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मुस्तफ़ा माज़ार

mustafa mazaar

ईवो आण्ड्रिच

ईवो आण्ड्रिच

मुस्तफ़ा माज़ार

ईवो आण्ड्रिच

और अधिकईवो आण्ड्रिच

    पौ फटते ही क़स्बे की सभी दिशाओं से ढोल पीटने वाले पहुँचे और जिन घुड़सवारों को स्वागत समारोह में भाग लेना था, वे भी इकट्ठे हुए।

    बान्यालूका में आस्ट्रियाइयों पर विजय के उत्सव में दोबोई की गोलीबारी का यह चौथा दिन था। पूरे बाजनिया और विशेषकर दोबोई को अपने साथ देशवासी मुस्तफ़ा माज़ार पर गर्व था, जो बान्यालूका की लड़ाई में सबसे महान् वीर नायक रहा था। जर्मनों की हत्या के बारे में, आम जनता के नरसंहार के बारे में और मुस्तफ़ा माज़ार के बारे में कुछ अविश्वसनीय ख़बरें आई थीं। आज ये लोग उसी का इंतज़ार कर रहे थे।

    सड़क पर उठते धूल के ग़ुबार से उन्हें बार-बार धोखा हो रहा था। गोधूलि से कुछ पहले ही मुस्तफ़ा माज़ार आया। वह तुरहियों और झंडों के साथ आया। वह झुका हुआ और कुछ छोटा था, जबकि क़िस्से-कहानियों और लोगों की अपेक्षा में वह कहीं बड़ा दिखाई देता था। बिलकुल झुका हुआ, काला और लबादा ओढ़े वह कोई पवित्र और विद्वान् यात्री ही दिखाई देता था, वह मुस्तफ़ा माज़ार नहीं, जिसके बारे में इतना अधिक कहा और गाया गया था।

    जल्दी-जल्दी और किसी पर कोई ध्यान दिए बिना, वह शोर मचाती और जय-जयकार करती भीड़ के बीच से होकर घोड़े पर तेज़ी से निकल गया। उसने पीछे मुड़कर देखा, किसी से कुछ बात की और अपने मकान में घुस गया। इस बीच भीड़ उसके आँगन के सामने खड़ी रही और उसके घोड़े से उतारे जाते लूट के सामान को देखती रही।

    यह तीसरी बार था कि मुस्तफ़ा माज़ार पानी के ऊपर अपने ढलवाँ मकान में लौटा था। कुछेक ग़ुलामों के अलावा उसे अपने फिज़ूलख़र्च, शराबी बाप से विरासत में यह मकान ही मिला था। जायदाद का बँटवारा उसके भाई और उसके बीच कर दिया गया था जबकि उसके दादा आवदाग़ा माज़ार ने ख़ूब दौलत कमाई और छोड़ी थी। वह जाने-माने तुर्क थे, जो अपने पुराने इज़्ज़तदार हंगरी घराने को छोड़कर तुर्क हो गए थे।

    पिता की मृत्यु और भाई की शादी के बाद पंद्रह साल की आयु में उसे मुस्लिम धर्मशास्त्र का अध्ययन करने के लिए सारायेवा भेज दिया गया। वहाँ उसने कष्ट और ग़रीबी के चार साल काटे बीस की आयु में वह दोबोई लौटा तो उसके पास किताबों से भरा एक संदूक और धर्मशास्त्रियों की तंगहाली और चाँदी मढ़ी एक बाँसुरी थी; वह अपने भाई के पास रहने नहीं गया, बल्कि इस मकान में गया।

    वह बिलकुल बदल गया था। अपने मोटे होंठों के ऊपर भीगी मसें लिए, काला झुका और गंभीर, मुस्तफ़ा माज़ार किसी से मिलता-जुलता था, बोलता था। दिन के समय वह मुसलमान पुरोहित इस्मेतागा के साथ अपनी किताबें पढ़ता और रात में बहुत देर तक बाँसुरी बजाता अपने मकान के लंबे-चौड़े मूरिश आँगन को संगीत से भर देता था। और जब पहली सेना के लिए भरती शुरू हुई तो उसने अपने हथियार लिए, मकान में ताला डाला और देलालिच के झंडे तले रूस चला गया। बहुत दिनों तक उसके बारे में कोई ख़बर नहीं आई। एक साल बाद यह ख़बर आई कि वह मारा गया और क्योंकि वह किसी से मेल-जोल नहीं रखता था और कमसिन था, इसलिए लोगों ने उसे जल्दी ही भुला दिया। और जब देलालिच लौटा तो उसने बताया कि मुस्तफ़ा जीवित है (और मज़े में है) और तमाम बाज़नियाइयों में सबसे विख्यात और अत्यधिक सम्मानित है। छह साल बाद वह अचानक अपने आप दोबोई लौट आया। वह पहचान में भी नहीं रहा था। वह किसी इस्तांबूली की तरह शानदार कपड़े पहने था। उसने अपने मकान का ताला खोला। देर रात में उसने मोमी कपड़े में लिपटी अपनी बाँसुरी ढूँढ़ निकाली और धीमे-धीमे और दबी-दबी राग छेड़ने लगा।

    तऊ ऊ, तीती ताता

    बाँसुरी की आवाज़ ख़ामोशी में उदासी लिए गूँजने लगी।

    उसने महसूस किया कि उसके पास पहले जैसी बँधी साँस थी और ही चपल उँगलियाँ और ही उसे पुरानी धुनें याद थीं। उसने बाँसुरी को फिर लपेटकर रख दिया और अपने आपको अनिद्रा की प्रताड़ना के हवाले कर दिया, जिसने लड़ाई ख़त्म होने के बाद से उसका पीछा नहीं छोड़ा था।

    यह प्रताड़ना हर रात होती थी। अचानक वह अपने बारे में सब कुछ, यहाँ तक कि अपना नाम भी भूल जाता और उस पहली अर्धनिद्रा में तमाम स्मृति और आने वाले दिन की सारी चेतना ग़ायब हो जाती और पथरीले अँधेरे में बस उसकी सिमटी काया निर्जीव पड़ी रहती और उसे लगता, मानो उसकी टाँगों में किसी ने पिन और सुइयाँ चुभो दी हों और उसके दिल के नीचे मुलायम मांस में भय समा गया हो और हर कहीं एक ठंडी धार की तरह आतंक फैलने लगता। वह पूरी कोशिश करके जब-तब उठता, मोमबत्ती जलाता, खिड़की खोल देता और अपने आपको विश्वास दिलाता कि वह जीवित है और अंधकार की शक्तियों ने उसे नष्ट या अगवा नहीं किया है।

    तड़के तक यही स्थिति रहती और फिर एक भारी शांति उसकी काया में प्रवेश करती और नींद कहीं से बहकर आती; यह नींद थोड़ी देर की, लेकिन दुनिया की और किसी भी चीज़ से अधिक मीठी और दयापूर्ण होती। और कल का दिन एक और दिन होता। यह क्रम लगातार दुहराया जाता था, लेकिन उसने इस बारे में किसी को बताने का कभी विचार नहीं किया था। पुरोहितों से उसे अरुचि थी और डॉक्टरों पर उसका विश्वास नहीं था।

