पूरा हफ़्ता बीत जाता है छुट्टी के दिन का इंतिज़ार करते और जब छुट्टी का दिन आता है तो मन और भी आतंकित हो जाता है। पूरा दिन एक ऊब और बेचैनी के साथ कैसे कटेगा—सोचते ही मन और भी झल्ला उठता है। छुट्टी के दिन की दिनचर्या भी अजीब होती है। देर तक सोने की इच्छा के बावजूद नींद लगभग समय पर ही खुलती है। कुनमुनाया, अलसाया... थोड़ी देर और सो लेने की कोशिश में थोड़ा सा वक़्त और जाया हो जाता है। आख़िर न चाहते हुए भी उठना ही पड़ता है। हाथ-मुँह धोकर ट्रैक सूट पहनता हूँ। देखता हूँ पत्नी अभी तक मिट्टी के लोंदे की तरह बिस्तर पर बिखरी पड़ी है। उसे पता है कि आज छुट्टी का दिन है सो वह आज देर तक सोएगी। मन करता है कि उसके फैले हुए नितंबों पर एक ज़ोरदार लात मारूँ मगर फिर ख़ुद को सँभाल लेता हूँ। जानता हूँ कि अब चाहे अनचाहे सारा दिन इसी के साथ गुज़ारना है सो सुबह-सुबह उसे चूमने में ही भलाई है। मैं उसे चूमता हूँ लेकिन सुबह-सुबह उसके मुँह की बास मेरे भीतर एक अजीब तरह की मितली पैदा कर देती है। मन करता है कि उसकी बिखरी हुई देह पर उल्टी कर दूँ लेकिन कर नहीं पाता। बहुत सी चीज़ें हम चाहकर भी नहीं कर पाते। जैसे हम चाहकर भी महँगाई को नहीं रोक पाते। हाँ, महँगाई से याद आया—दो महीने हो गए बिजली का बिल जमा किए। इस महीने जमा न किया तो कनेक्शन ही कट जाएगा। सोचा था इस छुट्टी में करा ही दूँगा, हर बार टल जाता है। हालाँकि बिजली पानी का बिल जमा कराना भी किसी सिरदर्द से कम नहीं। छुट्टीवाले दिन वैसे भी आधे ही दिन बिल जमा होते हैं। फिर इतनी लंबी लाइन लगती है कि पूछो मत। समझिए कि आधा दिन तो इसी में गया। मैं घड़ी देखता हूँ। सुबह के सात बज रहे हैं। मैं पत्नी को घर में सोता छोड़कर बाहर घूमने निकल जाता हूँ। सुबह घूमने के बहाने एक पंथ दो काज हो जाते हैं। दरअसल घर ख़र्च कम करने की कवायद में दो तीन महीने पहले पत्नी ने घर आने वाला अख़बार बंद करा दिया। पत्नी को लगता है कि अख़बार ख़रीदना फ़िज़ूलख़र्ची है और अख़बार पढ़ना समय की बर्बादी। आख़िर होता ही क्या है अख़बारों में आजकल—वही रोज़ की बासी ख़बरें-चोरी, छिनैती, बलात्कार, घोटाले...। लेकिन सुबह-सुबह अख़बार पढ़ने की अपनी बरसों पुरानी आदत मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया। सुबह सुबह अख़बार न पढ़ो तो लगता है कि दिन की ठीक से शुरुआत ही नहीं हुई। पहले मैं सुबह सुबह बाथरूम में अख़बार लेकर घुस जाता था और नित्यकर्म करते हुए पूरा अख़बार चाट लेता था। फिर तर-ओ-ताज़ा होकर बाहर आता था। तब तक पत्नी भी चाय बनाकर ले आती थी और हम इत्मीनान से चाय पीते थे। लेकिन अब वे सब बीते दिनों की बातें हो गईं। अब तो सुबह टहलने के बहाने चाय की दुकान पर खड़े खड़े ही अख़बार भी पढ़ लेता हूँ। हालाँकि शुरू शुरू में ख़ाली-पीली अख़बार पढ़ने पर चायवाला भी मुझे बहुत तिरस्कारपूर्ण नज़रों से घूरता था और बार बार आकर पूछ जाता था कि साहब चाय चलेगी। मेरे मना करने पर वह बुरा-सा मुँह बना लेता। कभी कभी तो ऐसा भी हुआ कि उसने सीधे सीधे मुझसे कह दिया कि साहब गाहकों को बैठने दीजिए। धंधे का टाइम है। आपका क्या है, आप तो मुफ़त में अख़बार पढ़कर चले जाएँगे। धंधा तो हमारा खोटा होगा। उसकी ऐसी बातों का मुझे सचमुच बहुत बुरा लगता था। इस बुरे लगने के चलते ही अब कभी कभी मैं उसे हाफ़ चाय या सिगरेट का आर्डर दे देता हूँ और बदले में वह मुझे चुपचाप अख़बार पढ़ने देता है। हालाँकि हाफ़ कप चाय के बदले घंटे भर उसे मेरा अख़बार पढ़ना अब भी अखरता है लेकिन बेशर्मी से मैंने अब उसकी ओर ध्यान देना छोड़ दिया है।
चाय की दुकान पर सबसे पहले मैं अपना राशिफल देखता हूँ, फिर मौसम का हाल। राशिफल में लिखा है कि आज कोई शुभ सूचना मिलेगी और धनोपर्जन होगा। मैं सोचता हूँ कि आज महीने की बीसवीं तारीख़ है। धनोपर्जन की तो कहीं कोई संभावना नज़र नहीं आती बल्कि ख़र्च ही ख़र्च होना है। यही हाल मौसम के हाल का है। उसमें लिखा है आसमान साफ़ रहेगा लेकिन कहीं कहीं हल्की बूँदाबाँदी हो सकती है। मगर यहाँ तो सुबह से ही ज़बरदस्त बारिश के आसार नज़र आ रहे हैं। अख़बार में और भी तमाम ख़बरें हैं—मसलन पेट्रोलियम मंत्री ने पेट्रोल और डीज़ल के दामों में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी के संकेत दिए हैं और कृषि मंत्री का कहना है कि महँगाई रोकने के लिए उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। केंद्र इसके लिए राज्य सरकारों को दोष दे रहा है और राज्य सरकारें केंद्र को कोस रही हैं। बयान, बयान और बयान। पूरा अख़बार नेताओं और मंत्रियों की बयानबाज़ी से अटा पड़ा है। मैं सिगरेट के साथ हाफ़ चाय सुड़ककर अख़बार रख देता हूँ और सोचता हूँ अब सिगरेट भी छोड़ ही देनी चाहिए। सेहत और ख़र्च दोनों लिहाज़ से यह एक अच्छा विचार है। हालाँकि यह अच्छा विचार इससे पहले भी मुझे सैकड़ों बार आया है लेकिन उस पर अमल करने का विचार रोज़ अगले दिन के लिए टल जाता है।
मैं देखता हूँ घड़ी में आठ बज रहे हैं और आसमान में बादल घने हो रहे हैं। मुझे जल्द ही नहा-धोकर बिजलीघर जाना होगा वरना बारिश से सब गुड़ गोबर हो सकता है। मैं तेज़ क़दमों से घर की ओर लौट पड़ता हूँ। घर में पत्नी रसोई में उठापटक कर रही है। यह उसकी रोज़ की खीझ है जो रसोई में बर्तनों पर निकलती है जिसे मैं रोज़ की तरह ही सुनकर अनसुना कर देता हूँ। लेकिन तभी उसकी खीझभरी आवाज़ आती है—'गैस ख़त्म हो गई है। कितने दिन से कह रही थी बुक करवा दो... लेकिन कोई सुने तब न...'
