प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाज़ार में मकान था। नीचे की दुकानों से एक सौ रुपए मासिक के क़रीब किराया उतर आता था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे, पर ढाई सौ रुपए तो एक साथ आँख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।
इसलिए जब उनकी पत्नी ने एक दिन एकाएक ढाई सौ रुपए की माँग पेश की, तब उनका जी एक बार ज़ोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। उनकी यह दशा देखकर पत्नी ने कहा—डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से माँग लूँ?
लाला झाऊलाल तिलमिला उठे। उन्होंने रोब के साथ कहा—अजी हटो, ढाई सौ रुपए के लिए भाई से भीख माँगोगी, मुझसे ले लेना।
लेकिन मुझे इसी ज़िंदगी में चाहिए।
अजी इसी सप्ताह में ले लेना।
सप्ताह से आपका तात्पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?
लाला झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा—आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपए ले लेना।
लेकिन जब चार दिन ज्यों-त्यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्हें चिंता होने लगी। प्रश्न अपनी प्रतिष्ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था। देने का पक्का वादा करके अगर अब दे न सके तो अपने मन में वह क्या सोचेगी? उसकी नज़रों में उसका क्या मूल्य रह जाएगा? अपनी वाहवाही की सैकड़ों गाथाएँ सुना चुके थे। अब जो एक काम पड़ा तो चारों ख़ाने चित हो रहे। यह पहली बार उसने मुँह खोलकर कुछ रुपयों का सवाल किया था। इस समय अगर दुम दबाकर निकल भागते हैं तो फिर उसे क्या मुँह दिखलाएँगे?
ख़ैर, एक दिन और बीता। पाँचवे दिन घबराकर उन्होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्ख थे। उन्होंने कहा—मेरे पास हैं तो नहीं पर मैं कहीं से माँग-जाँचकर लाने की कोशिश करूँगा और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूँगा।
वही शाम आज थी। हफ़्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपए या तो गिन देना है या सारी हेंकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया न आने पर उनकी स्त्री उन्हें डामलफाँसी न कर देगी—केवल ज़रा-सा हँस देगी। पर वह कैसी हँसी होगी, कल्पना मात्र से झाऊलाल में मरोड़ पैदा हो जाती थी।
आज शाम को पं. बिलवासी मिश्र को आना था। यदि न आए तो? या कहीं रुपए का प्रबंध वे न कर सके?
इसी उधेड़-बुन में पड़े लाला झाऊलाल छत पर टहल रहे थे। कुछ प्यास मालूम हुई। उन्होंने नौकर को आवाज़ दी। नौकर नहीं था, ख़ुद उनकी पत्नी पानी लेकर आईं।
वह पानी तो ज़रूर लाई पर गिलास लाना भूल गई थीं। केवल लोटे में पानी लिए वह प्रकट हुई। फिर लोटा भी संयोग से वह जो अपनी बेढंगी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा से नापसंद था। था तो नया, साल दो साल का ही बना पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि उसका बाप डमरू, माँ चिलम रही हो।
लाला ने लोटा ले लिया, बोले कुछ नहीं, अपनी पत्नी का अदब मानते थे। मानना ही चाहिए। इसी को सभ्यता कहते हैं। जो पति अपनी पत्नी का न हुआ, वह पति कैसा? फिर उन्होंने यह भी सोचा कि लोटे में पानी दे, तब भी ग़नीमत है, अभी अगर चूँ कर देता हूँ तो बालटी में भोजन मिलेगा। तब क्या करना बाक़ी रह जाएगा?