    क़स्बे में वह जब आया था, उस पहली रात के बाद सराय में सारे लोग उसे जगह देने के लिए अपनी जगह छोड़ देते थे, लेकिन वह मुस्कराता नहीं था, ही उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए इस्तांबूल की लड़ाई के बारे में बात करता था। एक बार फिर लोग उसे कम करके आँकने और भूलने लगे। लेकिन फिर स्लवोनिया में नई लड़ाइयाँ छिड़ गईं और वह तड़के ही पहली टुकड़ी के साथ उसी ख़ामोशी के साथ चला गया, जिस ख़ामोशी के साथ वह आया था।

    एक बार फिर हंगरी और स्लवोनिया और ओर्लयावा नदी के मुहाने पर हुई भीषण लड़ाई में उसके वीरता—भरे कारनामों की ख़बर आई और जब आस्ट्रियाइयों ने बान्यालूका को घेर लिया और जनता की छोटी-सी भीड़ ने तुर्कों को क़स्बे से खदेड़ दिया और लोगों को लूट लिया तो पूरी बाज़नियाई सेना व्रबास नदी पर गई। लेकिन आस्ट्रियाई गिनती में कहीं आगे थे और बाज़नियाई सेना उन पर हमला करने का साहस नहीं जुटा पाई। तब अंत में माज़ार ने एक योजना बनाई थी, कि वे नदी के बहाव की विपरीत दिशा में कुछ आगे को लट्ठों के बेड़े बनाएँगे; रात में उन्हें पानी में उतार देंगे, और पौ फटते ही सेना बेड़ों से होकर कूद पड़ेगी और आस्ट्रियाइयों को चौंका देगी।

    उसी रात जब बेड़े तैयार किए जा रहे थे, वह लंबे कूच के बाद कुछ देर सुस्ताने के उद्देश्य से क्रकवाइन के पास सरकंडे के बिस्तर पर लेट गया था। इधर कुछ समय से तरह-तरह के सपने उसे परेशान कर रहे थे, उसकी ख़राब हो चुकी नींदों को और छोटा कर रहे थे और उसे और भी निराशा में धकेल रहे थे। पहले तो वह सो गया, लेकिन अचानक क्रीमिया के कुछ बच्चे उसे सपने में दिखाई दिए। यह घटना कई साल पहले हुई थी और उसने उन बच्चों को फिर कभी याद नहीं किया था।

    उन दिनों वह घुड़सवार टुकड़ी में था। दुश्मन को खदेड़ने के बाद वे क्रीमिया के एक परित्यक्त ग्रीष्म आवास में रात काटने को रुके थे। सोने से पहले उसे कुछ अलमारियों में छुपे चार बच्चे मिले। ये चारों लड़के थे। धौले कटे बालों और पीली रंगत वाले ये लड़के अच्छे कपड़े पहने थे। घुड़सवार कुल मिलाकर पंद्रह थे और सारे के सारे अनातोलिया के थे। उन्होंने लड़कों को पकड़ लिया, जो भय और पीड़ा के मारे अधमरे हो रहे थे और वे एक से दूसरे हाथों में जाते रहे। सुबह हुई तो लड़के सूजकर नीले पड़ चुके थे और अपने पैरों पर खड़े होने लायक़ भी नहीं थे। फिर एक मज़बूत रूसी टुकड़ी गई और वे भाग खड़े हुए; उनके पास लड़कों को मारने का भी समय नहीं था। अब वे चारों के चारों उसे दिखाई दिए थे। उसने रूसियों के आने की आवाज़ सुनी। उसने अपने घोड़े पर चढ़ना चाहा, लेकिन उसकी रकाब मुड़ गई और उसके नीचे से फिसलकर निकल गई और उसका घोड़ा कहीं चला गया।

    वह जागा तो पसीने से लथपथ हो रहा था और जूझने तथा हाथ-पाँव मारने के कारण अपने लबादे में पूरी तरह से उलझ रहा था। भयंकर ठंड थी, पौ फटने में बहुत देर थी और अँधेरा हो रहा था। इस भयंकर अप्रत्याशित सपने से परेशान और ग़ुस्से में थूकते हुए उसने अपनी बेल्ट कसी और कपड़ों को ठीक किया।

    तुर्क कभी के तट पर जमा हो चुके थे और पौ फट रही थी, लेकिन बेड़े धीरे-धीरे ही पहुँचे और उन्हें मुश्किल से जमाया गया। उठा-पटक और हो-हल्ला सुनकर नदी के उस पार डेरा डाले आस्ट्रियाई जाग गए। संतरी पहरे पर लग गए थे। वे और नहीं रुक सकते थे। मुस्तफ़ा ने नाविकों को रस्सियाँ कसने और एक ओर को हटने का इशारा किया, फिर अपनी तलवार की म्यान को फेंककर उसने हुँकारा दिया।

    अल्लाह अल्लाह की मदद से! अल्लाह के बंदे...”

    काफ़िरों के ख़िलाफ़!

    दुश्मनों के ख़िलाफ़!

    अल्लाह! अल्लाह! सिपाहियों ने जोश में चिल्लाकर जवाब दिया।

    बेतहाशा जोश में भागते हुए वे उसके पीछे-पीछे बेड़ों पर पहुँच गए। लेकिन एक-बारगी उन्होंने देखा कि उन्होंने जितनी सोची थी, बेड़े उससे कहीं अधिक दूरी पर थे। उनमें से कुछ तो पानी में गिर गए, कुछ कूदकर बेड़ों पर पहुँच गए; लेकिन अधिकतर रुक गए। लेकिन मुस्तफ़ा आगे बढ़ता गया। वह एक बेड़े से दूसरे पर कूदता, मानो उसके पंख लगे हों। ऐसा लग रहा था, मानो वह पानी के ऊपर उड़ रहा हो। पहली कतार अभी बेड़ों पर हिचकिचा ही रही थी कि वह नदी के उस पार जा पहुँचा और ख़तरे के बावजूद, उसने चकित पहरेदारों पर हमला कर दिया।

    दूसरे तुर्कों ने जब देखा कि उनका नेता अकेला ही आगे बढ़ गया है तो वे भी कूदकर जाने लगे। लेकिन जो लोग पीछे थे, उन्होंने उन्हें ज़ोर से धक्का दिया और धमकी दी कि वे उन्हें पानी में डुबो देंगे। इसलिए ज़ोर के धड़ाकों और हुँकारों के साथ पहली कतार पार उतर गई, हालाँकि उनमें से कई पानी में गिर गए और हिचकोले खाते बेड़ों के नीचे मदद के लिए चिल्लाते रहे।

    एक लंबे समय से ऐसी तेज़ जीत हासिल नहीं की गई थी। अप्रत्याशित घड़ी में और अप्रत्याशित दिशा में हमला होने के कारण विशाल आस्ट्रियाई शिविर एकदम तितर-बितर हो गया। वे चीख़ते हुए बेतरतीब भागे; मुस्तफ़ा ने सबसे पिछली कतार को जा पकड़ा और बिजली की तरह झपटकर उन पर हमला बोल दिया; उसकी लहराती तलवार चमकदार घेरा बनाने लगी और उसके आसपास ठंडी हवा सिमट आई। तुर्क उसके पीछे चिल्लाते हुए आए, अल्लाह!