—'गैस के दाम भी बढ़ गए हैं।' मैं कहता हूँ।
—'तो?'
—'तो... तो कुछ नहीं। आज बिजलीघर जाना है बिल जमा कराने।'
—'पहले गैस का कुछ इंतिज़ाम करो।'
मैं नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाता हूँ। पत्नी की बड़बड़ाहट नल के पानी के शोर में गुम हो जाती है। मेरे नहाकर बाथरूम से बाहर आने तक पत्नी ने नाश्ता तैयार कर दिया है। नाश्ता करते हुए मैं गुनगुनाने लगता हूँ—गिलोरी बिना चटनी कैसे बनी...। लेकिन पत्नी मुझे अनसुना करते हुए बड़बड़ा रही है जैसे मैं उसे अनसुना करते हुए गुनगुना रहा हूँ।
—'सिलेंडर झुकाकर थोड़ी-सी गैस निकल आई लेकिन जैसे भी हो दोपहर तक कहीं से भी गैस का बंद-ओ-बस्त करो वरना खाना भी नहीं बन पाएगा। कितनी बार कहा कि दूसरा सिलेंडर बुक करवा लो। कभी अचानक गैस ख़त्म हो जाए तो ये दिन तो न देखना पड़े... मगर सुनता कौन है...'
—'अब ठीक है... बिजलीघर जाते हुए बुक करवाता आऊँगा।'
—'बुक वुक नहीं... गैस आज ही आनी चाहिए और अभी।' मैं कोई जवाब नहीं देता और तैयार होकर घर से निकल पड़ता हूँ। दस बज गए हैं। बाहर हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो गई है। शुक्र है कि मौसम को देखते हुए छतरी साथ लेता आया था। बिजलीघर पहुँचते पहुँचते बारिश और भी तेज़ हो गई लेकिन बिल जमा कराने वालों की लाइन में कहीं कोई कमी नहीं आई। बिल काउंटर के पास कीचड़ ही कीचड़ हो गया है। बारिश की फुहारों से बचने के लिए लोग ठेलमठेल मचाए हैं। लाइन इतनी लंबी है कि लगता नहीं कि दो घंटे बाद भी मेरा नंबर आ पाएगा। काउंटर क्लर्क इतना सुस्त है कि एक एक आदमी पर दस दस मिनट लगा रहा है। लोग कुनमुना रहे हैं और सरकारी कर्मचारियों की काहिली को कोस रहे हैं। बीच बीच में कोई काउंटर क्लर्क का जान पहचानवाला आ जाता है तो उसका काम आउट आफ़ वे जाकर भी हो जाता है जिससे लाइन में लगे लोगों का ग़ुस्सा बढ़ जाता है और हल्ला शुरू हो जाता है। हालाँकि इस हल्ले का कोई असर नहीं होता। बस लोग बड़बड़ाते रहते हैं और जान पहचानवाले या दबंग लोग लाइन को धकियाकर अपना काम करा ले जाते हैं। मैं घड़ी देखी साढ़े ग्यारह होने को आए। अब भी पाँच-सात लोग लाइन में हैं। मेरी बेचैनी बढ़ जाती है। लगता नहीं कि आज मेरा नंबर आ पाएगा। एक एक पल भारी होता जा रहा है। ग्यारह बजकर पचास मिनट हो गए हैं। दो लोग अब भी मेरे आगे हैं। मैं हड़बड़ी में हूँ—भइया ज़रा जल्दी करो। काउंटर क्लर्क घुड़कर मेरी ओर देखता है। उसकी घुड़की में एक हिक़ारत है।
—'काम ही कर रहा हूँ। कोई मक्खी तो मार नहीं रहा।' जानता हूँ कि क्लर्क से बहस करने का कोई मतलब नहीं, वरना अभी काउंटर बंद कर देगा। बहरहाल, मेरा नंबर आख़िरकार आ ही गया। घड़ी में अभी बारह बजने में पाँच मिनट बाक़ी हैं। मैं जैसे ही बिल की रसीद उसकी ओर बढ़ाता हूँ, वह पेशाब का बहाना करके उठ जाता है। मैं उसकी इस हरकत पर खीझ उठता हूँ पर कुछ कह नहीं पाता। पाँच मिनट बाद क्लर्क लघुशंका से निपटकर लौटता है और ऐलान कर देता है कि टाइम ख़त्म हो गया है, अब कल आना। मेरा दिल धक से रह जाता है। दो घंटे की मेहनत पर पानी फिरता नज़र आता है। अब मैं याचना की मुद्रा में आ गया हूँ।
—'दो घंटे से खड़ा हूँ सर... प्लीज़ जमा कर लीजिए बिल... वरना...'
—'वरना क्या? हम भी दो घंटे से काम ही कर रहे हैं, कोई झख तो नहीं मार रहे। इतनी ही जल्दी थी तो समय पर क्यों नहीं आए?'