लाला अपना ग़ुस्सा पीकर पानी पीने लगे। उस समय वे छत की मुँडेर के पास ही खड़े थे। जिन बुज़ुर्गों ने पानी पीने के संबंध में यह नियम बनाए थे कि खड़े-खड़े पानी न पियो, सोते समय पानी न पियो, दौड़ने के बाद पानी न पियो, उन्होंने पता नहीं कभी यह भी नियम बनाया या नहीं कि छत की मुँडेर के पास खड़े होकर पानी न पियो। जान पड़ता है कि इस महत्वपूर्ण विषय पर उन लोगों ने कुछ नहीं कहा है।
लाला झाऊलाल मुश्किल से दो-एक घूँट पी पाए होंगे कि न जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा छूट गया।
लोटे ने दाएँ देखा न बाएँ, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपने वेग में उल्का को लजाता हुआ वह आँखों से ओझल हो गया। किसी ज़माने में न्यूटन नाम के किसी ख़ुराफ़ाती ने पृथ्वी की आकर्षण शक्ति नाम की एक चीज़ ईजाद को थी। कहना न होगा कि यह सारी शक्ति इस समय लोटे के पक्ष में थी।
लाला को काटो तो बदन में ख़ून नहीं। ऐसो चलती हुई गली में ऊँचे तिमंज़ले से भरे हुए लोटे का गिरना हँसी-खेल नहीं। यह लोटा न जाने किस अनाधिकारी के झोंपड़े पर काशीवास का संदेश लेकर पहुँचेगा।
कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में ज़ोर का हल्ला उठा। लाला झाऊलाल जब तब दौड़कर नीचे उतरे तब तक एक भारी भीड़ उनके आँगन में घुस आई।
लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अँग्रेज़ है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पैर पर नाच रहा है। उसी के पास अपराधी लोटे को भी देखकर लाला झाऊलाल जी ने फ़ौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया।
गिरने के पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकराया। वहाँ टकराकर उस दुकान पर खड़े उस अँग्रेज़ को उसने सांगोपांग स्नान कराया और फिर उसी के बूट पर आ गिरा।
उस अँग्रेज़ को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया। अपने मुँह को खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अँग्रेज़ी भाषा में गालियों का ऐसा प्रकांड कोष है।
इसी समय पं. बिलवासी मित्र भीड़ को चीरते हुए आँगन में आते दिखाई पड़े। उन्होंने आते ही पहला काम यह किया कि उस अँग्रेज़ को छोड़कर और जितने आदमी आँगन में घुस आए थे, सबको बाहर निकाल दिया। फिर आँगन में कुर्सी रखकर उन्होंने साहब से कहा—“आपके पैर में शायद कुछ चोट आ गई है। अब आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।
साहब बिलवासी जी को धन्यवाद देते हुए बैठ गए और लाला झाऊलाल की और इशारा करके बोले—आप इस शख़्स को जानते हैं?
बिलकुल नहीं। और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह राह चलतों पर लोटे के वार करे।
मेरी समझ में 'ही इज़ ए डेंजरस ल्यूनाटिक' (यानी, यह ख़तरनाक पागल है)।
नहीं, मेरी समझ में 'ही इज़ ए डेंजरस क्रिमिनल' (नहीं, यह ख़तरनाक मुजरिम है)।
परमात्मा ने लाला झाऊलाल की आँखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दे दी होती तो यह निश्चय है कि अब तक बिलवासी जी को वे अपनी आँखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासी जी को इस समय क्या हो गया है।
साहब ने बिलवासी जी से पूछा तो क्या करना चाहिए?
पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए जिससे यह आदमी फ़ौरन हिरासत में ले लिया जाए।
पुलिस स्टेशन है कहाँ?
पास ही है, चलिए मैं बताऊँ
चलिए।
अभी चला। आपकी इजाज़त हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से ख़रीद लूँ। क्यों जी बेचोगे? मैं पचास रुपए तक इसके दाम दे सकता हूँ।
लाला झाऊलाल तो चुप रहे पर साहब ने पूछा—इस रद्दी लोटे के आप पचास रुपए क्यों दे रहे हैं?
आप इस लोटे को रद्दी बताते हैं? आश्चर्य! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।
आख़िर बात क्या है, कुछ बताइए भी।
जनाब यह एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। जान क्या पड़ता है, मुझे पूरा विश्वास है। यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है जिसकी तलाश में संसार-भर के म्यूज़ियम परेशान हैं।
यह बात?
जी, जनाब। सोलहवीं शताब्दी की बात है। बादशाह हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्तान में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्यास से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी। हुमायूँ के बाद अकबर ने उस ब्राह्मण का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए। यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्यारा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा। वह बराबर इसी से वजू करता था। सन् 57 तक इसके शाही घराने में रहने का पता है। पर इसके बाद लापता हो गया। कलकत्ता के म्यूज़ियम में इसका प्लास्टर का मॉडल रखा हुआ है। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया? म्यूज़ियमवालों को पता चले तो फ़ैंसी दाम देकर ख़रीद ले जाएँ।
इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आँखों पर लोभ और आश्चर्य का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे कौड़ी के आकार से बढ़कर पकौड़ी के आकार की हो गईं। उसने बिलवासी जी से पूछा—तो आप इस लोटे का क्या करिएगा?
मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह का शौक़ है।
मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह करने का शौक़ है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा था, उस समय मैं यही कर रहा था। उस दुकान से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियाँ ख़रीद रहा था।
जो कुछ हो, लोटा मैं ही ख़रीदूँगा।
वाह, आप कैसे ख़रीदेंगे, मैं ख़रीदूँगा, यह मेरा हक़ है।
हक़ है?
ज़रूर हक़ है। यह बताइए कि उस लोटे के पानी से आपने स्नान किया या मैंने?
आपने।
वह आपके पैरों पर गिरा या मेरे?
आपके।
अँगूठा उसने आपका भुरता किया या मेरा?
