“आज सात दिन हो गए, पीने को कौन कहे? छुआ तक नहीं! आज सातवाँ दिन है, सरकार! ”
“तुम झूठे हो। अभी तो तुम्हारे कपड़े से महक आ रही है।”
“वह... वह तो कई दिन हुए। सात दिन से ऊपर—कई दिन हुए, अँधेरे में बोतल उँड़ेलने लगा था। कपड़े पर गिर जाने से नशा भी न आया। और आपको कहने का... क्या कहूँ... सच मानिए। सात दिन—ठीक सात दिन से एक बूँद भी नहीं।”
ठाकुर सरदार सिंह हँसने लगे। लखनऊ में लड़का पढ़ता था। ठाकुर साहब भी कभी-कभी वहीं आ जाते। उनको कहानी सुनने का चसका था। खोजने पर यही शराबी मिला। वह रात को, दोपहर में, कभी-कभी सवेरे भी आता। अपनी लच्छेदार कहानी सुनाकर ठाकुर साहब का मनो-विनोद करता।
ठाकुर ने हँसते हुए कहा- “तो आज पिओगे न?”
“झूठ कैसे कहूँ। आज तो जितना मिलेगा, सब पिऊँगा। सात दिन चने-चबेने पर बिताए हैं, किसलिए?”
“अद्भुत! सात दिन पेट काटकर आज अच्छा भोजन न करके तुम्हें पीने की सूझी! यह भी... ”
“सरकार! मौज-बहार की एक घड़ी, एक लंबे दु:खपूर्ण जीवन से अच्छी है। उसकी ख़ुमारी में रूखे दिन काट लिए जा सकते हैं।”
“अच्छा, आज दिन-भर तुमने क्या-क्या किया है?”
“मैंने?—अच्छा सुनिए, सवेरे कुहरा पड़ता था, मेरे धुँआसे कंबल-सा वह भी सूर्य के चारों ओर लिपटा था। हम दोनों मुँह छिपाए पड़े थे।”
ठाकुर साहब ने हँसकर कहा- “अच्छा, तो इस मुँह छिपाने का कोई कारण?”
“सात दिन से एक बूँद भी गले न उतरी थी। भला मैं कैसे मुँह दिखा सकता था? और जब बारह बजे धूप निकली, तो फिर लाचारी थी! उठा, हाथ-मुँह धोने में जो दु:ख हुआ, सरकार, वह क्या कहने की बात है! पास में पैसे बचे थे। चना चबाने से दाँत भाग रहे थे। कट-कटी लग रही थी। पराठे वाले के यहाँ पहुँचा, धीरे-धीरे खाता रहा और अपने को सेंकता भी रहा। फिर गोमती किनारे चला गया! घूमते-घूमते अँधेरा हो गया, बूँदें पड़ने लगीं, तब कहीं भाग के आपके पास आ गया।”
“अच्छा, जो उस दिन तुमने गडरिए वाली कहानी सुनाई थी, जिसमें आसिफ़ुद्दौला ने उसकी लड़की का आँचल भुने हुए भुट्टे के दाने के बदले मोतियों से भर दिया था! वह क्या सच है?”
“सच! अरे, वह ग़रीब लड़की भूख से उसे चबाकर थू-थू करने लगी!... रोने लगी! ऐसी निर्दयी दिल्लगी बड़े लोग कर ही बैठते हैं। सुना है श्री रामचन्द्र ने भी हनुमान जी से ऐसी ही...”
ठाकुर साहब ठठाकर हँसने लगे। पेट पकड़कर हँसते-हँसते लोट गए। साँस बटोरते हुए संभलकर बोले “और बड़प्पन कहते किसे हैं? कंगाल तो कंगाल! गधी लड़की! भला उसने कभी मोती देखे थे, चबाने लगी होगी। मैं सच कहता हूँ, आज तक तुमने जितनी कहानियाँ सुनाई, सब में बड़ी टीस थी। शाहज़ादों के दुखड़े, रंग-महल की अभागिनी बेग़मों के निष्फल प्रेम, करुण कथा और पीड़ा से भरी हुई कहानियाँ ही तुम्हें आती हैं; पर ऐसी हँसाने वाली कहानी और सुनाओ, तो मैं अपने सामने ही बढ़िया शराब पिला सकता हूँ।”
“सरकार! बूढ़ों से सुने हुए वे नवाबी के सोने-से दिन, रंग-रेलियाँ, दुखियों की दर्द-भरी आहें, रंग-महलों में घुल-घुलकर मरने वाली बेग़में, अपने-आप सिर में चक्कर काटती रहती हैं। मैं उनकी पीड़ा से रोने लगता हूँ। अमीर कंगाल हो जाते हैं। बड़े-बड़ों के घमंड चूर धूल में मिल जाते हैं। तब भी दुनियाँ बड़ी पागल है। मैं उसके पागलपन को भुलाने के लिए शराब पीने लगता हूँ, सरकार! नहीं तो यह बुरी बला कौन अपने गले लगाता!”
