यह एक बेहद दर्दनाक हादसा था जो मैंने अपनी आँखों से देखा था। पारुल और मैं बातें करती हुई कच्ची सड़क से गुज़र रही थी। रास्ते के मोड़ पर पारुल मुझसे थोड़ी आगे निकल गई, जबकि मेरे पैर में ईंट का टुकड़ा चुभने से मैं पीछे रह गई थी। जब मैं अपने को थोड़ा संभाल पाई मैं भी मोड़ तक पहुँची और पारुल के पास हो ली। और तुरंत वह दृश्य दिख गया। मैंने पिछले ही दिन जिन तीन लोफ़रों जैसे लड़कों को देखा था। उन्हीं में से एक ने पारुल पर एसिड से भरी बोतल फेंक मारी। उसी क्षण जलन से बिलखती-चिल्लाती पारुल ज़मीन पर लुढ़क गई। मुझे पूरा यक़ीन था कि उसे गुंडे ने पारुल पर एसिड ही फेंका था। जब तक मैं पास पहुँचकर अपना ग़ुस्सा उन पर उतारती, वे भाग चुके थे। मैं बेहद आतंकित और दुखी हो, एक असहाय स्थिति में खड़ी की खड़ी रह गई।
चारों तरफ़ से लोग दौड़ पड़े थे। असह्य जलन के कारण पारुल चीख़ती जा रही थी, पर मैं किंकर्तव्यविमूढ़, अपना होशहवास खो चुकी थी। किसी तरह गिरते पड़ते पारुल तक आई तो देखा एसिड का सर्वाधिक प्रभाव उसके एक ओर के गाल और आँख पर हुआ था। भय से मैंने अपनी आँखें फेर लीं। गाँव के लोग पारुल को तुरंत अस्पताल ले जाने को बातें कर रहे थे।
चारों तरफ़ भीड़ और कोलाहल के माहौल को भेद पारुल को वहाँ से वे उठाकर अस्पताल ले गए। मैंने पीछे मुड़ कर पारुल के घर की ओर क़दम बढ़ाया। कारण पारुल के माँ-बाप को ऐसी हालत में मुझे ही जाकर सांत्वना देनी चाहिए, उन्हें ढांढस भी बँधाना चाहिए, ऐसा मैंने सोचा। मैं आगे तो बढ़ रही थी पर मेरी अनुभूतियाँ सुन्न पड़ गई थीं, सारा विचार-बोध मैं खो बैठी थी।
गाँव में हमारी पैतृक ज़मीन थी। दो हिस्सा भाई का, और एक हिस्सा मेरा। मेरी माँ कहा करती, अफरोजा लड़की है गाँव जाना, वहाँ ज़मीन जाएदाद की बातें करना उसके वश का नहीं हैं। अत: भाई कह तो नहीं सकता था, पर उसे गाँव जाना और धान की वसूली, यह सब काम स्तरीय नहीं लगते थे। वह ढाका के शहरी वातावरण में पला बड़ा हुआ था। ढाका में वह युनिवर्सिटी में पढ़ता था, साथ ही लेफ्टिस्ट दल में राजनीति करने वाला। इसके बावजूद माँ का दिल रखने के लिए भाई गाँव चला तो जाता था, पर गाँव जाकर वह गाँव वालों को उलटी पट्टी पढ़ाने लगा था। खेतिहर किसानों से वह कहता फिरता, ‘जो जोतेगा खेत उसी का,’ उन्हें समझाने लगा, ‘तुम्हारी मेहनत तो धान भी तुम्हारा। पसीना तुम बहाते हो, मेहनत तुम करते हो और हम शहर से आकर आधे हिस्से पर हाथ जमा लेते हैं। यह सरासर गैर कानूनी हैं, अब से यह भागीदारी बंद। पूरा का पूरा धान तुम रख लिया करो।’
दूसरी ओर भाई माँ के पास ढाका आकर कुछ और ही राग अलापता। माँ से गाँव वालों की नालिश करता, मैं गाँव नहीं जाता। गाँव वाले मेरी बिल्कुल नहीं सुनते। मुझे धान देने से इंकार करते हैं। इससे तो भला यही होगा कि हम अपना हिस्सा लेना छोड़ दें। धान उन्हें ही पूरा का पूरा दे दिया जाए।
अब तो पिताजी भी नहीं थे। माँ प्राय: अस्वस्थ रहतीं। गाँव में जाना, धान की वसूली, यह माँ के बस का नहीं था। पारुल के पिता मेरी माँ के क़रीब-क़रीब मैनेजर बन ही चुके थे। अत: धान के मामले में जितना कुछ बन पड़ता, उनके ऊपर ही माँ भरोसा करने लगी। सारा कुछ वे ही संभालने लगे। बदले में उन्हें मेरी माँ ने अपने पक्के मकान का एक बड़ा कमरा दे दिया था। पारुल के पिता अर्थात् बदरुद्दीन सपरिवार वहाँ रहने लगा था। वह बेहद ग़रीब था। माँ के हिस्से की ज़मीन वही जोतता, जो मकान के साथ था। सारी फसल वही उठा लेता। क़रीब दस-बारह बच्चे थे। छह बच्चों को वह बेच चुका था, कारण बच्चों को खिला पिला नहीं सकता था। मेरे भाई की बात उसने क़तई न सुनी, उल्टा माँ से आकर कहने लगा, ‘आप हमारे मालिक हमारे प्रभु हैं। आपकी ज़मीन पर हम हक़ जमा लें यह तो पूरा अधर्म है। इससे ऊपर वाले हमें सज़ा ज़रूर देंगे। आपका पूरा हक़ बनता है कि आप आधा धान लें। आपका बेटा यह सब उल्टी-सीधी गाँव वालों को क्या सलाह दे रहा है इस प्रकार भाई से बदरुद्दीन की नहीं पटती थी।
इस घटना के बाद माँ ने भी रूठ कर भाई को गाँव भेजना बंद करवा दिया। सारा लेन-देन जैसा जब चाहे, बदरुद्दीन ही करने लगा था।
इसी बीच भाई एक दिन विदेश उड़ गया। माँ समझ गई अब हमारी ज़मीन की रखवाली नामुनकिन है। अत: माँ ने बदरुद्दीन के जरिए आहिस्ता-आहिस्ता ज़मीन बेचनी शुरू कर दी थी। लेकिन बदरुद्दीन ख़रीदारों के साथ ठीक से पेश नहीं आता था। माँ ने इसी कारण मुझे गाँव भेज कर चाहा था कि बची-खुची ज़मीन मैं बेच बाच कर छुट्टी कर लूँ। दो बार पहले भी मैं इसी कारण गाँव आ चुकी थी। माँ की बची-खुची ज़मीन मैं बेच कर चली जाऊँ और गाँव से हमारा पूरा रिश्ता ख़त्म हो जाए, यह स्थिति बदरुद्दीन को बहुत भा रही थी कारण उसे हमारा गाँव वाला मकान पूरा मिल जाएगा, माँ इसे ही दे देंगी, वह जानता था।
मैं गाँव में जाकर जिस कमरे में रहती थी, बदरुद्दीन उसके बग़ल वाले कमरे में ही परिवार सहित रहता था। उसकी एक लड़की क़रीब तेरह-चौदह साल की थी। बड़ी-बड़ी आँखें और भोली भोली सांवली सूरत वह हरदम मेरे पीछे-पीछे घूमती। मेरी हर ज़रूरत पर नज़र रखती, कहती ‘फूफू तुम बैठो मैं ला देती हूँ या मैं कर देती हूँ। कहीं जाना होता तो वह मेरे संग हो लेती। उसका नाम पारुल था, पर हम उसे पारू बुलाते थे।
बीते कल मैं उसी पारुल को साथ लेकर दूर के रिश्ते के अपने चाचा के घर जा रही थी। एक बड़े फैले हुए इमली के पेड़ के नीचे देखा तो पाया कि आवारा लड़के वहाँ खड़े-खड़े अड्डा मार रहे थे। यह देख पारू ढिठक गई, फिर बोली चलो फूफू दूसरा रास्ता पकड़ते हैं। उसकी आँखों में बेहद विरक्ति की भावना झलक रही थी। मैंने पूछा ‘ये लड़के कौन है?’ ‘चेयरमैन का लड़का नाम रमीज़ है और साथ के दो लड़के उसी के दोस्त।’ ‘उन्हें देख तू इतनी डर क्यों गई, मैं तो तेरे साथ हूँ न?’ पारू तब तक मेरी बग़ल में आ गई थी। जब हम लड़कों के बग़ल से होकर गुज़रे तो उन्होंने हमें देख सीटी बजाई। मुझे तभी ताज्जुब हुआ। कारण मेरे जैसे उम्र वाली महिला पारू के साथ थी फिर भी लड़कों की यह जुर्रत हुई कैसे? तब मैं समझी कि पारू यों ही नहीं डर रही थी।
मेरे साथ चलते-चलते पारू कहती जा रही थी, ‘रमीज़ बहुत बदमाश है, वह कहता है कि अगर मैं उसके प्रस्ताव से सहमत न हुई तो वह मुझे उचित सीख देगा।’
क्या है वह प्रस्ताव? यह पूछना मेरे लिए उचित नहीं होगा। यह मैं समझ चुकी थी, जैसे ही मैंने पारू की नज़रों में झाँका था।
‘तुमने अपने पापा-माँ से यह बताया है?’ ‘फ़ायदा क्या है, वे कुछ कर तो नहीं पाएँगे फिज़ूल ही सोच में पड़ जाएँगे। वे तो इतने शैतान हैं कि गाँव में सभी उनसे दूर भागते हैं।’
‘तो उसके पिता जी से तो नालिश कर सकती हो?’ इस बात से पारू हँस पड़ी। मुझे लगा हँसने की बजाए पारू रो पड़ती तो बेहतर था। कारण उसकी वह हँसी बेहद दर्दनाक थी, बेबसी से भरी। टेढ़े भेढ़े रास्ते से गुज़रते समय पारू रमीज़ के बाप के कुकर्मों का वर्णन करने लगी।
‘चेयरमैन उस बाप ने तीन-तीन शादियाँ की हैं। आख़िरी वाली को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ निकाह कर के लाया है। लड़की जवान और उसका एक जवान प्रेमी भी है। लड़की के माँ-बाप का मुँह रुपयों से उसने बंद किया था। वह प्रेमी लड़का काम से कहीं बाहर गया तो लौट कर उसने देखा, उसकी प्रेमिका चेयरमैन की तीसरी ब्याहता है। लड़की भी कम ज़िद्दी न थी। एक रात प्रेमी के साथ भाग खड़ी हुई।
