चौधरी पीरबख़्श के दादा चुंगी के महकमे में दारोग़ा थे। आमदनी अच्छी थी। एक छोटा, पर पक्का मकान भी उन्होंने बनवा लिया। लड़कों को पूरी तालीम दी। दोनों लड़के एंट्रेंस पास कर रेलवे में और डाकख़ाने में बाबू हो गए। चौधरी साहब की ज़िंदगी में लड़कों के ब्याह और बाल-बच्चे भी हुए, लेकिन ओहदे में ख़ास तरक़्क़ी न हुई; वही तीस और चालीस रुपए माहवार का दर्जा।
अपने ज़माने की याद कर चौधरी साहब कहते- वो भी क्या वक़्त थे! लोग मिडिल पास कर डिप्टी कलट्टरी करते थे और आजकल की तालीम है कि एंट्रेंस तक इंग्रेज़ी पढ़कर लड़के तीस-चालीस से आगे नहीं बढ़ पाते। बेटों को ऊँचे ओहदों पर देखने का अरमान लिए ही उन्होंने आँखें मूँद लीं।
इंशाअल्ला, चौधरी साहब के कुनबे में बरकत हुई। चौधरी फ़ज़ल-क़ुरबान रेलवे में काम करते थे। अल्लाह ने उन्हें चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। चौधरी इलाहीबख़्श डाकख़ाने में थे। उन्हें भी अल्लाह ने चार बेटे और दो लड़कियाँ बख़्शीं।
चौधरी-ख़ानदान अपने मकान को हवेली पुकारता था। नाम बड़ा देने पर भी जगह तंग ही रही। दारोग़ा साहब के ज़माने में ज़नाना भीतर था और बाहर बैठक में वे मोढ़े पर बैठ नैचा गुड़गुड़ाया करते। जगह की तंगी की वजह से उनके बाद बैठक भी ज़नाने में शामिल हो गई और घर की ड्योढ़ी पर परदा लटक गया। बैठक न रहने पर भी घर की इज़्ज़त का ख़याल था, इसलिए परदा बोरी के टाट का नहीं, बढ़िया क़िस्म का रहता।
ज़ाहिरा दोनों भाइयों के बाल-बच्चे एक ही मकान में रहने पर भी भीतर सब अलग-अलग था। ड्योढ़ी का परदा कौन भाई लाए? इस समस्या का हल इस तरह हुआ कि दारोग़ा साहब के ज़माने की पलंग की रंगीन दरियाँ एक के बाद एक ड्योढ़ी में लटकाई जाने लगीं।
तीसरी पीढ़ी के ब्याह-शादी होने लगे। आख़िर चौधरी-ख़ानदान की औलाद को हवेली छोड़ दूसरी जगहें तलाश करनी पड़ी। चौधरी इलाहीबख़्श के बड़े साहबज़ादे एंट्रेंस पास कर डाकख़ाने में बीस रुपए की क्लर्की पा गए। दूसरे साहबज़ादे मिडिल पास कर अस्पताल में कम्पाउंडर बन गए। ज्यों-ज्यों ज़माना गुज़रता जाता, तालीम और नौकरी दोनों मुश्किल होती जाती। तीसरे बेटे होनहार थे। उन्होंने वज़ीफ़ा पाया। जैसे-तैसे मिडिल कर स्कूल में मुदर्रिस हो देहात चले गए।
चौथे लड़के पीरबख़्श प्राइमरी से आगे न बढ़ सके। आजकल की तालीम माँ-बाप पर ख़र्च के बोझ के सिवा और है क्या? स्कूल की फ़ीस हर महीने, और किताबों, कापियों और नक़्शों के लिए रुपए-ही-रुपए!
चौधरी पीरबख़्श का भी ब्याह हो गया। मौला के करम से बीवी की गोद भी जल्दी ही भरी। पीरबख़्श ने रोज़गार के तौर पर ख़ानदान की इज़्ज़त के ख़याल से एक तेल की मिल में मुंशीगिरी कर ली। तालीम ज़ियादा नहीं तो क्या, सफ़ेदपोश ख़ानदान की इज़्ज़त का पास तो था। मज़दूरी और दस्तकारी उनके करने की चीज़ें न थीं। चौकी पर बैठते। क़लम-दवात का काम था।
बारह रुपया महीना अधिक नहीं होता। चौधरी पीरबख़्श को मकान सितवा की कच्ची बस्ती में लेना पड़ा। मकान का किराया दो रुपया था। आसपास ग़रीब और कमीने लोगों की बस्ती थी। कच्ची गली के बीचों- बीच, गली के मुहाने पर लगे कमेटी के नल से टपकते पानी की काली धार बहती रहती, जिसके किनारे घास उग आई थी। नाली पर मच्छरों और मक्खियों के बादल उमड़ते रहते। सामने रमज़ानी धोबी की भट्टी थी, जिसमें से घुआँ और सज्जी मिले उबलते कपड़ों की गंध उड़ती रहती। दायीं ओर बीकानेरी मोचियों के घर थे। बायीं ओर वर्कशाप में काम करने वाले कुली रहते!
