एकबारगी यह समझ पाना संभव नहीं था कि क्या हुआ और कैसे हुआ कि दोनों बहनें—एलिज़ाबेथ और कैटरीना पूरे तीस बरस तक कस्बे के बाक़ी बाशिंदों से और तकरीबन हर प्राणी से एकदम कटकर अलग-थलग ज़िंदगी बसर करती रहीं।
दोनों बहनें किसी बड़े ज़मींदार की बेटियाँ थीं और आलम यह था कि प्रथम विश्वयुद्ध से पहले, आस्ट्रिया-हंगरी युग में, अभिजात वर्ग के लोग और बड़े-बड़े अफ़सर-अहलकार तक इनके तलुवे चाटने को उद्यत रहते थे। हालाँकि वे अपनी ख़ूबसूरती की बदौलत कम, कुलीन घराने में जन्म लेने और अपनी धन-दौलत की वजह से ज़्यादा जानी जाती थीं। सुनते हैं कि कभी इनकी मँगनी भी हुई थी, लेकिन पुराने राजतंत्र ने अंतिम घड़ियाँ गिनते हुए जितने मोरचे खोले थे, उनमें से किसी मोरचे पर इनके मंगेतर खेत रहे थे। सो, दोनों बहनें युद्धकाल में अपनी जातीय-प्रथा के अनुसार, सामाजिक प्रतिष्ठा और शिक्षा-दीक्षा की लाज रखते हुए और वैधव्य की-सी पीड़ा झेलते हुए सतवंती नारी की तरह दुनिया-जहान से कटकर जीवन व्यतीत कर रही थीं। क़स्बे के लोग तो उन दिनों भी यह मानते थे कि ये बहनें एक-दूसरे से कभी जुदा नहीं हो सकतीं, क्योंकि वे दो देह, एक प्राण थीं ‘दो बहनें’, ‘वो दो’, हालाँकि वे जुड़वाँ नहीं थीं। एलिज़ाबेथ साल-दो साल बड़ी थी कैटरीना से। क़स्बे के लोग देखते कि हमेशा वे पढ़ती रहती हैं, गिरजे में साथ-साथ जाती हैं, नाच-गाने में एक-दूसरे का साथ देती हैं और संगीत का रियाज़ भी एकसाथ करती हैं। बड़ी बहन वायलिन बजाती थी और छोटी बहन पियानो। संगीत ही इनका एकमात्र व्यापार था, जिसमें इन्होंने कभी कोताही नहीं की और इसी में उन्हें सुख-शांति मिलती थी, मगर उनके अस्तित्व के बारे में पूरा भेद खुला कहीं युद्ध की समाप्ति और मंगेतरों के देहान्त के उपरांत।
युद्ध थमने के बाद दोनों बहनों की दिनचर्या में कोई कमी नहीं आई थी, बल्कि उसमें बढ़ोतरी ही हुई थी, यह लक्ष्य किया था पास-पड़ोस में रहने वालों ने। यहाँ तक कि दोनों बहनों में साथ-साथ रहने की भावना और सुदृढ़ होती चली गई थी। इनकी माँ का देहांत पहले ही हो चुका था और पिता भी युद्ध के बाद स्वर्ग सिधार गए थे, जिस कारण दोनों बहनें और भी अलग-थलग पड़ गई थीं। फिर सगे-संबंधियों की लोभी दृष्टि भी इन पर लगी थी और कृषि सुधार की मार भी इन्हें झेलनी पड़ी थी और ऐसा करने का न तो इन्हें कोई अनुभव था न ही योग्यता। नई शासन-व्यवस्था में और परिवर्तित सामाजिक परिस्थितियों में न केवल इनकी धन-संपत्ति जाती रही थी, बल्कि सारा परिवेश ही बदल गया था। जिन लोगों में वे उठती-बैठती थीं, जिन लोगों से मेलजोल था इनका, यानी आस्ट्रिया और हंगरी के सभी ज़मींदार और ओहदेदार, वे सब स्वदेश हिजरत कर गए थे और सरबिया के जितने भी अभिजात वर्ग के लोग बचे रह गए थे, वे या तो साहूकारी या सट्टेबाजी में लिप्त थे या ताश के पत्तों पर या दारा और दारू पर दौलत लुटा रहे थे। दोनों बहनों को ऐसी कोई ठौर दिखाई नहीं देती थी जहाँ वे जातीं, कोई ऐसा शख़्स नहीं था जिसके संग उठती-बैठतीं। न तो इनमें इतना जीवट था, कि यहाँ-वहाँ डोलती फिरतीं, न वे नगर-वधुएँ थीं कि इधर-उधर मुँह मारती फिरतीं। सो, वे अपने उस घर के निचले तले पर ही सीमित संकुचित होकर रह गईं जिसका ओर-छोर नहीं था और जो छोटे-से कस्बे के मुहाने पर स्थित था और चारों तरफ़ उसके घनी बग़िया थी और ईंट की चहारदीवारी।
इस मकान में ये बहनें दूसरे विश्वयुद्ध शुरू होने तक और उसके दौरान भी टिकी रहीं और बाहर भी निकलतीं तो बहुत कम और जब कभी निकलती भी थीं तो दोनों एकसाथ निकलती थीं। फिर इनके परिचित या सगे-संबंधी भी बहुत कम इनसे मिलने आते थे। इस प्रकार, विवाह की उम्र इनकी बीत गई। अब ऐसा कोई आदमी नहीं था, जो आकर इनकी खोज-ख़बर लेता। इनकी जीवन-शैली के बारे में किसी को इल्म ही न होता, यदि घर की नौकरानियाँ लंतरानी न करती फिरतीं या इनके संगीत की स्वर-लहरियाँ घर से उठकर चहारदीवारी फांद बाहर न सुनाई पड़तीं।
