चांसलरी लेन में किन्हीं अपरिहार्य व्यस्तताओं के चलते मैं रात को नौ बजे तक व्यस्त रहा आया था और हल्के से सिरदर्द के कारण मेरा मन न तो आगे काम करने का रह गया था और न ही किसी प्रकार के मनोरंजन की तलाश का। ट्रैफ़िक से सँकरी हो चुकी उस गली में झाँकता छोटा-सा आकाश ख़ामोश रात की घोषणा कर रहा था, इसीलिए मैंने नदी के किनारे जा आँखों को आराम देने के विचार से नदी में शहर की झिलमिलाती रोशनियों को देखने का निश्चय कर लिया। अब इसमें तो कोई संदेह है ही नहीं कि शोर-शराबे भरे शहर की रातों में सुकून अधिक नहीं मिलता। अंधकार कृपा कर गंदगी को छिपा देता है और इस तेज़ी से भागते युग की लाल, चमकीली नारंगी, गैस की पीली और बिजली की तेज़ सफ़ेद रोशनियाँ धुँधली परछाइयों में दिखती गुमती—रहती हैं—गहरी स्याह और गाढ़े लाल रंग के बीच। वाटरलू पुल पर लगे सौ लैंप पोस्टों की रोशनियाँ नदी के ढाल को स्पष्ट कर देती हैं और उसके ऊपर से झाँकती रहती हैं वेस्टमिस्टर टावर्स की स्याह परछाइयाँ। ख़ामोशी के साथ काली नदी बहती रहती है, जिसे कभी-कभार कोई लहर भंग कर देती है और नदी के ऊपर तैरती रोशनियों की परछाइयों के टुकड़े हो जाते हैं।
“आह! प्यारी सर्द, लेकिन गर्म रात।” मेरे पास से आवाज़ आई।
मैंने सिर घुमाया तो एक आदमी को निकट ही दीवार पर झुका पाया। सज्जनता से भरा एक चेहरा, बदसूरत कहीं से नहीं, हालाँकि गाल में गड्ढे थे और रंगत पीली। ऊपरी बंद बटन के कोट का खड़ा कालर उसके जीवन-स्तर की घोषणा करता हुआ। मुझे अचानक महसूस हुआ कि उसे उत्तर देने का अर्थ था अपने नाश्ते और रात काटने के किराए से हाथ धोना।
मैंने उसे आश्चर्य से देखा। क्या उसके पास ऐसा कुछ बतलाने को होगा, जो उस रक़म के उपयुक्त हो अथवा यह व्यक्ति भी उन लोगों में से है, जो अपनी ज़िंदगी की कहानी सुनाने का सामर्थ्य नहीं रखते। उसका चौड़ा माथा और आँखें बुद्धिमान होने की घोषणा कर रही थीं, लेकिन उसके काँपते हुए निचले ओंठ ने अंत में मुझे निर्णय लेने में सहायता की।
“हुऽऽ कुछ अधिक ही” मैंने उत्तर दिया, “लेकिन हमारी ज़रूरत के अनुकूल तो क़तई नहीं।”
“क्या कह रहे हैं आप!” उसने अभी भी नदी के दूसरे किनारे को देखते हुए कहा, “फ़िलहाल तो ठीक ही है...कम से कम अभी।”
“सबसे बेहतर है” कुछ पल रुकने के बाद उसने आगे कहा, “लंदन में कुछ शांति और सुकून देने वाली जगह को पा लेना। पूरे दिन भर की थकान भरी व्यावसायिकी मीटिंगों की व्यस्तता, ऊपर से समय पर पहुँच काम को सही अंजाम दे देना वह भी ट्रैफ़िक के सारे ख़तरों के बावजूद—शांति देने वाला कहीं और कोई स्थान भी नहीं।” अपने वाक्यों को वह रुक-रुककर पूरा कर रहा था।
“स्वाभाविक है इस दुनिया की परेशानियों से आप अच्छी तरह परिचित ही होंगे, अन्यथा आप कम से कम यहाँ तो नहीं ही होते। लेकिन क्षमा कीजिएगा, आप मेरी जैसी थकान का अनुभव को क़तई नहीं कर रहे होंगे। कभी-कभी तो मन में आता है कि यह खेल क्या इतना महत्वपूर्ण है भी? मुझे तो लगता है मुझे सब कुछ छोड़-छाड़कर मुक्त हो जाना चाहिए, लेकिन फिर दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि मैं अपनी महत्वाकांक्षा से मुक्ति पा लूँ-हालाँकि उसने मुझे पूरी तरह निचोड़ तो लिया ही है—तो मेरे पास शेष ज़िंदगी में सिवाए पश्चाताप करने के कुछ भी नहीं बचेगा।”
इतना कह वह ख़ामोश हो गया। मैंने उसे आश्चर्य से देखा। मेरा सामना किसी निराशा की गर्त में पड़े यदि किसी आदमी से कभी हुआ था—तो वह यही था और मेरे सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। उसकी हालत बदहाल थी—बड़ी दाढ़ी और बालों ने हफ़्तों से कंघी के दर्शन भी नहीं किए थे, उसके हालात को देखकर तो ऐसा लगता था, जैसे वह पूरे हफ़्ते किसी कचरे के डिब्बे में पड़ा रहा हो। और उस पर मज़ाक यह है, वह बड़े व्यवसाय की परेशानियों की चर्चा कर रहा था। उसे देख सुन ठहाका लगाकर हँसने का मन हो रहा था। या तो वह पागल था या फिर वह अपनी ग़रीबी का मज़ाक उड़ा रहा था।
“यदि महत्वाकांक्षा और पद प्रतिष्ठा,” मैंने कहा “की परेशानियाँ स्वाभाविक हैं तथा श्रम और बेचैनी भरी होती हैं तो बदले में वे संतुष्टि भी तो दे जाती हैं—प्रभाव क्षमता, भला करने की शक्ति, असहायों-निर्धनों की सहायता और इन सबसे ऊपर आत्मसंतुष्टि।”
उस परिस्थिति विशेष में मेरे मुंह से निकली ये भलमनसाहत की नसीहतों के मूल में मुझे पता है नीचता थी। उसके वाक्यों और उसके हाव-भाव और वेशभूषा के विरोधाभास को देख मैंने वह सब कहा था। अपनी बात पूरी करते-करते मुझे ऐसा कहने का पछतावा होने लगा था।
उसने अपना दुबला-पतला लेकिन शांत चेहरा मेरी ओर घुमाया और कहा, “सॉरी, मैं तो यह भूल ही गया था कि आपकी समझ में मेरी समस्या आई नहीं होगी।”
कहकर कुछ पल तक वह मुझे गौर से देखता रहा और फिर कहा, “इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है कि सब कुछ अविश्वसनीय और अकल्पनीय है। सच तो यह है कि जब मैं आपको बतलाऊँगा न, तब भी आप विश्वास नहीं करेंगे और इसलिए आपसे कहना अधिक सुरक्षित है, साथ ही अपने दिल का बोझ उतर जाने से मुझे कुछ राहत भी मिलेगी। ऐसा है फ़िलहाल मेरे हाथों में एक बड़ा उद्योग है, वास्तव में बड़ा, लेकिन हाल फ़िलहाल कुछ समस्याएँ हैं। सच तो यह है कि...मैं हीरे बनाता हूँ।”
“मेरा विचार है”, मैंने कहा “शायद इन दिनों तुम्हारे पास कोई काम नहीं है।”
“मैं इस अविश्वास से थक गया हूँ”, उसने परेशान हो कहा और अपने गंदे से कोट की बटनें खोल उसने एक छोटी-सी थैली निकाली, जो उसकी गर्दन में रस्सी से बंधी लटकी थी। थैली से उसने भूरे रंग का एक पत्थर निकाल मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, आप बतला सकते हैं यह क्या है?” वाक्य पूरा करते उसने मुझे वह पत्थर दे दिया।
अब सच यह था कि वर्ष डेढ़ वर्ष पहले मुझे कुछ फ़्री टाइम मिला था, जिसमें मैंने लंदन से साइंस डिग्री प्राप्त कर ली थी, अत: मुझे भौतिक शास्त्र तथा खनिज विज्ञान का कुछ चलताऊ-सा ज्ञान हो गया था। अनगढ़ हीरे की तरह वह कुछ-कुछ दिख रहा था, हालाँकि वह था बड़ा-क़रीब मेरे अँगूठे के बराबर। उसे उँगलियों में ले उसे घुमा-फिरा कर मैं परखने लगा। वह अष्टकोणी था और उसका कुछ हिस्सा तराशा गया था, जैसा बहुमूल्य खनिजों में प्राय: होता है। अपना जेबी चाकू निकाल मैंने खरोंचने की कोशिश की, लेकिन असफल रहा। गैस लैंप की रोशनी में सामने झुक अपनी हाथ घड़ी के काँच पर उस पत्थर से लकीर खींची तो उस पर आसानी से एक सफ़ेद लाइन बन गई।
मैंने काँच को उत्साह से भर देखते हुए कहा—“यह दिखता तो हीरा जैसा ही है। यदि यह सचमुच में हीरा है तो हीरों की दुनिया में इसे चमत्कार ही स्वीकारा जाएगा। बहरहाल तुम्हें यह कहाँ मिला?”
