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(एक)

जब तक गाड़ी नहीं चली थी, बलराज जैसे नशे में था। यह शोर-गुल से भरी दुनिया उसे एक निरर्थक तमाशे के समान जान पड़ती थी। प्रकृति उस दिन उग्र रूप धारण किए हुए थी। लाहौर का स्टेशन। रात के साढ़े नौ बजे। कराची एक्सप्रेस जिस प्लेटफ़ार्म पर खड़ी थी, वहाँ हज़ारों मनुष्य जमा थे। ये सब लोग बलराज और उसके साथियों के प्रति, जो जानबूझकर जेल जा रहे थे, अपना हार्दिक सम्मान प्रकट करने आए थे। प्लेटफ़ार्म पर छाई हुई टीनों पर वर्षा की बौछारें पड़ रही थीं। धू-धू करके गीली और भारी हवा इतनी तेज़ी से चल रही थी कि मालूम होता था, वह इन सब संपूर्ण मानवीय निर्माणों को उलट-पुलट कर देगी, तोड़-फ़ोड़ डालेगी। प्रकृति के इस महान उत्पात के साथ-साथ जोश में आए हुए उन हज़ारों छोटे-छोटे निर्बल-से देहधारियों का जोशीला कंठस्वर, जिन्हें ‘मनुष्य’ कहा जाता है।

बलराज राजनीतिक पुरुष नहीं है। मुल्क की बातों से या कांग्रेस से उसे कोई सरोकार नहीं। वह एक निठल्ला कलाकार है। माँ-बाप के पास काफ़ी पैसा है। बलराज पर कोई बोझ नहीं। यूनिवर्सिटी से एम.ए. का इम्तिहान इज़्ज़त के साथ पास कर वह लाहौर में ही रहता है। लिखता-पढ़ता है, कविता करता है, तस्वीरें बनाता है और बेफ़िक्री से घूम-फिर लेता है। विद्यार्थियों में वह बहुत लोकप्रिय है। माँ-बाप मुफ़स्सिल में रहते हैं, और बलराज को उन्होंने सभी तरह की आज़ादी दे रखी है।

ऐसा निठल्ला बलराज कभी कांग्रेस-आंदोलन में सम्मिलित होकर जेल जाने की कोशिश करेगा, इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। किसी को मालूम नहीं कि कब और क्यों उसने यह अनहोनी बात करने का निश्चय कर लिया। लोगों को इतना ही मालूम है कि बारह बजे के क़रीब विदेशी कपड़े की किसी दुकान के सामने जाकर उसने दो-एक नारे लगाए, चिल्लाकर कहा कि विदेशी वस्त्र पहनना पाप है, और दो-एक भले मानसों से प्रार्थना की कि वे विलायती माल खरीदें। नतीजा यह हुआ कि वह गिरफ़्तार कर लिया गया। उसी वक़्त उसका मामला अदालत में पेश हुआ और उसे छह महीने की सादी सज़ा सुना दी गई। बलराज के मित्रों को यह समाचार तब मालूम हुआ, जब एक बंद लारी में बैठाकर उसे मिंटगुमरी जेल में भेजने के लिए स्टेशन की ओर रवाना कर दिया गया था।

लोग—विशेषकर कॉलेजों के विद्यार्थी—बलराज के जय-जयकारों से आसमान गुँजा रहे थे; परंतु वह जैसे जागते हुए भी सो रहा था। चारों ओर का विक्षुब्ध वातावरण, आसमान से गाड़ी की छत पर अनंत वर्षा की बौछार और हज़ारों कंठों का कोलाहल बलराज के लिए जैसे यह सब निरर्थक था। उसकी आँखों में गहरी निराशा की छाया थी, उसके मुँह पर विषादभरी गहरी गंभीरता अंकित थी और उसके होंठ जैसे किसी ने सी दिए थे। उसके दोस्त उससे पूछते थे कि आख़िर क्या सोचकर वह जेल जा रहा है। परंतु वह जैसे बहरा था, गूँगा था, कुछ सुनता था, कुछ बोलता था।

कांग्रेस के उन पंद्रह-बीस स्वयंसेवकों में से बलराज एक को भी नहीं जानता था, और उसके कपड़े खद्दर के थे। परंतु उन सब वालंटियरों में एक भी व्यक्ति उसके समान पढ़ा-लिखा, प्रतिभाशाली और संपन्न घराने का नहीं था। इससे वे सब लोग बलराज को इज़्ज़त की निगाह से देख रहे थे। गाड़ी चली तो उन सबसे मिलकर कोई गीत गाना शुरू किया और बलराज अपनी जगह से उठकर दरवाज़े के सामने खड़ा हुआ। डिब्बे की सभी खिड़कियाँ बंद थीं। बलराज ने दरवाज़े पर की खिड़की खोल डाली। एक ही क्षण में वर्षा के थपेड़ों से उसका संपूर्ण मुँह भीग गया, बाल बिखर गए, मगर बलराज ने इसकी परवा नहीं की। खिड़की खोले वह उसी तरह खड़े रहकर बाहर के घने अंधकार की ओर देखने लगा, जैसे इस सघन अंधकार में बलराज के लिए कोई गहरी मतलब की बात छिपी हुई हो।

