प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
सहसा मेरी पाँच वर्ष की लाड़ली बेटी मिनी ‘अगड़म बगड़म’ का खेल छोड़कर खिड़की की तरफ़ भागी और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगी, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!”
मैं इस समय उपन्यास लिख रहा था। नायक, नायिका को लेकर अँधेरी रात में जेल की ऊँची खिड़की से नीचे बहती नदी के जल में कूद रहा था। घटना वहीं रुक गई।
सोचने लगा—‘मेरी बेटी कितनी चंचल और बातूनी है। अभी कुछ पल पहले वह मेरे पैरों के पास बैठी खेल रही थी कि अचानक उसे यह क्या सूझी।’ मिनी के इस काम से मुझे अचरज तो नहीं हुआ पर परेशानी ज़रूर महसूस हुई। मैंने सोचा, “बस अब पीठ पर झोली लिए काबुलीवाला आ खड़ा होगा, मेरा सत्रहवाँ अध्याय अब पूरा नहीं हो सकता।”
ज्यों ही काबुलीवाले ने हँस कर मुँह फेरा और मेरे घर की ओर आने लगा त्यों ही वह घर के अंदर भाग आई। उसके मन में एक झूठा विश्वास था कि काबुलीवाला अपनी झोली में उसी की तरह के दो-चार चुराए गए बच्चे छिपाए रहता है। इधर काबुलीवाला आकर मुस्कुराता हुआ मुझे सलाम करके खड़ा हो गया। आदमी को घर पर बुलाकर कुछ न ख़रीदना अच्छा नहीं लगता, इसलिए उससे कुछ ख़रीदा। दो-चार बातें हुई। पता चला, उसका नाम रहमत था।
अंत में उठकर चलते समय उसने पूछा, “बाबू, तुम्हारी लड़की कहाँ गई?”
मैंने मिनी के डर को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे सट कर काबुलीवाले के चेहरे और झोली की ओर शक भरी नज़र से देखती हुई खड़ी रही। काबुली उसे झोली के अंदर से कुछ सूखे मेवे निकालकर देने लगा पर वह लेने को किसी तरह राज़ी नहीं हुई। दुगने डर से मेरे घुटने से सटकर रह गई।
कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे किसी काम से घर से बाहर जाते समय देखा कि मेरी नन्हीं बेटी दरवाज़े के पास बेंच के ऊपर बैठी अपनी बे-सिर-पैर की बातें कर रही है। काबुलीवाला उसके पैरों के पास बैठा मुस्कुराता हुआ सुन रहा है। वह बीच-बीच में मिनी की बातों पर अपनी राय भी बताता जाता है। मिनी को अपने पाँच साल के जीवन में पिता के अलावा ऐसा धीरज रखकर उसकी बातों को सुननेवाला कभी नहीं मिला था। मैंने यह भी देखा कि उसका छोटा आँचल बादाम-किशमिश से भरा था। मैंने काबुलीवाले से कहा, “उसे यह सब क्यों दिया? अब फिर मत देना।” मैंने जेब से एक अठन्नी निकाल कर उसको दे दी। काबुलीवाले ने अठन्नी मुझसे लेकर अपने झोले में रख ली।
घर लौटकर आया तो देखा कि उस अठन्नी को लेकर पूरा झगड़ा मचा हुआ है। मिनी की माँ उससे पूछ रही थी, “तुझे यह अठन्नी कहाँ मिली?”
मिनी कह रही थी, “काबुलीवाले ने दी। मैंने माँगी नहीं थी। उसने ख़ुद दे दी।” मैंने मिनी की माँ को समझाया और मिनी को बाहर ले गया। पता चला कि इस दौरान काबुलीवाले ने लगभग रोज़ आकर मिनी को पिस्ता-बादाम देकर उसके नन्हें दिल का विश्वास पा लिया है। वे आपस में दोस्त बन गए हैं। दोनों में कुछ बँधी हुई बातें और हँसी-मज़ाक़ चलते। काबुली रहमत को देखते ही मेरी बेटी हँसते हुए पूछती, “काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?”
रहमत हँसते हुए उत्तर देता, “हाथी।” मतलब उसकी झोली में हाथी है। इस बात से दोनों ख़ूब हँसते। उनमें एक और हँसी भरी बात चलती थी। रहमत मिनी से कहता, “मिनी तुम क्या ससुराल कभी नहीं जाओगी?”