चेयरमैन का खौफ़नाक रूप अब बहुतों के लिए डर का कारण बन गया। उस जवान लड़की की बर्बादी अब क़रीब है, ऐसा सब सोचने लगे थे। ख़ौफ़ हकीक़त में बदल गया। एक रात गाँव के कुछ लोग बाहर से लौटते हुए संकरी पगडंडी से गुज़र रहे थे। पूर्णमासी की रात थी। कुछ आहट होते ही टार्च मार कर उन लोगों ने देखा एक लड़की की मृत देह पड़ी है। मुँह कुचला हुआ और सारा शरीर क्षत-विक्षत है। अत: वह पहचान में नहीं आ रही थी, तो भी लोगों ने अनुमान लगा लिया। इसकी मौत तालाब के पानी में हुई थी। वहीं उसके प्रेमी की मृत देह भी फूल कर तैरती मिली थी। सभी समझ रहे थे कि यह काम किसका है। किसी ने शायद थाने में रपट भी पहुँचाई थी। घटना की जानकारी थाने के दरोगा को भी थी। इतना होते हुए भी केस बीच में ठप्प हो गया था। चेयरमैन के विरुद्ध कोई ठोस प्रमाण लाने नहीं दिया गया। ऊपर से थाने का दरोगा भी किसी झमेला में फंसना नहीं चाहता था। चेयरमैन की प्रस्तावित रक़म की राशि काफ़ी मन माफिक थी। बनिस्पत इसके कि चेयरमैन के गुंडों की मार खाए।
यह दस वर्ष पहले की बात है। केस दब गया था, कारण गाँव के लोग तब इतने सचेत न थे। अब वे ही किसान चालाक, समझदार भी हैं। अब बाप की कुर्सी लड़के ने ले ली है, अत: उसके विरुद्ध नालिश करना विपत्ति को न्योता देना है। बात तो बस पिछले ही दिन की थी। मैंने सोचा ही नहीं था कि दूसरे ही दिन रमीज़ ऐसा कांड कर बैठेगा। अगर मैंने एसिड वाली घटना आँखों से न देखी होती तो इन बातों की अनसुनी कर जाती।
मैं घर की ओर लौट ही रही थी कि घर के सामने एक बड़े से आम के वृक्ष के नीचे बदरुद्दीन की औरत गुमसुम बैठी दिखी। मुझे देखते ही बुक्का फाड़कर रोने लगी। चारों ओर से महिलाएँ उसे घेरे हुए थीं। मैं समझ गई कि ख़बर उसे पहले ही मिल गई है। उसे ढांढस दिलाते हुए मैं बोली, ‘उस लड़के को मैं जेल भिजवा कर रहूँगी।’ बदरुद्दीन की बीवी का कहना था—‘सर्वनाश तो हो चुका है, मेरी बेटी से अब निकाह कौन करेगा?’ मैं आक्रोश से पागल हो रही थी। भीतर ही भीतर आग उगल रही थी और सोच रही थी कि चेयरमैन कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, मैं उससे टक्कर लेकर रहूँगी। इतना आत्म-विश्वास मुझमें था। अत: बदरुद्दीन के एक लड़के को लेकर मैं थाने पहुँची, जो कोई ख़ास दूर नहीं था। एक स्वच्छ सफ़ेद चौपाल थी, जिसके सामने और पीछे आम के बग़ीचे थे। गेट पर पहरेदार भी थे। भीतर कुर्सी पर ओ० सी० (दरोगा) बैठे थे। आसपास गाँव के कुछ लोग उन्हें घेरे हुए थे। शायद घटना का वर्णन कर रहे होंगे। मुझे देखते ही खिसक गए। ओ०सी० कम उम्र का लम्बे डील डौल काला नौजवान था। कुर्सी से उठकर उसने मेरा अभिवादन किया। मेरे वहाँ पहुँचने पर अवाक् होकर बोला, ‘मुझे ही बुला लिया होता, मैडम! मैं जो यूनिवर्सिटी में आपसे पत्रकारिता पढ़ता था। अनेक छात्रों की भीड़ में शायद आप मुझे पहचान न पाई हों।’.
‘आप किस बैच में थे’—मैंने पूछा था। ‘पहले आप बैठिए। कैसे आना हुआ?’ मुझे एहसास हुआ—पुलिस अधिकारी होने पर भी यह मनुष्यत्व भूला नहीं है। मैं ख़ुश हुई। ‘मैडम! मैं 1980 के बैच में था। मेरा नाम अज़ीजुल हक है।’ ‘चलिए ख़ुशी हुई कि आप ही यहाँ पर पोस्टेड मिले। मुझे डर था, कहीं मेरी बात सुनने से दरोगा इनकार न कर दे।’ हंसते हुए अज़ीजुल हक ने कहा—‘दुख तो इसी बात का है कि इस पेशे में पहले ही हमे उलआ समझ लिया जाता है।’
‘ख़ैर, मैं तो इंसान हूँ—हर पेशे में कोई न कोई ईमानदार तो होता ही होगा। आप बताइए, घटना तो आपने सुन ही ली है। मैंने स्वयं आँखों से देखा है और चाहती हूँ कि रमीज़ को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले। ‘हाँ, जितना मैंने सुना है, मैं आपसे सहमत हूँ, गुनहगार को सज़ा तो मिलनी चाहिये जिससे कि आइंदा ऐसी दुर्घटनाएँ न हों।’
मैंने कहा, ‘हर रोज अख़बार खोलते ही बस यही सब दुर्घटनाएँ। पर ऐसा क्यों होता है? कारण, कानून का बन जाना ही काफ़ी नहीं है। उस पर ठीक अमल भी होना चाहिए। कानून एक मखौल बनकर रह गया है। दोषी के भागने के वहाँ अनेक सुराख हैं। अज़ीजुल सहमति जताते हुए बोला—‘मैडम! घटना जो घटती है वह विचार तक पहुँचते हुए क्या रूप लेती है, यही बड़ी बात है। कारण, अमीर लोग गवाहों को मोटी रक़म देकर उनका मुँह पहले से ही बंद कर देते हैं और सारा क़सूर पुलिस के सिर मढ़ दिया जाता है।’ अज़ीजुल ने मेरा समर्थन
पाकर अपना दु:खड़ा सुनाया था—‘मैडम जानती हैं, बेहद क्षमता और बेहद संपन्नता, समाज में विचार को शिथिल बनाती है। क़रीब दो साल पहले की बात है, दस साल की बच्ची से गाँव के लड़के ने रेप किया। मैंने ही रेप का मामला दर्ज किया था। वह लड़का एक प्रभावशाली और धनाढ्य बाप का था। लड़की की चीख़ स्वयं उसकी चाची ने सुनी थी और बाहर आकर देख लिया था। लड़का भाग खड़ा हुआ और भागते समय एक पाँव की चप्पल छूट गई थी। जब गवाही देने प्रधान रूप् में चाची कोर्ट में बुलाई गई तो जो सच उसने थाने में कहा था वह न बोल कर वह बोली—‘मैने लड़के को धान के खेत से भागते हुए देखा था, लड़की के आसपास से नहीं।’ जज साफ़ समझ गए थे कि गवाह रुपया खाकर पलट गया है, अत: कुछ किया न जा सका और दोषी बेकसूर छूट गया था। आज भी वह छाती फुलाकर घूम रहा है। उस जज से मैं एक जलसे में मिला था। वह मेरे रिश्तेदार थे। मैंने उनसे पूछा था, ऐसा ग़लत काम आपने कैसे किया? उत्तर में उन्होंने कुछ इस प्रकार कहा—‘कानून में अंदाज़न कोई बात नहीं होती। प्रमाण का लिखित बयान सत्य से मिलता होना चाहिए। दोनों हालातों में यह कमज़ोर साबित हुआ और मैं कुछ नहीं कर सका। यहाँ तक कि कम से कम दो साल की जेल की सजा उसे मिलनी ही चाहिए थी।’
अब तक मैं साँस रोके सुन रही थी। मेरे मुँह से इतना ही निकला—‘बड़े-बड़े वकीलों को बड़े लोग ख़रीद लेते हैं और न्याय के सुराखों से बाहर हो जाते हैं। सज़ा केवल ग़रीब भुगतते हैं।’ मेरे चेहरे की नसें क्रोध से तन गई थीं। मैंने कहा, ‘किसी भी हालत में इस केस को कमज़ोर नहीं होने दूँगी। जहाँ तक बन पड़ेगा, रिपोर्टर, अख़बार, ऊँचे से ऊँचे ओहदे के अधिकारी तक पहुँचूँगी। सो, अज़ीजुल से मैंने बार-बार निवेदन किया कि लड़का छूटना नहीं चाहिए। अज़ीजुल ने मुझे आश्वस्त किया।
सब कुछ निपटा कर घर लौटी तो शाम ढल चुकी थी। पारुल के माँ-बाप अस्पताल में ही थे। केवल कुछ पड़ोसी घर पर भीड़ लगाये थे। उन्हीं से पता चला कि पारुल के एक गाल और आँख पर पट्टी है, जहाँ उसे ख़ासी चोट पहुँची है। वह कह रहे थे—शायद आँख चली जाएगी। वह अस्पताल में पड़ी-पड़ी दर्द से बेहद कराह रही है। मुहल्ले के एक लड़के को साथ लेकर मैं अस्पताल के लिए रवाना हुई, पर मूसलाधार बारिश ने हमारा रास्ता रोक लिया। इतने में रोती-बिलखती पारुल की माँ देर रात घर लौटी। बाप पारुल के साथ ही अस्पताल में ठहरा था।
मैंने अपने मोबाइल का इस्तेमाल कर कई-कई अख़बारों में ख़बर दी। सभी को मैंने खुल कर भंडाफोड़ करने की सलाह दी। दूसरी सुबह मुझे फ़ोन पर बताया गया कि काफ़ी बड़े अख़बारों में एक पन्ने की ख़बरें छप चुकी हैं। और यह भी बताया गया कि काफ़ी बड़े रिपोर्टर गाँव की ओर रवाना हो चुके हैं, आँखों देखा हाल दर्ज करने के लिए। अब मेरे मन को कुछ सुकून मिला। दोपहर तक संवाददाताओं के साथ मैं अज़ीजुल हक के थाने में जाकर मिली। अज़ीज़ुल ने पुन: मुझे तसल्ली देते हुए घर चले जाने को कहा और भरोसा दिया कि हादसे की छोटी-मोटी बातें भी वह दर्ज कर लेगा। और लड़की की एक आँख नष्ट हो जाने की ख़बर पाकर दु:ख भी जताया। यह भी बताया कि लड़का फरार है और उसके पिता अज़ीजुल के पास आए थे। सुनते ही मैं आगबबूला हो गई और बोली—‘किस मतलब से आया था वह बदमाश?’