इस सारी बस्ती में चौधरी पीरबख़्श ही पढ़े-लिखे सफ़ेदपोश थे। सिर्फ़ उनके ही घर की ड्योढ़ी पर परदा था। सब लोग उन्हें चौधरीजी, मुंशीजी कहकर सलाम करते। उनके घर की औरतों को कभी किसी ने गली में नहीं देखा। लड़कियाँ चार-पाँच बरस तक किसी काम-काज से बाहर निकलतीं और फिर घर की आबरू के ख़याल से उनका बाहर निकलना मुनासिब न था। पीरबख़्श ख़ुद ही मुस्कुराते हुए सुबह-शाम कमेटी के नल से घड़े भर लाते।
चौधरी की तनख़्वाह पंद्रह बरस में बारह से अठारह हो गर्इ। ख़ुदा की बरकत होती है, तो रुपए-पैसे की शक्ल में नहीं, आस-औलाद की शक्ल में होती है। पंद्रह बरस में पाँच बच्चे हुए। पहले तीन लड़कियाँ और बाद में दो लड़के।
दूसरी लड़की होने को थी तो पीरबख़्श की वाल्दा मदद के लिए आईं। वालिद साहब का इंतिक़ाल हो चुका था। दूसरा कोई भाई वाल्दा की फ़िक्र करने आया नहीं; वे छोटे लड़के के यहाँ ही रहने लगीं।
जहाँ बाल-बच्चे और घर-बार होता है, सौ क़िस्म की झंझटें होती ही हैं। कभी बच्चे को तकलीफ़ है, तो कभी जच्चा को। ऐसे वक़्त में क़र्ज़ की ज़रूरत कैसे न हो? घर-बार हो, तो क़र्ज़ भी होगा ही।
मिल की नौकरी का क़ायदा पक्का होता है। हर महीने की सात तारीख़ को गिनकर तनख़्वाह मिल जाती है। पेशगी से मालिक को चिढ़ है। कभी बहुत ज़रूरत पर ही मेहरबानी करते। ज़रूरत पड़ने पर चौधरी घर की कोई छोटी-मोटी चीज़ गिरवी रखकर उधार ले आते। गिरवी रखने से रुपए के बारह आने ही मिलते। ब्याज मिलाकर सोलह आने हो जाते और फिर चीज़ के घर लौट आने की संभावना न रहती।
मुहल्ले में चौधरी पीरबख़्श की इज़्ज़त थी। इज़्ज़त का आधार था, घर के दरवाज़े पर लटका परदा। भीतर जो हो, परदा सलामत रहता। कभी बच्चों की खींच-खाँच या बेदर्द हवा के झोंकों से उसमें छेद हो जाते, तो पर्दे की आड़ से हाथ सुई-धागा ले उसकी मरम्मत कर देते।
दिनों का खेल! मकान की ड्योढ़ी के किवाड़ गलते-गलते बिलकुल गल गए। कई दफ़े कसे जाने से पेच टूट गए और सुराख ढीले पड़ गए। मकान मालिक सुरजू पाँडे को उसकी फ़िक्र न थी। चौधरी कभी जाकर कहते-सुनते तो उत्तर मिलता- “कौन बड़ी रक़म थमा देते हो? दो रुपल्ली किराया और वह भी छ:-छ: महीने का बक़ाया। जानते हो लकड़ी का क्या भाव है। न हो मकान छोड़ जाओ। आख़िर किवाड़ गिर गए। रात में चौधरी उन्हें जैसे-तैसे चौखट से टिका देते। रात-भर दहशत रहती कि कहीं कोई चोर न आ जाए।
मुहल्ले में सफ़ेदपोशी और इज़्ज़त होने पर भी चोर के लिए घर में कुछ न था। शायद एक भी साबित कपड़ा या बर्तन ले जाने के लिए चोर को न मिलता; पर चोर तो चोर है। छिनने के लिए कुछ न हो, तो भी चोर का डर तो होता ही है। वह चोर जो ठहरा!
चोर से ज़ियादा फ़िक्र थी आबरू की। किवाड़ न रहने पर परदा ही आबरू का रखवारा था। वह परदा भी तार-तार होते-होते एक रात आँधी में किसी भी हालत में लटकने लायक़ न रह गया। दूसरे दिन घर की एकमात्र पुश्तैनी चीज़ दरी दरवाज़े पर लटक गई। मुहल्ले वालों ने देखा और चौधरी को सलाह दी- “अरे चौधरी, इस ज़माने में दरी यूँ काहे ख़राब करोगे? बाज़ार से ला टाट का टुकड़ा न लटका दो!” पीरबख़्श टाट की क़ीमत भी आते-जाते कई दफ़े पूछ चुके थे। दो गज़ टाट आठ आने से कम में न मिल सकता था। हँसकर बोले- होने दो क्या है? हमारे यहाँ पक्की हवेली में भी ड्योढ़ी पर दरी का ही परदा रहता था।
कपड़े की महँगाई के इस ज़माने में घर की पाँचों औरतों के शरीर से कपड़े जीर्ण होकर यूँ गिर रहे थे, जैसे पेड़ अपनी छाल बदलते हैं; पर चौधरी साहब की आमदनी से दिन में एक दफ़े किसी तरह पेट भर सकने के लिए आटा के अलावा कपड़े की गुंजाइश कहाँ? ख़ुद उन्हें नौकरी पर जाना होता। पायजामे में जब पैबंद सँभालने की ताब न रही, मारकीन का एक कुर्ता-पायजामा ज़रूरी हो गया, पर लाचार थे।
गिरवी रखने के लिए घर में जब कुछ भी न हो, ग़रीब का एकमात्र सहायक है पंजाबी ख़ान। रहने की जगह भर देखकर वह रुपया उधार दे सकता है। दस महीने पहले गोद के लड़के बर्कत के जन्म के समय पीरबख़्श को रुपए की ज़रूरत आ पड़ी। कहीं और कोई प्रबंध न हो सकने के कारण उन्होंने पंजाबी ख़ान बबर अलीख़ाँ से चार रुपए उधार ले लिए थे।
