पौ फटते ही क़स्बे की सभी दिशाओं से ढोल पीटने वाले आ पहुँचे और जिन घुड़सवारों को स्वागत समारोह में भाग लेना था, वे भी इकट्ठे हुए।
बान्यालूका में आस्ट्रियाइयों पर विजय के उत्सव में दोबोई की गोलीबारी का यह चौथा दिन था। पूरे बाजनिया और विशेषकर दोबोई को अपने साथ देशवासी मुस्तफ़ा माज़ार पर गर्व था, जो बान्यालूका की लड़ाई में सबसे महान् वीर नायक रहा था। जर्मनों की हत्या के बारे में, आम जनता के नरसंहार के बारे में और मुस्तफ़ा माज़ार के बारे में कुछ अविश्वसनीय ख़बरें आई थीं। आज ये लोग उसी का इंतज़ार कर रहे थे।
सड़क पर उठते धूल के ग़ुबार से उन्हें बार-बार धोखा हो रहा था। गोधूलि से कुछ पहले ही मुस्तफ़ा माज़ार आया। वह तुरहियों और झंडों के साथ आया। वह झुका हुआ और कुछ छोटा था, जबकि क़िस्से-कहानियों और लोगों की अपेक्षा में वह कहीं बड़ा दिखाई देता था। बिलकुल झुका हुआ, काला और लबादा ओढ़े वह कोई पवित्र और विद्वान् यात्री ही दिखाई देता था, वह मुस्तफ़ा माज़ार नहीं, जिसके बारे में इतना अधिक कहा और गाया गया था।
जल्दी-जल्दी और किसी पर कोई ध्यान दिए बिना, वह शोर मचाती और जय-जयकार करती भीड़ के बीच से होकर घोड़े पर तेज़ी से निकल गया। न उसने पीछे मुड़कर देखा, न किसी से कुछ बात की और अपने मकान में घुस गया। इस बीच भीड़ उसके आँगन के सामने खड़ी रही और उसके घोड़े से उतारे जाते लूट के सामान को देखती रही।
यह तीसरी बार था कि मुस्तफ़ा माज़ार पानी के ऊपर अपने ढलवाँ मकान में लौटा था। कुछेक ग़ुलामों के अलावा उसे अपने फिज़ूलख़र्च, शराबी बाप से विरासत में यह मकान ही मिला था। जायदाद का बँटवारा उसके भाई और उसके बीच कर दिया गया था जबकि उसके दादा आवदाग़ा माज़ार ने ख़ूब दौलत कमाई और छोड़ी थी। वह जाने-माने तुर्क थे, जो अपने पुराने इज़्ज़तदार हंगरी घराने को छोड़कर तुर्क हो गए थे।
पिता की मृत्यु और भाई की शादी के बाद पंद्रह साल की आयु में उसे मुस्लिम धर्मशास्त्र का अध्ययन करने के लिए सारायेवा भेज दिया गया। वहाँ उसने कष्ट और ग़रीबी के चार साल काटे बीस की आयु में वह दोबोई लौटा तो उसके पास किताबों से भरा एक संदूक और धर्मशास्त्रियों की तंगहाली और चाँदी मढ़ी एक बाँसुरी थी; वह अपने भाई के पास रहने नहीं गया, बल्कि इस मकान में आ गया।
वह बिलकुल बदल गया था। अपने मोटे होंठों के ऊपर भीगी मसें लिए, काला झुका और गंभीर, मुस्तफ़ा माज़ार न किसी से मिलता-जुलता था, न बोलता था। दिन के समय वह मुसलमान पुरोहित इस्मेतागा के साथ अपनी किताबें पढ़ता और रात में बहुत देर तक बाँसुरी बजाता अपने मकान के लंबे-चौड़े मूरिश आँगन को संगीत से भर देता था। और जब पहली सेना के लिए भरती शुरू हुई तो उसने अपने हथियार लिए, मकान में ताला डाला और देलालिच के झंडे तले रूस चला गया। बहुत दिनों तक उसके बारे में कोई ख़बर नहीं आई। एक साल बाद यह ख़बर आई कि वह मारा गया और क्योंकि वह किसी से मेल-जोल नहीं रखता था और कमसिन था, इसलिए लोगों ने उसे जल्दी ही भुला दिया। और जब देलालिच लौटा तो उसने बताया कि मुस्तफ़ा जीवित है (और मज़े में है) और तमाम बाज़नियाइयों में सबसे विख्यात और अत्यधिक सम्मानित है। छह साल बाद वह अचानक अपने आप दोबोई लौट आया। वह पहचान में भी नहीं आ रहा था। वह किसी इस्तांबूली की तरह शानदार कपड़े पहने था। उसने अपने मकान का ताला खोला। देर रात में उसने मोमी कपड़े में लिपटी अपनी बाँसुरी ढूँढ़ निकाली और धीमे-धीमे और दबी-दबी राग छेड़ने लगा।
तऊ ऊ, तीती ताता आ
बाँसुरी की आवाज़ ख़ामोशी में उदासी लिए गूँजने लगी।
उसने महसूस किया कि उसके पास न पहले जैसी बँधी साँस थी और न ही चपल उँगलियाँ और न ही उसे पुरानी धुनें याद थीं। उसने बाँसुरी को फिर लपेटकर रख दिया और अपने आपको अनिद्रा की प्रताड़ना के हवाले कर दिया, जिसने लड़ाई ख़त्म होने के बाद से उसका पीछा नहीं छोड़ा था।
यह प्रताड़ना हर रात होती थी। अचानक वह अपने बारे में सब कुछ, यहाँ तक कि अपना नाम भी भूल जाता और उस पहली अर्धनिद्रा में तमाम स्मृति और आने वाले दिन की सारी चेतना ग़ायब हो जाती और पथरीले अँधेरे में बस उसकी सिमटी काया निर्जीव पड़ी रहती और उसे लगता, मानो उसकी टाँगों में किसी ने पिन और सुइयाँ चुभो दी हों और उसके दिल के नीचे मुलायम मांस में भय समा गया हो और हर कहीं एक ठंडी धार की तरह आतंक फैलने लगता। वह पूरी कोशिश करके जब-तब उठता, मोमबत्ती जलाता, खिड़की खोल देता और अपने आपको विश्वास दिलाता कि वह जीवित है और अंधकार की शक्तियों ने उसे नष्ट या अगवा नहीं किया है।
तड़के तक यही स्थिति रहती और फिर एक भारी शांति उसकी काया में प्रवेश करती और नींद कहीं से बहकर आती; यह नींद थोड़ी देर की, लेकिन दुनिया की और किसी भी चीज़ से अधिक मीठी और दयापूर्ण होती। और कल का दिन एक और दिन होता। यह क्रम लगातार दुहराया जाता था, लेकिन उसने इस बारे में किसी को बताने का कभी विचार नहीं किया था। पुरोहितों से उसे अरुचि थी और डॉक्टरों पर उसका विश्वास नहीं था।
क़स्बे में वह जब आया था, उस पहली रात के बाद सराय में सारे लोग उसे जगह देने के लिए अपनी जगह छोड़ देते थे, लेकिन वह मुस्कराता नहीं था, न ही उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए इस्तांबूल की लड़ाई के बारे में बात करता था। एक बार फिर लोग उसे कम करके आँकने और भूलने लगे। लेकिन फिर स्लवोनिया में नई लड़ाइयाँ छिड़ गईं और वह तड़के ही पहली टुकड़ी के साथ उसी ख़ामोशी के साथ चला गया, जिस ख़ामोशी के साथ वह आया था।
एक बार फिर हंगरी और स्लवोनिया और ओर्लयावा नदी के मुहाने पर हुई भीषण लड़ाई में उसके वीरता—भरे कारनामों की ख़बर आई और जब आस्ट्रियाइयों ने बान्यालूका को घेर लिया और जनता की छोटी-सी भीड़ ने तुर्कों को क़स्बे से खदेड़ दिया और लोगों को लूट लिया तो पूरी बाज़नियाई सेना व्रबास नदी पर आ गई। लेकिन आस्ट्रियाई गिनती में कहीं आगे थे और बाज़नियाई सेना उन पर हमला करने का साहस नहीं जुटा पाई। तब अंत में माज़ार ने एक योजना बनाई थी, कि वे नदी के बहाव की विपरीत दिशा में कुछ आगे को लट्ठों के बेड़े बनाएँगे; रात में उन्हें पानी में उतार देंगे, और पौ फटते ही सेना बेड़ों से होकर कूद पड़ेगी और आस्ट्रियाइयों को चौंका देगी।
उसी रात जब बेड़े तैयार किए जा रहे थे, वह लंबे कूच के बाद कुछ देर सुस्ताने के उद्देश्य से क्रकवाइन के पास सरकंडे के बिस्तर पर लेट गया था। इधर कुछ समय से तरह-तरह के सपने उसे परेशान कर रहे थे, उसकी ख़राब हो चुकी नींदों को और छोटा कर रहे थे और उसे और भी निराशा में धकेल रहे थे। पहले तो वह सो गया, लेकिन अचानक क्रीमिया के कुछ बच्चे उसे सपने में दिखाई दिए। यह घटना कई साल पहले हुई थी और उसने उन बच्चों को फिर कभी याद नहीं किया था।
उन दिनों वह घुड़सवार टुकड़ी में था। दुश्मन को खदेड़ने के बाद वे क्रीमिया के एक परित्यक्त ग्रीष्म आवास में रात काटने को रुके थे। सोने से पहले उसे कुछ अलमारियों में छुपे चार बच्चे मिले। ये चारों लड़के थे। धौले कटे बालों और पीली रंगत वाले ये लड़के अच्छे कपड़े पहने थे। घुड़सवार कुल मिलाकर पंद्रह थे और सारे के सारे अनातोलिया के थे। उन्होंने लड़कों को पकड़ लिया, जो भय और पीड़ा के मारे अधमरे हो रहे थे और वे एक से दूसरे हाथों में जाते रहे। सुबह हुई तो लड़के सूजकर नीले पड़ चुके थे और अपने पैरों पर खड़े होने लायक़ भी नहीं थे। फिर एक मज़बूत रूसी टुकड़ी आ गई और वे भाग खड़े हुए; उनके पास लड़कों को मारने का भी समय नहीं था। अब वे चारों के चारों उसे दिखाई दिए थे। उसने रूसियों के आने की आवाज़ सुनी। उसने अपने घोड़े पर चढ़ना चाहा, लेकिन उसकी रकाब मुड़ गई और उसके नीचे से फिसलकर निकल गई और उसका घोड़ा कहीं चला गया।
वह जागा तो पसीने से लथपथ हो रहा था और जूझने तथा हाथ-पाँव मारने के कारण अपने लबादे में पूरी तरह से उलझ रहा था। भयंकर ठंड थी, पौ फटने में बहुत देर थी और अँधेरा हो रहा था। इस भयंकर अप्रत्याशित सपने से परेशान और ग़ुस्से में थूकते हुए उसने अपनी बेल्ट कसी और कपड़ों को ठीक किया।
तुर्क कभी के तट पर जमा हो चुके थे और पौ फट रही थी, लेकिन बेड़े धीरे-धीरे ही पहुँचे और उन्हें मुश्किल से जमाया गया। उठा-पटक और हो-हल्ला सुनकर नदी के उस पार डेरा डाले आस्ट्रियाई जाग गए। संतरी पहरे पर लग गए थे। वे और नहीं रुक सकते थे। मुस्तफ़ा ने नाविकों को रस्सियाँ कसने और एक ओर को हटने का इशारा किया, फिर अपनी तलवार की म्यान को फेंककर उसने हुँकारा दिया।
अल्लाह अल्लाह की मदद से! अल्लाह के बंदे...”
काफ़िरों के ख़िलाफ़!
दुश्मनों के ख़िलाफ़!
अल्लाह! अल्लाह! सिपाहियों ने जोश में चिल्लाकर जवाब दिया।
बेतहाशा जोश में भागते हुए वे उसके पीछे-पीछे बेड़ों पर पहुँच गए। लेकिन एक-बारगी उन्होंने देखा कि उन्होंने जितनी सोची थी, बेड़े उससे कहीं अधिक दूरी पर थे। उनमें से कुछ तो पानी में गिर गए, कुछ कूदकर बेड़ों पर पहुँच गए; लेकिन अधिकतर रुक गए। लेकिन मुस्तफ़ा आगे बढ़ता गया। वह एक बेड़े से दूसरे पर कूदता, मानो उसके पंख लगे हों। ऐसा लग रहा था, मानो वह पानी के ऊपर उड़ रहा हो। पहली कतार अभी बेड़ों पर हिचकिचा ही रही थी कि वह नदी के उस पार जा पहुँचा और ख़तरे के बावजूद, उसने चकित पहरेदारों पर हमला कर दिया।
दूसरे तुर्कों ने जब देखा कि उनका नेता अकेला ही आगे बढ़ गया है तो वे भी कूदकर जाने लगे। लेकिन जो लोग पीछे थे, उन्होंने उन्हें ज़ोर से धक्का दिया और धमकी दी कि वे उन्हें पानी में डुबो देंगे। इसलिए ज़ोर के धड़ाकों और हुँकारों के साथ पहली कतार पार उतर गई, हालाँकि उनमें से कई पानी में गिर गए और हिचकोले खाते बेड़ों के नीचे मदद के लिए चिल्लाते रहे।
एक लंबे समय से ऐसी तेज़ जीत हासिल नहीं की गई थी। अप्रत्याशित घड़ी में और अप्रत्याशित दिशा में हमला होने के कारण विशाल आस्ट्रियाई शिविर एकदम तितर-बितर हो गया। वे चीख़ते हुए बेतरतीब भागे; मुस्तफ़ा ने सबसे पिछली कतार को जा पकड़ा और बिजली की तरह झपटकर उन पर हमला बोल दिया; उसकी लहराती तलवार चमकदार घेरा बनाने लगी और उसके आसपास ठंडी हवा सिमट आई। तुर्क उसके पीछे चिल्लाते हुए आए, अल्लाह!
बान्यालूका के घिरे हुए तुर्क क़स्बे से उतर आए और फिर शुरू हुआ आम जनता का संहार और लूटपाट।
जीत के बाद रात में मुस्तफ़ा अपने तंबू के आगे घास पर अपनी हथेलियों पर सीने का दबाव देकर लेट गया, क्योंकि उसे लग रहा था, जैसे उसकी एक-एक मांसपेशी सूजकर बड़ी हो रही थी और उसका साथ छोड़ रही थी।
उसे आग की लपटें दिखाई दे रही थीं और लूटपाट करने वालों के चिल्लाने और मारे जाने वालों के चीख़ने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।
दुनिया नफ़रत से भरी है।
लेकिन उसकी शिराओं में बस ख़ून उबलता रहा। उसकी एक-एक मांसपेशी फड़क रही थी। वह सो नहीं पाया।
उस रात के बाद नींद उसकी आँखों से बिलकुल ग़ायब हो गई, पौ फटने से पहले के उन कुछ घंटों को भी नए-नए सपने बरबाद कर देते थे। अपने विगत जीवन की जिन घटनाओं को वह भुला चुका था, वे बेहद उलझा देने वाली घटनाएँ अप्रत्याशित रूप से एक के बाद एक रातों को उसे दिखाई देती थीं। इन सपनों की सबसे ख़राब बात तो यह थी कि उनमें की एक-एक चीज़, एक-एक हलचल बेहद स्पष्ट, बेहद साफ़ होती थी, मानो हरेक का एक अलग जीवन और एक विशेष महत्त्व हो। उसे रात के बारे में सोचने से डर लगता था। वह ख़ुद अपने आपसे भी उस भय को मान्यता नहीं देना चाहता था, लेकिन यह बढ़ता रहा और कई दिनों तक उसे प्रताड़ित करता रहा। इसने स्वप्न के विचार को नष्ट कर दिया, उसका साथ पकड़ लिया, उसके मांस में प्रवेश कर लिया और रेशम के धागे से भी अधिक अदृश्य तथा सूक्ष्म रूप में यह उसके अंदर दिन-ब-दिन और गहरे छेदता चला गया।
आज रात अपने मकान में वह तीसरी बार लौटा था।
और इस तरह, दोबोई की गलियों में और शोर मचाते, नाचते समूह में होकर घृणा के साथ निकल आने और अपने मार्ग रक्षी से विदा ले लेने के बाद, रात में वह अपने मकान में पागल की तरह इस तरह घूमता रहा कि फ़र्श चरमराने और चटकने लगी। उसे युवाओं की आवाज़ अभी भी सुनाई दे रही थी, जो उसकी और जीत की जय जयकार कर रहे थे, लेकिन वह चहलक़दमी करता ही रहा, बैठने का उसमें साहस नहीं हुआ। उसने उस मोमी कपड़े को देखा, जिसमें उसकी पुरानी बाँसुरी लिपटी हुई थी; उसने किताबों से भरे अपने हरे संदूक को भी देखा, लेकिन हाथ किसी भी चीज़ को नहीं लगाया।
पहाड़ रात में दिखाई नहीं दे रहे थे और क़स्बे में ख़ामोशी थी, लेकिन पहाड़ियों पर के खंडहरों से उसे उल्लू की आवाज़ आती सुनाई दे रही थी।
वह खिड़की के सहारे टिक गया। अनिद्रा का ताप, यात्रा और यहाँ तक कि उसके दिल की धड़कन भी उसे उनींदा कर रही थी। लेकिन अब उसके सोने से पहले ही सपने आ रहे थे। क्या उसकी आँखें बंद हो गई थीं? उसे पीछे का एक कमरा दिखाई दिया, जो पुरानी चीज़ों और मकड़ी के जालों से भरा था और कोने में एक लकड़ी की पेटी के ऊपर उसके दादा आवदाग़ा माज़ार बैठे हुए थे। उनका चेहरा लाल था, छोटी-सी दाढ़ी और नुकीली मूँछें थीं। वह वहाँ मौन और अविचल बैठे थे और उनकी उपस्थिति में ही एक विशेष अर्थपूर्णता और दु:ख तथा आतंक का एक असहनीय भाव था, जिसने उसका दम घोंट कर रख दिया। वह चौंक गया। वह कमरे में छाए अँधेरे से बेहद डरा हुआ था, फिर भी उसने मोमबत्ती नहीं जलाई, बल्कि उस आतंक से होकर चहलक़दमी करता रहा, जो किसी ज़िरह-बक्तर की तरह उसे अपने अंदर समेटे था और उसे यह एहसास करा रहा था कि उसके तो पाँव ही नहीं थे।
उसमें रुकने का साहस नहीं हुआ। उसे अनिद्रा के भय से और सो जाने की स्थिति में अपने सपनों के भय से हमेशा बस चलते रहना था। चहलक़दमी करते हुए उसे याद आई सारायेवा की, अपने समलैंगिक मित्र यूसूफ़ाजिच की और चेक्रलिंचे की मुलायम घासदार हरी पहाड़ी की जिस पर कभी-कभी वह उन दिनों में दुपहर को अपने हाथ का सिरहाना बनाकर सो जाया करता था, जब वह धर्मशास्त्र का छात्र था। वह और खड़ा नहीं रह सका, बल्कि घोड़े पर ज़ीन कसकर वह किसी दोषी व्यक्ति की तरह चुपचाप रात के अँधेरे में दोबोई के बाहर निकल गया।
अगले दिन क़स्बे में यह ख़बर बड़े आश्चर्य के साथ सुनी गई कि वह बाहर चला गया और उसने खेतों में कारवानों के कुछ रहनुमाओं पर हमला कर उन्हें घायल कर दिया था और उनके घोड़ों को डरा दिया था। उसने कुछ दूरी छोटे-छोटे रास्तों पर होकर और कुछ दूरी गाँवों के बीच से तय की और ईसाइयों को इतनी बेरहमी से पीटा और तितर-बितर किया कि तुर्क भी उससे मिलने से डरने लगे।
जब वह सूतयेस्का पहुँचा तो वहाँ का ईसाई मठ ऐसे बंद था, जैसे उसके संन्यासी उसे छोड़कर चले गए थे। पिछले दिन कुछ लोगों ने मठाध्यक्ष को बता दिया था कि दोबेई से मुस्तफ़ा माज़ार आ रहा है, उस पर भूत सवार है और वह अपने सामने आने वाले सभी लोगों को मार रहा है।
उसने अपनी कुल्हाड़ी के दस्ते से फाटक पर दस्तक दी। ख़ामोशी थी। उसने पीछे हटकर मठ को देखा। मठ की बड़ी-सी छत, छोटी-छोटी खिड़कियाँ और मज़बूत दीवारें थीं। एक क्षण को तो उसने सोचा कि इसमें आग लगा दी जाए, लेकिन आग और भूसा ढूँढ़ने जाना, उसे अरुचिकर और उबाऊ विचार लगा। बहरहाल सब कुछ उसे अजीब सा लग रहा था; विशाल इमारत उसके सामने खड़ी थी और इसके अंदर मौजूद संन्यासी चूहों की तरह थे, छोटे और भूरे।
“कितनी जल्दी उन्होंने अपने आपको अंदर बंद कर लिया, हा, हा, हा!