“मैंने इसे बनाया है”, उसने कहा “लाइए मुझे दे दीजिए।”
मेरे हाथ से उसने उसे थैली में जल्दी से डाला और गर्दन में थैली टांग, बटन बंद कर लिए।
“मैं आपको सौ पाउंड में दे दूँगा”, उसने अचानक फुसफुसाते हुए उत्साह से भर कर कहा। यह सुनते ही मेरे संदेह जाग गए। वो हीरे की तरह का कठोर कुरंडम भी तो हो सकता है, जो दिखने में हीरे जैसा है। फिर यदि वास्तव में यह हीरा ही है तो इसके पास भला आया कैसे और सबसे अहम प्रश्न यह मात्र सौ पाउंड में क्यों बेच रहा है?
हम दोनों ने ही एक-दूसरे की आँखों में झाँका। वह उत्सुक था ईमानदारी से व्यग्र। उस पल तो मुझे विश्वास हो गया कि वह मुझे हीरा बेचने की ही कोशिश कर रहा है। और फिर मैं कोई धनवान तो था नहीं, सौ पाउंड जेब से निकल जाने पर अच्छा ख़ासा बैंक बैलेंस कम हो जाएगा और फिर कोई भी थोड़ी बहुत बुद्धि वाला आदमी भी गैस लाइट की रोशनी में किसी आवारा से दिखते आदमी से कम से कम हीरा तो नहीं ही ख़रीदेगा। लेकिन यह भी सच है कि उतने बड़े आकार के हीरे का अर्थ हज़ारों पाउंड होता है। तभी मेरे मन में प्रश्न उठा कि इतने बड़े आकार का हीरा तो चर्चित होना चाहिए और उसका वर्णन प्रत्येक जवाहरात की पुस्तक में मिलना चाहिए। इसके साथ ही मुझे नकली हीरों और केपटाउन के काफ़िरों के पास मिले हल्के हीरों की कहानियाँ याद आने लगीं। अंत में मैंने ख़रीदने के सवाल को पूरी तरह किनारे कर दिया।
“अच्छा, तुम्हें यह मिला कैसे?” मैंने पूछा।
“मैंनेऽऽऽ मैंने इसे बनाया है।”
मैंने मोसायन के बारे में सुन रखा था, लेकिन मुझे पता था कि उसके हीरे बहुत छोटे थे। मैंने सिर हिला दिया।
“मुझे लगता है आप जवाहरातों के बारे में कुछ न कुछ जानते हैं। ठीक है, मैं आपको अपने विषय में बतलाता हूँ, तब शायद आप इसे ख़रीदने के बारे में निर्णय कर सकें।” इतना कह उसने नदी की ओर पीठ की और अपने दोनों हाथ जेब में डाल एक लंबी साँस लेते हुए कहा “मैं जानता था कि आप विश्वास नहीं करेंगे।”
‘हीरे’ उसने कहना शुरू किया—और जैसे-जैसे वह बोलता गया उसकी आवाज़ आवारा की जगह शिक्षित व्यक्ति की भाषा में परिवर्तित होती चली गई—“प्राप्त करने के लिए कार्बन को उपयुक्त बहाव और दबाव की आवश्यकता होती है, तभी हीरे के कण प्राप्त किए जा सकते हैं —काले चारकोल पाउडर के रूप में नहीं, वरन् छोटे-छोटे हीरों के रूप में। यह सत्य तो रसायनिकों को वर्षों से पता है, लेकिन उचित फ्ल्क्स (बहाव) जिसमें कार्बन पिघलता है अथवा उपयुक्त दबाव की मात्रा कोई नहीं जानता। परिणामस्वरूप रसायन शास्त्रियों द्वारा निर्मित हीरे छोटे, कंकड़-पत्थर ही घोषित किए जाते हैं। आप जानते हैं मैंने अपना पूरा जीवन इसी समस्या के हल करने में लगा क्या दिया, खपा ही दिया है।”
“मैंने हीरे निर्माण की वास्तविक परिस्थिति को जानने की शुरूआत सत्रह वर्ष की उम्र में की थी और अब बत्तीस वर्ष का हूँ। मेरी राय में तो दस वर्ष का विचार मंथन और शक्ति लगा दें या बीस वर्ष का, इस खेल के लिए ज़्यादा नहीं है। सुखद परिणाम की तुलना में।” ज़रा सोचिए, आदमी को सही विधि का पता चल जाए और रहस्य के सार्वजनिक होने तक जब हीरा कोयले जैसा सुलभ हो जाएगा, तब तक तो वह व्यक्ति करोड़ों कमा लेगा, करोड़ों!”
इतना कह वह ख़ामोश हो मेरी ओर सहानुभूति की अपेक्षा से देखने लगा। उसकी आँखें भूख से चमक रहीं थीं।
“अब सोचिए” उसने कुछ रुक कर कहा कि मैं इस ख़ोज की कगार पर खड़ा हूँ और आपके सामने उपस्थित हूँ।”
“मेरे पास” उसने आगे कहना शुरू किया, “एक हजार पाउंड के आसपास थे, और मैं इक्कीस वर्ष का था। तब मेरा विचार था कि किसी स्कूल में पार्ट टाइम पढ़ा कर मैं अपना रिसर्च आराम से करता रहूँगा। एक-दो वर्ष तो पढ़ाई में निकल गए विशेषकर बर्लिन में और उसके बाद मैंने अपना काम प्रारंभ कर दिया। मेरी सबसे बड़ी समस्या तो रिसर्च को गुप्त रखने की थी। आप समझ रहे हैं न मेरी समस्या की गंभीरता को। यदि एक व्यक्ति को भी मेरे काम की हवा लग जाती तो पता नहीं कितने लोग इसी काम में जुट जाते और फिर मैं कोई महान वैज्ञानिक तो हूँ नहीं कि मैं उनसे पहिले ख़ोज कर ही लूँ, इसकी कोई गारंटी नहीं है। और सबसे महत्वपूर्ण यह था कि यदि मुझे धनवान बनना है तो किसी को भी कानों-कान पता नहीं चलना चाहिए कि मैं हीरों का निर्माण टनों की मात्रा में आराम से कर सकता हूँ। अत: मुझे पूरी तरह अकेले ही काम करना था। शुरूआत में तो मेरे पास एक प्रयोगशाला थी, लेकिन जब मेरी पूंजी ख़त्म होने लगी, तो मैंने अपना प्रयोग कैटिश शहर के एक गंदे से कमरे में करना शुरू किया, जहाँ अपने प्रयोग के तामझाम के बीच मैं ज़मीन पर चटाई में सोया करता था। मेरी पूँजी बह चुकी थी। वैज्ञानिक उपकरणों के अलावा और कुछ तो मैं ख़रीद ही नहीं पा रहा था। मैंने अध्यापन कर गाड़ी घसीटने की कोशिश की, लेकिन मैं अच्छा शिक्षक नहीं हूँ और न ही मेरे पास विश्वविद्यालय की डिग्री ही थी, रसायन शास्त्र को छोड़कर अन्य विषयों का ज्ञान भी पर्याप्त न था। ऊपर से मैंने पाया कि मेरे पास काम अधिक था और जेबें ख़ाली थीं। इन सब विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मैं उद्देश्य के निकट पहुँच रहा था। तीन वर्ष पहले मैंने फ्लक्स (बहाव) की समस्या हल कर ली, साथ ही अपने फ्लक्स में कुछ कार्बन मिश्रण को एक गन बैरल में पानी के साथ अच्छी तरह से बंद कर दिया और उसे भट्टी में तपाने लगा।”
इतना कह वह रुक गया।
“यह तो ख़ासा ख़तरनाक ही था” मैंने कहा।
“हाँ...वह फट गया था और मेरे कमरे की खिड़कियाँ और सभी उपकरण नष्ट हो गए थे, लेकिन साथ ही मुझे हीरे का पाउडर मिल गया था। उबलते मिश्रण पर अधिक दबाव द्वारा कणों के बनने की समस्या पर सिर खपाते वक़्त मुझे पेरिस लेबोरेटरी डेस पांडरेस एट सल्फट्रेस में किए गए डोर्बे के रिसर्च को पढ़ने का अवसर मिला था, उसी के अनुसार चलने पर स्टील सिलेंडर में डायनामाइट से विस्फोट हो गया था। लेकिन इस विधि से सिलेंडर के फटने की कोई आशंका नहीं थी। दक्षिण अफ्रीका में किए जाने वाले चट्टानों के विस्फोट की तरह क़तई नहीं। इस अप्रत्याशित विस्फोट से मेरी परेशानियाँ बढ़ गई थीं, क्योंकि मेरी माली हालत के अनुसार सिलेंडर ख़ासा मँहगा था, अत: मैंने अपने काम लायक सिलेंडर फिर से बनाया, ठीक उस रिसर्च के अनुसार। सब कुछ व्यवस्थित ढंग से कर फर्नेस में आग लगा कुछ समय के लिए मैं टहलने बाहर चला गया।
उसके तरीक़े को सुन मैं अपनी हँसी को रोक नहीं पाया। “क्या तुमने यह भी नहीं सोचा कि तुम्हारी इस हरकत से पूरा मकान भी तो उड़ सकता था। क्या उसमें दूसरे लोग नहीं रहते थे?”