आपका।
इसलिए उसे ख़रीदने का हक़ मेरा है।
यह सब बकवास है। दाम लगाइए, जो अधिक दे, वह ले जाए।
यही सही। आप इसका पचास रुपया लगा रहे थे, मैं सौ देता हूँ।
मैं डेढ़ सौ देता हूँ।
मैं दो सौ देता हूँ।
अजी मैं ढाई सौ देता हूँ। यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।
साहब को भी ताव आ गया। उसने कहा—आप ढाई सौ देते हैं, तो मैं पाँच सौ देता हूँ। अब चलिए।
बिलवासी जी अफ़सोस के साथ अपने रुपए उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर देखकर उन्होंने कहा लोटा आपका हुआ, ले जाइए, मेरे पास ढाई सौ से अधिक नहीं है।
यह सुनना था कि साहब के चेहरे पर प्रसन्नता की कुँची गिर गई। उसने झपटकर लोटा लिया और बोला—अब मैं हँसता हुआ अपने देश लौटूँगा। मेजर डगलस की डींग सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे।
मेजर डगलस कौन हैं?
मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीज़ों के संग्रह करने में मेरी उनकी होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्तान आए थे और यहाँ से जहाँगीरी अंडा ले गए थे।
जहाँगीरी अंडा?
हाँ, जहाँगीरी अंडा। मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्तान से वे ही अच्छी चीज़ें ले सकते हैं।
पर जहाँगीरी अंडा है क्या?
आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहाँ से जहाँगीर का प्रेम कराया था। जहाँगीर के पूछने पर कि, मेरा एक कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहाँ ने उसके दूसरे कबूतर को उड़ाकर बताया था, कि ऐसे। उसके इस भोलेपन पर जहाँगीर दिलोजान से निछावर हो गया। उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहाँ के हाथ कर दिया। कबूतर का यह एहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को बड़े जतन से रख छोड़ा। एक बिल्लोर की हाँडी में वह उसके सामने टँगा रहता था। बाद में वही अंडा जहाँगीरी अंडा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने पारसाल दिल्ली में एक मुसलमान सज्जन से तीन सौ रुपए में ख़रीदा।
यह बात?
हाँ, पर अब मेरे आगे दून की नहीं ले सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहाँगीरी अंडे से भी एक पुश्त पुराना है।
इस रिश्ते से तो आपका लोटा उस अंडे का बाप हुआ।
साहब ने लाला झाऊलाल को पाँच सौ रुपए देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते बनता था। जान पड़ता था कि मुँह पर छह दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी का एक-एक बाल मारे प्रसन्नता के लहरा रहा है। उन्होंने पूछा—बिलवासी जी! मेरे लिए ढाई सौ रुपया घर से लेकर आए! पर आपके पास तो थे नहीं।
इस भेद को मेरे सिवाए मेरा ईश्वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए, मैं नहीं बताऊँगा।
पर आप चले कहाँ? अभी मुझे आपसे काम है दो घंटे तक।
दो घंटे तक?
हाँ, और क्या, अभी मैं आपकी पीठ ठोककर शाबाशी दूँगा, एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्यवाद दूँगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।
अच्छा पहले पाँच सौ रुपए गिनकर सहेज लीजिए।
रुपया अगर अपना हो, तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद मनमोहक कार्य है कि मनुष्य उस समय सहज में ही तन्मयता प्राप्त कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्त करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच अंतर्धान हो गए।
उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे। धीरे, बहुत धीरे से अपनी सोई हुई पत्नी के गले से उन्होंने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली बँधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्होंने उस ताली से संदूक़ खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्यों-के-त्यों रखकर उन्होंने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पाँव लौटकर ताली को उन्होंने पूर्ववत अपनी पत्नी के गले में डाल दिया। इसके बाद उन्होंने हँसकर अँगड़ाई ली। दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक चैन की नींद सोए।
lala jhaulal ko khane pine ki kami nahin thi. kashi ke thatheri bazar mein makan tha. niche ki dukanon se ek sau rupe masik ke qarib kiraya utar aata tha. achchha khate the, achchha pahante the, par Dhai sau rupe to ek saath ankh senkne ke liye bhi na milte the.
isliye jab unki patni ne ek din ekayek Dhai sau rupe ki maang pesh ki, tab unka ji ek baar zor se sanasnaya aur phir baith gaya. unki ye dasha dekhkar patni ne kaha—Dariye mat, aap dene mein asmarth hon to main apne bhai se maang loon?
lala jhaulal tilmila uthe. unhonne rob ke saath kaha—aji hato, Dhai sau rupe ke liye bhai se bheekh mangogi, mujhse le lena.
lekin mujhe isi zindagi mein chahiye.
aji isi saptah mein le lena.
saptah se aapka tatparya saat din se hai ya saat varsh se?
lala jhaulal ne rob ke saath khaDe hote hue kaha—aj se satven din mujhse Dhai sau rupe le lena.