ससुराल का मतलब नहीं समझने के कारण मिनी उलट कर पूछती, “तुम ससुराल जाओगे?”
रहमत ससुर के लिए ख़ूब मोटा घूसा तानकर कहता, “मैं ससुर को मारूँगा।”
सुनकर मिनी ‘ससुर’ नाम के किसी अनजाने जीव की पिटी-पिटाई हालत के बारे में सोच कर ख़ूब हँसती।
मुझमें देश-विदेश घूमने की इच्छा है लेकिन अपने कमरे से बाहर निकलते ही घबराहट होने लगती है। इसलिए सुबह अपने कमरे में मेज़ के सामने बैठकर इस काबुली के साथ बातचीत करने से बाहर घूमने का काफ़ी काम हो जाता है। वह टूटी-फूटी बंगला में अपने देश की बातें कहता है और उसकी तस्वीरें मेरी आँखों के सामने आ जाती हैं। लेकिन मिनी की माँ बहुत शक्की स्वभाव की महिला थी। रहमत काबुलीवाले पर उन्हें भरोसा नहीं था। उन्होंने मुझसे बार-बार उस पर ख़ास तौर से नज़र रखने के लिए प्रार्थना की। उनके शक को हँस कर उड़ा देने पर उन्होंने कई सवाल किए—‘क्या कभी किसी के बच्चे चोरी नहीं जाते? एक लंबे-चौड़े काबुली के लिए एक छोटे से बच्चे को चुरा ले जाना क्या बिलकुल नामुमकिन है?’ मुझे मानना पड़ा कि ये बातें नामुमकिन नहीं हैं लेकिन मैं इस कारण भलेमानस रहमत को घर आने से मना नहीं कर सकता था।
हर वर्ष माघ के महीने के बीचों-बीच रहमत अपने देश चला जाता। इस समय वह अपना सारा उधार रुपया वसूल करने में जुटा रहता। लेकिन फिर भी एक बार वह मिनी से ज़रूर मिल जाता। जिस दिन सुबह समय नहीं मिलता तो शाम को आ पहुँचता। कभी-कभी अँधेरे कमरे में बैठा पढ़ रहा था। लेकिन जब उन दोनों की भोली-भाली बातें सुनता तो हृदय प्रसन्नता से भर उठता।
एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। तभी सड़क पर बड़े ज़ोर का हल्ला सुनाई पड़ा। आँख उठाई तो देखा दो पहरेवाले अपने रहमत को बाँधे लिए आ रहे हैं—उसके पीछे तमाशबीन लड़कों की टोली चली आ रही है। रहमत के शरीर और कपड़ों पर ख़ून के दाग़ हैं। एक पहरेवाले के हाथ में ख़ून से सना छुरा है। मैंने बाहर आकर पहरेवालों को रोककर पूछा, ‘मामला क्या है?’
मालूम हुआ कि हमारे एक पड़ोसी ने रामपुरी चादर के लिए रहमत से कुछ रुपया उधार लिया था। उसने झूठ बोलकर रुपया उधार लिया था तथा रुपया देने से इंकार कर दिया और इसी बात को लेकर कहा-सुनी करते करते रहमत ने उसके छुरा भोंक दिया। रहमत उस झूठे आदमी को तरह-तरह की गालियाँ दे रहा था। तभी ‘काबुलीवाले! ओ काबुलीवाले!’ पुकारती हुई मिनी घर से बाहर निकल आई।
पलक मारते रहमत का चेहरा आनंद से खिल उठा। उसके कंधे पर आज झोली नहीं थी, इसलिए उसके बारे में कुछ पूछा नहीं जा सकता था। मिनी ने छूटते ही उससे पूछा, “तुम ससुराल जाओगे?”