—'प्लीज़ सर... बड़ी मुश्किल से आ पाया हूँ... मेहरबानी होगी...' मेरे चेहरे पर जाने कैसा तो दीनता का भाव है कि क्लर्क थोड़ा पसीजने लगता है।
—'अच्छा लाओ... लेकिन बाक़ी सब कल आएँ।' मेरी जान में थोड़ी जान आती है। आख़िरकार मेरा बिल जमा हो जाता है मगर पीछे से फिर वही शोर शुरू हो जाता है—प्लीज़ सर... प्लीज़ सर... लेकिन तब तक खिड़की बड़ी बेरहमी से बंद हो जाती है। मैं ख़ुश हूँ कि आख़िरकार मेरा बिल जमा हो गया। मुझमें एक विजेता का सा भाव घर करने लगता है।
बाहर बारिश और भी तेज़ हो गई है। घड़ी साढ़े बारह बजा रही है। अब मुझे फ़ौरन गैस स्टेशन की ओर भागना होगा वरना घर में खाना नहीं बनेगा। गैस स्टेशन पहुँचते पहुँचते एक डेढ़ बज जाते हैं मगर बारिश थमने का नाम नहीं लेती। मैं लगभग आधे से ज़ियादा भींग चुका हूँ। स्टेशन पहुँचने पर पता चलता है कि आज तो छुट्टी का दिन है। 'हे भगवान, अब क्या होगा?' मेरे हाथ-पाँव फूलने लगते हैं। मैं आस-पास लोगों से पूछता हूँ। रिरियाता हूँ। घर में गैस ख़त्म होने का हवाला देता हूँ। मेरे पेट में चूहे भी कूदने लगे हैं। घर में पत्नी भी भूखी होगी, मैं सोचता हूँ। तभी बीड़ी का सुट्टा लगाता हुआ एक दलाल टाइप आदमी मेरे पास आता है। वह घूरकर एक नज़र मेरी ओर देखता है।
—'गैस चाहिए?'
—'हाँ।'
—'ब्लैक में मिलेगा। तीस परसेंट एक्स्ट्रा।'
—'ये तो बहुत ज़ियादा है। कुछ कम में नहीं होगा?'
—'लेना है तो बोलो वरना रास्ता नापो।' मुझे पत्नी का खीझ और हताशा से भरा चेहरा याद आ जाता है। मैं फ़ौरन हाँ कह देता हूँ।
—'कितना लगेगा?'
—'सात सौ रुपए।' मैं पर्स टटोलता हूँ। पर्स में सिर्फ़ पाँच सौ रुपए हैं। मैं पाँच सौ रुपए उसे सौंप देता हूँ।
—'सिलेंडर घर पहुँचाओ। बाक़ी के पैसे घर पर दूँगा।'
—'सिलेंडर घर पहुँचाने के पचास रुपए एक्स्ट्रा लगेंगे।' वह मेरी मजबूरी का फ़ायदा उठा रहा है। मैं कहता हूँ—'ये तो ज़ियादती है।'
—'ज़ियादती वादती कुछ नहीं। एक तो छुट्टी का दिन, ऊपर से मौसम देख रहे हैं।' मैं झल्लाता हूँ मगर कुछ नहीं कर पाता। फ़ौरन सिलेंडर घर पहुँचाने को कहकर उसके साथ चल देता हूँ। घड़ी में दो बज रहे हैं। बारिश अब भी रुकने का नाम नहीं ले रही। हालाँकि गैस मिल जाने से मेरे भीतर एक सुकून-सा आ गया है। अब बारिश से भीगी मिट्टी की सोंधी गंध मुझे अच्छी लगने लगी है।
सिलेंडर के साथ जैसे-तैसे मैं घर पहुँचता हूँ। ढाई बज चुके हैं। पत्नी का पारा सातवें आसमान पर है। मैं उसकी ओर ध्यान नहीं देता और गैस वाले का बक़ाया भुगतान कर उसे रवाना कर देता हूँ। पत्नी भी बिना मुझसे कुछ कहे सिलेंडर रसोई में रखवा लेती है और खाना बनाने जुट जाती है। कुकर की सीटी और खाने की ख़ुश्बू से मेरी भूख और भी बढ़ जाती है। इस बीच मैं रूठी पत्नी को मनाने की योजना बनाने लगता हूँ। साढ़े तीन तक खाना बनकर तैयार हो जाता है और मैं झटपट खाने बैठ जाता हूँ। खाना आज कुछ ज़ियादा ही स्वादिष्ट लग रहा है। मैं भरपेट खाकर एक ज़ोरदार डकार लेता हूँ। पत्नी भी चुपचाप खाना खाकर बर्तन समेटकर रसोई में चली जाती है। मैं आराम की मुद्रा में थोड़ी देर टीवी देखने के लिए टीवी ऑन करता हूँ मगर बिजली गुल है। कमबख़्त बिजली में भी इन दिनों सात-आठ घंटे की कटौती होने लगी है। रोज़ रोज़ के धरना प्रदर्शन के बावजूद बिजली की हालत इन दिनों बद से बदतर होती जा रही है। अभी चार दिन पहले ग़ुस्साए लोगों ने बिजली विभाग के एसडीओ की उसके दफ़्तर में सरेआम पिटाई ही कर दी। मगर सरकार के कान पर जूँ रेंगने का नाम नहीं लेती। हारकर मैं बिस्तर पर लौटकर लेट जाता हूँ। हालाँकि नींद फिर भी नहीं आती। मैं बार-बार घड़ी देखता हूँ। साढ़े चार बज चुके हैं। मैं पत्नी को मनाने की तरकीबें सोचता हूँ और उठकर रसोई में चला आता हूँ जहाँ पत्नी चाय बना रही है। इस बेचारी को छुट्टी के दिन भी आराम नहीं सिवाय सुबह थोड़ी देर ज़ियादा सो लेने के। मैं उसे पीछे से अपनी बाँहों में भर लेता हूँ। वह झुँझला जाती है।
—'क्या कर रहे हो... छोड़ो... खिड़की खुली है कोई देख लेगा।'
—'देखता है तो देखे... अब तो खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों।' मैं रोमांटिक मूड में गुनगुनाने लगता हूँ।
