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लाख की चूड़ियाँ

lakh ki chudiyaan

कामतानाथ

कामतानाथ

लाख की चूड़ियाँ

कामतानाथ

और अधिककामतानाथ

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    सारे गाँव में बदलू मुझे सबसे अच्छा आदमी लगता था क्योंकि वह मुझे सुंदर-सुंदर लाख की गोलियाँ बनाकर देता था। मुझे अपने मामा के गाँव जाने का सबसे बड़ा चाव यही था कि जब मैं वहाँ से लौटता था तो मेरे पास ढेर सारी गोलियाँ होतीं, रंग-बिरंगी गोलियाँ जो किसी भी बच्चे का मन मोह लें।

    वैसे तो मेरे मामा के गाँव का होने के कारण मुझे बदलू को 'बदलू मामा' कहना चाहिए था परंतु में उसे 'बदलू मामा' कहकर बदलू काका कहा करता था जैसा कि गाँव के सभी बच्चे उसे कहा करते थे। बदलू का मकान कुछ ऊँचे पर बना था। मकान के सामने बड़ा-सा सहन था जिसमें एक पुराना नीम का वृक्ष लगा था। उसी के नीचे बैठकर बदलू अपना काम किया करता था। बग़ल में भट्ठी दहकती रहती जिसमें वह लाख पिघलाया करता। सामने एक लकड़ी की चौखट पड़ी रहती जिस पर लाख के मुलायम होने पर वह उसे सलाख़ के समान पतला करके चूड़ी का आकार देता। पास में चार-छह विभिन्न आकार की बेलननुमा मुँगेरियाँ रखी रहतीं जो आगे से कुछ पतली और पीछे से मोटी होतीं। लाख की चूड़ी का आकार देकर वह उन्हें मुँगेरियों पर चढ़ाकर गोल और चिकना बनाता और तब एक-एक कर पूरे हाथ की चूड़ियाँ बना चुकने के पश्चात वह उन पर रंग करता।

    बदलू यह कार्य सदा ही एक मचिए पर बैठकर किया करता था जो बहुत ही पुरानी थी। बग़ल में ही उसका हुक्का रखा रहता जिसे वह बीच-बीच में पीता रहता। गाँव में मेरा दुपहर का समय अधिकतर बदलू के पास बीतता। वह मुझे 'लला' कहा करता और मेरे पहुँचते ही मेरे लिए तुरंत एक मचिया मँगा देता। मैं घंटों बैठे-बैठे उसे इस प्रकार चूड़ियाँ बनाते देखता रहता। लगभग रोज़ ही वह चार-छह जोड़े चूड़ियाँ बनाता। पूरा जोड़ा बना लेने पर वह उसे बेलन पर चढ़ाकर कुछ क्षण चुपचाप देखता रहता मानो वह बेलन होकर किसी नव-वधू की कलाई हो।

    बदलू मनिहार था। चूड़ियाँ बनाना उसका पैतृक पेशा था और वास्तव में वह बहुत ही सुंदर चूड़ियाँ बनाता था। उसकी बनाई हुई चूड़ियों की खपत भी बहुत थी। उस गाँव में तो सभी स्त्रियाँ उसकी बनाई हुई चूड़ियाँ पहनती ही थीं आस-पास के गाँवों के लोग भी उससे चूड़ियाँ ले जाते थे। परंतु वह कभी भी चूड़ियों को पैसों से बेचता था। उसका अभी तक वस्तु-विनिमय का तरीक़ा था और लोग अनाज के बदले उससे चूड़ियाँ ले जाते थे। बदलू स्वभाव से बहुत सीधा था। मैंने कभी भी उसे किसी से झगड़ते नहीं देखा। हाँ, शादी-विवाह के अवसरों पर वह अवश्य ज़िद पकड़ जाता था। जीवन भर चाहे कोई उससे मुफ़्त चूड़ियाँ ले जाए परंतु विवाह के अवसर पर वह सारी कसर निकाल लेता था। आख़िर सुहाग के जोड़े का महत्त्व ही और होता है। मुझे याद है, मेरे मामा के यहाँ किसी लड़की के विवाह पर ज़रा-सी किसी बात पर बिगड़ गया था और फिर उसको मनाने में लोहे लग गए थे। विवाह में इसी जोड़े का मूल्य इतना बढ़ जाता था कि उसके लिए उसकी घरवाली को सारे वस्त्र मिलते, ढेरों अनाज मिलता, उसको अपने लिए पगड़ी मिलती और रुपए जो मिलते सो अलग।