बबर अलीख़ाँ का रोज़गार सितवा के उस कच्चे मुहल्ले में अच्छा-ख़ासा चलता था। बीकानेरी मोची, वर्कशाप के मज़दूर और कभी-कभी रमज़ानी धोबी सभी बबर मियाँ से क़र्ज़ लेते रहते। कई दफ़े चौधरी पीरबख़्श ने बबर अली को क़र्ज़ और सूद की क़िस्त न मिलने पर अपने हाथ के डंडे से ऋणी का दरवाज़ा पीटते देखा था। उन्हें साहूकार और ऋणी में बीच-बचौवल भी करना पड़ा था। ख़ान को वे शैतान समझते थे, लेकिन लाचार हो जाने पर उसी की शरण लेनी पड़ी। चार आना रुपया महीने पर चार रुपया क़र्ज़ लिया। शरीफ़ ख़ानदानी, मुसलमान भाई का ख़याल कर बबर अली ने एक रुपया माहवार की क़िस्त मान ली। आठ महीने में क़र्ज़ अदा होना तय हुआ।
ख़ान की क़िस्त न दे सकने की हालत में अपने घर के दरवाज़े पर फ़जीहत हो जाने की बात का ख़याल कर चौधरी के रोएँ खड़े हो जाते। सात महीने फ़ाक़ा करके भी वे किसी तरह से क़िस्त देते चले गए; लेकिन जब सावन में बरसात पिछड़ गर्इ और बाजरा भी रुपए का तीन सेर मिलने लगा, क़िस्त देना संभव न रहा। ख़ान सात तारीख़ की शाम को ही आया। चौधरी पीरबख़्श ने ख़ान की दाढ़ी छू और अल्ला की क़सम खा एक महीने की मुआफ़ी चाही। अगले महीने एक का सवा देने का वायदा किया! ख़ान टल गया।
भादों में हालत और भी परेशानी की हो गर्इ। बच्चों की माँ की तबिअत रोज़-रोज़ गिरती जा रही थी। खाया-पिया उसके पेट में न ठहरता। पथ्य के लिए उसको गेहूँ की रोटी देना ज़रूरी हो गया। गेहूँ मुश्किल से रुपए का सिर्फ़ ढाई सेर मिलता। बीमार का जी ठहरा, कभी प्याज़ के टुकड़े या धनिए की ख़ुश्बू के लिए ही मचल जाता। कभी पैसे की सौंफ़, अजवायन, काले नमक की ही ज़रूरत हो, तो पैसे की कोई चीज़ मिलती ही नहीं। बाज़ार में ताँबे का नाम ही नहीं रह गया! नाहक़ इकन्नी निकल जाती है। चौधरी को दो रुपए महँगाई-भत्ते के मिले; पर पेशगी लेते-लेते तनख़्वाह के दिन केवल चार ही रुपए हिसाब में निकले।
बच्चे पिछले हफ़्ते लगभग फ़ाक़े से थे। चौधरी कभी गली से दो पैसे की चौराई ख़रीद लाते, कभी बाजरा उबाल सब लोग कटोरा-कटोरा-भर पी लेते। बड़ी कठिनता से मिले चार रुपयों में से सवा रुपया ख़ान के हाथ में धर देने की हिम्मत चौधरी को न हुई।
मिल से घर लौटते समय वे मंडी की ओर टहल गए। दो घंटे बाद जब समझा, ख़ान टल गया होगा और अनाज की गठरी ले वे घर पहुँचे। ख़ान के भय से दिल डूब रहा था, लेकिन दूसरी ओर चार भूखे बच्चों, उनकी माँ, दूध न उतर सकने के कारण सूखकर काँटा हो रहे गोद के बच्चे और चलने-फिरने से लाचार अपनी ज़ईफ़ माँ की भूख से बिलबिलाती सूरतें आँखों के सामने नाच जातीं। धड़कते हुए हृदय से वे कहते जाते- मौला सब देखता है, ख़ैर करेगा।
सात तारीख़ की शाम को असफल हो ख़ान आठ की सुबह ख़ूब तड़के चौधरी के मिल चले जाने से पहले ही अपना हंडा हाथ में लिए दरवाज़े पर मौजूद हुआ।
रात-भर सोच-सोचकर चौधरी ने ख़ान के लिए बयान तैयार किया। मिल के मालिक लालाजी चार रोज़ के लिए बाहर गए हैं। उनके दस्तख़त के बिना किसी को भी तनख़्वाह नहीं मिल सकी। तनख़्वाह मिलते ही वह सवा रुपया हाज़िर करेगा। माक़ूल वजह बताने पर भी ख़ान बहुत देर तक ग़ुर्राता रहा- “अम वतन चोड़के परदेस में पड़ा है, ऐसे रुपिया चोड़ देने के वास्ते अम यहाँ नहीं आया है, अमारा भी बाल-बच्चा है। चार रोज़ में रुपिया नई देगा, तो अम तुमारा...कर देगा।
पाँचवें दिन रुपया कहाँ से आ जाता! तनख़्वाह मिले अभी हफ़्ता भी नहीं हुआ। मालिक ने पेशगी देने से साफ़ इनकार कर दिया। छठे दिन क़िस्मत से इतवार था। मिल में छुट्टी रहने पर भी चौधरी ख़ान के डर से सुबह ही बाहर निकल गए। जान-पहचान के कई आदमियों के यहाँ गए। इधर-उधर की बातचीत कर वे कहते- अरे भाई, हो तो बीस आने पैसे तो दो-एक रोज़ के लिए देना। ऐसे ही ज़रूरत आ पड़ी है।
उत्तर मिला- मियाँ, पैसे कहाँ इस ज़माने में! पैसे का मोल कौड़ी नहीं रह गया। हाथ में आने से पहले ही उधार में उठ गया तमाम!