—'क्या बात है... बड़ी मस्ती के मूड में हो।' पत्नी की आँखों में शरारत है। उसका ग़ुस्सा काफ़ूर हो उठा है। मैं उसके इसी अंदाज़ पर रीझ उठता हूँ। तमाम परेशानियाँ उसकी एक मुस्कान के आगे बौनी हो जाती हैं। मैं झट से उसके होठों को चूम लेता हूँ और उसे बाँहों में भरे भरे नाचने लगता हूँ—'छुट्टी का दिन है कि मस्ती में हैं हम... मस्त मस्त मस्ती... याहू्...' पत्नी प्यार से मुझे झिड़क देती है, 'अब बचपना छोड़ो और चलो चाय पियो।' मैं चाय का कप लिए उसके साथ ड्राइंगरूम में आ जाता हूँ। अब तक बिजली भी आ गई है। हम टीवी देखते हुए चाय पीने लगते हैं। शाम के साढ़े पाँच बज चुके हैं। पत्नी बाज़ार चलने की फ़रमाइश करने लगती है। मैं उसका मूड ख़राब करना नहीं चाहता। हालाँकि मन ही मन आज हुए ख़र्च का हिसाब लगाने लगता हूँ। एक ही दिन में कुल चार हज़ार की चपत लग चुकी है। 'ख़ैर... मौसम ख़ुशनुमा है और छुट्टी का दिन ख़राब नहीं करना है।' मैं सोचता हूँ और फ़ौरन बाज़ार के लिए तैयार होने लगता हूँ।
हम बाज़ार में हैं। शाम के सात बज रहे हैं। अँधेरा घिरने लगा है। बाज़ार में चारों ओर जगमगाहट है। लगता है जैसे मौसम का लुत्फ़ लेने पूरा शहर घरों से बाहर निकल आया है। नए-नए जोड़े हाथों में हाथ में डाले इत्मीनान से टहल रहे हैं या आइसक्रीम खा रहे हैं।
—'कितने दिन हुए इतने अच्छे मौसम में हमें बाजार आए... न।' पत्नी कहती है और मैं उसकी हाँ में हाँ मिला देता हूँ। टहलते-टहलते हम एक शापिंग मॉल के सामने आ जाते हैं। मॉल रंग बिरंगी रोशनियों में जगमगा रहा है और अपनी भव्यता और वैभव से पूरे शहर को मुँह चिढ़ा रहा है। शहर में पिछले दो साल में पाँच मॉल और मल्टीप्लैक्स खुले हैं और सब एक से बढ़कर एक। इस बीच रेहड़ी और खोमचे वालों की एक पूरी दुनिया ही उजड़ गई है और साप्ताहिक हाट बाज़ार का हाल बद से बदतर हो गया है। मॉल के आस पास रेहड़ी और खोमचे लगाने की सख़्त मनाही है और कभी भूल से भी किसी ने ऐसा दुस्साहस कर लिया तो उसके लिए पुलिस का ज़ालिम डंडा तो है ही। बहरहाल, मॉल के आगे लंबी लंबी गाड़ियों की लाइन लगी है और उसमें चढ़ते उतरते लोग मुझमें बेतरह हीनभावना पैदा कर रहे हैं। वे किसी दूसरी दुनिया से आए हुए लगते हैं जिनकी जेबें नोटों से भरी हुई हैं और जिनके चेहरे पर कहीं किसी दुःख, परेशानी या मुश्किल के निशान नहीं हैं।
मॉल के भीतर जगमग रोशनियों के बीच वस्तुओं का पूरा बाज़ार है जिनके ऊपर उनकी क़ीमतों के टैग लगे हैं। यहाँ हर चीज़ ब्रांडेड है और ब्रांड की ही क़ीमत है। लोग यहाँ चीज़ें अपनी ज़रूरत के हिसाब से नहीं, ब्रांड के हिसाब से लेते हैं। एक ब्रांडेड जींस की क़ीमत चार हज़ार, जूता सात हज़ार और बित्ते भर टॉप दो हज़ार। मेरे बग़ल में खड़ी एक अल्ट्रा मॉड लड़की झटपट एक जींस और टॉप उठाती है और उन्हें आज़माने के लिए ट्रायल रूम में घुस जाती है। दो मिनट बाद जब वह बाहर आती है तो मैं देखता हूँ उन कसे हुए कपड़ों में उसका शरीर जैसे फट पड़ने का आतुर है। डीप नेक टॉप और लो हिप जींस में उसका शरीर और भी दिलकश हो उठा है। मैं पत्नी से नज़रें बचाकर उसके शरीर के खुले गोपन अंगों को घूरने लगता हूँ और वह क्रेडिट कार्ड से पेमेंट कर बेपरवाही से टहलते हुए मॉल से बाहर निकल जाती है। पत्नी वहाँ तमाम चीज़ों को ललचाई निगाहों से उठा उठाकर देख रही है फिर उनकी क़ीमतें पढ़कर मायूस हो जाती है और चुपचाप उन्हें यथास्थान रख देती है। कुछ ज़रूरी चीज़ों की ख़रीदारी के बाद हम जगमग रौशनियों के उस संसार से बाहर आ जाते हैं। घड़ी में साढ़े आठ बज रहे हैं। रास्ते में गोलगप्पे खाने के बाद अपनी तमाम तमाम अधूरी इच्छाओं के साथ हम घर की ओर लौट पड़ते हैं। आख़िर सुबह दफ़्तर के लिए जल्दी उठना भी तो है।
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—to to kuch nahin aaj bijlighar jana hai bil jama karane
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—kaam hi kar raha hoon koi makkhi to mar nahin raha janta hoon ki clerk se bahs karne ka koi matlab nahin, warna abhi counter band kar dega baharhal, mera number akhiraka aa hi gaya ghaDi mein abhi barah bajne mein panch minat baqi hain main jaise hi bil ki rasid uski or baDhata hoon, wo peshab ka bahana karke uth jata hai main uski is harkat par kheejh uthta hoon par kuch kah nahin pata panch minat baad clerk laghushanka se nipatkar lautta hai aur ailan kar deta hai ki time khatm ho gaya hai, ab kal aana mera dil dhak se rah jata hai do ghante ki mehnat par pani phirta nazar aata hai ab main yachana ki mudra mein aa gaya hoon
—do ghante se khaDa hoon sar pleez jama kar lijiye bil warna
—warna kya? hum bhi do ghante se kaam hi kar rahe hain, koi jhakh to nahin mar rahe itni hi jaldi thi to samay par kyon nahin aye?