    बान्यालूका के घिरे हुए तुर्क क़स्बे से उतर आए और फिर शुरू हुआ आम जनता का संहार और लूटपाट।

    जीत के बाद रात में मुस्तफ़ा अपने तंबू के आगे घास पर अपनी हथेलियों पर सीने का दबाव देकर लेट गया, क्योंकि उसे लग रहा था, जैसे उसकी एक-एक मांसपेशी सूजकर बड़ी हो रही थी और उसका साथ छोड़ रही थी।

    उसे आग की लपटें दिखाई दे रही थीं और लूटपाट करने वालों के चिल्लाने और मारे जाने वालों के चीख़ने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।

    दुनिया नफ़रत से भरी है।

    लेकिन उसकी शिराओं में बस ख़ून उबलता रहा। उसकी एक-एक मांसपेशी फड़क रही थी। वह सो नहीं पाया।

    उस रात के बाद नींद उसकी आँखों से बिलकुल ग़ायब हो गई, पौ फटने से पहले के उन कुछ घंटों को भी नए-नए सपने बरबाद कर देते थे। अपने विगत जीवन की जिन घटनाओं को वह भुला चुका था, वे बेहद उलझा देने वाली घटनाएँ अप्रत्याशित रूप से एक के बाद एक रातों को उसे दिखाई देती थीं। इन सपनों की सबसे ख़राब बात तो यह थी कि उनमें की एक-एक चीज़, एक-एक हलचल बेहद स्पष्ट, बेहद साफ़ होती थी, मानो हरेक का एक अलग जीवन और एक विशेष महत्त्व हो। उसे रात के बारे में सोचने से डर लगता था। वह ख़ुद अपने आपसे भी उस भय को मान्यता नहीं देना चाहता था, लेकिन यह बढ़ता रहा और कई दिनों तक उसे प्रताड़ित करता रहा। इसने स्वप्न के विचार को नष्ट कर दिया, उसका साथ पकड़ लिया, उसके मांस में प्रवेश कर लिया और रेशम के धागे से भी अधिक अदृश्य तथा सूक्ष्म रूप में यह उसके अंदर दिन-ब-दिन और गहरे छेदता चला गया।

    आज रात अपने मकान में वह तीसरी बार लौटा था।

    और इस तरह, दोबोई की गलियों में और शोर मचाते, नाचते समूह में होकर घृणा के साथ निकल आने और अपने मार्ग रक्षी से विदा ले लेने के बाद, रात में वह अपने मकान में पागल की तरह इस तरह घूमता रहा कि फ़र्श चरमराने और चटकने लगी। उसे युवाओं की आवाज़ अभी भी सुनाई दे रही थी, जो उसकी और जीत की जय जयकार कर रहे थे, लेकिन वह चहलक़दमी करता ही रहा, बैठने का उसमें साहस नहीं हुआ। उसने उस मोमी कपड़े को देखा, जिसमें उसकी पुरानी बाँसुरी लिपटी हुई थी; उसने किताबों से भरे अपने हरे संदूक को भी देखा, लेकिन हाथ किसी भी चीज़ को नहीं लगाया।

    पहाड़ रात में दिखाई नहीं दे रहे थे और क़स्बे में ख़ामोशी थी, लेकिन पहाड़ियों पर के खंडहरों से उसे उल्लू की आवाज़ आती सुनाई दे रही थी।

    वह खिड़की के सहारे टिक गया। अनिद्रा का ताप, यात्रा और यहाँ तक कि उसके दिल की धड़कन भी उसे उनींदा कर रही थी। लेकिन अब उसके सोने से पहले ही सपने रहे थे। क्या उसकी आँखें बंद हो गई थीं? उसे पीछे का एक कमरा दिखाई दिया, जो पुरानी चीज़ों और मकड़ी के जालों से भरा था और कोने में एक लकड़ी की पेटी के ऊपर उसके दादा आवदाग़ा माज़ार बैठे हुए थे। उनका चेहरा लाल था, छोटी-सी दाढ़ी और नुकीली मूँछें थीं। वह वहाँ मौन और अविचल बैठे थे और उनकी उपस्थिति में ही एक विशेष अर्थपूर्णता और दु:ख तथा आतंक का एक असहनीय भाव था, जिसने उसका दम घोंट कर रख दिया। वह चौंक गया। वह कमरे में छाए अँधेरे से बेहद डरा हुआ था, फिर भी उसने मोमबत्ती नहीं जलाई, बल्कि उस आतंक से होकर चहलक़दमी करता रहा, जो किसी ज़िरह-बक्तर की तरह उसे अपने अंदर समेटे था और उसे यह एहसास करा रहा था कि उसके तो पाँव ही नहीं थे।

    उसमें रुकने का साहस नहीं हुआ। उसे अनिद्रा के भय से और सो जाने की स्थिति में अपने सपनों के भय से हमेशा बस चलते रहना था। चहलक़दमी करते हुए उसे याद आई सारायेवा की, अपने समलैंगिक मित्र यूसूफ़ाजिच की और चेक्रलिंचे की मुलायम घासदार हरी पहाड़ी की जिस पर कभी-कभी वह उन दिनों में दुपहर को अपने हाथ का सिरहाना बनाकर सो जाया करता था, जब वह धर्मशास्त्र का छात्र था। वह और खड़ा नहीं रह सका, बल्कि घोड़े पर ज़ीन कसकर वह किसी दोषी व्यक्ति की तरह चुपचाप रात के अँधेरे में दोबोई के बाहर निकल गया।

    अगले दिन क़स्बे में यह ख़बर बड़े आश्चर्य के साथ सुनी गई कि वह बाहर चला गया और उसने खेतों में कारवानों के कुछ रहनुमाओं पर हमला कर उन्हें घायल कर दिया था और उनके घोड़ों को डरा दिया था। उसने कुछ दूरी छोटे-छोटे रास्तों पर होकर और कुछ दूरी गाँवों के बीच से तय की और ईसाइयों को इतनी बेरहमी से पीटा और तितर-बितर किया कि तुर्क भी उससे मिलने से डरने लगे।

    जब वह सूतयेस्का पहुँचा तो वहाँ का ईसाई मठ ऐसे बंद था, जैसे उसके संन्यासी उसे छोड़कर चले गए थे। पिछले दिन कुछ लोगों ने मठाध्यक्ष को बता दिया था कि दोबेई से मुस्तफ़ा माज़ार रहा है, उस पर भूत सवार है और वह अपने सामने आने वाले सभी लोगों को मार रहा है।

    उसने अपनी कुल्हाड़ी के दस्ते से फाटक पर दस्तक दी। ख़ामोशी थी। उसने पीछे हटकर मठ को देखा। मठ की बड़ी-सी छत, छोटी-छोटी खिड़कियाँ और मज़बूत दीवारें थीं। एक क्षण को तो उसने सोचा कि इसमें आग लगा दी जाए, लेकिन आग और भूसा ढूँढ़ने जाना, उसे अरुचिकर और उबाऊ विचार लगा। बहरहाल सब कुछ उसे अजीब सा लग रहा था; विशाल इमारत उसके सामने खड़ी थी और इसके अंदर मौजूद संन्यासी चूहों की तरह थे, छोटे और भूरे।

    “कितनी जल्दी उन्होंने अपने आपको अंदर बंद कर लिया, हा, हा, हा!