रहमत ने हँस कर कहा, “वहीं जा रहा हूँ।”
मिनी को उसका जवाब हँसी भरा नहीं लगा, वह हाथ दिखाकर बोला, “ससुर को मारता पर क्या करूँ हाथ बँधे हैं।”
छुरा मारने के अपराध में रहमत को कई वर्ष की जेल हो गई। मैं उसकी बात क़रीब-क़रीब भूल गया। मिनी भी उसे जल्दी भूल गई। धीरे-धीरे उसके नए मित्र बनते गए। उम्र बढ़ने के साथ एक-एक करके सखियाँ जुटने लगीं। मेरे साथ भी अब वह पहले जैसी बातचीत नहीं करती। मैंने तो उसके साथ एक प्रकार की कुट्टी कर ली थी।
बहुत सुहावनी सुबह थी। आज मेरे घर में शहनाई बज उठी थी। उसके स्वर मेरे हृदय को अंदर से रुला रहे थे। मेरी लाड़ली बेटी मुझसे विदा होने जा रही थी। आज मेरी मिनी का विवाह था।
सवेरे से ही विवाह की तैयारियाँ हो रही थीं। मैं बाहर के कमरे में बैठा हिसाब देख रहा था, तभी रहमत आकर सलाम करके खड़ा हो गया।
मैं पहले उसे पहचान नहीं सका। उसके पास न वह झोली थी, न उसके वे लंबे बाल। शरीर भी कमज़ोर हो गया था। आख़िर उसकी हँसी देखकर उसे पहचाना।
मैंने कहा, “क्यों रे रहमत, कब छूटा?”
उसने कहा, “कल शाम को जेल से छूटा हूँ।”
बात सुनकर कानों में जैसे खटका हुआ। आज के शुभ दिन यह आदमी यहाँ से चला जाता तो अच्छा होता। मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर में एक काम है, मुझे बहुत से काम करने हैं, आज तुम जाओ।”
बात सुनते ही वह चल दिया और दरवाज़े के पास पहुँचकर बोला, “क्या एक बार मुन्नी को नहीं देख सकूँगा”।
शायद उसे विश्वास था मिनी अब भी वैसी ही होगी। नन्हीं-सी बच्ची जो पहले की तरह ही ‘काबुलीवाले’ कहती हुई दौड़ी आएगी, बच्चों जैसी हँसी भरी बातें करेगी। वह पहले की तरह उसके लिए किसी से माँग-चाँग कर एक डिब्बा अँगूर और किशमिश-बादाम लाया था।
मैंने कहा, “आज घर में काम है। वह किसी से मिल नहीं सकेगी।”
वह दुखी मन से ‘सलाम बाबू’ कहकर दरवाज़े के बाहर चला गया।
मुझे अपने मन में न जाने कैसा एक दर्द महसूस हुआ। सोचा, उसे वापस बुलवा लूँ, तभी देखा वह ख़ुद लौटा आ रहा है।
पास आकर बोला, ‘ये अँगूर और थोड़े से किशमिश बादाम मुन्नी के लिए लाया था, दे दीजिएगा।’
उन्हें लेकर जब मैं दाम देने लगा तो वह मेरा हाथ पकड़ कर बोला, “मुझे पैसा मत दीजिए बाबू, जिस तरह तुम्हारी एक लड़की है, उसी तरह देश में मेरी भी एक लड़की है। मैं उसी का चेहरा याद करके तुम्हारी मुन्नी के लिए थोड़ी मेवा लेकर आया हूँ, सौदा करने नहीं।”
यह कहते हुए उसने अपने कुर्ते में कहीं छाती के पास से मैले कागज़ का एक टुकड़ा निकाला और बहुत सावधानी से उसकी तह खोलकर मेरी टेबिल पर बिछा दिया।
देखा, काग़ज़ पर किसी नन्हे हाथ की छाप थी। फ़ोटो नहीं, रंगों से बना चित्र नहीं, प्यारी बिटिया के हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर काग़ज़ के ऊपर उसकी छाप ले ली गई थी। अपनी प्यारी बिटिया के हाथ की इसी यादगार को सीने से लगाए रहमत कलकत्ते की सड़कों पर मेवा बेचने आता मानो उस सुंदर, कोमल नन्हीं बच्ची के हाथ की छुअन भर उसके हृदय में अमृत की धारा बहाती रहती।
देखकर मेरी आँखें छलछला आई। उस समय मैंने समझा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी पिता है, मैं भी पिता हूँ। मैंने उसी समय मिनी को भीतर से बुलवाया। शादी की लाल साड़ी पहने, माथे पर चंदन लगाए बहू वेश में मिनी लज्जा से मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसको देखकर काबुलीवाला सकपका गया। अपनी पुरानी बातचीत नहीं जमा पाया। अंत में हँस कर बोला, “मुन्नी, तू ससुराल जाएगी?”