दोनों बहनों के पास जितनी जमा-पूँजी थी और जितनी भी जायदाद बच गई थी, उसमें कारिंदे सेंध लगाने लगे थे, इसका पूरा इल्म था दोनों बहनों को। लेकिन कुछ करते-धरते नहीं बनता था इनसे, क्योंकि यदि नए कारिंदे रखतीं तो वे भी उसी थैली के चट्टे-बट्टे साबित होते, इनसे भी ज़्यादा कुटिल व्यवहार करते। इस प्रकार की स्थितियों के कारण वे देखते ही देखते नाम की ही ज़मीन की मालकिन रह गईं। कारिंदों को इनकी वास्तविक आय का ज्ञान था, जिसे बटोरकर वे इन्हें थोड़ा-थोड़ा करके इतना ही देते थे कि वे सम्मान के साथ जीवन बिता सकें।
हालाँकि कारिंदे समझते थे कि दोनों बहनें ‘नाकारा’ हैं और इन्हें कुछ भी पाने का कोई हक़ नहीं है, फिर भी कुछ न कुछ उनकी झोली में डालते रहते। हाँ, इतनी सावधानी ज़रूर बरतनी पड़ती थी कि कहीं दोनों बहनें इतनी नाराज़ न हो जाएँ कि भड़क उठें और अपने अधिकारों का प्रयोग करके उनकी जगह दूसरे कारिंदे रख लें। कारिंदों को सबसे बड़ा ख़तरा इस बात का था कि पहले वाले बड़े-बड़े ज़मींदार कहीं चिढ़ न जाएँ, उनके चरित्र और स्वभाव से वे भली-भाँति परिचित थे। संपत्तियों की और क़िलों की हालत ख़स्ता थी और वे कौड़ियों के दाम बिक रहे थे, लेकिन दोनों बहनें कारिंदों पर निर्भर थीं, क्योंकि खेती-बाड़ी का कोई इल्म उन्हें था नहीं और इससे भी अधिक वित्तीय मामलों में इनकी कोई गति नहीं थी। अब बुढ़ा भी चली थीं और इतनी चिड़चिड़ी हो गई थीं कि बात-बेबात नौकरों-नौकरानियों पर झल्लाने लगती थीं; इसके बावजूद उन्होंने अपनी सज-धज को नहीं छोड़ा और इज़्ज़त-आबरू को भी बट्टा नहीं लगने दिया। शायद जीवन के आख़िरी दिनों तक इनकी गुज़र-बसर होती रहती, यदि इनके स्वभाव और आकांक्षाओं के विपरीत कुछ परिस्थितियाँ न उत्पन्न हो गई होतीं और हालात भी बदल न गए होते।
बीस बरस तक ईंट की चहारदीवारी और उसके भीतर ईंट के ही घर से संगीत की स्वर लहरियाँ सुनाई पड़ती रहीं। उस छोटे कस्बे में गाने-बजाने वाला शायद ही कोई था इसलिए दोनों बहनें युगल-वादन करतीं, फिर कोई संगीत रसिक चिराग ढूँढे भी न मिलता। हाँ, लोक-संगीत के पारखी ज़रूर थे, लेकिन धीरे-धीरे पास-पड़ोस के लोग इन बहनों के संगीत से इनकी मनःस्थिति का, इनकी आय के परिणाम का जायज़ा लेते रहते थे और उसी से पता चलता था कि इनका जन्मदिन कब आता है?
वे यह भी नज़र रखते कि इनसे मिलने-जुलने कौन आता-जाता है? नि:संदेह ये स्वर-लहरियाँ इनके संगीत के टुकड़े मात्र थे, जिनमें विविधता और सहजता थी और इन्हीं से पता चलता था बाहर की दुनिया को कि वे ज़िंदा हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध ने तो दोनों बहनों को और भी गोशा-नशीं और मोहताज बना दिया। कारिंदों ने जो लूट-खसोट की, उसके लिए वे आकर दलील यह देते थे कि कब्ज़ा जमाने वाली सेनाओं की अपेक्षाओं को पूरा करना पड़ता है। फिर किसान लोग भी लूट-मार कर रहे हैं और बाग़ी लोग भी धर-पकड़ करते रहते हैं। पैसे की तो कीमत ही नहीं रही थी और दोनों बहनों को ज़मीन की पैदावार और एक बूढ़ी औरत के सहारे दिन काटने पड़ रहे थे। इस औरत ने इनके माता-पिता की भी सेवा की थी। दोनों बहनें न तो कहीं आती-जाती थीं और यदा-कदा ही कोई परिचित उन दिनों इनसे मिलने आता था। यहाँ तक कि कब्ज़ा ज़माने वाली फ़ौजों ने भी इनके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की, क्योंकि कोई मोरचाबंदी उस छोटे क़स्बे में की नहीं गई थी, जिससे अफ़सरों के लिए कमरे वगैरह हथियाए जाते। केवल संगीत ही ऐसा स्रोत था, जिससे इन बहनों के बारे में कोई जानकारी मिलती रहती थी और यह भी कहा जाता था कि इनका संगीत भी उन दिनों एकदम ठंडा, मंदा और विषण्ण होता चला गया था।
जब युद्ध समाप्त हुआ और नई क्रांतिकारी सरकार स्थापित हुई, तो ये बहनें और भी गुमनामी में चली गई, क्योंकि अब किसी की कोई दिलचस्पी इनमें नहीं रही थी। क़स्बे के लोगों को अपने ही दुर्भाग्य से पिंड छुड़ाना दुश्वार हो रहा था या वे अपने में ही मगन रहते थे।
फिर नई कृषि-नीतियों के कारण उन लोगों के पास क़रीब-क़रीब साढ़े सात एकड़ भूमि ही रहने दी गई थी, जो ख़ुद खेती-बाड़ी नहीं करते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों बहनों के पास जो धन-संपत्ति बची रह गई थी, उससे और अपनी सारी आय से वे रातोंरात वंचित हो गईं, लेकिन जब मकानों की कमी पेश आई तो सरकार के इनके घर में जो जगह फ़ालतू पड़ी थी, उसे हथिया लिया। यहाँ आकर पता चला कि दोनों बहनों का क्या हश्र हुआ?