‘रुपयों से मुझे ख़रीदना किसी भी हालत में संभव नहीं।’ इसलिए चेयरमैन मुझे मीठी-मीठी बातों से पटा रहा था। पारुल के इलाज का सारा ख़र्च वह देगा। यह भी कह रहा था कि इस घिनौने काम के लिए दोषी को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाई जाएगी।’ ‘इस प्रकार पलटी खाना तो उस जैसे बदमाश के लिए यक़ीन के क़ाबिल नहीं है। ज़रूर वह कोई नई चाल चल रहा है। भला अपना लड़का जानकर भी।’ मैंने कहा अज़ीजुल ने बात काटते हुए कहा—‘हाँ, उसने कहा अगर और प्रमाण से साबित होता है कि यह काम मेरे लड़के ने किया है, मैं ख़ुद उसे पकड़कर थाने के सुपुर्द कर दूँगा। पर यदि मेरे विपक्ष में किसी दुश्मन के द्वारा की गई वारदात है तो मैं लड़ जाऊँगा और किसी बनावटी बात का सहारा लिए बिना अपने लड़के को बचा लूँगा। मैं ग़ुस्से में धधक उठी—‘इन बातों का अर्थ?’
अज़ीजुल पुन: बोला, ‘आप शांत हों। पारुल के अस्पताल से घर लौटते ही मैं सारे बयान उसके मुँह से सुनकर रिकार्ड कर लूँगा।’
मेरे दिमाग़ में तरह-तरह की चिंताएँ दौड़ने लगी। अस्पताल से लौटते समय कहीं चेयरमैन के गुंडे पारुल को मार तो नहीं डालेंगे। सारे गाँव का चक्कर लगाकर अब तक संवाददाताओं ने काफ़ी समाचार इकट्ठे कर लिए थे।
चिंताओं से मुझे मुक्ति मिली, जब पारू को लेकर उसका बाप घर लौटा। अज़ीजुल भी अपने सिपाहियों को लेकर पहुँच गया था। कई पत्रकार भी हाज़िर थे। सबको चौंकाते हुए चेयरमैन स्वयं अपने संगी साथियों सहित पारू के घर हाज़िर हो गए थे। उनका परिचय अज़ीजुल ने मुझसे कराया। अदब के साथ मुझे सलाम करते हुए बोले, ‘आप जैसी इज़्ज़तदार हस्ती इस गाँव की गरिमा हैं। यदि ज़मीन जाएदाद बेचकर गाँव छोड़कर चली जाएँगी तो हम जैसे मूर्खो को कौन पढ़ाएगा, कौन सिखाएगा?
चेयरमैन की चिकनी-चुपड़ी बातों से मन ही मन मैं जल भुन रही थी, पर ऊपर से काफ़ी शांत और भद्र बनी हुई थी। आम और बेर के वृक्ष तले बड़ा सा आँगन था, जहाँ कुर्सियाँ लगाई गई थीं। हमारे बैठक का अच्छा इंतज़ाम किया गया था। चेयरमैन शायद जान-बूझकर अज़ीजुल के बग़ल की कुर्सी पर बैठ गए। मैंने काफ़ी फासला रखकर आमने-सामने होकर बैठना ठीक समझा। एक पत्रकार युवक अपनी कुर्सी खींचकर मेरी बग़ल में आ बैठा। गाँव के बड़े-बूढ़े जवान सभी हमें घेरकर खड़े हुए थे, सबकी आँखें कुतूहल से भरी थीं। बदरुद्दीन पारू को बुलाने घर के अंदर घुसा। उसका व्यवहार मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लग रहा था। मैं इंतज़ार में थी, मुझसे सलाह के लिए ज़रूर मेरे पास आएगा, जबकि वह मेरे आस-पास भी नहीं फटका। मुझसे ज़रूर मिले ऐसा मैंने दोपहर को उसकी बीवी से कह दिया था। बीवी ने मुझसे हामी भी भरी थी, पर वह आया ही नहीं। उसकी बीवी भी कुछ अलग-थलग रह रही थी, मानो मेरे साथ पारू निकली थी इसी कारण उसे एसिड की बोतल का शिकार होना पड़ा, पर मैंने सोचा आज नहीं तो कल रमीज़ उसे शिकार ज़रूर बनाता उसने तो पारू से कह ही दिया था।
पारुल इस बीच माँ-बाप के साथ धीरे-धीरे घर से बाहर आती दिखी। चारों तरफ़ भीड़ ही भीड़ और तरह-तरह की बातें गूँज रही थीं। मेरे कान के पास मुँह लाकर फिसफिसा कर रिपोर्टर बोला, ‘आज सुबह चेयरमैन के संगी साथी अस्पताल में बदरुद्दीन से मिलकर आए हैं।’ मैं काफ़ी सतर्क होकर थोड़ी हिल-डुलकर बैठी। पारुल आँगन के बीच कुर्सी पर बैठाई जा चुकी थी। पारुल मुझसे आँखें नहीं मिला रही थी। अभी सूरज आम के पत्तों के झुरमुट में से झाँक रहा था। एक मुर्ग़ी झुँड में अपने बच्चों के साथ कंक्-कंक् करती हुई हमारे बीच आ गई थी। पेड़ पर कौवे एक साथ काँव-काँव कर उठें। इस बीच बुलंद आवाज़ में अज़ीजुल ने पारुल से पूछा, ‘तुम पर जिसने ऐसिड फेंका है, उसे तुम पहचानती हो?’
चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। पारू ने बाप को एक बार देखकर आँखें ज़मीन पर गड़ा लीं। माँ-बाप दोनों ने मेरी ओर पीठ कर रखी थी, पारुल की ओर मुँह। दुबारा अज़ीजुल ने पूछा, ‘घबराओ मत, हम सब तुम्हारे साथ हैं कहो किसने फेंका था ऐसिड? उसे पहचानती हो। उसका नाम बताओ।’ अब फिसफिसा कर पारू क्या बोली कुछ भी सुनाई नहीं दिया। तीसरी बार और एक कोशिश की गई। दरोगा ने अपना सिर थोड़ा झुकाते हुए एक बार फिर पूछा। चेयरमैन ने पारुल के मुँह के पास मुँह ले जाकर पूछा—‘बोलो माँ बोलो क्या तुम उसे पहचानती हो? प्यारी मेरी माँ बोलो।’ मानो दुनियाँ भर में पारुल को प्यार करने वाला एक वही फ़रिश्ता था। पारुल ने पल भर आँखें उनकी आँखों में डाली और बोली, ‘नहीं’ और आँखें पुन: ज़मीन पर गड़ा लीं।
मुझे लगा पारू पागल हो गई है। भला वह क्यों इतना बड़ा झूठ बोल रही है। मुझसे रहा न गया तड़ाक से बोली, ‘हाँ पारू ने रमीज़ को पहचाना था। मैंने भी पहचाना, क्योंकि मैं भी उसके साथ थी।’
बड़ी विनयपूर्वक चेयरमैन बोले, ‘आप उसे पहचानती थी?’
‘नहीं पिछले ही दिन पारू ने उसे दिखलाया था और नाम रमीज़ बताया था।’
शाम हो गई थी ऊपर से एक दिन का देखा चेहरा, आप ग़लत भी देख सकती हैं।’ ‘नहीं शाम नहीं काफ़ी धूप थी तब तक।’
‘लेकिन पारू तो कह रही है नहीं पहचानती। फिर आप कैसे...’
केस का फल क्या होगा, मैं समझ गई थी। भीड़ में कानाफूसी जारी थी। सब संदेह की दृष्टि से माहौल को परख रहे थे। भीड़ धीरे-धीरे हल्की होती गई। पारू को उसके माँ-बाप पकड़कर अंदर ले जाने लगे। पल भर के लिए पारू ने मेरी आँखों में झाँका। वहाँ मुझे दिखा—केवल दुख-दर्द का अहसास और प्रार्थना। उस असहाय दृष्टि को मैं भूल नहीं पाई।
मेरा शहर लौटने का समय होने लगा। अकेली स्टेशन की ओर चल पड़ी। हर बार बदरुद्दीन साथ आता था, वैसा न हुआ। उसकी बीवी भी मुझसे भेंट करने नहीं आई, न किसी ने विदाई दी। स्टेशन के क़रीब एक पेड़ की आड़ में अज़ीजुल हक खड़ा मिला—‘मैडम आप जा रही हैं।’ ‘हाँ, ‘चलिए आपको ट्रेन तक छोड़ आता हूँ।’ बदरुद्दीन की अहसानफरामोशी पर दरोगा भी दुखी था। दोनों चुपचाप चल रहे थे। धीरे से अज़ीजुल ने कान तक मुँह ले जाकर कहा, ‘पारू झूठ क्यों बोली मैं जानता हूँ। बदरुद्दीन को बीस हज़ार रुपए चेयरमैन ने दिए हैं। ‘बीस हज़ार! आश्चर्य से मैं दरोगा का मुँह देखती रही।
‘हाँ, यदि न लेता तो उसे केस करना पड़ता। गाँव शहर की दौड़ा-दौड़ी। यहाँ-वहाँ जाना। ख़र्च अलग। बदमाश लोग और न जाने क्या-क्या नुक़सान करते? आप कब तक पहरा देतीं?’