“मैं तो विज्ञान की भलाई के लिए कर रहा था” उसने कुछ देर तक ख़ामोश रहने के बाद कहा, “मेरे घर की निचली मंजिल में एक फेरीवाले का परिवार था, मेरे पीछे एक पत्र लिखने वाला और ऊपर दो फूल बेचने वाली स्त्रियाँ थीं। उस समय मेरे मन में ऐसा कोई विचार ही नहीं आया था। लेकिन संभवत: उस समय उनमें से कुछ घर से बाहर गए हुए थे।”
“जब मैं वापस लौटा तो सब कुछ वैसा ही था, जैसा गर्म लाल कोयलों के बीच मैं छोड़कर गया था। विस्फोट ने केस को तोड़ा नहीं था। उसके अलावा एक और समस्या मेरे सामने खड़ी हो गई। आप तो जानते ही हैं कि कण निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है समय। यदि आपने ज़रा-सी भी जल्दबाज़ी कर दी तो क्रिस्टल छोटे आकार में बनेंगे—अधिक समय देने पर ही उनका आकार बढ़ेगा। इसलिए मैंने उपकरण को ठंडा होने के लिए दो वर्ष के लिए जस का तस छोड़ दिया, लेकिन मकान किराया, आग जलाए रखने के ख़र्च से भी बड़ी समस्या पेट की भूख शांत करने की मेरे सामने विकराल रूप में खड़ी थी। “
“मैं आपको बतला नहीं सकता, कितनी शिफ़्टों में उन दिनों मैं काम कर रहा था हीरा बनाने के लिए। मैंने उन दिनों अखबार बेचे, घोड़ों को पकड़कर खड़ा रहा, टैक्सी के दरवाज़े खोले, कई हफ़्तों तक लिफ़ाफ़ों पर पता लिखता रहा। एक आदमी के यहाँ सहायक का काम भी शुरू किया, जिसके पास एक ठेला था—सड़क के एक छोर पर वही आवाज़ लगाया करता था और दूसरे पर मैं। बीच में तो ऐसा समय भी आया जब मेरे पास कोई काम था ही नहीं—उस समय मैंने भीख तक माँगी। क्या हफ़्ता था वो! एक दिन कोयला समाप्त होने को था और पेट में एक दाना भी मैंने नहीं डाला था, तभी एक आदमी ने जो एक लड़की को पटाकर ले जाना चाहता था, उस पर रौब झाड़ने के लिए मुझे छै पैंस दिए थे। उसके घमंड का आभारी था मैं। वहीं पास की मछली की दुकान से क्या ख़ुशबू आ रही थी, लेकिन मैंने वो रक़म पूरी की पूरी कोयले पर ख़र्च कर दी और अपनी भट्टी को फिर से लाल कर दिया। भूख आदमी को गधा बनने पर मजबूर कर देता है।
“तीन हफ़्ते पहले मैंने अंत में आग बुझा दी थी। मैंने सिलेंडर को उठाया, हालाँकि वह बेहद गर्म था, उसने मेरे हाथों को छूने की सज़ा भी तुरंत दे दी। लेकिन इसके बावजूद मैंने उस लावा जैसे पदार्थ को खरोंचा और एक लोहे की प्लेट में इकट्ठा कर लिया। मुझे तीन बड़े और पाँच छोटे हीरे मिल गए थे। जब मैं फ़र्श पर बैठा हथोड़ा चला रहा था, तभी मेरा दरवाज़ा खुला और मेरा पत्र लेखक घटिया पड़ोसी भीतर आ गया। वह शराब पिए हुए था, जैसा वह हमेशा पिए रहता है।
“आतंकवादी” उसने कहा। “तुम शराब पिए हुए हो” मैंने उसे समझाते हुए कहा, “हत्यारे शैतान!” उसने कहा। “उसके बाप के पास जाओ ना” मैंने कहा, मेरा तात्पर्य झूठों के बाप से था। “परवाह नहीं” कहते उसने आँख मारी और हिचकी ली। वह दरवाज़े के सामने खड़ा था, उसकी दूसरी आँख दरवाज़े पर टिकी थी। वह बड़बड़ाए जा रहा था कि कैसे वह मेरे कमरे में तलाशी लेता रहा है और उस सुबह ही वह थाने गया था और कैसे पुलिस ने सब कुछ नोट कर लिया था और अब जेल में चक्की पीसने को तैयार रहूँ मैं। सुनते ही मुझे अहसास हो गया कि मैं जंजाल में फँस चुका हूँ। अब या तो मुझे पुलिस को अपना रहस्य बतलाना होगा और ऐसा करने पर सब कुछ जग ज़ाहिर हो जाएगा और ऐसा न करने पर आतंकवादी घोषित कर दिया जाऊँगा। बहरहाल उठ कर मैं पड़ोसी के पास पहुँचा और उसका कालर पकड़ पिटाई की और हीरे उठा कर वहाँ से भाग लिया। उसी शाम के अख़बार में मेरे घर कैटिश को टाउन बम फैक्ट्री घोषित कर दिया गया। और इस तरह मैं न तो उन्हें बेच ही सकता हूँ, न भेंट ही कर सकता हूँ।”
“अब यदि मैं प्रसिद्ध जौहरियों की दुकानों में जाऊँगा न, तो वे मुझे कुछ देर रुकने को कह नौकर से पुलिस को बुलाने का इशारा कर देंगे और मुझे तुरंत कहना पड़ेगा कि मैं इंतज़ार नहीं कर सकता। मैं चोरी का सामान बेचने वाले के पास गया था। उसे मैंने जो हीरा दिया, वह तो उसने रख लिया और धमकाते हुए कहा जाओ पुलिस में रिपोर्ट कर दो, मैं तुम्हें न तो हीरा दूँगा और न ही रुपए और हाल-फ़िलहाल मैं गर्दन में हजारों पाउंड के हीरे लटकाए भटक रहा हूँ। और मेरे पास न तो सिर छिपाने को कोई छत है और न ही पेट में एक दाना। आप पहले व्यक्ति हैं, जिसे मैंने अपनी पूरी दास्तान सुनाई है। प्लीज़ मेरा विश्वास करें, मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ। चेहरे से आप मुझे सज्जन लगे इसलिए आपसे कह दिया, क्योंकि मैं मुसीबत का मारा हूँ।” अपनी बात पूरी कर उसने मेरी आँखों में झाँका।
“वर्तमान में तो” मैंने कहा, “हीरा ख़रीदना पागलपन ही होगा, साथ ही मैं जेब में सौ पाउंड के नोट लेकर तो निकला नहीं हूँ और फिर सबसे बड़ी बात मैं तुम्हारी कहानी पर आधा विश्वास कर रहा हूँ। अत: मैं यह कर सकता हूँ कि यदि तुम चाहो तो कल मेरे ऑफ़िस में आ जाना।”
“तो आपके विचार से मैं चोर हूँ ऐं” उसने तेज़ आवाज़ में कहा “आप पहिले से ही पुलिस को ख़बर कर देंगे, हैं न। नहीं मैं आपके जाल में फँसने वाला नहीं हूँ।”
उसने मेरा कार्ड ले लिया और मेरी सद्भावना भी।
“अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना और फिर आ जाना”—...मैंने कहा।
उसने संदेह के साथ सिर हिलाते हुए कहा, “किसी न किसी दिन मैं आपका आधा सिक्का ब्याज सहित लौटा दूँगा—ऐसा ब्याज कि आप अचंभे में पड़ जाएँगे।” उसने कहा, “बहरहाल मेरे रहस्य को आप प्लीज़ किसी को बतलाइएगा नहीं...हाँ मेरा पीछा करने की भी आवश्यकता नहीं है।”
उसने सड़क पार की और अँधेरे में एसेक्स स्ट्रीट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। उसे जाने दिया और यही अंतिम बार था जब मैंने उसे देखा था।
बाद में मुझे दो पत्र मिले, जिसमें उसने एक पते पर नगद नोट भेजने को लिखा था। साथ ही चेक भेजने को मना किया था। इस पूरे मामले पर मैंने ध्यान से सोचा विचारा और मुझे जो बेहतर लगा, मैंने वही किया। एक बार वह घर आया, लेकिन तब मैं बाहर था। मेरे नौकर ने बतलाया कि वह बेहद दुबला-पतला और गंदा था, साथ ही बुरी तरह खांस रहा था। वह कोई संदेश नहीं छोड़ गया था। जहाँ तक इस कहानी का प्रश्न है, यही इसका अंत है। कभी कभार मैं उसके हालात के बारे में सोचता रहता हूँ। क्या वो कोई पागल था या क़ीमती पत्थरों का व्यापारी या फिर क्या उसने वास्तव में हीरे बनाए थे। जैसा उसने कहा था! उसके पत्र से तो यही लगता है कि मैंने अपनी ज़िंदगी का सबसे अच्छा अवसर गँवा दिया है। यह भी हो सकता है कि वह मर-खप गया हो और उसके हीरे कहीं कूड़े-कचरे में पड़े होंगे। मैं यह बात तो पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि वह हीरा मेरे अँगूठे से बड़ा था, हो सकता है वह अभी भी उसे बेचने के लिए भटक रहा हो। यह भी हो सकता है कि वह संपन्न समाज में एक दिन प्रकट हो और मुझे शर्मिंदा करे मेरी मूर्खता पर। कभी-कभी सोचता हूँ कि मुझे पाँच पाउंड की रिस्क तो कम से कम लेनी ही चाहिए थी।
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“aah! pyari sard, lekin garm raat. ” mere paas se avaz aai.