lekin jab chaar din jyon tyon mein yon hi beet ge aur rupyon ka koi prbandh na ho saka tab unhen chinta hone lagi. parashn apni pratishtha ka tha, apne hi ghar mein apni saakh ka tha. dene ka pakka vada karke agar ab de na sake to apne man mein wo kya sochegi? uski nazron mein uska kya mulya rah jayega? apni vahavahi ki saikDon gathayen suna chuke the. ab jo ek kaam paDa to charon khane chit ho rahe. ye pahli baar usne munh kholkar kuch rupyon ka saval kiya tha. is samay agar dum dabakar nikal bhagte hain to phir use kya munh dikhlayenge?
khair, ek din aur bita. panchave din ghabrakar unhonne pan. bilvasi mishr ko apni vipda sunai. sanyog kuch aisa bigDa tha ki bilvasi ji bhi us samay bilkul khukkh the. unhonne kaha—mere paas hain to nahin par main kahin se maang janchakar lane ki koshish karunga aur agar mil gaya to kal shaam ko tumse makan par milunga.
vahi shaam aaj thi. hafte ka antim din. kal Dhai sau rupe ya to gin dena hai ya sari henkDi se haath dhona hai. ye sach hai ki kal rupya na aane par unki stri unhen Damalphansi na kar degi—keval zara sa hans degi. par wo kaisi hansi hogi, kalpana maatr se jhaulal mein maroD paida ho jati thi.
aaj shaam ko pan. bilvasi mishr ko aana tha. yadi na aaye to? ya kahin rupe ka prbandh ve na kar sake?
isi udheD bun mein paDe lala jhaulal chhat par tahal rahe the. kuch pyaas malum hui. unhonne naukar ko avaz di. naukar nahin tha, khud unki patni pani lekar ain.
wo pani to zarur lai par gilas lana bhool gai theen. keval lote mein pani liye wo prakat hui. phir lota bhi sanyog se wo jo apni beDhangi surat ke karan lala jhaulal ko sada se napsand tha. tha to naya, saal do saal ka hi bana par kuch aisi gaDhan us lote ki thi ki uska baap Damru, maan chilam rahi ho.
lala ne lota le liya, bole kuch nahin, apni patni ka adab mante the. manna hi chahiye. isi ko sabhyata kahte hain. jo pati apni patni ka na hua, wo pati kaisa? phir unhonne ye bhi socha ki lote mein pani de, tab bhi ghanimat hai, abhi agar choon kar deta hoon to balati mein bhojan milega. tab kya karna baqi rah jayega?
lala apna ghussa pikar pani pine lage. us samay ve chhat ki munDer ke paas hi khaDe the. jin buzurgon ne pani pine ke sambandh mein ye niyam banaye the ki khaDe khaDe pani na piyo, sote samay pani na piyo, dauDne ke baad pani na piyo, unhonne pata nahin kabhi ye bhi niyam banaya ya nahin ki chhat ki munDer ke paas khaDe hokar pani na piyo. jaan paDta hai ki is mahatvpurn vishay par un logon ne kuch nahin kaha hai.
lala jhaulal mushkil se do ek ghoont pi pae honge ki na jane kaise unka haath hil utha aur lota chhoot gaya.
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sahab bilvasi ji ko dhanyavad dete hue baith ge aur lala jhaulal ki aur ishara karke bole—ap is shakhs ko jante hain?
bilkul nahin. aur main aise adami ko janna bhi nahin chahta jo nirih raah chalton par lote ke vaar kare.
meri samajh mein hi iz e Denjras lyunatik (yani, ye khatarnak pagal hai).
nahin, meri samajh mein hi iz e Denjras kriminal (nahin, ye khatarnak mujrim hai).
parmatma ne lala jhaulal ki ankhon ko is samay kahin dekhne ke saath khane ki bhi shakti de di hoti to ye nishchay hai ki ab tak bilvasi ji ko ve apni ankhon se kha chuke hote. ve kuch samajh nahin pate the ki bilvasi ji ko is samay kya ho gaya hai.
sahab ne bilvasi ji se puchha to kya karna chahiye?
pulis mein is mamle ki riport kar dijiye jisse ye adami fauran hirasat mein le liya jaye.
pulis steshan hai kahan?
paas hi hai, chaliye main bataun
chaliye.
abhi chala. apaki ijazat ho to pahle main is lote ko is adami se kharid loon. kyon ji bechoge? main pachas rupe tak iske daam de sakta hoon.
lala jhaulal to chup rahe par sahab ne puchha—is raddi lote ke aap pachas rupe kyon de rahe hain?
aap is lote ko raddi batate hain? ashcharya! main to aapko ek vigya aur sushikshit adami samajhta tha.
akhir baat kya hai, kuch bataiye bhi.
janab ye ek aitihasik lota jaan paDta hai. jaan kya paDta hai, mujhe pura vishvas hai. ye wo prasiddh akbari lota hai jiski talash mein sansar bhar ke myuziyam pareshan hain.
yah baat?