    वह ज़ोर-ज़ोर से हँसता हुआ वहाँ से चल दिया। वह क़ब्रिस्तान से नीचे उतर रहा था तो उसका घोड़ा दीवार के पीछे से झाँकती सफ़ेद सलीबों को देख बिदक उठा। उसने घोड़े की लगाम खींचकर उसे रोका। जब वह अपने घोड़े को शांत कर रहा था और संन्यासियों तथा सलीबों को ग़ुस्से में बक रहा था, तो दो संन्यासी नुक्कड़ पर दिखाई पड़े। उनमें से एक किताबों की गठरी लिए था और दूसरा खाने की टोकरी। वे पीछे तो हट नहीं सकते थे, इसलिए सड़क किनारे की खाई में उतर गए और उन्होंने उस तुर्क का अभिवादन किया। वह उनकी बग़ल में आकर रुक गया।

    तुम लोग पुरोहित हो?

    'जी, सुल्तान ज़िंदाबाद।

    “और तुम्हें सड़क किनारे ये निशान खड़े करने की इजाज़त किसने दी कि मेरा घोड़ा डर जाए? बताओ सूअरों के सूअरों?

    “इसका यह मक़सद नहीं था, हुज़ूर।”

    ‘इसका यह मक़सद नहीं था' से तुम्हारा क्या मतलब है? तुम्हें इसकी इजाज़त किसने दी?

    वज़ीर और आदरणीय सुल्तान, दोनों ने। बड़े संन्यासी ने कहा। वह मुलायम दाढ़ी और बुद्धिमानी-भरी आँखों वाला, लंबा और गंभीर व्यक्ति था।

    मुस्तफ़ा ने अपना दाहिना हाथ ढीला छोड़ दिया और अपनी चमकदार नज़र से निर्ममता और ग़ुस्से से उन्हें घूरने लगा। दोनों संन्यासी उसके आगे काँप रहे थे और उनकी नज़रें नीची थीं।

    तो तुम्हारे पास इजाज़त है?

    सचमुच, हुज़ूर, बेशक हमारे पास सभी आवश्यक पत्र हैं।

    सुल्तान की ओर से?

    बिलकुल! और वज़ीर की ओर से, और एक तो सारायेवा के मुल्ला की ओर से भी है।

    चलो, इन तीनों को इकट्ठा करो और फेंक दो। सुना तुमने? और अगर कोई तुमसे पूछे कि क्या कर रहे हो तो उससे कहना, हमें ऐसा करने के लिए मुस्तफ़ा माज़ार ने कहा है, जो पहाड़ी से चट्टान की तरह लुढ़कता नीचे उतर रहा था, जिसे तो नींद की ज़रूरत थी, ही रोटी की और जो क़ानून को नहीं मानता था।

    संन्यासी उसकी बदहवास, घूरती नज़र से तो पहले ही डरे हुए थे, इन शब्दों ने उन्हें और भी डरा दिया। उसने अपने ज़ीन से पट्टे निकाले और दोनों में से आयु में छोटे संन्यासी से कहा कि वह बड़े वाले को इनसे बाँध दे। बड़ा संन्यासी ने अपने हाथों को अपने आप पीछे कर लिया और छोटा संन्यासी उसे धीरे-धीरे बाँधने लगा, क्योंकि उसके हाथ निस्संदेह काँप रहे थे।

    तुमने उसे ठीक तरह से बाँध दिया?

    जी, हुज़ूर।

    उसने झुककर पट्टों को छूकर देखा और जब उसने देखा कि वे अच्छी तरह से नहीं बँधे थे तो उसने बिना कुछ कहे उस पर कुल्हाड़ी चला दी। संन्यासी ने अपना मुँह घुमा लिया और कुल्हाड़ी की धार से उसका कंधा इतनी ज़ोर से कटा कि वह बिना चिल्लाए ज़मीन पर गिर पड़ा। लेकिन तुर्क उसे इतना ज़ोर से पीटने लगा कि वह उठकर खड़ा हो गया और अपने बँधे हुए साथी के साथ उसके आगे-आगे चलने लगा। ख़ून टपकता जा रहा था और सड़क पर निशान छोड़ता जा रहा था।

    अचानक उसने तय किया कि वह उन्हें खदेड़कर सारायेवा ले जाएगा और उन्हें अपने पुराने मित्र यूसूफ़ाजिच के हवाले कर देगा, जो अमीर आदमी था और मज़ाक़ बनाने में उस्ताद था। लेकिन जब सड़क पहाड़ी पर चढ़ने लगी और सूर्यास्त हो गया तो घायल संन्यासी इतना पस्त हो गया कि बेहोश होकर गिर पड़ा। व्यर्थ ही मुस्तफ़ा ने कुल्हाड़ी के दस्ते से संन्यासी की पसलियों पर चोट की, और उनमें से ख़ाली पीपे जैसी आवाज़ निकली। वे सड़क किनारे एक परित्यक्त अस्तबल पर रुके। दोनों संन्यासी एकबारगी एक-दूसरे की बग़ल में ज़मीन पर लुढ़क गए और उसने अपने घोड़े को बाँध दिया और अपना लबादा लेकर लेट गया। नींद ने तुरंत घेरा। एक लंबे समय से ऐसा नहीं हुआ था। दुनिया में सर्वाधिक आनंददायक है नींद, औचक नींद!

    लेकिन यह मधुर विचार उससे छीन लिया गया। धुँध और लहरों की सरसराहट ने उसे लुप्त कर दिया। व्रबास नदी सरसरा रही थी, उस पर तैरते बेड़े भी; लेकिन ये लड़ाई के बेड़ों की तरह पंक्तिबद्ध, भारी या एक-दूसरे से अलग या ख़ूनी नहीं थे, बल्कि धीरे-धीरे हिचकोले लेते हुए तैर रहे थे। फिर किसी चीज़ ने लहरों की सरसराहट को रोक दिया और बेड़ों को अलग-अलग कर दिया और अब वह कठोर ज़मीन पर था और मृत्यु के समय गले से निकलने वाली एकरस घरघराहट को सुन रहा था। उसने चौंककर अपनी आँखें खोल दीं और उसे ये भयंकर रूप से बड़ी ठंडी और पूरी खुली महसूस हुईं जैसे वह कभी सोया नहीं था। वह ग़ौर से सुनने लगा। फुसफुसाहट उस कोने से रही थी, जहाँ संन्यासी लेटे हुए थे।

    घायल संन्यासी (वह सहायक धर्मसंघी था) मृत्यु की अपेक्षा में बड़े संन्यासी से पाप स्वीकार कर रहा था। हालाँकि वह पाप क्षमा प्राप्त कर चुका था, फिर भी वह उन्माद में पश्चात्ताप के शब्दों और प्रार्थना के वाक्यों को दुहराता रहा।

    मैं...मैं तुझे प्रेम करता हूँ, हे प्रभु, क्योंकि तू महानतम् अच्छाई है।

    तुम क्या फुसफुसा रहे हो, ख़ूनी सूअरो?