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“huऽऽ kuch adhik hee” mainne uttar diya, “lekin hamari zarurat ke anukul to qatii nahin. ”
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“sabse behtar hai” kuch pal rukne ke baad usne aage kaha, “landan mein kuch shanti aur sukun dene vali jagah ko pa lena. pure din bhar ki thakan bhari vyavsayiki mitigon ki vyastata, uupar se samay par pahunch kaam ko sahi anjam de dena wo bhi traifik ke sare khatron ke bavjud—shanti dene vala kahin aur koi sthaan bhi nahin. ” apne vakyon ko wo ruk rukkar pura kar raha tha.
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itna kah wo khamosh ho gaya. mainne use ashcharya se dekha. mera samna kisi nirasha ki gart mein paDe yadi kisi adami se kabhi hua tha—to wo yahi tha aur mere samne pratyaksh khaDa tha. uski haalat badhal thi—baDi daDhi aur balon ne hafton se kanghi ke darshan bhi nahin kiye the, uske halat ko dekh to aisa lagta tha, jaise wo pure hafte kisi kachre ke Dibbe mein paDa raha ho. aur us par mazak ye hai, wo baDe vyavsay ki pareshaniyon ki charcha kar raha tha. use dekh sun thahaka lagakar hansne ka man ho raha tha. ya to wo pagal tha ya phir wo apni gharibi ka mazak uDa raha tha.
yadi mahatvakanksha aur pad pratishtha, “mainne kaha, “ki pareshaniyan svabhavik hain tatha shram aur bechaini bhari hoti hai to badle mein ve santushti bhi to de jati hain—prabhav kshamata, bhala karne ki shakti, ashayon nirdhnon ki sahayata aur in sabse uupar atmsantushti. ”
us paristhiti vishesh mein mere munh se nikli ye bhalmansahat ki nasihton ke mool mein mujhe pata hai nichata thi. uske vakyon aur uske haav bhaav aur veshbhusha ke virodhabhas ko dekh mainne wo sab kaha tha. apni baat puri karte karte mujhe aisa kahne ka pachhtava hone laga tha.
usne apna dubla patla lekin shaant chehra meri or ghumaya aur kaha, “sauri, main to ye bhool hi gaya tha ki apaki samajh mein meri samasya aai nahin hogi. ”
kahkar kuch pal tak wo mujhe gaur se dekhta raha aur phir kaha, “ismen to koi sandeh hi nahin hai ki sab kuch avishvasniy aur akalpaniy hai. sach to ye hai ki jab main aapko batlaunga na, tab bhi aap vishvas nahin karenge aur isliye aapse kahna adhik surakshit hai, saath hi apne dil ka bojh utar jane se mujhe kuch rahat bhi milegi. aisa hai filhal mere hathon mein ek baDa udyog hai, vastav mein baDa, lekin haal filhal kuch samasyayen hain. sach to ye hai ki. . . main hire banata hoon. ”
“mera vichar hai” mainne kaha “shayad in dinon tumhare paas koi kaam nahin hai. ”
“main is avishvas se thak gaya hoon”, usne pareshan ho kaha aur apne gande se kot ki batnen khol usne ek chhoti si thaili nikali, jo uski gardan mein rassi se bandhi latki thi. thaili se usne bhure rang ka ek patthar nikal meri or baDhate hue kaha, aap batala sakte hain ye kya hai?” vakya pura karte usne mujhe wo patthar de diya.
ab sach ye tha ki varsh DeDh varsh pahle mujhe kuch fri taim mila tha, jismen mainne landan se sains Digri praapt kar li thi, atah mujhe bhautik shaastr tatha khanij vigyan ka kuch chaltaun sa gyaan ho gaya tha. angaDh hire ki tarah wo kuch kuch dikh raha tha, halanki wo tha baDa qarib mere anguthe ke barabar. use ungliyon mein le use ghuma phira kar main parakhne laga. wo ashtkoni tha aur uska kuch hissa tarasha gaya tha, jaisa bahumulya khanijon mein prayah hota hai. apna jebi chaku nikal mainne kharonchne ki koshish ki, lekin asaphal raha. gais laimp ki roshni mein samne jhuk apni haath ghaDi ke kaanch par us patthar se lakir khinchi to us par asani se ek safed lain ban gai.
mainne kaanch ko utsaah se bhar dekhte hue kaha—”yah dikhta to hira jaisa hi hai. yadi ye sachmuch mein hira hai to hiron ki duniya mein ise chamatkar hi svikara jayega. baharhal tumhein ye kahan mila?”
“mainne ise banaya hai”, usne kaha “laiye mujhe de dijiye. ”
mere haath se usne use thaili mein jaldi se Dala aur gardan mein thaili taang, batan band kar liye.
“main aapko sau paunD mein de dunga”, usne achanak phusaphusate hue utsaah se bhar kar kaha. ye sunte hi mere sandeh jaag ge. wo hire ki tarah ka kathor kuranDam bhi to ho sakta hai, jo dikhne mein hire jaisa hai. phir yadi vastav mein ye hira hi hai to iske paas bhala aaya kaise aur sabse aham parashn ye maatr se paunD mein kyon bech raha hai?
hum donon ne hi ek dusre ki ankhon mein jhanka. wo utsuk tha iimandari se vyagr. us pal to mujhe vishvas ho gaya ki wo mujhe hira bechne ki hi koshish kar raha hai. aur phir main koi dhanvan to tha nahin, sau paunD jeb se nikal jane par achchha khasa baink bailens kam ho jayega aur phir koi bhi thoDi bahut buddhi vala adami bhi gais lait ki roshni mein kisi avara se dikhte adami se kam se kam hira to nahin hi kharidega. lekin ye bhi sach hai ki utne baDe akar ke hire ka arth hazaron paunD hota hai. tabhi mere man mein parashn utha ki itne baDe akar ka hira to charchit hona chahiye aur uska varnan pratyek javaharat ki pustak mein milna chahiye. iske saath hi mujhe nakli hiron aur keptaun ke kafiron ke paas mile halke hiron ki kahaniyan yaad aane lagin. ant mein mainne kharidne ke saval ko puri tarah kinare kar diya.
“achchha, tumhein ye mila kaise?” mainne puchha.
“mainneऽऽऽ mainne ise banaya hai. ”
mainne mosayan ke bare mein sun rakha tha, lekin mujhe pata tha ki uske hire bahut chhote the. mainne sir hila diya.