दोपहर हो गई। ख़ान आया भी होगा, तो इस वक़्त तक बैठा नहीं रहेगा—चौधरी ने सोचा, और घर की तरफ़ चल दिए। घर पहुँचने पर सुना, ख़ान आया था और घंटे-भर तक ड्योढ़ी पर लटके दरी के पर्दे को डंडे से ठेल-ठेलकर गाली देता रहा है! पर्दे की आड़ से बड़ी बीबी के बार-बार ख़ुदा की क़सम खा यक़ीन दिलाने पर कि चौधरी बाहर गए हैं, रुपया लेने गए हैं, ख़ान गाली देकर कहता- नई, बदज़ात चोर बीतर में चिपा है! अम चार घंटे में पिर आता है। रुपिया लेकर जाएगा। रुपिया नई देगा, तो उसका खाल उतारकर बाज़ार में बेच देगा।… हमारा रुपिया क्या अराम का है?
चार घंटे से पहले ही ख़ान की पुकार सुनाई दी- चौदरी! पीरबख़्श के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई और वे बिलकुल निस्सत्त्व हो गए, हाथ-पैर सुन्न और गला ख़ुश्क।
गाली दे पर्दे को ठेलकर ख़ान के दुबारा पुकारने पर चौधरी का शरीर निर्जीवप्राय होने पर भी निश्चेष्ट न रह सका। वे उठकर बाहर आ गए। ख़ान आग-बबूला हो रहा था- पैसा नहीं देने का वास्ते चिपता है!...”
एक-से-एक बढ़ती हुई तीन गालियाँ एक-साथ ख़ान के मुँह से पीरबख़्श के पुरखों-पीरों के नाम निकल गईं। इस भयंकर आघात से पीरबख़्श का ख़ानदानी रक्त भड़क उठने के बजाय और भी निर्जीव हो गया। ख़ान के घुटने छू, अपनी मुसीबत बता वे मुआफ़ी के लिए ख़ुशामद करने लगे।
ख़ान की तेज़ी बढ़ गई। उसके ऊँचे स्वर से पड़ोस के मोची और मज़दूर चौधरी के दरवाज़े के सामने इकट्ठे हो गए। ख़ान क्रोध में डंडा फटकार कर कह रहा था- पैसा नहीं देना था, लिया क्यों? तनख़्वाह किदर में जाता? अरामी अमारा पैसा मारेगा। अम तुमारा खाल खींच लेगा। पैसा नई है, तो घर पर परदा लटका के शरीफ़ज़ादा कैसे बनता?...तुम अमको बीबी का गैना दो, बर्तन दो, कुछ तो भी दो, अम ऐसे नई जाएगा।
बिलकुल बेबस और लाचारी में दोनों हाथ उठा ख़ुदा से ख़ान के लिए दुआ माँग पीरबख़्श ने क़सम खाई, एक पैसा भी घर में नहीं, बर्तन भी नहीं, कपड़ा भी नहीं; ख़ान चाहे तो बेशक उसकी खाल उतारकर बेच ले।
ख़ान और आग हो गया- अम तुमारा दुआ क्या करेगा? तुमारा खाल क्या करेगा? उसका तो जूता भी नई बनेगा। तुमारा खाल से तो यह टाट अच्चा। ख़ान ने ड्योढ़ी पर लटका दरी का परदा झटक लिया। ड्योढ़ी से परदा हटने के साथ ही, जैसे चौधरी के जीवन को डोर टूट गई। वह डगमगाकर ज़मीन पर गिर पड़े।
इस दृश्य को देख सकने की ताब चौधरी में न थी, परंतु द्वार पर खड़ी भीड़ ने देखा—घर की लड़कियाँ और औरते पर्दे के दूसरी ओर घटती घटना के आतंक से आँगन के बीचों-बीच इकट्ठी हो खड़ी काँप रही थीं। सहसा परदा हट जाने से औरतें ऐसे सिकुड़ गई, जैसे उनके शरीर का वस्त्र खींच लिया गया हो। वह परदा ही तो घर-भर की औरतों के शरीर का वस्त्र था। उनके शरीर पर बचे चीथड़े उनके एक-तिहाई अंग ढँकने में भी असमर्थ थे!
जाहिल भीड़ ने घृणा और शरम से आँखें फेर लीं। उस नग्नता की झलक से ख़ान की कठोरता भी पिघल गर्इ। ग्लानि से थूक, पर्दे को आँगन में वापिस फेंक, क्रुद्ध निराशा में उसने “लाहौल बिला...! कहा और असफल लौट गया।
भय से चीख़कर ओट में हो जाने के लिए भागती हुई औरतों पर दया कर भीड़ छँट गई। चौधरी बेसुध पड़े थे। जब उन्हें होश आया, ड्योढ़ी का परदा आँगन में सामने पड़ा था; परंतु उसे उठाकर फिर से लटका देने का सामर्थ्य उनमें शेष न था। शायद अब इसकी आवश्यकता भी न रही थी। परदा जिस भावना का अवलंब था, वह मर चुकी थी।
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bhadon mein haalat aur bhi pareshani ki ho gari bachchon ki man ki tabiat roz roz girti ja rahi thi khaya piya uske pet mein na thaharta pathy ke liye usko gehun ki roti dena zaruri ho gaya gehun mushkil se rupae ka sirf Dhai ser milta bimar ka ji thahra, kabhi pyaz ke tukDe ya dhaniye ki khushbu ke liye hi machal jata kabhi paise ki saumf, ajwayan, kale namak ki hi zarurat ho, to paise ki koi cheez milti hi nahin bazar mein tanbe ka nam hi nahin rah gaya! nahaq ikanni nikal jati hai chaudhari ko do rupae mahngai bhatte ke mile; par peshgi lete lete tankhwah ke din kewal chaar hi rupae hisab mein nikle
bachche pichhle hafte lagbhag faqe se the chaudhari kabhi gali se do paise ki chaurai kharid late, kabhi bajra ubaal sab log katora katora bhar pi lete baDi kathinta se mile chaar rupyon mein se sawa rupaya khan ke hath mein dhar dene ki himmat chaudhari ko na hui