मैं कड़वी हँसी हँस कर बोली, ‘यह कानून है? न्याय है?’
‘हाँ न्याय! कारण काफ़ी हद तक सच क्या है, गाँव वाले सभी जान चुके हैं! चेयरमैन का सिर भी झुका है। उसे ज़ुर्माना भी देना पड़ा है 2000 रुपए। धीरे-धीरे गाँव वाले और जाग उठेंगे। तब यह न्याय का तमाश नहीं चलेगा। सिद्धांत सिर उठाकर देखेगा।’
दूर से ट्रेन की सीटी सुनाई दी। उसकी रफ़्तार काफ़ी धीमी थी। इंजन की तेज़ बत्ती ट्रेन के स्टेशन आने का समाचार दे रही थी।
ye ek behad dardanak hadasa tha jo mainne apni ankhon se dekha tha. parul aur main baten karti hui kachchi saDak se guzar rahi thi. raste ke moD par parul mujhse thoDi aage nikal gai, jabki mere pair mein iint ka tukDa chubhne se main pichhe rah gai thi. jab main apne ko thoDa sambhal pai main bhi moD tak pahunchi aur parul ke paas ho li. aur turant wo drishya dikh gaya. mainne pichhle hi din jin teen lofron jaise laDkon ko dekha tha. unhin mein se ek ne parul par esiD se bhari botal phenk mari. usi kshan jalan se bilakhti chillati parul zamin par luDhak gai. mujhe pura yaqin tha ki use gunDe ne parul par esiD hi phenka tha. jab tak main paas pahunchakar apna ghussa un par utarti, ve bhaag chuke the. main behad atankit aur dukhi ho, ek ashay sthiti mein khaDi ki khaDi rah gai.
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charon taraf bheeD aur kolahal ke mahaul ko bhed parul ko vahan se ve uthakar aspatal le ge. mainne pichhe muD kar parul ke ghar ki or qadam baDhaya. karan parul ke maan baap ko aisi haalat mein mujhe hi jakar santvna deni chahiye, unhen DhanDhas bhi bandhana chahiye, aisa mainne socha. main aage to baDh rahi thi par meri anubhutiyan sunn paD gai theen, sara vichar bodh main kho baithi thi.
gaanv mein hamari paitrik zamin thi. do hissa bhai ka, aur ek hissa mera. meri maan kaha karti, aphroja laDki hai gaanv jana, vahan zamin jayedad ki baten karna uske vash ka nahin hain. atah bhai kah to nahin sakta tha, par use gaanv jana aur dhaan ki vasuli, ye sab kaam stariy nahin lagte the. wo Dhaka ke shahri vatavran mein pala baDa hua tha. Dhaka mein wo yunivarsiti mein paDhta tha, saath hi lephtist dal mein rajaniti karne vala. iske bavjud maan ka dil rakhne ke liye bhai gaanv chala to jata tha, par gaanv jakar wo gaanv valon ko ulti patti paDhane laga tha. khetihar kisanon se wo kahta phirta, ‘jo jotega khet usi ka, unhen samjhane laga, ‘tumhari mehnat to dhaan bhi tumhara. pasina tum bahate ho, mehnat tum karte ho aur hum shahr se aakar aadhe hisse par haath jama lete hain. ye sarasar gair kanuni hain, ab se ye bhagidari band. pura ka pura dhaan tum rakh liya karo. ’
dusri or bhai maan ke paas Dhaka aakar kuch aur hi raag alapta. maan se gaanv valon ki nalish karta, main gaanv nahin jata. gaanv vale meri bilkul nahin sunte. mujhe dhaan dene se inkaar karte hain. isse to bhala yahi hoga ki hum apna hissa lena chhoD den. dhaan unhen hi pura ka pura de diya jaye.
ab to pitaji bhi nahin the. maan prayah asvasth rahtin. gaanv mein jana, dhaan ki vasuli, ye maan ke bas ka nahin tha. parul ke pita meri maan ke qarib qarib mainejar ban hi chuke the. atah dhaan ke mamle mein jitna kuch ban paDta, unke uupar hi maan bharosa karne lagi. sara kuch ve hi sambhalne lage. badle mein unhen meri maan ne apne pakke makan ka ek baDa kamra de diya tha. parul ke pita arthat badruddin saprivar vahan rahne laga tha. wo behad garib tha. maan ke hisse ki zamin vahi jotta, jo makan ke saath tha. sari phasal vahi utha leta. qarib das barah bachche the. chhah bachchon ko wo bech chuka tha, karan bachchon ko khila pila nahin sakta tha. mere bhai ki baat usne qatii na suni, ulta maan se aakar kahne laga, ‘aap hamare malik hamare prabhu hain. apaki zamin par hum hak jama len ye to pura adharm hai. isse uupar vale hamein saza zarur denge. aapka pura hak banta hai ki aap aadha dhaan len. aapka beta ye sab ulti sidhi gaanv valon ko kya salah de raha hai is prakar bhai se badruddin ki nahin patti thi.
is ghatna ke baad maan ne bhi rooth kar bhai ko gaanv bhejna band karva diya. sara len den jaisa jab chahe, badruddin hi karne laga tha.
isi beech bhai ek din videsh uD gaya. maan samajh gai ab hamari zamin ki rakhvali namunkin hai. atah maan ne badruddin ke jariye ahista ahista zamin bechni shuru kar di thi. lekin badruddin kharidaron ke saath theek se pesh nahin aata tha. maan ne isi karan mujhe gaanv bhej kar chaha tha ki bachi khuchi zamin main bech baach kar chhutti kar loon. do baar pahle bhi main isi karan gaanv aa chuki thi. maan ki bachi khuchi zamin main bech kar chali jaun aur gaanv se hamara pura rishta khatm ho jaye, ye sthiti badruddin ko bahut bha rahi thi karan use hamara gaanv vala makan pura mil jayega, maan ise hi de dengi, wo janta tha.
main gaanv mein jakar jis kamre mein rahti thi, badruddin uske baghal vale kamre mein hi parivar sahit rahta tha. uski ek laDki qarib terah chaudah saal ki thi. baDi baDi ankhen aur bholi bholi sanvli surat wo hardam mere pichhe pichhe ghumti. meri har zarurat par nazar rakhti, kahti ‘phuphu tum baitho main la deti hoon ya main kar deti hoon. kahin jana hota to wo mere sang ho leti. uska naam parul tha, par hum use paru bulate the.
bite kal main usi parul ke saath lekar door ke rishte ke apne chacha ke ghar ja rahi thi. ek baDe phaile hue imli ke peD ke niche dekha to paya ki avara laDke vahan khaDe khaDe aDDa maar rahe the. ye dekh paru Dhithak gai, phir boli chalo phuphu dusra rasta pakaDte hain. uski ankhon mein behad virakti ki bhavna jhalak rahi thi. mainne puchha ‘ye laDke kaun hai?’ ‘cheyarmain ka laDka naam ramiz hai aur saath ke do laDke usi ke dost. ’ ‘unhen dekh tu itni Dar kyon gai, main to tere saath hoon na? paru tab tak meri bagal mein aa gai thi. jab hum laDkon ke baghal se hokar guzre to unhonne hamein dekh siti bajai. mujhe tabhi tajjub hua. karan mere jaise umr vali mahila paru ke saath thi phir bhi laDkon ki ye jurrat hui kaise? tab main samjhi ki paru yon hi nahin Dar rahi thi.
mere saath chalte chalte paru kahti ja rahi thi, ‘ramiz bahut badmash hai, wo kahta hai ki agar main uske prastav se sahmat na hui to wo mujhe uchit seekh dega. ’
kya hai wo prastav? ye puchhna mere liye uchit nahin hoga. ye main samajh chuki thi, jaise hi mainne paru ki nazron mein jhanka tha.
‘tumne apne papa maan se ye bataya hai?’ ‘fayda kya hai, ve kuch kar to nahin payenge phizul hi soch mein paD jayenge. ve to itne shaitan hain ki gaanv mein sabhi unse door bhagte hain. ’
‘to uske pita ji se to nalish kar sakti ho?’ is baat se paru hans paDi. mujhe laga hansne ki bajaye paru ro paDti to behtar tha. karan uski wo hansi behad dardanak thi, bebasi se bhari. teDhe bheDhe raste se guzarte samay paru ramiz ke baap ke kukarmon ka varnan karne lagi.
‘cheyarmain us baap ne teen teen shadiyan ki hain. akhiri vali ko uski marzi ke khilaf nikah kar ke laya hai. laDki javan aur uska ek javan premi bhi hai. laDki ke maan baap ka munh rupyon se usne band kiya tha. wo premi laDka kaam se kahin bahar gaya to laut kar usne dekha, uski premika cheyarmain ki tisri byahta hai. laDki bhi kam ziddi na thi. ek raat premi ke saath bhaag khaDi hui.
cheyarmain ka khaufnak roop ab bahuton ke liye Dar ka karan ban gaya. us javan laDki ki barbadi ab qarib hai, aisa sab sochne lage the. khauf hakiqat mein badal gaya. ek raat gaanv ke kuch log bahar se lautte hue sankri pagDanDi se guzar rahe the. purnmasi ki raat thi. kuch aahat hote hi taarch maar kar un logon ne dekha ek laDki ki mrit deh paDi hai. munh kuchla hua aur sara sharir kshat vikshat hai. atah wo pahchan mein nahin aa rahi thi, to bhi logon ne anuman laga liya. iski maut talab ke pani mein hui thi. vahin uske premi ki mrit deh bhi phool kar tairti mili thi. sabhi samajh rahe the ki ye kaam kiska hai. kisi ne shayad thane mein rapat bhi pahunchai thi. ghatna ki jankari thane ke daroga ko bhi thi. itna hote hue bhi kes beech mein thapp ho gaya tha. cheyarmain ke viruddh koi thos prmaan lane nahin diya gaya. uupar se thane ka daroga bhi kisi jhamela mein phainsna nahin chahta tha. cheyarmain ki prastavit raqam ki rashi kafi man maphik thi. banispat iske ki cheyarmain ke gunDon ki maar khaye.