पास-पड़ोस के लोग देखा करते थे कि कोई किसान है, जो इनके यहाँ आता-जाता है। उसी किसान ने इनकी कुछेक ज़मीन पट्टे पर ले ली थी, जो कृषि सुधार लागू होने के बाद इनके पास बची रह गई थी। वह आता था प्राय: दोपहिया गाड़ी में, कभी-कभी एक छकड़े में बैठकर भी। आकर अहाते का गेट खोलता और घोड़ों को बग़ीचे में खुला छोड़ देता। यह किसान ज़्यादा देर तक तो वहाँ ठहरता नहीं था और लोग देखते थे कि जब वहाँ से निकलता था तो छकड़े पर तिरपाल से कोई चीज़ ढककर ले जा रहा होता। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि एक-दो अन्य किसान उसके संग आते। जब वहाँ से निकलकर जाते तो तिरपाल के नीचे से किसी फ़र्नीचर का कोना दिखाई पड़ता और अंत में एक दिन पियानो की टाँगें भी लोगों ने देखीं।
विपदा के दिनों में कोई न कोई सफी या मसीहा इन्हें हमेशा मिल जाता था—जो या तो कोई किसान होता या कोई दूसरा व्यक्ति। उसी तरह यह ख़रीदार भी मिल गया था इन्हें। एक यही आदमी था, जिसके ऊपर ये बहनें अब भी आश्रित थीं। वह जाता और इनके लिए सौदा-सुल्फ़ वगैरह लेकर आता। बाहरी के साथ वही मसालची का काम भी करता। उसी की मार्फ़त सरकार को सारी जानकारी मिली कि दोनों बहनों का अंत कैसे हुआ, क्योंकि ऐसा कोई आदमी नहीं था, जिसने सरकारी कामों के सिवा उनमें कोई दिलचस्पी ली हो।
यही किसान था, जो इन बहनों को बताया करता कि इर्द-गिर्द किस क़िस्म के परिवर्तन हो रहे हैं। उनके खाने-पीने का सामान भी वही लाया करता और एवज में ये बहनें उसे वस्त्रों और घरेलू साज-सामान की शक्ल में अदायगी करतीं। अब तो वे पहले से भी कम जान पातीं कि कीमतें किधर जा रही हैं, बाज़ार-मंडी के हालात क्या हैं, दुनिया किधर जा रही है? हमेशा उलझन में रहतीं। बूढ़ी नौकरानी भी चल बसी थी। यह किसान ही उसके शव को लेकर गया था और उसकी अंत्येष्टि का ख़र्च भी उसी ने अपनी गिरह से दिया था।
कुछ महीनों के बाद यही किसान फ़र्नीचर, घरेलू सामान, झाड़-फानूस, किताबें वगैरह भी ले गया, इन चीज़ों को क़स्बे में ले जाकर उसने औने-पौने दामों पर बेचा, तिस पर भी काफ़ी मुनाफ़ा कमाया। अंतत: उसने बाक़ी बची ज़मीन भी उनसे ख़रीद ली, इसके लिए वह वकील और गवाह भी ले आया था और सारी कार्रवाई उसने कानूनी तरीक़े से पूरी करवा ली थी।
“वे मुझे”, किसान कहता, “अपना मसीहा समझती थीं और मैं ही हूँ जिसने उनका उद्धार भी किया। वे मुझे ‘हमारा मसीहा’ कहती थीं। मैंने कभी भी उनसे ऐसी कोई चीज़ नहीं ली, जो उन्होंने अपनी इच्छा से मुझे नहीं दी। ज़माना ऐसा आया है कि कोई चीज़ दाम पर नहीं मिलती, आहार मानव जीवन है और केवल उसी का मोल है। मैं उन्हें खिलाता-पिलाता और सब चीज़ों के बारे में बताता, क्योंकि बेचारी लड़कियों को बाहर झाँकने में भी ख़ौफ़ आता था, मानो गलियाँ-कूचे उन्हें काट खाएँगे।”
“युवक-युवतियाँ आंदोलन करते हुए जब जुलूस बनाकर चलते और गाते हुए जाते तो उनके स्वरों को वे कान लगाकर सुनतीं, उनके प्रयाण गीतों की शब्दावली को समझतीं तो एकाएक रो पड़तीं और सारे घर में बिलखती हुई डोलती रहतीं, ‘दुनिया उलट गई है। दुनिया दरहम-बरहम हो गई है!’ मैं उनसे कहता, ‘प्यारी महिलाओं! दुनिया उलट-पुलट नहीं गई है, तुम बाहर तो कभी निकलती ही नहीं हो, किसी से मिलती-जुलती नहीं हों और अपने माँ-बाप की तरह ही ज़िंदगी बसरकर रही हो।’ और वे जवाब देती थीं। ‘नहीं, नहीं, दुनिया उलट गई है! दुनिया दरहम-बरहम हो गई है!”