एक स्वयंसेवक ने बड़ी इज़्ज़त के साथ बलराज से कहा— “आप बुरी तरह भीग रहे हैं। इच्छा हो तो आकर लेट जाइए।”

बलराज ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। परंतु जिस निगाह से उसने उस स्वयंसेवक की ओर देखा, उससे फिर किसी को यह हिम्मत नहीं हुई कि वह उससे कोई और अनुरोध कर सके।

खिड़की में से सिर बाहर निकालकर बलराज देख रहा है। उस घने अंधकार में, जाने किस-किस दिशा से आ-आकर वर्षा की तीखी-सी बूँदें उसके शरीर पर पड़ रही हैं। जाने किधर सनसनाती हुई हवा उसके बालों को झटके दे-देकर कभी इधर और कभी उधर हिला रही है।

इस घने अंधकार में, जैसे बिना किसी बाधा के, बलराज ने एक गहरी साँस ली। उसकी इस बाधा-विहीन ठंडी साँस ने जैसे उसकी आँखों के द्वार भी खोल दिए। बलराज की आँखों में आँसू भर आए और प्रकृति-माता के आँचल का पानी मानो तत्परता के साथ उसके आँसुओं को धोने लगा।

इसके बाद बलराज को कुछ जान नहीं पड़ा कि किसने, कब और किस तरह धीरे से उसे एक सीट पर लिटा दिया। किसी तरह की आपत्ति किए बिना वह लेट गया, और उसी क्षण उसने आँखें मूँद ली।

(दो)

चार साल पहले की बात।

पहाड़ पर आए बलराज को अधिक दिन नहीं हुए। वह अकेला ही यहाँ चला आया था। अपने होटल का भोजन कर, रात की पोशाक पहन, वह अभी लेटा ही था कि उसे दरवाज़े पर थपथपाहट की आवाज़ सुनाई दी। बलराज चौंककर उठा और उसने दरवाज़ा खोल दिया। उसका ख़याल था कि शायद होटल का मैनेजर किसी ज़रूरी काम से आया होगा, अथवा कोई डाक-वाक होगी। मगर नहीं, दरवाज़े पर एक महिला खड़ी थी—बलराज की रिश्ते की बहन। वह यहाँ मौजूद है, यह तो बलराज को मालूम था, परंतु उसे बलराज का पता कैसे ज्ञात हो गया, इस संबंध में वह अभी कुछ भी सोच नहीं पाया था कि उसकी निगाह एक और लड़की पर पड़ी, जो उसकी बहन के साथ थी। बलराज खुली तबीअत का युवक नहीं है, फिर भी उस लड़की के चेहरे पर उसे एक ऐसी मुस्कान-सी दिखाई दी, जो मानो पारदर्शक थी। मुस्कराहट की ओट में जो हृदय था, उसकी झलक साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी। बलराज ने अनुभव किया, जैसे इस लड़की को देखकर चित्त आह्लाद से भर गया है।

उसी वक़्त आग्रह के साथ वह उन दोनों को अंदर ले गया। कुशलक्षेम की प्रारंभिक बातों के बाद बलराज की बहन ने उस बालिका का परिचय दिया— “यह कुमारी ऊषा है। अभी दसवीं क्लास में पढ़ रही है।”

बलराज की बहन क़रीब एक घंटे तक वहाँ रही। सभी तरह की बातें उसने बलराज से कीं, परंतु ऊषा ने इस संपूर्ण बातचीत में ज़रा भी हिस्सा नहीं लिया। अपनी आँखें नीची करके और अपने मुँह को कोहनी पर टेककर वह लगातार मुस्कराती रही, हँसती रही और मानो फूल बिखेरती रही।

तीसरे दर्जे की लकड़ी की सीट पर लेटे-लेटे बलराज अर्द्ध-चेतना में देख रहा है, चार साल पहले के एक स्वच्छ दिन की दोपहरिया। होटल में सन्नाटा है। कमरे में तीन जने हैं। बलराज है, उसकी बहन है, और दसवीं जमात में पढ़ने वाली पंद्रह बरस की ऊषा है। बलराज अपने पलंग पर एक चादर ओढ़े बैठा है, उसकी बहन बातें कर रही है, और ऊषा मुस्करा रही है, और लगातार मुस्कराए जा रही है।

(तीन)