    उसने अपनी छोटी बंदूक उठाई और उस अँधेरे कोने की ओर गोली चला दी, जहाँ वे संन्यासी लेटे हुए थे। रोने-कराहने की आवाज़ आने लगी। वह तुरंत उछलकर खड़ा हो गया और अपने लबादे को लपेटकर घोड़े को लेकर वहाँ से चल दिया। वह यूसूफ़ाजिच को और उस दिल्लगी को बिलकुल भूल गया, जो वह संन्यासियों के साथ करने वाला था। वह इतनी फुर्ती से अपने घोड़े पर सवार हुआ, जैसे वह उनसे दूर भाग रहा हो।

    वह जंगल में से होकर निकला और ठंडी रात ने उसे शांत कर दिया; उसका घोड़ा ज़मीन से बाहर निकली जड़ों पर चौंक पड़ता और दूर से आती आवाज़ों पर चौकन्ना होकर अपने कान खड़े कर लेता। पौ फटने और क्षितिज पर पीलाहट छाने तक यही चलता रहा। फिर वह एक ब्रीच वृक्ष के नीचे अपना लबादा ओढ़कर लेट गया। ठंड ने उसे बींध दिया और नीरवता के कारण उसे नींद गई। तुरंत ही वह सपने देखने लगा।

    उसने अपने आपको ओर्लयापा नदी के किनारे लड़ाई में देखा। उसने अपने आपको उन दो चट्टानों के बीच जमा रखा था, जिन पर पानी बह रहा था और काई उगी थी; वह उनसे टिका हुआ था, जबकि उसके सामने दो लातकोविच बंधु हमला कर रहे थे। ये दोनों भाई हट्टे-कट्टे और भयंकर भगोड़े अपराधी थे। उसने जमकर उनका प्रतिरोध किया, लेकिन उसकी नज़र उनके सिरों के ऊपर से होकर क्षितिज की सीमा पर जा पहुँची, जहाँ बलुआ मैदान आकाश को छू रहे थे और वहाँ उसने काले वस्त्र पहने एक औरत को देखा जिसका हाथ अपनी छाती पर था और चेहरा बिगड़ा हुआ था। उसे पता था और नहीं भी पता था कि वह अपनी छातियों को क्यों दबा रही है और उसका चेहरा दर्द से बिगड़ा हुआ क्यों है? फिर जब उसने औरत को देखा तो उसे सब कुछ याद गया। उसे याद आया कि कैसे वह उसे एर्जेनू में शेरिफ़ के मकान में अकेली मिली थी, और कितने जी-जान से उसने हाथ-पाँव मारे थे। वह अब भगोड़े अपराधियों से बहादुरी से अपना बचाव कर रहा था, लेकिन फिर उस पर ग़ुस्सा सवार हो गया।

    “तुम उसे भी ले आए! क्या तुम दोनों काफ़ी नहीं हो, भगोड़े अपराधियो, कुत्ते के पिल्लो! और भी कोई है क्या?

    वह बदहवास तलवारों से जूझता रहा, लेकिन उन भगोड़े अपराधियों ने उसकी आँखों में अपनी तलवारों की नोंक घोंपकर उसका ग़ुस्सा भड़का दिया, और वह पसीने-पसीने काँपता हुआ चट्टानों से और मज़बूती से टिककर खड़ा हो गया।

    वह जागा तो उसे लगा, जैसे वह पत्थर हो। उसके भयभीत होंठ ऐंठे हुए और कोस रहे थे। उसका ख़ून ठंडा पड़ गया था। सूर्योदय हो ही रहा था और धूप उसकी पलकों को छेड़ रही थी।

    यह महसूस करते हुए कि अब वह एक क्षण के लिए भी नहीं सो पाएगा और पौ फटने के समय भी उसे शांतिपूर्ण विश्राम नहीं मिलेगा, वह निराशा-भरे ग़ुस्से में दहाड़कर नीचे झुका और ज़मीन पर अपना सिर पटकने लगा। बहुत देर तक वह ज़मीन पर पछाड़ खाता, गुर्राता, मुँह से झाग छोड़ता और अपने लाल लबादे को काटता रहा, और उधर सूरज पहाड़ के ऊपर से उठकर आकाश में ऊँचाई पर पहुँच गया।

    बिलकुल अस्त-व्यस्त और चीथड़ों में ही वह अपने घोड़े को पकड़े पहाड़ी के नीचे उतर चला। उस मैदान में सोते के किनारे जाकर ही वह रुका। वहाँ पानी चीड़ के तने से बनी एक नाँद में गिर रहा था। यह पानी एक मोटी, चमकदार धार में उफन रहा था और ज़मीन के काफ़ी बड़े हिस्से में फैल रहा था, जिससे वहाँ डबरे और छोटे-छोटे गड्ढे बन गए थे और उन पर सुबह की चमक में तितलियाँ और अशांत लहरों की तरह झुंड की झुंड मक्खियाँ मँडरा रही थीं।

    उसके घोड़े ने काठ की नाँद के किनारे से बहुत देर तक पानी पिया, और वह अपने चेहरे पर टकराती भोर की हवा और पानी की ताज़गी से कुछ शांति ग्रहण कर, विचारमग्न बैठा रहा। फिर उसने पानी में अपना चेहरा देखा और देखा कि धुँधला था, रात की तरह काला पड़ रहा था, और इसके चारों ओर झुंड की झुंड मक्खियाँ थीं; इनमें से हरेक मक्खी धूप में नहाती नाच रही थी और पारदर्शी प्रकाश में माला बन रही थी। उसका हाथ अपने आप उठ गया, उसने पानी में अपनी मुड़ी हुई उँगलियाँ देखीं और उन्हें उस तरल काँपते आईने में डुबो दिया; लेकिन उसके हाथ को कुछ भी अनुभूति नहीं हुई, धूप में भीगे वे छोटे-छोटे जीव इतने नन्हें और भारहीन जो थे। घोड़े ने झटका दिया और वह चौंक गया; मक्खियों का झुंड अपनी जगह से हिला और अलग हो गया और माला टूट गई।

    वह मानो तंद्रा में दुपहर तक घोड़े पर सवार चलता रहा। वह अविश्वसनीय रूप से शांत था। उस रात अगर उमर की सराय में उसकी भेंट चातीची के अब्दुसलामबे से नहीं हुई होती तो वह सारायेवा तक अपनी यात्रा जारी रखता। अब्दुसलामबे बहुत बातूनी और विरल मूँछों तथा नीली आँखों वाला शेख़ीबाज़ था। उसने मुस्तफ़ा से अनुरोध किया कि वह रात में वहीं ठहरे ताकि अगले दिन वे दोनों साथ-साथ सारायेवा जा सकें और उसके मित्र और वहाँ के लोग उसे क़स्बे में मुस्तफ़ा माज़ार के साथ प्रवेश करते देख सकें, मानो वह उसका मित्र और सहयात्री था। मुस्तफ़ा ने स्वीकार कर लिया। भारी दिन अपनी समाप्ति पर रहा था; नींद, जो एक और थकान थी और जिसमें वह हरेक बात को समझता और महसूस करता था, उसे घेर रही थी। सूरज आग उगल रहा था और उसकी धधक उसके गले में उठी और उसका दम घुटने लगा।

    उसने थोड़ा पानी पिया और अब्दुसलामबे की ओर देखे बिना लेट गया। उसने सरायवाले को चेतावनी दे दी कि अगर किसी ने उसे जगाने का साहस किया तो वह उसे जान से मार देगा, वह चाहे कुत्ता हो, मुर्गी या फिर कोई आदमी!