ठाकुर साहब ऊँघने लगे थे। अँगीठी में कोयला दहक रहा था। शराबी सरदी से ठिठुरा जा रहा था। वह हाथ सेंकने लगा। सहसा नींद से चौंककर ठाकुर साहब ने कहा-
“अच्छा जाओ, मुझे नींद लग रही है। वह देखो, एक रुपया पड़ा है, उठा लो। लल्लू को भेजते जाओ।”
शराबी रुपया उठाकर धीरे से खिसका। लल्लू था ठाकुर साहब का जमादार। उसे खोजते हुए जब वह फाटक पर की बग़लवाली कोठरी के पास पहुँचा, तो सुकुमार कंठ से सिसकने का शब्द सुनाई पड़ा। वह खड़ा होकर सुनने लगा।
“तो सूअर, रोता क्यों है? कुँवर साहब ने दो ही लातें लगाई हैं! कुछ गोली तो नहीं मार दी?” कर्कश स्वर से लल्लू बोल रहा था; किंतु उत्तर में सिसकियों के साथ एकाध हिचकी ही सुनाई पड़ जाती थी। अब और भी कठोरता से लल्लू ने कहा- “मधुआ! जा सो रह, नख़रा न कर, नहीं तो उठूँगा तो खाल उधेड़ दूँगा! समझा न?”
शराबी चुपचाप सुन रहा था। बालक की सिसकी और बढ़ने लगी। फिर उसे सुनाई पड़ा- “ले, अब भागता है कि नहीं? क्यों मार खाने पर तुला है?”
भयभीत बालक बाहर चला आ रहा था! शराबी ने उसके छोटे से सुन्दर गोरे मुँह को देखा। आँसू की बूँदें ढुलक रही थीं। बड़े दुलार से उसका मुँह पोंछते हुए उसे लेकर वह फाटक के बाहर चला आया। दस बज रहे थे। कड़ाके की सर्दी थी। दोनों चुपचाप चलने लगे। शराबी की मौन सहानुभूति को उस छोटे-से सरल हृदय ने स्वीकार कर लिया। वह चुप हो गया। अभी वह एक तंग गली पर रुका ही था कि बालक के फिर से सिसकने की उसे आहट लगी। वह झिड़ककर बोल उठा-
“अब क्या रोता है रे छोकरे?”
“मैंने दिन भर से कुछ खाया नहीं।”
“कुछ खाया नहीं; इतने बड़े अमीर के यहाँ रहता है और दिन भर तुझे खाने को नहीं मिला?”
“यही कहने तो मैं गया था जमादार के पास; मार तो रोज़ ही खाता हूँ। आज तो खाना ही नहीं मिला। कुँवर साहब का ओवरकोट लिए खेल में दिन भर साथ रहा। सात बजे लौटा, तो और भी नौ बजे तक कुछ काम करना पड़ा। आटा रख नहीं सका था। रोटी बनती तो कैसे! जमादार से कहने गया था! भूख की बात कहते-कहते बालक के ऊपर उसकी दीनता और भूख ने एक साथ ही जैसे आक्रमण कर दिया, वह फिर हिचकियाँ लेने लगा।
शराबी उसका हाथ पकड़कर घसीटता हुआ गली में ले चला। एक गन्दी कोठरी का दरवाज़ा ढकेलकर बालक को लिए हुए वह भीतर पहुँचा। टटोलते हुए सलाई से मिट्टी की ढेबरी जलाकर वह फटे कंबल के नीचे से कुछ खोजने लगा। एक पराठे का टुकड़ा मिला! शराबी उसे बालक के हाथ में देकर बोला- “तब तक तू इसे चबा, मैं तेरा गढ़ा भरने के लिए कुछ और ले आऊँ—सुनता है रे छोकरे! रोना मत, रोएगा तो ख़ूब पीटूँगा। मुझे रोने से बड़ा बैर है। पाजी कहीं का, मुझे भी रुलाने का...”