रहमत का प्रश्न सुनकर लज्जा से लाल होकर मिनी मुँह फेरकर खड़ी हो गई। मुझे काबुलीवाले और मिनी की पहली भेंट याद हो आई और मैं कुछ दुखी हो उठा।
मिनी के चले जाने पर गहरी साँस लेकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। अचानक उसकी समझ में साफ़ आ गया, इस बीच उसकी बेटी भी इसी तरह बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उस पर क्या बीती होगी, यह भी भला कोई जानता है। उसका चेहरा दुख और चिंता से भर उठा।
मैंने एक नोट निकालकर उसे देते हुए कहा, ‘रहमत, तुम अपनी लड़की के पास अपने देश लौट जाओ। तुम्हारा मिलन-सुख मेरी मिनी का कल्याण करे।’
sahsa meri paanch varsh ki laDli beti mini ‘agDam bagDam’ ka khel chhoDkar khiDki ki taraf bhagi aur zor zor se pukarne lagi, “kabulivale, o kabulivale!”
main is samay upanyas likh raha tha. nayak, nayika ko lekar andheri raat mein jel ki uunchi khiDki se niche bahti nadi ke jal mein kood raha tha. ghatna vahin ruk gai.
sochne laga—‘meri beti kitni chanchal aur batuni hai. abhi kuch pal pahle wo mere pairon ke paas baithi khel rahi thi ki achanak use ye kya sujhi. ’ mini ke is kaam se mujhe achraj to nahin hua par pareshani zarur mahsus hui. mainne socha, “bas ab peeth par jholi liye kabulivala aa khaDa hoga, mera satrahvan adhyay ab pura nahin ho sakta. ”
jyon hi kabulivale ne hans kar munh phera aur mere ghar ki or aane laga tyon hi wo ghar ke andar bhaag aai. uske man mein ek jhutha vishvas tha ki kabulivala apni jholi mein usi ki tarah ke do chaar churaye ge bachche chhipaye rahta hai. idhar kabulivala aakar muskurata hua mujhe salam karke khaDa ho gaya. adami ko ghar par bulakar kuch na kharidna achchha nahin lagta, isliye usse kuch kharida. do chaar baten hui. pata chala, uska naam rahmat tha.
mainne mini ke Dar ko puri tarah khatm karne ke liye use bhitar se bulva liya. wo mujhse sat kar kabulivale ke chehre aur jholi ki or shak bhari nazar se dekhti hui khaDi rahi. kabuli use jholi ke andar se kuch sukhe meve nikalkar dene laga par wo lene ko kisi tarah razi nahin hui. dugne Dar se mere ghutne se satkar rah gai.
kuch din baad ek din savere kisi kaam se ghar se bahar jate samay dekha ki meri nanhin beti darvaze ke paas bench ke uupar baithi apni be sir pair ki baten kar rahi hai. kabulivala uske pairon ke paas baitha muskurata hua sun raha hai. wo beech beech mein mini ki baton par apni raay bhi batata jata hai. mini ko apne paanch saal ke jivan mein pita ke alava aisa dhiraj rakhkar uski baton ko sunnevala kabhi nahin mila tha. mainne ye bhi dekha ki uska chhota anchal badam kishmish se bhara tha. mainne kabulivale se kaha, “use ye sab kyon diya? ab phir mat dena. ” mainne jeb se ek athanni nikal kar usko de di. kabulivale ne athanni mujhse lekar apne jhole mein rakh li.
ghar lautkar aaya to dekha ki us athanni ko lekar pura jhagDa macha hua hai. mini ki maan usse poochh rahi thi, “tujhe ye athanni kahan mili?”
mini kah rahi thi, “kabulivale ne di. mainne mangi nahin thi. usne khud de di. ” mainne mini ki maan ko samjhaya aur mini ko bahar le gaya. pata chala ki is dauran kabulivale ne lagbhag roz aakar mini ko pista badam dekar uske nanhen dil ka vishvas pa liya hai. ve aapas mein dost ban ge hain. donon mein kuch bandhi hui baten aur hansi mazaq chalte. kabuli rahmat ko dekhte hi meri beti hanste hue puchhti, “kabulivale! tumhari jholi mein kya hai?”
rahmat hanste hue uttar deta, “hathi. ” matlab uski jholi mein hathi hai. is baat se donon khoob hanste. unmen ek aur hansi bhari baat chalti thi. rahmat mini se kahta, “mini tum kya sasural kabhi nahin jaogi?”
sasural ka matlab nahin samajhne ke karan mini ulat kar puchhti, “tum sasural jaoge?”