    यदि संसार में बदलू को किसी बात से चिढ़ थी तो वह थी काँच की चूड़ियों से। यदि किसी भी स्त्री के हाथों में उसे काँच की चूड़ियाँ दिख जातीं तो वह अंदर-ही-अंदर कुढ़ उठता और कभी-कभी तो दो-चार बातें भी सुना देता।

    मुझसे तो वह घंटों बातें किया करता। कभी मेरी पढ़ाई के बारे में पूछता, कभी मेरे घर के बारे में और कभी यों ही शहर के जीवन के बारे में। मैं उससे कहता कि शहर में सब काँच की चूड़ियाँ पहनते हैं तो वह उत्तर देता, शहर की बात और है, लला! वहाँ तो सभी कुछ होता है। वहाँ तो औरतें अपने मरद का हाथ पकड़कर सड़कों पर घूमती भी हैं और फिर उनकी कलाइयाँ नाज़ुक होती हैं न! लाख की चूड़ियाँ पहनें तो मोच जाए।

    कभी-कभी बदलू मेरी अच्छी ख़ासी ख़ातिर भी करता। जिन दिनों उसकी गाय के दूध होता वह सदा मेरे लिए मलाई बचाकर रखता और आम की फ़सल में तो मैं रोज़ ही उसके यहाँ से दो-चार आम खा आता। परंतु इन सब बातों के अतिरिक्त जिस कारण वह मुझे अच्छा लगता वह यह था कि लगभग रोज़ ही वह मेरे लिए एक-दो गोलियाँ बना देता।

    मैं बहुधा हर गर्मी की छुट्टी में अपने मामा के यहाँ चला जाता और एक-आध महीने वहाँ रहकर स्कूल खुलने के समय तक वापस जाता। परंतु दो-तीन बार ही मैं अपने मामा के यहाँ गया होऊँगा तभी मेरे पिता की एक दूर के शहर में बदली हो गई और एक लंबी अवधि तक मैं अपने मामा के गाँव जा सका। तब लगभग आठ-दस वर्षों के बाद जब मैं वहाँ गया तो इतना बड़ा हो चुका था कि लाख की गोलियों में मेरी रुचि नहीं रह गई थी। अतः गाँव में होते हुए भी कई दिनों तक मुझे बदलू का ध्यान आया। इस बीच मैंने देखा कि गाँव में लगभग सभी स्त्रियाँ काँच की चूड़ियाँ पहने हैं। विरले ही हाथों में मैंने लाख की चूड़ियाँ देखीं। तब एक दिन सहसा मुझे बदलू का ध्यान हो आया। बात यह हुई कि बरसात में मेरे मामा की छोटी लड़की आँगन में फिसलकर गिर पड़ी और उसके हाथ की काँच की चूड़ी टूटकर उसकी कलाई में घुस गई और उससे ख़ून बहने लगा। मेरे मामा उस समय घर पर थे। मुझे ही उसकी मरहम-पट्टी करनी पड़ी। तभी सहसा मुझे बदलू का ध्यान हो आया और मैंने सोचा कि उससे मिल आऊँ। अत: शाम को मैं घूमते-घूमते उसके घर चला गया। बदलू वहीं चबूतरे पर नीम के नीचे एक खाट पर लेटा था।

    नमस्ते बदलू काका! मैंने कहा।

    नमस्ते भइया! उसने मेरी नमस्ते का उत्तर दिया और उठकर खाट पर बैठ गया। परंतु उसने मुझे पहचाना नहीं और देर तक मेरी ओर निहारता रहा।

    मैं हूँ जनार्दन, काका! आपके पास से गोलियाँ बनवाकर ले जाता था। मैंने अपना परिचय दिया।

    बदलू फिर भी चुप रहा। मानो वह अपने स्मृति पटल पर अतीत के चित्र उतार रहा हो और तब वह एकदम बोल पड़ा, आओ-आओ, लला बैठो! बहुत दिन बाद गाँव आए।

    हाँ, इधर आना नहीं हो सका, काका! मैंने चारपाई पर बैठते हुए उत्तर दिया।

    कुछ देर फिर शांति रही। मैंने इधर-इधर दृष्टि दौड़ाई। तो मुझे उसकी मचिया ही नज़र आई, ही भट्ठी।

    आजकल काम नहीं करते काका? मैंने पूछा।

    नहीं लला, काम तो कई साल से बंद है। मेरी बनाई हुई चूड़ियाँ कोई पूछे तब तो। गाँव-गाँव में काँच का प्रचार हो गया है। वह कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, मशीन युग है यह, लला! आजकल सब काम मशीन से होता है। खेत भी मशीन से जोते जाते हैं और फिर जो सुंदरता काँच की चूड़ियों में होती है, लाख में कहाँ संभव है?