“mujhe lagta hai aap javahraton ke bare mein kuch na kuch jante hain. theek hai, main aapko apne vishay mein batlata hoon, tab shayad aap ise kharidne ke bare mein nirnay kar saken. ” itna kah usne nadi ki or peeth ki aur apne donon haath jeb mein Daal ek lambi saans lete hue kaha “main janta tha ki aap vishvas nahin karenge. ”
‘hire’ usne kahna shuru kiya—aur jaise jaise wo bolta gaya uski avaz avara ki jagah shikshit vyakti ki bhasha mein parivartit hoti chali gai—prapt karne ke liye karban ko upyukt bahav aur dabav ki avashyakta hoti hai, tabhi hire ke kan praapt kiye ja sakte hain —kale charkol pauDar ke roop mein nahin, varan chhote chhote hiron ke roop mein. ye satya to rasayanikon ko varshon se pata hai, lekin uchit phlks (bahav) jismen karban pighalta hai athva upyukt dabav ki matra koi nahin janta. parinamasvrup rasayan shastriyon dvara nirmit hire chhote, kankaD patthar hi ghoshit kiye jate hain. aap jante hain mainne apna pura jivan isi samasya ke hal karne mein laga kya diya, khapa hi diya hai”
“mainne hire nirman ki vastavik paristhiti ko janne ki shuruat satrah varsh ki umr mein ki thi aur ab battis varsh ka hoon. meri raay mein to das varsh ka vichar manthan aur shakti laga den ya bees varsh ka, is khel ke liye zyada nahin hai. sukhad parinam ki tulna mein. ” zara sochiye, adami ko sahi vidhi ka pata chal jaye aur rahasya ke sarvajnik hone tak jab hira koyle jaisa sulabh ho jayega, tab tak to wo vyakti karoDon kama lega, karoDon!”
itna kah wo khamosh ho meri or sahanubhuti ki apeksha se dekhne laga. uski ankhen bhookh se chamak rahin theen.
“ab sochiye” usne kuch ruk kar kaha ki main is khoj ki kagar par khaDa hoon aur aapke samne upasthit hoon. ”
“mere paas” usne aage kahna shuru kiya, “ek hajar paunD ke asapas the, aur main ikkis varsh ka tha. tab mera vichar tha ki kisi skool mein paart taim paDha kar main apna risarch aram se karta rahunga. ek do varsh to paDhai mein nikal ge vishesh kar barlin mein aur uske baad mainne apna kaam prarambh kar diya. meri sabse baDi samasya to risarch ko gupt rakhne ki thi. aap samajh rahe hain na meri samasya ki gambhirta ko. yadi ek vyakti ko bhi mere kaam ki hava lag jati to pata nahin kitne log isi kaam mein jut jate aur phir main koi mahan vaigyanik to hoon nahin ki main unse pahile khoj kar hi loon, iski koi garanti nahin hai. aur sabse mahatvpurn ye tha ki yadi mujhe dhanvan banna hai to kisi ko bhi kanonkan pata nahin chalna chahiye ki main hiron ka nirman tanon ki matra mein aram se kar sakta hoon. atah mujhe puri tarah akele hi kaam karna tha. shuruat mein to mere paas ek prayogashala thi, lekin jab meri punji khatam hone lagi, to mainne apna prayog kaitish shahr ke ek gande se kamre mein karna shuru kiya, jahan apne prayog ke tamajham ke beech main zamin par chatai mein soya karta tha. meri punji bah chuki thi. vaigyanik upakarnon ke alava aur kuch to main kharid hi nahi pa raha tha. mainne adhyapan kar gaDi ghasitne ki koshish ki, lekin main
achchha shikshak nahin hoon aur na hi mere paas vishvavidyalay ki Digri hi thi, rasayan shaastr ko chhoDkar anya vishyon ka gyaan bhi paryapt na tha. uupar se mainne paya ki mere paas kaam adhik tha aur jeben khali theen. in sab viprit paristhitiyon ke bavjud main uddeshya ke nikat pahunch raha tha. teen varsh pahle mainne phlaks (bahav) ki samasya hal kar li, saath hi apne phlaks mein kuch karban mishran ko ek gan bairal mein pani ke saath achchhi tarah se band kar diya aur use bhatti mein tapane laga. ”
itna kah wo ruk gaya.
“yah to khasa khatarnak hi tha” mainne kaha.
“haan. . . wo phat gaya tha aur mere kamre ki khiDkiyan aur sabhi upakran nasht ho ge the, lekin saath hi mujhe hire ka pauDar mil gaya tha. ubalte mishran par adhik dabav dvara kanon ke banne ki samasya par sir khapate vaqt mujhe peris leboretri Des panDres et salphatres mein kiye ge Dorbe ke risarch ko paDhne ka avsar mila tha, usi ke anusar chalne par steel silenDar mein Daynamait se visphot ho gaya tha. lekin is vidhi se silenDar ke phatne ki koi ashanka nahin thi. dakshin afrika mein kiye jane vale chattanon ke visphot ki tarah qatii nahin. is apratyashit visphot se meri pareshaniyan baDh gai theen, kyonki meri mali haalat ke anusar silenDar khasa manhaga tha, atah mainne apne kaam layak silenDar phir se banaya, theek us risarch ke anusar. sab kuch vyavasthit Dhang se kar pharnes mein aag laga kuch samay ke liye main tahalne bahar chala gaya.
uske tariqe ko sun main apni hansi mae rok nahin paya. “kya tumne ye bhi nahin socha ki tumhari is harkat se pura makan bhi to uD sakta tha. kya usmen dusre log nahin rahte the?”
“main to vigyan ki bhalai ke liye kar raha tha” usne kuch der tak khamosh rahne ke baad kaha, “mere ghar ki nichli manjil mein ek pherivale ka parivar tha, mere pichhe ek patr likhne vala aur uupar do phool bechne vali striyan theen. us samay mere man mein aisa koi vichar hi nahin aaya tha. lekin sambhavtah us samay unmen se kuch ghar se bahar ge hue the. ”
“jab main vapas lauta to sab kuch vaisa hi tha, jaisa garm laal koylon ke beech main chhoDkar gaya tha. visphot ne kes ko toDa nahin tha. uske alava ek aur samasya mere samne khaDi ho gai. aap to jante hi hain ki kan nirman mein sarvadhik mahatvpurn hota hai samay. yadi aapne zara si bhi jaldbazi kar di to kristal chhote akar mein banenge—adhik samay dene par hi unka akar baDhega. isliye mainne upakran ko thanDa hone ke liye do varsh ke liye jas ka tas chhoD diya, lekin makan kiraya, aag jalaye rakhne ke kharch se bhi baDi samasya pet ki bhookh shaant karne ki mere samne vikral roop mein khaDi thi. “
“main aapko batala nahin sakta, kitni shifton mein un dinon main kaam kar raha tha hira banane ke liye. mainne un dinon akhbar beche, ghoDon ko pakaDkar khaDa raha, taiksi ke darvaze khole, kai hafton tak lifafon par pata likhta raha. ek adami ke yahan sahayak ka kaam bhi shuru kiya, jiske paas ek thela tha—saDak ke ek chhor par vahi avaz lagaya karta tha aur dusre par main. beech mein to aisa samay bhi jab mere paas koi kaam tha hi nahin—us samay mainne bheekh tak mangi. kya haphta tha vo! ek din koyala samapt hone ko tha aur pet mein ek dana bhi mainne nahin Dala tha, tabhi ek adami ne jo ek laDki ko patakar le jana chahta tha, us par raub jhaDne ke liye mujhe chhai pains diye the. uske ghamanD ka abhari tha main. vahin paas ki machhli ki dukan se kya khushbu aa rahi thi, lekin mainne wo raqam puri ki puri koyle par kharch kar di aur apni bhatti ko phir se laal kar diya. bhookh adami ko gadha banne par majbur kar deta hai.
“teen hafte pahle mainne ant mein aag bujha di thi. mainne silenDar ko uthaya, halanki wo behad garm tha, usne mere hathon ko chhune ki saza bhi turant de di. lekin iske bavjud mainne us lava jaise padarth ko kharoncha aur ek lohe ki plet mein ikattha kar liya. mujhe teen baDe aur paanch chhote hire mil ge the. jab main farsh par baitha hathoDa chala raha tha, tabhi mera darvaza khula aur mera patr lekhak ghatiya paDosi bhitar aa gaya. wo sharab piye hue tha, jaisa wo hamesha piye rahta hai.
“atankvadi” usne kaha. “tum sharab piye hue ho” mainne use samjhate hue kaha, “hatyare shaitan!” usne kaha. “uske baap ke paas jao na” mainne kaha, mera tatparya jhuthon ke baap se tha. “parvah nahin” kahte usne ankh mari aur hichki li. wo darvaze ke samne khaDa tha, uski dusri ankh darvaze par tiki thi. wo baDabDaye ja raha tha ki kaise wo mere kamre mein talashi leta raha hai aur us subah hi wo thane gaya tha aur kaise pulis ne sab kuch not kar liya tha aur ab jel mein chakki pisne ko taiyar rahun main. sunte hi mujhe ahsas ho gaya ki main janjal mein phans chuka hoon. ab ya to mujhe pulis ko apna rahasya batlana hoga aur aisa karne par sab kuch jag zahir ho jayega aur aisa na karne par atankvadi ghoshit kar diya jaunga. baharhal uth kar main paDosi ke paas pahuncha aur uska kalar pakaD pitai ki aur hire utha kar vahan se bhaag liya. usi shaam ke akhbar mein mere ghar kentish ko taun bam faiktri ghoshit kar diya gaya. aur is tarah main na to unhen bech hi sakta hoon, na bhent hi kar sakta hoon. ”
“ab yadi main prasiddh johariyon ki dukanon mein jaunga na, to ve mujhe kuch der rukne ko kah naukar se pulis ko bulane ka ishara kar denge aur mujhe turant kahna paDega ki main intzaar nahin kar sakta. main chori ka saman bechne vale ke paas gaya tha. use mainne jo hira diya, wo to usne rakh liya aur dhamkate hue kaha jao pulis mein riport kar do, main tumhein na to hira dunga aur na hi rupe aur haal filhal main gardan mein hajaron paunD ke hire latkaye bhatak raha hoon. aur mere paas na to sir chhipane ko koi chhat hai aur na hi pet mein ek dana. aap pahle vyakti hain, jisse mainne apni puri dastan sunai hai. pleej mera vishvas karen, main jhooth nahin bol raha hoon. chehre se aap mujhe sajjan lage isliye aapse kah diya, kyonki main musibat ka mara hoon. ” apni baat puri kar usne meri ankhon mein jhanka.