—pleez sar baDi mushkil se aa paya hoon mehrbani hogi mere chehre par jane kaisa to dinta ka bhaw hai ki clerk thoDa pasijne lagta hai
—achchha lao lekin baqi sab kal ayen meri jaan mein thoDi jaan aati hai akhiraka mera bil jama ho jata hai magar pichhe se phir wahi shor shuru ho jata hai—pliz sar pleez sar lekin tab tak khiDki baDi berahmi se band ho jati hai main khush hoon ki akhiraka mera bil jama ho gaya mujhmen ek wijeta ka sa bhaw ghar karne lagta hai
bahar barish aur bhi tez ho gai hai ghaDi saDhe barah baja rahi hai ab mujhe fauran gas station ki or bhagna hoga warna ghar mein khana nahin banega gas station pahunchte pahunchte ek DeDh baj jate hain magar barish thamne ka nam nahin leti main lagbhag aadhe se ziyada bheeng chuka hoon station pahunchne par pata chalta hai ki aaj to chhutti ka din hai he bhagwan, ab kya hoga? mere hath panw phulne lagte hain main aas pas logon se puchhta hoon ririyata hoon ghar mein gas khatm hone ka hawala deta hoon mere pet mein chuhe bhi kudne lage hain ghar mein patni bhi bhukhi hogi, main sochta hoon tabhi biDi ka sutta lagata hua ek dalal type adami mere pas aata hai wo ghurkar ek nazar meri or dekhta hai
—gas chahiye?
—han
—black mein milega tees parsent ekstra
—ye to bahut ziyada hai kuch kam mein nahin hoga?
—lena hai to bolo warna rasta napo mujhe patni ka kheejh aur hatasha se bhara chehra yaad aa jata hai main fauran han kah deta hoon
—kitna lagega?
—sat sau rupae main purse tatolta hoon purse mein sirf panch sau rupae hain main panch sau rupae use saunp deta hoon
—silenDar ghar pahunchao baqi ke paise ghar par dunga
—silenDar ghar pahunchane ke pachas rupae ekstra lagenge wo meri majburi ka fayda utha raha hai main kahta hun—ye to ziyadati hai
—ziyadati wadti kuch nahin ek to chhutti ka din, upar se mausam dekh rahe hain main jhhallata hoon magar kuch nahin kar pata fauran silenDar ghar pahunchane ko kahkar uske sath chal deta hoon ghaDi mein do baj rahe hain barish ab bhi rukne ka nam nahin le rahi halanki gas mil jane se mere bhitar ek sukun sa aa gaya hai ab barish se bhigi mitti ki sondhi gandh mujhe achchhi lagne lagi hai
silenDar ke sath jaise taise main ghar pahunchta hoon Dhai baj chuke hain patni ka para satwen asman par hai main uski or dhyan nahin deta aur gas wale ka baqaya bhugtan kar use rawana kar deta hoon patni bhi bina mujhse kuch kahe silenDar rasoi mein rakhwa leti hai aur khana banane jut jati hai cooker ki siti aur khane ki khushbu se meri bhookh aur bhi baDh jati hai is beech main ruthi patni ko manane ki yojna banane lagta hoon saDhe teen tak khana bankar taiyar ho jata hai aur main jhatpat khane baith jata hoon khana aaj kuch ziyada hi swadisht lag raha hai main bharpet khakar ek zordar Dakar leta hoon patni bhi chupchap khana khakar bartan sametkar rasoi mein chali jati hai main aram ki mudra mein thoDi der tiwi dekhne ke liye tiwi on karta hoon magar bijli gul hai kambakht bijli mein bhi in dinon sat aath ghante ki katauti hone lagi hai roz roz ke dharna pradarshan ke bawjud bijli ki haalat in dinon bad se badtar hoti ja rahi hai abhi chaar din pahle ghussaye logon ne bijli wibhag ke esDio ki uske daftar mein saream pitai hi kar di magar sarkar ke kan par joon rengne ka nam nahin leti harkar main bistar par lautkar let jata hoon halanki neend phir bhi nahin aati main bar bar ghaDi dekhta hoon saDhe chaar baj chuke hain main patni ko manane ki tarkiben sochta hoon aur uthkar rasoi mein chala aata hoon jahan patni chay bana rahi hai is bechari ko chhutti ke din bhi aram nahin siway subah thoDi der ziyada so lene ke main use pichhe se apni banhon mein bhar leta hoon wo jhunjhla jati hai
—kya kar rahe ho chhoDo khiDki khuli hai koi dekh lega
—dekhta hai to dekhe ab to khullamkhulla pyar karenge hum donon main romantic mood mein gungunane lagta hoon
—kya baat hai baDi masti ke mood mein ho patni ki ankhon mein shararat hai uska ghussa kafur ho utha hai main uske isi andaz par reejh uthta hoon tamam pareshaniyan uski ek muskan ke aage bauni ho jati hain main jhat se uske hothon ko choom leta hoon aur use banhon mein bhare bhare nachne lagta hun—chhutti ka din hai ki masti mein hain hum mast mast masti yahux patni pyar se mujhe jhiDak deti hai, ab bachpana chhoDo aur chalo chay piyo main chay ka kap liye uske sath Draingrum mein aa jata hoon ab tak bijli bhi aa gai hai hum tiwi dekhte hue chay pine lagte hain sham ke saDhe panch baj chuke hain patni bazar chalne ki farmaish karne lagti hai main uska mood kharab karna nahin chahta halanki man hi man aaj hue kharch ka hisab lagane lagta hoon ek hi din mein kul chaar hazar ki chapat lag chuki hai khair mausam khushnuma hai aur chhutti ka din kharab nahin karna hai main sochta hoon aur fauran bazar ke liye taiyar hone lagta hoon
hum bazar mein hain sham ke sat baj rahe hain andhera ghirne laga hai bazar mein charon or jagmagahat hai lagta hai jaise mausam ka lutf lene pura shahr gharon se bahar nikal aaya hai nae nae joDe hathon mein hath mein Dale itminan se tahal rahe hain ya icecream kha rahe hain
—kitne din hue itne achchhe mausam mein hamein bajar aaye na patni kahti hai aur main uski han mein han mila deta hoon tahalte tahalte hum ek shaping mall ke samne aa jate hain mall rang birangi roshaniyon mein jagmaga raha hai aur apni bhawyata aur waibhaw se pure shahr ko munh chiDha raha hai shahr mein pichhle do sal mein panch mall aur maltiplaiks khule hain aur sab ek se baDhkar ek is beech rehDi aur khomche walon ki ek puri duniya hi ujaD gai hai aur saptahik hat bazar ka haal bad se badtar ho gaya hai mall ke aas pas rehDi aur khomche lagane ki sakht manahi hai aur kabhi bhool se bhi kisi ne aisa dussahas kar liya to uske liye police ka zalim DanDa to hai hi baharhal, mall ke aage lambi lambi gaDiyon ki line lagi hai aur usmen chaDhte utarte log mujhmen betarah hinabhawana paida kar rahe hain we kisi dusri duniya se aaye hue lagte hain jinki jeben noton se bhari hui hain aur jinke chehre par kahin kisi duःkh, pareshani ya mushkil ke nishan nahin hain