वह ज़ोर-ज़ोर से हँसता हुआ वहाँ से चल दिया। वह क़ब्रिस्तान से नीचे उतर रहा था तो उसका घोड़ा दीवार के पीछे से झाँकती सफ़ेद सलीबों को देख बिदक उठा। उसने घोड़े की लगाम खींचकर उसे रोका। जब वह अपने घोड़े को शांत कर रहा था और संन्यासियों तथा सलीबों को ग़ुस्से में बक रहा था, तो दो संन्यासी नुक्कड़ पर दिखाई पड़े। उनमें से एक किताबों की गठरी लिए था और दूसरा खाने की टोकरी। वे पीछे तो हट नहीं सकते थे, इसलिए सड़क किनारे की खाई में उतर गए और उन्होंने उस तुर्क का अभिवादन किया। वह उनकी बग़ल में आकर रुक गया।
तुम लोग पुरोहित हो?
'जी, सुल्तान ज़िंदाबाद।
“और तुम्हें सड़क किनारे ये निशान खड़े करने की इजाज़त किसने दी कि मेरा घोड़ा डर जाए? बताओ सूअरों के सूअरों?
“इसका यह मक़सद नहीं था, हुज़ूर।”
“ ‘इसका यह मक़सद नहीं था' से तुम्हारा क्या मतलब है? तुम्हें इसकी इजाज़त किसने दी?
वज़ीर और आदरणीय सुल्तान, दोनों ने। बड़े संन्यासी ने कहा। वह मुलायम दाढ़ी और बुद्धिमानी-भरी आँखों वाला, लंबा और गंभीर व्यक्ति था।
मुस्तफ़ा ने अपना दाहिना हाथ ढीला छोड़ दिया और अपनी चमकदार नज़र से निर्ममता और ग़ुस्से से उन्हें घूरने लगा। दोनों संन्यासी उसके आगे काँप रहे थे और उनकी नज़रें नीची थीं।
तो तुम्हारे पास इजाज़त है?
सचमुच, हुज़ूर, बेशक हमारे पास सभी आवश्यक पत्र हैं।
सुल्तान की ओर से?
बिलकुल! और वज़ीर की ओर से, और एक तो सारायेवा के मुल्ला की ओर से भी है।
चलो, इन तीनों को इकट्ठा करो और फेंक दो। सुना तुमने? और अगर कोई तुमसे पूछे कि क्या कर रहे हो तो उससे कहना, हमें ऐसा करने के लिए मुस्तफ़ा माज़ार ने कहा है, जो पहाड़ी से चट्टान की तरह लुढ़कता नीचे उतर रहा था, जिसे न तो नींद की ज़रूरत थी, न ही रोटी की और जो क़ानून को नहीं मानता था।
संन्यासी उसकी बदहवास, घूरती नज़र से तो पहले ही डरे हुए थे, इन शब्दों ने उन्हें और भी डरा दिया। उसने अपने ज़ीन से पट्टे निकाले और दोनों में से आयु में छोटे संन्यासी से कहा कि वह बड़े वाले को इनसे बाँध दे। बड़ा संन्यासी ने अपने हाथों को अपने आप पीछे कर लिया और छोटा संन्यासी उसे धीरे-धीरे बाँधने लगा, क्योंकि उसके हाथ निस्संदेह काँप रहे थे।
तुमने उसे ठीक तरह से बाँध दिया?
जी, हुज़ूर।
उसने झुककर पट्टों को छूकर देखा और जब उसने देखा कि वे अच्छी तरह से नहीं बँधे थे तो उसने बिना कुछ कहे उस पर कुल्हाड़ी चला दी। संन्यासी ने अपना मुँह घुमा लिया और कुल्हाड़ी की धार से उसका कंधा इतनी ज़ोर से कटा कि वह बिना चिल्लाए ज़मीन पर गिर पड़ा। लेकिन तुर्क उसे इतना ज़ोर से पीटने लगा कि वह उठकर खड़ा हो गया और अपने बँधे हुए साथी के साथ उसके आगे-आगे चलने लगा। ख़ून टपकता जा रहा था और सड़क पर निशान छोड़ता जा रहा था।
अचानक उसने तय किया कि वह उन्हें खदेड़कर सारायेवा ले जाएगा और उन्हें अपने पुराने मित्र यूसूफ़ाजिच के हवाले कर देगा, जो अमीर आदमी था और मज़ाक़ बनाने में उस्ताद था। लेकिन जब सड़क पहाड़ी पर चढ़ने लगी और सूर्यास्त हो गया तो घायल संन्यासी इतना पस्त हो गया कि बेहोश होकर गिर पड़ा। व्यर्थ ही मुस्तफ़ा ने कुल्हाड़ी के दस्ते से संन्यासी की पसलियों पर चोट की, और उनमें से ख़ाली पीपे जैसी आवाज़ निकली। वे सड़क किनारे एक परित्यक्त अस्तबल पर रुके। दोनों संन्यासी एकबारगी एक-दूसरे की बग़ल में ज़मीन पर लुढ़क गए और उसने अपने घोड़े को बाँध दिया और अपना लबादा लेकर लेट गया। नींद ने तुरंत आ घेरा। एक लंबे समय से ऐसा नहीं हुआ था। दुनिया में सर्वाधिक आनंददायक है नींद, औचक नींद!
लेकिन यह मधुर विचार उससे छीन लिया गया। धुँध और लहरों की सरसराहट ने उसे लुप्त कर दिया। व्रबास नदी सरसरा रही थी, उस पर तैरते बेड़े भी; लेकिन ये लड़ाई के बेड़ों की तरह पंक्तिबद्ध, भारी या एक-दूसरे से अलग या ख़ूनी नहीं थे, बल्कि धीरे-धीरे हिचकोले लेते हुए तैर रहे थे। फिर किसी चीज़ ने लहरों की सरसराहट को रोक दिया और बेड़ों को अलग-अलग कर दिया और अब वह कठोर ज़मीन पर था और मृत्यु के समय गले से निकलने वाली एकरस घरघराहट को सुन रहा था। उसने चौंककर अपनी आँखें खोल दीं और उसे ये भयंकर रूप से बड़ी ठंडी और पूरी खुली महसूस हुईं जैसे वह कभी सोया नहीं था। वह ग़ौर से सुनने लगा। फुसफुसाहट उस कोने से आ रही थी, जहाँ संन्यासी लेटे हुए थे।
घायल संन्यासी (वह सहायक धर्मसंघी था) मृत्यु की अपेक्षा में बड़े संन्यासी से पाप स्वीकार कर रहा था। हालाँकि वह पाप क्षमा प्राप्त कर चुका था, फिर भी वह उन्माद में पश्चात्ताप के शब्दों और प्रार्थना के वाक्यों को दुहराता रहा।
मैं...मैं तुझे प्रेम करता हूँ, हे प्रभु, क्योंकि तू महानतम् अच्छाई है।
तुम क्या फुसफुसा रहे हो, ख़ूनी सूअरो?
उसने अपनी छोटी बंदूक उठाई और उस अँधेरे कोने की ओर गोली चला दी, जहाँ वे संन्यासी लेटे हुए थे। रोने-कराहने की आवाज़ आने लगी। वह तुरंत उछलकर खड़ा हो गया और अपने लबादे को लपेटकर घोड़े को लेकर वहाँ से चल दिया। वह यूसूफ़ाजिच को और उस दिल्लगी को बिलकुल भूल गया, जो वह संन्यासियों के साथ करने वाला था। वह इतनी फुर्ती से अपने घोड़े पर सवार हुआ, जैसे वह उनसे दूर भाग रहा हो।
वह जंगल में से होकर निकला और ठंडी रात ने उसे शांत कर दिया; उसका घोड़ा ज़मीन से बाहर निकली जड़ों पर चौंक पड़ता और दूर से आती आवाज़ों पर चौकन्ना होकर अपने कान खड़े कर लेता। पौ फटने और क्षितिज पर पीलाहट छाने तक यही चलता रहा। फिर वह एक ब्रीच वृक्ष के नीचे अपना लबादा ओढ़कर लेट गया। ठंड ने उसे बींध दिया और नीरवता के कारण उसे नींद आ गई। तुरंत ही वह सपने देखने लगा।
उसने अपने आपको ओर्लयापा नदी के किनारे लड़ाई में देखा। उसने अपने आपको उन दो चट्टानों के बीच जमा रखा था, जिन पर पानी बह रहा था और काई उगी थी; वह उनसे टिका हुआ था, जबकि उसके सामने दो लातकोविच बंधु हमला कर रहे थे। ये दोनों भाई हट्टे-कट्टे और भयंकर भगोड़े अपराधी थे। उसने जमकर उनका प्रतिरोध किया, लेकिन उसकी नज़र उनके सिरों के ऊपर से होकर क्षितिज की सीमा पर जा पहुँची, जहाँ बलुआ मैदान आकाश को छू रहे थे और वहाँ उसने काले वस्त्र पहने एक औरत को देखा जिसका हाथ अपनी छाती पर था और चेहरा बिगड़ा हुआ था। उसे पता था और नहीं भी पता था कि वह अपनी छातियों को क्यों दबा रही है और उसका चेहरा दर्द से बिगड़ा हुआ क्यों है? फिर जब उसने औरत को देखा तो उसे सब कुछ याद आ गया। उसे याद आया कि कैसे वह उसे एर्जेनू में शेरिफ़ के मकान में अकेली मिली थी, और कितने जी-जान से उसने हाथ-पाँव मारे थे। वह अब भगोड़े अपराधियों से बहादुरी से अपना बचाव कर रहा था, लेकिन फिर उस पर ग़ुस्सा सवार हो गया।
“तुम उसे भी ले आए! क्या तुम दोनों काफ़ी नहीं हो, भगोड़े अपराधियो, कुत्ते के पिल्लो! और भी कोई है क्या?
वह बदहवास तलवारों से जूझता रहा, लेकिन उन भगोड़े अपराधियों ने उसकी आँखों में अपनी तलवारों की नोंक घोंपकर उसका ग़ुस्सा भड़का दिया, और वह पसीने-पसीने काँपता हुआ चट्टानों से और मज़बूती से टिककर खड़ा हो गया।
वह जागा तो उसे लगा, जैसे वह पत्थर हो। उसके भयभीत होंठ ऐंठे हुए और कोस रहे थे। उसका ख़ून ठंडा पड़ गया था। सूर्योदय हो ही रहा था और धूप उसकी पलकों को छेड़ रही थी।
यह महसूस करते हुए कि अब वह एक क्षण के लिए भी नहीं सो पाएगा और पौ फटने के समय भी उसे शांतिपूर्ण विश्राम नहीं मिलेगा, वह निराशा-भरे ग़ुस्से में दहाड़कर नीचे झुका और ज़मीन पर अपना सिर पटकने लगा। बहुत देर तक वह ज़मीन पर पछाड़ खाता, गुर्राता, मुँह से झाग छोड़ता और अपने लाल लबादे को काटता रहा, और उधर सूरज पहाड़ के ऊपर से उठकर आकाश में ऊँचाई पर पहुँच गया।
बिलकुल अस्त-व्यस्त और चीथड़ों में ही वह अपने घोड़े को पकड़े पहाड़ी के नीचे उतर चला। उस मैदान में सोते के किनारे जाकर ही वह रुका। वहाँ पानी चीड़ के तने से बनी एक नाँद में गिर रहा था। यह पानी एक मोटी, चमकदार धार में उफन रहा था और ज़मीन के काफ़ी बड़े हिस्से में फैल रहा था, जिससे वहाँ डबरे और छोटे-छोटे गड्ढे बन गए थे और उन पर सुबह की चमक में तितलियाँ और अशांत लहरों की तरह झुंड की झुंड मक्खियाँ मँडरा रही थीं।
उसके घोड़े ने काठ की नाँद के किनारे से बहुत देर तक पानी पिया, और वह अपने चेहरे पर टकराती भोर की हवा और पानी की ताज़गी से कुछ शांति ग्रहण कर, विचारमग्न बैठा रहा। फिर उसने पानी में अपना चेहरा देखा और देखा कि धुँधला था, रात की तरह काला पड़ रहा था, और इसके चारों ओर झुंड की झुंड मक्खियाँ थीं; इनमें से हरेक मक्खी धूप में नहाती नाच रही थी और पारदर्शी प्रकाश में माला बन रही थी। उसका हाथ अपने आप उठ गया, उसने पानी में अपनी मुड़ी हुई उँगलियाँ देखीं और उन्हें उस तरल काँपते आईने में डुबो दिया; लेकिन उसके हाथ को कुछ भी अनुभूति नहीं हुई, धूप में भीगे वे छोटे-छोटे जीव इतने नन्हें और भारहीन जो थे। घोड़े ने झटका दिया और वह चौंक गया; मक्खियों का झुंड अपनी जगह से हिला और अलग हो गया और माला टूट गई।
वह मानो तंद्रा में दुपहर तक घोड़े पर सवार चलता रहा। वह अविश्वसनीय रूप से शांत था। उस रात अगर उमर की सराय में उसकी भेंट चातीची के अब्दुसलामबे से नहीं हुई होती तो वह सारायेवा तक अपनी यात्रा जारी रखता। अब्दुसलामबे बहुत बातूनी और विरल मूँछों तथा नीली आँखों वाला शेख़ीबाज़ था। उसने मुस्तफ़ा से अनुरोध किया कि वह रात में वहीं ठहरे ताकि अगले दिन वे दोनों साथ-साथ सारायेवा जा सकें और उसके मित्र और वहाँ के लोग उसे क़स्बे में मुस्तफ़ा माज़ार के साथ प्रवेश करते देख सकें, मानो वह उसका मित्र और सहयात्री था। मुस्तफ़ा ने स्वीकार कर लिया। भारी दिन अपनी समाप्ति पर आ रहा था; नींद, जो एक और थकान थी और जिसमें वह हरेक बात को समझता और महसूस करता था, उसे घेर रही थी। सूरज आग उगल रहा था और उसकी धधक उसके गले में उठी और उसका दम घुटने लगा।
उसने थोड़ा पानी पिया और अब्दुसलामबे की ओर देखे बिना लेट गया। उसने सरायवाले को चेतावनी दे दी कि अगर किसी ने उसे जगाने का साहस किया तो वह उसे जान से मार देगा, वह चाहे कुत्ता हो, मुर्गी या फिर कोई आदमी!
