जा रहा था। हिसाब करने वाला आदमी ही उससे कह रहा था, “कहते हैं न, जो पत्तों में बदक़िस्मत हो, वह ज़िंदगी में ख़ुशक़िस्मत होता है! अब देख लो सबसे ज़्यादा तुम्हीं हारे हो, इसलिए मानना पड़ेगा कि सबसे ख़ुशक़िस्मत आदमी तुम्हीं हो।”

    प्रकाश ने अपने नाम के आगे लिखे गए जोड़ को देखा। पल-भर के लिए उसकी धड़कन बढ़ गई कि जेब में उतने पैसे हैं भी या नहीं। जेब में हाथ डालकर उसने पूरी जेब ख़ाली कर ली। लगभग हारी हुई रक़म के बराबर ही पैसे जेब में थे। रक़म अदा कर देने के बाद दो-एक छोटे सिक्के ही उसके पास में बचे रहे—और उनके साथ वह मुचड़ा हुआ अंतर्देशीय पत्र जो शाम की डाक से आया था और जिसे जेब में रखकर वह क्लब चला आया था। पत्र निर्मला का था जो उसने अब तक खोलकर पढ़ा नहीं था। जेब में पड़े-पड़े वह पत्र काफ़ी मुचड़ गया था। निर्मला के अक्षरों की बनावट पर नज़र पड़ते ही उसके कई-कई उन्मादी चेहरे उसके सामने उभरने लगे—उसके हाथ का एक-एक अक्षर जैसे एक-एक चेहरा हो! घर से चलने के दिन भी वह उसके कितने-कितने चेहरे देखकर आया था! एक चेहरा था जो हँस रहा था, एक था जो रो रहा था; एक बाल खोले ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था और धमकियाँ दे रहा था और एक...एक भूखी आँखों से उसके शरीर को निगलना चाह रहा था! उसने रोज़ के इस्तेमाल का कुछ सामान साथ लाना चाहा था, तो एक चेहरा उसके साथ मल्लयुद्ध करने पर उतारू हो गया था।

    “निर्मला!” उसने हतप्रभ होकर कहा था। “तुम्हें इस तरह गुत्थमगुत्था होते शरम नहीं आती?”

    “क्यों?” निर्मला हँस दी थी। “मरद और औरत रात-दिन गुत्थमगुत्था नहीं होते क्या?”

    वह बिना एक क़मीज़ तक साथ लिए घर से निकल आया था। बनियान, तौलिया,कंघा, क़मीज़ सब कुछ उसने आते हुए रास्ते में ख़रीदा था—यह सोचने के लिए वह नहीं रुका था कि उसके पास जो चार-पाँच सौ रुपए की पूँजी है, वह इस तरह कितने दिन चलेगी! बिछाने-ओढ़ने का सारा सामान भी उसे वहाँ पहुँचकर ही किराये पर लेना पड़ा था...!

    और वहाँ आने के चौथे-पाँचवें दिन से ही निर्मला के पत्र आने आरंभ हो गए थे—वह उसके किसी मित्र के यहाँ जाकर उसका पता लगा आर्इ थी। उन पत्रों में भी निर्मला के वे सब चेहरे ज्यों के त्यों विद्यमान रहते थे...वह सख़्त बीमार है और अस्पताल जा रही है...उसके भाई पुलिस में ख़बर करने जा रहे हैं कि उनका बहनोई लापता हो गया है...वह रात-दिन बेचैन रहती है और दीवारों से पूछती रहती है कि “उसका चाँद कहाँ है”...वह जोगिन का वेश धारण करके जंगलों में जा रही है...दो दिन के अंदर-अंदर पत्र का उत्तर आया, तो उसके भाई उसे हवाई जहाज़ में वहाँ भेज देंगे...उसके छोटे भाई ने उसे बहुत पीटा है कि वह अपने ‘ख़सम’ के पास क्यों नहीं जाती...!

    अन्तर्देशीय पत्र प्रकाश की उँगलियों में मसल गया था। उसे फिर से जेब में डालकर वह उठ खड़ा हुआ। बाहर ड्योढ़ी में कुछ लोग जमा थे—कि बारिश रुके, तो वहाँ से जाएँ। उनके बीच से होकर वह बाहर निकल आया।

    “आप इस बारिश में जा रहे हैं?” किसी ने उससे पूछा। उसने चुपचाप सिर हिला दिया और कच्चे रास्ते पर चलने लगा। सामने केवल ‘नीडोज़ होटल’ की बत्तियाँ जगमगा रही थीं—बाक़ी सब तरफ़, दाएँ-बाएँ और ऊपर-नीचे अँधेरा ही अँधेरा था। क्लब के अहाते से निकलकर वह सड़क पर पहुँचा, तो पानी और भी तेज़ हो गया।

    उसका सिर पूरा भीग गया था और पानी की धारें गले से होकर कपड़ों के अंदर जा रही थीं। हाथ-पैर सुन्न हो रहे थे, मगर आँखों में उसे एक जलन-सी महसूस हो रही थी। कीचड़ से लथपथ पैर रास्ते में आवाज़ करते थे तो शरीर में कोई चीज़ झनझना उठती थी। सहसा एक नई सिहरन उसके शरीर में भर गई। उसे लगा कि वह सड़क पर अकेला नहीं है—कोई और भी अपने नन्हे-नन्हे पाँव पटकता उसके साथ चल रहा है। रास्ते की नाली पर बना लकड़ी का पुल पार करते हुए उसने घूमकर उस तरफ़ देखा। उसके साथ-साथ चल रहा था एक भीगा कुत्ता—कान झटकता हुआ, ख़ामोश और अन्तर्मुख!

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कहानियाँ (पृष्ठ 86)
    • रचनाकार : मोहन राकेश
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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