rahmat sasur ke liye khoob mota ghusa tankar kahta, “main sasur ko marunga. ”
sunkar mini ‘sasur’ naam ke kisi anjane jeev ki piti pitai haalat ke bare mein soch kar khoob hansti.
mujhmen desh videsh ghumne ki ichchha hai lekin apne kamre se bahar nikalte hi ghabrahat hone lagti hai. isliye subah apne kamre mein mez ke samne baithkar is kabuli ke saath batachit karne se bahar ghumne ka kafi kaam ho jata hai. wo tuti phuti bangla mein apne desh ki baten kahta hai aur uski tasviren meri ankhon ke samne aa jati hain. lekin mini ki maan bahut shakki svbhaav ki mahila thi. rahmat kabulivale par unhen bharosa nahin tha. unhonne mujhse baar baar us par khaas taur se nazar rakhne ke liye pararthna ki. unke shak ko hans kar uDa dene par unhonne kai saval kiye—‘kya kabhi kisi ke bachche chori nahin jate? ek lambe chauDe kabuli ke liye ek chhote se bachche ko chura le jana kya bilkul namumkin hai?’ mujhe manna paDa ki ye baten namumkin nahin hain lekin main is karan bhalemanas rahmat ko ghar aane se mana nahin kar sakta tha.
har varsh maagh ke mahine ke bichon beech rahmat apne desh chala jata. is samay wo apna sara udhaar rupya vasul karne mein juta rahta. lekin phir bhi ek baar wo mini se zarur mil jata. jis din subah samay nahin milta to shaam ko aa pahunchta. kabhi kabhi andhere kamre mein baitha paDh raha tha. lekin jab un donon ki bholi bhali baten sunta to hriday prasannata se bhar uthta.
ek din savere main apne kamre mein baitha paDh raha tha. tabhi saDak par baDe zor ka halla sunai paDa. ankh uthai to dekha do pahrevale apne rahmat ko bandhe liye aa rahe hain—uske pichhe tamashabin laDkon ki toli chali aa rahi hai. rahmat ke sharir aur kapDon par khoon ke daagh hain. ek pahrevale ke haath mein khoon se sana chhura hai. mainne bahar aakar pahrevalon ko rokkar puchha, ‘mamla kya hai?’
malum hua ki hamare ek paDosi ne ramapuri chadar ke liye rahmat se kuch rupya udhaar liya tha. usne jhooth bolkar rupya udhaar liya tha tatha rupya dene se inkaar kar diya aur isi baat ko lekar kaha suni karte karte rahmat ne uske chhura bhonk diya. rahmat us jhuthe adami ko tarah tarah ki galiyan de raha tha. tabhi ‘kabulivale! o kabulivale!’ pukarti hui mini ghar se bahar nikal aai.
palak marte rahmat ka chehra anand se khil utha. uske kandhe par aaj jholi nahin thi, isliye uske bare mein kuch puchha nahin ja sakta tha. mini ne chhutte hi usse puchha, “tum sasural jaoge?”
rahmat ne hans kar kaha, “vahin ja raha hoon. ”
mini ko uska javab hansi bhara nahin laga, wo haath dikhakar bola, “sasur ko marta par kya karun haath bandhe hain. ”
chhura marne ke apradh mein rahmat ko kai varsh ki jel ho gai. main uski baat qarib qarib bhool gaya. mini bhi use jaldi bhool gai. dhire dhire uske ne mitr bante ge. umr baDhne ke saath ek ek karke sakhiyan jutne lagin. mere saath bhi ab wo pahle jaisi batachit nahin karti. mainne to uske saath ek prakar ki kutti kar li thi.
bahut suhavni subah thi. aaj mere ghar mein shahnai baj uthi thi. uske svar mere hriday ko andar se rula rahe the. meri laDli beti mujhse vida hone ja rahi thi. aaj meri mini ka vivah tha.
savere se hi vivah ki taiyariyan ho rahi theen. main bahar ke kamre mein baitha hisab dekh raha tha, tabhi rahmat aakar salam karke khaDa ho gaya.
main pahle use pahchan nahin saka. uske paas na wo jholi thi, na uske ve lambe baal. sharir bhi kamzor ho gaya tha. akhir uski hansi dekhkar use pahchana.
mainne kaha, “kyon re rahmat, kab chhuta?”