ye das varsh pahle ki baat hai. kes dab gaya tha, karan gaanv ke log tab itne sachet na the. ab ve hi kisan chalak, samajhdar bhi hain. ab baap ki kursi laDke ne le li hai, atah uske viruddh nalish karna vipatti ko nyota dena hai. baat to bas pichhle hi din ki thi. mainne socha hi nahin tha ki dusre hi din ramiz aisa kaanD kar baithega. agar mainne esiD vali ghatna ankhon se na dekhi hoti to in baton ki anasuni kar jati.
main ghar ki or laut hi rahi thi ki ghar ke samne ek baDe se aam ke vriksh ke niche badruddin ki aurat gumsum baithi dikhi. mujhe dekhte hi bukka phaDkar rone lagi. charon or se mahilayen use ghere hue theen. main samajh gai ki khabar use pahle hi mil gai hai. use DhanDhas dilate hue main boli, ‘us laDke ko main jel bhijva kar rahungi. ’ badruddin ki bivi ka kahna tha ’sarvanash to ho chuka hai, meri beti se ab nikah kaun karega?’ main akrosh se pagal ho rahi thi. bhitar hi bhitar aag ugal rahi thi aur soch rahi thi ki cheyarmain kitna bhi shaktishali kyon na ho, main usse takkar lekar rahungi. itna aatm vishvas mujhmen tha. atah badruddin ke ek laDke ko lekar main thane pahunchi, jo koi khaas door nahin tha. ek svachchh safed chaupal thi, jiske samne aur pichhe aam ke baghiche the. get par pahredar bhi the. bhitar kursi par o० see० (daroga) baithe the. asapas gaanv ke kuch log unhen ghere hue the. shayad ghatna ka varnan kar rahe honge. mujhe dekhte hi khisak ge. o०si० kam umr ka lambe Deel Daul kala naujavan tha. kursi se uthkar usne mera abhivadan kiya. mere vahan pahunchne par avak hokar bola, ‘mujhe hi bula liya hota, maiDam! main jo yunivarsiti mein aapse patrakarita paDhta tha. anek chhatron ki bheeD mein shayad aap mujhe pahchan na pai hon. ’.
aap kis baich mein the’—mainne puchha tha. ‘pahle aap baithiye. kaise aana hua?’ mujhe ehsaas hua—pulis adhikari hone par bhi ye manushyatv bhula nahin hai. main khush hui. ‘maiDam! main 1980 ke baich mein tha. mera naam azijul hak hai. ’ ‘chaliye khushi hui ki aap hi yahan par posteD mile. mujhe Dar tha, kahin meri baat sunne se daroga inkaar na kar de. ’ hanste hue ajijul hak ne kaha—‘dukh to isi baat ka hai ki is peshe mein pahle hi hame ula samajh liya jata hai. ’
‘khair, main to insaan hun—har peshe mein koi na koi iimandar to hota hi hoga. aap bataiye, ghatna to aapne sun hi li hai. mainne svayan ankhon se dekha hai aur chahti hoon ki ramiz ko kaDi se kaDi saza mile. ‘haan, jitna mainne suna hai, main aapse sahmat hoon, gunahgar ko saza to milani chahiye jisse ki ainda aisi durghatnayen na hon. ’
mainne kaha, ‘har roj akhbar kholte hi bas yahi sab durghatnayen. par aisa kyon hota hai? karan, kanun ka ban jana hi kafi nahin hai. us par theek amal bhi hona chahiye. kanun ek makhaul bankar rah gaya hai. doshi ke bhagne ke vahan anek surakh hain. azijul sahamti jatate hue bola—’maiDam! ghatna jo ghatti hai wo vichar tak pahunchte hue kya roop leti hai, yahi baDi baat hai. karan, amir log gavahon ko moti raqam dekar unka munh pahle se hi band kar dete hain aur sara qasur pulis ke sir maDh diya jata hai. ’ ajijul ne mera samarthan
pakar apna duhakhDa sunaya tha—‘maiDam janti hain, behad kshamata aur behad sampannta, samaj mein vichar ko shithil banati hai. qarib do saal pahle ki baat hai, das saal ki bachchi se gaanv ke laDke ne rep kiya. mainne hi rep ka mamla darz kiya tha. wo laDka ek prabhavashali aur dhanaDhya baap ka tha. laDki ki cheekh svayan uski chachi ne suni thi aur bahar aakar dekh liya tha. laDka bhaag khaDa hua aur bhagte samay ek paanv ki chappal chhoot gai thi. jab gavahi dene pardhan roop mein chachi kort mein bulai gai to jo sach usne thane mein kaha tha wo na bol kar wo boli—’maine laDke ko dhaan ke khet se bhagte hue dekha tha, laDki ke asapas se nahin. ’ jaj saaf samajh ge the ki gavah rupya khakar palat gaya hai, atah kuch kiya na ja saka aur doshi bekasur chhoot gaya tha. aaj bhi wo chhati phulakar ghoom raha hai. us jaj se main ek jalse mein mila tha. wo mere rishtedar the. mainne unse puchha tha, aisa ghalat kaam aapne kaise kiya? uttar mein unhonne kuch is prakar kaha—‘kanun mein andazan koi baat nahin hoti. prmaan ka likhit byaan satya se milta hona chahiye. donon halaton mein ye kamzor sabit hua aur main kuch nahin kar saka. yahan tak ki kam se kam do saal ki jel ki saja use milani hi chahiye thi. ’
ab tak main saans roke sun rahi thi. mere munh se itna hi nikla—‘baDe baDe vakilon ko baDe log kharid lete hain aur nyaay ke surakhon se bahar ho jate hain. saza keval gharib bhugatte hain. ’ mere chehre ki nasen krodh se tan gai theen. mainne kaha, ‘kisi bhi haalat mein is kes ko kamzor nahin hone dungi. jahan tak ban paDega, riportar, akhbar, uunche se uunche ohde ke adhikari tak pahunchungi. so, azijul se mainne baar baar nivedan kiya ki laDka chhutna nahin chahiye. azijul ne mujhe ashvast kiya.
sab kuch nipta kar ghar lauti to shaam Dhal chuki thi. parul ke maan baap aspatal mein hi the. keval kuch paDosi ghar par bheeD lagaye the. unhin se pata chala ki parul ke ek gaal aur ankh par patti hai, jahan use khasi chot pahunchi hai. wo kah rahe the—shayad ankh chali jayegi. wo aspatal mein paDi paDi dard se behad karah rahi hai. muhalle ke ek laDke ko saath lekar main aspatal ke liye ravana hui, par musladhar barish ne hamara rasta rok liya. itne mein roti bilakhti parul ki maan der raat ghar lauti. baap parul ke saath hi aspatal mein thahra tha.
mainne apne mobail ka istemal kar kai kai akhbaron mein khabar di. sabhi ko mainne khul kar bhanDaphoD karne ki salah di. dusri subah mujhe fon par bataya gaya ki kafi baDe akhbaron mein ek panne ki khabren chhap chuki hain. aur ye bhi bataya gaya ki kafi baDe riportar gaanv ki or ravana ho chuke hain, ankhon dekha haal darz karne ke liye. ab mere man ko kuch sukun mila. dopahar tak sanvaddataon ke saath main azijul hak ke thane mein jakar mili. azizul ne punah mujhe tasalli dete hue ghar chale jane ko kaha aur bharosa diya ki hadse ki chhoti moti baten bhi wo darz kar lega. aur laDki ki ek ankh nasht ho jane ki khabar pakar duhakh bhi jataya. ye bhi bataya ki laDka pharar hai aur uske pita azijul ke paas aaye the. sunte hi main agabbula ho gai aur boli—‘kis matlab se aaya tha wo badmash?’
‘rupyon se mujhe kharidna kisi bhi haalat mein sambhav nahin. ’ isliye cheyarmain mujhe mithi mithi baton se pata raha tha. parul ke ilaaj ka sara kharch wo dega. ye bhi kah raha tha ki is ghinaune kaam ke liye doshi ko kaDi se kaDi saza dilvai jayegi. ’ ‘is prakar palti khana to us jaise badmash ke liye yaqin ke qabil nahin hai. zarur wo koi nai chaal chal raha hai. bhala apna laDka jankar bhi. ’ mainne kaha azijul ne baat katte hue kaha—’han, usne kaha agar aur prmaan se sabit hota hai ki ye kaam mere laDke ne kiya hai, main khud use pakaDkar thane ke supurd kar dunga. par yadi mere vipaksh mein kisi dushman ke dvara ki gai vardat hai to main laD jaunga aur kisi banavati baat ka sahara liye bina apne laDke ko bacha lunga. main ghusse mein dhadhak uthi—’in baton ka arth?’
azijul punah bola, ‘aap shaant hon. parul ke aspatal se ghar lautte hi main sare byaan uske munh se sunkar rikarD kar lunga.
mere dimagh mein tarah tarah ki chintayen dauDne lagi. aspatal se lautte samay kahin cheyarmain ke gunDe parul ko maar to nahin Dalenge. sare gaanv ka chakkar lagakar ab tak sanvaddataon ne kafi samachar ikatthe kar liye the.
chintaon se mujhe mukti mili, jab paru ko lekar uska baap ghar lauta. azijul bhi apne sipahiyon ko lekar pahunch gaya tha. kai patrakar bhi hazir the. sabko chaunkate hue cheyarmain svayan apne sangi sathiyon sahit paru ke ghar hazir ho ge the. unka parichay azijul ne mujhse karaya. adab ke saath mujhe salam karte hue bole, ‘aap jaisi izzatdar hasti is gaanv ki garima hain. yadi zamin jayedad bechkar gaanv chhoDkar chali jayengi to hum jaise murkho ko kaun paDhayega, kaun sikhayega?
cheyarmain ki chikni chupDi baton se man hi man main jal bhun rahi thi, par uupar se kafi shaant aur bhadr bani hui thi. aam aur ber ke vriksh tale baDa sa angan tha, jahan kursiyan lagai gai theen. hamare baithak ka achchha intzaam kiya gaya tha. cheyarmain shayad jaan bujhkar azijul ke baghal ki kursi par baith ge. mainne kafi phasla rakhkar aamne samne hokar baithna theek samjha. ek patrakar yuvak apni kursi khinchkar meri baghal mein aa baitha. gaanv ke baDe buDhe javan sabhi hamein gherkar khaDe hue the, sabki ankhen kutuhal se bhari theen. badruddin paru ko bulane ghar ke andar ghusa. uska vyvahar mujhe bilkul theek nahin lag raha tha. main intzaar mein thi, mujhse salah ke liye zarur mere paas ayega, jabki wo mere aas paas bhi nahin phatka. mujhse zarur mile aisa mainne dopahar ko uski bivi se kah diya tha. bivi ne mujhse hami bhi bhari thi, par wo aaya hi nahin. uski bivi bhi kuch alag thalag rah rahi thi, manon mere saath paru nikli thi isi karan use esiD ki botal ka shikar hona paDa, par mainne socha aaj nahin to kal ramiz use shikar zarur banata usne to paru se kah hi diya tha.