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is vivran ko sunte sunte sahab ki ankhon par lobh aur ashcharya ka aisa prabhav paDa ki ve kauDi ke akar se baDhkar pakauDi ke akar ki ho gain. usne bilvasi ji se puchha—to aap is lote ka kya kariyega?
mujhe purani aur aitihasik chizon ke sangrah ka shauq hai.
mujhe bhi purani aur aitihasik chizon ke sangrah karne ka shauq hai. jis samay ye lota mere uupar gira tha, us samay main yahi kar raha tha. us dukan se pital ki kuch purani murtiyan kharid raha tha.
jo kuch ho, lota main hi kharidunga.
vaah, aap kaise kharidenge, main kharidunga, ye mera haq hai.
haq hai?
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apka.
isliye use kharidne ka haq mera hai.
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yahi sahi. aap iska pachas rupya laga rahe the, main sau deta hoon.
main DeDh sau deta hoon.
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aji main Dhai sau deta hoon. ye kahkar bilvasi ji ne Dhai sau ke not lala jhaulal ke aage phenk diye.
sahab ko bhi taav aa gaya. usne kaha—ap Dhai sau dete hain, to main paanch sau deta hoon. ab chaliye.
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ye sunna tha ki sahab ke chehre par prasannata ki kunchi gir gai. usne jhapatkar lota liya aur bola—ab main hansta hua apne desh lautunga. mejar Daglas ki Deeng sunte sunte mere kaan pak ge the.
mejar Daglas kaun hain?
mejar Daglas mere paDosi hain. purani chizon ke sangrah karne mein meri unki hoD rahti hai. gat varsh ve hindustan aaye the aur yahan se jahangiri anDa le ge the.
jahangiri anDa?
haan, jahangiri anDa. mejar Daglas ne samajh rakha tha ki hindustan se ve hi achchhi chizen le sakte hain.
par jahangiri anDa hai kyaa?
aap jante honge ki ek kabutar ne nurajhan se jahangir ka prem karaya tha. jahangir ke puchhne par ki, mera ek kabutar tumne kaise uD jane diya, nurajhan ne uske dusre kabutar ko uDakar bataya tha, ki aise. uske is bholepan par jahangir dilojan se nichhavar ho gaya. usi kshan se usne apne ko nurajhan ke haath kar diya. kabutar ka ye ehsaan wo nahin bhula. uske ek anDe ko baDe jatan se rakh chhoDa. ek billor ki hanDi mein wo uske samne tanga rahta tha. baad mein vahi anDa jahangiri anDa ke naam se prasiddh hua. usi ko mejar Daglas ne parasal dilli mein ek musalman sajjan se teen sau rupe mein kharida.
yah baat?
haan, par ab mere aage doon ki nahin le sakte. mera akbari lota unke jahangiri anDe se bhi ek pusht purana hai.
is rishte se to aapka lota us anDe ka baap hua.
sahab ne lala jhaulal ko paanch sau rupe dekar apni raah li. lala jhaulal ka chehra is samay dekhte banta tha. jaan paDta tha ki munh par chhah din ki baDhi hui daDhi ka ek ek baal mare prasannata ke lahra raha hai. unhonne puchha—bilvasi jee! mere liye Dhai sau rupya ghar se lekar aaye! par aapke paas to the nahin.
is bhed ko mere sivaye mera iishvar hi janta hai. aap usi se poochh lijiye, main nahin bataunga.
par aap chale kahan? abhi mujhe aapse kaam hai do ghante tak.
do ghante tak?
haan, aur kya, abhi main apaki peeth thokkar shabashi dunga, ek ghanta ismen lagega. phir gale lagakar dhanyavad dunga, ek ghanta ismen bhi lag jayega.
achchha pahle paanch sau rupe ginkar sahej lijiye.
rupya agar apna ho, to use sahejna ek aisa sukhad manmohak karya hai ki manushya us samay sahj mein hi tanmayta praapt kar leta hai. lala jhaulal ne apna karya samapt karke uupar dekha. par bilvasi ji is beech antardhan ho ge.
us din ratri mein bilvasi ji ko der tak neend nahin aai. ve chadar lapete charpai par paDe rahe. ek baje ve uthe. dhire, bahut dhire se apni soi hui patni ke gale se unhonne sone ki wo sikDi nikali jismen ek tali bandhi hui thi. phir uske kamre mein jakar unhonne us tali se sanduq khola. usmen Dhai sau ke not jyon ke tyon rakhkar unhonne use band kar diya. phir dabe paanv lautkar tali ko unhonne purvavat apni patni ke gale mein Daal diya. iske baad unhonne hansakar angDai li. dusre din subah aath baje tak chain ki neend soe.