इस किसान ने यह तय पाया था कि साढ़े सात एकड़ ज़मीन का दाम वह क़िस्तों में चुकता करेगा, लेकिन क़िस्तों की रक़म इन स्त्रियों की रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए काफ़ी नहीं थी। किसान भी क़समें खाया करता कि इन्हें वह जो सौदा-सुल्फ़ वगैरह लाकर देता है, उनका दाम काले बाज़ार के दामों से अधिक नहीं लेता, लेकिन जिनके पास आमदनी का कोई निश्चित साधन नहीं था, उन्हें खाने-पीने की ये चीज़ें महँगी लगती थीं, यहाँ तक कि दुर्लभ भी। नतीजतन दोनों बहनों को घर के बर्तन-भांडे तक ठिकाने लगाने को विवश होना पड़ा था।
“पागल औरतें”, किसान कहता, “हैं तो भली औरतें लेकिन पगला गई हैं। किसी चीज़ के लिए आँसू नहीं टपकाए इन्होंने लेकिन जब पियानो और वायलिन जाने लगीं तो रोना-धोना शुरू कर दिया। मेरा तो मन ही बुझ गया जब मैंने देखा कि अब इनका संगीत कभी सुनाई नहीं देगा लेकिन मैं लाचार था। मेरे भी बीवी-बच्चे हैं, मुसीबत के दिन हैं और मैं भी ग़रीब हूँ। मैं उन्हें सेंत-मेंत में तो कोई चीज़ दे नहीं सकता था। पियानो को लेकर तो मैं मुसीबत में ही फँस गया था।
युवकों का जो संगठन है न, उसने मुझ पर शक किया। ‘अरे, तू तो किसान है, पियानो कहाँ से उड़ा लाया? ज़रूर ही किसी बुर्जुआ का या किसी दूसरे आदमी का उठाकर लाया होगा, राष्ट्र की संपत्ति में से चुराकर लाया होगा’ मैंने बहुतेरा समझाने की कोशिश की उन्हें, ‘ये उन्होंने ही मुझे दिया है, आप लोग जाकर ख़ुद उनसे दरियाफ्त कर सकते हैं।’ उन्होंने मोल-तोल करके पियानो मुझसे ख़रीद लिया। क़रीब-क़रीब सेंत-मेंत में हथिया लिया। जहाँ तक वायलिन का ताल्लुक है, वह मैंने एक जिप्सी के हाथ बेच दिया, जिप्सी लोग इस तरह की चीज़ों के दीवाने होते हैं और फिर, फिर मुझे कुछ पता नहीं कि उन बहनों का क्या हुआ? अब कोई चीज़ बची नहीं थी, उनके पास जिसे वे बेच खातीं और मुझे डर इस बात का था कि सरकारी कर्मचारी मुझ पर शक-शुबह करेंगे, क्योंकि वे तो बुर्जुआ लोगों से भी गए-बीते हैं, बदतर हैं। इसलिए फिर उधर मैंने मुँह नहीं किया।”
अब आवास निगम के अधिकारी जब उस घर में गए तो उन्हें कोई जवाब नहीं मिला, लेकिन दरवाज़े-खिड़कियाँ तोड़ने की नौबत नहीं आई, क्योंकि एक भी खिड़की नहीं बची थी, कोई दरवाज़ा नहीं बचा था। यहाँ तक कि लकड़ी का फ़र्श तक भी नदारद था और दीवारों पर कोट वगैरह टाँगने के जो टांड लगे रहते थे, वे भी उखाड़ लिए गए थे। मकान ख़ाली पड़ा था, कोई दिखाई नहीं पड़ता था। दोनों बहनों के शव मौजूद थे, जो सड़ने-गलने लगे थे। तन के चीवर और बिस्तर के गद्दे तक बिक गए थे। इसके बावजूद वे भूखी-प्यासी मरी थीं, लेकिन दोनों बहनों ने घर के बाहर उस दुनिया में क़दम नहीं रखा, जिसे वे समझ नहीं पाई थीं और जो दुनिया उन्हें समझा नहीं पाई थी।
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yahi kisan tha, jo in bahnon ko bataya karta ki ird gird kis qism ke parivartan ho rahe hain. unke khane pine ka saman bhi vahi laya karta aur evaj mein ye bahnen use vastron aur gharelu saaj saman ki shakl mein adayagi kartin. ab to ve pahle se bhi kam jaan patin ki kimten kidhar ja rahi hain, bazar manDi ke halat kya hain, duniya kidhar ja rahi hai? hamesha uljhan mein rahtin. buDhi naukarani bhi chal basi thi. ye kisan hi uske shav ko lekar gaya tha aur uski antyeshti ka kharch bhi usi ne apni girah se diya tha.
kuch mahinon ke baad yahi kisan farnichar, gharelu saman, jhaaD phanus, kitaben vagairah bhi le gaya, in chizon ko qasbe mein le jakar usne aune paune damon par becha, tis par bhi kafi munafa kamaya. anttah usne baqi bachi zamin bhi unse kharid li, iske liye wo vakil aur gavah bhi le aaya tha aur sari karrvai usne kanuni tariqe se puri karva li thi.