कुछ ही दिन बाद की बात है। ऊषा की माँ ने बलराज और उसकी बहन को अपने यहाँ चाय के लिए निमंत्रित किया। बलराज ने तब ऊषा को अधिक नज़दीक से देखा। उसकी बहन उसे ऊषा के कमरे में ले गई। तीसरी मंज़िल के बीचो-बीच साफ़-सुथरा छोटा-सा एक कमरा था, एक तरफ़ सितार, वायलिन आदि कुछ वाद्य-यंत्र रखे हुए थे। दूसरी ओर एक तिपाई पर कुछ किताबें अस्त-व्यस्त दशा में पड़ी थीं। इस तिपाई के पास एक कुर्सी रखी थी। बलराज को इस कुर्सी पर बैठाकर उसकी बहन और ऊषा पलंग पर बैठ गई।

चाय में अभी देर थी और ऊषा की अम्मा रसोईघर में थी। इधर बलराज की बहन ने पढ़ाई-लिखाई के संबंध में ऊषा से अनेक तरह के सवाल करने शुरू किए, उधर बलराज की निगाह तिपाई पर पड़ी हुई एक कापी पर गई। कापी खुली पड़ी थी। गणित के ग़लत या सही सवाल इन पन्नों पर हल किए गए थे। इन सवालों के आस-पास जो ख़ाली जगह थी, उस पर स्याही से बनाए गए अनेक चेहरे बलराज को नज़र आए—कहीं सिर्फ़ आँख थी, कहीं नाक और कहीं मुँह। जैसे आकृति-चित्रण का अभ्यास किया जा रहा है। बलराज ने यह सब एक उड़ती नज़र से देखा, और यह देखकर उसे सचमुच आश्चर्य हुआ कि पंद्रह बरस की ऊषा आकृति-चित्रण में इतनी कुशल कहाँ से हो गई।

हिम्मत कर बलराज ने कापी का पृष्ठ पलट दिया। दूसरे ही पृष्ठ पर एक ऐसा पोपला चेहरा अंकित था, जिसके सारे दाँत ग़ायब थे। चित्र सचमुच बहुत अच्छा बना था। उसके नीचे सुडौल अक्षरों में लिखा था—‘गणित मास्टर’। बलराज के चेहरे पर सहसा मुस्कराहट घूम गई। इसी समय ऊषा की भी निगाह बलराज पर पड़ी। उसी क्षण वह सभी कुछ समझ गई। बातचीत की ओर से उसका ध्यान हट गया और लज्जा से उसका मुँह नीचे की ओर झुक गया।

इसी समय बलराज की बहन ने अपने भाई से कहा— “ऊषा को लिखने का शौक़ भी है। तुमने भी उसकी कोई चीज़ पढ़ी है?”

बलराज ने उत्सुकतापूर्वक कहा— “कहाँ? ज़रा मुझे भी तो दिखाइए।”

ऊषा अभी तक इस बात का कोई जवाब दे नहीं पाई थी कि बलराज ने किताबों के ढेर में से एक कापी और खींच निकाली। यह कापी अंग्रेज़ी अनुवाद की थी। इस अनुवाद में भी ख़ाली जगह का प्रयोग हाथ, नाक, कान, मुँह आदि बनाने में किया गया था। बलराज पृष्ठ पलटता गया। एक जगह उसने देखा कि ‘मेरा घर’ शीर्षक एक सुंदर गद्य-कविता ऊषा ने लिखी है। बलराज ने इसे एक ही निगाह में पढ़ लिया। पढ़कर उसने संतोष की एक साँस ली। प्रशंसा के दो-एक वाक्य कहे और इस संबंध में अनेक प्रश्न ऊषा से कर डाले।

पंद्रह-बीस मिनट इसी प्रकार निकल गए। उसके बाद किसी काम से ऊषा को नीचे चले जाना पड़ा। बलराज ने तब एक और छोटी-सी नोटबुक उस ढेर से खोज निकाली। इस नोटबुक के पहले पृष्ठ पर लिखा था—‘निजी और व्यक्तिगत।’ मगर बलराज इस कापी को देख डालने के लोभ का संवरण कर सका। कापी के सफे उसने पलटे। देखा एक जगह बिना किसी शीर्षक के लिखा था—

“ओ! मेरे देवता!”

“तुम कौन हो, कैसे हो, कहाँ हो— मैं यह सब कुछ भी नहीं जानती, मगर फिर भी मेरा दिल कहता है कि सिर्फ़ तुम्हीं मेरे हो, और मेरा कोई भी नहीं।”

“रात बढ़ गई है। मैंने अपनी खिड़की खोल डाली है। चारों ओर गहरा सन्नाटा है। सामने की ऊँची पहाड़ी की बर्फ़ीली चोटियाँ चाँदनी में चमक रही हैं। घर के सब लोग सो गए हैं। सारा नगर सो गया है, मगर मैं जाग रही हूँ। अकेली मैं। पढ़ना चाहती थी; मगर और नहीं पढ़ूँगी। पढ़ नहीं सकूँगी। सो भी नहीं सकूँगी, क्योंकि उन बर्फ़ीली चोटियों पर से तुम मुझे पुकार रहे हो। मैंने तो तुम्हारी पुकार सुन ली है; परंतु मन-ही-मन तुम्हारी उस पुकार का मैं जो जवाब दूँगी, उसे क्या तुम सुन सकोगे, मेरे देवता?”