lala jhaulal ko khane pine ki kami nahin thi. kashi ke thatheri bazar mein makan tha. niche ki dukanon se ek sau rupe masik ke qarib kiraya utar aata tha. achchha khate the, achchha pahante the, par Dhai sau rupe to ek saath ankh senkne ke liye bhi na milte the.
isliye jab unki patni ne ek din ekayek Dhai sau rupe ki maang pesh ki, tab unka ji ek baar zor se sanasnaya aur phir baith gaya. unki ye dasha dekhkar patni ne kaha—Dariye mat, aap dene mein asmarth hon to main apne bhai se maang loon?
lala jhaulal tilmila uthe. unhonne rob ke saath kaha—aji hato, Dhai sau rupe ke liye bhai se bheekh mangogi, mujhse le lena.
lekin mujhe isi zindagi mein chahiye.
aji isi saptah mein le lena.
saptah se aapka tatparya saat din se hai ya saat varsh se?
lala jhaulal ne rob ke saath khaDe hote hue kaha—aj se satven din mujhse Dhai sau rupe le lena.
lekin jab chaar din jyon tyon mein yon hi beet ge aur rupyon ka koi prbandh na ho saka tab unhen chinta hone lagi. parashn apni pratishtha ka tha, apne hi ghar mein apni saakh ka tha. dene ka pakka vada karke agar ab de na sake to apne man mein wo kya sochegi? uski nazron mein uska kya mulya rah jayega? apni vahavahi ki saikDon gathayen suna chuke the. ab jo ek kaam paDa to charon khane chit ho rahe. ye pahli baar usne munh kholkar kuch rupyon ka saval kiya tha. is samay agar dum dabakar nikal bhagte hain to phir use kya munh dikhlayenge?
khair, ek din aur bita. panchave din ghabrakar unhonne pan. bilvasi mishr ko apni vipda sunai. sanyog kuch aisa bigDa tha ki bilvasi ji bhi us samay bilkul khukkh the. unhonne kaha—mere paas hain to nahin par main kahin se maang janchakar lane ki koshish karunga aur agar mil gaya to kal shaam ko tumse makan par milunga.
vahi shaam aaj thi. hafte ka antim din. kal Dhai sau rupe ya to gin dena hai ya sari henkDi se haath dhona hai. ye sach hai ki kal rupya na aane par unki stri unhen Damalphansi na kar degi—keval zara sa hans degi. par wo kaisi hansi hogi, kalpana maatr se jhaulal mein maroD paida ho jati thi.
aaj shaam ko pan. bilvasi mishr ko aana tha. yadi na aaye to? ya kahin rupe ka prbandh ve na kar sake?
isi udheD bun mein paDe lala jhaulal chhat par tahal rahe the. kuch pyaas malum hui. unhonne naukar ko avaz di. naukar nahin tha, khud unki patni pani lekar ain.
wo pani to zarur lai par gilas lana bhool gai theen. keval lote mein pani liye wo prakat hui. phir lota bhi sanyog se wo jo apni beDhangi surat ke karan lala jhaulal ko sada se napsand tha. tha to naya, saal do saal ka hi bana par kuch aisi gaDhan us lote ki thi ki uska baap Damru, maan chilam rahi ho.
lala ne lota le liya, bole kuch nahin, apni patni ka adab mante the. manna hi chahiye. isi ko sabhyata kahte hain. jo pati apni patni ka na hua, wo pati kaisa? phir unhonne ye bhi socha ki lote mein pani de, tab bhi ghanimat hai, abhi agar choon kar deta hoon to balati mein bhojan milega. tab kya karna baqi rah jayega?
lala apna ghussa pikar pani pine lage. us samay ve chhat ki munDer ke paas hi khaDe the. jin buzurgon ne pani pine ke sambandh mein ye niyam banaye the ki khaDe khaDe pani na piyo, sote samay pani na piyo, dauDne ke baad pani na piyo, unhonne pata nahin kabhi ye bhi niyam banaya ya nahin ki chhat ki munDer ke paas khaDe hokar pani na piyo. jaan paDta hai ki is mahatvpurn vishay par un logon ne kuch nahin kaha hai.
lala jhaulal mushkil se do ek ghoont pi pae honge ki na jane kaise unka haath hil utha aur lota chhoot gaya.
lote ne dayen dekha na bayen, wo niche gali ki or chal paDa. apne veg mein ulka ko lajata hua wo ankhon se ojhal ho gaya. kisi zamane mein nyutan naam ke kisi khurafati ne prithvi ki akarshan shakti naam ki ek cheez iijad ko thi. kahna na hoga ki ye sari shakti is samay lote ke paksh mein thi.