“ve mujhe”, kisan kahta, “apna masiha samajhti theen aur main hi hoon jisne unka uddhaar bhi kiya. ve mujhe ‘hamara masiha’ kahti theen. mainne kabhi bhi unse aisi koi cheez nahin li, jo unhonne apni ichchha se mujhe nahin di. zamana aisa aaya hai ki koi cheez daam par nahin milti, ahar manav jivan hai aur keval usi ka mol hai. main unhen khilata pilata aur sab chizon ke bare mein batata, kyonki bechari laDakiyon ko bahar jhankne mein bhi khauf aata tha, manon galiyan kuche unhen kaat khayenge.
“yuvak yuvatiyan andolan karte hue jab julus banakar chalte aur gate hue jate to unke svron ko ve kaan lagakar suntin, unke pryaan giton ki shabdavali ko samajhtin to ekayek ro paDtin aur sare ghar mein bilakhti hui Dolti rahtin, ‘duniya ulat gai hai. duniya darham barham ho gai hai!’ main unse kahta, ‘pyari mahilaon! duniya ulat pulat nahin gai hai, tum bahar to kabhi nikalti hi nahin ho, kisi se milti julti nahin hon aur apne maan baap ki tarah hi zindagi basarkar rahi ho. ’ aur ve javab deti theen. ‘nahin, nahin, duniya ulat gai hai! duniya darham barham ho gai hai!”
is kisan ne ye tay paya tha ki saDhe saat ekaD zamin ka daam wo qiston mein chukta karega, lekin qiston ki raqam in striyon ki rozmarra ki zarurton ke liye kafi nahin thi. kisan bhi kasmen khaya karta ki inhen wo jo sauda sulph vagairah lakar deta hai, unka daam kale bazar ke damon se adhik nahin leta, lekin jinke paas amdani ka koi nishchit sadhan nahin tha, unhen khane pine ki ye chizen mahngi lagti theen, yahan tak ki durlabh bhi. natijatan donon bahnon ko ghar ke bartan bhanDe tak thikane lagane ko vivash hona paDa tha.
pagal aurten”, kisan kahta, “hain to bhali aurten lekin pagla gai hain. kisi cheez ke liye ansu nahin tapkaye inhonne lekin jab piyano aur vayalin jane lagin to rona dhona shuru kar diya. mera to man hi bujh gaya jab mainne dekha ki ab inka sangit kabhi sunai nahin dega lekin main lachar tha. mere bhi bivi bachche hain, musibat ke din hain aur main bhi gharib hoon. main unhen sent ment mein to koi cheez de nahin sakta tha. piyano ko lekar to main musibat mein hi phans gaya tha.
yuvkon ka jo sangthan hai na, usne mujh par shak kiya. ‘are, tu to kisan hai, piyano kahan se uDa laya? zarur hi kisi burjua ka ya kisi dusre adami ka uthakar laya hoga, raashtr ki sampatti mein se churakar laya hoga’ mainne bahutera samjhane ki koshish ki unhen, ‘ye unhonne hi mujhe diya hai, aap log jakar khud unse dariyapht kar sakte hain. ’ unhonne mol tol karke piyano mujhse kharid liya. qarib qarib sent ment mein hathiya liya. jahan tak vayalin ka talluk hai, wo mainne ek jipsi ke haath bech diya, jipsi log is tarah ki chizon ke divane hote hain aur phir, phir mujhe kuch pata nahin ki un bahnon ka kya hua? ab koi cheez bachi nahin thi, unke paas jise ve bech khatin aur mujhe Dar is baat ka tha ki sarkari karmachari mujh par shak shubah karenge, kyonki ve to burjua logon se bhi ge bite hain, badaltar hai. isliye phir udhar mainne munh nahin kiya. ”
ab avas nigam ke adhikari jab us ghar mein ge to unhen koi javab nahin mila, lekin darvaze khiDkiyan toDne ki naubat nahin aai, kyonki ek bhi khiDki nahin bachi thi, koi darvaza nahin bacha tha. yahan tak ki lakDi ka farsh tak bhi nadarad tha aur divaron par kot vagairah tangane ke jo taanD lage rahte the, ve bhi ukhaaD liye ge the. makan khali paDa tha, koi dikhai nahin paDta tha. donon bahnon ke shav maujud the, jo saDne galne lage the. tan ke chivar aur bistar ke gadde tak bik ge the. iske bavjud ve bhukhi pyasi mari theen, lekin donon bahnon ne ghar ke bahar us duniya mein kadam nahin rakha, jise ve samajh nahin pai theen aur jo duniya unhen samjha nahin pai thi.
ekbargi ye samajh pana sambhav nahin tha ki kya hua aur kaise hua ki donon bahnen—elijabeth aur kaitrina pure tees baras tak kasbe ke baqi bashindon se aur taqriban har prani se ekdam katkar alag thalag zindagi basar karti rahin.