वह पृष्ठ समाप्त हो गया। बलराज अगला पृष्ठ पलट ही रहा था कि ऊषा कमरे में पहुँची। बलराज के हाथों में वह कापी देखकर वह तड़प-सी उठी, सहसा बलराज के बहुत निकट आकर और अपना हाथ बढ़ाकर उसने कहा— “माफ़ कीजिए। यह कापी मैं किसी को नहीं दिखाती। यह मुझे दे दीजिए।”

बलराज पर मानो घड़ों पानी पड़ गया, और स्तब्ध-सी दशा में उसने वह कापी ऊषा के हाथों में पकड़ा दी।

अपनी उद्विग्नता पर मानो ऊषा अब लज्जित-सी हो उठी। उसने वह कापी बलराज की ओर बढ़ाकर ज़रा नरमी से कहा— “अच्छा, आप देख लीजिए, पढ़ लीजिए। मैं आपको नहीं रोकूँगी।” और यह कहकर वह नोटबुक उसने बलराज के सामने रख दी; मगर बलराज अब उस कापी को हाथ लगाने की भी हिम्मत नहीं कर सका।

उसके बाद बलराज ही के अनुरोध पर ऊषा ने गाकर भी सुना दिया। अनेक चुटकुले सुनाए। वह जी खोलकर हँसती भी रही, मगर पंद्रह बरस की इस छोटी-सी बालिका के प्रति, ऊपर की घटना से, बलराज के हृदय में सम्मानपूर्ण दशहत का जो भाव पैदा हो गया था, वह हट सका।

***

वर्षा की बौछार के कुछ छींटे सोए हुए बलराज के नंगे पैरों पर पड़े। शायद उसे कुछ सर्दी-सी प्रतीत हुई। वह देखने लगा—सबसे ऊँची मंज़िल पर ठीक बीचो-बीच एक कमरा है। कमरे के मध्य में एक खिड़की है। इस खिड़की में से बलराज सामने की ओर देख रहा है। चाँदनी रात है। मकान में, सड़क पर, नगर में सभी जगह सन्नाटा है। सामने की पहाड़ी की बर्फ़ीली चोटी चाँदनी में चमक रही है। रह-रहकर ठंडी हवा के झोंके खिड़की की राह से कमरे से आते हैं और बलराज के शरीर भर में एक सिहरन-सी उत्पन्न कर जाते हैं। सहसा दूर पर वीणा की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। बलराज ने देखा कि चमकती हुई बर्फ़ीली चोटी पर एक अस्पष्ट-सा चेहरा दिखाई देने लगा। यह चेहरा तो उसका देखा-भाला हुआ है। बलराज ने पहचाना—ओह, यह तो ऊषा है! आज की नहीं, आज से चार साल पहले की। वीणा की ध्वनि क्रमश: और भी अधिक करुण हो उठी। वह मानो पुकार-पुकारकर कहने लगी—‘ओ मेरे देवता! मेरे देवता!’

(चार)

दूसरे ही दिन बलराज की बहन ने उसे सिनेमा देखने के लिए निमंत्रित किया। ऊषा भी साथ ही थी। भयानक रस का चित्र था। बोरिस कारलोफ़ का फ़्रैंकंस्टाइन। बलराज मध्य में बैठा। उसकी बहन एक ओर, और ऊषा दूसरी ओर। खेल शुरू होने में अभी कुछ देर थी। बातचीत में बलराज को ज्ञात हुआ कि ऊषा ने अभी तक अधिक फ़िल्में नहीं देखी हैं और उसे सिनेमा देखने का कोई विशेष चाव ही है।

खेल शुरू हुआ। सचमुच डराने वाला। श्मशान से मुर्दा खोदकर लाया जाना; प्रयोगशाला में सूखे शव की मौजूदगी, अकस्मात् मुर्दे का जी उठना, यह सभी कुछ डराने वाला था। बालिका ऊषा का किशोर हृदय धक-धक करने लगा और क्रमश: वह अधिकाधिक बलराज के निकट होती चली गई।