    पहले तो वह सो गया, लेकिन फिर हमेशा की तरह अचानक ही जब उसे इसकी अपेक्षा भी नहीं थी, उसकी आँखों के आगे क्रीमिया के वही गोरे, कटे बालों वाले बच्चे गए; लेकिन पता नहीं कैसे वे कठोर, चिकने और दमदार हो रहे थे और मछली की तरह फिसले जा रहे थे। उनकी आँखों में आलस्य नहीं था, ही उनकी पुतलियाँ भय से सिकुड़ी हुई थीं, बल्कि वे स्थिर और अविचल थीं। उन्हें पकड़ने की कोशिश में उसकी साँस फूल रही थी; उसने छोटे से छोटे बदलाव पर भी ध्यान दिया। और उसने ज़बरदस्त संघर्ष किया, उन्हें पकड़ने की कोशिश में वह ग़ुस्सा हो उठा।

    उसने अपने पीछे वाले को कहते सुना, तुम्हें उनको भून देना चाहिए था, उन्हें पकड़कर स्टोव में डाल देना चाहिए था...अब तो बहुत देर हो चुकी है।

    वह उन पर बेहद ग़ुस्सा हो गया। उसे यही करना चाहिए था। उनको भून डालना चाहिए था! और वह उन्हें पकड़ने के लिए फिर उठ खड़ा हुआ। लेकिन वह अपनी बाँहों को व्यर्थ ही लहराता रहा, क्योंकि वह नन्हा और हास्यास्पद था। बच्चे हाथ से निकले जा रहे थे, और एकबारगी वे बादलों की तरह उड़ गए।

    वह जाग गया। वह पसीना-पसीना हो रहा था और भयंकर अनुभव कर रहा था, हाँफ रहा था और अपने नीचे बिछी फूस की चटाई को नोंच रहा था। दिन समाप्त हो रहा था और अँधेरा गहराता जा रहा था। भय ने उसे जकड़ लिया। पसीना ठंडा होकर उसके शरीर पर जम गया। उसने रूखेपन से अब्दुसलामबे को पुकारा, फिर कॉफ़ी, ब्रांडी और एक मोमबत्ती मँगाई।

    इस तरह वे देर तक बैठे पीते रहे। मोमबत्ती उनके बीच झिलमिलाती रही। कोने अंधकार और ग़ायब होती परछाइयों से भरे थे, और छोटी-सी खिड़की नीली रात को एक छोटे-से खंड को प्रतिबिंबित कर रही थी। फिर उस ख़ाली कमरे में असहमति के तीखे स्वर गूँजने लगे। अब्दुसलाम बहुत अधिक बोल रहा था। वह अपने बारे में, अपनी लड़ाइयों और अपने परिवार के बारे में बोल रहा था। उसने गाबेला में अपनी पहरेदार की ड्यूटी के बारे में बात की। लेकिन मुस्तफ़ा शालीनता का परिचय देते हुए चुप रहा; वह बस हर गिलास के बाद काँप जाता था। मुस्तफ़ा को बुलवाने के लिए अब्दुसलाम बान्यालूका की लड़ाई के बारे में बात करने लगा कि कैसे उसने मुस्तफ़ा को एक बेड़े से दूसरे बेड़े पर कूदते देखा था और कैसे उसने दूसरे किनारे पर पहुँचकर जर्मनों को मारना शुरू कर दिया था।

    क्या तुम रजाई के नीचे से देख सकते हो?

    क्या…आ…आ? कैसे?

    मुस्तफ़ा की आँखें चमक और नाच रही थीं। लेकिन अब्दुसलाम शांत रहा। वह यह नहीं समझ पा रहा था कि इसका बुरा माने या इसे मज़ाक़ समझे। फिर मुस्तफ़ा ठहाका मारकर हँस पड़ा और अब्दुसलाम ने तुरंत उसे इसी रूप में स्वीकार कर लिया।

    बस मज़ाक़।

    बिलकुल।

    और तुरंत ही उसने फिर बोलना शुरू कर दिया और यह बताने लगा कि कैसे उसने उन जर्मनों को पकड़ा, जिन्हें मुस्तफ़ा ने खदेड़ दिया था।

    देखो, मैं सोचता हूँ, मैंने कम से कम चालीस को काट डाला था।

    हाँ, हाँ।

    देखो, एक छोटा तेज़ जर्मन दौड़ने लगा, और मैं उसके पीछे लग गया। और ख़ुदा ने मेरे पाँवों को फुरती दी और मैं दौड़ता गया और दौड़ता गया और दौड़ता गया…

    और तुमने उसे पकड़ लिया?

    बस, सुनते रहो। जब हम पहाड़ी की चढ़ाई पर जा रहे थे तो मैंने ध्यान दिया कि वह पस्त हो रहा है, सो मैं उस तक पहुँचा और उसे मैंने बकरे के गोश्त की तरह मार कर गिरा दिया।

    अच्छा, अच्छा।'

    माज़ार ने बुदबुदाते हुए बस आह भरी और वह बातें करता रहा। रात, ब्रांडी और छिछले दिमाग़ की कोई सीमा नहीं होती और उसके दादा और परदादा के किए हुए और भी नए, अजीब वीरता के काम भी उभर आए और गाबेला में उसकी गोलाबारी पूरी तरह से बदल गई।

    ख़ुदा ने मुझे निडर कर दिया। जब हम वेनिसवासियों के ख़िलाफ़ किसी दु:साहसिक काम पर जाया करते थे तो वे सभी काँपने लगते थे और अँधेरे में फुसफुसाते थे। मैं खंदक पर चढ़कर जितनी ज़ोर से हो सकता था, गाने लगता था और मेरी आवाज़ बाँसुरी की तरह होती थी। और उसके बाद व्लासी का सवाल होता था कि वह तुर्क कौन है, जिसमें इतना साहस है, जो इतना शक्तिशाली वीर है, लेकिन हमारे आदमियों को पता था कि वह कौन था; और वह हो भी कौन सकता था?

    'देखो, तुम महाझूठे हो।

    अब्दुसलाम अपनी कल्पना और अपने स्वयं के शब्दों में बह गया था और उसने मुस्तफ़ा की बात ठीक से नहीं सुनी।

    “तुमने क्या कहा?

    “तुम बहुत झूठ बोलते हो, मेरे दोस्त। मुस्तफ़ा ने अकड़कर और बेसब्री के साथ अपने होंठों को चबाते हुए और मूँछ को ऐंठते हुए कहा।

    अब जाकर अब्दुसलाम की समझ में आया। कमरा उसे और भी अंधकारमय लगने लगा। मोमबत्ती उसकी आती-जाती साँस के नीचे कँपकँपाती और झिलमिलाती रही। अपने बहुत निकट उसे मुस्तफ़ा की दो आँखें दिखाई दीं; उनमें ख़ून उतर आया था और वे ख़तरनाक ढंग से चमक रही थीं। उसने मुस्तफ़ा की दाढ़ी के ऊपर उसके चेहरे और उसके मृत्युवत् पीले चेहरे का देखा। उसे बुरा भी लगा और वह डर भी गया। वह उछलकर खड़ा हो गया। नीची मेज़ पलट गई, मोमबत्ती गिरकर बुझ गई।