mall ke bhitar jagmag roshaniyon ke beech wastuon ka pura bazar hai jinke upar unki qimton ke taig lage hain yahan har cheez branDeD hai aur brand ki hi qimat hai log yahan chizen apni zarurat ke hisab se nahin, brand ke hisab se lete hain ek branDeD jeans ki qimat chaar hazar, juta sat hazar aur bitte bhar top do hazar mere baghal mein khaDi ek altra mauD laDki jhatpat ek jeans aur top uthati hai aur unhen azmane ke liye trayal room mein ghus jati hai do minat baad jab wo bahar aati hai to main dekhta hoon un kase hue kapDon mein uska sharir jaise phat paDne ka aatur hai Deep nek top aur lo hip jeans mein uska sharir aur bhi dilkash ho utha hai main patni se nazren bachakar uske sharir ke khule gopan angon ko ghurne lagta hoon aur wo credit card se pement kar beparwahi se tahalte hue mall se bahar nikal jati hai patni wahan tamam chizon ko lalchai nigahon se utha uthakar dekh rahi hai phir unki qimaten paDhkar mayus ho jati hai aur chupchap unhen yathasthan rakh deti hai kuch zaruri chizon ki kharidari ke baad hum jagmag raushniyon ke us sansar se bahar aa jate hain ghaDi mein saDhe aath baj rahe hain raste mein golgappe khane ke baad apni tamam tamam adhuri ichchhaun ke sath hum ghar ki or laut paDte hain akhir subah daftar ke liye jaldi uthna bhi to hai
pura hafta beet jata hai chhutti ke din ka intizar karte aur jab chhutti ka din aata hai to man aur bhi atankit ho jata hai pura din ek ub aur bechaini ke sath kaise katega—sochte hi man aur bhi jhalla uthta hai chhutti ke din ki dincharya bhi ajib hoti hai der tak sone ki ichha ke bawjud neend lagbhag samay par hi khulti hai kunamunaya, alsaya thoDi der aur so lene ki koshish mein thoDa sa waqt aur jaya ho jata hai akhir na chahte hue bhi uthna hi paDta hai hath munh dhokar track soot pahanta hoon dekhta hoon patni abhi tak mitti ke londe ki tarah bistar par bikhri paDi hai use pata hai ki aaj chhutti ka din hai so wo aaj der tak soegi man karta hai ki uske phaile hue nitambon par ek zordar lat marun magar phir khu ko sanbhal leta hoon janta hoon ki ab chahe anchahe sara din isi ke sath guzarna hai so subah subah use chumne mein hi bhalai hai main use chumta hoon lekin subah subah uske munh ki bas mere bhitar ek ajib tarah ki mitli paida kar deti hai man karta hai ki uski bikhri hui deh par ulti kar doon lekin kar nahin pata bahut si chizen hum chahkar bhi nahin kar pate jaise hum chahkar bhi mahngai ko nahin rok pate han, mahngai se yaad aya—do mahine ho gaye bijli ka bil jama kiye is mahine jama na kiya to connection hi kat jayega socha tha is chhutti mein kara hi dunga, har bar tal jata hai halanki bijli pani ka bil jama karana bhi kisi sirdard se kam nahin chhuttiwale din waise bhi aadhe hi din bil jama hote hain phir itni lambi line lagti hai ki puchho mat samjhiye ki aadha din to isi mein gaya main ghaDi dekhta hoon subah ke sat baj rahe hain main patni ko ghar mein sota chhoDkar bahar ghumne nikal jata hoon subah ghumne ke bahane ek panth do kaj ho jate hain darasal ghar kharch kam karne ki kawayad mein do teen mahine pahle patni ne ghar aane wala akhbar band kara diya patni ko lagta hai ki akhbar kharidna fizulkharchi hai aur akhbar paDhna samay ki barbadi akhir hota hi kya hai akhbaron mein ajkal—wahi roz ki basi khabren chori, chhinaiti, balatkar, ghotale lekin subah subah akhbar paDhne ki apni barson purani aadat main chahkar bhi nahin chhoD paya subah subah akhbar na paDho to lagta hai ki din ki theek se shuruat hi nahin hui pahle main subah subah bathrum mein akhbar lekar ghus jata tha aur nityakarm karte hue pura akhbar chat leta tha phir tar o taza hokar bahar aata tha tab tak patni bhi chay banakar le aati thi aur hum itminan se chay pite the lekin ab we sab bite dinon ki baten ho gain ab to subah tahalne ke bahane chay ki dukan par khaDe khaDe hi akhbar bhi paDh leta hoon halanki shuru shuru mein khali pili akhbar paDhne par chaywala bhi mujhe bahut tiraskarpurn nazron se ghurta tha aur bar bar aakar poochh jata tha ki sahab chay chalegi mere mana karne par wo bura sa munh bana leta kabhi kabhi to aisa bhi hua ki usne sidhe sidhe mujhse kah diya ki sahab gahakon ko baithne dijiye dhandhe ka time hai aapka kya hai, aap to mufat mein akhbar paDhkar chale jayenge dhandha to hamara khota hoga uski aisi baton ka mujhe sachmuch bahut bura lagta tha is bure lagne ke chalte hi ab kabhi kabhi main use haf chay ya cigarette ka arDar de deta hoon aur badle mein wo mujhe chupchap akhbar paDhne deta hai halanki haf kap chay ke badle ghante bhar use mera akhbar paDhna ab bhi akharta hai lekin besharmi se mainne ab uski or dhyan dena chhoD diya hai
chay ki dukan par sabse pahle main apna rashiphal dekhta hoon, phir mausam ka haal rashiphal mein likha hai ki aaj koi shubh suchana milegi aur dhanoparjan hoga main sochta hoon ki aaj mahine ki biswin tarikh hai dhanoparjan ki to kahin koi sambhawana nazar nahin aati balki kharch hi kharch hona hai yahi haal mausam ke haal ka hai usmen likha hai asman saf rahega lekin kahin kahin halki bundabandi ho sakti hai magar yahan to subah se hi zabardast barish ke asar nazar aa rahe hain akhbar mein aur bhi tamam khabren hain—masalan petroleum mantari ne petrol aur diesel ke damon mein zabardast baDhottri ke sanket diye hain aur krishai mantari ka kahna hai ki mahngai rokne ke liye unke pas koi jadu ki chhaDi nahin hai kendr iske liye rajy sarkaron ko dosh de raha hai aur rajy sarkaren kendr ko kos rahi hain byan, byan aur byan pura akhbar netaon aur mantriyon ki bayanabaज़i se ata paDa hai main cigarette ke sath haf chay suDakkar akhbar rakh deta hoon aur sochta hoon ab cigarette bhi chhoD hi deni chahiye sehat aur kharch donon lihaz se ye ek achchha wichar hai halanki ye achchha wichar isse pahle bhi mujhe saikDon bar aaya hai lekin us par amal karne ka wichar roz agle din ke liye tal jata hai
main dekhta hoon ghaDi mein aath baj rahe hain aur asman mein badal ghane ho rahe hain mujhe jald hi nha dhokar bijlighar jana hoga warna barish se sab guD gobar ho sakta hai main tez qadmon se ghar ki or laut paDta hoon ghar mein patni rasoi mein uthaptak kar rahi hai ye uski roz ki kheejh hai jo rasoi mein bartanon par nikalti hai jise main roz ki tarah hi sunkar ansuna kar deta hoon lekin tabhi uski khijhabhri awaz aati hai—gas khatm ho gai hai kitne din se kah rahi thi buk karwa do lekin koi sune tab na
—gas ke dam bhi baDh gaye hain main kahta hoon
—to?