आख़िरकार एक जगह वह भय से सिहर-सी उठी और बहुत अधिक विचलित होकर उसने बलराज का हाथ पकड़ लिया। फ़्रैंकंस्टाइन ने बड़ी निर्दयता से एक अबोध बालिका का ख़ून कर दिया था। ऊषा के काँपते हुए हाथ के स्पर्श से बलराज को ऐसा अनुभव हुआ, जैसे उसके शरीर भर में प्राणदायिनी बिजली-सी घूम गई हो। उसने बालिका के हाथ को बड़ी नरमी के साथ थोड़ा-सा दबाया। ऊषा ने उसी क्षण अपना हाथ वापस खींच लिया।

खेल समाप्त हुआ। बलराज ने जैसे इस खेल में बहुत कुछ पा लिया हो, परंतु प्रकाश में आकर जब उसने ऊषा का मुँह देखा, तो उसे साफ़ दिखाई दिया कि बालिका के चेहरे पर हल्की-सी सफ़ेदी जाने के अतिरिक्त और कोई भी अंतर नहीं आया। उसकी आँख उतनी ही पवित्र और अबोध थी, जितना खेल शुरू होने से पहले। उत्सुकता को छोड़कर और किसी का भाव उसके चेहरे पर लेशमात्र भी चिह्न नहीं था। बलराज ने यह देखा और देखकर जैसे वह कुछ लज्जित-सा हो गया।

* * *

गाड़ी एक स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई। बलराज कुछ उनींदा-सा हो गया। उसकी आँखें ज़रा-ज़रा खुली हुई थीं। सामने की सीट पर एक दढ़ियल सिपाही अजीब ढंग से मुँह बनाकर उबासियाँ ले रहा था। बलराज को ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे फ़्रैंकंस्टाइन का भूत सामने से चला रहा है। लैंप के निकट से एक छोटी-सी तितली उड़ी और बलराज के हाथ को छूती हुई नीचे गिर पड़ी। बलराज को अनुभव हुआ, मानो ऊषा ने उसका हाथ पकड़ा है। बहुत दूर से इंजन की सीटी सुनाई दी। बलराज को ऐसा जान पड़ा, जैसे ऊषा चीख़ उठी हो। उसके शरीर भर में एक कंपन-सा दौड़ गया। मुमकिन था कि बलराज की नींद उचट जाती, परंतु इसी समय गाड़ी चलने लगी और उसके हल्के-हल्के झूलों ने उसके उनींदेपन को दूर कर दिया।

(पाँच)

शर्मीली तबीअत का होते हुए भी बलराज काफ़ी सामाजिक है। अपरिचित या अल्प-परिचित लोगों से मिलना-जुलना और उन पर अच्छा प्रभाव डाल सकना उसे आता है; परंतु जाने क्या कारण है कि ऊषा के सामने आकर वही बलराज कुछ भीगी बिल्ली-सा बन जाता है। ऊषा अब लाहौर के ही एक कॉलेज में एम.ए. में पढ़ रही है। अब वह सुसंस्कृत, सभ्य और सामाजिक नवयुवती बन गई है। बलराज अब किसी कॉलेज में नहीं पढ़ता, फिर भी स्थानीय कॉलेजों के विद्यार्थियों में अत्यधिक लोकप्रिय है और विद्यार्थियों का नेता है। सभा-सोसाइटियों में ख़ूब हिस्सा लेता है, बहुत अच्छा भाषण दे सकता है। वह कवि है, लेखक है, चित्रकार है और ऊषा भी जानती है कि वह सभी कुछ है। इसी कारण वह बलराज को विशेष इज़्ज़त की निगाह से देखती है। परंतु बलराज जब ऊषा के सामने पहुँचता है, तब वह बड़ी निराशा के साथ अनुभव करता है कि उसकी वह संपूर्ण प्रतिभा, ख्याति और वाक्-शक्ति जाने कहाँ जाकर छिप गई है।

सूरज डूब चुका था और बलराज लारेंस बाग़ की सैर कर रहा था। अँधेरा बढ़ने लगा और सड़कों की बत्तियाँ एक साथ जगमगा उठीं। बाग़ में एक कृत्रिम पहाड़ी है। इस पहाड़ी के पीछे की सड़क पर अधिक आवागमन नहीं रहता। बलराज आज कुछ उदास और दु:खी था। वह धीरे-धीरे इसी सड़क पर बढ़ा चला जा रहा था।

इसी समय उसके नज़दीक से एक ताँगा गुज़रा। बलराज ने उड़ती निगाह से देखा, ताँगे पर दो युवतियाँ सवार हैं। अगले ही क्षण एक लड़की ने प्रणाम किया। बलराज के शरीर भर में आह्लाद की लहर-सी घूम गई। ओह, यह तो ऊषा है! बलराज ने ऊषा के प्रणाम का कुछ इस तरह जवाब दिया, जिससे उसने समझ लिया कि जैसे वह उसे ठहरने का इशारा कर रहा है। ताँगा कुछ दूर निकल गया था, ऊषा ने ताँगा ठहरवा लिया और स्वयं उतरकर बलराज के निकट चली आई। आते ही बड़े सहज भाव से उसने पूछा— “कहिए, क्या बात है?”