पहले तो वह सो गया, लेकिन फिर हमेशा की तरह अचानक ही जब उसे इसकी अपेक्षा भी नहीं थी, उसकी आँखों के आगे क्रीमिया के वही गोरे, कटे बालों वाले बच्चे आ गए; लेकिन पता नहीं कैसे वे कठोर, चिकने और दमदार हो रहे थे और मछली की तरह फिसले जा रहे थे। उनकी आँखों में आलस्य नहीं था, न ही उनकी पुतलियाँ भय से सिकुड़ी हुई थीं, बल्कि वे स्थिर और अविचल थीं। उन्हें पकड़ने की कोशिश में उसकी साँस फूल रही थी; उसने छोटे से छोटे बदलाव पर भी ध्यान दिया। और उसने ज़बरदस्त संघर्ष किया, उन्हें पकड़ने की कोशिश में वह ग़ुस्सा हो उठा।
उसने अपने पीछे वाले को कहते सुना, तुम्हें उनको भून देना चाहिए था, उन्हें पकड़कर स्टोव में डाल देना चाहिए था...अब तो बहुत देर हो चुकी है।
वह उन पर बेहद ग़ुस्सा हो गया। उसे यही करना चाहिए था। उनको भून डालना चाहिए था! और वह उन्हें पकड़ने के लिए फिर उठ खड़ा हुआ। लेकिन वह अपनी बाँहों को व्यर्थ ही लहराता रहा, क्योंकि वह नन्हा और हास्यास्पद था। बच्चे हाथ से निकले जा रहे थे, और एकबारगी वे बादलों की तरह उड़ गए।
वह जाग गया। वह पसीना-पसीना हो रहा था और भयंकर अनुभव कर रहा था, हाँफ रहा था और अपने नीचे बिछी फूस की चटाई को नोंच रहा था। दिन समाप्त हो रहा था और अँधेरा गहराता जा रहा था। भय ने उसे जकड़ लिया। पसीना ठंडा होकर उसके शरीर पर जम गया। उसने रूखेपन से अब्दुसलामबे को पुकारा, फिर कॉफ़ी, ब्रांडी और एक मोमबत्ती मँगाई।
इस तरह वे देर तक बैठे पीते रहे। मोमबत्ती उनके बीच झिलमिलाती रही। कोने अंधकार और ग़ायब होती परछाइयों से भरे थे, और छोटी-सी खिड़की नीली रात को एक छोटे-से खंड को प्रतिबिंबित कर रही थी। फिर उस ख़ाली कमरे में असहमति के तीखे स्वर गूँजने लगे। अब्दुसलाम बहुत अधिक बोल रहा था। वह अपने बारे में, अपनी लड़ाइयों और अपने परिवार के बारे में बोल रहा था। उसने गाबेला में अपनी पहरेदार की ड्यूटी के बारे में बात की। लेकिन मुस्तफ़ा शालीनता का परिचय देते हुए चुप रहा; वह बस हर गिलास के बाद काँप जाता था। मुस्तफ़ा को बुलवाने के लिए अब्दुसलाम बान्यालूका की लड़ाई के बारे में बात करने लगा कि कैसे उसने मुस्तफ़ा को एक बेड़े से दूसरे बेड़े पर कूदते देखा था और कैसे उसने दूसरे किनारे पर पहुँचकर जर्मनों को मारना शुरू कर दिया था।
क्या तुम रजाई के नीचे से देख सकते हो?
क्या…आ…आ? कैसे?
मुस्तफ़ा की आँखें चमक और नाच रही थीं। लेकिन अब्दुसलाम शांत रहा। वह यह नहीं समझ पा रहा था कि इसका बुरा माने या इसे मज़ाक़ समझे। फिर मुस्तफ़ा ठहाका मारकर हँस पड़ा और अब्दुसलाम ने तुरंत उसे इसी रूप में स्वीकार कर लिया।
बस मज़ाक़।
बिलकुल।
और तुरंत ही उसने फिर बोलना शुरू कर दिया और यह बताने लगा कि कैसे उसने उन जर्मनों को पकड़ा, जिन्हें मुस्तफ़ा ने खदेड़ दिया था।
देखो, मैं सोचता हूँ, मैंने कम से कम चालीस को काट डाला था।
हाँ, हाँ।
देखो, एक छोटा तेज़ जर्मन दौड़ने लगा, और मैं उसके पीछे लग गया। और ख़ुदा ने मेरे पाँवों को फुरती दी और मैं दौड़ता गया और दौड़ता गया और दौड़ता गया…
और तुमने उसे पकड़ लिया?
बस, सुनते रहो। जब हम पहाड़ी की चढ़ाई पर जा रहे थे तो मैंने ध्यान दिया कि वह पस्त हो रहा है, सो मैं उस तक पहुँचा और उसे मैंने बकरे के गोश्त की तरह मार कर गिरा दिया।
अच्छा, अच्छा।'
माज़ार ने बुदबुदाते हुए बस आह भरी और वह बातें करता रहा। रात, ब्रांडी और छिछले दिमाग़ की कोई सीमा नहीं होती और उसके दादा और परदादा के किए हुए और भी नए, अजीब वीरता के काम भी उभर आए और गाबेला में उसकी गोलाबारी पूरी तरह से बदल गई।
ख़ुदा ने मुझे निडर कर दिया। जब हम वेनिसवासियों के ख़िलाफ़ किसी दु:साहसिक काम पर जाया करते थे तो वे सभी काँपने लगते थे और अँधेरे में फुसफुसाते थे। मैं खंदक पर चढ़कर जितनी ज़ोर से हो सकता था, गाने लगता था और मेरी आवाज़ बाँसुरी की तरह होती थी। और उसके बाद व्लासी का सवाल होता था कि वह तुर्क कौन है, जिसमें इतना साहस है, जो इतना शक्तिशाली वीर है, लेकिन हमारे आदमियों को पता था कि वह कौन था; और वह हो भी कौन सकता था?
'देखो, तुम महाझूठे हो।
अब्दुसलाम अपनी कल्पना और अपने स्वयं के शब्दों में बह गया था और उसने मुस्तफ़ा की बात ठीक से नहीं सुनी।
“तुमने क्या कहा?
“तुम बहुत झूठ बोलते हो, मेरे दोस्त। मुस्तफ़ा ने अकड़कर और बेसब्री के साथ अपने होंठों को चबाते हुए और मूँछ को ऐंठते हुए कहा।
अब जाकर अब्दुसलाम की समझ में आया। कमरा उसे और भी अंधकारमय लगने लगा। मोमबत्ती उसकी आती-जाती साँस के नीचे कँपकँपाती और झिलमिलाती रही। अपने बहुत निकट उसे मुस्तफ़ा की दो आँखें दिखाई दीं; उनमें ख़ून उतर आया था और वे ख़तरनाक ढंग से चमक रही थीं। उसने मुस्तफ़ा की दाढ़ी के ऊपर उसके चेहरे और उसके मृत्युवत् पीले चेहरे का देखा। उसे बुरा भी लगा और वह डर भी गया। वह उछलकर खड़ा हो गया। नीची मेज़ पलट गई, मोमबत्ती गिरकर बुझ गई।
हालाँकि मुस्तफ़ा नशे में था, फिर भी किसी योद्धा के सहज बोध के साथ दीवार की ओर पीछे हटा और उसने अपने लबादे और बेल्ट में से टटोलकर अपनी पिस्तौल निकाल ली। मेज़ उन दोनों के बीच पलटी पड़ी थी और पीछे की खिड़की अब पूर्ण अंधकार में एक चमकते हुए वर्ग की तरह थी। ख़ामोशी में अपनी साँस रोकते हुए उसने एक हलकी सरसराहट की आवाज़ सुनी। अब्दुसलाम म्यान से अपना छुरा निकाल रहा था। मानो इस स्थिति ने उसे अपनी ज़िंदगी के अनेक कारनामों की याद दिला दी हो, अचानक एक बार फिर वह मृत्युवत् घृणा के साथ सोचने लगा। कितनी नफ़रत है इस दुनिया में! लेकिन यह सोच बस एक क्षण के लिए रहा और उसने एकदम अपने आपको सँभाल लिया और अपनी स्थिति का जायज़ा लिया।
'अब्दुसलाम कायर और झूठा है और ऐसे लोग आसानी से जान ले लेते हैं। उसके हाथ में कोई पिस्तौल नहीं है और अगर वह इसे लेना चाहता है तो उसे खिड़की पर जाना ही होगा।
उसने अपना हाथ उठाया, खिड़की के बीचोबीच निशाना साधा और इंतज़ार करने लगा। ठीक एक मिनट बाद, पहले तो खिड़की पर अब्दुसलाम का हाथ दिखाई दिया और फिर उसके बाद उसके शरीर ने उसे पूरा ढक लिया। मुस्तफ़ा ने घोड़ा दबा दिया। धमाके में उसने अब्दुसलाम के गिरने की आवाज़ नहीं सुनी।
बूढ़े सराय वाले उमर ने या तो कुछ सुना नहीं, या फिर कोई आवाज़ करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई।
उस रात वह अविराम जंगल में होकर यात्रा करता रहा। उसका घोड़ा छाया से भयभीत होकर और थका हुआ जब-तब रुक जाता था। फिर वह स्वयं उस चंद्रविहीन चमकीली रात में एकाकी वृक्ष तनों और उनकी छाया को देखने लगा। वह ख़तरनाक और विचित्र दिखाई देने वाली चीज़ों को सम्मान देता हुआ उनसे बचता रहा। अचानक उसे लगा कि हरेक चीज़ के साथ-साथ एक विशेष आवाज़ थी; फुसफुसाने, पुकारने या गाने की; ये कोमल और लगभग अबूझ आवाज़ें थीं, जो उन आकृतियों के साथ मिलकर उनसे उलझ रही थीं। सारी आवाज़ों का उस चाबुक की फटकार के साथ विलय हो रहा था, जिससे वह अपने घोड़े को मार रहा था। जब उसने घोड़े को मारना बंद किया तो आवाज़ें कई गुना होकर उसे डराने लगीं। ख़ामोशी से संबोधित होकर वह चिल्लाया :
आ आ आ आ आ आ आ आ आ!
और तब जंगल के हरेक भाग से, हरेक खोखर और हरेक पेड़ और पत्ते से और भी तेज़ गूँजें आईं और आवाज़ों ने उसे चुप करा दिया और घेर लिया :
“आ आ आ आ आ आ आ आ आ!
उसने अपनी सारी शक्ति लगा दी, और पूरी ताक़त लगाकर चिल्लाया, हालाँकि उसका गला घुट रहा था और साँस फूल रही थी, लेकिन अनगिनत और अदम्य आवाज़ों ने उसकी चिल्लाहट को दबा दिया और पेड़ और झाड़ियाँ उसे डराने लगीं। उसके पूरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए और उसे अपने नीचे अपने घोड़े की सुध भी नहीं रही और इसी स्थिति में भागता गया। उसका गला घुट रहा था, लेकिन वह बिना रुके तब तक चिल्लाता रहा, जब तक कि वह वृक्षविहीन क्षेत्र में नहीं आ गया, जहाँ आवाज़ें शांत हो गईं।
पौ फटी तो वह सारायेवा के ऊपर गोरिचा में था। वह बेर के बाग में रुक गया था। उसके घोड़े के टख़नों से ख़ून बह रहा था, हाँफने से उसकी बग़लें उठ—गिर रही थीं और वह लड़खड़ा रहा था। समूचा आकाश चमकदार था और हलके बादल प्रकाश से भरे थे। क़स्बे के ऊपर धुँध थी और केवल मीनारों के शिखर उभरे हुए थे और डूबे जहाज़ों के मस्तूलों-से दिख रहे थे।
उसका हाथ उसके गीले चेहरे पर गया। उसने उन दो काले अशांत घेरों को हटाने की असफल कोशिश की, जिनसे होकर वह दिन को उसके पूर्ण प्रकाश में और उसके नीचे पसरे क़स्बे को धुँधला-धुँधला ही देख पा रहा था। उसने अपनी कनपटी को धक्-धक् करता महसूस किया, लेकिन उसकी आँखों के साथ-साथ वे काले घेरे भी घूम रहे थे। फिर सब कुछ उसे घूमता, कँपकँपाता और अंधकारमय दिखाई दिया। ख़ामोशी गहरी भी थी और उसने ख़ून को जमा होते और अपने गले में ज़ोर से टकराते सुना। उसे याद नहीं रहा कि वह था कहाँ और यह कौन-सा दिन था। उसने सारायेवा के बारे में सोचा, लेकिन सारा समय उसे काकेशस का एक क़स्बा और उसकी मीनारें ही दिखाई देती रहीं। जब-तब उसकी दृष्टि भी पूर्ण रूप से जाती रही।
वह बेर के घने बाग से मुश्किल से अपना रास्ता ढूँढ़ पाया और जब क़स्बे के निकटतम भाग में आया तो उसने अपने घोड़े को एक सराय के आगे रोका, जहाँ क़ब्रिस्तान के पास बड़े हरे घास के मैदान में कुछ तुर्क पहले से ही बैठे हुए सोते के किनारे कॉफ़ी पी रहे थे। वह घोड़े से उतरकर अंदर गया। अस्त-व्यस्त और गंदी हालत में वह अपनी आँखों से टकराते अंधकार से होकर डगमगाता हुआ आगे बढ़ा। उसे अपने आगे चेहरे दिखाई दिए, जो अचानक ग़ायब हो गए और एक क्षण को फिर प्रकट हो गए, तैरते और गड्ड-मड्ड। वह बैठ गया। उसने अपने कानों में फड़कते ख़ून के बीच उन्हें सुनने की कोशिश की, लेकिन उसे उनके शब्द समझ में नहीं आए। वे सुल्तान के दूत कूलाचेहाया लूफ्तीबे के हाथों दिए जाने वाले दंड के बारे में बातें कर रहे थे।
लंबी लड़ाइयों के बाद अनेक पियक्कड़ और निठल्ले जमा हो गए थे और सारायेवा और बाजनिया के और भागों में डकैती, लूटपाट और तमाम तरह की हिंसक वारदातें कर रहे थे। जब इस्तांबूल में बैठे अधिकारी इन शिकायतों से तंग आ गए तो सुल्तान ने अपने विशेष प्रतिनिधि को असीमित अधिकार देकर भेजा। पतली, लटकती मूँछ वाला वह लंबा आदमी, जो सड़कों पर किसी साधु की तरह, पीला, झुककर चलता था, निर्दयी, क्रूर और फुर्तीला था। पहले कभी अधिकारियों का हाथ इतना भारी नहीं रहा। जब कभी वह किसी पियक्कड़ या निठल्ले को पकड़ लेता, या किसी हत्यारे या लुटेरे की उसे सूचना मिलती तो वह उसे जूता ताबीया में डाल देता था, जहाँ फाँसी देने वाले बिना किसी पूछताछ या खोजबीन के रस्सी से उसका गला घोंट देते थे। कभी-कभी तो एक रात में साठ अपराधियों का गला घोंट दिया जाता था। आम जनता प्रसन्न थी। तुर्क उसकी कठोरता के बारे में भुनभुनाने लगे। लेकिन उसने सार्वजनिक स्थल में अपनी निंदा करने वाले दो सारायेवाई सौदागरों को पकड़ लिया और किसी के हस्तक्षेप करने से पहले उनका गला घोंट दिया।
उन लोगों की लाशें भी थीं, जिन्होंने चेहाया की कठोरता से अपने नशे की हालत में अपने आपको बचाने की कोशिश की थी। वे जो सोचते थे, उसके बारे में खुलकर बोलने का दु:साहस तो उनमें था नहीं, इसलिए वे केवल इस बात पर खेद प्रकट कर रहे थे कि इतने तुर्क नष्ट हो गए थे, जिनमें कुछ तो विख्यात वीर और योद्धा थे।
उनमें से एक ने उलाहना देते हुए कहा, “देख लेना, आम जनता हम पर हावी हो जाएगी। हमारे लोग नष्ट होंगे और दुष्ट ईसाई अनंत रूप से संख्या में बढ़ते चले जाएँगे।
ये शब्द सुनकर मुस्तफ़ा की समझ में अस्पष्ट-सा आया कि उनका उसके विचारों के साथ कुछ संबंध था। बहुत प्रयास करके उसने अपने आप पर नियंत्रण किया।
ईसाई और गैर-ईसाई यह दुनिया नफ़रत से भरी है।
वे सभी उसकी कर्कश और फुसफुसाहट जैसी आवाज़ सुनकर मुड़े। उन्होंने देखा कि वह चीथड़ों में था। घास के धब्बे उस पर लगे थे और वह मिट्टी से पीला हो रहा था। उसका चेहरा काजल के समान काला हो रहा था। तब उन्होंने महसूस किया कि उसकी आँखों में ख़ून उतरा हुआ था, उसकी पुतलियाँ सिकुड़कर बीच में एक काला बिंदु बन गई थीं, उसके हाथ उत्तेजना में ऐंठे हुए थे, उसकी नंगी गर्दन सूजी हुई थी और उसकी मूँछ का बायाँ हिस्सा कटा हुआ और दाहिने हिस्से से छोटा था।
उन्होंने एक-दूसरे को देखा। एक धुँध में होकर उसने उन सब चेहरों को अपनी ओर मुड़ते देखा और उसे लगा कि वे उस पर हमला करने के लिए तैयार थे। उसने अपनी तलवार ले ली। वे सब उछलकर खड़े हो गए। उनमें से जो अधिक आयु के थे, वे दीवार के सहारे खड़े हो गए और दो छोटे वाले उनके आगे अपने छुरे पकड़कर खड़े हो गए। उसने पहले को तो मार गिराया, लेकिन ठीक से दिखाई न देने के कारण दूसरे को वह चूक गया। उसने उस चक्की को लुढ़का दिया, जिसमें कॉफ़ी पीसी गई थी। अपना बचाव करता हुआ, वह अंधाधुँध गली में भागा। तुर्कों ने उसका पीछा किया। लोग जमा हो गए। कुछ लोगों ने सोचा कि चेहाया के आदमी आतताइयों के पीछे भाग रहे हैं, तो कुछ ने सोचा कि तुर्क लोग चेहाया के सिपाहियों का पीछा कर रहे हैं। इधर कुछ समय से वे हर दिन इस तरह के टकरावों के और उनमें भाग लेने वालों के रक्तपिपासु द्वेष के अधिकाधिक अभ्यस्त हो गए थे।
उसकी दृष्टि जाने लगी और वह दरवाज़े से टकराकर गिर गया और उसी क्षण गली से आने वाले और सराय में उपस्थित तुर्कों ने उसे घेर लिया। कई हाथों ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसके जेमादान कोट को फाड़कर फेंक दिया और वह क़मीज़ में रह गया। सारूक गिर गया। उसकी क़मीज़ फट गई। उसने किसी पागल आदमी की तरह ज़ोरदार संघर्ष किया और अपनी तलवार को अपने हाथ में रखा। वहाँ बहुत सारे लोग थे, इसलिए पतला दरवाज़ा अचानक टूट गया और भीड़ लहराकर गिर पड़ी। मुस्तफ़ा ने अपने आपको उनसे छुड़ा लिया और अपनी तलवार लहराता ढलान पर भाग खड़ा हुआ। सारी भीड़ उसके पीछे भागी। अपने आगे बिना कुछ देखे, गंजा, कमर तक नंगा और बाल वाला मुस्तफ़ा चला गया।
जनसमूह ने उसके पीछे आवाज़ लगाई, पकड़ो उसे, वह पागल है।
उसने एक आदमी को मार डाला है।
“कायर!