mil se ghar lautte samay we manDi ki or tahal gaye do ghante baad jab samjha, khan tal gaya hoga aur anaj ki gathri le we ghar pahunche khan ke bhay se dil Doob raha tha, lekin dusri or chaar bhukhe bachchon, unki man, doodh na utar sakne ke karan sukhkar kanta ho rahe god ke bachche aur chalne phirne se lachar apni ज़eeफ़ man ki bhookh se bilbilati surten ankhon ke samne nach jatin dhaDakte hue hirdai se we kahte jate maula sab dekhta hai, khair karega
sat tarikh ki sham ko asaphal ho khan aath ki subah khoob taDke chaudhari ke mil chale jane se pahle hi apna hanDa hath mein liye darwaze par maujud hua
raat bhar soch sochkar chaudhari ne khan ke liye byan taiyar kiya mil ke malik lalaji chaar roz ke liye bahar gaye hain unke dastakhat ke bina kisi ko bhi tankhwah nahin mil saki tankhwah milte hi wo sawa rupaya hazir karega maqul wajah batane par bhi khan bahut der tak ghurrata raha “am watan choDke pardes mein paDa hai, aise rupiya choD dene ke waste am yahan nahin aaya hai, amara bhi baal bachcha hai chaar roz mein rupiya nai dega, to am tumara kar dega
panchawen din rupaya kahan se aa jata! tankhwah mile abhi hafta bhi nahin hua malik ne peshgi dene se saf inkar kar diya chhathe din qimat se itwar tha mil mein chhutti rahne par bhi chaudhari khan ke Dar se subah hi bahar nikal gaye jaan pahchan ke kai adamiyon ke yahan gaye idhar udhar ki batachit kar we kahte are bhai, ho to bees aane paise to do ek roz ke liye dena aise hi zarurat aa paDi hai
uttar mila miyan, paise kahan is zamane mein! paise ka mol kauDi nahin rah gaya hath mein aane se pahle hi udhaar mein uth gaya tamam!
dopahar ho gai khan aaya bhi hoga, to is waqt tak baitha nahin rahega—chaudhari ne socha, aur ghar ki taraf chal diye ghar pahunchne par suna, khan aaya tha aur ghante bhar tak DyoDhi par latke dari ke parde ko DanDe se thel thelkar gali deta raha hai! parde ki aaD se baDi bibi ke bar bar khuda ki qas kha yaqin dilane par ki chaudhari bahar gaye hain, rupaya lene gaye hain, khan gali dekar kahta nai, badazat chor bitar mein chipa hai! am chaar ghante mein pir aata hai rupiya lekar jayega rupiya nai dega, to uska khaal utarkar bazar mein bech dega … hamara rupiya kya aram ka hai?
chaar ghante se pahle hi khan ki pukar sunai di chaudri! pirbakhsh ke sharir mein bijli si dauD gai aur we bilkul nissattw ho gaye, hath pair sunn aur gala khushk
gali de parde ko thelkar khan ke dubara pukarne par chaudhari ka sharir nirjiwapray hone par bhi nishchesht na rah saka we uthkar bahar aa gaye khan aag babula ho raha tha paisa nahin dene ka waste chipta hai! ”
ek se ek baDhti hui teen galiyan ek sath khan ke munh se pirbakhsh ke purkhon piron ke nam nikal gain is bhayankar aghat se pirbakhsh ka khandani rakt bhaDak uthne ke bajay aur bhi nirjiw ho gaya khan ke ghutne chhu, apni musibat bata we muafi ke liye khushamad karne lage
khan ki tezi baDh gai uske unche swar se paDos ke mochi aur mazdur chaudhari ke darwaze ke samne ikatthe ho gaye khan krodh mein DanDa phatkar kar kah raha tha paisa nahin dena tha, liya kyon? tankhwah kidar mein jata? arami amara paisa marega am tumara khaal kheench lega paisa nai hai, to ghar par parda latka ke sharifzada kaise banta? tum amko bibi ka gaina do, bartan do, kuch to bhi do, am aise nai jayega
bilkul bebas aur lachari mein donon hath utha khuda se khan ke liye dua mang pirbakhsh ne qas khai, ek paisa bhi ghar mein nahin, bartan bhi nahin, kapDa bhi nahin; khan chahe to beshak uski khaal utarkar bech le
khan aur aag ho gaya am tumara dua kya karega? tumara khaal kya karega? uska to juta bhi nai banega tumara khaal se to ye tat achcha khan ne DyoDhi par latka dari ka parda jhatak liya DyoDhi se parda hatne ke sath hi, jaise chaudhari ke jiwan ko Dor toot gai wo Dagamgakar zamin par gir paDe
is drishya ko dekh sakne ki tab chaudhari mein na thi, parantu dwar par khaDi bheeD ne dekha—ghar ki laDkiyan aur aurte parde ke dusri or ghatti ghatna ke atank se angan ke bichon beech ikatthi ho khaDi kanp rahi theen sahsa parda hat jane se aurten aise sikuD gai, jaise unke sharir ka wastra kheench liya gaya ho wo parda hi to ghar bhar ki aurton ke sharir ka wastra tha unke sharir par bache chithDe unke ek tihai ang Dhankane mein bhi asmarth the!