बलराज को कुछ भी नहीं सूझा। उसने ताँगा ठहरने का इशारा बिलकुल नहीं किया था, परंतु यह बात वह इस वक़्त किस तरह कह सकता था! नतीजा यह हुआ कि बलराज ऊषा के चेहरे की ओर ताकता ही रह गया।

ऊषा कुछ हतप्रभ-सी हो गई। फिर भी, बात चलाने की गरज़ से उसने कहा— “आपकी ‘सराय पर’ शीर्षक कविता मैंने कल ही पढ़ी थी। आपने कमाल कर दिया है।”

बलराज ने यों ही पूछ लिया— “आपको वह पसंद आई?”

“ख़ूब।”

इसके बाद बलराज फिर चुप हो गया। शायद उसके हृदय में अनेक भावों की आँधी-सी उठ खड़ी हुई कि कुछ भी व्यक्त कर सकना उसके लिए आसान नहीं था। जिस तरह तंग गले की बोतल ऊपर तक भर दी जाने के बाद, अपनी आंतरिक प्रचुरता के कारण ही, उलटा देने पर भी ख़ाली नहीं हो पाती, उसी तरह बलराज के हार्दिक भावों की घनता ही उसे मूक बनाए हुए थी। ऊषा प्रणाम करके लौटने ही लगी कि बहुत धीरे से बलराज ने पुकारा— “ऊषा!”

ऊषा घूमकर खड़ी हो गई। मुँह से उसने कुछ भी नहीं कहा, परंतु उसकी आँखों में एक बड़ा-सा प्रश्नवाचक चिह्न साफ़ तौर से पढ़ा जा सकता था।

बलराज ने बड़ी शिथिल आवाज़ में कहा— “आपको देखकर जाने मुझे क्या हो जाता है!”

ऊषा यह सुनने के लिए तैयार नहीं थी। फिर भी वह चुपचाप खड़ी रही।

क्षण-भर रुककर बलराज ने कहा— “आप सोचती होंगी, यह अजब बेहूदा आदमी है। हँसना जानता है, बोलना जानता है, मगर सच मानिए...”

बीच ही में बाधा देकर ऊषा ने कहा— “मैं आपके बारे में कभी कुछ नहीं सोचती; मगर आपको यह होता क्या जा रहा है?”

बलराज के चेहरे पर हवाइयाँ-सी उड़ने लगीं। उसे ऊषा के स्वर में कुछ कठोरता-सी प्रतीत हुई। तो भी बड़े साहस के साथ उसने कहा— “मैं अपने आंतरिक भाव व्यक्त नहीं कर सकता।”

ऊषा ने चाहा कि वह इस गंभीरतम बात को हँसकर उड़ा दे; मगर कोशिश करने पर भी वह हँस नहीं सकी। वह कुछ भयभीत-सी हो गई। उसने कहा— “मैं जाती हूँ।” और वह घूमकर चल दी।

बलराज एक क़दम आगे बढ़ा। उसके जी में आया कि वह लपककर ऊषा का हाथ पकड़ ले, परंतु वह ऐसा कर सका।

एक क़दम आगे बढ़कर वह पीछे की ओर घूम गया। उसी वक़्त ताँगे पर से एक नारी-कंठ सुनाई दिया— “ऊषा! ऊषा!”

(छः)

अभी परसों की ही बात है।

गर्मियों की इन छुट्टियों में लाहौर से विद्यार्थियों की दो टोलियाँ सैर के लिए चलने वाली थीं—एक सीमाप्रांत की ओर और दूसरी कुल्लू से शिमला के लिए। इस दूसरी टोली का संगठन बलराज ने किया था, और वही इस टोली का मुखिया भी था।

ऊषा के दिल में अभी तक बलराज के लिए आदर और सहानुभूति के भाव थे। बलराज के मानसिक अस्वास्थ्य को देखकर उसे सचमुच दु:ख होता था। वह अपने स्वाभाविक सहज व्यवहार द्वारा बलराज के इस मानसिक अस्वास्थ्य की चिकित्सा कर डालना चाहती थी। और संभवत: यही कारण था कि वह उसके साथ, अन्य दो-तीन लड़कियों समेत, कुल्लू यात्रा पर जाने को भी तैयार हो गई थी।

परंतु अभी परसों की ही बात है। शाम के समय बलराज ने अपनी पार्टी के सभी सदस्यों को चाय पर निमंत्रित किया। घंटे-दो-घंटे के लिए बलराज के यहाँ अच्छी चहल-पहल रही। हँसी-मज़ाक हुआ, गाना-बजाना हुआ और पर्वत-यात्रा के विस्तृत प्रोग्राम पर भी विचार होता रहा।