शराबी गली के बाहर भागा। उसके हाथ में एक रुपया था। बारह आने का एक देशी अद्धा और दो आने की चाय... दो आने की पकौड़ी...नहीं-नहीं, आलू-मटर... अच्छा, न सही, चारों आने का माँस ही ले लूँगा, पर यह छोकरा! इसका गढ़ा जो भरना होगा, यह कितना खाएगा और क्या खाएगा। ओह! आज तक तो कभी मैंने दूसरों के खाने का सोच-विचार किया ही नहीं। तो क्या ले चलूँ? पहले एक अद्धा तो ले लूँ।”
इतना सोचते-सोचते उसकी आँखों पर बिजली के प्रकाश की झलक पड़ी। उसने अपने को मिठाई की दुकान पर खड़ा पाया। वह शराब का अद्धा लेना भूलकर मिठाई-पूरी ख़रीदने लगा। नमकीन लेना भी न भूला। पूरा एक रुपये का सामान लेकर वह दुकान से हटा। जल्द पहुँचने के लिए एक तरह से दौड़ने लगा। अपनी कोठरी में पहुँचकर उसने दोनों की पाँत बालक के सामने सजा दी। उनकी सुगंध से बालक के गले में एक तरावट पहुँची। वह मुस्कराने लगा।
शराबी ने मिट्टी की गगरी से पानी उँड़ेलते हुए कहा- “नटखट कहीं का, हँसता है, सीधी बास नाक में पहुँची न! ले ख़ूब, ठूँसकर खा ले, और फिर रोया कि पिटा!”
दोनों ने, बहुत दिन पर मिलने वाले दो मित्रों की तरह साथ बैठकर भरपेट खाया। सीली जगह में सोते हुए बालक ने शराबी का पुराना बड़ा कोट ओढ़ लिया था। जब उसे नींद आ गई, तो शराबी भी कंबल तानकर बड़बड़ाने लगा- “सोचा था, आज सात दिन पर भरपेट पीकर सोऊँगा, लेकिन यह छोटा-सा रोना पाजी, न जाने कहाँ से आ धमका?”
* * * *
एक चिंतापूर्ण आलोक में आज पहले पहल शराबी ने आँख खोलकर कोठरी में बिखरी हुई दारिद्रय की विभूति को देखा और देखा उस घुटनों से ठुड्डी लगाए हुए निरीह बालक को। उसने तिलमिलाकर मन-ही-मन प्रश्न किया-“किसने ऐसे सुकुमार फूल को कष्ट देने के लिए निर्दयता की सृष्टि की? आह री नियति! तब इसको लेकर मुझे घर-बारी बनना पड़ेगा क्या? दुर्भाग्य! जिसे मैंने कभी सोचा भी न था। मेरी इतनी माया-ममता-जिस पर, आज तक केवल बोतल का ही पूरा अधिकार था-इसका पक्ष क्यों लेने लगी? इस छोटे-से पाजी ने मेरे जीवन के लिए कौन-सा इंद्रजाल रचने का बेड़ा उठाया है? तब क्या करूँ? कोई काम करूँ? कैसे दोनों का पेट चलेगा? नहीं, भगा दूँगा इसे, आँख तो खोले!”
बालक अँगड़ाई ले रहा था। वह उठ बैठा। शराबी ने कहा- “ले उठ, कुछ खा ले, अभी रात का बचा हुआ है; और अपनी राह देख! तेरा नाम क्या है रे?”
बालक ने सहज हँसी हँसकर कहा- “मधुआ! भला हाथ-मुँह भी न धोऊँ। खाने लगूँ? और जाऊँगा कहाँ?”
“आह! कहाँ बताऊँ इसे कि चला जाए! कह दूँ कि भाड़ में जा; किंतु वह आज तक दु:ख की भठ्ठी में जलता ही तो रहा है। तो... वह चुपचाप घर से झल्लाकर सोचता हुआ निकला- “ले पाजी, अब यहाँ लौटूँगा ही नहीं। तू ही इस कोठरी में रह!”