jahil bheeD ne ghrina aur sharam se ankhen pher leen us nagnta ki jhalak se khan ki kathorta bhi pighal gari glani se thook, parde ko angan mein wapis phenk, kruddh nirasha mein usne “lahaul bila ! kaha aur asaphal laut gaya
bhay se chikhkar ot mein ho jane ke liye bhagti hui aurton par daya kar bheeD chhant gai chaudhari besudh paDe the jab unhen hosh aaya, DyoDhi ka parda angan mein samne paDa tha; parantu use uthakar phir se latka dene ka samarthy unmen shesh na tha shayad ab iski awashyakta bhi na rahi thi parda jis bhawna ka awlamb tha, wo mar chuki thi
chaudhari pirbakhsh ke dada chungi ke mahkame mein darogha the amdani achchhi thi ek chhota, par pakka makan bhi unhonne banwa liya laDkon ko puri talim di donon laDke entrens pas kar railway mein aur Dakkhane mein babu ho gaye chaudhari sahab ki zindagi mein laDkon ke byah aur baal bachche bhi hue, lekin ohde mein khas taraqqi na hui; wahi tees aur chalis rupae mahwar ka darja
apne zamane ki yaad kar chaudhari sahab kahte wo bhi kya waqt the! log middle pas kar deputy kalattari karte the aur ajkal ki talim hai ki entrens tak ingrezi paDhkar laDke tees chalis se aage nahin baDh pate beton ko unche ohdon par dekhne ka arman liye hi unhonne ankhen moond leen
inshaalla, chaudhari sahab ke kunbe mein barkat hui chaudhari fazal qurban railway mein kaam karte the allah ne unhen chaar bete aur teen betiyan theen chaudhari ilahibakhsh Dakkhane mein the unhen bhi allah ne chaar bete aur do laDkiyan bakhshin
chaudhari khandan apne makan ko haweli pukarta tha nam baDa dene par bhi jagah tang hi rahi darogha sahab ke zamane mein zanana bhitar tha aur bahar baithak mein we moDhe par baith naicha guDaguDaya karte jagah ki tangi ki wajah se unke baad baithak bhi zanane mein shamil ho gai aur ghar ki DyoDhi par parda latak gaya baithak na rahne par bhi ghar ki izzat ka khayal tha, isliye parda bori ke tat ka nahin, baDhiya qim ka rahta
zahira donon bhaiyon ke baal bachche ek hi makan mein rahne par bhi bhitar sab alag alag tha DyoDhi ka parda kaun bhai laye? is samasya ka hal is tarah hua ki darogha sahab ke zamane ki palang ki rangin dariyan ek ke baad ek DyoDhi mein latkai jane lagin
tisri piDhi ke byah shadi hone lage akhir chaudhari khandan ki aulad ko haweli chhoD dusri jaghen talash karni paDi chaudhari ilahibakhsh ke baDe sahabzade entrens pas kar Dakkhane mein bees rupae ki clerki pa gaye dusre sahabzade middle pas kar aspatal mein kampaunDar ban gaye jyon jyon zamana guzarta jata, talim aur naukari donon mushkil hoti jati tisre bete honhar the unhonne wazifa paya jaise taise middle kar school mein mudarris ho dehat chale gaye
chauthe laDke pirbakhsh primary se aage na baDh sake ajkal ki talim man bap par kharch ke bojh ke siwa aur hai kya? school ki fees har mahine, aur kitabon, kapiyon aur naqshon ke liye rupae hi rupae!
chaudhari pirbakhsh ka bhi byah ho gaya maula ke karam se biwi ki god bhi jaldi hi bhari pirbakhsh ne rozgar ke taur par khandan ki izzat ke khayal se ek tel ki mil mein munshigiri kar li talim ziyada nahin to kya, safedaposh khandan ki izzat ka pas to tha mazduri aur dastakari unke karne ki chizen na theen chauki par baithte qalam dawat ka kaam tha
barah rupaya mahina adhik nahin hota chaudhari pirbakhsh ko makan sitwa ki kachchi basti mein lena paDa makan ka kiraya do rupaya tha asapas gharib aur kamine logon ki basti thi kachchi gali ke bichon beech, gali ke muhane par lage committe ke nal se tapakte pani ki kali dhaar bahti rahti, jiske kinare ghas ug i thi nali par machchhron aur makkhiyon ke badal umaDte rahte samne ramzani dhobi ki bhatti thi, jismen se ghuan aur sajji mile ubalte kapDon ki gandh uDti rahti dayin or bikaneri mochiyon ke ghar the bayin or warkashap mein kaam karne wale kuli rahte!