चाय के बाद, जब सभी लोग चले गए, बलराज ऊषा को उसके निवास-स्थान तक पहुँचाने के लिए साथ चल दिया। ऊषा ने इस बात पर कोई आपत्ति नहीं की।

माल रोड पर पहुँचकर बलराज ने प्रस्ताव किया कि ताँगा छोड़ दिया जाए और पैदल ही लारेंस बाग़ का चक्कर लगाकर घर जाया जाए। ऊषा ने यह प्रस्ताव भी बिना किसी बाधा के स्वीकार कर लिया।

दोनों जने ताँगे से उतरकर पैदल चलने लगे। ऊषा ने अनेक बार यह प्रयत्न किया कि कोई बात शुरू की जाए। बलराज भी आज अपेक्षाकृत कम उद्विग्न प्रतीत हो रहा था। फिर भी कोई भी बात मानो चली नहीं, पनप ही नहीं पाई।

क्रमश: वे दोनों नकली पहाड़ी के पीछे की सड़क पर जा पहुँचे। इस समय तक साँझ डूब चुकी थी, और सड़कों पर की बत्तियाँ जगमगाने लगी थीं।

इस निस्तब्धता में दोनों जने चुपचाप चले जा रहे थे कि मौलश्री के एक घने पेड़ के नीचे पहुँचकर बलराज सहसा रुक गया।

ऊषा ने भी खड़े होकर पूछा— “आप रुक क्यों गए?”

बलराज ने कहा— “उस दिन की बात याद है?”

उसका स्वर भारी होकर लड़खड़ाने लगा था। ऊषा कुछ घबरा-सी गई। बात टाल देने की गरज़ से उसने कहा, “चलिए वापस लौट चला जाए। देर हो गई है।”

मगर बलराज अपनी जगह से नहीं हिला। मालूम होता था कि उसके दिल में कोई चीज़ इतनी ज़ोर से समा गई कि वह उसका दम घोंटने लगी है। बलराज के चेहरे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं। काँपते हुए स्वर में उसने कहा— “ऊषा! अगर तुम जानतीं कि मैं दिन-रात क्या सोचता रहता हूँ!”

ऊषा अब भी चुप थी। उसके हृदय में विद्रोह की आग भभक पड़ी, मगर फिर भी वह चुपचाप खड़ी रही। सहन करती रही।

बलराज ने फिर से कहा— “ऊषा! तुम मुझ पर तरस खाओ। मुझ पर नाराज़ मत होओ।”

ऊषा ने कठोर और दृढ़ स्वर में कहा— “आपको नहीं मालूम क्या हो गया है। अगर आपने अब एक भी बात इस तरह की और कही, तो मैं आपसे कभी नहीं बोलूँगी।”

बलराज यह सुनकर भी सँभल नहीं सका। उसकी आँखों में आँसू भर आए और बड़े अनुनय के साथ उसने ऊषा का हाथ पकड़ लिया।

ऊषा ने तड़पकर अपना हाथ छुड़ा लिया और शीघ्रता से एक तरफ़ को बढ़ चली। चलते हुए, बहुत ही निश्चयपूर्ण स्वर में वह कहती गई— “मैं आपके साथ कुल्लू नहीं जाऊँगी।”

कुछ ही दूरी पर ऊषा को एक ख़ाली ताँगा मिला। उस पर सवार होकर वह अपने घर की ओर चली गई।

अगले दिन सुबह बलराज ने अपनी पार्टी के सभी सदस्यों के नाम इस बात की सूचना भेज दी कि वह कुल्लू नहीं जा सकेगा। किसी को मालूम भी नहीं हो पाया कि माज़रा क्या है और संपूर्ण पार्टी बर्ख़ास्त हो गई।

सीमा-प्रांत की ओर जाने वाली पार्टी सुबह की गाड़ी से ही पेशावर के लिए रवाना हुई है। अब से सिर्फ़ चौदह घंटे पहले। इस पार्टी को विदा देने के लिए बलराज भी स्टेशन पर पहुँचा था। ऊषा भी इसी पार्टी के साथ गई थी। अपने माँ-बाप से यात्रा पर जाने की अनुमति प्राप्त कर कहीं भी जाना उसे उचित प्रतीत नहीं हुआ। आज सुबह लाहौर स्टेशन पर ही बलराज ने इस पार्टी को कई तरह की नसीहतें दी थीं। किसी को उसके आचरण में असाधारणता ज़रा भी प्रतीत नहीं हुई थी। परंतु गाड़ी चलने से पहले ही, चुपचाप सबसे पृथक होकर वह तीसरे दर्जे के मुसाफ़िरों की भीड़ में जा मिला