lala ko kato to badan mein khoon nahin. aiso chalti hui gali mein uunche timanzle se bhare hue lote ka girna hansi khel nahin. ye lota na jane kis anadhikari ke jhompDe par kashivas ka sandesh lekar pahunchega.
kuch hua bhi aisa hi. gali mein zor ka halla utha. lala jhaulal jab tab dauDkar niche utre tab tak ek bhari bheeD unke angan mein ghus aai.
lala jhaulal ne dekha ki is bheeD mein pardhan paatr ek angrez hai jo nakhshikh se bhiga hua hai aur jo apne ek pair ko haath se sahlata hua dusre pair par naach raha hai. usi ke paas apradhi lote ko bhi dekhkar lala jhaulal ji ne fauran do aur do joDkar sthiti ko samajh liya.
girne ke poorv lota ek dukan ke sayaban se takraya. vahan takrakar us dukan par khaDe us angrez ko usne sangopang snaan karaya aur phir usi ke boot par aa gira.
us angrez ko jab malum hua ki lala jhaulal hi us lote ke malik hain tab usne keval ek kaam kiya. apne munh ko kholkar khula chhoD diya. lala jhaulal ko aaj hi ye malum hua ki angrezi bhasha mein galiyon ka aisa prkaanD kosh hai.
isi samay pan. bilvasi mitr bheeD ko chirte hue angan mein aate dikhai paDe. unhonne aate hi pahla kaam ye kiya ki us angrez ko chhoDkar aur jitne adami angan mein ghus aaye the, sabko bahar nikal diya. phir angan mein kursi rakhkar unhonne sahab se kaha—“apke pair mein shayad kuch chot aa gai hai. ab aap aram se kursi par baith jaiye.
sahab bilvasi ji ko dhanyavad dete hue baith ge aur lala jhaulal ki aur ishara karke bole—ap is shakhs ko jante hain?
bilkul nahin. aur main aise adami ko janna bhi nahin chahta jo nirih raah chalton par lote ke vaar kare.
meri samajh mein hi iz e Denjras lyunatik (yani, ye khatarnak pagal hai).
nahin, meri samajh mein hi iz e Denjras kriminal (nahin, ye khatarnak mujrim hai).
parmatma ne lala jhaulal ki ankhon ko is samay kahin dekhne ke saath khane ki bhi shakti de di hoti to ye nishchay hai ki ab tak bilvasi ji ko ve apni ankhon se kha chuke hote. ve kuch samajh nahin pate the ki bilvasi ji ko is samay kya ho gaya hai.
sahab ne bilvasi ji se puchha to kya karna chahiye?
pulis mein is mamle ki riport kar dijiye jisse ye adami fauran hirasat mein le liya jaye.
pulis steshan hai kahan?
paas hi hai, chaliye main bataun
chaliye.
abhi chala. apaki ijazat ho to pahle main is lote ko is adami se kharid loon. kyon ji bechoge? main pachas rupe tak iske daam de sakta hoon.
lala jhaulal to chup rahe par sahab ne puchha—is raddi lote ke aap pachas rupe kyon de rahe hain?
aap is lote ko raddi batate hain? ashcharya! main to aapko ek vigya aur sushikshit adami samajhta tha.
akhir baat kya hai, kuch bataiye bhi.
janab ye ek aitihasik lota jaan paDta hai. jaan kya paDta hai, mujhe pura vishvas hai. ye wo prasiddh akbari lota hai jiski talash mein sansar bhar ke myuziyam pareshan hain.
yah baat?
ji, janab. solahvin shatabdi ki baat hai. badashah humayun shershah se harkar bhaga tha aur sindh ke registan mein mara mara phir raha tha. ek avsar par pyaas se uski jaan nikal rahi thi. us samay ek brahman ne isi lote se pani pilakar uski jaan bachai thi. humayun ke baad akbar ne us brahman ka pata lagakar usse is lote ko le liya aur iske badle mein use isi prakar ke das sone ke lote pradan kiye. ye lota samrat akbar ko bahut pyara tha. isi se iska naam akbari lota paDa. wo barabar isi se vaju karta tha. san 57 tak iske shahi gharane mein rahne ka pata hai. par iske baad lapata ho gaya. kalkatta ke myuziyam mein iska plastar ka mauDal rakha hua hai. pata nahin ye lota is adami ke paas kaise aaya? myuziyamvalon ko pata chale to fainsi daam dekar kharid le jayen.
is vivran ko sunte sunte sahab ki ankhon par lobh aur ashcharya ka aisa prabhav paDa ki ve kauDi ke akar se baDhkar pakauDi ke akar ki ho gain. usne bilvasi ji se puchha—to aap is lote ka kya kariyega?
mujhe purani aur aitihasik chizon ke sangrah ka shauq hai.