parul is beech maan baap ke saath dhire dhire ghar se bahar aati dikhi. charon taraf bheeD hi bheeD aur tarah tarah ki baten goonj rahi theen. mere kaan ke paas munh lakar phisaphisa kar riportar bola, ‘aaj subah cheyarmain ke sangi sathi aspatal mein badruddin se milkar aaye hain. ’ main kafi satark hokar thoDi hil Dulkar baithi. parul angan ke beech kursi par baithai ja chuki thi. parul mujhse ankhen nahin mila rahi thi. abhi suraj aam ke patton ke jhurmut mein se jhaank raha tha. ek murghi jhunD mein apne bachchon ke saath kank kank karti hui hamare beech aa gai thi. peD par kauve eksaath kaanv kaanv kar uthen. is beech buland avaz mein azijul ne parul se puchha, ‘tum par jisne aisiD phenka hai, use tum pahchanti ho?’
charon taraf sannata chha gaya. paru ne baap ko ek baar dekhkar ankhen zamin par gaDa leen. maan baap donon ne meri or peeth kar rakhi thi, parul ki or munh. dubara azijul ne puchha, ‘ghabrao mat, hum sab tumhare saath hain kaho kisne phenka tha aisiD? use pahchanti ho. uska naam batao. ’ ab phisaphisa kar paru kya boli kuch bhi sunai nahin diya. tisri baar aur ek koshish ki gai. daroga ne apna sir thoDa jhukate hue ek baar phir puchha. cheyarmain ne parul ke munh ke paas munh le jakar puchha—’bolo maan bolo kya tum use pahchanti ho? pyari meri maan bolo. ’ manon duniyan bhar mein parul ko pyaar karne vala ek vahi farishta tha. parul ne pal bhar ankhen unki ankhon mein Dali aur boli, ‘nahin’
aur ankhen punah zamin par gaDa leen.
mujhe laga paru pagal ho gai hai. bhala wo kyon itna baDa jhooth bol rahi hai. mujhse raha na gaya taDak se boli, ‘haan paru ne ramiz ko pahchana tha. mainne bhi pahchana, kyonki main bhi uske saath thi. ’
baDi vinaypurvak cheyarmain bole, ‘aap use pahchanti thee?’
‘nahin pichhle hi din paru ne use dikhlaya tha aur naam ramiz bataya tha. ’
shaam ho gai thi uupar se ek din ka dekha chehra, aap ghalat bhi dekh sakti hain. ’ ‘nahin shaam nahin kafi dhoop thi tab tak. ’
‘lekin paru to kah rahi hai nahin pahchanti. phir aap kaise. . .
kes ka phal kya hoga, main samajh gai thi. bheeD mein kanaphusi jari thi. sab sandeh ki drishti se mahaul ko parakh rahe the. bheeD dhire dhire halki hoti gai. paru ko uske maan baap pakaDkar andar le jane lage. pal bhar ke liye paru ne meri ankhon mein jhanka. vahan mujhe dikha—keval dukh dard ka ahsas aur pararthna. us ashay drishti ko main bhool nahin pai.
mera shahr lautne ka samay hone laga. akeli steshan ki or chal paDi. har baar badruddin saath aata tha, vaisa na hua. uski bivi bhi mujhse bhent karne nahin aai, na kisi ne vidai di. steshan ke qarib ek peD ki aaD mein ajijul hak khaDa mila—‘maiDam aap ja rahi hain. ’ ‘haan, ‘chaliye aapko tren tak chhoD aata hoon. ’ badruddin ki ahsanaphramoshi par daroga bhi dukhi tha. donon chupchap chal rahe the. dhire se azijul ne kaan tak munh le jakar kaha, ‘paru jhooth kyon boli main janta hoon. badruddin ko bees hazar rupe cheyarmain ne diye hain. ‘bees hazar! ashcharya se main daroga ka munh dekhti rahi.
‘haan, yadi na leta to use kes karna paDta. gaanv shahr ki dauDa dauDi. yahan vahan jana. kharch alag. badmash log aur na jane kya kya nuksan karte? aap kab tak pahra detin?’
main kaDvi hansi hans kar boli, ‘yah kanun hai? nyaay hai?
‘haan nyaay? karan kafi had tak sach kya hai, gaanv vale sabhi jante hain? cheyarmain ka sir bhi jhuka hai. use zurmana bhi dena paDa hai 2000 rupe. dhire dhire gaanv vale aur jaag uthenge. tab ye nyaay ka tamash nahin chalega. siddhant sir uthakar dekhega. ’
door se tren ki siti sunai di. uski raftar kafi dhimi thi. injan ki tez batti tren ke steshan aane ka samachar de rahi thi.
ye ek behad dardanak hadasa tha jo mainne apni ankhon se dekha tha. parul aur main baten karti hui kachchi saDak se guzar rahi thi. raste ke moD par parul mujhse thoDi aage nikal gai, jabki mere pair mein iint ka tukDa chubhne se main pichhe rah gai thi. jab main apne ko thoDa sambhal pai main bhi moD tak pahunchi aur parul ke paas ho li. aur turant wo drishya dikh gaya. mainne pichhle hi din jin teen lofron jaise laDkon ko dekha tha. unhin mein se ek ne parul par esiD se bhari botal phenk mari. usi kshan jalan se bilakhti chillati parul zamin par luDhak gai. mujhe pura yaqin tha ki use gunDe ne parul par esiD hi phenka tha. jab tak main paas pahunchakar apna ghussa un par utarti, ve bhaag chuke the. main behad atankit aur dukhi ho, ek ashay sthiti mein khaDi ki khaDi rah gai.
charon taraf se log dauD paDe the. asahya jalan ke karan parul chikhti ja rahi thi, par main kinkartavyavimuDh, apna hoshahvas kho chuki thi. kisi tarah girte paDte parul tak aai to dekha esiD ka sarvadhik prabhav uske ek or ke gaal aur ankh par hua tha. bhay se mainne apni ankhen pher leen. gaanv ke log parul ko turant aspatal le jane ko baten kar rahe the.
charon taraf bheeD aur kolahal ke mahaul ko bhed parul ko vahan se ve uthakar aspatal le ge. mainne pichhe muD kar parul ke ghar ki or qadam baDhaya. karan parul ke maan baap ko aisi haalat mein mujhe hi jakar santvna deni chahiye, unhen DhanDhas bhi bandhana chahiye, aisa mainne socha. main aage to baDh rahi thi par meri anubhutiyan sunn paD gai theen, sara vichar bodh main kho baithi thi.
gaanv mein hamari paitrik zamin thi. do hissa bhai ka, aur ek hissa mera. meri maan kaha karti, aphroja laDki hai gaanv jana, vahan zamin jayedad ki baten karna uske vash ka nahin hain. atah bhai kah to nahin sakta tha, par use gaanv jana aur dhaan ki vasuli, ye sab kaam stariy nahin lagte the. wo Dhaka ke shahri vatavran mein pala baDa hua tha. Dhaka mein wo yunivarsiti mein paDhta tha, saath hi lephtist dal mein rajaniti karne vala. iske bavjud maan ka dil rakhne ke liye bhai gaanv chala to jata tha, par gaanv jakar wo gaanv valon ko ulti patti paDhane laga tha. khetihar kisanon se wo kahta phirta, ‘jo jotega khet usi ka, unhen samjhane laga, ‘tumhari mehnat to dhaan bhi tumhara. pasina tum bahate ho, mehnat tum karte ho aur hum shahr se aakar aadhe hisse par haath jama lete hain. ye sarasar gair kanuni hain, ab se ye bhagidari band. pura ka pura dhaan tum rakh liya karo. ’
dusri or bhai maan ke paas Dhaka aakar kuch aur hi raag alapta. maan se gaanv valon ki nalish karta, main gaanv nahin jata. gaanv vale meri bilkul nahin sunte. mujhe dhaan dene se inkaar karte hain. isse to bhala yahi hoga ki hum apna hissa lena chhoD den. dhaan unhen hi pura ka pura de diya jaye.
ab to pitaji bhi nahin the. maan prayah asvasth rahtin. gaanv mein jana, dhaan ki vasuli, ye maan ke bas ka nahin tha. parul ke pita meri maan ke qarib qarib mainejar ban hi chuke the. atah dhaan ke mamle mein jitna kuch ban paDta, unke uupar hi maan bharosa karne lagi. sara kuch ve hi sambhalne lage. badle mein unhen meri maan ne apne pakke makan ka ek baDa kamra de diya tha. parul ke pita arthat badruddin saprivar vahan rahne laga tha. wo behad garib tha. maan ke hisse ki zamin vahi jotta, jo makan ke saath tha. sari phasal vahi utha leta. qarib das barah bachche the. chhah bachchon ko wo bech chuka tha, karan bachchon ko khila pila nahin sakta tha. mere bhai ki baat usne qatii na suni, ulta maan se aakar kahne laga, ‘aap hamare malik hamare prabhu hain. apaki zamin par hum hak jama len ye to pura adharm hai. isse uupar vale hamein saza zarur denge. aapka pura hak banta hai ki aap aadha dhaan len. aapka beta ye sab ulti sidhi gaanv valon ko kya salah de raha hai is prakar bhai se badruddin ki nahin patti thi.
is ghatna ke baad maan ne bhi rooth kar bhai ko gaanv bhejna band karva diya. sara len den jaisa jab chahe, badruddin hi karne laga tha.