—to to kuch nahin aaj bijlighar jana hai bil jama karane
—pahle gas ka kuch intizam karo
main nahane ke liye bathrum mein ghus jata hoon patni ki baDabDahat nal ke pani ke shor mein gum ho jati hai mere nahakar bathrum se bahar aane tak patni ne nashta taiyar kar diya hai nashta karte hue main gungunane lagta hun—gilori bina chatni kaise bani lekin patni mujhe ansuna karte hue baDbaDa rahi hai jaise main use ansuna karte hue gunguna raha hoon
—silenDar jhukakar thoDi si gas nikal i lekin jaise bhi ho dopahar tak kahin se bhi gas ka band o bast karo warna khana bhi nahin ban payega kitni bar kaha ki dusra silenDar buk karwa lo kabhi achanak gas khatm ho jaye to ye din to na dekhana paDe magar sunta kaun hai
—ab theek hai bijlighar jate hue buk karwata aunga
—buk wuk nahin gas aaj hi aani chahiye aur abhi main koi jawab nahin deta aur taiyar hokar ghar se nikal paDta hoon das baj gaye hain bahar halki bundabandi shuru ho gai hai shukr hai ki mausam ko dekhte hue chhatri sath leta aaya tha bijlighar pahunchte pahunchte barish aur bhi tez ho gai lekin bil jama karane walon ki line mein kahin koi kami nahin i bil counter ke pas kichaD hi kichaD ho gaya hai barish ki phuharon se bachne ke liye log thelamthel machaye hain line itni lambi hai ki lagta nahin ki do ghante baad bhi mera number aa payega counter clerk itna sust hai ki ek ek adami par das das minat laga raha hai log kunamuna rahe hain aur sarkari karmchariyon ki kahili ko kos rahe hain beech beech mein koi counter clerk ka jaan pahchanwala aa jata hai to uska kaam out aaf we jakar bhi ho jata hai jisse line mein lage logon ka ghussa baDh jata hai aur halla shuru ho jata hai halanki is halle ka koi asar nahin hota bus log baDbaDate rahte hain aur jaan pahchanwale ya dabang log line ko dhakiyakar apna kaam kara le jate hain main ghaDi dekhi saDhe gyarah hone ko aaye ab bhi panch sat log line mein hain meri bechaini baDh jati hai lagta nahin ki aaj mera number aa payega ek ek pal bhari hota ja raha hai gyarah bajkar pachas minat ho gaye hain do log ab bhi mere aage hain main haDbaDi mein hun—bhaiya zara jaldi karo counter clerk ghuDkar meri or dekhta hai uski ghuDki mein ek hiqarat hai
—kaam hi kar raha hoon koi makkhi to mar nahin raha janta hoon ki clerk se bahs karne ka koi matlab nahin, warna abhi counter band kar dega baharhal, mera number akhiraka aa hi gaya ghaDi mein abhi barah bajne mein panch minat baqi hain main jaise hi bil ki rasid uski or baDhata hoon, wo peshab ka bahana karke uth jata hai main uski is harkat par kheejh uthta hoon par kuch kah nahin pata panch minat baad clerk laghushanka se nipatkar lautta hai aur ailan kar deta hai ki time khatm ho gaya hai, ab kal aana mera dil dhak se rah jata hai do ghante ki mehnat par pani phirta nazar aata hai ab main yachana ki mudra mein aa gaya hoon
—do ghante se khaDa hoon sar pleez jama kar lijiye bil warna
—warna kya? hum bhi do ghante se kaam hi kar rahe hain, koi jhakh to nahin mar rahe itni hi jaldi thi to samay par kyon nahin aye?
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bahar barish aur bhi tez ho gai hai ghaDi saDhe barah baja rahi hai ab mujhe fauran gas station ki or bhagna hoga warna ghar mein khana nahin banega gas station pahunchte pahunchte ek DeDh baj jate hain magar barish thamne ka nam nahin leti main lagbhag aadhe se ziyada bheeng chuka hoon station pahunchne par pata chalta hai ki aaj to chhutti ka din hai he bhagwan, ab kya hoga? mere hath panw phulne lagte hain main aas pas logon se puchhta hoon ririyata hoon ghar mein gas khatm hone ka hawala deta hoon mere pet mein chuhe bhi kudne lage hain ghar mein patni bhi bhukhi hogi, main sochta hoon tabhi biDi ka sutta lagata hua ek dalal type adami mere pas aata hai wo ghurkar ek nazar meri or dekhta hai
—gas chahiye?
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—black mein milega tees parsent ekstra
—ye to bahut ziyada hai kuch kam mein nahin hoga?