donon bahnen kisi baDe zamindar ki betiyan theen aur aalam ye tha ki pratham vishvayuddh se pahle, astriya hangri yug mein, abhijat varg ke log aur baDe baDe afsar ahalkar tak inke taluve chatne ko udyat rahte the. halanki ve apni khubsurti ki badaulat kam, kulin gharane mein janm lene aur apni dhan daulat ki vajah se zyada jani jati theen. sunte hain ki kabhi inki mangni bhi hui thi, lekin purane rajtantr ne antim ghaDiyan ginte hue jitne morche khole the, unmen se kisi morche par inke mangetar khet rahe the. so, donon bahnen yuddhakal mein apni jatiy pratha ke anusar, samajik pratishtha aur shiksha diksha ki laaj rakhte hue aur vaidhavya ki si piDa jhelte hue satvanti nari ki tarah duniya jahan se katkar jivan vyatit rahin. qasbe ke log to un dinon bhi ye mante the ki ye bahnen ek dusre se kabhi juda nahin ho saktin, kyonki ve do deh, ek praan theen ‘do bahnen’, ‘vo do’, halanki ve juDvan nahin theen. elijabeth saal do saal baDi thi. kaitrina se. qasbe ke log dekhte ki hamesha ve paDhti rahti hain, girje mein saath saath jati hain, naach gane mein ek dusre ka saath deti hain aur sangit ka riyaz bhi eksaath karti hain. baDi bahan vayalin bajati thi aur chhoti bahan piyano. sangit hi inka ekmaatr vyapar tha, jismen inhonne kabhi kotahi nahin ki aur isi mein unhen sukh shanti milti thi, magar unke astitv ke bare mein pura bhed khula kahin yuddh ki samapti aur mangetron ke dehant ke upraant.
yuddh thamne ke baad donon bahnon ki dincharya mein koi kami nahin aai thi, balki usmen baDhotri hi hui thi, ye lakshya kiya tha paas paDos mein rahne valon ne. yahan tak ki donon bahnon mein saath saath rahne ki bhavna aur sudriDh hoti chali gai thi. inki maan ka dehant pahle hi ho chuka tha aur pita bhi yuddh ke baad svarg sidhar ge the, jis karan donon bahnen aur bhi alag thalag paD gai theen. phir sage sambandhiyon ki lobhi drishti bhi in par lagi thi aur krishi sudhar ki maar bhi inhen jhelni paDi thi aur aisa karne ka na to inhen koi anubhav tha na hi yogyata. nai shasan vyavastha mein aur parivartit samajik paristhitiyon mein na keval inki dhan sampatti jati rahi thi, balki sara parivesh hi badal gaya tha. jin logon mein ve uthti baithti theen, jin logon se meljol tha inka, yani astriya aur hangri ke sabhi zamindar aur ohadedar, ve sab svadesh hijrat kar ge the aur sarabiya ke jitne bhi abhijat varg ke log bache rah ge the, ve ya to sahukari ya sattebaji mein lipt the ya taash ke patton par ya dara aur daru par daulat luta rahe the. donon bahnon ko aisi koi thaur dikhai nahin deti thi jahan ve jatin, koi aisa shakhs nahin tha jiske sang uthti baithtin. na to inmen itna jivat tha, ki yahan vahan Dolti phirtin, na ve nagar vadhuen theen ki idhar udhar munh marti phirtin. so, ve apne us ghar ke nichle tale par hi simit sankuchit hokar rah gain jiska or chhor nahin tha aur jo chhote se kasbe ke muhane par sthit tha aur charon taraf uske ghani baghiya thi aur iint ki chaharadivari.
is makan mein ye bahnen dusre vishvayuddh shuru hone tak aur uske dauran bhi tiki rahin aur bahar bhi nikaltin to bahut kam aur jab kabhi nikalti bhi theen to donon eksaath nikalti theen. phir inke parichit ya sage sambandhi bhi bahut kam inse milne aate the. is prakar, vivah ki umr inki beet gai. ab aisa koi adami nahin tha, jo aakar inki khoj khabar leta. inki jivan shaili ke bare mein kisi ko ilm hi na hota, yadi ghar ki naukraniyan lantrani na karti phirtin ya inke sangit ki svar lahariyan ghar se uthkar chaharadivari phaand bahar na sunai paDtin.
donon bahnon ke paas jitni jama punji thi aur jitni bhi jayedad bach gai thi, usmen karinde sendh lagane lage the, iska pura ilm tha donon bahnon ko. lekin kuch karte dharte nahin banta tha inse, kyonki yadi ne karinde rakhtin to ve bhi usi thaili ke chatte batte sabit hote, inse bhi zyada kutil vyvahar karte. is prakar ki sthitiyon ke karan ve dekhte hi dekhte naam ki hi zamin ki malkin rah gain. karindon ko inki vastavik aay ka gyaan tha, jise batorkar ve inhen thoDa thoDa karke itna hi dete the ki ve samman ke saath jivan bita saken.
halanki karinde samajhte the ki donon bahnen ‘nakara’ hain aur inhen kuch bhi pane ka koi haq nahin hai, phir bhi kuch na kuch unki jholi mein Dalte rahte. haan, itni savadhani zarur baratni paDti thi ki kahin donon bahnen itni naraz na ho jayen ki bhaDak uthen aur apne adhikaron ka prayog karke unki jagah dusre karinde rakh len. karindon ko sabse baDa khatra is baat ka tha ki pahle vale baDe baDe zamindar kahin chiDh na jayen, unke charitr aur svbhaav se ve bhali bhanti parichit the. sampattiyon ki aur qilon ki haalat khasta thi aur ve kauDiyon ke daam bik rahe the, lekin donon bahnen karindon par nirbhar theen, kyonki kheti baDi ka koi ilm unhen tha nahin aur isse bhi adhik vittiy mamlon mein inki koi gati nahin thi. ab buDha bhi chali theen aur itni chiDachiDi ho gai theen ki baat bebat naukron naukraniyon par jhallane lagti theen; iske bavjud unhonne apni saj dhaj ko nahin chhoDa aur izzat aabru ko bhi batta nahin lagne diya. shayad jivan ke akhiri dinon tak inki guzar basar hoti rahti, yadi inke svbhaav aur akankshaon ke viprit kuch paristhitiyan na utpann ho gai hotin aur halat bhi badal na ge hote.