usne kaha, “kal shaam ko jel se chhuta hoon. ”
baat sunkar kanon mein jaise khatka hua. aaj ke shubh din ye adami yahan se chala jata to achchha hota. mainne usse kaha, “aaj hamare ghar mein ek kaam hai, mujhe bahut se kaam karne hain, aaj tum jao. ”
baat sunte hi wo chal diya aur darvaze ke paas pahunchakar bola, “kya ek baar munni ko nahin dekh sakunga”.
shayad use vishvas tha mini ab bhi vaisi hi hogi. nanhin si bachchi jo pahle ki tarah hi ‘kabulivale’ kahti hui dauDi ayegi, bachchon jaisi hansi bhari baten karegi. wo pahle ki tarah uske liye kisi se maang chaang kar ek Dibba angur aur kishmish badam laya tha.
mainne kaha, “aaj ghar mein kaam hai. wo kisi se mil nahin sakegi. ”
wo dukhi man se ‘salam babu’ kahkar darvaze ke bahar chala gaya.
mujhe apne man mein na jane kaisa ek dard mahsus hua. socha, use vapas bulva loon, tabhi dekha wo khud lauta aa raha hai.
paas aakar bola, ‘ye angur aur thoDe se kishmish badam munni ke liye laya tha, de dijiyega. ’
unhen lekar jab main daam dene laga to wo mera haath pakaD kar bola, “mujhe paisa mat dijiye babu, jis tarah tumhari ek laDki hai, usi tarah desh mein meri bhi ek laDki hai. main usi ka chehra yaad karke tumhari munni ke liye thoDi meva lekar aaya hoon, sauda karne nahin. ”
ye kahte hue usne apne kurte mein kahin chhati ke paas se maile kagaz ka ek tukDa nikala aur bahut savadhani se uski tah kholkar meri tebil par bichha diya.
dekha, kaghaz par kisi nanhe haath ki chhaap thi. foto nahin, rangon se bana chitr nahin, pyari bitiya ke haath mein thoDi si kalikh lagakar kaghaz ke uupar uski chhaap le li gai thi. apni pyari bitiya ke haath ki isi yadgar ko sine se lagaye rahmat kalkatte ki saDkon par meva bechne aata mano us sundar, komal nanhin bachchi ke haath ki chhuan bhar uske hriday mein amrit ki dhara bahati rahti.
dekhkar meri ankhen chhalachhla aai. us samay mainne samjha ki jo wo hai, vahi main hoon. wo bhi pita hai, main bhi pita hoon. mainne usi samay mini ko bhitar se bulvaya. shadi ki laal saDi pahne, mathe par chandan lagaye bahu vesh mein mini lajja se mere paas aakar khaDi ho gai.
usko dekhkar kabulivala sakapka gaya. apni purani batachit nahin jama paya. ant mein hans kar bola, “munni, tu sasural jayegi?”
rahmat ka parashn sunkar lajja se laal hokar mini munh pherkar khaDi ho gai. mujhe kabulivale aur mini ki pahli bhent yaad ho aai aur main kuch dukhi ho utha.
mini ke chale jane par gahri saans lekar rahmat zamin par baith gaya. achanak uski samajh mein saaf aa gaya, is beech uski beti bhi isi tarah baDi ho gai hogi. in aath varshon mein us par kya biti hogi, ye bhi bhala koi janta hai. uska chehra dukh aur chinta se bhar utha.
mainne ek not nikalkar use dete hue kaha, ‘rahmat, tum apni laDki ke paas apne desh laut jao. tumhara milan sukh meri mini ka kalyan kare. ’
sahsa meri paanch varsh ki laDli beti mini ‘agDam bagDam’ ka khel chhoDkar khiDki ki taraf bhagi aur zor zor se pukarne lagi, “kabulivale, o kabulivale!”
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mainne mini ke Dar ko puri tarah khatm karne ke liye use bhitar se bulva liya. wo mujhse sat kar kabulivale ke chehre aur jholi ki or shak bhari nazar se dekhti hui khaDi rahi. kabuli use jholi ke andar se kuch sukhe meve nikalkar dene laga par wo lene ko kisi tarah razi nahin hui. dugne Dar se mere ghutne se satkar rah gai.