पकड़ो उसे, जाने मत देना!
कुछ राहगीरों ने उसे पकड़ने की असफल कोशिश की। उसने अपना रास्ता रोकने वाले सिपाही को उलट दिया। लोगों को मालूम नहीं था कि उसका पीछा क्यों किया जा रहा है, लेकिन भीड़ बढ़ती गई। नए लोग अपने मकानों से निकलकर आए और भीड़ में शामिल हो गए। अपने छोटे काउंटरों पर बैठे सौदागरों ने उनका उत्साह बढ़ाया और उस पर खड़ाऊँ और लोहे के टुकड़े फेंके। घोड़े डरकर उसके साथ भागे। मुर्गियाँ डरकर चीख़ने लगीं। सभी खिड़कियों पर लोगों के सिर दिखाई दे रहे थे।
हालाँकि उसका पीछा किया जा रहा था और उसकी पिटाई हो रही थी, फिर भी उसके दुष्ट विवेक को एक बार फिर थोड़ी राहत मिली। दुनिया नफ़रत से भरी है। हर कहीं!
हालाँकि वह बिलकुल आपे से बाहर था, फिर भी प्रहारों से वह परास्त नहीं हुआ, बल्कि उनमें से किसी भी व्यक्ति से कहीं अधिक तेज़ी से दौड़ता गया। वह चेक्रलिंची पर हरे क़ब्रिस्तान के पास पहुँच चुका था कि एक ख़ानाबदोश लोहार की दुकान से निकला और जब उसने देखा कि दूसरे लोग अधनंगे आदमी के पीछे भाग रहे हैं तो उसने पुराने लोहे का एक टुकड़ा उस पर फेंका; लोहा उसकी कनपटी पर जाकर लगा और वह वहीं गिर गया।
एक बड़े से तारे ने अँधेरे और सँकरे आकाश को पार किया और उसके पीछे-पीछे छोटे तारे भी गए। एक क्षण में अंतिम तारा भी चला गया। यह अंतिम चीज़ थी, जिसे उसने अनुभव किया। पीछा करने वाले उसकी ओर बढ़े आ रहे थे।
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tau u, titi tata aa
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ek baar phir hangri aur slvoniya aur orlyava nadi ke muhane par hui bhishan laDai mein uske virata—bhare karnamon ki khabar i aur jab astriyaiyon ne banyaluka ko gher liya aur janta ki chhoti si bheeD ne turkon ko qasbe se khadeD diya aur logon ko loot liya to puri bajaniyai sena vrbaas nadi par aa gai. lekin astriyai ginti mein kahin aage the aur bajaniyai sena un par hamla karne ka sahas nahin juta pai. tab ant mein mazar ne ek yojna banai thi, ki ve nadi ke bahav ki viprit disha mein kuch aage ko latthon ke beDe banayenge; raat mein unhen pani mein utaar denge, aur pau phatte hi sena beDon se hokar kood paDegi aur astriyaiyon ko chaunka degi.
usi raat jab beDe taiyar kiye ja rahe the, wo lambe kooch ke baad kuch der sustane ke uddeshy se krakvain ke paas sarkanDe ke bistar par let gaya tha. idhar kuch samay se tarah tarah ke sapne use pareshan kar rahe the, uski kharab ho chuki nindon ko aur chhota kar rahe the aur use aur bhi nirasha mein dhakel rahe the. pahle to wo so gaya, lekin achanak krimiya ke kuch bachche use sapne mein dikhai diye. ye ghatna kai saal pahle hui thi aur usne un bachchon ko phir kabhi yaad nahin kiya tha.
un dinon wo ghuDasvar tukDi mein tha. dushman ko khadeDne ke baad ve krimiya ke ek parityakt greeshm avas mein raat katne ko ruke the. sone se pahle use kuch almariyon mein chhupe chaar bachche mile. ye charon laDke the. dhaule kate balon aur pili rangat vale ye laDke achchhe kapDe pahne the. ghuDasvar kul milakar pandrah the aur sare ke sare anatoliya ke the. unhonne laDkon ko pakaD liya, jo bhay aur piDa ke mare adhamre ho rahe the aur ve ek se dusre hathon mein jate rahe. subah hui to laDke sujkar nile paD chuke the aur apne pairon par khaDe hone layaq bhi nahin the. phir ek mazbut rusi tukDi aa gai aur ve bhaag khaDe hue; unke paas laDkon ko marne ka bhi samay nahin tha. ab ve charon ke charon use dikhai diye the. usne rusiyon ke aane ki avaz suni. usne apne ghoDe par chaDhna chaha, lekin uski rakab muD gai aur uske niche se phisalkar nikal gai aur uska ghoDa kahin chala gaya.
wo jaga to pasine se lathpath ho raha tha aur jujhne tatha haath paanv marne ke karan apne labade mein puri tarah se ulajh raha tha. bhayankar thanD thi, pau phatne mein bahut der thi aur andhera ho raha tha. is bhayankar apratyashit sapne se pareshan aur ghusse mein thukte hue usne apni belt kasi aur kapDon ko theek kiya.
turk kabhi ke tat par jama ho chuke the aur pau phat rahi thi, lekin beDe dhire dhire hi pahunche aur unhen mushkil se jamaya gaya. utha patak aur ho halla sunkar nadi ke us paar Dera Dale astriyai jaag gaye. santari pahre par lag gaye the. ve aur nahin ruk sakte the. mustafa ne navikon ko rassiyan kasne aur ek or ko hatne ka ishara kiya, phir apni talvar ki myaan ko phenkkar usne hunkara diya.
allah allah ki madad se! allah ke bande. . . ”
kafiron ke khilaf!
dushmnon ke khilaf!
allah! allah! sipahiyon ne josh mein chillakar javab diya.
betahasha josh mein bhagte hue ve uske pichhe pichhe beDon par pahunch gaye. lekin ek baragi unhonne dekha ki unhonne jitni sochi thi, beDe usse kahin adhik duri par the. unmen se kuch to pani mein gir gaye, kuch kudkar beDon par pahunch gaye; lekin adhiktar ruk gaye. lekin mustafa aage baDhta gaya. wo ek beDe se dusre par kudta, mano uske pankh lage hon. aisa lag raha tha, mano wo pani ke upar uD raha ho. pahli qatar abhi beDon par hichkicha hi rahi thi ki wo nadi ke us paar ja pahuncha aur khatre ke bavjud, usne chakit pahredaron par hamla kar diya.
dusre turkon ne jab dekha ki unka neta akela hi aage baDh gaya hai to ve bhi kudkar jane lage. lekin jo log pichhe the, unhonne unhen zor se dhakka diya aur dhamki di ki ve unhen pani mein Dubo denge. isliye zor ke dhaDakon aur hunkaron ke saath pahli qatar paar utar gai, halanki unmen se kai pani mein gir gaye aur hichkole khate beDon ke niche madad ke liye chillate rahe.
ek lambe samay se aisi tez jeet hasil nahin ki gai thi. apratyashit ghaDi mein aur apratyashit disha mein hamla hone ke karan vishal astriyai shivir ekdam titar bitar ho gaya. ve chikhte hue betartib bhage; mustafa ne sabse pichhli qatar ko ja pakDa aur bijli ki tarah jhapatkar un par hamla bol diya; uski lahrati talvar chamakdar ghera banane lagi aur uske asapas thanDi hava simat i. turk uske pichhe chillate hue aaye, allah!
banyaluka ke ghire hue turk qasbe se utar aaye aur phir shuru hua aam janta ka sanhar aur lutapat.
jeet ke baad raat mein mustafa apne tambu ke aage ghaas par apni hatheliyon par sine ka dabav dekar let gaya, kyonki use lag raha tha, jaise uski ek ek manspeshi sujkar baDi ho rahi thi aur uska saath chhoD rahi thi.
use aag ki lapten dikhai de rahi theen aur lutapat karne valon ke chillane aur mare jane valon ke chikhne ki avazen sunai de rahi theen.
duniya nafar se bhari hai.
lekin uski shiraon mein bus khoon ubalta raha. uski ek ek manspeshi phaDak rahi thi. wo so nahin paya.
us raat ke baad neend uski ankhon se bilkul ghayab ho gai, pau phatne se pahle ke un kuch ghanton ko bhi nae nae sapne barbad kar dete the. apne vigat jivan ki jin ghatnaon ko wo bhula chuka tha, ve behad uljha dene vali ghatnayen apratyashit roop se ek ke baad ek raton ko use dikhai deti theen. in sapnon ki sabse kharab baat to ye thi ki unmen ki ek ek cheez, ek ek halchal behad aspasht, behad saaf hoti thi, mano harek ka ek alag jivan aur ek vishesh mahattv ho. use raat ke bare mein sochne se Dar lagta tha. wo khu apne aapse bhi us bhay ko manyata nahin dena chahta tha, lekin ye baDhta raha aur kai dinon tak use prataDit karta raha. isne svapn ke vichar ko nasht kar diya, uska saath pakaD liya, uske maans mein pravesh kar liya aur resham ke dhage se bhi adhik adrshy tatha sookshm roop mein ye uske andar din ba din aur gahre chhedata chala gaya.
aaj raat apne makan mein wo tisri baar lauta tha.
aur is tarah, doboi ki galiyon mein aur shor machate, nachte samuh mein hokar ghrinaa ke saath nikal aane aur apne maarg rakshai se vida le lene ke baad, raat mein wo apne makan mein pagal ki tarah is tarah ghumta raha ki farsh charmarane aur chatakne lagi. use yuvaon ki avaz abhi bhi sunai de rahi thi, jo uski aur jeet ki jay jaykar kar rahe the, lekin wo chahalaqadmi karta hi raha, baithne ka usmen sahas nahin hua. usne us momi kapDe ko dekha, jismen uski purani bansuri lipti hui thee; usne kitabon se bhare apne hare sanduk ko bhi dekha, lekin haath kisi bhi cheez ko nahin lagaya.
pahaD raat mein dikhai nahin de rahe the aur qasbe mein khamoshi thi, lekin pahaDiyon par ke khanDahron se use ullu ki avaz aati sunai de rahi thi.
wo khiDki ke sahare tik gaya. anidra ka taap, yatra aur yahan tak ki uske dil ki dhaDkan bhi use uninda kar rahi thi. lekin ab uske sone se pahle hi sapne aa rahe the. kya uski ankhen band ho gai theen? use pichhe ka ek kamra dikhai diya, jo purani chizon aur makDi ke jalon se bhara tha aur kone mein ek lakDi ki peti ke upar uske dada avdaga mazar baithe hue the. unka chehra laal tha, chhoti si daDhi aur nukili munchhen theen. wo vahan maun aur avichal baithe the aur unki upasthiti mein hi ek vishesh arthpurnta aur duhakh tatha atank ka ek asahniy bhaav tha, jisne uska dam ghont kar rakh diya. wo chaunk gaya. wo kamre mein chhaye andhere se behad Dara hua tha, phir bhi usne mombatti nahin jalai, balki us atank se hokar chahalaqadmi karta raha, jo kisi zirah baktar ki tarah use apne andar samete tha aur use ye ehsaas kara raha tha ki uske to paanv hi nahin the.
usmen rukne ka sahas nahin hua. use anidra ke bhay se aur so jane ki sthiti mein apne sapnon ke bhay se hamesha bus chalte rahna tha. chahalaqadmi karte hue use yaad i sarayeva ki, apne samlaingik mitr yusuphajich ki aur chekrlinche ki mulayam ghasdar hari pahaDi ki jis par kabhi kabhi wo un dinon mein duphar ko apne haath ka sirhana banakar so jaya karta tha, jab wo dharmshastr ka chhaatr tha. wo aur khaDa nahin rah saka, balki ghoDe par zeen kaskar wo kisi doshi vekti ki tarah chupchap raat ke andhere mein doboi ke bahar nikal gaya.
agle din qasbe mein ye khabar baDe ashchary ke saath suni gai ki wo bahar chala gaya aur usne kheton mein karvanon ke kuch rahnumaon par hamla kar unhen ghayal kar diya tha aur unke ghoDon ko Dara diya tha. usne kuch duri chhote chhote raston par hokar aur kuch duri ganvon ke beech se tay ki aur iisaiyon ko itni berahmi se pita aur titar bitar kiya ki turk bhi usse milne se Darne lage.
jab wo sutyeska pahuncha to vahan ka isai math aise band tha, jaise uske sannyasi use chhoDkar chale gaye the. pichhle din kuch logon ne mathadhyaksh ko bata diya tha ki dobei se mustafa mazar aa raha hai, us par bhoot savar hai aur wo apne samne aane vale sabhi logon ko maar raha hai.
usne apni kulhaDi ke daste se phatak par dastak di. khamoshi thi. usne pichhe hatkar math ko dekha. math ki baDi si chhat, chhoti chhoti khiDkiyan aur mazbut divaren theen. ek kshan ko to usne socha ki ismen aag laga di jaye, lekin aag aur bhusa DhunDhane jana, use aruchikar aur ubau vichar laga. baharhal sab kuch use ajib sa lag raha tha; vishal imarat uske samne khaDi thi aur iske andar maujud sannyasi chuhon ki tarah the, chhote aur bhure.
“kitni jaldi unhonne apne aapko andar band kar liya, ha, ha, ha!
wo zor zor se hansta hua vahan se chal diya. wo qabristan se niche utar raha tha to uska ghoDa divar ke pichhe se jhankti safed salibon ko dekh bidak utha. usne ghoDe ki lagam khinchkar use roka. jab wo apne ghoDe ko shaant kar raha tha aur sannyasiyon tatha salibon ko ghusse mein bak raha tha, to do sannyasi nukkaD par dikhai paDe. unmen se ek kitabon ki gathri liye tha aur dusra khane ki tokari. ve pichhe to hat nahin sakte the, isliye saDak kinare ki khai mein utar gaye aur unhonne us turk ka abhivadan kiya. wo unki baghal mein aakar ruk gaya.
tum log purohit ho?
ji, sultan zindabad.
“aur tumhein saDak kinare ye nishan khaDe karne ki ijazat kisne di ki mera ghoDa Dar jaye? batao suaron ke suaron?