    हालाँकि मुस्तफ़ा नशे में था, फिर भी किसी योद्धा के सहज बोध के साथ दीवार की ओर पीछे हटा और उसने अपने लबादे और बेल्ट में से टटोलकर अपनी पिस्तौल निकाल ली। मेज़ उन दोनों के बीच पलटी पड़ी थी और पीछे की खिड़की अब पूर्ण अंधकार में एक चमकते हुए वर्ग की तरह थी। ख़ामोशी में अपनी साँस रोकते हुए उसने एक हलकी सरसराहट की आवाज़ सुनी। अब्दुसलाम म्यान से अपना छुरा निकाल रहा था। मानो इस स्थिति ने उसे अपनी ज़िंदगी के अनेक कारनामों की याद दिला दी हो, अचानक एक बार फिर वह मृत्युवत् घृणा के साथ सोचने लगा। कितनी नफ़रत है इस दुनिया में! लेकिन यह सोच बस एक क्षण के लिए रहा और उसने एकदम अपने आपको सँभाल लिया और अपनी स्थिति का जायज़ा लिया।

    'अब्दुसलाम कायर और झूठा है और ऐसे लोग आसानी से जान ले लेते हैं। उसके हाथ में कोई पिस्तौल नहीं है और अगर वह इसे लेना चाहता है तो उसे खिड़की पर जाना ही होगा।

    उसने अपना हाथ उठाया, खिड़की के बीचोबीच निशाना साधा और इंतज़ार करने लगा। ठीक एक मिनट बाद, पहले तो खिड़की पर अब्दुसलाम का हाथ दिखाई दिया और फिर उसके बाद उसके शरीर ने उसे पूरा ढक लिया। मुस्तफ़ा ने घोड़ा दबा दिया। धमाके में उसने अब्दुसलाम के गिरने की आवाज़ नहीं सुनी।

    बूढ़े सराय वाले उमर ने या तो कुछ सुना नहीं, या फिर कोई आवाज़ करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई।

    उस रात वह अविराम जंगल में होकर यात्रा करता रहा। उसका घोड़ा छाया से भयभीत होकर और थका हुआ जब-तब रुक जाता था। फिर वह स्वयं उस चंद्रविहीन चमकीली रात में एकाकी वृक्ष तनों और उनकी छाया को देखने लगा। वह ख़तरनाक और विचित्र दिखाई देने वाली चीज़ों को सम्मान देता हुआ उनसे बचता रहा। अचानक उसे लगा कि हरेक चीज़ के साथ-साथ एक विशेष आवाज़ थी; फुसफुसाने, पुकारने या गाने की; ये कोमल और लगभग अबूझ आवाज़ें थीं, जो उन आकृतियों के साथ मिलकर उनसे उलझ रही थीं। सारी आवाज़ों का उस चाबुक की फटकार के साथ विलय हो रहा था, जिससे वह अपने घोड़े को मार रहा था। जब उसने घोड़े को मारना बंद किया तो आवाज़ें कई गुना होकर उसे डराने लगीं। ख़ामोशी से संबोधित होकर वह चिल्लाया :

    आ!

    और तब जंगल के हरेक भाग से, हरेक खोखर और हरेक पेड़ और पत्ते से और भी तेज़ गूँजें आईं और आवाज़ों ने उसे चुप करा दिया और घेर लिया :

    “आ आ!

    उसने अपनी सारी शक्ति लगा दी, और पूरी ताक़त लगाकर चिल्लाया, हालाँकि उसका गला घुट रहा था और साँस फूल रही थी, लेकिन अनगिनत और अदम्य आवाज़ों ने उसकी चिल्लाहट को दबा दिया और पेड़ और झाड़ियाँ उसे डराने लगीं। उसके पूरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए और उसे अपने नीचे अपने घोड़े की सुध भी नहीं रही और इसी स्थिति में भागता गया। उसका गला घुट रहा था, लेकिन वह बिना रुके तब तक चिल्लाता रहा, जब तक कि वह वृक्षविहीन क्षेत्र में नहीं गया, जहाँ आवाज़ें शांत हो गईं।

    पौ फटी तो वह सारायेवा के ऊपर गोरिचा में था। वह बेर के बाग में रुक गया था। उसके घोड़े के टख़नों से ख़ून बह रहा था, हाँफने से उसकी बग़लें उठ—गिर रही थीं और वह लड़खड़ा रहा था। समूचा आकाश चमकदार था और हलके बादल प्रकाश से भरे थे। क़स्बे के ऊपर धुँध थी और केवल मीनारों के शिखर उभरे हुए थे और डूबे जहाज़ों के मस्तूलों-से दिख रहे थे।

    उसका हाथ उसके गीले चेहरे पर गया। उसने उन दो काले अशांत घेरों को हटाने की असफल कोशिश की, जिनसे होकर वह दिन को उसके पूर्ण प्रकाश में और उसके नीचे पसरे क़स्बे को धुँधला-धुँधला ही देख पा रहा था। उसने अपनी कनपटी को धक्-धक् करता महसूस किया, लेकिन उसकी आँखों के साथ-साथ वे काले घेरे भी घूम रहे थे। फिर सब कुछ उसे घूमता, कँपकँपाता और अंधकारमय दिखाई दिया। ख़ामोशी गहरी भी थी और उसने ख़ून को जमा होते और अपने गले में ज़ोर से टकराते सुना। उसे याद नहीं रहा कि वह था कहाँ और यह कौन-सा दिन था। उसने सारायेवा के बारे में सोचा, लेकिन सारा समय उसे काकेशस का एक क़स्बा और उसकी मीनारें ही दिखाई देती रहीं। जब-तब उसकी दृष्टि भी पूर्ण रूप से जाती रही।

    वह बेर के घने बाग से मुश्किल से अपना रास्ता ढूँढ़ पाया और जब क़स्बे के निकटतम भाग में आया तो उसने अपने घोड़े को एक सराय के आगे रोका, जहाँ क़ब्रिस्तान के पास बड़े हरे घास के मैदान में कुछ तुर्क पहले से ही बैठे हुए सोते के किनारे कॉफ़ी पी रहे थे। वह घोड़े से उतरकर अंदर गया। अस्त-व्यस्त और गंदी हालत में वह अपनी आँखों से टकराते अंधकार से होकर डगमगाता हुआ आगे बढ़ा। उसे अपने आगे चेहरे दिखाई दिए, जो अचानक ग़ायब हो गए और एक क्षण को फिर प्रकट हो गए, तैरते और गड्ड-मड्ड। वह बैठ गया। उसने अपने कानों में फड़कते ख़ून के बीच उन्हें सुनने की कोशिश की, लेकिन उसे उनके शब्द समझ में नहीं आए। वे सुल्तान के दूत कूलाचेहाया लूफ्तीबे के हाथों दिए जाने वाले दंड के बारे में बातें कर रहे थे।

    लंबी लड़ाइयों के बाद अनेक पियक्कड़ और निठल्ले जमा हो गए थे और सारायेवा और बाजनिया के और भागों में डकैती, लूटपाट और तमाम तरह की हिंसक वारदातें कर रहे थे। जब इस्तांबूल में बैठे अधिकारी इन शिकायतों से तंग गए तो सुल्तान ने अपने विशेष प्रतिनिधि को असीमित अधिकार देकर भेजा। पतली, लटकती मूँछ वाला वह लंबा आदमी, जो सड़कों पर किसी साधु की तरह, पीला, झुककर चलता था, निर्दयी, क्रूर और फुर्तीला था। पहले कभी अधिकारियों का हाथ इतना भारी नहीं रहा। जब कभी वह किसी पियक्कड़ या निठल्ले को पकड़ लेता, या किसी हत्यारे या लुटेरे की उसे सूचना मिलती तो वह उसे जूता ताबीया में डाल देता था, जहाँ फाँसी देने वाले बिना किसी पूछताछ या खोजबीन के रस्सी से उसका गला घोंट देते थे। कभी-कभी तो एक रात में साठ अपराधियों का गला घोंट दिया जाता था। आम जनता प्रसन्न थी। तुर्क उसकी कठोरता के बारे में भुनभुनाने लगे। लेकिन उसने सार्वजनिक स्थल में अपनी निंदा करने वाले दो सारायेवाई सौदागरों को पकड़ लिया और किसी के हस्तक्षेप करने से पहले उनका गला घोंट दिया।