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ghar lautkar aaya to dekha ki us athanni ko lekar pura jhagDa macha hua hai. mini ki maan usse poochh rahi thi, “tujhe ye athanni kahan mili?”
mini kah rahi thi, “kabulivale ne di. mainne mangi nahin thi. usne khud de di. ” mainne mini ki maan ko samjhaya aur mini ko bahar le gaya. pata chala ki is dauran kabulivale ne lagbhag roz aakar mini ko pista badam dekar uske nanhen dil ka vishvas pa liya hai. ve aapas mein dost ban ge hain. donon mein kuch bandhi hui baten aur hansi mazaq chalte. kabuli rahmat ko dekhte hi meri beti hanste hue puchhti, “kabulivale! tumhari jholi mein kya hai?”
rahmat hanste hue uttar deta, “hathi. ” matlab uski jholi mein hathi hai. is baat se donon khoob hanste. unmen ek aur hansi bhari baat chalti thi. rahmat mini se kahta, “mini tum kya sasural kabhi nahin jaogi?”
sasural ka matlab nahin samajhne ke karan mini ulat kar puchhti, “tum sasural jaoge?”
rahmat sasur ke liye khoob mota ghusa tankar kahta, “main sasur ko marunga. ”
sunkar mini ‘sasur’ naam ke kisi anjane jeev ki piti pitai haalat ke bare mein soch kar khoob hansti.
mujhmen desh videsh ghumne ki ichchha hai lekin apne kamre se bahar nikalte hi ghabrahat hone lagti hai. isliye subah apne kamre mein mez ke samne baithkar is kabuli ke saath batachit karne se bahar ghumne ka kafi kaam ho jata hai. wo tuti phuti bangla mein apne desh ki baten kahta hai aur uski tasviren meri ankhon ke samne aa jati hain. lekin mini ki maan bahut shakki svbhaav ki mahila thi. rahmat kabulivale par unhen bharosa nahin tha. unhonne mujhse baar baar us par khaas taur se nazar rakhne ke liye pararthna ki. unke shak ko hans kar uDa dene par unhonne kai saval kiye—‘kya kabhi kisi ke bachche chori nahin jate? ek lambe chauDe kabuli ke liye ek chhote se bachche ko chura le jana kya bilkul namumkin hai?’ mujhe manna paDa ki ye baten namumkin nahin hain lekin main is karan bhalemanas rahmat ko ghar aane se mana nahin kar sakta tha.
har varsh maagh ke mahine ke bichon beech rahmat apne desh chala jata. is samay wo apna sara udhaar rupya vasul karne mein juta rahta. lekin phir bhi ek baar wo mini se zarur mil jata. jis din subah samay nahin milta to shaam ko aa pahunchta. kabhi kabhi andhere kamre mein baitha paDh raha tha. lekin jab un donon ki bholi bhali baten sunta to hriday prasannata se bhar uthta.
ek din savere main apne kamre mein baitha paDh raha tha. tabhi saDak par baDe zor ka halla sunai paDa. ankh uthai to dekha do pahrevale apne rahmat ko bandhe liye aa rahe hain—uske pichhe tamashabin laDkon ki toli chali aa rahi hai. rahmat ke sharir aur kapDon par khoon ke daagh hain. ek pahrevale ke haath mein khoon se sana chhura hai. mainne bahar aakar pahrevalon ko rokkar puchha, ‘mamla kya hai?’
malum hua ki hamare ek paDosi ne ramapuri chadar ke liye rahmat se kuch rupya udhaar liya tha. usne jhooth bolkar rupya udhaar liya tha tatha rupya dene se inkaar kar diya aur isi baat ko lekar kaha suni karte karte rahmat ne uske chhura bhonk diya. rahmat us jhuthe adami ko tarah tarah ki galiyan de raha tha. tabhi ‘kabulivale! o kabulivale!’ pukarti hui mini ghar se bahar nikal aai.
palak marte rahmat ka chehra anand se khil utha. uske kandhe par aaj jholi nahin thi, isliye uske bare mein kuch puchha nahin ja sakta tha. mini ne chhutte hi usse puchha, “tum sasural jaoge?”
rahmat ne hans kar kaha, “vahin ja raha hoon. ”
mini ko uska javab hansi bhara nahin laga, wo haath dikhakar bola, “sasur ko marta par kya karun haath bandhe hain. ”
chhura marne ke apradh mein rahmat ko kai varsh ki jel ho gai. main uski baat qarib qarib bhool gaya. mini bhi use jaldi bhool gai. dhire dhire uske ne mitr bante ge. umr baDhne ke saath ek ek karke sakhiyan jutne lagin. mere saath bhi ab wo pahle jaisi batachit nahin karti. mainne to uske saath ek prakar ki kutti kar li thi.