mujhe bhi purani aur aitihasik chizon ke sangrah karne ka shauq hai. jis samay ye lota mere uupar gira tha, us samay main yahi kar raha tha. us dukan se pital ki kuch purani murtiyan kharid raha tha.
jo kuch ho, lota main hi kharidunga.
vaah, aap kaise kharidenge, main kharidunga, ye mera haq hai.
haq hai?
zarur haq hai. ye bataiye ki us lote ke pani se aapne snaan kiya ya mainne?
apne.
vah aapke pairon par gira ya mere?
apke.
angutha usne aapka bhurta kiya ya mera?
apka.
isliye use kharidne ka haq mera hai.
yah sab bakvas hai. daam lagaiye, jo adhik de, wo le jaye.
yahi sahi. aap iska pachas rupya laga rahe the, main sau deta hoon.
main DeDh sau deta hoon.
main do sau deta hoon.
aji main Dhai sau deta hoon. ye kahkar bilvasi ji ne Dhai sau ke not lala jhaulal ke aage phenk diye.
sahab ko bhi taav aa gaya. usne kaha—ap Dhai sau dete hain, to main paanch sau deta hoon. ab chaliye.
bilvasi ji afsos ke saath apne rupe uthane lage, mano apni ashaon ki laash utha rahe hon. sahab ki or dekhkar unhonne kaha lota aapka hua, le jaiye, mere paas Dhai sau se adhik nahin hai.
ye sunna tha ki sahab ke chehre par prasannata ki kunchi gir gai. usne jhapatkar lota liya aur bola—ab main hansta hua apne desh lautunga. mejar Daglas ki Deeng sunte sunte mere kaan pak ge the.
mejar Daglas kaun hain?
mejar Daglas mere paDosi hain. purani chizon ke sangrah karne mein meri unki hoD rahti hai. gat varsh ve hindustan aaye the aur yahan se jahangiri anDa le ge the.
jahangiri anDa?
haan, jahangiri anDa. mejar Daglas ne samajh rakha tha ki hindustan se ve hi achchhi chizen le sakte hain.
par jahangiri anDa hai kyaa?
aap jante honge ki ek kabutar ne nurajhan se jahangir ka prem karaya tha. jahangir ke puchhne par ki, mera ek kabutar tumne kaise uD jane diya, nurajhan ne uske dusre kabutar ko uDakar bataya tha, ki aise. uske is bholepan par jahangir dilojan se nichhavar ho gaya. usi kshan se usne apne ko nurajhan ke haath kar diya. kabutar ka ye ehsaan wo nahin bhula. uske ek anDe ko baDe jatan se rakh chhoDa. ek billor ki hanDi mein wo uske samne tanga rahta tha. baad mein vahi anDa jahangiri anDa ke naam se prasiddh hua. usi ko mejar Daglas ne parasal dilli mein ek musalman sajjan se teen sau rupe mein kharida.
yah baat?
haan, par ab mere aage doon ki nahin le sakte. mera akbari lota unke jahangiri anDe se bhi ek pusht purana hai.
is rishte se to aapka lota us anDe ka baap hua.
sahab ne lala jhaulal ko paanch sau rupe dekar apni raah li. lala jhaulal ka chehra is samay dekhte banta tha. jaan paDta tha ki munh par chhah din ki baDhi hui daDhi ka ek ek baal mare prasannata ke lahra raha hai. unhonne puchha—bilvasi jee! mere liye Dhai sau rupya ghar se lekar aaye! par aapke paas to the nahin.
is bhed ko mere sivaye mera iishvar hi janta hai. aap usi se poochh lijiye, main nahin bataunga.
par aap chale kahan? abhi mujhe aapse kaam hai do ghante tak.
do ghante tak?
haan, aur kya, abhi main apaki peeth thokkar shabashi dunga, ek ghanta ismen lagega. phir gale lagakar dhanyavad dunga, ek ghanta ismen bhi lag jayega.
achchha pahle paanch sau rupe ginkar sahej lijiye.
rupya agar apna ho, to use sahejna ek aisa sukhad manmohak karya hai ki manushya us samay sahj mein hi tanmayta praapt kar leta hai. lala jhaulal ne apna karya samapt karke uupar dekha. par bilvasi ji is beech antardhan ho ge.
us din ratri mein bilvasi ji ko der tak neend nahin aai. ve chadar lapete charpai par paDe rahe. ek baje ve uthe. dhire, bahut dhire se apni soi hui patni ke gale se unhonne sone ki wo sikDi nikali jismen ek tali bandhi hui thi. phir uske kamre mein jakar unhonne us tali se sanduq khola. usmen Dhai sau ke not jyon ke tyon rakhkar unhonne use band kar diya. phir dabe paanv lautkar tali ko unhonne purvavat apni patni ke gale mein Daal diya. iske baad unhonne hansakar angDai li. dusre din subah aath baje tak chain ki neend soe.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।