    उन लोगों की लाशें भी थीं, जिन्होंने चेहाया की कठोरता से अपने नशे की हालत में अपने आपको बचाने की कोशिश की थी। वे जो सोचते थे, उसके बारे में खुलकर बोलने का दु:साहस तो उनमें था नहीं, इसलिए वे केवल इस बात पर खेद प्रकट कर रहे थे कि इतने तुर्क नष्ट हो गए थे, जिनमें कुछ तो विख्यात वीर और योद्धा थे।

    उनमें से एक ने उलाहना देते हुए कहा, “देख लेना, आम जनता हम पर हावी हो जाएगी। हमारे लोग नष्ट होंगे और दुष्ट ईसाई अनंत रूप से संख्या में बढ़ते चले जाएँगे।

    ये शब्द सुनकर मुस्तफ़ा की समझ में अस्पष्ट-सा आया कि उनका उसके विचारों के साथ कुछ संबंध था। बहुत प्रयास करके उसने अपने आप पर नियंत्रण किया।

    ईसाई और गैर-ईसाई यह दुनिया नफ़रत से भरी है।

    वे सभी उसकी कर्कश और फुसफुसाहट जैसी आवाज़ सुनकर मुड़े। उन्होंने देखा कि वह चीथड़ों में था। घास के धब्बे उस पर लगे थे और वह मिट्टी से पीला हो रहा था। उसका चेहरा काजल के समान काला हो रहा था। तब उन्होंने महसूस किया कि उसकी आँखों में ख़ून उतरा हुआ था, उसकी पुतलियाँ सिकुड़कर बीच में एक काला बिंदु बन गई थीं, उसके हाथ उत्तेजना में ऐंठे हुए थे, उसकी नंगी गर्दन सूजी हुई थी और उसकी मूँछ का बायाँ हिस्सा कटा हुआ और दाहिने हिस्से से छोटा था।

    उन्होंने एक-दूसरे को देखा। एक धुँध में होकर उसने उन सब चेहरों को अपनी ओर मुड़ते देखा और उसे लगा कि वे उस पर हमला करने के लिए तैयार थे। उसने अपनी तलवार ले ली। वे सब उछलकर खड़े हो गए। उनमें से जो अधिक आयु के थे, वे दीवार के सहारे खड़े हो गए और दो छोटे वाले उनके आगे अपने छुरे पकड़कर खड़े हो गए। उसने पहले को तो मार गिराया, लेकिन ठीक से दिखाई देने के कारण दूसरे को वह चूक गया। उसने उस चक्की को लुढ़का दिया, जिसमें कॉफ़ी पीसी गई थी। अपना बचाव करता हुआ, वह अंधाधुँध गली में भागा। तुर्कों ने उसका पीछा किया। लोग जमा हो गए। कुछ लोगों ने सोचा कि चेहाया के आदमी आतताइयों के पीछे भाग रहे हैं, तो कुछ ने सोचा कि तुर्क लोग चेहाया के सिपाहियों का पीछा कर रहे हैं। इधर कुछ समय से वे हर दिन इस तरह के टकरावों के और उनमें भाग लेने वालों के रक्तपिपासु द्वेष के अधिकाधिक अभ्यस्त हो गए थे।

    उसकी दृष्टि जाने लगी और वह दरवाज़े से टकराकर गिर गया और उसी क्षण गली से आने वाले और सराय में उपस्थित तुर्कों ने उसे घेर लिया। कई हाथों ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसके जेमादान कोट को फाड़कर फेंक दिया और वह क़मीज़ में रह गया। सारूक गिर गया। उसकी क़मीज़ फट गई। उसने किसी पागल आदमी की तरह ज़ोरदार संघर्ष किया और अपनी तलवार को अपने हाथ में रखा। वहाँ बहुत सारे लोग थे, इसलिए पतला दरवाज़ा अचानक टूट गया और भीड़ लहराकर गिर पड़ी। मुस्तफ़ा ने अपने आपको उनसे छुड़ा लिया और अपनी तलवार लहराता ढलान पर भाग खड़ा हुआ। सारी भीड़ उसके पीछे भागी। अपने आगे बिना कुछ देखे, गंजा, कमर तक नंगा और बाल वाला मुस्तफ़ा चला गया।

    जनसमूह ने उसके पीछे आवाज़ लगाई, पकड़ो उसे, वह पागल है।

    उसने एक आदमी को मार डाला है।

    “कायर!

    पकड़ो उसे, जाने मत देना!

    कुछ राहगीरों ने उसे पकड़ने की असफल कोशिश की। उसने अपना रास्ता रोकने वाले सिपाही को उलट दिया। लोगों को मालूम नहीं था कि उसका पीछा क्यों किया जा रहा है, लेकिन भीड़ बढ़ती गई। नए लोग अपने मकानों से निकलकर आए और भीड़ में शामिल हो गए। अपने छोटे काउंटरों पर बैठे सौदागरों ने उनका उत्साह बढ़ाया और उस पर खड़ाऊँ और लोहे के टुकड़े फेंके। घोड़े डरकर उसके साथ भागे। मुर्गियाँ डरकर चीख़ने लगीं। सभी खिड़कियों पर लोगों के सिर दिखाई दे रहे थे।

    हालाँकि उसका पीछा किया जा रहा था और उसकी पिटाई हो रही थी, फिर भी उसके दुष्ट विवेक को एक बार फिर थोड़ी राहत मिली। दुनिया नफ़रत से भरी है। हर कहीं!

    हालाँकि वह बिलकुल आपे से बाहर था, फिर भी प्रहारों से वह परास्त नहीं हुआ, बल्कि उनमें से किसी भी व्यक्ति से कहीं अधिक तेज़ी से दौड़ता गया। वह चेक्रलिंची पर हरे क़ब्रिस्तान के पास पहुँच चुका था कि एक ख़ानाबदोश लोहार की दुकान से निकला और जब उसने देखा कि दूसरे लोग अधनंगे आदमी के पीछे भाग रहे हैं तो उसने पुराने लोहे का एक टुकड़ा उस पर फेंका; लोहा उसकी कनपटी पर जाकर लगा और वह वहीं गिर गया।

    एक बड़े से तारे ने अँधेरे और सँकरे आकाश को पार किया और उसके पीछे-पीछे छोटे तारे भी गए। एक क्षण में अंतिम तारा भी चला गया। यह अंतिम चीज़ थी, जिसे उसने अनुभव किया। पीछा करने वाले उसकी ओर बढ़े रहे थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 202-219)
    • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
    • रचनाकार : ईवो आण्ड्रिच
    • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
    • संस्करण : 2008
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