    लेकिन काँच बड़ा ख़तरनाक होता है। बड़ी जल्दी टूट जाता है। मैंने कहा।

    नाज़ुक तो फिर होता ही है लला! कहते-कहते उसे खाँसी गई और वह देर तक खाँसता रहा।

    मुझे लगा उसे दमा है। अवस्था के साथ-साथ उसका शरीर ढल चुका था। उसके हाथों पर और माथे पर नसें उभर आई थीं।

    जाने कैसे उसने मेरी शंका भाँप ली और बोला, दमा नहीं है मुझे। फ़सली खाँसी है। यही महीने-दो-महीने से रही है। दस-पंद्रह दिन में ठीक हो जाएगी।

    मैं चुप रहा। मुझे लगा उसके अंदर कोई बहुत बड़ी व्यथा छिपी है। मैं देर तक सोचता रहा कि इस मशीन युग ने कितने हाथ काट दिए हैं। कुछ देर फिर शांति रही जो मुझे अच्छी नहीं लगी।

    आम की फ़सल अब कैसी है, काका? कुछ देर पश्चात मैंने बात का विषय बदलते हुए पूछा।

    'अच्छी है लला, बहुत अच्छी है, उसने लहककर उत्तर दिया और अंदर अपनी बेटी को आवाज़ दी, अरी रज्जो, लला के लिए आम तो ले आ। फिर मेरी ओर मुख़ातिब होकर बोला, माफ़ करना लला, तुम्हें आम खिलाना भूल गया था।

    नहीं, नहीं काका आम तो इस साल बहुत खाए हैं।

    वाह-वाह!, बिना आम खिलाए कैसे जाने दूँगा तुमको?

    मैं चुप हो गया। मुझे वे दिन याद हो आए जब वह मेरे लिए मलाई बचाकर रखता था।

    गाय तो अच्छी है काका? मैंने पूछा।

    गाय कहाँ है, लला! दो साल हुए बेच दी। कहाँ से खिलाता?

    इतने में रज्जो, उसकी बेटी, अंदर से एक डलिया में ढेर से आम ले आई। यह तो बहुत हैं काका! इतने कहाँ खा पाऊँगा? मैंने कहा।

    वाह-वाह! वह हँस पड़ा, शहरी ठहरे ना! मैं तुम्हारी उमर का था तो इसके चौगुने आम एक बखत में खा जाता था।

    आप लोगों की बात और है। मैंने उत्तर दिया।

    अच्छा, बेटी, लला को चार-पाँच आम छाँटकर दो। सिंदूरीवाले देना। देखो लला कैसे हैं? इसी साल यह पेड़ तैयार हुआ है।

    रज्जों ने चार-पाँच आम अंजुली में लेकर मेरी ओर बढ़ा दिए। आम लेने के लिए मैंने हाथ बढ़ाया तो मेरो निगाह एक क्षण के लिए उसके हाथों पर ठिठक गई। गोरी-गोरी कलाइयों पर लाख की चूड़ियाँ बहुत ही फब रही थीं।

    बदलू ने मेरी दृष्टि देख ली और बोल पड़ा, यही आख़िरी जोड़ा बनाया था ज़मींदार साहब की बेटी के विवाह पर। दस आने पैसे मुझको दे रहे थे। मैंने जोड़ा नहीं दिया। कहा, शहर से ले आओ।

    मैंने आम ले लिए और खाकर थोड़ी देर पश्चात चला आया। मुझे प्रसन्नता हुई कि बदलू ने हारकर भी हार नहीं मानी थी। उसका व्यक्तित्व काँच की चूड़ियों जैसा था कि आसानी से टूट जाए।

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    कामतानाथ

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    स्रोत :
    • पुस्तक : वसंत (भाग-3) (पृष्ठ 1)
    • रचनाकार : कामतानाथ
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022
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