isi beech bhai ek din videsh uD gaya. maan samajh gai ab hamari zamin ki rakhvali namunkin hai. atah maan ne badruddin ke jariye ahista ahista zamin bechni shuru kar di thi. lekin badruddin kharidaron ke saath theek se pesh nahin aata tha. maan ne isi karan mujhe gaanv bhej kar chaha tha ki bachi khuchi zamin main bech baach kar chhutti kar loon. do baar pahle bhi main isi karan gaanv aa chuki thi. maan ki bachi khuchi zamin main bech kar chali jaun aur gaanv se hamara pura rishta khatm ho jaye, ye sthiti badruddin ko bahut bha rahi thi karan use hamara gaanv vala makan pura mil jayega, maan ise hi de dengi, wo janta tha.
main gaanv mein jakar jis kamre mein rahti thi, badruddin uske baghal vale kamre mein hi parivar sahit rahta tha. uski ek laDki qarib terah chaudah saal ki thi. baDi baDi ankhen aur bholi bholi sanvli surat wo hardam mere pichhe pichhe ghumti. meri har zarurat par nazar rakhti, kahti ‘phuphu tum baitho main la deti hoon ya main kar deti hoon. kahin jana hota to wo mere sang ho leti. uska naam parul tha, par hum use paru bulate the.
bite kal main usi parul ke saath lekar door ke rishte ke apne chacha ke ghar ja rahi thi. ek baDe phaile hue imli ke peD ke niche dekha to paya ki avara laDke vahan khaDe khaDe aDDa maar rahe the. ye dekh paru Dhithak gai, phir boli chalo phuphu dusra rasta pakaDte hain. uski ankhon mein behad virakti ki bhavna jhalak rahi thi. mainne puchha ‘ye laDke kaun hai?’ ‘cheyarmain ka laDka naam ramiz hai aur saath ke do laDke usi ke dost. ’ ‘unhen dekh tu itni Dar kyon gai, main to tere saath hoon na? paru tab tak meri bagal mein aa gai thi. jab hum laDkon ke baghal se hokar guzre to unhonne hamein dekh siti bajai. mujhe tabhi tajjub hua. karan mere jaise umr vali mahila paru ke saath thi phir bhi laDkon ki ye jurrat hui kaise? tab main samjhi ki paru yon hi nahin Dar rahi thi.
mere saath chalte chalte paru kahti ja rahi thi, ‘ramiz bahut badmash hai, wo kahta hai ki agar main uske prastav se sahmat na hui to wo mujhe uchit seekh dega. ’
kya hai wo prastav? ye puchhna mere liye uchit nahin hoga. ye main samajh chuki thi, jaise hi mainne paru ki nazron mein jhanka tha.
‘tumne apne papa maan se ye bataya hai?’ ‘fayda kya hai, ve kuch kar to nahin payenge phizul hi soch mein paD jayenge. ve to itne shaitan hain ki gaanv mein sabhi unse door bhagte hain. ’
‘to uske pita ji se to nalish kar sakti ho?’ is baat se paru hans paDi. mujhe laga hansne ki bajaye paru ro paDti to behtar tha. karan uski wo hansi behad dardanak thi, bebasi se bhari. teDhe bheDhe raste se guzarte samay paru ramiz ke baap ke kukarmon ka varnan karne lagi.
‘cheyarmain us baap ne teen teen shadiyan ki hain. akhiri vali ko uski marzi ke khilaf nikah kar ke laya hai. laDki javan aur uska ek javan premi bhi hai. laDki ke maan baap ka munh rupyon se usne band kiya tha. wo premi laDka kaam se kahin bahar gaya to laut kar usne dekha, uski premika cheyarmain ki tisri byahta hai. laDki bhi kam ziddi na thi. ek raat premi ke saath bhaag khaDi hui.
cheyarmain ka khaufnak roop ab bahuton ke liye Dar ka karan ban gaya. us javan laDki ki barbadi ab qarib hai, aisa sab sochne lage the. khauf hakiqat mein badal gaya. ek raat gaanv ke kuch log bahar se lautte hue sankri pagDanDi se guzar rahe the. purnmasi ki raat thi. kuch aahat hote hi taarch maar kar un logon ne dekha ek laDki ki mrit deh paDi hai. munh kuchla hua aur sara sharir kshat vikshat hai. atah wo pahchan mein nahin aa rahi thi, to bhi logon ne anuman laga liya. iski maut talab ke pani mein hui thi. vahin uske premi ki mrit deh bhi phool kar tairti mili thi. sabhi samajh rahe the ki ye kaam kiska hai. kisi ne shayad thane mein rapat bhi pahunchai thi. ghatna ki jankari thane ke daroga ko bhi thi. itna hote hue bhi kes beech mein thapp ho gaya tha. cheyarmain ke viruddh koi thos prmaan lane nahin diya gaya. uupar se thane ka daroga bhi kisi jhamela mein phainsna nahin chahta tha. cheyarmain ki prastavit raqam ki rashi kafi man maphik thi. banispat iske ki cheyarmain ke gunDon ki maar khaye.
ye das varsh pahle ki baat hai. kes dab gaya tha, karan gaanv ke log tab itne sachet na the. ab ve hi kisan chalak, samajhdar bhi hain. ab baap ki kursi laDke ne le li hai, atah uske viruddh nalish karna vipatti ko nyota dena hai. baat to bas pichhle hi din ki thi. mainne socha hi nahin tha ki dusre hi din ramiz aisa kaanD kar baithega. agar mainne esiD vali ghatna ankhon se na dekhi hoti to in baton ki anasuni kar jati.
main ghar ki or laut hi rahi thi ki ghar ke samne ek baDe se aam ke vriksh ke niche badruddin ki aurat gumsum baithi dikhi. mujhe dekhte hi bukka phaDkar rone lagi. charon or se mahilayen use ghere hue theen. main samajh gai ki khabar use pahle hi mil gai hai. use DhanDhas dilate hue main boli, ‘us laDke ko main jel bhijva kar rahungi. ’ badruddin ki bivi ka kahna tha ’sarvanash to ho chuka hai, meri beti se ab nikah kaun karega?’ main akrosh se pagal ho rahi thi. bhitar hi bhitar aag ugal rahi thi aur soch rahi thi ki cheyarmain kitna bhi shaktishali kyon na ho, main usse takkar lekar rahungi. itna aatm vishvas mujhmen tha. atah badruddin ke ek laDke ko lekar main thane pahunchi, jo koi khaas door nahin tha. ek svachchh safed chaupal thi, jiske samne aur pichhe aam ke baghiche the. get par pahredar bhi the. bhitar kursi par o० see० (daroga) baithe the. asapas gaanv ke kuch log unhen ghere hue the. shayad ghatna ka varnan kar rahe honge. mujhe dekhte hi khisak ge. o०si० kam umr ka lambe Deel Daul kala naujavan tha. kursi se uthkar usne mera abhivadan kiya. mere vahan pahunchne par avak hokar bola, ‘mujhe hi bula liya hota, maiDam! main jo yunivarsiti mein aapse patrakarita paDhta tha. anek chhatron ki bheeD mein shayad aap mujhe pahchan na pai hon. ’.
aap kis baich mein the’—mainne puchha tha. ‘pahle aap baithiye. kaise aana hua?’ mujhe ehsaas hua—pulis adhikari hone par bhi ye manushyatv bhula nahin hai. main khush hui. ‘maiDam! main 1980 ke baich mein tha. mera naam azijul hak hai. ’ ‘chaliye khushi hui ki aap hi yahan par posteD mile. mujhe Dar tha, kahin meri baat sunne se daroga inkaar na kar de. ’ hanste hue ajijul hak ne kaha—‘dukh to isi baat ka hai ki is peshe mein pahle hi hame ula samajh liya jata hai. ’
‘khair, main to insaan hun—har peshe mein koi na koi iimandar to hota hi hoga. aap bataiye, ghatna to aapne sun hi li hai. mainne svayan ankhon se dekha hai aur chahti hoon ki ramiz ko kaDi se kaDi saza mile. ‘haan, jitna mainne suna hai, main aapse sahmat hoon, gunahgar ko saza to milani chahiye jisse ki ainda aisi durghatnayen na hon. ’
mainne kaha, ‘har roj akhbar kholte hi bas yahi sab durghatnayen. par aisa kyon hota hai? karan, kanun ka ban jana hi kafi nahin hai. us par theek amal bhi hona chahiye. kanun ek makhaul bankar rah gaya hai. doshi ke bhagne ke vahan anek surakh hain. azijul sahamti jatate hue bola—’maiDam! ghatna jo ghatti hai wo vichar tak pahunchte hue kya roop leti hai, yahi baDi baat hai. karan, amir log gavahon ko moti raqam dekar unka munh pahle se hi band kar dete hain aur sara qasur pulis ke sir maDh diya jata hai. ’ ajijul ne mera samarthan
pakar apna duhakhDa sunaya tha—‘maiDam janti hain, behad kshamata aur behad sampannta, samaj mein vichar ko shithil banati hai. qarib do saal pahle ki baat hai, das saal ki bachchi se gaanv ke laDke ne rep kiya. mainne hi rep ka mamla darz kiya tha. wo laDka ek prabhavashali aur dhanaDhya baap ka tha. laDki ki cheekh svayan uski chachi ne suni thi aur bahar aakar dekh liya tha. laDka bhaag khaDa hua aur bhagte samay ek paanv ki chappal chhoot gai thi. jab gavahi dene pardhan roop mein chachi kort mein bulai gai to jo sach usne thane mein kaha tha wo na bol kar wo boli—’maine laDke ko dhaan ke khet se bhagte hue dekha tha, laDki ke asapas se nahin. ’ jaj saaf samajh ge the ki gavah rupya khakar palat gaya hai, atah kuch kiya na ja saka aur doshi bekasur chhoot gaya tha. aaj bhi wo chhati phulakar ghoom raha hai. us jaj se main ek jalse mein mila tha. wo mere rishtedar the. mainne unse puchha tha, aisa ghalat kaam aapne kaise kiya? uttar mein unhonne kuch is prakar kaha—‘kanun mein andazan koi baat nahin hoti. prmaan ka likhit byaan satya se milta hona chahiye. donon halaton mein ye kamzor sabit hua aur main kuch nahin kar saka. yahan tak ki kam se kam do saal ki jel ki saja use milani hi chahiye thi. ’
ab tak main saans roke sun rahi thi. mere munh se itna hi nikla—‘baDe baDe vakilon ko baDe log kharid lete hain aur nyaay ke surakhon se bahar ho jate hain. saza keval gharib bhugatte hain. ’ mere chehre ki nasen krodh se tan gai theen. mainne kaha, ‘kisi bhi haalat mein is kes ko kamzor nahin hone dungi. jahan tak ban paDega, riportar, akhbar, uunche se uunche ohde ke adhikari tak pahunchungi. so, azijul se mainne baar baar nivedan kiya ki laDka chhutna nahin chahiye. azijul ne mujhe ashvast kiya.