bees baras tak iint ki chaharadivari aur uske bhitar iint ke hi ghar se sangit ki svar lahariyan sunai paDti rahin. us chhote kasbe mein gane bajane vala shayad hi koi tha isliye donon bahnen yugal vadan kartin, phir koi sangit rasik chirag DhunDhe bhi na milta. haan, lok sangit ke parkhi zarur the, lekin dhire dhire paas paDos ke log in bahnon ke sangit se inki manःsthiti ka, inki aay ke parinam ka jayeza lete rahte the aur usi se pata chalta tha ki inka janmdin kab aata hai?
ve ye bhi nazar rakhte ki inse milne julne kaun aata jata hai? nihsandeh ye svar lahariyan inke sangit ke tukDe maatr the, jinmen vividhta aur sahajta thi aur inhin se pata chalta tha bahar ki duniya ko ki ve zinda hain.
dvitiy vishvayuddh ne to donon bahnon ko aur bhi gosha nashin aur mohtaj bana diya. karindon ne jo loot khasot ki, uske liye ve dalil ye dete the ki ve aakar kabza jamane vali senaon ki apekshaon ko pura karna paDta hai. phir kisan log bhi loot maar kar rahe hain aur bagi log bhi dhar pakaD karte rahte hain. paise ki to kimat hi nahin rahi thi aur donon bahnon ko zamin ki paidavar aur ek buDhi aurat ke sahare din katne paD rahe the. is aurat ne inke mata pita ki bhi seva ki thi. donon bahnen na to kahin aati jati theen aur yada kada hi koi parichit un dinon inse milne aata tha. yahan tak ki kabza zamane vali faujon ne bhi inke saath koi chheDchhaD nahin ki, kyonki koi morchabandi us chhote qasbe mein ki nahin gai thi, jisse afasron ke liye kamre vagairah hathiyaye jate. keval sangit hi aisa srot tha, jisse in bahnon ke bare mein koi jankari milti rahti thi aur ye bhi kaha jata tha ki inka sangit bhi un dinon ekdam thanDa, manda aur vishann hota chala gaya tha.
jab yuddh samapt hua aur nai krantikari sarkar sthapit hui, to ye bahnen aur bhi gumnami mein chali gai, kyonki ab kisi ki koi dilchaspi inmen nahin rahi thi. qasbe ke logon ko apne hi durbhagya se pinD chhuDana dushvar ho raha tha ya ve apne mein hi magan rahte the.
phir nai krishi nitiyon ke karan un logon ke paas qarib qarib saDhe saat ekaD bhumi hi rahne di gai thi, jo khud kheti baDi nahin karte the. iska natija ye hua ki donon bahnon ke paas jo dhan sampatti bachi rah gai thi, usse aur apni sari aay se ve ratonrat vanchit ho gain, lekin jab makanon ki kami pesh aai to sarkar ke inke ghar mein jo jagah faltu paDi thi, use hathiya liya. yahan aakar pata chala ki donon bahnon ka kya hashr hua?
paas paDos ke log dekha karte the ki koi kisan hai, jo inke yahan aata jata hai. usi kisan ne inki kuchheek zamin patte par le li thi, jo krishi sudhar lagu hone ke baad inke paas bachi rah gai thi. wo aata tha prayah dopahiya gaDi mein, kabhi kabhi ek chhakDe mein baithkar bhi. aakar ahate ka get kholta aur ghoDon ko baghiche mein khula chhoD deta. ye kisan zyada der tak to vahan thaharta nahin tha aur log dekhte the ki jab vahan se nikalta tha to chhakDe par tirpal se koi cheez Dhakkar le ja raha hota. kabhi kabhi aisa bhi hua ki ek do anya kisan uske sang aate. jab vahan se nikalkar jate to tirpal ke niche se kisi pharnichar ka kona dikhai paDta aur ant mein ek din piyano ki tangen bhi
logon ne dekhin.
vipda ke dinon mein koi na koi saphi ya masiha inhen hamesha mil jata tha—jo ya to koi kisan hota ya koi dusra vyakti. usi tarah ye kharidar bhi mil gaya tha inhen. ek yahi adami tha, jiske uupar ye bahnen ab bhi ashrit theen. wo jata aur inke liye sauda sulph vagairah lekar aata. bahari ke saath vahi masalachi ka kaam bhi karta. usi ki marphat sarkar ko sari jankari mili ki donon bahnon ka ant kaise hua, kyonki aisa koi adami nahin tha, jisne sarkari kamon ke siva unmen koi dilchaspi li ho.