बलराज स्टेशन से बाहर आया, तो दुनिया जैसे उसके लिए अंधकारपूर्ण हो गई थी। आसमान में सूरज बिना किसी बाधा के चमक रहा था। सड़कों पर लोग सदा की तरह आ-जा रहे थे। दुनिया के सभी कारोबार उसी तरह जारी थे, परंतु बलराज के लिए जैसे सभी ओर सूनापन व्याप्त हो गया था। कहीं कुछ भी आकर्षण बाक़ी रहा था। सभी कुछ नीरस, फीका— बिलकुल फीका हो गया था।

सड़क के किनारे फुटपाथ पर बलराज धीरे-धीरे बिलकुल निरुद्देश्य भाव से चला जा रहा था। हज़ारों, लाखों मनुष्यों से भरी यह नगरी बलराज के लिए जैसे बिलकुल निर्जन और सुनसान बन गई है। रह-रहकर जो इतने लोग उसके निकट से निकल जाते हैं, उसकी निगाह में जैसे बिलकुल व्यर्थ और निर्जीव हैं, चलती-फिरती पुतलियों से बढ़कर और कुछ भी नहीं।

एक ख़ाली ताँगा बड़ी धीमी रफ़्तार से चला रहा था। उसका कोचवान बड़ी मस्त और करुण-सी आवाज़ में गाता चला आता था—

“दो पहर अनाराँ दे!

फट मिल जाँदे, बोल जाँदे याराँ दे!

दो पहर अनाराँ दे,

सड़ गई ज़िन्दड़ी, लग गए ढेर अँगाराँ दे!”

बलराज ने यह सुना और उसके दिल में एक गहरी हूक-सी उठ खड़ी हुई। निष्प्रयोजन वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता चला गया, अंत में अनायास ही उसने अपने को विदेशी कपड़ों की एक दुकान के सामने पाया, जहाँ काँग्रेस के कुछ स्वयंसेवक पिकेटिंग कर रहे थे।

गाड़ी उड़ी चली जा रही है, और बलराज सपना देख रहा है। दुनिया के किसी एक कोने में मौलश्री का एक बहुत बड़ा पेड़ है। अकेला—बिलकुल अकेला। चारों ओर सघन अंधकार है। सिर्फ़ इसी वृक्ष के ऊपर नीचे, आसपास उजाला है। चारों तरफ़ क्या है, कुछ है भी या नहीं—कुछ नहीं मालूम। ठंडी, सनसनाती हुई हवा चल रही है। पेड़ के पत्ते ऊँची आवाज़ में इस तरह साँय-साँय कर रहे हैं, जैसे रेलगाड़ी भागी जा रही हो। इस पेड़ के नीचे सिर्फ़ दो ही व्यक्ति हैं—ऊषा और बलराज। ऊषा बलराज से बहुत दूर हटकर बैठना चाहती है, परंतु बलराज उसका पीछा करता है। वह जिधर जाती है, धीरे-धीरे उसी की ओर बढ़ने लगता है। ऊषा कहती है— “मेरे निकट मत आओ!” परंतु बलराज नहीं सुनता। वह बढ़ता चला जाता है, और अंत में लपककर ऊषा को पकड़ लेता है। ऊषा उससे बहुत नाराज़ हो गई। वह कहती है, मैं तुम्हें अकेला छोड़ जाऊँगी। सदा के लिए, अनंत काल के लिए। फिर कभी तुम्हारे पास आऊँगी। बलराज उससे माफ़ी माँगता है, गिड़गिड़ाता है, परंतु वह नहीं सुनती। चल देती है एक तरफ़ को। गहरे अंधकार में। बलराज चिल्ला रहा है और ऊषा उसकी पुकार सुने बिना अंधकार में विलीन होती जा रही है।

गाड़ी की रफ़्तार बहुत धीमी हो गई है। उनींदी-सी दशा में बलराज बड़े ही कातर स्वर से धीरे से पुकार उठा— “ऊषा! ऊषा! तुम लौट आओ, ऊषा!”

इसी वक़्त एक सिपाही ने चिल्लाकर कहा, “उठो। मिन्टगुमरी का स्टेशन गया!”

बलराज चौंककर उठ बैठा। उसने देखा, रात के दो बजे हैं, और उसके हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हुई हैं।

‘इंक़लाब ज़िंदाबाद!’ और ‘महात्मा गांधी की जय!’ के नारों से मिन्टगुमरी के रेलवे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म रात के गहरे सन्नाटे में भी सहसा गूँज उठा।

स्रोत :
  • पुस्तक : इक्कीस कहानियाँ (पृष्ठ 196)
  • संपादक : रायकृष्ण दास, वाचस्पति पाठक
  • रचनाकार : चंद्रगुप्त विद्यालंकार
  • प्रकाशन : भारती भंडार, इलाहाबाद
  • संस्करण : 1961

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