sab kuch nipta kar ghar lauti to shaam Dhal chuki thi. parul ke maan baap aspatal mein hi the. keval kuch paDosi ghar par bheeD lagaye the. unhin se pata chala ki parul ke ek gaal aur ankh par patti hai, jahan use khasi chot pahunchi hai. wo kah rahe the—shayad ankh chali jayegi. wo aspatal mein paDi paDi dard se behad karah rahi hai. muhalle ke ek laDke ko saath lekar main aspatal ke liye ravana hui, par musladhar barish ne hamara rasta rok liya. itne mein roti bilakhti parul ki maan der raat ghar lauti. baap parul ke saath hi aspatal mein thahra tha.
mainne apne mobail ka istemal kar kai kai akhbaron mein khabar di. sabhi ko mainne khul kar bhanDaphoD karne ki salah di. dusri subah mujhe fon par bataya gaya ki kafi baDe akhbaron mein ek panne ki khabren chhap chuki hain. aur ye bhi bataya gaya ki kafi baDe riportar gaanv ki or ravana ho chuke hain, ankhon dekha haal darz karne ke liye. ab mere man ko kuch sukun mila. dopahar tak sanvaddataon ke saath main azijul hak ke thane mein jakar mili. azizul ne punah mujhe tasalli dete hue ghar chale jane ko kaha aur bharosa diya ki hadse ki chhoti moti baten bhi wo darz kar lega. aur laDki ki ek ankh nasht ho jane ki khabar pakar duhakh bhi jataya. ye bhi bataya ki laDka pharar hai aur uske pita azijul ke paas aaye the. sunte hi main agabbula ho gai aur boli—‘kis matlab se aaya tha wo badmash?’
‘rupyon se mujhe kharidna kisi bhi haalat mein sambhav nahin. ’ isliye cheyarmain mujhe mithi mithi baton se pata raha tha. parul ke ilaaj ka sara kharch wo dega. ye bhi kah raha tha ki is ghinaune kaam ke liye doshi ko kaDi se kaDi saza dilvai jayegi. ’ ‘is prakar palti khana to us jaise badmash ke liye yaqin ke qabil nahin hai. zarur wo koi nai chaal chal raha hai. bhala apna laDka jankar bhi. ’ mainne kaha azijul ne baat katte hue kaha—’han, usne kaha agar aur prmaan se sabit hota hai ki ye kaam mere laDke ne kiya hai, main khud use pakaDkar thane ke supurd kar dunga. par yadi mere vipaksh mein kisi dushman ke dvara ki gai vardat hai to main laD jaunga aur kisi banavati baat ka sahara liye bina apne laDke ko bacha lunga. main ghusse mein dhadhak uthi—’in baton ka arth?’
azijul punah bola, ‘aap shaant hon. parul ke aspatal se ghar lautte hi main sare byaan uske munh se sunkar rikarD kar lunga.
mere dimagh mein tarah tarah ki chintayen dauDne lagi. aspatal se lautte samay kahin cheyarmain ke gunDe parul ko maar to nahin Dalenge. sare gaanv ka chakkar lagakar ab tak sanvaddataon ne kafi samachar ikatthe kar liye the.
chintaon se mujhe mukti mili, jab paru ko lekar uska baap ghar lauta. azijul bhi apne sipahiyon ko lekar pahunch gaya tha. kai patrakar bhi hazir the. sabko chaunkate hue cheyarmain svayan apne sangi sathiyon sahit paru ke ghar hazir ho ge the. unka parichay azijul ne mujhse karaya. adab ke saath mujhe salam karte hue bole, ‘aap jaisi izzatdar hasti is gaanv ki garima hain. yadi zamin jayedad bechkar gaanv chhoDkar chali jayengi to hum jaise murkho ko kaun paDhayega, kaun sikhayega?
cheyarmain ki chikni chupDi baton se man hi man main jal bhun rahi thi, par uupar se kafi shaant aur bhadr bani hui thi. aam aur ber ke vriksh tale baDa sa angan tha, jahan kursiyan lagai gai theen. hamare baithak ka achchha intzaam kiya gaya tha. cheyarmain shayad jaan bujhkar azijul ke baghal ki kursi par baith ge. mainne kafi phasla rakhkar aamne samne hokar baithna theek samjha. ek patrakar yuvak apni kursi khinchkar meri baghal mein aa baitha. gaanv ke baDe buDhe javan sabhi hamein gherkar khaDe hue the, sabki ankhen kutuhal se bhari theen. badruddin paru ko bulane ghar ke andar ghusa. uska vyvahar mujhe bilkul theek nahin lag raha tha. main intzaar mein thi, mujhse salah ke liye zarur mere paas ayega, jabki wo mere aas paas bhi nahin phatka. mujhse zarur mile aisa mainne dopahar ko uski bivi se kah diya tha. bivi ne mujhse hami bhi bhari thi, par wo aaya hi nahin. uski bivi bhi kuch alag thalag rah rahi thi, manon mere saath paru nikli thi isi karan use esiD ki botal ka shikar hona paDa, par mainne socha aaj nahin to kal ramiz use shikar zarur banata usne to paru se kah hi diya tha.
parul is beech maan baap ke saath dhire dhire ghar se bahar aati dikhi. charon taraf bheeD hi bheeD aur tarah tarah ki baten goonj rahi theen. mere kaan ke paas munh lakar phisaphisa kar riportar bola, ‘aaj subah cheyarmain ke sangi sathi aspatal mein badruddin se milkar aaye hain. ’ main kafi satark hokar thoDi hil Dulkar baithi. parul angan ke beech kursi par baithai ja chuki thi. parul mujhse ankhen nahin mila rahi thi. abhi suraj aam ke patton ke jhurmut mein se jhaank raha tha. ek murghi jhunD mein apne bachchon ke saath kank kank karti hui hamare beech aa gai thi. peD par kauve eksaath kaanv kaanv kar uthen. is beech buland avaz mein azijul ne parul se puchha, ‘tum par jisne aisiD phenka hai, use tum pahchanti ho?’
charon taraf sannata chha gaya. paru ne baap ko ek baar dekhkar ankhen zamin par gaDa leen. maan baap donon ne meri or peeth kar rakhi thi, parul ki or munh. dubara azijul ne puchha, ‘ghabrao mat, hum sab tumhare saath hain kaho kisne phenka tha aisiD? use pahchanti ho. uska naam batao. ’ ab phisaphisa kar paru kya boli kuch bhi sunai nahin diya. tisri baar aur ek koshish ki gai. daroga ne apna sir thoDa jhukate hue ek baar phir puchha. cheyarmain ne parul ke munh ke paas munh le jakar puchha—’bolo maan bolo kya tum use pahchanti ho? pyari meri maan bolo. ’ manon duniyan bhar mein parul ko pyaar karne vala ek vahi farishta tha. parul ne pal bhar ankhen unki ankhon mein Dali aur boli, ‘nahin’
aur ankhen punah zamin par gaDa leen.
mujhe laga paru pagal ho gai hai. bhala wo kyon itna baDa jhooth bol rahi hai. mujhse raha na gaya taDak se boli, ‘haan paru ne ramiz ko pahchana tha. mainne bhi pahchana, kyonki main bhi uske saath thi. ’
baDi vinaypurvak cheyarmain bole, ‘aap use pahchanti thee?’
‘nahin pichhle hi din paru ne use dikhlaya tha aur naam ramiz bataya tha. ’
shaam ho gai thi uupar se ek din ka dekha chehra, aap ghalat bhi dekh sakti hain. ’ ‘nahin shaam nahin kafi dhoop thi tab tak. ’
‘lekin paru to kah rahi hai nahin pahchanti. phir aap kaise. . .
kes ka phal kya hoga, main samajh gai thi. bheeD mein kanaphusi jari thi. sab sandeh ki drishti se mahaul ko parakh rahe the. bheeD dhire dhire halki hoti gai. paru ko uske maan baap pakaDkar andar le jane lage. pal bhar ke liye paru ne meri ankhon mein jhanka. vahan mujhe dikha—keval dukh dard ka ahsas aur pararthna. us ashay drishti ko main bhool nahin pai.
mera shahr lautne ka samay hone laga. akeli steshan ki or chal paDi. har baar badruddin saath aata tha, vaisa na hua. uski bivi bhi mujhse bhent karne nahin aai, na kisi ne vidai di. steshan ke qarib ek peD ki aaD mein ajijul hak khaDa mila—‘maiDam aap ja rahi hain. ’ ‘haan, ‘chaliye aapko tren tak chhoD aata hoon. ’ badruddin ki ahsanaphramoshi par daroga bhi dukhi tha. donon chupchap chal rahe the. dhire se azijul ne kaan tak munh le jakar kaha, ‘paru jhooth kyon boli main janta hoon. badruddin ko bees hazar rupe cheyarmain ne diye hain. ‘bees hazar! ashcharya se main daroga ka munh dekhti rahi.
‘haan, yadi na leta to use kes karna paDta. gaanv shahr ki dauDa dauDi. yahan vahan jana. kharch alag. badmash log aur na jane kya kya nuksan karte? aap kab tak pahra detin?’
main kaDvi hansi hans kar boli, ‘yah kanun hai? nyaay hai?
‘haan nyaay? karan kafi had tak sach kya hai, gaanv vale sabhi jante hain? cheyarmain ka sir bhi jhuka hai. use zurmana bhi dena paDa hai 2000 rupe. dhire dhire gaanv vale aur jaag uthenge. tab ye nyaay ka tamash nahin chalega. siddhant sir uthakar dekhega. ’
door se tren ki siti sunai di. uski raftar kafi dhimi thi. injan ki tez batti tren ke steshan aane ka samachar de rahi thi.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 432)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
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