bahut suhavni subah thi. aaj mere ghar mein shahnai baj uthi thi. uske svar mere hriday ko andar se rula rahe the. meri laDli beti mujhse vida hone ja rahi thi. aaj meri mini ka vivah tha.
savere se hi vivah ki taiyariyan ho rahi theen. main bahar ke kamre mein baitha hisab dekh raha tha, tabhi rahmat aakar salam karke khaDa ho gaya.
main pahle use pahchan nahin saka. uske paas na wo jholi thi, na uske ve lambe baal. sharir bhi kamzor ho gaya tha. akhir uski hansi dekhkar use pahchana.
mainne kaha, “kyon re rahmat, kab chhuta?”
usne kaha, “kal shaam ko jel se chhuta hoon. ”
baat sunkar kanon mein jaise khatka hua. aaj ke shubh din ye adami yahan se chala jata to achchha hota. mainne usse kaha, “aaj hamare ghar mein ek kaam hai, mujhe bahut se kaam karne hain, aaj tum jao. ”
baat sunte hi wo chal diya aur darvaze ke paas pahunchakar bola, “kya ek baar munni ko nahin dekh sakunga”.
shayad use vishvas tha mini ab bhi vaisi hi hogi. nanhin si bachchi jo pahle ki tarah hi ‘kabulivale’ kahti hui dauDi ayegi, bachchon jaisi hansi bhari baten karegi. wo pahle ki tarah uske liye kisi se maang chaang kar ek Dibba angur aur kishmish badam laya tha.
mainne kaha, “aaj ghar mein kaam hai. wo kisi se mil nahin sakegi. ”
wo dukhi man se ‘salam babu’ kahkar darvaze ke bahar chala gaya.
mujhe apne man mein na jane kaisa ek dard mahsus hua. socha, use vapas bulva loon, tabhi dekha wo khud lauta aa raha hai.
paas aakar bola, ‘ye angur aur thoDe se kishmish badam munni ke liye laya tha, de dijiyega. ’
unhen lekar jab main daam dene laga to wo mera haath pakaD kar bola, “mujhe paisa mat dijiye babu, jis tarah tumhari ek laDki hai, usi tarah desh mein meri bhi ek laDki hai. main usi ka chehra yaad karke tumhari munni ke liye thoDi meva lekar aaya hoon, sauda karne nahin. ”
ye kahte hue usne apne kurte mein kahin chhati ke paas se maile kagaz ka ek tukDa nikala aur bahut savadhani se uski tah kholkar meri tebil par bichha diya.
dekha, kaghaz par kisi nanhe haath ki chhaap thi. foto nahin, rangon se bana chitr nahin, pyari bitiya ke haath mein thoDi si kalikh lagakar kaghaz ke uupar uski chhaap le li gai thi. apni pyari bitiya ke haath ki isi yadgar ko sine se lagaye rahmat kalkatte ki saDkon par meva bechne aata mano us sundar, komal nanhin bachchi ke haath ki chhuan bhar uske hriday mein amrit ki dhara bahati rahti.
dekhkar meri ankhen chhalachhla aai. us samay mainne samjha ki jo wo hai, vahi main hoon. wo bhi pita hai, main bhi pita hoon. mainne usi samay mini ko bhitar se bulvaya. shadi ki laal saDi pahne, mathe par chandan lagaye bahu vesh mein mini lajja se mere paas aakar khaDi ho gai.
usko dekhkar kabulivala sakapka gaya. apni purani batachit nahin jama paya. ant mein hans kar bola, “munni, tu sasural jayegi?”
rahmat ka parashn sunkar lajja se laal hokar mini munh pherkar khaDi ho gai. mujhe kabulivale aur mini ki pahli bhent yaad ho aai aur main kuch dukhi ho utha.
mini ke chale jane par gahri saans lekar rahmat zamin par baith gaya. achanak uski samajh mein saaf aa gaya, is beech uski beti bhi isi tarah baDi ho gai hogi. in aath varshon mein us par kya biti hogi, ye bhi bhala koi janta hai. uska chehra dukh aur chinta se bhar utha.
mainne ek not nikalkar use dete hue kaha, ‘rahmat, tum apni laDki ke paas apne desh laut jao. tumhara milan sukh meri mini ka kalyan kare. ’
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।