“vartaman mein to” mainne kaha, “hira kharidna pagalpan hi hoga, saath hi main jeb mein sau paunD ke not lekar to nikla nahin hoon aur phir sabse baDi baat main tumhari kahani par aadha vishvas kar raha hoon. atah main ye kar sakta hoon ki yadi tum chaho to kal mere aufis mein aa jana. ”
“to aapke vichar se main chor hoon ain” usne tez avaz mein kaha “aap pahile se hi pulis ko khabar kar denge hain na. nahin main aapke jaal mein phansne vala nahin hoon. ”
usne mera kaarD le liya aur meri sadbhavana bhi.
“achchhi tarah soch vichar kar lena aur phir aa jana”—. . . mainne kaha.
usne sandeh ke saath sir hilate hue kaha “kisi na kisi din main aapka aadha sikka byaaj sahit lauta dunga—aisa byaaj ki aap achambhe mein paD jayenge. ” usne kaha, “baharhal mere rahasya ko aap pleez kisi ko batlaiyega nahin. . . haan mera pichha karne ki bhi avashyakta nahin hai. ”
usne saDak paar ki aur andhere mein eseks street ki siDhiyan chaDhne laga. use jane diya aur yahi antim baar tha jab mainne use dekha tha.
baad mein mujhe do patr mile, jismen usne ek pate par nagad not bhejne ko likha tha. saath hi chek bhejne ko mana kiya tha. is pure mamle par mainne dhyaan se socha vichara aur mujhe jo behtar laga, mainne vahi kiya. ek baar wo ghar aaya, lekin tab main bahar tha. mere naukar ne batlaya ki wo behad dubla patla aur ganda tha, saath hi buri tarah khaans raha tha. wo koi sandesh nahin chhoD gaya tha. jahan tak is kahani ka parashn hai, yahi iska ant hai. kabhi kabhar main uske halat ke bare mein sochta rahta hoon. kya wo koi pagal tha ya qimti patthron ka vyapari ya phir kya usne vastav mein hire banaye the. jaisa usne kaha tha! uske patr se to yahi lagta hai ki mainne apni zindagi ka sabse achchha avsar ganva diya hai. ye bhi ho sakta hai ki wo mar khap gaya ho aur uske hire kahin kuDe kachre mein paDe honge. main ye baat to pure vishvas ke saath kahta hoon ki wo hira mere anguthe se baDa tha, ho sakta hai wo abhi bhi use bechne ke liye bhatak raha ho. ye bhi ho sakta hai ki wo sampann samaj mein ek din prakat ho aur mujhe sharminda kare meri murkhata par. kabhi kabhi sochta hoon ki mujhe paanch paunD ki risk to kam se kam leni hi chahiye thi.
chansalri len mein kinhin apriharya vyasttaon ke chalte main raat ko nau baje tak vyast raha aaya tha aur halke se sirdard ke karan mera man na to aage kaam karne ka rah gaya tha aur na hi kisi prakar ke manoranjan ki talash ka. traifik se sankari ho chuki us gali mein jhankta chhota sa akash khamosh raat ki ghoshna kar raha tha, isiliye mainne nadi ke kinare ja ankhon ko aram dene ke vichar se nadi mein shahr ki jhilmilati roshaniyon ko dekhne ka nishchay kar liya. ab ismen to koi sandeh hai hi nahin ki shor sharabe bhare shahr ki raton mein sukun adhik nahin milta. andhkar kripa kar gandgi ko chhipa deta hai aur is tezi se bhagte yug ki laal, chamkili narangi, gais ki pili aur bijli ki tez safed roshaniyan dhundhli parchhaiyon mein dikhti gumti—rahti hain gahri syaah aur gaDhe laal rang ke beech. vatarlu pul par lage sau lemp poston ki roshaniyan nadi ke Dhaal ko aspasht kar deti hain aur uske uupar se jhankti rahti hain vestmistar tavars ki syaah parchhaiyan khamoshi ke saath kali nadi bahti rahti hai, jise kabhi kabhar koi lahr bhang kar deti hai aur nadi ke uupar tairti roshaniyon ki parchhaiyon ke tukDe ho jate hain.
“aah! pyari sard, lekin garm raat. ” mere paas se avaz aai.
mainne sir ghumaya to ek adami ko nikat hi divar par jhuka paya. sajjanta se bhara ek chehra, badsurat kahin se nahin, halanki gaal mein gaDDhe the aur rangat pili. uupri band batan ke kot ka khaDa kalar uske jivan star ki ghoshna karta hua. mujhe achanak mahsus hua ki use uttar dene ka arth tha apne nashte aur raat katne ke kiraye se haath dhona.
mainne use ashcharya se dekha. kya uske paas aisa kuch batlane ko hoga, jo us raqam ke upyukt ho athva ye vyakti bhi un logon mein se hai, jo apni zindagi ki kahani sunane ki samarthya nahin rakhte. uska chauDa matha aur ankhen buddhiman hone ki ghoshna kar rahi theen, lekin uske kanpte hue nichle onth ne ant mein mujhe nirnay lene mein sahayata ki.
“huऽऽ kuch adhik hee” mainne uttar diya, “lekin hamari zarurat ke anukul to qatii nahin. ”
“kya kah rahe hain aap!” usne abhi bhi nadi ke dusre kinare ko dekhte hue kaha, “filhal to theek hi hai. . . kam se kam abhi. ”
“sabse behtar hai” kuch pal rukne ke baad usne aage kaha, “landan mein kuch shanti aur sukun dene vali jagah ko pa lena. pure din bhar ki thakan bhari vyavsayiki mitigon ki vyastata, uupar se samay par pahunch kaam ko sahi anjam de dena wo bhi traifik ke sare khatron ke bavjud—shanti dene vala kahin aur koi sthaan bhi nahin. ” apne vakyon ko wo ruk rukkar pura kar raha tha.
“svabhavik hai is duniya ki pareshaniyon se aap achchhi tarah parichit hi honge, anyatha aap kam se kam yahan to nahin hi hote. lekin kshama ki jiyega, aap meri jaisi thakan ka anubhav ko qatii nahin kar rahe honge. kabhi kabhi to man mein aata hai ki ye khel kya itna mahatvpurn hai bhee? mujhe to lagta hai mujhe sab kuch chhoD chhaDkar mukt ho jana chahiye, lekin phir dusra paksh ye bhi hai ki yadi main apni mahatvakanksha se mukti pa loon halanki usne mujhe puri tarah nichoD to liya hi hai—to mere paas shesh zindagi mein sivaye pashchatap karne ke kuch bhi nahin bachega. ”
itna kah wo khamosh ho gaya. mainne use ashcharya se dekha. mera samna kisi nirasha ki gart mein paDe yadi kisi adami se kabhi hua tha—to wo yahi tha aur mere samne pratyaksh khaDa tha. uski haalat badhal thi—baDi daDhi aur balon ne hafton se kanghi ke darshan bhi nahin kiye the, uske halat ko dekh to aisa lagta tha, jaise wo pure hafte kisi kachre ke Dibbe mein paDa raha ho. aur us par mazak ye hai, wo baDe vyavsay ki pareshaniyon ki charcha kar raha tha. use dekh sun thahaka lagakar hansne ka man ho raha tha. ya to wo pagal tha ya phir wo apni gharibi ka mazak uDa raha tha.
yadi mahatvakanksha aur pad pratishtha, “mainne kaha, “ki pareshaniyan svabhavik hain tatha shram aur bechaini bhari hoti hai to badle mein ve santushti bhi to de jati hain—prabhav kshamata, bhala karne ki shakti, ashayon nirdhnon ki sahayata aur in sabse uupar atmsantushti. ”
us paristhiti vishesh mein mere munh se nikli ye bhalmansahat ki nasihton ke mool mein mujhe pata hai nichata thi. uske vakyon aur uske haav bhaav aur veshbhusha ke virodhabhas ko dekh mainne wo sab kaha tha. apni baat puri karte karte mujhe aisa kahne ka pachhtava hone laga tha.