is sari basti mein chaudhari pirbakhsh hi paDhe likhe safedaposh the sirf unke hi ghar ki DyoDhi par parda tha sab log unhen chaudhriji, munshiji kahkar salam karte unke ghar ki aurton ko kabhi kisi ne gali mein nahin dekha laDkiyan chaar panch baras tak kisi kaam kaj se bahar nikaltin aur phir ghar ki aabru ke khayal se unka bahar nikalna munasib na tha pirbakhsh khu hi muskurate hue subah sham committe ke nal se ghaDe bhar late
chaudhari ki tankhwah pandrah baras mein barah se atharah ho gari khuda ki barkat hoti hai, to rupae paise ki shakl mein nahin, aas aulad ki shakl mein hoti hai pandrah baras mein panch bachche hue pahle teen laDkiyan aur baad mein do laDke
dusri laDki hone ko thi to pirbakhsh ki walda madad ke liye ain walid sahab ka intiqal ho chuka tha dusra koi bhai walda ki fir karne aaya nahin; we chhote laDke ke yahan hi rahne lagin
jahan baal bachche aur ghar bar hota hai, sau qim ki jhanjhten hoti hi hain kabhi bachche ko taklif hai, to kabhi jachcha ko aise waqt mein qarz ki zarurat kaise na ho? ghar bar ho, to qarz bhi hoga hi
mil ki naukari ka qayda pakka hota hai har mahine ki sat tarikh ko ginkar tankhwah mil jati hai peshgi se malik ko chiDh hai kabhi bahut zarurat par hi mehrbani karte zarurat paDne par chaudhari ghar ki koi chhoti moti cheez girwi rakhkar udhaar le aate girwi rakhne se rupae ke barah aane hi milte byaj milakar solah aane ho jate aur phir cheez ke ghar laut aane ki sambhawna na rahti
muhalle mein chaudhari pirbakhsh ki izzat thi izzat ka adhar tha, ghar ke darwaze par latka parda bhitar jo ho, parda salamat rahta kabhi bachchon ki kheench khanch ya bedard hawa ke jhonkon se usmen chhed ho jate, to parde ki aaD se hath sui dhaga le uski marammat kar dete
dinon ka khel! makan ki DyoDhi ke kiwaD galte galte bilkul gal gaye kai dafe kase jane se pech toot gaye aur surakh Dhile paD gaye makan malik surju panDe ko uski fir na thi chaudhari kabhi jakar kahte sunte to uttar milta “kaun baDi raqam thama dete ho? do rupalli kiraya aur wo bhi chhe chhe mahine ka baqaya jante ho lakDi ka kya bhaw hai na ho makan chhoD jao akhir kiwaD gir gaye raat mein chaudhari unhen jaise taise chaukhat se tika dete raat bhar dahshat rahti ki kahin koi chor na aa jaye
muhalle mein safedposhi aur izzat hone par bhi chor ke liye ghar mein kuch na tha shayad ek bhi sabit kapDa ya bartan le jane ke liye chor ko na milta; par chor to chor hai chhinne ke liye kuch na ho, to bhi chor ka Dar to hota hi hai wo chor jo thahra!
chor se ziyada fir thi aabru ki kiwaD na rahne par parda hi aabru ka rakhwara tha wo parda bhi tar tar hote hote ek raat andhi mein kisi bhi haalat mein latakne layaq na rah gaya dusre din ghar ki ekmatr pushtaini cheez dari darwaze par latak gai muhalle walon ne dekha aur chaudhari ko salah di “are chaudhari, is zamane mein dari yoon kahe kharab karoge? bazar se la tat ka tukDa na latka do!” pirbakhsh tat ki qimat bhi aate jate kai dafe poochh chuke the do gaz tat aath aane se kam mein na mil sakta tha hansakar bole hone do kya hai? hamare yahan pakki haweli mein bhi DyoDhi par dari ka hi parda rahta tha
kapDe ki mahngai ke is zamane mein ghar ki panchon aurton ke sharir se kapDe jeern hokar yoon gir rahe the, jaise peD apni chhaal badalte hain; par chaudhari sahab ki amdani se din mein ek dafe kisi tarah pet bhar sakne ke liye aata ke alawa kapDe ki gunjaish kahan? khu unhen naukari par jana hota payjame mein jab paiband sambhalne ki tab na rahi, marakin ka ek kurta payajama zaruri ho gaya, par lachar the
girwi rakhne ke liye ghar mein jab kuch bhi na ho, gharib ka ekmatr sahayak hai panjabi khan rahne ki jagah bhar dekhkar wo rupaya udhaar de sakta hai das mahine pahle god ke laDke barkat ke janm ke samay pirbakhsh ko rupae ki zarurat aa paDi kahin aur koi prbandh na ho sakne ke karan unhonne panjabi khan babar alikhan se chaar rupae udhaar le liye the
babar alikhan ka rozgar sitwa ke us kachche muhalle mein achchha khasa chalta tha bikaneri mochi, warkashap ke mazdur aur kabhi kabhi ramzani dhobi sabhi babar miyan se qarz lete rahte kai dafe chaudhari pirbakhsh ne babar ali ko qarz aur sood ki qit na milne par apne hath ke DanDe se rnai ka darwaza pitte dekha tha unhen sahukar aur rnai mein beech bachauwal bhi karna paDa tha khan ko we shaitan samajhte the, lekin lachar ho jane par usi ki sharan leni paDi chaar aana rupaya mahine par chaar rupaya qarz liya sharif khandani, musalman bhai ka khayal kar babar ali ne ek rupaya mahwar ki qit man li aath mahine mein qarz ada hona tay hua
khan ki qit na de sakne ki haalat mein apne ghar ke darwaze par fajih ho jane ki baat ka khayal kar chaudhari ke roen khaDe ho jate sat mahine faqa karke bhi we kisi tarah se qit dete chale gaye; lekin jab sawan mein barsat pichhaD gari aur bajra bhi rupae ka teen ser milne laga, qit dena sambhaw na raha khan sat tarikh ki sham ko hi aaya chaudhari pirbakhsh ne khan ki daDhi chhu aur alla ki qas kha ek mahine ki muafi chahi agle mahine ek ka sawa dene ka wayada kiya! khan tal gaya