“iska ye maqsad nahin tha, huzur. ”
“ ‘iska ye maqsad nahin tha se tumhara kya matlab hai? tumhein iski ijazat kisne dee?
vazir aur adarnaiy sultan, donon ne. baDe sannyasi ne kaha. wo mulayam daDhi aur buddhimani bhari ankhon vala, lamba aur gambhir vekti tha.
mustafa ne apna dahina haath Dhila chhoD diya aur apni chamakdar nazar se nirmamta aur ghusse se unhen ghurne laga. donon sannyasi uske aage kaanp rahe the aur unki nazren nichi theen.
bilkul! aur vazir ki or se, aur ek to sarayeva ke mulla ki or se bhi hai.
chalo, in tinon ko ikattha karo aur phenk do. suna tumne? aur agar koi tumse puchhe ki kya kar rahe ho to usse kahna, hamein aisa karne ke liye mustafa mazar ne kaha hai, jo pahaDi se chattan ki tarah luDhakta niche utar raha tha, jise na to neend ki zarurat thi, na hi roti ki aur jo qanun ko nahin manata tha.
sannyasi uski badahvas, ghurti nazar se to pahle hi Dare hue the, in shabdon ne unhen aur bhi Dara diya. usne apne zeen se patte nikale aur donon mein se aayu mein chhote sannyasi se kaha ki wo baDe vale ko inse baandh de. baDa sannyasi ne apne hathon ko apne aap pichhe kar liya aur chhota sannyasi use dhire dhire bandhne laga, kyonki uske haath nissandeh kaanp rahe the.
tumne use theek tarah se baandh diya?
ji, huzur.
usne jhukkar patton ko chhukar dekha aur jab usne dekha ki ve achchhi tarah se nahin bandhe the to usne bina kuch kahe us par kulhaDi chala di. sannyasi ne apna munh ghuma liya aur kulhaDi ki dhaar se uska kandha itni zor se kata ki wo bina chillaye zamin par gir paDa. lekin turk use itna zor se pitne laga ki wo uthkar khaDa ho gaya aur apne bandhe hue sathi ke saath uske aage aage chalne laga. khoon tapakta ja raha tha aur saDak par nishan chhoDta ja raha tha.
achanak usne tay kiya ki wo unhen khadeDkar sarayeva le jayega aur unhen apne purane mitr yusuphajich ke havale kar dega, jo amir adami tha aur maज़aक़ banane mein ustaad tha. lekin jab saDak pahaDi par chaDhne lagi aur suryast ho gaya to ghayal sannyasi itna past ho gaya ki behosh hokar gir paDa. byarth hi mustafa ne kulhaDi ke daste se sannyasi ki pasliyon par chot ki, aur unmen se khali pipe jaisi avaz nikli. ve saDak kinare ek parityakt astabal par ruke. donon sannyasi ekbargi ek dusre ki baghal mein zamin par luDhak gaye aur usne apne ghoDe ko baandh diya aur apna labada lekar let gaya. neend ne turant aa ghera. ek lambe samay se aisa nahin hua tha.
duniya mein sarvadhik ananddayak hai neend, auchak neend!
lekin ye madhur vichar usse chheen liya gaya. dhundh aur lahron ki sarsarahat ne use lupt kar diya. vrbaas nadi sarsara rahi thi, us par tairte beDe bhee; lekin ye laDai ke beDon ki tarah panktibaddh, bhari ya ek dusre se alag ya khuni nahin the, balki dhire dhire hichkole lete hue tair rahe the. phir kisi cheez ne lahron ki sarsarahat ko rok diya aur beDon ko alag alag kar diya aur ab wo kathor zamin par tha aur mirtyu ke samay gale se nikalne vali ekras ghargharaht ko sun raha tha. usne chaunkkar apni ankhen khol deen aur use ye bhayankar roop se baDi thanDi aur puri khuli mahsus huin jaise wo kabhi soya nahin tha. wo ghaur se sunne laga. phusphusahat us kone se aa rahi thi, jahan sannyasi lete hue the.
ghayal sannyasi (vah sahayak dharmsanghi tha) mirtyu ki apeksha mein baDe sannyasi se paap svikar kar raha tha. halanki wo paap kshama praapt kar chuka tha, phir bhi wo unmaad mein pashchattap ke shabdon aur pararthna ke vakyon ko duhrata raha.
main. . . main tujhe prem karta hoon, he prabhu, kyonki tu mahantam achchhai hai.
tum kya phusphusa rahe ho, khuni suaro?
usne apni chhoti banduk uthai aur us andhere kone ki or goli chala di, jahan ve sannyasi lete hue the. rone karahne ki avaz aane lagi. wo turant uchhalkar khaDa ho gaya aur apne labade ko lapetkar ghoDe ko lekar vahan se chal diya. wo yusuphajich ko aur us dillgi ko bilkul bhool gaya, jo wo sannyasiyon ke saath karne vala tha. wo itni phurti se apne ghoDe par savar hua, jaise wo unse door bhaag raha ho.
wo jangal mein se hokar nikla aur thanDi raat ne use shaant kar diya; uska ghoDa zamin se bahar nikli jaDon par chaunk paDta aur door se aati avazon par chaukanna hokar apne kaan khaDe kar leta. pau phatne aur kshaitij par pilahat chhane tak yahi chalta raha. phir wo ek breach vriksh ke niche apna labada oDhkar let gaya. thanD ne use beendh diya aur niravta ke karan use neend aa gai. turant hi wo sapne dekhne laga.
usne apne aapko orlyapa nadi ke kinare laDai mein dekha. usne apne aapko un do chattanon ke beech jama rakha tha, jin par pani bah raha tha aur kai ugi thee; wo unse tika hua tha, jabki uske samne do latkovich bandhu hamla kar rahe the. ye donon bhai hatte katte aur bhayankar bhagoDe apradhi the. usne jamkar unka pratirodh kiya, lekin uski nazar unke siron ke upar se hokar kshaitij ki sima par ja pahunchi, jahan balua maidan akash ko chhu rahe the aur vahan usne kale vastra pahne ek aurat ko dekha jiska haath apni chhati par tha aur chehra bigDa hua tha. use pata tha aur nahin bhi pata tha ki wo apni chhatiyon ko kyon daba rahi hai aur uska chehra dard se bigDa hua kyon hai? phir jab usne aurat ko dekha to use sab kuch yaad aa gaya. use yaad aaya ki kaise wo use erjenu mein sheriफ़ ke makan mein akeli mili thi, aur kitne ji jaan se usne haath paanv mare the. wo ab bhagoDe apradhiyon se bahaduri se apna bachav kar raha tha, lekin phir us par ghussa savar ho gaya.
“tum use bhi le aaye! kya tum donon kafi nahin ho, bhagoDe apradhiyo, kutte ke pillo! aur bhi koi hai kyaa?
wo badahvas talvaron se jujhta raha, lekin un bhagoDe apradhiyon ne uski ankhon mein apni talvaron ki nonk ghompkar uska ghussa bhaDka diya, aur wo pasine pasine kanpta hua chattanon se aur mazbuti se tikkar khaDa ho gaya.
wo jaga to use laga, jaise wo patthar ho. uske bhaybhit honth ainthe hue aur kos rahe the. uska khoon thanDa paD gaya tha. suryoday ho hi raha tha aur dhoop uski palkon ko chheD rahi thi.
ye mahsus karte hue ki ab wo ek kshan ke liye bhi nahin so payega aur pau phatne ke samay bhi use shantipurn vishram nahin milega, wo nirasha bhare ghusse mein dahaDkar niche jhuka aur zamin par apna sir patakne laga. bahut der tak wo zamin par pachhaD khata, gurrata, munh se jhaag chhoDta aur apne laal labade ko katta raha, aur udhar suraj pahaD ke upar se uthkar akash mein unchai par pahunch gaya.
bilkul ast vyast aur chithDon mein hi wo apne ghoDe ko pakDe pahaDi ke niche utar chala. us maidan mein sote ke kinare jakar hi wo ruka. vahan pani cheeD ke tane se bani ek naand mein gir raha tha. ye pani ek moti, chamakdar dhaar mein uphan raha tha aur zamin ke kafi baDe hisse mein phail raha tha, jisse vahan Dabre aur chhote chhote gaDDhe ban gaye the aur un par subah ki chamak mein titliyan aur ashant lahron ki tarah jhunD ki jhunD makkhiyan manDara rahi theen.
uske ghoDe ne kaath ki naand ke kinare se bahut der tak pani piya, aur wo apne chehre par takrati bhor ki hava aur pani ki tazgi se kuch shanti grahn kar, vicharamagn baitha raha. phir usne pani mein apna chehra dekha aur dekha ki dhundhla tha, raat ki tarah kala paD raha tha, aur iske charon or jhunD ki jhunD makkhiyan theen; inmen se harek makkhi dhoop mein nahati naach rahi thi aur paradarshi parkash mein mala ban rahi thi. uska haath apne aap uth gaya, usne pani mein apni muDi hui ungliyan dekhin aur unhen us taral kanpte aine mein Dubo diya; lekin uske haath ko kuch bhi anubhuti nahin hui, dhoop mein bhige ve chhote chhote jeev itne nanhen aur bharahin jo the. ghoDe ne jhatka diya aur wo chaunk gaya; makkhiyon ka jhunD apni jagah se hila aur alag ho gaya aur mala toot gai.
wo mano tandra mein duphar tak ghoDe par savar chalta raha. wo avishvasniy roop se shaant tha. us raat agar umar ki saray mein uski bhent chatichi ke abduslambe se nahin hui hoti to wo sarayeva tak apni yatra jari rakhta. abduslambe bahut batuni aur viral munchhon tatha nili ankhon vala shekhibaz tha. usne mustafa se anurodh kiya ki wo raat mein vahin thahre taki agle din ve donon saath saath sarayeva ja saken aur uske mitr aur vahan ke log use qasbe mein mustafa mazar ke saath pravesh karte dekh saken, mano wo uska mitr aur sahyatri tha. mustafa ne svikar kar liya. bhari din apni samapti par aa raha tha; neend, jo ek aur thakan thi aur jismen wo harek baat ko samajhta aur mahsus karta tha, use gher rahi thi. suraj aag ugal raha tha aur uski dhadhak uske gale mein uthi aur uska dam ghutne laga.
usne thoDa pani piya aur abduslambe ki or dekhe bina let gaya. usne sarayvale ko chetavni de di ki agar kisi ne use jagane ka sahas kiya to wo use jaan se maar dega, wo chahe kutta ho, murgi ya phir koi adami!
pahle to wo so gaya, lekin phir hamesha ki tarah achanak hi jab use iski apeksha bhi nahin thi, uski ankhon ke aage krimiya ke vahi gore, kate balon vale bachche aa gaye; lekin pata nahin kaise ve kathor, chikne aur damdar ho rahe the aur machhli ki tarah phisle ja rahe the. unki ankhon mein alasy nahin tha, na hi unki putliyan bhay se sikuDi hui theen, balki ve sthir aur avichal theen. unhen pakaDne ki koshish mein uski saans phool rahi thee; usne chhote se chhote badlav par bhi dhyaan diya. aur usne zabardast sangharsh kiya, unhen pakaDne ki koshish mein wo ghussa ho utha.
usne apne pichhe vale ko kahte suna, tumhen unko bhoon dena chahiye tha, unhen pakaDkar stov mein Daal dena chahiye tha. . . ab to bahut der ho chuki hai.
wo un par behad ghussa ho gaya. use yahi karna chahiye tha. unko bhoon Dalna chahiye tha! aur wo unhen pakaDne ke liye phir uth khaDa hua. lekin wo apni banhon ko byarth hi lahrata raha, kyonki wo nanha aur hasyaspad tha. bachche haath se nikle ja rahe the, aur ekbargi ve badalon ki tarah uD gaye.
wo jaag gaya. wo pasina pasina ho raha tha aur bhayankar anubhav kar raha tha, haanph raha tha aur apne niche bichhi phoos ki chatai ko nonch raha tha. din samapt ho raha tha aur andhera gahrata ja raha tha. bhay ne use jakaD liya. pasina thanDa hokar uske sharir par jam gaya. usne rukhepan se abduslambe ko pukara, phir coffe, branDi aur ek mombatti mangai.
is tarah ve der tak baithe pite rahe. mombatti unke beech jhilmilati rahi. kone andhkar aur ghayab hoti parchhaiyon se bhare the, aur chhoti si khiDki nili raat ko ek chhote se khanD ko pratibimbit kar rahi thi. phir us khali kamre mein ashamti ke tikhe svar gunjne lage. abduslam bahut adhik bol raha tha. wo apne bare mein, apni laDaiyon aur apne parivar ke bare mein bol raha tha. usne gabela mein apni pahredar ki duty ke bare mein baat ki. lekin mustafa shalinata ka parichai dete hue chup raha; wo bus har gilas ke baad kaanp jata tha. mustafa ko bulvane ke liye abduslam banyaluka ki laDai ke bare mein baat karne laga ki kaise usne mustafa ko ek beDe se dusre beDe par kudte dekha tha aur kaise usne dusre kinare par pahunchakar jarmnon ko marana shuru kar diya tha.
kya tum rajai ke niche se dekh sakte ho?
kya…a…a? kaise?
mustafa ki ankhen chamak aur naach rahi theen. lekin abduslam shaant raha. wo ye nahin samajh pa raha tha ki iska bura mane ya ise maज़aक़ samjhe. phir mustafa thahaka markar hans paDa aur abduslam ne turant use isi roop mein svikar kar liya.
bus maज़aक़.
bilkul.
aur turant hi usne phir bolna shuru kar diya aur ye batane laga ki kaise usne un jarmnon ko pakDa, jinhen mustafa ne khadeD diya tha.
dekho, main sochta hoon, mainne kam se kam chalis ko kaat Dala tha.
haan, haan.
dekho, ek chhota tez german dauDne laga, aur main uske pichhe lag gaya. aur khuda ne mere panvon ko phurti di aur main dauDta gaya aur dauDta gaya aur dauDta gaya…
aur tumne use pakaD liya?
bus, sunte raho. jab hum pahaDi ki chaDhai par ja rahe the to mainne dhyaan diya ki wo past ho raha hai, so main us tak pahuncha aur use mainne bakre ke gosht ki tarah maar kar gira diya.
achchha, achchha.
mazar ne budbudate hue bus aah bhari aur wo baten karta raha. raat, branDi aur chhichhle dimagh ki koi sima nahin hoti aur uske dada aur pardada ke kiye hue aur bhi nae, ajib virata ke kaam bhi ubhar aaye aur gabela mein uski golabari puri tarah se badal gai.
khuda ne mujhe niDar kar diya. jab hum venisvasiyon ke khilaf kisi duhsahsik kaam par jaya karte the to ve sabhi kanpne lagte the aur andhere mein phusaphusate the. main khandak par chaDhkar jitni zor se ho sakta tha, gane lagta tha aur meri avaz bansuri ki tarah hoti thi. aur uske baad vlasi ka saval hota tha ki wo turk kaun hai, jismen itna sahas hai, jo itna shaktishali veer hai, lekin hamare adamiyon ko pata tha ki wo kaun tha; aur wo ho bhi kaun sakta tha?
dekho, tum mahajhuthe ho.
abduslam apni kalpana aur apne svayan ke shabdon mein bah gaya tha aur usne mustafa ki baat theek se nahin suni.
“tumne kya kaha?
“tum bahut jhooth bolte ho, mere dost. mustafa ne akaDkar aur besabri ke saath apne honthon ko chabate hue aur moonchh ko ainthte hue kaha.
ab jakar abduslam ki samajh mein aaya. kamra use aur bhi andhkarmay lagne laga. mombatti uski aati jati saans ke niche kanpkanpati aur jhilmilati rahi. apne bahut nikat use mustafa ki do ankhen dikhai deen; unmen khoon utar aaya tha aur ve khatarnak Dhang se chamak rahi theen. usne mustafa ki daDhi ke upar uske chehre aur uske mrityuvat pile chehre ka dekha. use bura bhi laga aur wo Dar bhi gaya. wo uchhalkar khaDa ho gaya. nichi mez palat gai, mombatti girkar bujh gai.
halanki mustafa nashe mein tha, phir bhi kisi yoddha ke sahj bodh ke saath divar ki or pichhe hata aur usne apne labade aur belt mein se tatolkar apni pistol nikal li. mez un donon ke beech palti paDi thi aur pichhe ki khiDki ab poorn andhkar mein ek chamakte hue varg ki tarah thi. khamoshi mein apni saans rokte hue usne ek halki sarsarahat ki avaz suni. abduslam myaan se apna chhura nikal raha tha. mano is sthiti ne use apni zindagi ke anek karnamon ki yaad dila di ho, achanak ek baar phir wo mrityuvat ghrinaa ke saath sochne laga. kitni nafar hai is duniya men! lekin ye soch bus ek kshan ke liye raha aur usne ekdam apne aapko sanbhal liya aur apni sthiti ka jayaज़a liya.
abduslam kayer aur jhutha hai aur aise log asani se jaan le lete hain. uske haath mein koi pistol nahin hai aur agar wo ise lena chahta hai to use khiDki par jana hi hoga.
usne apna haath uthaya, khiDki ke bichobich nishana sadha aur intzaar karne laga. theek ek minat baad, pahle to khiDki par abduslam ka haath dikhai diya aur phir uske baad uske sharir ne use pura Dhak liya. mustafa ne ghoDa daba diya. dhamake mein usne abduslam ke girne ki avaz nahin suni.
buDhe saray vale umar ne ya to kuch suna nahin, ya phir koi avaz karne ki uski himmat nahin hui.
us raat wo aviram jangal mein hokar yatra karta raha. uska ghoDa chhaya se bhaybhit hokar aur thaka hua jab tab ruk jata tha. phir wo svayan us chandravihin chamkili raat mein ekaki vriksh tanon aur unki chhaya ko dekhne laga. wo khatarnak aur vichitr dikhai dene vali chizon ko samman deta hua unse bachta raha. achanak use laga ki harek cheez ke saath saath ek vishesh avaz thee; phusaphusane, pukarne ya gane kee; ye komal aur lagbhag abujh avazen theen, jo un akritiyon ke saath milkar unse ulajh rahi theen. sari avazon ka us chabuk ki phatkar ke saath vilay ho raha tha, jisse wo apne ghoDe ko maar raha tha. jab usne ghoDe ko marana band kiya to avazen kai guna hokar use Darane lagin. khamoshi se sambodhit hokar wo chillaya ha
aa aa aa aa aa aa aa aa aa!
aur tab jangal ke harek bhaag se, harek khokhar aur harek peD aur patte se aur bhi tez gunjen ain aur avazon ne use chup kara diya aur gher liya ha
“a aa aa aa aa aa aa aa aa!
usne apni sari shakti laga di, aur puri taqat lagakar chillaya, halanki uska gala ghut raha tha aur saans phool rahi thi, lekin anaginat aur adamy avazon ne uski chillahat ko daba diya aur peD aur jhaDiyan use Darane lagin. uske pure sharir ke rongte khaDe ho gaye aur use apne niche apne ghoDe ki sudh bhi nahin rahi aur isi sthiti mein bhagta gaya. uska gala ghut raha tha, lekin wo bina ruke tab tak chillata raha, jab tak ki wo vrikshavihin kshaetr mein nahin aa gaya, jahan avazen shaant ho gain.
pau phati to wo sarayeva ke upar goricha mein tha. wo ber ke baag mein ruk gaya tha. uske ghoDe ke takhnon se khoon bah raha tha, hanphane se uski baghlen uth—gir rahi theen aur wo laDkhaDa raha tha. samucha akash chamakdar tha aur halke badal parkash se bhare the. qasbe ke upar dhundh thi aur keval minaron ke sikhar ubhre hue the aur Dube jahazon ke mastulon se dikh rahe the.
uska haath uske gile chehre par gaya. usne un do kale ashant gheron ko hatane ki asfal koshish ki, jinse hokar wo din ko uske poorn parkash mein aur uske niche pasre qasbe ko dhundhla dhundhla hi dekh pa raha tha. usne apni kanpati ko dhak dhak karta mahsus kiya, lekin uski ankhon ke saath saath ve kale ghere bhi ghoom rahe the. phir sab kuch use ghumta, kanpknpata aur andhkarmay dikhai diya. khamoshi gahri bhi thi aur usne khoon
ko jama hote aur apne gale mein zor se takrate suna. use yaad nahin raha ki wo tha kahan aur ye kaun sa din tha. usne sarayeva ke bare mein socha, lekin sara samay use kakeshas ka ek qasba aur uski minaren hi dikhai deti rahin. jab tab uski drishti bhi poorn roop se jati rahi.