usne apna dubla patla lekin shaant chehra meri or ghumaya aur kaha, “sauri, main to ye bhool hi gaya tha ki apaki samajh mein meri samasya aai nahin hogi. ”
kahkar kuch pal tak wo mujhe gaur se dekhta raha aur phir kaha, “ismen to koi sandeh hi nahin hai ki sab kuch avishvasniy aur akalpaniy hai. sach to ye hai ki jab main aapko batlaunga na, tab bhi aap vishvas nahin karenge aur isliye aapse kahna adhik surakshit hai, saath hi apne dil ka bojh utar jane se mujhe kuch rahat bhi milegi. aisa hai filhal mere hathon mein ek baDa udyog hai, vastav mein baDa, lekin haal filhal kuch samasyayen hain. sach to ye hai ki. . . main hire banata hoon. ”
“mera vichar hai” mainne kaha “shayad in dinon tumhare paas koi kaam nahin hai. ”
“main is avishvas se thak gaya hoon”, usne pareshan ho kaha aur apne gande se kot ki batnen khol usne ek chhoti si thaili nikali, jo uski gardan mein rassi se bandhi latki thi. thaili se usne bhure rang ka ek patthar nikal meri or baDhate hue kaha, aap batala sakte hain ye kya hai?” vakya pura karte usne mujhe wo patthar de diya.
ab sach ye tha ki varsh DeDh varsh pahle mujhe kuch fri taim mila tha, jismen mainne landan se sains Digri praapt kar li thi, atah mujhe bhautik shaastr tatha khanij vigyan ka kuch chaltaun sa gyaan ho gaya tha. angaDh hire ki tarah wo kuch kuch dikh raha tha, halanki wo tha baDa qarib mere anguthe ke barabar. use ungliyon mein le use ghuma phira kar main parakhne laga. wo ashtkoni tha aur uska kuch hissa tarasha gaya tha, jaisa bahumulya khanijon mein prayah hota hai. apna jebi chaku nikal mainne kharonchne ki koshish ki, lekin asaphal raha. gais laimp ki roshni mein samne jhuk apni haath ghaDi ke kaanch par us patthar se lakir khinchi to us par asani se ek safed lain ban gai.
mainne kaanch ko utsaah se bhar dekhte hue kaha—”yah dikhta to hira jaisa hi hai. yadi ye sachmuch mein hira hai to hiron ki duniya mein ise chamatkar hi svikara jayega. baharhal tumhein ye kahan mila?”
“mainne ise banaya hai”, usne kaha “laiye mujhe de dijiye. ”
mere haath se usne use thaili mein jaldi se Dala aur gardan mein thaili taang, batan band kar liye.
“main aapko sau paunD mein de dunga”, usne achanak phusaphusate hue utsaah se bhar kar kaha. ye sunte hi mere sandeh jaag ge. wo hire ki tarah ka kathor kuranDam bhi to ho sakta hai, jo dikhne mein hire jaisa hai. phir yadi vastav mein ye hira hi hai to iske paas bhala aaya kaise aur sabse aham parashn ye maatr se paunD mein kyon bech raha hai?
hum donon ne hi ek dusre ki ankhon mein jhanka. wo utsuk tha iimandari se vyagr. us pal to mujhe vishvas ho gaya ki wo mujhe hira bechne ki hi koshish kar raha hai. aur phir main koi dhanvan to tha nahin, sau paunD jeb se nikal jane par achchha khasa baink bailens kam ho jayega aur phir koi bhi thoDi bahut buddhi vala adami bhi gais lait ki roshni mein kisi avara se dikhte adami se kam se kam hira to nahin hi kharidega. lekin ye bhi sach hai ki utne baDe akar ke hire ka arth hazaron paunD hota hai. tabhi mere man mein parashn utha ki itne baDe akar ka hira to charchit hona chahiye aur uska varnan pratyek javaharat ki pustak mein milna chahiye. iske saath hi mujhe nakli hiron aur keptaun ke kafiron ke paas mile halke hiron ki kahaniyan yaad aane lagin. ant mein mainne kharidne ke saval ko puri tarah kinare kar diya.
“achchha, tumhein ye mila kaise?” mainne puchha.
“mainneऽऽऽ mainne ise banaya hai. ”
mainne mosayan ke bare mein sun rakha tha, lekin mujhe pata tha ki uske hire bahut chhote the. mainne sir hila diya.
“mujhe lagta hai aap javahraton ke bare mein kuch na kuch jante hain. theek hai, main aapko apne vishay mein batlata hoon, tab shayad aap ise kharidne ke bare mein nirnay kar saken. ” itna kah usne nadi ki or peeth ki aur apne donon haath jeb mein Daal ek lambi saans lete hue kaha “main janta tha ki aap vishvas nahin karenge. ”
‘hire’ usne kahna shuru kiya—aur jaise jaise wo bolta gaya uski avaz avara ki jagah shikshit vyakti ki bhasha mein parivartit hoti chali gai—prapt karne ke liye karban ko upyukt bahav aur dabav ki avashyakta hoti hai, tabhi hire ke kan praapt kiye ja sakte hain —kale charkol pauDar ke roop mein nahin, varan chhote chhote hiron ke roop mein. ye satya to rasayanikon ko varshon se pata hai, lekin uchit phlks (bahav) jismen karban pighalta hai athva upyukt dabav ki matra koi nahin janta. parinamasvrup rasayan shastriyon dvara nirmit hire chhote, kankaD patthar hi ghoshit kiye jate hain. aap jante hain mainne apna pura jivan isi samasya ke hal karne mein laga kya diya, khapa hi diya hai”
“mainne hire nirman ki vastavik paristhiti ko janne ki shuruat satrah varsh ki umr mein ki thi aur ab battis varsh ka hoon. meri raay mein to das varsh ka vichar manthan aur shakti laga den ya bees varsh ka, is khel ke liye zyada nahin hai. sukhad parinam ki tulna mein. ” zara sochiye, adami ko sahi vidhi ka pata chal jaye aur rahasya ke sarvajnik hone tak jab hira koyle jaisa sulabh ho jayega, tab tak to wo vyakti karoDon kama lega, karoDon!”
itna kah wo khamosh ho meri or sahanubhuti ki apeksha se dekhne laga. uski ankhen bhookh se chamak rahin theen.
“ab sochiye” usne kuch ruk kar kaha ki main is khoj ki kagar par khaDa hoon aur aapke samne upasthit hoon. ”
“mere paas” usne aage kahna shuru kiya, “ek hajar paunD ke asapas the, aur main ikkis varsh ka tha. tab mera vichar tha ki kisi skool mein paart taim paDha kar main apna risarch aram se karta rahunga. ek do varsh to paDhai mein nikal ge vishesh kar barlin mein aur uske baad mainne apna kaam prarambh kar diya. meri sabse baDi samasya to risarch ko gupt rakhne ki thi. aap samajh rahe hain na meri samasya ki gambhirta ko. yadi ek vyakti ko bhi mere kaam ki hava lag jati to pata nahin kitne log isi kaam mein jut jate aur phir main koi mahan vaigyanik to hoon nahin ki main unse pahile khoj kar hi loon, iski koi garanti nahin hai. aur sabse mahatvpurn ye tha ki yadi mujhe dhanvan banna hai to kisi ko bhi kanonkan pata nahin chalna chahiye ki main hiron ka nirman tanon ki matra mein aram se kar sakta hoon. atah mujhe puri tarah akele hi kaam karna tha. shuruat mein to mere paas ek prayogashala thi, lekin jab meri punji khatam hone lagi, to mainne apna prayog kaitish shahr ke ek gande se kamre mein karna shuru kiya, jahan apne prayog ke tamajham ke beech main zamin par chatai mein soya karta tha. meri punji bah chuki thi. vaigyanik upakarnon ke alava aur kuch to main kharid hi nahi pa raha tha. mainne adhyapan kar gaDi ghasitne ki koshish ki, lekin main
achchha shikshak nahin hoon aur na hi mere paas vishvavidyalay ki Digri hi thi, rasayan shaastr ko chhoDkar anya vishyon ka gyaan bhi paryapt na tha. uupar se mainne paya ki mere paas kaam adhik tha aur jeben khali theen. in sab viprit paristhitiyon ke bavjud main uddeshya ke nikat pahunch raha tha. teen varsh pahle mainne phlaks (bahav) ki samasya hal kar li, saath hi apne phlaks mein kuch karban mishran ko ek gan bairal mein pani ke saath achchhi tarah se band kar diya aur use bhatti mein tapane laga. ”
itna kah wo ruk gaya.
“yah to khasa khatarnak hi tha” mainne kaha.