शराबी घर से निकला। गोमती-किनारे पहुँचने पर उसे स्मरण हुआ कि वह कितनी ही बातें सोचता आ रहा था, पर कुछ भी सोच न सका। हाथ-मुँह धोने में लगा। उजली धूप निकल आई थी। वह चुपचाप गोमती की धारा को देख रहा था। धूप की गर्मी से सुखी होकर वह चिंता भुलाने का प्रयत्न कर रहा था कि किसी ने पुकारा-
“भले आदमी रहे कहाँ? सालों पर दिखाई पड़े। तुमको खोजते-खोजते मैं थक गया।”
शराबी ने चौंककर देखा। वह कोई जान-पहचान का तो मालूम होता था, पर कौन है, यह ठीक-ठीक न जान सका।
उसने फिर कहा- “तुम्हीं से कह रहे हैं। सुनते हो, उठा ले जाओ अपनी सान धरने की कल, नहीं तो सड़क पर फेंक दूँगा। एक ही तो कोठरी, जिसका मैं दो रुपये किराया देता हूँ, उसमें क्या मुझे अपना कुछ रखने के लिए नहीं है?”
“ओ हो? रामजी, तुम हो भाई, मैं भूल गया था। तो चलो, आज ही उसे उठा लाता हूँ।” कहते हुए शराबी ने सोचा-अच्छी रही, उसी को बेचकर कुछ दिनों तक काम चलेगा।
गोमती नहाकर, रामजी उसका साथी, पास ही अपने घर पर पहुँचा। शराबी को कल देते हुए उसने कहा- “ले जाओ, किसी तरह मेरा इससे पिंड छूटे।”
बहुत दिनों पर आज उसको कल ढोना पड़ा। किसी तरह अपनी कोठरी में पहुँचकर उसने देखा कि बालक बैठा है। बड़बड़ाते हुए उसने पूछा- “क्यों रे, तूने कुछ खा लिया कि नहीं?”
“भरपेट खा चुका हूँ, और वह देखो तुम्हारे लिए भी रख दिया है।” कहकर उसने अपनी स्वाभाविक मधुर हँसी से उस रूखी कोठरी को तर कर दिया। शराबी एक क्षण चुप रहा। फिर चुपचाप जल-पान करने लगा। मन-ही-मन सोच रहा था—यह भाग्य का संकेत नहीं, तो और क्या है? चलूँ फिर लेकर सान देने का काम चलता करूँ। दोनों का पेट भरेगा। वही पुराना चरखा फिर सिर पड़ा। नहीं तो, दो बातें क़िस्सा-कहानी इधर-उधर की कहकर अपना काम चला ही लेता था? पर अब तो बिना कुछ किए घर नहीं चलने का। जल पीकर बोला- “क्यों रे मधुआ, अब तू कहाँ जाएगा?”
“कहीं नहीं।”
“यह लो, तो फिर क्या यहाँ जमा गड़ी है कि मैं खोद-खोदकर तुझे मिठाई खिलाता रहूँगा?”
“तब कोई काम करना चाहिए।”
“करेगा?”
“जो कहो?”
“अच्छा, तो आज से मेरे साथ-साथ घूमना पड़ेगा। यह कल तेरे लिए लाया हूँ! चल, आज से तुझे सान देना सिखाऊँगा। कहाँ, इसका कुछ ठीक नहीं। पेड़ के नीचे रात बिता सकेगा न!”
“कहीं भी रह सकूँगा; पर उस ठाकुर की नौकरी न कर सकूँगा?”
शराबी ने एक बार स्थिर दृष्टि से उसे देखा। बालक की आँखे दृढ़ निश्चय की सौगंध खा रही थीं।
शराबी ने मन-ही-मन कहा- बैठे-बैठाए यह हत्या कहाँ से लगी? अब तो शराब न पीने की मुझे भी सौगंध लेनी पड़ी।
वह साथ ले जाने वाली वस्तुओं को बटोरने लगा। एक गट्ठर का और दूसरा कल का, दो बोझ हुए।
शराबी ने पूछा- “तू किसे उठाएगा?”
“जिसे कहो।”
“अच्छा, तेरा बाप जो मुझको पकड़े तो?”
“कोई नहीं पकड़ेगा, चलो भी। मेरे बाप कभी मर गए।”
शराबी आश्चर्य से उसका मुँह देखता हुआ कल उठाकर खड़ा हो गया। बालक ने गठरी लादी। दोनों कोठरी छोड़कर चल पड़े।
- पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 22)
- संपादक : श्रीपत राय
- रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
- प्रकाशन : सरस्वती प्रकाशन, बनारस
- संस्करण : 1953
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