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—silenDar ghar pahunchao baqi ke paise ghar par dunga
—silenDar ghar pahunchane ke pachas rupae ekstra lagenge wo meri majburi ka fayda utha raha hai main kahta hun—ye to ziyadati hai
—ziyadati wadti kuch nahin ek to chhutti ka din, upar se mausam dekh rahe hain main jhhallata hoon magar kuch nahin kar pata fauran silenDar ghar pahunchane ko kahkar uske sath chal deta hoon ghaDi mein do baj rahe hain barish ab bhi rukne ka nam nahin le rahi halanki gas mil jane se mere bhitar ek sukun sa aa gaya hai ab barish se bhigi mitti ki sondhi gandh mujhe achchhi lagne lagi hai
silenDar ke sath jaise taise main ghar pahunchta hoon Dhai baj chuke hain patni ka para satwen asman par hai main uski or dhyan nahin deta aur gas wale ka baqaya bhugtan kar use rawana kar deta hoon patni bhi bina mujhse kuch kahe silenDar rasoi mein rakhwa leti hai aur khana banane jut jati hai cooker ki siti aur khane ki khushbu se meri bhookh aur bhi baDh jati hai is beech main ruthi patni ko manane ki yojna banane lagta hoon saDhe teen tak khana bankar taiyar ho jata hai aur main jhatpat khane baith jata hoon khana aaj kuch ziyada hi swadisht lag raha hai main bharpet khakar ek zordar Dakar leta hoon patni bhi chupchap khana khakar bartan sametkar rasoi mein chali jati hai main aram ki mudra mein thoDi der tiwi dekhne ke liye tiwi on karta hoon magar bijli gul hai kambakht bijli mein bhi in dinon sat aath ghante ki katauti hone lagi hai roz roz ke dharna pradarshan ke bawjud bijli ki haalat in dinon bad se badtar hoti ja rahi hai abhi chaar din pahle ghussaye logon ne bijli wibhag ke esDio ki uske daftar mein saream pitai hi kar di magar sarkar ke kan par joon rengne ka nam nahin leti harkar main bistar par lautkar let jata hoon halanki neend phir bhi nahin aati main bar bar ghaDi dekhta hoon saDhe chaar baj chuke hain main patni ko manane ki tarkiben sochta hoon aur uthkar rasoi mein chala aata hoon jahan patni chay bana rahi hai is bechari ko chhutti ke din bhi aram nahin siway subah thoDi der ziyada so lene ke main use pichhe se apni banhon mein bhar leta hoon wo jhunjhla jati hai
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—kya baat hai baDi masti ke mood mein ho patni ki ankhon mein shararat hai uska ghussa kafur ho utha hai main uske isi andaz par reejh uthta hoon tamam pareshaniyan uski ek muskan ke aage bauni ho jati hain main jhat se uske hothon ko choom leta hoon aur use banhon mein bhare bhare nachne lagta hun—chhutti ka din hai ki masti mein hain hum mast mast masti yahux patni pyar se mujhe jhiDak deti hai, ab bachpana chhoDo aur chalo chay piyo main chay ka kap liye uske sath Draingrum mein aa jata hoon ab tak bijli bhi aa gai hai hum tiwi dekhte hue chay pine lagte hain sham ke saDhe panch baj chuke hain patni bazar chalne ki farmaish karne lagti hai main uska mood kharab karna nahin chahta halanki man hi man aaj hue kharch ka hisab lagane lagta hoon ek hi din mein kul chaar hazar ki chapat lag chuki hai khair mausam khushnuma hai aur chhutti ka din kharab nahin karna hai main sochta hoon aur fauran bazar ke liye taiyar hone lagta hoon
hum bazar mein hain sham ke sat baj rahe hain andhera ghirne laga hai bazar mein charon or jagmagahat hai lagta hai jaise mausam ka lutf lene pura shahr gharon se bahar nikal aaya hai nae nae joDe hathon mein hath mein Dale itminan se tahal rahe hain ya icecream kha rahe hain
—kitne din hue itne achchhe mausam mein hamein bajar aaye na patni kahti hai aur main uski han mein han mila deta hoon tahalte tahalte hum ek shaping mall ke samne aa jate hain mall rang birangi roshaniyon mein jagmaga raha hai aur apni bhawyata aur waibhaw se pure shahr ko munh chiDha raha hai shahr mein pichhle do sal mein panch mall aur maltiplaiks khule hain aur sab ek se baDhkar ek is beech rehDi aur khomche walon ki ek puri duniya hi ujaD gai hai aur saptahik hat bazar ka haal bad se badtar ho gaya hai mall ke aas pas rehDi aur khomche lagane ki sakht manahi hai aur kabhi bhool se bhi kisi ne aisa dussahas kar liya to uske liye police ka zalim DanDa to hai hi baharhal, mall ke aage lambi lambi gaDiyon ki line lagi hai aur usmen chaDhte utarte log mujhmen betarah hinabhawana paida kar rahe hain we kisi dusri duniya se aaye hue lagte hain jinki jeben noton se bhari hui hain aur jinke chehre par kahin kisi duःkh, pareshani ya mushkil ke nishan nahin hain
mall ke bhitar jagmag roshaniyon ke beech wastuon ka pura bazar hai jinke upar unki qimton ke taig lage hain yahan har cheez branDeD hai aur brand ki hi qimat hai log yahan chizen apni zarurat ke hisab se nahin, brand ke hisab se lete hain ek branDeD jeans ki qimat chaar hazar, juta sat hazar aur bitte bhar top do hazar mere baghal mein khaDi ek altra mauD laDki jhatpat ek jeans aur top uthati hai aur unhen azmane ke liye trayal room mein ghus jati hai do minat baad jab wo bahar aati hai to main dekhta hoon un kase hue kapDon mein uska sharir jaise phat paDne ka aatur hai Deep nek top aur lo hip jeans mein uska sharir aur bhi dilkash ho utha hai main patni se nazren bachakar uske sharir ke khule gopan angon ko ghurne lagta hoon aur wo credit card se pement kar beparwahi se tahalte hue mall se bahar nikal jati hai patni wahan tamam chizon ko lalchai nigahon se utha uthakar dekh rahi hai phir unki qimaten paDhkar mayus ho jati hai aur chupchap unhen yathasthan rakh deti hai kuch zaruri chizon ki kharidari ke baad hum jagmag raushniyon ke us sansar se bahar aa jate hain ghaDi mein saDhe aath baj rahe hain raste mein golgappe khane ke baad apni tamam tamam adhuri ichchhaun ke sath hum ghar ki or laut paDte hain akhir subah daftar ke liye jaldi uthna bhi to hai
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।