“haan. . . wo phat gaya tha aur mere kamre ki khiDkiyan aur sabhi upakran nasht ho ge the, lekin saath hi mujhe hire ka pauDar mil gaya tha. ubalte mishran par adhik dabav dvara kanon ke banne ki samasya par sir khapate vaqt mujhe peris leboretri Des panDres et salphatres mein kiye ge Dorbe ke risarch ko paDhne ka avsar mila tha, usi ke anusar chalne par steel silenDar mein Daynamait se visphot ho gaya tha. lekin is vidhi se silenDar ke phatne ki koi ashanka nahin thi. dakshin afrika mein kiye jane vale chattanon ke visphot ki tarah qatii nahin. is apratyashit visphot se meri pareshaniyan baDh gai theen, kyonki meri mali haalat ke anusar silenDar khasa manhaga tha, atah mainne apne kaam layak silenDar phir se banaya, theek us risarch ke anusar. sab kuch vyavasthit Dhang se kar pharnes mein aag laga kuch samay ke liye main tahalne bahar chala gaya.
uske tariqe ko sun main apni hansi mae rok nahin paya. “kya tumne ye bhi nahin socha ki tumhari is harkat se pura makan bhi to uD sakta tha. kya usmen dusre log nahin rahte the?”
“main to vigyan ki bhalai ke liye kar raha tha” usne kuch der tak khamosh rahne ke baad kaha, “mere ghar ki nichli manjil mein ek pherivale ka parivar tha, mere pichhe ek patr likhne vala aur uupar do phool bechne vali striyan theen. us samay mere man mein aisa koi vichar hi nahin aaya tha. lekin sambhavtah us samay unmen se kuch ghar se bahar ge hue the. ”
“jab main vapas lauta to sab kuch vaisa hi tha, jaisa garm laal koylon ke beech main chhoDkar gaya tha. visphot ne kes ko toDa nahin tha. uske alava ek aur samasya mere samne khaDi ho gai. aap to jante hi hain ki kan nirman mein sarvadhik mahatvpurn hota hai samay. yadi aapne zara si bhi jaldbazi kar di to kristal chhote akar mein banenge—adhik samay dene par hi unka akar baDhega. isliye mainne upakran ko thanDa hone ke liye do varsh ke liye jas ka tas chhoD diya, lekin makan kiraya, aag jalaye rakhne ke kharch se bhi baDi samasya pet ki bhookh shaant karne ki mere samne vikral roop mein khaDi thi. “
“main aapko batala nahin sakta, kitni shifton mein un dinon main kaam kar raha tha hira banane ke liye. mainne un dinon akhbar beche, ghoDon ko pakaDkar khaDa raha, taiksi ke darvaze khole, kai hafton tak lifafon par pata likhta raha. ek adami ke yahan sahayak ka kaam bhi shuru kiya, jiske paas ek thela tha—saDak ke ek chhor par vahi avaz lagaya karta tha aur dusre par main. beech mein to aisa samay bhi jab mere paas koi kaam tha hi nahin—us samay mainne bheekh tak mangi. kya haphta tha vo! ek din koyala samapt hone ko tha aur pet mein ek dana bhi mainne nahin Dala tha, tabhi ek adami ne jo ek laDki ko patakar le jana chahta tha, us par raub jhaDne ke liye mujhe chhai pains diye the. uske ghamanD ka abhari tha main. vahin paas ki machhli ki dukan se kya khushbu aa rahi thi, lekin mainne wo raqam puri ki puri koyle par kharch kar di aur apni bhatti ko phir se laal kar diya. bhookh adami ko gadha banne par majbur kar deta hai.
“teen hafte pahle mainne ant mein aag bujha di thi. mainne silenDar ko uthaya, halanki wo behad garm tha, usne mere hathon ko chhune ki saza bhi turant de di. lekin iske bavjud mainne us lava jaise padarth ko kharoncha aur ek lohe ki plet mein ikattha kar liya. mujhe teen baDe aur paanch chhote hire mil ge the. jab main farsh par baitha hathoDa chala raha tha, tabhi mera darvaza khula aur mera patr lekhak ghatiya paDosi bhitar aa gaya. wo sharab piye hue tha, jaisa wo hamesha piye rahta hai.
“atankvadi” usne kaha. “tum sharab piye hue ho” mainne use samjhate hue kaha, “hatyare shaitan!” usne kaha. “uske baap ke paas jao na” mainne kaha, mera tatparya jhuthon ke baap se tha. “parvah nahin” kahte usne ankh mari aur hichki li. wo darvaze ke samne khaDa tha, uski dusri ankh darvaze par tiki thi. wo baDabDaye ja raha tha ki kaise wo mere kamre mein talashi leta raha hai aur us subah hi wo thane gaya tha aur kaise pulis ne sab kuch not kar liya tha aur ab jel mein chakki pisne ko taiyar rahun main. sunte hi mujhe ahsas ho gaya ki main janjal mein phans chuka hoon. ab ya to mujhe pulis ko apna rahasya batlana hoga aur aisa karne par sab kuch jag zahir ho jayega aur aisa na karne par atankvadi ghoshit kar diya jaunga. baharhal uth kar main paDosi ke paas pahuncha aur uska kalar pakaD pitai ki aur hire utha kar vahan se bhaag liya. usi shaam ke akhbar mein mere ghar kentish ko taun bam faiktri ghoshit kar diya gaya. aur is tarah main na to unhen bech hi sakta hoon, na bhent hi kar sakta hoon. ”
“ab yadi main prasiddh johariyon ki dukanon mein jaunga na, to ve mujhe kuch der rukne ko kah naukar se pulis ko bulane ka ishara kar denge aur mujhe turant kahna paDega ki main intzaar nahin kar sakta. main chori ka saman bechne vale ke paas gaya tha. use mainne jo hira diya, wo to usne rakh liya aur dhamkate hue kaha jao pulis mein riport kar do, main tumhein na to hira dunga aur na hi rupe aur haal filhal main gardan mein hajaron paunD ke hire latkaye bhatak raha hoon. aur mere paas na to sir chhipane ko koi chhat hai aur na hi pet mein ek dana. aap pahle vyakti hain, jisse mainne apni puri dastan sunai hai. pleej mera vishvas karen, main jhooth nahin bol raha hoon. chehre se aap mujhe sajjan lage isliye aapse kah diya, kyonki main musibat ka mara hoon. ” apni baat puri kar usne meri ankhon mein jhanka.
“vartaman mein to” mainne kaha, “hira kharidna pagalpan hi hoga, saath hi main jeb mein sau paunD ke not lekar to nikla nahin hoon aur phir sabse baDi baat main tumhari kahani par aadha vishvas kar raha hoon. atah main ye kar sakta hoon ki yadi tum chaho to kal mere aufis mein aa jana. ”
“to aapke vichar se main chor hoon ain” usne tez avaz mein kaha “aap pahile se hi pulis ko khabar kar denge hain na. nahin main aapke jaal mein phansne vala nahin hoon. ”
usne mera kaarD le liya aur meri sadbhavana bhi.
“achchhi tarah soch vichar kar lena aur phir aa jana”—. . . mainne kaha.
usne sandeh ke saath sir hilate hue kaha “kisi na kisi din main aapka aadha sikka byaaj sahit lauta dunga—aisa byaaj ki aap achambhe mein paD jayenge. ” usne kaha, “baharhal mere rahasya ko aap pleez kisi ko batlaiyega nahin. . . haan mera pichha karne ki bhi avashyakta nahin hai. ”
usne saDak paar ki aur andhere mein eseks street ki siDhiyan chaDhne laga. use jane diya aur yahi antim baar tha jab mainne use dekha tha.
baad mein mujhe do patr mile, jismen usne ek pate par nagad not bhejne ko likha tha. saath hi chek bhejne ko mana kiya tha. is pure mamle par mainne dhyaan se socha vichara aur mujhe jo behtar laga, mainne vahi kiya. ek baar wo ghar aaya, lekin tab main bahar tha. mere naukar ne batlaya ki wo behad dubla patla aur ganda tha, saath hi buri tarah khaans raha tha. wo koi sandesh nahin chhoD gaya tha. jahan tak is kahani ka parashn hai, yahi iska ant hai. kabhi kabhar main uske halat ke bare mein sochta rahta hoon. kya wo koi pagal tha ya qimti patthron ka vyapari ya phir kya usne vastav mein hire banaye the. jaisa usne kaha tha! uske patr se to yahi lagta hai ki mainne apni zindagi ka sabse achchha avsar ganva diya hai. ye bhi ho sakta hai ki wo mar khap gaya ho aur uske hire kahin kuDe kachre mein paDe honge. main ye baat to pure vishvas ke saath kahta hoon ki wo hira mere anguthe se baDa tha, ho sakta hai wo abhi bhi use bechne ke liye bhatak raha ho. ye bhi ho sakta hai ki wo sampann samaj mein ek din prakat ho aur mujhe sharminda kare meri murkhata par. kabhi kabhi sochta hoon ki mujhe paanch paunD ki risk to kam se kam leni hi chahiye thi.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 31)
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