wo ber ke ghane baag se mushkil se apna rasta DhoonDh paya aur jab qasbe ke nikattam bhaag mein aaya to usne apne ghoDe ko ek saray ke aage roka, jahan qabristan ke paas baDe hare ghaas ke maidan mein kuch turk pahle se hi baithe hue sote ke kinare coffe pi rahe the. wo ghoDe se utarkar andar gaya. ast vyast aur gandi haalat mein wo apni ankhon se takrate andhkar se hokar Dagmagata hua aage baDha. use apne aage chehre dikhai diye, jo achanak ghayab ho gaye aur ek kshan ko phir prakat ho gaye, tairte aur gaDD maDD. wo baith gaya. usne apne kanon mein phaDakte khoon ke beech unhen sunne ki koshish ki, lekin use unke shabd samajh mein nahin aaye. ve sultan ke doot kulachehaya luphtibe ke hathon diye jane vale danD ke bare mein baten kar rahe the.
lambi laDaiyon ke baad anek piyakkaD aur nithalle jama ho gaye the aur sarayeva aur bajaniya ke aur bhagon mein Dakaiti, lutapat aur tamam tarah ki hinsak vardaten kar rahe the. jab istambul mein baithe adhikari in shikayaton se tang aa gaye to sultan ne apne vishesh pratinidhi ko asimit adhikar dekar bheja. patli, latakti moonchh vala wo lamba adami, jo saDkon par kisi sadhu ki tarah, pila, jhukkar chalta tha, nirdayi, kroor aur phurtila tha. pahle kabhi adhikariyon ka haath itna bhari nahin raha. jab kabhi wo kisi piyakkaD ya nithalle ko pakaD leta, ya kisi hatyare ya lutere ki use suchana milti to wo use juta tabiya mein Daal deta tha, jahan phansi dene vale bina kisi puchhatachh ya khojabin ke rassi se uska gala ghont dete the. kabhi kabhi to ek raat mein saath apradhiyon ka gala ghont diya jata tha. aam janta prasann thi. turk uski kathorta ke bare mein bhunabhunane lage. lekin usne sarvajnik sthal mein apni ninda karne vale do sarayevai saudagaron ko pakaD liya aur kisi ke hastakshaep karne se pahle unka gala ghont diya.
un logon ki lashen bhi theen, jinhonne chehaya ki kathorta se apne nashe ki haalat mein apne aapko bachane ki koshish ki thi. ve jo sochte the, uske bare mein khulkar bolne ka duhsahas to unmen tha nahin, isliye ve keval is baat par khed prakat kar rahe the ki itne turk nasht ho gaye the, jinmen kuch to vikhyat veer aur yoddha the.
unmen se ek ne ulahna dete hue kaha, “dekh lena, aam janta hum par havi ho jayegi. hamare log nasht honge aur dusht isai anant roop se sankhya mein baDhte chale jayenge.
ye shabd sunkar mustafa ki samajh mein aspasht sa aaya ki unka uske vicharon ke saath kuch sambandh tha. bahut prayas karke usne apne aap par niyantran kiya.
isai aur gair isai ye duniya nafar se bhari hai.
ve sabhi uski karkash aur phusphusahat jaisi avaz sunkar muDe. unhonne dekha ki wo chithDon mein tha. ghaas ke dhabbe us par lage the aur wo mitti se pila ho raha tha. uska chehra kajal ke saman kala ho raha tha. tab unhonne mahsus kiya ki uski ankhon mein khoon utra hua tha, uski putliyan sikuDkar beech mein ek kala bindu ban gai theen, uske haath uttejna mein ainthe hue the, uski nangi gardan suji hui thi aur uski moonchh ka bayan hissa kata hua aur dahine hisse se chhota tha.
unhonne ek dusre ko dekha. ek dhundh mein hokar usne un sab chehron ko apni or muDte dekha aur use laga ki ve us par hamla karne ke liye taiyar the. usne apni talvar le li. ve sab uchhalkar khaDe ho gaye. unmen se jo adhik aayu ke the, ve divar ke sahare khaDe ho gaye aur do chhote vale unke aage apne chhure pakaDkar khaDe ho gaye. usne pahle ko to maar giraya, lekin theek se dikhai na dene ke karan dusre ko wo chook gaya. usne us chakki ko luDhka diya, jismen coffe pisi gai thi. apna bachav karta hua, wo andhadhundh gali mein bhaga. turkon ne uska pichha kiya. log jama ho gaye. kuch logon ne socha ki chehaya ke adami attaiyon ke pichhe bhaag rahe hain, to kuch ne socha ki turk log chehaya ke sipahiyon ka pichha kar rahe hain. idhar kuch samay se ve har din is tarah ke takravon ke aur unmen bhaag lene valon ke raktapipasu dvesh ke adhikadhik abhyast ho gaye the.
uski drishti jane lagi aur wo darvaze se takrakar gir gaya aur usi kshan gali se aane vale aur saray mein upasthit turkon ne use gher liya. kai hathon ne use pakaD liya. unhonne uske jemadan coat ko phaDkar phenk diya aur wo qamiz mein rah gaya. saruk gir gaya. uski qamiz phat gai. usne kisi pagal adami ki tarah joradar sangharsh kiya aur apni talvar ko apne haath mein rakha. vahan bahut sare log the, isliye patla darvaza achanak toot gaya aur bheeD lahrakar gir paDi. mustafa ne apne aapko unse chhuDa liya aur apni talvar lahrata Dhalan par bhaag khaDa hua. sari bheeD uske pichhe bhagi. apne aage bina kuch dekhe, ganja, kamar tak nanga aur baal vala mustafa chala gaya.
janasmuh ne uske pichhe avaz lagai, pakDo use, wo pagal hai.
usne ek adami ko maar Dala hai.
“kayer!
pakDo use, jane mat dena!
kuch rahgiron ne use pakaDne ki asfal koshish ki. usne apna rasta rokne vale sipahi ko ulat diya. logon ko malum nahin tha ki uska pichha kyon kiya ja raha hai, lekin bheeD baDhti gai. nae log apne makanon se nikalkar aaye aur bheeD mein shamil ho gaye. apne chhote kauntron par baithe saudagaron ne unka utsaah baDhaya aur us par khaDaun aur lohe ke tukDe phenke. ghoDe Darkar uske saath bhage. murgiyan Darkar chikhne lagin. sabhi khiDkiyon par logon ke sir dikhai de rahe the.
halanki uska pichha kiya ja raha tha aur uski pitai ho rahi thi, phir bhi uske dusht vivek ko ek baar phir thoDi rahat mili. duniya nafar se bhari hai. har kahin!
halanki wo bilkul aape se bahar tha, phir bhi prharon se wo parast nahin hua, balki unmen se kisi bhi vekti se kahin adhik tezi se dauDta gaya. wo chekrlinchi par hare qabristan ke paas pahunch chuka tha ki ek khanabadosh lohar ki dukan se nikla aur jab usne dekha ki dusre log adhnange adami ke pichhe bhaag rahe hain to usne purane lohe ka ek tukDa us par phenka; loha uski kanpati par jakar laga aur wo vahin gir gaya.
ek baDe se tare ne andhere aur sankare akash ko paar kiya aur uske pichhe pichhe chhote tare bhi gaye. ek kshan mein antim tara bhi chala gaya. ye antim cheez thi, jise usne anubhav kiya. pichha karne vale uski or baDhe aa rahe the.
pau phatte hi qasbe ki sabhi dishaon se Dhol pitne vale aa pahunche aur jin ghuDasvaron ko svagat samaroh mein bhaag lena tha, ve bhi ikatthe hue.
banyaluka mein astriyaiyon par vijay ke utsav mein doboi ki golibari ka ye chautha din tha. pure bajaniya aur visheshkar doboi ko apne saath deshavasi mustafa mazar par garv tha, jo banyaluka ki laDai mein sabse mahan veer nayak raha tha. jarmnon ki hattya ke bare mein, aam janta ke narsanhar ke bare mein aur mustafa mazar ke bare mein kuch avishvasniy khabren i theen. aaj ye log usi ka intzaar kar rahe the.
saDak par uthte dhool ke ghubar se unhen baar baar dhokha ho raha tha. godhuli se kuch pahle hi mustafa mazar aaya. wo turahiyon aur jhanDon ke saath aaya. wo jhuka hua aur kuch chhota tha, jabki qisse kahaniyon aur logon ki apeksha mein wo kahin baDa dikhai deta tha. bilkul jhuka hua, kala aur labada oDhe wo koi pavitra aur vidvan yatri hi dikhai deta tha, wo mustafa mazar nahin, jiske bare mein itna adhik kaha aur gaya gaya tha.
jaldi jaldi aur kisi par koi dhyaan diye bina, wo shor machati aur jay jaykar karti bheeD ke beech se hokar ghoDe par tezi se nikal gaya. na usne pichhe muDkar dekha, na kisi se kuch baat ki aur apne makan mein ghus gaya. is beech bheeD uske angan ke samne khaDi rahi aur uske ghoDe se utare jate loot ke saman ko dekhti rahi.
ye tisri baar tha ki mustafa mazar pani ke upar apne Dhalvan makan mein lauta tha. kuchhek ghulamon ke alava use apne phizulkharch, sharabi baap se virasat mein ye makan hi mila tha. jayadad ka bantvara uske bhai aur uske beech kar diya gaya tha jabki uske dada avdaga mazar ne khoob daulat kamai aur chhoDi thi. wo jane mane turk the, jo apne purane izzatdar hangari gharane ko chhoDkar turk ho gaye the.
pita ki mirtyu aur bhai ki shadi ke baad pandrah saal ki aayu mein use muslim dharmshastr ka adhyayan karne ke liye sarayeva bhej diya gaya. vahan usne kasht aur gharib ke chaar saal kate. bees ki aayu mein wo doboi lauta to uske paas kitabon se bhara ek sanduk aur dharmshastriyon ki tanghali aur chandi maDhi ek bansuri thee; wo apne bhai ke paas rahne nahin gaya, balki is makan mein aa gaya.
wo bilkul badal gaya tha. apne mote honthon ke upar bhigi masen liye, kala jhuka aur gambhir, mustafa mazar na kisi se milta julta tha, na bolta tha. din ke samay wo musalman purohit ismetaga ke saath apni kitaben paDhta aur raat mein bahut der tak bansuri bajata apne makan ke lambe chauDe murish angan ko sangit se bhar deta tha. aur jab pahli sena ke liye bharti shuru hui to usne apne hathiyar liye, makan mein tala Dala aur delalich ke jhanDe tale roos chala gaya. bahut dinon tak uske bare mein koi khabar nahin i. ek saal baad ye khabar i ki wo mara gaya aur kyonki wo kisi se mel jol nahin rakhta tha aur kamsin tha, isliye logon ne use jaldi hi bhula diya. aur jab delalich lauta to usne bataya ki mustafa jivit hai (aur maze mein hai) aur tamam bajaniyaiyon mein sabse vikhyat aur atyadhik sammanit hai. chhah saal baad wo achanak apne aap doboi laut aaya. wo pahchan mein bhi nahin aa raha tha. wo kisi istambuli ki tarah shanadar kapDe pahne tha. usne apne makan ka tala khola. der raat mein usne momi kapDe mein lipti apni bansuri DhoonDh nikali aur dhime dhime aur dabi dabi raag chheDne laga.
tau u, titi tata aa
bansuri ki avaz khamoshi mein udasi liye gunjne lagi.
usne mahsus kiya ki uske paas na pahle jaisi bandhi saans thi aur na hi chapal ungliyan aur na hi use purani dhunen yaad theen. usne bansuri ko phir lapetkar rakh diya aur apne aapko anidra ki prataDa़na ke havale kar diya, jisne laDai khatm hone ke baad se uska pichha nahin chhoDa tha.
ye prataDa़na har raat hoti thi. achanak wo apne bare mein sab kuch, yahan tak ki apna naam bhi bhool jata aur us pahli ardhnidra mein tamam smriti aur aane vale din ki sari chetna ghayab ho jati aur pathrile andhere mein bus uski simti kaya nirjiv paDi rahti aur use lagta, mano uski tangon mein kisi ne pin aur suiyan chubho di hon aur uske dil ke niche mulayam maans mein bhay sama gaya ho aur har kahin ek thanDi dhaar ki tarah atank phailne lagta. wo puri koshish karke jab tab uthta, mombatti jalata, khiDki khol deta aur apne aapko vishvas dilata ki wo jivit hai aur andhkar ki shaktiyon ne use nasht ya agva nahin kiya hai.
taDke tak yahi sthiti rahti aur phir ek bhari shanti uski kaya mein pravesh karti aur neend kahin se bahkar ati; ye neend thoDi der ki, lekin duniya ki aur kisi bhi cheez se adhik mithi aur dayapurn hoti. aur kal ka din ek aur din hota. ye kram lagatar duhraya jata tha, lekin usne is bare mein kisi ko batane ka kabhi vichar nahin kiya tha. purohiton se use aruchi thi aur Dauktron par uska vishvas nahin tha.
qasbe mein wo jab aaya tha, us pahli raat ke baad saray mein sare log use jagah dene ke liye apni jagah chhoD dete the, lekin wo muskrata nahin tha, na hi unki jij~naasa shaant karne ke liye istambul ki laDai ke bare mein baat karta tha. ek baar phir log use kam karke ankane aur bhulne lage. lekin phir slvoniya mein nai laDaiyan chhiD gain aur wo taDke hi pahli tukDi ke saath usi khamoshi ke saath chala gaya, jis khamoshi ke saath wo aaya tha.
ek baar phir hangri aur slvoniya aur orlyava nadi ke muhane par hui bhishan laDai mein uske virata—bhare karnamon ki khabar i aur jab astriyaiyon ne banyaluka ko gher liya aur janta ki chhoti si bheeD ne turkon ko qasbe se khadeD diya aur logon ko loot liya to puri bajaniyai sena vrbaas nadi par aa gai. lekin astriyai ginti mein kahin aage the aur bajaniyai sena un par hamla karne ka sahas nahin juta pai. tab ant mein mazar ne ek yojna banai thi, ki ve nadi ke bahav ki viprit disha mein kuch aage ko latthon ke beDe banayenge; raat mein unhen pani mein utaar denge, aur pau phatte hi sena beDon se hokar kood paDegi aur astriyaiyon ko chaunka degi.
usi raat jab beDe taiyar kiye ja rahe the, wo lambe kooch ke baad kuch der sustane ke uddeshy se krakvain ke paas sarkanDe ke bistar par let gaya tha. idhar kuch samay se tarah tarah ke sapne use pareshan kar rahe the, uski kharab ho chuki nindon ko aur chhota kar rahe the aur use aur bhi nirasha mein dhakel rahe the. pahle to wo so gaya, lekin achanak krimiya ke kuch bachche use sapne mein dikhai diye. ye ghatna kai saal pahle hui thi aur usne un bachchon ko phir kabhi yaad nahin kiya tha.
un dinon wo ghuDasvar tukDi mein tha. dushman ko khadeDne ke baad ve krimiya ke ek parityakt greeshm avas mein raat katne ko ruke the. sone se pahle use kuch almariyon mein chhupe chaar bachche mile. ye charon laDke the. dhaule kate balon aur pili rangat vale ye laDke achchhe kapDe pahne the. ghuDasvar kul milakar pandrah the aur sare ke sare anatoliya ke the. unhonne laDkon ko pakaD liya, jo bhay aur piDa ke mare adhamre ho rahe the aur ve ek se dusre hathon mein jate rahe. subah hui to laDke sujkar nile paD chuke the aur apne pairon par khaDe hone layaq bhi nahin the. phir ek mazbut rusi tukDi aa gai aur ve bhaag khaDe hue; unke paas laDkon ko marne ka bhi samay nahin tha. ab ve charon ke charon use dikhai diye the. usne rusiyon ke aane ki avaz suni. usne apne ghoDe par chaDhna chaha, lekin uski rakab muD gai aur uske niche se phisalkar nikal gai aur uska ghoDa kahin chala gaya.
wo jaga to pasine se lathpath ho raha tha aur jujhne tatha haath paanv marne ke karan apne labade mein puri tarah se ulajh raha tha. bhayankar thanD thi, pau phatne mein bahut der thi aur andhera ho raha tha. is bhayankar apratyashit sapne se pareshan aur ghusse mein thukte hue usne apni belt kasi aur kapDon ko theek kiya.
turk kabhi ke tat par jama ho chuke the aur pau phat rahi thi, lekin beDe dhire dhire hi pahunche aur unhen mushkil se jamaya gaya. utha patak aur ho halla sunkar nadi ke us paar Dera Dale astriyai jaag gaye. santari pahre par lag gaye the. ve aur nahin ruk sakte the. mustafa ne navikon ko rassiyan kasne aur ek or ko hatne ka ishara kiya, phir apni talvar ki myaan ko phenkkar usne hunkara diya.
allah allah ki madad se! allah ke bande. . . ”
kafiron ke khilaf!
dushmnon ke khilaf!
allah! allah! sipahiyon ne josh mein chillakar javab diya.
betahasha josh mein bhagte hue ve uske pichhe pichhe beDon par pahunch gaye. lekin ek baragi unhonne dekha ki unhonne jitni sochi thi, beDe usse kahin adhik duri par the. unmen se kuch to pani mein gir gaye, kuch kudkar beDon par pahunch gaye; lekin adhiktar ruk gaye. lekin mustafa aage baDhta gaya. wo ek beDe se dusre par kudta, mano uske pankh lage hon. aisa lag raha tha, mano wo pani ke upar uD raha ho. pahli qatar abhi beDon par hichkicha hi rahi thi ki wo nadi ke us paar ja pahuncha aur khatre ke bavjud, usne chakit pahredaron par hamla kar diya.