yahi kisan tha, jo in bahnon ko bataya karta ki ird gird kis qism ke parivartan ho rahe hain. unke khane pine ka saman bhi vahi laya karta aur evaj mein ye bahnen use vastron aur gharelu saaj saman ki shakl mein adayagi kartin. ab to ve pahle se bhi kam jaan patin ki kimten kidhar ja rahi hain, bazar manDi ke halat kya hain, duniya kidhar ja rahi hai? hamesha uljhan mein rahtin. buDhi naukarani bhi chal basi thi. ye kisan hi uske shav ko lekar gaya tha aur uski antyeshti ka kharch bhi usi ne apni girah se diya tha.
kuch mahinon ke baad yahi kisan farnichar, gharelu saman, jhaaD phanus, kitaben vagairah bhi le gaya, in chizon ko qasbe mein le jakar usne aune paune damon par becha, tis par bhi kafi munafa kamaya. anttah usne baqi bachi zamin bhi unse kharid li, iske liye wo vakil aur gavah bhi le aaya tha aur sari karrvai usne kanuni tariqe se puri karva li thi.
“ve mujhe”, kisan kahta, “apna masiha samajhti theen aur main hi hoon jisne unka uddhaar bhi kiya. ve mujhe ‘hamara masiha’ kahti theen. mainne kabhi bhi unse aisi koi cheez nahin li, jo unhonne apni ichchha se mujhe nahin di. zamana aisa aaya hai ki koi cheez daam par nahin milti, ahar manav jivan hai aur keval usi ka mol hai. main unhen khilata pilata aur sab chizon ke bare mein batata, kyonki bechari laDakiyon ko bahar jhankne mein bhi khauf aata tha, manon galiyan kuche unhen kaat khayenge.
“yuvak yuvatiyan andolan karte hue jab julus banakar chalte aur gate hue jate to unke svron ko ve kaan lagakar suntin, unke pryaan giton ki shabdavali ko samajhtin to ekayek ro paDtin aur sare ghar mein bilakhti hui Dolti rahtin, ‘duniya ulat gai hai. duniya darham barham ho gai hai!’ main unse kahta, ‘pyari mahilaon! duniya ulat pulat nahin gai hai, tum bahar to kabhi nikalti hi nahin ho, kisi se milti julti nahin hon aur apne maan baap ki tarah hi zindagi basarkar rahi ho. ’ aur ve javab deti theen. ‘nahin, nahin, duniya ulat gai hai! duniya darham barham ho gai hai!”
is kisan ne ye tay paya tha ki saDhe saat ekaD zamin ka daam wo qiston mein chukta karega, lekin qiston ki raqam in striyon ki rozmarra ki zarurton ke liye kafi nahin thi. kisan bhi kasmen khaya karta ki inhen wo jo sauda sulph vagairah lakar deta hai, unka daam kale bazar ke damon se adhik nahin leta, lekin jinke paas amdani ka koi nishchit sadhan nahin tha, unhen khane pine ki ye chizen mahngi lagti theen, yahan tak ki durlabh bhi. natijatan donon bahnon ko ghar ke bartan bhanDe tak thikane lagane ko vivash hona paDa tha.
pagal aurten”, kisan kahta, “hain to bhali aurten lekin pagla gai hain. kisi cheez ke liye ansu nahin tapkaye inhonne lekin jab piyano aur vayalin jane lagin to rona dhona shuru kar diya. mera to man hi bujh gaya jab mainne dekha ki ab inka sangit kabhi sunai nahin dega lekin main lachar tha. mere bhi bivi bachche hain, musibat ke din hain aur main bhi gharib hoon. main unhen sent ment mein to koi cheez de nahin sakta tha. piyano ko lekar to main musibat mein hi phans gaya tha.
yuvkon ka jo sangthan hai na, usne mujh par shak kiya. ‘are, tu to kisan hai, piyano kahan se uDa laya? zarur hi kisi burjua ka ya kisi dusre adami ka uthakar laya hoga, raashtr ki sampatti mein se churakar laya hoga’ mainne bahutera samjhane ki koshish ki unhen, ‘ye unhonne hi mujhe diya hai, aap log jakar khud unse dariyapht kar sakte hain. ’ unhonne mol tol karke piyano mujhse kharid liya. qarib qarib sent ment mein hathiya liya. jahan tak vayalin ka talluk hai, wo mainne ek jipsi ke haath bech diya, jipsi log is tarah ki chizon ke divane hote hain aur phir, phir mujhe kuch pata nahin ki un bahnon ka kya hua? ab koi cheez bachi nahin thi, unke paas jise ve bech khatin aur mujhe Dar is baat ka tha ki sarkari karmachari mujh par shak shubah karenge, kyonki ve to burjua logon se bhi ge bite hain, badaltar hai. isliye phir udhar mainne munh nahin kiya. ”
ab avas nigam ke adhikari jab us ghar mein ge to unhen koi javab nahin mila, lekin darvaze khiDkiyan toDne ki naubat nahin aai, kyonki ek bhi khiDki nahin bachi thi, koi darvaza nahin bacha tha. yahan tak ki lakDi ka farsh tak bhi nadarad tha aur divaron par kot vagairah tangane ke jo taanD lage rahte the, ve bhi ukhaaD liye ge the. makan khali paDa tha, koi dikhai nahin paDta tha. donon bahnon ke shav maujud the, jo saDne galne lage the. tan ke chivar aur bistar ke gadde tak bik ge the. iske bavjud ve bhukhi pyasi mari theen, lekin donon bahnon ne ghar ke bahar us duniya mein kadam nahin rakha, jise ve samajh nahin pai theen aur jo duniya unhen samjha nahin pai thi.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 216)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।