bhadon mein haalat aur bhi pareshani ki ho gari bachchon ki man ki tabiat roz roz girti ja rahi thi khaya piya uske pet mein na thaharta pathy ke liye usko gehun ki roti dena zaruri ho gaya gehun mushkil se rupae ka sirf Dhai ser milta bimar ka ji thahra, kabhi pyaz ke tukDe ya dhaniye ki khushbu ke liye hi machal jata kabhi paise ki saumf, ajwayan, kale namak ki hi zarurat ho, to paise ki koi cheez milti hi nahin bazar mein tanbe ka nam hi nahin rah gaya! nahaq ikanni nikal jati hai chaudhari ko do rupae mahngai bhatte ke mile; par peshgi lete lete tankhwah ke din kewal chaar hi rupae hisab mein nikle
bachche pichhle hafte lagbhag faqe se the chaudhari kabhi gali se do paise ki chaurai kharid late, kabhi bajra ubaal sab log katora katora bhar pi lete baDi kathinta se mile chaar rupyon mein se sawa rupaya khan ke hath mein dhar dene ki himmat chaudhari ko na hui
mil se ghar lautte samay we manDi ki or tahal gaye do ghante baad jab samjha, khan tal gaya hoga aur anaj ki gathri le we ghar pahunche khan ke bhay se dil Doob raha tha, lekin dusri or chaar bhukhe bachchon, unki man, doodh na utar sakne ke karan sukhkar kanta ho rahe god ke bachche aur chalne phirne se lachar apni ज़eeफ़ man ki bhookh se bilbilati surten ankhon ke samne nach jatin dhaDakte hue hirdai se we kahte jate maula sab dekhta hai, khair karega
sat tarikh ki sham ko asaphal ho khan aath ki subah khoob taDke chaudhari ke mil chale jane se pahle hi apna hanDa hath mein liye darwaze par maujud hua
raat bhar soch sochkar chaudhari ne khan ke liye byan taiyar kiya mil ke malik lalaji chaar roz ke liye bahar gaye hain unke dastakhat ke bina kisi ko bhi tankhwah nahin mil saki tankhwah milte hi wo sawa rupaya hazir karega maqul wajah batane par bhi khan bahut der tak ghurrata raha “am watan choDke pardes mein paDa hai, aise rupiya choD dene ke waste am yahan nahin aaya hai, amara bhi baal bachcha hai chaar roz mein rupiya nai dega, to am tumara kar dega
panchawen din rupaya kahan se aa jata! tankhwah mile abhi hafta bhi nahin hua malik ne peshgi dene se saf inkar kar diya chhathe din qimat se itwar tha mil mein chhutti rahne par bhi chaudhari khan ke Dar se subah hi bahar nikal gaye jaan pahchan ke kai adamiyon ke yahan gaye idhar udhar ki batachit kar we kahte are bhai, ho to bees aane paise to do ek roz ke liye dena aise hi zarurat aa paDi hai
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dopahar ho gai khan aaya bhi hoga, to is waqt tak baitha nahin rahega—chaudhari ne socha, aur ghar ki taraf chal diye ghar pahunchne par suna, khan aaya tha aur ghante bhar tak DyoDhi par latke dari ke parde ko DanDe se thel thelkar gali deta raha hai! parde ki aaD se baDi bibi ke bar bar khuda ki qas kha yaqin dilane par ki chaudhari bahar gaye hain, rupaya lene gaye hain, khan gali dekar kahta nai, badazat chor bitar mein chipa hai! am chaar ghante mein pir aata hai rupiya lekar jayega rupiya nai dega, to uska khaal utarkar bazar mein bech dega … hamara rupiya kya aram ka hai?
chaar ghante se pahle hi khan ki pukar sunai di chaudri! pirbakhsh ke sharir mein bijli si dauD gai aur we bilkul nissattw ho gaye, hath pair sunn aur gala khushk
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ek se ek baDhti hui teen galiyan ek sath khan ke munh se pirbakhsh ke purkhon piron ke nam nikal gain is bhayankar aghat se pirbakhsh ka khandani rakt bhaDak uthne ke bajay aur bhi nirjiw ho gaya khan ke ghutne chhu, apni musibat bata we muafi ke liye khushamad karne lage
khan ki tezi baDh gai uske unche swar se paDos ke mochi aur mazdur chaudhari ke darwaze ke samne ikatthe ho gaye khan krodh mein DanDa phatkar kar kah raha tha paisa nahin dena tha, liya kyon? tankhwah kidar mein jata? arami amara paisa marega am tumara khaal kheench lega paisa nai hai, to ghar par parda latka ke sharifzada kaise banta? tum amko bibi ka gaina do, bartan do, kuch to bhi do, am aise nai jayega
bilkul bebas aur lachari mein donon hath utha khuda se khan ke liye dua mang pirbakhsh ne qas khai, ek paisa bhi ghar mein nahin, bartan bhi nahin, kapDa bhi nahin; khan chahe to beshak uski khaal utarkar bech le
khan aur aag ho gaya am tumara dua kya karega? tumara khaal kya karega? uska to juta bhi nai banega tumara khaal se to ye tat achcha khan ne DyoDhi par latka dari ka parda jhatak liya DyoDhi se parda hatne ke sath hi, jaise chaudhari ke jiwan ko Dor toot gai wo Dagamgakar zamin par gir paDe
is drishya ko dekh sakne ki tab chaudhari mein na thi, parantu dwar par khaDi bheeD ne dekha—ghar ki laDkiyan aur aurte parde ke dusri or ghatti ghatna ke atank se angan ke bichon beech ikatthi ho khaDi kanp rahi theen sahsa parda hat jane se aurten aise sikuD gai, jaise unke sharir ka wastra kheench liya gaya ho wo parda hi to ghar bhar ki aurton ke sharir ka wastra tha unke sharir par bache chithDe unke ek tihai ang Dhankane mein bhi asmarth the!
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bhay se chikhkar ot mein ho jane ke liye bhagti hui aurton par daya kar bheeD chhant gai chaudhari besudh paDe the jab unhen hosh aaya, DyoDhi ka parda angan mein samne paDa tha; parantu use uthakar phir se latka dene ka samarthy unmen shesh na tha shayad ab iski awashyakta bhi na rahi thi parda jis bhawna ka awlamb tha, wo mar chuki thi
स्रोत :
पुस्तक : इक्कीस कहानियाँ (पृष्ठ 117)
संपादक : रायकृष्ण दास, वाचस्पति पाठक
रचनाकार : यशपाल
प्रकाशन : भारती भंडार, इलाहाबाद
संस्करण : 1961
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।