dusre turkon ne jab dekha ki unka neta akela hi aage baDh gaya hai to ve bhi kudkar jane lage. lekin jo log pichhe the, unhonne unhen zor se dhakka diya aur dhamki di ki ve unhen pani mein Dubo denge. isliye zor ke dhaDakon aur hunkaron ke saath pahli qatar paar utar gai, halanki unmen se kai pani mein gir gaye aur hichkole khate beDon ke niche madad ke liye chillate rahe.
ek lambe samay se aisi tez jeet hasil nahin ki gai thi. apratyashit ghaDi mein aur apratyashit disha mein hamla hone ke karan vishal astriyai shivir ekdam titar bitar ho gaya. ve chikhte hue betartib bhage; mustafa ne sabse pichhli qatar ko ja pakDa aur bijli ki tarah jhapatkar un par hamla bol diya; uski lahrati talvar chamakdar ghera banane lagi aur uske asapas thanDi hava simat i. turk uske pichhe chillate hue aaye, allah!
banyaluka ke ghire hue turk qasbe se utar aaye aur phir shuru hua aam janta ka sanhar aur lutapat.
jeet ke baad raat mein mustafa apne tambu ke aage ghaas par apni hatheliyon par sine ka dabav dekar let gaya, kyonki use lag raha tha, jaise uski ek ek manspeshi sujkar baDi ho rahi thi aur uska saath chhoD rahi thi.
use aag ki lapten dikhai de rahi theen aur lutapat karne valon ke chillane aur mare jane valon ke chikhne ki avazen sunai de rahi theen.
duniya nafar se bhari hai.
lekin uski shiraon mein bus khoon ubalta raha. uski ek ek manspeshi phaDak rahi thi. wo so nahin paya.
us raat ke baad neend uski ankhon se bilkul ghayab ho gai, pau phatne se pahle ke un kuch ghanton ko bhi nae nae sapne barbad kar dete the. apne vigat jivan ki jin ghatnaon ko wo bhula chuka tha, ve behad uljha dene vali ghatnayen apratyashit roop se ek ke baad ek raton ko use dikhai deti theen. in sapnon ki sabse kharab baat to ye thi ki unmen ki ek ek cheez, ek ek halchal behad aspasht, behad saaf hoti thi, mano harek ka ek alag jivan aur ek vishesh mahattv ho. use raat ke bare mein sochne se Dar lagta tha. wo khu apne aapse bhi us bhay ko manyata nahin dena chahta tha, lekin ye baDhta raha aur kai dinon tak use prataDit karta raha. isne svapn ke vichar ko nasht kar diya, uska saath pakaD liya, uske maans mein pravesh kar liya aur resham ke dhage se bhi adhik adrshy tatha sookshm roop mein ye uske andar din ba din aur gahre chhedata chala gaya.
aaj raat apne makan mein wo tisri baar lauta tha.
aur is tarah, doboi ki galiyon mein aur shor machate, nachte samuh mein hokar ghrinaa ke saath nikal aane aur apne maarg rakshai se vida le lene ke baad, raat mein wo apne makan mein pagal ki tarah is tarah ghumta raha ki farsh charmarane aur chatakne lagi. use yuvaon ki avaz abhi bhi sunai de rahi thi, jo uski aur jeet ki jay jaykar kar rahe the, lekin wo chahalaqadmi karta hi raha, baithne ka usmen sahas nahin hua. usne us momi kapDe ko dekha, jismen uski purani bansuri lipti hui thee; usne kitabon se bhare apne hare sanduk ko bhi dekha, lekin haath kisi bhi cheez ko nahin lagaya.
pahaD raat mein dikhai nahin de rahe the aur qasbe mein khamoshi thi, lekin pahaDiyon par ke khanDahron se use ullu ki avaz aati sunai de rahi thi.
wo khiDki ke sahare tik gaya. anidra ka taap, yatra aur yahan tak ki uske dil ki dhaDkan bhi use uninda kar rahi thi. lekin ab uske sone se pahle hi sapne aa rahe the. kya uski ankhen band ho gai theen? use pichhe ka ek kamra dikhai diya, jo purani chizon aur makDi ke jalon se bhara tha aur kone mein ek lakDi ki peti ke upar uske dada avdaga mazar baithe hue the. unka chehra laal tha, chhoti si daDhi aur nukili munchhen theen. wo vahan maun aur avichal baithe the aur unki upasthiti mein hi ek vishesh arthpurnta aur duhakh tatha atank ka ek asahniy bhaav tha, jisne uska dam ghont kar rakh diya. wo chaunk gaya. wo kamre mein chhaye andhere se behad Dara hua tha, phir bhi usne mombatti nahin jalai, balki us atank se hokar chahalaqadmi karta raha, jo kisi zirah baktar ki tarah use apne andar samete tha aur use ye ehsaas kara raha tha ki uske to paanv hi nahin the.
usmen rukne ka sahas nahin hua. use anidra ke bhay se aur so jane ki sthiti mein apne sapnon ke bhay se hamesha bus chalte rahna tha. chahalaqadmi karte hue use yaad i sarayeva ki, apne samlaingik mitr yusuphajich ki aur chekrlinche ki mulayam ghasdar hari pahaDi ki jis par kabhi kabhi wo un dinon mein duphar ko apne haath ka sirhana banakar so jaya karta tha, jab wo dharmshastr ka chhaatr tha. wo aur khaDa nahin rah saka, balki ghoDe par zeen kaskar wo kisi doshi vekti ki tarah chupchap raat ke andhere mein doboi ke bahar nikal gaya.
agle din qasbe mein ye khabar baDe ashchary ke saath suni gai ki wo bahar chala gaya aur usne kheton mein karvanon ke kuch rahnumaon par hamla kar unhen ghayal kar diya tha aur unke ghoDon ko Dara diya tha. usne kuch duri chhote chhote raston par hokar aur kuch duri ganvon ke beech se tay ki aur iisaiyon ko itni berahmi se pita aur titar bitar kiya ki turk bhi usse milne se Darne lage.
jab wo sutyeska pahuncha to vahan ka isai math aise band tha, jaise uske sannyasi use chhoDkar chale gaye the. pichhle din kuch logon ne mathadhyaksh ko bata diya tha ki dobei se mustafa mazar aa raha hai, us par bhoot savar hai aur wo apne samne aane vale sabhi logon ko maar raha hai.
usne apni kulhaDi ke daste se phatak par dastak di. khamoshi thi. usne pichhe hatkar math ko dekha. math ki baDi si chhat, chhoti chhoti khiDkiyan aur mazbut divaren theen. ek kshan ko to usne socha ki ismen aag laga di jaye, lekin aag aur bhusa DhunDhane jana, use aruchikar aur ubau vichar laga. baharhal sab kuch use ajib sa lag raha tha; vishal imarat uske samne khaDi thi aur iske andar maujud sannyasi chuhon ki tarah the, chhote aur bhure.
“kitni jaldi unhonne apne aapko andar band kar liya, ha, ha, ha!
wo zor zor se hansta hua vahan se chal diya. wo qabristan se niche utar raha tha to uska ghoDa divar ke pichhe se jhankti safed salibon ko dekh bidak utha. usne ghoDe ki lagam khinchkar use roka. jab wo apne ghoDe ko shaant kar raha tha aur sannyasiyon tatha salibon ko ghusse mein bak raha tha, to do sannyasi nukkaD par dikhai paDe. unmen se ek kitabon ki gathri liye tha aur dusra khane ki tokari. ve pichhe to hat nahin sakte the, isliye saDak kinare ki khai mein utar gaye aur unhonne us turk ka abhivadan kiya. wo unki baghal mein aakar ruk gaya.
tum log purohit ho?
ji, sultan zindabad.
“aur tumhein saDak kinare ye nishan khaDe karne ki ijazat kisne di ki mera ghoDa Dar jaye? batao suaron ke suaron?
“iska ye maqsad nahin tha, huzur. ”
“ ‘iska ye maqsad nahin tha se tumhara kya matlab hai? tumhein iski ijazat kisne dee?
vazir aur adarnaiy sultan, donon ne. baDe sannyasi ne kaha. wo mulayam daDhi aur buddhimani bhari ankhon vala, lamba aur gambhir vekti tha.
mustafa ne apna dahina haath Dhila chhoD diya aur apni chamakdar nazar se nirmamta aur ghusse se unhen ghurne laga. donon sannyasi uske aage kaanp rahe the aur unki nazren nichi theen.
bilkul! aur vazir ki or se, aur ek to sarayeva ke mulla ki or se bhi hai.
chalo, in tinon ko ikattha karo aur phenk do. suna tumne? aur agar koi tumse puchhe ki kya kar rahe ho to usse kahna, hamein aisa karne ke liye mustafa mazar ne kaha hai, jo pahaDi se chattan ki tarah luDhakta niche utar raha tha, jise na to neend ki zarurat thi, na hi roti ki aur jo qanun ko nahin manata tha.
sannyasi uski badahvas, ghurti nazar se to pahle hi Dare hue the, in shabdon ne unhen aur bhi Dara diya. usne apne zeen se patte nikale aur donon mein se aayu mein chhote sannyasi se kaha ki wo baDe vale ko inse baandh de. baDa sannyasi ne apne hathon ko apne aap pichhe kar liya aur chhota sannyasi use dhire dhire bandhne laga, kyonki uske haath nissandeh kaanp rahe the.
tumne use theek tarah se baandh diya?
ji, huzur.
usne jhukkar patton ko chhukar dekha aur jab usne dekha ki ve achchhi tarah se nahin bandhe the to usne bina kuch kahe us par kulhaDi chala di. sannyasi ne apna munh ghuma liya aur kulhaDi ki dhaar se uska kandha itni zor se kata ki wo bina chillaye zamin par gir paDa. lekin turk use itna zor se pitne laga ki wo uthkar khaDa ho gaya aur apne bandhe hue sathi ke saath uske aage aage chalne laga. khoon tapakta ja raha tha aur saDak par nishan chhoDta ja raha tha.
achanak usne tay kiya ki wo unhen khadeDkar sarayeva le jayega aur unhen apne purane mitr yusuphajich ke havale kar dega, jo amir adami tha aur maज़aक़ banane mein ustaad tha. lekin jab saDak pahaDi par chaDhne lagi aur suryast ho gaya to ghayal sannyasi itna past ho gaya ki behosh hokar gir paDa. byarth hi mustafa ne kulhaDi ke daste se sannyasi ki pasliyon par chot ki, aur unmen se khali pipe jaisi avaz nikli. ve saDak kinare ek parityakt astabal par ruke. donon sannyasi ekbargi ek dusre ki baghal mein zamin par luDhak gaye aur usne apne ghoDe ko baandh diya aur apna labada lekar let gaya. neend ne turant aa ghera. ek lambe samay se aisa nahin hua tha.
duniya mein sarvadhik ananddayak hai neend, auchak neend!
lekin ye madhur vichar usse chheen liya gaya. dhundh aur lahron ki sarsarahat ne use lupt kar diya. vrbaas nadi sarsara rahi thi, us par tairte beDe bhee; lekin ye laDai ke beDon ki tarah panktibaddh, bhari ya ek dusre se alag ya khuni nahin the, balki dhire dhire hichkole lete hue tair rahe the. phir kisi cheez ne lahron ki sarsarahat ko rok diya aur beDon ko alag alag kar diya aur ab wo kathor zamin par tha aur mirtyu ke samay gale se nikalne vali ekras ghargharaht ko sun raha tha. usne chaunkkar apni ankhen khol deen aur use ye bhayankar roop se baDi thanDi aur puri khuli mahsus huin jaise wo kabhi soya nahin tha. wo ghaur se sunne laga. phusphusahat us kone se aa rahi thi, jahan sannyasi lete hue the.
ghayal sannyasi (vah sahayak dharmsanghi tha) mirtyu ki apeksha mein baDe sannyasi se paap svikar kar raha tha. halanki wo paap kshama praapt kar chuka tha, phir bhi wo unmaad mein pashchattap ke shabdon aur pararthna ke vakyon ko duhrata raha.
main. . . main tujhe prem karta hoon, he prabhu, kyonki tu mahantam achchhai hai.
tum kya phusphusa rahe ho, khuni suaro?
usne apni chhoti banduk uthai aur us andhere kone ki or goli chala di, jahan ve sannyasi lete hue the. rone karahne ki avaz aane lagi. wo turant uchhalkar khaDa ho gaya aur apne labade ko lapetkar ghoDe ko lekar vahan se chal diya. wo yusuphajich ko aur us dillgi ko bilkul bhool gaya, jo wo sannyasiyon ke saath karne vala tha. wo itni phurti se apne ghoDe par savar hua, jaise wo unse door bhaag raha ho.
wo jangal mein se hokar nikla aur thanDi raat ne use shaant kar diya; uska ghoDa zamin se bahar nikli jaDon par chaunk paDta aur door se aati avazon par chaukanna hokar apne kaan khaDe kar leta. pau phatne aur kshaitij par pilahat chhane tak yahi chalta raha. phir wo ek breach vriksh ke niche apna labada oDhkar let gaya. thanD ne use beendh diya aur niravta ke karan use neend aa gai. turant hi wo sapne dekhne laga.
usne apne aapko orlyapa nadi ke kinare laDai mein dekha. usne apne aapko un do chattanon ke beech jama rakha tha, jin par pani bah raha tha aur kai ugi thee; wo unse tika hua tha, jabki uske samne do latkovich bandhu hamla kar rahe the. ye donon bhai hatte katte aur bhayankar bhagoDe apradhi the. usne jamkar unka pratirodh kiya, lekin uski nazar unke siron ke upar se hokar kshaitij ki sima par ja pahunchi, jahan balua maidan akash ko chhu rahe the aur vahan usne kale vastra pahne ek aurat ko dekha jiska haath apni chhati par tha aur chehra bigDa hua tha. use pata tha aur nahin bhi pata tha ki wo apni chhatiyon ko kyon daba rahi hai aur uska chehra dard se bigDa hua kyon hai? phir jab usne aurat ko dekha to use sab kuch yaad aa gaya. use yaad aaya ki kaise wo use erjenu mein sheriफ़ ke makan mein akeli mili thi, aur kitne ji jaan se usne haath paanv mare the. wo ab bhagoDe apradhiyon se bahaduri se apna bachav kar raha tha, lekin phir us par ghussa savar ho gaya.
“tum use bhi le aaye! kya tum donon kafi nahin ho, bhagoDe apradhiyo, kutte ke pillo! aur bhi koi hai kyaa?
wo badahvas talvaron se jujhta raha, lekin un bhagoDe apradhiyon ne uski ankhon mein apni talvaron ki nonk ghompkar uska ghussa bhaDka diya, aur wo pasine pasine kanpta hua chattanon se aur mazbuti se tikkar khaDa ho gaya.
wo jaga to use laga, jaise wo patthar ho. uske bhaybhit honth ainthe hue aur kos rahe the. uska khoon thanDa paD gaya tha. suryoday ho hi raha tha aur dhoop uski palkon ko chheD rahi thi.
ye mahsus karte hue ki ab wo ek kshan ke liye bhi nahin so payega aur pau phatne ke samay bhi use shantipurn vishram nahin milega, wo nirasha bhare ghusse mein dahaDkar niche jhuka aur zamin par apna sir patakne laga. bahut der tak wo zamin par pachhaD khata, gurrata, munh se jhaag chhoDta aur apne laal labade ko katta raha, aur udhar suraj pahaD ke upar se uthkar akash mein unchai par pahunch gaya.
bilkul ast vyast aur chithDon mein hi wo apne ghoDe ko pakDe pahaDi ke niche utar chala. us maidan mein sote ke kinare jakar hi wo ruka. vahan pani cheeD ke tane se bani ek naand mein gir raha tha. ye pani ek moti, chamakdar dhaar mein uphan raha tha aur zamin ke kafi baDe hisse mein phail raha tha, jisse vahan Dabre aur chhote chhote gaDDhe ban gaye the aur un par subah ki chamak mein titliyan aur ashant lahron ki tarah jhunD ki jhunD makkhiyan manDara rahi theen.
uske ghoDe ne kaath ki naand ke kinare se bahut der tak pani piya, aur wo apne chehre par takrati bhor ki hava aur pani ki tazgi se kuch shanti grahn kar, vicharamagn baitha raha. phir usne pani mein apna chehra dekha aur dekha ki dhundhla tha, raat ki tarah kala paD raha tha, aur iske charon or jhunD ki jhunD makkhiyan theen; inmen se harek makkhi dhoop mein nahati naach rahi thi aur paradarshi parkash mein mala ban rahi thi. uska haath apne aap uth gaya, usne pani mein apni muDi hui ungliyan dekhin aur unhen us taral kanpte aine mein Dubo diya; lekin uske haath ko kuch bhi anubhuti nahin hui, dhoop mein bhige ve chhote chhote jeev itne nanhen aur bharahin jo the. ghoDe ne jhatka diya aur wo chaunk gaya; makkhiyon ka jhunD apni jagah se hila aur alag ho gaya aur mala toot gai.
wo mano tandra mein duphar tak ghoDe par savar chalta raha. wo avishvasniy roop se shaant tha. us raat agar umar ki saray mein uski bhent chatichi ke abduslambe se nahin hui hoti to wo sarayeva tak apni yatra jari rakhta. abduslambe bahut batuni aur viral munchhon tatha nili ankhon vala shekhibaz tha. usne mustafa se anurodh kiya ki wo raat mein vahin thahre taki agle din ve donon saath saath sarayeva ja saken aur uske mitr aur vahan ke log use qasbe mein mustafa mazar ke saath pravesh karte dekh saken, mano wo uska mitr aur sahyatri tha. mustafa ne svikar kar liya. bhari din apni samapti par aa raha tha; neend, jo ek aur thakan thi aur jismen wo harek baat ko samajhta aur mahsus karta tha, use gher rahi thi. suraj aag ugal raha tha aur uski dhadhak uske gale mein uthi aur uska dam ghutne laga.
usne thoDa pani piya aur abduslambe ki or dekhe bina let gaya. usne sarayvale ko chetavni de di ki agar kisi ne use jagane ka sahas kiya to wo use jaan se maar dega, wo chahe kutta ho, murgi ya phir koi adami!
pahle to wo so gaya, lekin phir hamesha ki tarah achanak hi jab use iski apeksha bhi nahin thi, uski ankhon ke aage krimiya ke vahi gore, kate balon vale bachche aa gaye; lekin pata nahin kaise ve kathor, chikne aur damdar ho rahe the aur machhli ki tarah phisle ja rahe the. unki ankhon mein alasy nahin tha, na hi unki putliyan bhay se sikuDi hui theen, balki ve sthir aur avichal theen. unhen pakaDne ki koshish mein uski saans phool rahi thee; usne chhote se chhote badlav par bhi dhyaan diya. aur usne zabardast sangharsh kiya, unhen pakaDne ki koshish mein wo ghussa ho utha.
usne apne pichhe vale ko kahte suna, tumhen unko bhoon dena chahiye tha, unhen pakaDkar stov mein Daal dena chahiye tha. . . ab to bahut der ho chuki hai.
wo un par behad ghussa ho gaya. use yahi karna chahiye tha. unko bhoon Dalna chahiye tha! aur wo unhen pakaDne ke liye phir uth khaDa hua. lekin wo apni banhon ko byarth hi lahrata raha, kyonki wo nanha aur hasyaspad tha. bachche haath se nikle ja rahe the, aur ekbargi ve badalon ki tarah uD gaye.
wo jaag gaya. wo pasina pasina ho raha tha aur bhayankar anubhav kar raha tha, haanph raha tha aur apne niche bichhi phoos ki chatai ko nonch raha tha. din samapt ho raha tha aur andhera gahrata ja raha tha. bhay ne use jakaD liya. pasina thanDa hokar uske sharir par jam gaya. usne rukhepan se abduslambe ko pukara, phir coffe, branDi aur ek mombatti mangai.
is tarah ve der tak baithe pite rahe. mombatti unke beech jhilmilati rahi. kone andhkar aur ghayab hoti parchhaiyon se bhare the, aur chhoti si khiDki nili raat ko ek chhote se khanD ko pratibimbit kar rahi thi. phir us khali kamre mein ashamti ke tikhe svar gunjne lage. abduslam bahut adhik bol raha tha. wo apne bare mein, apni laDaiyon aur apne parivar ke bare mein bol raha tha. usne gabela mein apni pahredar ki duty ke bare mein baat ki. lekin mustafa shalinata ka parichai dete hue chup raha; wo bus har gilas ke baad kaanp jata tha. mustafa ko bulvane ke liye abduslam banyaluka ki laDai ke bare mein baat karne laga ki kaise usne mustafa ko ek beDe se dusre beDe par kudte dekha tha aur kaise usne dusre kinare par pahunchakar jarmnon ko marana shuru kar diya tha.
kya tum rajai ke niche se dekh sakte ho?
kya…a…a? kaise?
mustafa ki ankhen chamak aur naach rahi theen. lekin abduslam shaant raha. wo ye nahin samajh pa raha tha ki iska bura mane ya ise maज़aक़ samjhe. phir mustafa thahaka markar hans paDa aur abduslam ne turant use isi roop mein svikar kar liya.
bus maज़aक़.
bilkul.
aur turant hi usne phir bolna shuru kar diya aur ye batane laga ki kaise usne un jarmnon ko pakDa, jinhen mustafa ne khadeD diya tha.
dekho, main sochta hoon, mainne kam se kam chalis ko kaat Dala tha.
haan, haan.
dekho, ek chhota tez german dauDne laga, aur main uske pichhe lag gaya. aur khuda ne mere panvon ko phurti di aur main dauDta gaya aur dauDta gaya aur dauDta gaya…
aur tumne use pakaD liya?
bus, sunte raho. jab hum pahaDi ki chaDhai par ja rahe the to mainne dhyaan diya ki wo past ho raha hai, so main us tak pahuncha aur use mainne bakre ke gosht ki tarah maar kar gira diya.
achchha, achchha.
mazar ne budbudate hue bus aah bhari aur wo baten karta raha. raat, branDi aur chhichhle dimagh ki koi sima nahin hoti aur uske dada aur pardada ke kiye hue aur bhi nae, ajib virata ke kaam bhi ubhar aaye aur gabela mein uski golabari puri tarah se badal gai.
khuda ne mujhe niDar kar diya. jab hum venisvasiyon ke khilaf kisi duhsahsik kaam par jaya karte the to ve sabhi kanpne lagte the aur andhere mein phusaphusate the. main khandak par chaDhkar jitni zor se ho sakta tha, gane lagta tha aur meri avaz bansuri ki tarah hoti thi. aur uske baad vlasi ka saval hota tha ki wo turk kaun hai, jismen itna sahas hai, jo itna shaktishali veer hai, lekin hamare adamiyon ko pata tha ki wo kaun tha; aur wo ho bhi kaun sakta tha?
dekho, tum mahajhuthe ho.
abduslam apni kalpana aur apne svayan ke shabdon mein bah gaya tha aur usne mustafa ki baat theek se nahin suni.
“tumne kya kaha?
“tum bahut jhooth bolte ho, mere dost. mustafa ne akaDkar aur besabri ke saath apne honthon ko chabate hue aur moonchh ko ainthte hue kaha.
ab jakar abduslam ki samajh mein aaya. kamra use aur bhi andhkarmay lagne laga. mombatti uski aati jati saans ke niche kanpkanpati aur jhilmilati rahi. apne bahut nikat use mustafa ki do ankhen dikhai deen; unmen khoon utar aaya tha aur ve khatarnak Dhang se chamak rahi theen. usne mustafa ki daDhi ke upar uske chehre aur uske mrityuvat pile chehre ka dekha. use bura bhi laga aur wo Dar bhi gaya. wo uchhalkar khaDa ho gaya. nichi mez palat gai, mombatti girkar bujh gai.
halanki mustafa nashe mein tha, phir bhi kisi yoddha ke sahj bodh ke saath divar ki or pichhe hata aur usne apne labade aur belt mein se tatolkar apni pistol nikal li. mez un donon ke beech palti paDi thi aur pichhe ki khiDki ab poorn andhkar mein ek chamakte hue varg ki tarah thi. khamoshi mein apni saans rokte hue usne ek halki sarsarahat ki avaz suni. abduslam myaan se apna chhura nikal raha tha. mano is sthiti ne use apni zindagi ke anek karnamon ki yaad dila di ho, achanak ek baar phir wo mrityuvat ghrinaa ke saath sochne laga. kitni nafar hai is duniya men! lekin ye soch bus ek kshan ke liye raha aur usne ekdam apne aapko sanbhal liya aur apni sthiti ka jayaज़a liya.
abduslam kayer aur jhutha hai aur aise log asani se jaan le lete hain. uske haath mein koi pistol nahin hai aur agar wo ise lena chahta hai to use khiDki par jana hi hoga.
usne apna haath uthaya, khiDki ke bichobich nishana sadha aur intzaar karne laga. theek ek minat baad, pahle to khiDki par abduslam ka haath dikhai diya aur phir uske baad uske sharir ne use pura Dhak liya. mustafa ne ghoDa daba diya. dhamake mein usne abduslam ke girne ki avaz nahin suni.
buDhe saray vale umar ne ya to kuch suna nahin, ya phir koi avaz karne ki uski himmat nahin hui.
us raat wo aviram jangal mein hokar yatra karta raha. uska ghoDa chhaya se bhaybhit hokar aur thaka hua jab tab ruk jata tha. phir wo svayan us chandravihin chamkili raat mein ekaki vriksh tanon aur unki chhaya ko dekhne laga. wo khatarnak aur vichitr dikhai dene vali chizon ko samman deta hua unse bachta raha. achanak use laga ki harek cheez ke saath saath ek vishesh avaz thee; phusaphusane, pukarne ya gane kee; ye komal aur lagbhag abujh avazen theen, jo un akritiyon ke saath milkar unse ulajh rahi theen. sari avazon ka us chabuk ki phatkar ke saath vilay ho raha tha, jisse wo apne ghoDe ko maar raha tha. jab usne ghoDe ko marana band kiya to avazen kai guna hokar use Darane lagin. khamoshi se sambodhit hokar wo chillaya ha
aa aa aa aa aa aa aa aa aa!
aur tab jangal ke harek bhaag se, harek khokhar aur harek peD aur patte se aur bhi tez gunjen ain aur avazon ne use chup kara diya aur gher liya ha
“a aa aa aa aa aa aa aa aa!
usne apni sari shakti laga di, aur puri taqat lagakar chillaya, halanki uska gala ghut raha tha aur saans phool rahi thi, lekin anaginat aur adamy avazon ne uski chillahat ko daba diya aur peD aur jhaDiyan use Darane lagin. uske pure sharir ke rongte khaDe ho gaye aur use apne niche apne ghoDe ki sudh bhi nahin rahi aur isi sthiti mein bhagta gaya. uska gala ghut raha tha, lekin wo bina ruke tab tak chillata raha, jab tak ki wo vrikshavihin kshaetr mein nahin aa gaya, jahan avazen shaant ho gain.
pau phati to wo sarayeva ke upar goricha mein tha. wo ber ke baag mein ruk gaya tha. uske ghoDe ke takhnon se khoon bah raha tha, hanphane se uski baghlen uth—gir rahi theen aur wo laDkhaDa raha tha. samucha akash chamakdar tha aur halke badal parkash se bhare the. qasbe ke upar dhundh thi aur keval minaron ke sikhar ubhre hue the aur Dube jahazon ke mastulon se dikh rahe the.
uska haath uske gile chehre par gaya. usne un do kale ashant gheron ko hatane ki asfal koshish ki, jinse hokar wo din ko uske poorn parkash mein aur uske niche pasre qasbe ko dhundhla dhundhla hi dekh pa raha tha. usne apni kanpati ko dhak dhak karta mahsus kiya, lekin uski ankhon ke saath saath ve kale ghere bhi ghoom rahe the. phir sab kuch use ghumta, kanpknpata aur andhkarmay dikhai diya. khamoshi gahri bhi thi aur usne khoon
ko jama hote aur apne gale mein zor se takrate suna. use yaad nahin raha ki wo tha kahan aur ye kaun sa din tha. usne sarayeva ke bare mein socha, lekin sara samay use kakeshas ka ek qasba aur uski minaren hi dikhai deti rahin. jab tab uski drishti bhi poorn roop se jati rahi.
wo ber ke ghane baag se mushkil se apna rasta DhoonDh paya aur jab qasbe ke nikattam bhaag mein aaya to usne apne ghoDe ko ek saray ke aage roka, jahan qabristan ke paas baDe hare ghaas ke maidan mein kuch turk pahle se hi baithe hue sote ke kinare coffe pi rahe the. wo ghoDe se utarkar andar gaya. ast vyast aur gandi haalat mein wo apni ankhon se takrate andhkar se hokar Dagmagata hua aage baDha. use apne aage chehre dikhai diye, jo achanak ghayab ho gaye aur ek kshan ko phir prakat ho gaye, tairte aur gaDD maDD. wo baith gaya. usne apne kanon mein phaDakte khoon ke beech unhen sunne ki koshish ki, lekin use unke shabd samajh mein nahin aaye. ve sultan ke doot kulachehaya luphtibe ke hathon diye jane vale danD ke bare mein baten kar rahe the.
lambi laDaiyon ke baad anek piyakkaD aur nithalle jama ho gaye the aur sarayeva aur bajaniya ke aur bhagon mein Dakaiti, lutapat aur tamam tarah ki hinsak vardaten kar rahe the. jab istambul mein baithe adhikari in shikayaton se tang aa gaye to sultan ne apne vishesh pratinidhi ko asimit adhikar dekar bheja. patli, latakti moonchh vala wo lamba adami, jo saDkon par kisi sadhu ki tarah, pila, jhukkar chalta tha, nirdayi, kroor aur phurtila tha. pahle kabhi adhikariyon ka haath itna bhari nahin raha. jab kabhi wo kisi piyakkaD ya nithalle ko pakaD leta, ya kisi hatyare ya lutere ki use suchana milti to wo use juta tabiya mein Daal deta tha, jahan phansi dene vale bina kisi puchhatachh ya khojabin ke rassi se uska gala ghont dete the. kabhi kabhi to ek raat mein saath apradhiyon ka gala ghont diya jata tha. aam janta prasann thi. turk uski kathorta ke bare mein bhunabhunane lage. lekin usne sarvajnik sthal mein apni ninda karne vale do sarayevai saudagaron ko pakaD liya aur kisi ke hastakshaep karne se pahle unka gala ghont diya.
un logon ki lashen bhi theen, jinhonne chehaya ki kathorta se apne nashe ki haalat mein apne aapko bachane ki koshish ki thi. ve jo sochte the, uske bare mein khulkar bolne ka duhsahas to unmen tha nahin, isliye ve keval is baat par khed prakat kar rahe the ki itne turk nasht ho gaye the, jinmen kuch to vikhyat veer aur yoddha the.
unmen se ek ne ulahna dete hue kaha, “dekh lena, aam janta hum par havi ho jayegi. hamare log nasht honge aur dusht isai anant roop se sankhya mein baDhte chale jayenge.
ye shabd sunkar mustafa ki samajh mein aspasht sa aaya ki unka uske vicharon ke saath kuch sambandh tha. bahut prayas karke usne apne aap par niyantran kiya.
isai aur gair isai ye duniya nafar se bhari hai.
ve sabhi uski karkash aur phusphusahat jaisi avaz sunkar muDe. unhonne dekha ki wo chithDon mein tha. ghaas ke dhabbe us par lage the aur wo mitti se pila ho raha tha. uska chehra kajal ke saman kala ho raha tha. tab unhonne mahsus kiya ki uski ankhon mein khoon utra hua tha, uski putliyan sikuDkar beech mein ek kala bindu ban gai theen, uske haath uttejna mein ainthe hue the, uski nangi gardan suji hui thi aur uski moonchh ka bayan hissa kata hua aur dahine hisse se chhota tha.
unhonne ek dusre ko dekha. ek dhundh mein hokar usne un sab chehron ko apni or muDte dekha aur use laga ki ve us par hamla karne ke liye taiyar the. usne apni talvar le li. ve sab uchhalkar khaDe ho gaye. unmen se jo adhik aayu ke the, ve divar ke sahare khaDe ho gaye aur do chhote vale unke aage apne chhure pakaDkar khaDe ho gaye. usne pahle ko to maar giraya, lekin theek se dikhai na dene ke karan dusre ko wo chook gaya. usne us chakki ko luDhka diya, jismen coffe pisi gai thi. apna bachav karta hua, wo andhadhundh gali mein bhaga. turkon ne uska pichha kiya. log jama ho gaye. kuch logon ne socha ki chehaya ke adami attaiyon ke pichhe bhaag rahe hain, to kuch ne socha ki turk log chehaya ke sipahiyon ka pichha kar rahe hain. idhar kuch samay se ve har din is tarah ke takravon ke aur unmen bhaag lene valon ke raktapipasu dvesh ke adhikadhik abhyast ho gaye the.
uski drishti jane lagi aur wo darvaze se takrakar gir gaya aur usi kshan gali se aane vale aur saray mein upasthit turkon ne use gher liya. kai hathon ne use pakaD liya. unhonne uske jemadan coat ko phaDkar phenk diya aur wo qamiz mein rah gaya. saruk gir gaya. uski qamiz phat gai. usne kisi pagal adami ki tarah joradar sangharsh kiya aur apni talvar ko apne haath mein rakha. vahan bahut sare log the, isliye patla darvaza achanak toot gaya aur bheeD lahrakar gir paDi. mustafa ne apne aapko unse chhuDa liya aur apni talvar lahrata Dhalan par bhaag khaDa hua. sari bheeD uske pichhe bhagi. apne aage bina kuch dekhe, ganja, kamar tak nanga aur baal vala mustafa chala gaya.
janasmuh ne uske pichhe avaz lagai, pakDo use, wo pagal hai.
usne ek adami ko maar Dala hai.
“kayer!
pakDo use, jane mat dena!
kuch rahgiron ne use pakaDne ki asfal koshish ki. usne apna rasta rokne vale sipahi ko ulat diya. logon ko malum nahin tha ki uska pichha kyon kiya ja raha hai, lekin bheeD baDhti gai. nae log apne makanon se nikalkar aaye aur bheeD mein shamil ho gaye. apne chhote kauntron par baithe saudagaron ne unka utsaah baDhaya aur us par khaDaun aur lohe ke tukDe phenke. ghoDe Darkar uske saath bhage. murgiyan Darkar chikhne lagin. sabhi khiDkiyon par logon ke sir dikhai de rahe the.
halanki uska pichha kiya ja raha tha aur uski pitai ho rahi thi, phir bhi uske dusht vivek ko ek baar phir thoDi rahat mili. duniya nafar se bhari hai. har kahin!
halanki wo bilkul aape se bahar tha, phir bhi prharon se wo parast nahin hua, balki unmen se kisi bhi vekti se kahin adhik tezi se dauDta gaya. wo chekrlinchi par hare qabristan ke paas pahunch chuka tha ki ek khanabadosh lohar ki dukan se nikla aur jab usne dekha ki dusre log adhnange adami ke pichhe bhaag rahe hain to usne purane lohe ka ek tukDa us par phenka; loha uski kanpati par jakar laga aur wo vahin gir gaya.
ek baDe se tare ne andhere aur sankare akash ko paar kiya aur uske pichhe pichhe chhote tare bhi gaye. ek kshan mein antim tara bhi chala gaya. ye antim cheez thi, jise usne anubhav kiya. pichha karne vale uski or baDhe aa rahe the.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 202-219)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : ईवो आण्ड्रिच
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।